हरा समंदर नीला अंबर - सुमन केशरी

suman kesri सुमन केशरी

सुमन केशरी

बिहार के मुज्जफरपुर में जन्मीं सुमन केशरी ने दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से बी.ए. करने के बाद जवाहरलाल नेहरुविश्वविद्यालय से एम. ए और सूरदास के भ्रमरगीत पर शोधकार्य किया.
विस्तृत परिचय...



हरा समंदर नीला अंबर


    हरा समुन्दर गोपी चन्दर  बोल मेरी मछली कितना पानी- लिखने या कहने वाले ने हो ही नहीं सकता कि लक्षद्वीप देखे बिना ही हरे रंग के अथाह जल वाले इस दृष्य की कल्पना कर ली हो...सचमुच अगाती उतरते ही सामने समुद्र देख कर बचपन की यह कविता गले से फूट पड़ी –हरा समुन्दर गोपी चन्दर बोल मेरी मछली कितना पानी- और हवाई जहाज से साथ ही उतरने वाले कुछ यात्रियों ने स्वतः ही सुर में सुर मिला दिया और उसके बाद हम सब ऐसे खामोश हो गए कि जाने किस लोक में कदम रख दिया हो हमने. हम लोगों की कमोबेश वही हालत थी जो प्रवेश द्वार पार करके औचक ही सामने ताजमहल के  आ जाने पर होती है.कितने ही पल हम निःशब्द खड़े सागर को इस तरह निहारते रहे-मानो सामने विधाता ने एक विशाल अखंड पन्ना रख दिया हो, जिसकी हरित आभा सब तरफ़ फैल रही थी.

     लक्षद्वीप अरब सागर में भारत के दक्षिण-पश्चिम में स्थित द्वीप समूह है और इसीलिए इसे लाखों द्वीपों का समूह कहा जाता है कि एक तो यह छोटे बड़े 39 द्वीपों से मिलकर बना है तथा दूसरे संभवतः इस कारण भी कि यहाँ के समुद्र के इतनी कम गहराई में कोरल हैं कि जरा जरा-सी दूरी पर काले काले गोल चकत्ते से दिखाई देते हैं और वे शब्दशः लाखों हैं. इन्हीं कोरलों की वजह से समुद्र हरा दिखाई पड़ता है साधारण नीला या गहरे पानी सरीखा गहरा नीला या काला नहीं.

    25 दिसंबर 2012 को हम यानी कि मैं, पुरूषोत्तम और हमारे बच्चे ऋत्विक और ऋतंभरा कोच्चि से एक बत्तीस सीटर विमान से लक्षद्वीप के एक कदरन बड़े और पूरी तरह बसे द्वीप अगाती पहुंचे. संघशासित लक्षद्वीप की राजधानी कवाराती है, पर वहां हवाई अड्डा नहीं है.  लक्षद्वीप मुस्लिम बहुल स्थान है, जहाँ अधिकतर मलयालम बोली जाती है. मिनिकॉय में महल बोली जाती है. लक्षद्वीप की आबादी करीब 66 हजार है. यूँ  तो यहाँ कोच्चि से जहाज द्वारा भी आया जा सकता है, जो आपको कई द्वीपों का सैर करा देगी, पर हम सी-सिकनेस के डर से हवाई जहाज से  अगाती पहुंचे.अगाती लगभग 8 कि0मी0 लंबा और अधिकतम 1 कि0मी0 चौड़ा द्नीप है जिसकी कुल आबादी लगभग सात हजार है. यह शतप्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला इलाका है. यहाँ की बोली जेसरी है. यहाँ के निवासी मलयालम खूब बोल समझ लेते हैं पर मलयालम भाषी जेसरी बूझ-बोल नहीं पाते.यहाँ लोग बहुत कम हिन्दी जानते हैं, नहीं ही समझिए- अंग्रेजी ही लिंगुआ-फ़्रैंका है. दूकानों के बोर्ड, राजनैतिक-सार्वजनिक और सरकारी पोस्टर आदि या तो मलयालम में या अंग्रेजी में ही दिखेंगे, वैसे भी इन दिनों हिन्दी में लिखे बोर्ड दिखते ही कहाँ हैं? सब ओर अंग्रेजी का बोलबाला है और हो भी क्यों न ? जो भाषा  पेट भरे पूजा-अर्चना भी तो उसी की होगी. सो यहाँ के लोग कोशिश करते हैं अंग्रेजी में बात करने की. हमारे कॉटेज के मालिक मुकबिल मियाँ भी ऐसे ही  हैं. पर उनकी एक और खासियत है- वे  अपनी सारी बात केवल संज्ञा या सर्वनाम के सहारे कह देने में माहिर हैं. क्रिया-क्रियापद तथा  संयाजकों से सर्वथा मुक्त उनकी भाषा-बैननऔर नैनन का अद्बुत संयोजन रचती है- “सर फूड होम फ्रेश डेली थ्री टाइम्स यस ...”यानी साधारण भाषा में लोग इसे यूँ कहना चाहेंगे- “ सर वी विल सर्व यू होम मेड फ़्रेश फ़ूड डेली थ्री टाइम्स ” पर देखिए कितने कम शब्दों में मुक़बिल मियाँ ने अपनी बात कह डाली और वह भी कितनें व्यंजना पूर्ण ढंग से!  आज भी जब कभी पुरूषोत्तम उनके कहे वाक्यों को मिमिकरी करते दुहराते हैं तो हँसते हँसते पेट में बल पड़ जाते हैं. कम लोगों को पता होगा कि पुरूषोत्तम कितनी मजेदार मिमिकरी करते हैं, कैसे कैसे आँखें नचा कर, कंधे उचका कर नकल उतारते हैं!  बच्चों के लिए तो वे शुरू से मजेदार जोकर दोस्त रहे हैं.सभी बच्चे तुरंत उनसे नाता जोड़ लेते हैं. इस यात्रा में उनका यह रूप खूब देखने को मिला.  

