रक्षा में हत्‍या - मुंशी प्रेमचंद

कथा-सम्राट प्रेमचंद की दुर्लभ एवं असंदर्भित कहानी पुनर्प्रस्तुति – प्रदीप जैन

    ऐसे समय में जब संपादक अपनी सहूलियत के हिसाब से कहानीकार पैदा कर रहा हो और फिर उसकी पैदाइश ही उसके खिलाफ़ खड़ी उसे नकार रही हो, “बहुवचन”, श्री अशोक मिश्र और श्री प्रदीप जैन बधाई के पात्र हैं कि कथा-सम्राट प्रेमचंद की दुर्लभ एवं असंदर्भित कहानी "रक्षा में हत्‍या" हम तक ले कर आये  – शब्दांकन अपने समस्त पाठकों के साथ उन्हें शुभकामनाएं देता है कि भविष्य में और भी ऐसी दुर्लभ कृतियाँ हम तक पहुंचें ।
    प्रेमचंद के जीवन-काल में उनकी अनेक कहानियों के अनुवाद जापानी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में तो हुए ही, साथ ही अनेक भारतीय भाषाओं में भी उनकी कहानियां अनूदित होकर प्रकाशित हुईं।

     प्रेमचंद ने 1928 में नागपुर (महाराष्‍ट्र) के श्री आनंदराव जोशी को अपनी कहानियों का मराठी अनुवाद पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराने की अनुमति प्रदान की थी। प्रेमचंद के देहावसान के पश्‍चात् ‘हंस’ का मई 1937 का अंक ‘प्रेमचंद स्‍मृति अंक’ के रूप में बाबूराव विष्‍णु पराड़करजी के संपादन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें आनंदराव जोशी का लेख ‘प्रेमचंदजी की सर्वोत्‍तम कहानियां’ (पृष्‍ठ 927-929) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस लेख में प्रस्‍तुत विवरण से स्‍पष्‍ट है कि अनुवाद हेतु कहानियों का चयन करने के लिए प्रेमचंद और आनंदराव जोशी के मध्‍य लंबा पत्राचार हुआ था और प्रेमचंद ने अपने पत्रों में अपनी लोकप्रिय कहानियों के शीर्षक एवं स्रोत की स्‍पष्‍ट सूचना आनंदराव जोशी को उपलब्‍ध कराई थी। परिणामस्‍वरूप आनंदराव जोशी ने प्रेमचंद की 14 कहानियों को मराठी में अनूदित करके जून 1929 में पूना के सुप्रसिद्ध चित्रशाला प्रेस से ‘प्रेमचंदाच्‍या गोष्‍ठी, भाग-1’ शीर्षक से प्रकाशित कराया था, जिसमें सम्मिलित कहानियां निम्‍नांकित हैं:- 1. राजा हरदौल, 2. रानी सारंधा, 3. मंदिर और मस्जिद, 4. एक्‍ट्रेस, 5. अग्नि समाधि, 6. विनोद, 7. आत्‍माराम, 8. सुजान भगत, 9. बूढ़ी काकी, 10. दुर्गा का मंदिर, 11. शतरंज के खिलाड़ी, 12. पंच परमेश्‍वर, 13. बड़े घर की बेटी और 14. विध्‍वंस।

     ‘हंस’ के प्रेमचंद स्‍मृति अंक में प्रकाशित आनंदराव जोशी के उपर्युक्‍त संदर्भित लेख में उद्घृत प्रेमचंद के पत्रांशों से सुस्‍पष्‍ट है कि ‘प्रेमचंदाच्‍या गोष्‍ठी, भाग-1’ के प्रकाशनोपरांत आनंदराव जोशी, इस संकलन के द्वितीय भाग हेतु प्रेमचंद की कतिपय अन्‍य कहानियों के मराठी अनुवाद करने की दिशा में सक्रिय हो गए थे। इस हेतु कहानियों का चयन करने के लिए प्रेमचंद से उनका पत्राचार होता रहा था। इसी क्रम में आनंदराव जोशी ने अपने 14 मई, 1930 के पत्र में प्रेमचंद को लिखा- ‘I have already translated ‘पश्‍चाताप’ and ‘पाप का अग्निकुंड’ From ‘नवनिधि’ I also wish to include two stories meant for children ‘रक्षा में हत्‍या’, and ‘सच्‍चाई का उपहार’, The first one was already published in ‘आलाप अंक’, but it could not be included in part 1 for want of space.’ (प्रेमचंद का अप्राप्‍त साहित्‍य, भाग-2, पृ.141)

