अशोक गुप्ता: कहानी - चाँद पर बुढिया


चाँद की सतह पर जिस इंसान ने सबसे पहले कदम रखा था, वह नील आर्मस्ट्रौंग अभी कुछ दिन पहले अपनी उमर पूरी कर के स्वर्ग लोक पहुंचा. इसके पहले स्वर्ग में न जाने कितने लोग पहुंचे होंगे, लेकिन नील वह एकदम पहला इंसान था जिसने चाँद की धरती को देखा था. यह अनुभव स्वर्ग लोक में किसी देवता को भी नहीं था, क्योंकि चाँद पर न तो सोमरस है न अप्सराएं, तो देवता वहां जाते भी क्यों.. फिर भी उनमें इस बात की बड़ी उत्सुकता जागी कि वह इस नये आये स्वर्गवासी से बात करें और चाँद के बारे में इसके अनुभव जाने.
सारे देवता एक जगह इकठ्ठा हुए और उनके बीच नील को बैठाया गया. सब ने एक एक करके अपने अपने सवाल पूछने शुरू किये, नील सबका जवाब देते रहे. अब उनको भी देवताओं के नादान सवालों का जवाब देने में मज़ा आने लगा था. तभी किसी एक देवता ने पूछा,
“ अरे बताओ नील, क्या तुम्हारी मुलाक़ात चाँद पर उस बुढिया से हुई थी जिसे दूर से सभी लोग चरखा कातते हुए देखते हैं..?”
“ हां क्यों नहीं, मेरी तो उस से खूब बातें भी हुई थी...उससे भेंट तो मेरा अब तक का सबसे अच्छा अनुभव है. उसके आगे तो स्वर्ग का सुख भी फीका है.”
नील की इस बात से देवता थोडा चिढ गये. इंद्र ने अपनी गर्दन घुमा कर यमराज की ओर देखा,
“ क्यों नील, वह बुढिया अभी तक मरी नहीं, कुछ गडबड है क्या यमराज...?”
इसका जवाब यमराज ने तो नहीं, लेकिन सभा में बैठी एक अप्सरा ने दिया. वह इंद्र की खास मन भाई अप्सरा थी,
“ नहीं, गडबड नहीं हैं देवराज, नीचे पृथ्वी पर एक भाव है, प्रेम. नीचे पृथ्वी पर एक अभिशाप भी है, अँधेरा, जो सूर्य देवता के थक कर सो जाने से पैदा होता है. जब अँधेरे से भय पैदा होता है, तब चाँद से वह बुढिया, अपने सफ़ेद काते सूत और ताज़ी रूई से धरती पर उजाला फैलाती है. चरखा चलाते चलाते वह बुढिया गाना भी गाती है जो उजाले के साथ धरती कर पहुँचता है तो धरती पर प्रेम गहरा होता जाता है. प्रेम का अर्थ ही है, उजाला... इसलिए प्रेम को अपने मन में समेटने वाले सभी लोग चाँद की तरफ और उस बुढिया की तरफ भाव विभोर हो कर देखते हैं. बुढिया के गीत के उत्तर में सभी प्रेमी, प्रेम के गीत गाते हैं. इसीलिये, जब पृथ्वी पर कोई प्रेमी अपनी उम्र पूरी कर के देह छोड़ता है, तो उसके प्राणों एक अंश उस बुढिया में जा कर समा जाता है. कितना प्राण पाती है वह बुढिया.. वह मरेगी कैसे..? उसकी ओर से तो निश्चिन्त रहें यमराज...”
अप्सरा के इस जवाब से इंद्र खीझ गये, लेकिन जब ब्रह्मा ने इसका विरोध नहीं किया तो, इन्द्र बेचारे क्या करते. पर इन्द्र तो आखिर देवराज थे, चुप कैसे रह जाते. उन्होंने नील आर्मस्ट्रौंग से एक सवाल और कर दिया,
“ ये चाँद तो दिनोदिन छोटा होता जाता है और गायब भी हो जाता, तब वह बुढिया दब नहीं जाती ?, चलो मरती तो खैर नहीं है.”
“ अरे आप यह भी नहीं जानते इन्द्र भगवान, आप कैसे देवता हैं ? खैर सुनिए;”