      अगाती में  सबसे ज्यादा हमारा ध्यान आकर्षित किया खामोशी से मुस्कुरातीं  स्त्रियों  और लड़कियों ने जिनकी आँखों में हमें जानने की हमसे बात करने की कितनी खामोश चाहत थी. मुझे लगता रहा कि हमारे और उनके बीच एक अलक्ष्य-अलंघ्य कंटीला तार बाँध  दिया गया हो. सभी के सर ढंके हुए. यहाँ तक कि चार-पाँच वर्ष की नन्हीं बच्चियाँ भी सिर उघाड़े शायद ही दिखीं.सभी के  सिर खिजाब या बुर्के से हरदम ढंके रहते थे. याद नहीं पड़ता कि किसी भी लड़की को हमने उघाड़े सिर देखा हो. स्कूल जाते हुए भी वे सफेद हिजाब पहने रखती हैं! हाँ साइकलें खूब चलाती हैं पर दौड़ती भागती- खेलती लड़कियाँ नहीं दिखीं!  लड़के समुद्र में तैरते- अठखेलियाँ करते हैं, लड़कियाँ या औरतें समुद्र को दूर से ही देखा करती हैं अपनी माँ –बहनों , रिश्तेदारों के साथ बैठ कर, वे कभी अकेले भी नहीं दिखीं!

    इस द्वीप की एक खास बात यह भी रही कि हम वहाँ 6 दिन रुके और पर्यटकों को छोड़ बस एक हिन्दू हमें दिखा- जाने वह खुद भी पर्यटक ही था या कोई सरकारी मुलाजिम. 25 दिसंबर यानी कि क्रिसमस के दिन हम वहाँ पहुंचे थे और अपेक्षा कर रहे थे कि देश के बाकी हिस्सों की तरह वहाँ भी खूब धूमधाम होगी. धूमधाम थी भी क्योकि पहुँचने पर   हमने पाया कि हमारे तथाकथित कॉटेज के बाहर समुद्र तट पर खूब जोर शोर से गाने चल रहे हैं लोग बाग बीच पर बैठे हैं और पास ही बने एक और अकेले  कियॉस्क से खरीद कर  खा-पी रहे हैं. पर सावधान यहाँ पीने का मतलब वो नहीं जो आमतौर से होता है-  यहाँ पीना मतलब चाय या कॉफी  पीना या हद सा हद कोक. बताया न कि यह पूरी तरह से मुस्लिम आबादी वाला इलाका है और यहाँ शराब हराम है. अक्सर ही छापे पड़ते हैं. तो उस दिन देर रात तक गाने बजते रहे पर  अगली शाम फिर वही मंजर!  देखा कि फिर से तट पर भीड़ जमा हो रही है और अगले ही पल गाने बजने लगे. वही अल्ला की शान में हम्द और हुजूर की शान में नात ! धुन हिन्दी फिल्मी गानों की बोल धार्मिक!  पूछने पर पता चला कि वह तो रोज का ही सिलसिला था. हर शाम वहाँ हम्द और नात बजते. यहाँ तक कि 27,28,29 दिसंबर के तीन शामों को लोग वहाँ एक बड़े से पर्दे पर टैलेंट शो का पहले से रिकॉर्ड किया हुआ प्रोग्राम देखते रहे और इन प्रोग्रामों में भी लड़के लड़कियों ने, या शायद सारे  प्रतियोगी केवल लड़के ही थे, ने हम्द और नात ही गाए. कोई फिल्मी गीत नहीं न ही कोई लौकिक गान-  हाँ धुन जरूर हिन्दी के मशहूर फिल्मी गीतों की. दरअसल वह अगाती का चौक था जहाँ रोज ही लोग इकठ्ठा होते और सामूहिक रूप से मनोरंजन करते. सच पूछें तो  वहाँ मनोरंजन का कोई और साधन भी तो नहीं है. न कोई सिनेमा हॉल या सभागार जैसा कुछ भी. केबल में चैनल भी गिने चुने, पता नहीं वहाँ सासबहू वाले सीरियल भी आते हैं या नहीं, क्योंकि हमारे कमरे का  केबल कनेक्शन खराब था और  नेट भी कभी-कभार ही चालू होता था.एक तरह से इस दौरान हम अगातीमय हो गए थे इस तरह यहाँ का  समाज कुल मिला कर बेहद धार्मिक और समुदायपरक है.