    उपर्युक्‍त उदाहरण से स्‍पष्‍ट है कि प्रेमचंद की एक कहानी ‘रक्षा में हत्‍या’ का मराठी अनुवाद करके आनंदराव जोशी ने ‘प्रेमचंद गोष्‍ठी, भाग-1’ के प्रकाशन से पूर्व अर्थात् जून 1929 से पूर्व ही ‘आलाप’ अंक में प्रकाशित करा दिया था। इसका सीधा सा अर्थ है कि ‘रक्षा में हत्‍या’ शीर्षक कहानी जून 1929 से पूर्व ही हिंदी में प्रकाशित हो चुकी थी, परंतु आश्‍चर्य का विषय है कि आनंदराव जोशी के प्रेमचंद के नाम लिखे उपर्युक्‍त संदर्भित पत्र को ‘प्रेमचंद का अप्राप्‍त साहित्‍य में संकलित करते समय डॉ. कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद की इस कहानी को खोजने की दिशा में प्रवृत्त होने के स्‍थान पर कहानी पर मात्र निम्‍नांकित पद टिप्‍पणी प्रकाशित कराकर अपने कर्तव्‍य की इतिश्री मान लेते हैं- ‘इस नाम की कोई कहानी उपलब्‍ध नहीं है- डॉ. गोयनका’ (प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य, भाग-2, पृ. 141)

    वास्‍तविकता यह है कि हिंदी पुस्‍तक भंडार, लहेरियासराय से श्रीरामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी के संपादन में प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र ‘बालक के माघ 1983 (जनवरी 1927) के अंक में प्रेमचंद की यह कहानी पृष्‍ठ संख्‍या 2 से 8 तक प्रकाशित हुई थी। विगत 85 वर्षों से ‘बालक’ के पृष्‍ठों में अचीन्‍ही पड़ी, यह दुर्लभ एवं असंदर्भित कहानी ‘रक्षा में हत्या’ प्रेमचंद की दुर्लभ रचनाओं की खोज के प्रति विद्वानों एवं प्रेमचंद विशेषज्ञों की घोर अपेक्षा का ज्‍वलंत प्रमाण है।

कहानी : रक्षा में हत्‍या

    केशव के घर में एक कार्निस के ऊपर एक पंडुक ने अंडे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्‍यामा दोनों बड़े गौर से पंडुक को वहां आते-जाते देखा करते। प्रात:काल दोनों आंखें मलते कार्निस के सामने पहुंच जाते और पंडुक या पंडुकी या दोनों को वहां बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बालकों को न जाने क्‍या मजा मिलता था। दूध और जलेबी की सुध भी न रहती थी। दोनों के मन में भांति-भांति के प्रश्‍न उठते-अंडे कितने बड़े होंगे, किस रंग के होंगे, कितने होंगे क्‍या खाते होंगे, उनमें से बच्‍चे कैसे निकल आवेंगे, बच्‍चों के पंख कैसे निकलेंगे, घोंसला कैसा है पर इन प्रश्‍नों का उत्‍तर देने वाला कोई न था? अम्मा को घर के काम-धंधों से फुरसत न थी- बाबूजी को पढ़ने-लिखने से। दोनों आपस ही में प्रश्‍नोत्‍तर करके अपने मन को संतुष्‍ट कर लिया करते थे।

    श्‍यामा कहती क्‍यों भैया, बच्‍चे निकलकर फुर्र से उड़ जाएंगे? केशव पंडिताई भरे अभिमान से कहता- नहीं री पगली, पहले पंख निकलेंगे। बिना परों के बिचारे कैसे उड़ेंगे। श्‍यामा-बच्‍चों को क्‍या खिलाएगी बिचारी?