यह बुढिया हर महीने में एक दिन रूई जुटाने जाती है. जिस दिन को सब पूर्णमासी कहते हैं, उस दिन बुढिया के पास काम भर को पूरी रूई होती है और चाँद का गोला सबसे बड़ा दिखता है. फिर दिनों-दिन रूई घटती जाती है, चाँद सिकुड़ता जाता है. अमावस्या की रात वह बुढिया पृथ्वी पर सरस्वती के उपासकों से रूई मांगती है, विश्वकर्मा के भक्तों से रूई मांगती है, दुर्गा की प्रतीक नारियों से रूई मानती है, वह कबीरपंथियों से तो खैर मिलती ही है क्योंकि वह तो हैं ही जुलाहे की विचार संतान, और अगली ही रात, अपनी मुट्ठी में कुछ रूई लेकर वह पृथ्वी का अपना दौरा पूरा कर के लौट आती है. फिर एक एक दिन उसके पास रूई का नया भण्डार पहुंचता जाता है, चाँद प्रसन्न हो कर रूई का उजास फैलाने लगता है. पूर्णिमा के दिन बुढिया का भण्डार भर जाता है और उसके पास रूई पहुंचनी बंद हो जाती है. लेकिन बुढिया का सूत काटना बंद नहीं होता, इसलिए रूई घटती भी जाती है. अमावस्या को बुढिया के पास रूई का भंडार खत्म हो जाता है, और वह बुढिया चल पड़ती है रूई जुटाने.. ...तो अब आपकी कुछ जानकारी बढ़ी देव गण...?”
सभी देवताओं ने सिर हिला कर हामी भरी, पर इस बार विष्णु जी ने जुबान खोली. वह बोले,
“ क्या लक्ष्मी के भक्तों के पास नहीं जाती बुढिया..?”
“ हे नारायण, आप का भी हाल पृथ्वीवासी पतियों की तरह है, जो अपनी पत्नियों को नहीं समझते. अरे लक्ष्मी और लक्ष्मीभक्त, दोनों अन्धकार प्रिय होते हैं, उल्लू की तरह. उन पर लक्ष्मी सवार रहती हैं. उनके पास उजली सफेद रूई कहाँ मिलेगी..? विष्णु जी महाराज, आप भी बस...!”
नील की बात सुन कर बहुत से देवता उठ खड़े हुए. वह बहुत अधीर हो उठे,
“ बहुत हुआ देव सुलभ अज्ञान. अब हम चाँद पर जाएंगे. उस बुढिया से भेंट करेंगे. उसके लिये कुछ उपहार भी ले जाएंगे..”
नील हँसे, “ जाइए शौक से, लेकिन उपहार ले जाने के चक्कर में मत रहिएगा. रूई तो कतई नहीं....”
“ क्यों..?” इन्द्र समेत सारे देवता एक साथ बोल पड़े.
“ इसलिए देवगण, क्योंकि उस बुढिया को केवल प्रेम के उपहार ही स्वीकार होते हैं. वह प्रेम की रूई से प्रेम का धागा कातती है, क्योंकि उजाला सिर्फ उसी से फैलता है. बाकी सब उसके लिये बेकार है... और देवलोक में प्रेम कहाँ..!”
इन्द्र की चहेती अप्सरा यकायक हंस पड़ी.
इन्द्र ने आगे कुछ और कहना चाहा, पर नील आर्मस्ट्रौंग ने हाथ उठा कर सभा विसर्जित होने का एलान कर दिया और उठ खड़े हुए.
सभा समाप्त हुई और देवताओं को पहली बार स्वर्ग में होने का पछतावा महसूस होने लगा.

अशोक गुप्ता

जन्म : 29 जनवरी 1947, देहरादून (उत्तरांचल)
भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना, लेख
मुख्य कृतियाँ
उपन्यास : उत्सव अभी शेष है
कहानी संग्रह : इसलिए, तुम घना साया, तिनकों का पुल, हरे रंग का खरगोश, मेरी प्रिय कथाएँ
अन्य : मेग्सेसे पुरस्कार विजेता भारतीय, परमवीर चक्र विजेता
अनुवाद : ‘मेरी आपबीती’ (बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा, डॉटर ऑफ द ईस्ट), ‘टर्निंग प्वाइंट्स’ (ए.पी.जे. अब्दुल कलाम)
सम्मान ‘सारिका’ सर्वभाषा कहानी प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत तथा उपन्यास के लिए हिंदी अकादमी का कृति सम्मान

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