     अगाती में चारों और केवल नारियल के पेड़ दिखाई पड़ते है. पूरे द्वीप में एक बरगद, एक नीम और चंद करीपत्ता और केले के पेड़. हरियाली के नाम पर बस इतना और कुछ सरकारी कोशिश चंद सब्जियां उगाने की. एक नन्हीं पौध आम की भी दिखी. बड़े जतन से लगाई हुई.चारों ओर रेत ही रेत और उसके पार हरा समुंदर. यह समुंदर जितना सुंदर, द्वीप उतना ही गंदा. सब ओर सूखे खाली डाब, पत्तियां, कूड़ा-कर्कट, पुराने कपड़ों और  पॉलिथीनों से भरे  घूरे .इधर-उधर बकरियां चरती- मिमयातीं और मुर्गे-मुर्गियाँ कूड़ों के ढेर पर किट-किट कुट-कुट करते चारा ढूंढते. सारा द्वीप बुरी तरह से इमारतों से पटा हुआ. नए नए भवन नई नई सज्जा के साथ बन रहे हैं और उनसे उपजा गंद- हर जगह बिखरा हुआ है. यहाँ दो-तीन छोटी बावड़ियाँ भी दिखीं पर उनका पानी बेहद गंदा, पत्तों और काई से भरा, कोई रखरखाव नहीं- बिल्कुल मुख्यभूमि जैसा या शायद उससे भी बदतर. हम भारतीय वैसे भी गंदगी फैलाने और अपनी प्राकृतिक एवं सास्कृतिक धरोहरों को बिगाड़ने- गंवाने में माहिर हैं.यहाँ अपवाद ढूंढना बेकार ही था!

अगाती का बीच बहुत लंबा है आप लगातार चलते चलिए और जब आप उस द्वीप के बीचों-बीच पहुंचेंगे तो वहाँ से समुद्र यूँ दिखेगा जैसे कि आधी कटी  पृथ्वी! 
    सच में बड़ा विचित्र अनुभव है यह. मैं वहाँ कई बार गई और लौटने वाले दिन तो वहीं बैठी रही देर तक, उसे निहारती, उससे विदा लेती...पर क्या विदा ले पाई या मन का एक हिस्सा वहीं छूट गया सागर मीत के पास! बीच पर आपके पैरों के पास से छोटे छोटे सफेद कैंकड़े भागते या किसी बिल में दुबकते दिखेंगे. रात को तो तट पर कैंकड़ों की बहार आ जाती है. कदरन बड़े  कैंकड़े झुण्ड के झुण्ड इधर उधर भागते दिखाई पड़ेंगे..कहीं काट न लें इसका डर बराबर बना रहता है. जाने से पहले किसी ने बताया था कि द्वीप में ढेरों साँप हैं, किन्तु हमें तो एक न दिखा. कमाल की बात यह कि बिल्लियाँ तो कई दिखीं पर कुत्ता एक न मिला.