    केशव इस जटिल प्रश्‍न का उत्‍तर कुछ न दे सकता।

    इस भांति तीन-चार दिन बीत गए। दोनों बालकों की जिज्ञासा दिन-दिन प्रबल होती जाती थी। अंडों को देखने के लिए वे अधीर हो उठते थे। उन्‍होंने अनुमान किया, अब अवश्‍य बच्‍चे निकल आए होंगे। बच्‍चों के चारे की समस्‍या अब उनके सामने आ खड़ी हुई। पंडुकी बिचारी इतना दान कहां पावेगी कि सारे बच्‍चों का पेट भरे। गरीब बच्‍चे भूख के मारे चूं-चूं कर मर जाएंगे।

    इस विपत्ति की कल्‍पना करके दोनों व्‍याकुल हो गए। दोनों ने निश्‍चय किया कि कार्निस पर थोड़ा सा दाना रख दिया जाए। श्‍यामा प्रसन्‍न होकर बोली- तब तो चिडि़यों को चारे के लिए कहीं उड़कर न जाना पड़ेगा न?

    केशव – नहीं, तब क्‍यों जाएगी।

    श्‍यामा – क्‍यों भैया, बच्‍चों को धूप न लगती होगी?

    केशव का ध्‍यान इस कष्‍ट की ओर न गया था- अवश्‍य कष्‍ट हो रहा होगा। बिचारे प्‍यास के मारे तड़पते होंगे, ऊपर कोई साया भी तो नहीं।

    आखिर यही निश्‍चय हुआ कि घोंसले के ऊपर कपड़े की छत बना देना चाहिए। पानी की प्‍याली और थोड़ा सा चावल रख देने का प्रस्‍ताव भी पास हुआ।

    दोनों बालक बड़े उत्‍साह से काम करने लगे। श्‍यामा माता की आंख बचाकर मटके से चावल निकाल लाई। केशव ने पत्‍थर की प्‍याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और उसे खूब साफ करके उसमें पानी भरा।

    अब चांदनी के लिए कपड़ा कहां से आए? फिर, ऊपर बिना तीलियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और तीलियां खड़ी कैसे होंगी?

    केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में रहा। अंत को उसने यह समस्‍या भी हल कर ली। श्‍यामा से बोला- जाकर कूड़ा फेंकने वाली टोकरी उठा ला। अम्माजी को मत दिखाना।

    श्‍यामा- वह तो बीच से फटी हुई है, उसमें से धूप न जाएगी?

    केशव ने झुंझलाकर कहा – तू टोकरी तो ला, मैं उसका सूराख बंद करने की कोई हिकमत निकालूंगा न।

    श्‍यामा दौड़कर टोकरी उठा लाई। केशव ने उसके सूराख में थोड़ा-सा कागज ठूंस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला- देख, ऐसे ही घोंसले पर इसकी आड़ कर दूंगा। तब कैसे धूप जाएगी? श्‍यामा ने मन में सोचा- भैया कितने चतुर हैं!

    गर्मी के दिन थे। बाबूजी दफ्तर गए हुए थे। माता दोनों बालकों को कमरे में सुलाकर खुद सो गई थी, पर बालकों की आंखों में आज नींद कहां? अम्माजी को बहलाने के लिए दोनों दम साधे, आंखें बंद किए, मौके का इंतजार कर रहे थे। ज्‍योंही मालूम हुआ कि अम्माजी अच्‍छी तरह सो गई, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से द्वार की सिटकनी खोलकर बाहर निकल आए। अंडों की रक्षा करने की तैयारियां होने लगीं।

    केशव कमरे से एक स्‍टूल उठा लाया, पर जब उससे काम न चला, तो नहाने की चौकी लाकर स्‍टूल के नीचे रखी और डरते-डरते स्‍टूल पर चढ़ा। श्‍यामा दोनों हाथों से स्‍टूल को पकड़े हुई थी। स्‍टूल चारों पाए बराबर न होने के कारण, जिस ओर ज्‍यादा दबाव पाता था, जरा-सा हिल जाता था। उस समय केशव को कितना संयम करना पड़ता था, यह उसी का दिल जानता। दोनों हाथों से कार्निस पकड़ लेता और श्‍यामा को दबी आवाज से डांटता अच्‍छी तरह पकड़, नहीं उतरकर बहुत मारूंगा। मगर बिचारी श्‍यामा का मन तो ऊपर कार्निस पर था, बार-बार उसका ध्‍यान, इधर चला जाता और हाथ ढीले पड़ जाते। केशव ने ज्‍यों ही कार्निस पर हाथ रखा, दोनों पंडुक उड़ गए। केशव ने देखा कि कार्निस पर थोड़े-से तिनके बिछे हुए हैं और उस पर तीन अंडे पड़े हैं। जैसे घोंसले पर देखे थे, ऐसा कोई घोंसला नहीं है।

    श्‍यामा ने नीचे से पूछा- कै बच्‍चे हैं भैया?

    केशव- तीन अंडे हैं। अभी बच्‍चे नहीं निकले।

    श्‍यामा- जरा हमें दिखा दो भैया, कितने बड़े हैं?

    केशव-दिखा दूंगा, पहले जरा-चीथड़े ले आ, नीचे बिछा दूं। बिचारे अंडे तिनकों पर पड़े हुए हैं।

    श्‍यामा दौड़कर अपनी पुरानी धोती फाड़कर एक टुकड़ा लाई और केशव ने झुककर कपड़ा ले लिया। उसके कई तह करके उसने एक गद्दी बनाई और उसे तिनकों पर बिछाकर तीनों अंडे, धीरे से उस पर रख दिए।

    श्‍यामा ने फिर कहा- हमको भी दिखा दो भैया?

    केशव-दिखा दूंगा, पहले जरा वह टोकरी तो दे दो, ऊपर साया कर दूं।

    श्‍यामा ने टोकरी नीचे से थमा दी और बोली अब तुम उतर आओ, तो मैं भी देखूं। केशव ने टोकरी को एक टहनी से टिकाकर कहा- जा दाना और पानी की प्‍याली ले आ। मैं उतर जाऊं, तो तुझे दिखा दूंगा।

    श्‍यामा प्‍याली और चावल भी लाई। केशव ने टोकरी के नीचे दोनों चीजें रख दीं और धीरे से उतर आया।

    श्‍यामा ने गिड़गिड़ाकर कहा- अब हमको भी चढ़ा दो भैया।

    केशव- तू गिर पड़ेगी।

    श्‍यामा- न गिरूंगी भैया, तुम नीचे से पकड़े रहना।

    केशव- ना भैया, कहीं तू गिर-गिरा पड़े, तो अम्माजी मेरी चटनी ही बना डालें कि तूने ही चढ़ाया था। क्‍या करेगी देखकर? अब अंडे बड़े आराम से हैं। जब बच्‍चे निकलेंगे, तो उनको पालेंगे।

    दोनों पक्षी बार-बार कार्निस पर आते थे और बिना बैठे ही उड़ जाते थे। केशव ने सोचा, हम लोगों के भय से यह नहीं बैठते। स्‍टूल उठाकर कमरे में रख आया। चौकी जहां-की-तहां रख दी।

    श्‍यामा ने आंखों में आंसू भरकर कहा-तुमने मुझे नहीं दिखाया, मैं अम्माजी से कह दूंगी।

    केशव-अम्माजी से कहेगी, तो बहुत मारूंगा, कहे देता हूं। श्‍यामा- तो तुमने मुझे दिखाया क्‍यों नहीं?

    केशव- और गिर पड़ती तो चार सिर न हो जाते?

    श्‍यामा- हो जाते, हो जाते। देख लेना, मैं कह दूंगी।

    इतने में कोठरी का द्वार खुला और माता ने धूप से आंखों को बचाते हुए कहा-तुम दोनों बाहर कब निकल आए? मैंने मना किया था कि दोपहर को न निकलना, किसने किवाड़ खोला?

    किवाड़ केशव ने खोला था, पर श्‍यामा ने माता से यह बात नहीं की। उसे भय हुआ भैया पिट जाएंगे। केशव दिल में कांप रहा था कि कहीं श्‍यामा कह न दे। अंडे न दिखाए थे, इससे अब इसको श्‍यामा पर विश्‍वास न था। श्‍यामा केवल प्रेमवश चुप थी या इस अपराध में सहयोग के कारण इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। शायद दोनों ही बातें थीं।

    माता ने दोनों बालकों को डांट-डपटकर फिर कमरे में बंद कर दिया और आप धीरे-धीरे उन्‍हें पंखा झलने लगी। अभी केवल दो बजे थे। तेज लू चल रही थी। अबकी दोनों बालकों को नींद आ गई।

    चार बजे एकाएक श्‍यामा की नींद खुली। किवाड़ खुले हुए थे। वह दौड़ी हुई कार्निस के पास आई और ऊपर की ओर ताकने लगी। पंडुकों का पता न था। सहसा उसकी निगाह नीचे गई और वह उलटे पांव बेतहाशा दौड़ती हुई कमरे में जाकर जोर से बोली-भैया, अंडे तो नीचे पड़े हैं। बच्‍चे उड़ गए?

    केशव घबराकर उठा और दौड़ा हुआ बाहर आया, तो क्‍या देखता है कि तीनों अंडे नीचे टूटे पड़े हैं और उनमें से कोई चूने की सी चीज बाहर निकल आई हैं। पानी की प्‍याली भी एक तरफ टूटी पड़ी है।

    उसके चेहरे का रंग उड़ गया। डरे हुए नेत्रों से भूमि की ओर ताकने लगा। श्‍यामा ने पूछा-बच्‍चे कहां उड़ गए भैया?

    केशव ने रुंधे स्‍वर में कहा-अंडे तो फूट गए!

    श्‍यामा-और बच्‍चे कहां गए?

    केशव-तेरे सिर में। देखती नहीं है, अंडों में से उजला-उजला पानी निकल आया है! वही तो दो-चार दिन में बच्‍चे बन जाते।

    माता ने सुई हाथ में लिए हुए पूछा-तुम दोनों वहां धूप में क्‍या कर रहे हो?

    श्‍यामा ने कहा –अम्माजी, चिडि़या के अंडे टूटे पड़े हैं।

    माता ने आकर टूटे हुए अंडों को देखा और गुस्‍से से बोली-तुम लोगों ने अंडों को छुआ होगा।

    अबकी श्‍यामा को भैया पर, जरा भी दया न आई- उसी ने शायद अंडों को इस तरह रख दिया कि वे नीचे गिर पड़़े, इसका उसे दंड मिलना चाहिए, बोली-इन्‍हीं ने अंडों को छेड़ा था अम्माजी।

    माता ने केशव से पूछा- क्‍यों रे?

    केशव भीगी बिल्‍ली बना खड़ा रहा।

    माता – तो वहां पहुंचा कैसे?

    श्‍यामा- चौकी पर स्‍टूल रखकर चढ़े थे अम्माजी।

    माता- इसीलिए तुम दोनों दोपहर को निकले थे।

    श्‍यामा- यहीं ऊपर चढ़े थे अम्माजी।

    केशव- तू स्‍टूल थामे नहीं खड़ी थी।

    श्‍याम- तुम्‍हीं ने तो कहा था।

    माता- तू इतना बड़ा हुआ, तुझे अभी इतना भी नहीं मालूम कि छूने से चिडि़यों के अंडे गंदे हो जाते हैं- चिडि़यां फिर उन्‍हें नहीं सेती।

    श्‍यामा ने डरते-डरते पूछा- तो क्‍या इसीलिए चिडि़यां ने अंडे गिरा दिए हैं अम्माजी?

    माता- और क्‍या करती। केशव के सिर इसका पाप पड़ेगा। हां-हां तीन जानें ले लीं दुष्‍ट ने!

    केशव रुआंसा होकर बोला- मैंने तो केवल अंडों को गद्दी पर रख दिया था अम्माजी!

    माता को हंसी आ गई।

    मगर केशव को कई दिनों तक अपनी भूल पर पश्‍चाताप होता रहा। अंडों की रक्षा करने के भ्रम में, उसने उनका सर्वनाश कर डाला था। इसे याद करके वह कभी-कभी रो पड़ता था।

    दोनों चिडि़यां वहां फिर न दिखाई दीं!

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