    लगभग रोज ही हम द्वीप पर दूर  दूर तक पैदल घूमते . रोज नया रास्ता पकड़ते , कभी छोटा आरक्षित वन मिल जाता तो कभी वो झोपड़ीनुमा कारखाना जहाँ एक नाव निर्माणाधीन थी. बन रही नई नकोर नाव जिससे अजीब गंध आती थी- धीरे धीरे सूखती जीवित लकड़ी की, रंग और लोहे की, आग की,  पानी  की . एक दिन यूं ही घूमते घूमते हम कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मा) के कार्यालय के सामने जा पँहुचे. मजदूरों की बस्ती में छोटा-सा कार्यालय! आस पास अंधेरा और दूर दूर तक कोई नहीं. हम देर तक वहाँ खड़े रहे- भारत में कम्यूनिस्ट आंदोलन पर बात करते हुए इस उम्मीद में  कि शायद कोई आ जाए, पर वहाँ का ताला अगले दिन भी  बंद ही मिला...हाँ वहाँ से वापस अपने ठीए पर लौटते हुए कई मस्जिद मिले- चिरागों से जगमगाते...कइयों में तो बकायदा बच्चे पढ़ रहे थे, नौजवान बहसों में उलझे  थे...सामने स्कूटरों-मोटरसाइकलों की कतारें लगी थीं.

    अगाती में घूमने फिरने की जगहें सीमित ही हैं. आप बीच पर चले जाइए और समुद्र के रंगों का लुत्फ उठाइए और मन करे तो  कुछ वाटर स्पोर्ट्स – तैराकी, ग्लास बॉटम बोट से कोरल दर्शन, कयाकिंग और  स्कूबा डाइविंग कीजिए. स्कूबा डाइविंग में निष्णात कमरुद्दीन आपको बढिया ढंग से स्कूबा के बारे में बताते सीखाते हुए समुद्र के भीतर की दुनिया दिखा लाएंगे. वे पूरे लक्षद्वीप में अपनी जानकारी और योग्यता के लिए विख्यात हैं.  इन्हीं कमरुद्दीन महाशय ने मुझे और पुरूषोत्तम को स्कूबा न करने की सलाह दी.मेरा तो सच कहें मन ही बुझ गया. मुझे तैरना आदि भले ही न आता हो पर नई दुनिया देखने का उत्साह मुझे किसी भी हाल में कहीं भी जाने को सदा प्रेरित करता है और इसी कारण डर मेरे मन में समाता ही नहीं. पर ये सिखावनहार भी कम न थे..उन्होने अपने न को किसी भी हाल में हाँ  में न बदला और मैं समुद्र के भीतर जाकर वहाँ की जीवंत दुनिया देखने और उनसे सीधे नाता  जोड़ने से वंचित रह गई. खैर मैंने इस कमी को पूरा किया बंगाराम में जहाँ मैंने  घंटे भर से ज्यादा ही  स्नॉर्क्लिंग की. ऋतंभरा अपने पहले ही प्रयास में स्कूबा डाइविंग करती हुई करीब दस मीटर की गहराई तक गई और  उसने कई तरह की मछलियां, उसके अपने शब्दों में हिलते-डुलते मस्त कोरल और जीवित सीपियां देखीं पर साथ ही देखे लेज़ के खाली पैकेट और प्लास्टिक के चम्मच! उसने बाहर निकल पहले तो जी भर के सैलानियों को कोसा पर  तुरंत ही वह किसी बात को याद करते हुए हंसती हंसती दोहरी हो गई !  उसने बताया कि उसे  समुद्र के भीतर मछलियों के मनुष्य की तरह बोलने का अहसास हुआ!   अचानक उसे पानी के भीतर अजब आवाजें सुनाई पड़ने लगीं, जो उसीसे मुखातिब थीं, लगा मछलियाँ उससे कुछ कह रही हैं- उसे समझ ही न आया कि वह कॉमिक की दुनिया में है या एलिस के वंडरलैंड में!  जहाँ कोई भी प्राणी मनुष्य की तरह हरकत करता है! आश्चर्य के मारे उसके पैर उखड़ गए और वह  डूबने उतराने लगी! तब उसके ट्रेनर और साथी  कमरुद्दीन  लपके और झट सहारा देकर उसे सीधा खड़ा किया और तब ऋतंभरा ने जाना कि मछलियाँ नहीं ये कमरुद्दीन महाशय थे जो लगातार बोल रहे थे !  पानी के भीतर मुँह में ब्रीदिंग ऑपरेटस संभाले ! बच्ची के लिए यह आसमान से वापस जमीन पर आ जाने जैसा अनुभव था..पर हम जानते ही हैं कि यह जगत ही अनोखा है- कभी आसमान पर चढ़ा देता है तो कभी ....

    इस दौरान  जब तक बिटिया रानी  पानी के भीतर थी तब तक मैं उस हरियाले कंत से बातें करने और नाता जोड़ने में लगी रही- यह लिखते हुए उसकी व्याकुल पुकार मुझे सुनाई पड़ रही है- हाँ मुझे फिर लौटना है तुम तक प्रिय!

    जैसा कि ऊपर लिखा है कि लक्षद्वीप अनेक द्वीपों से बना है और इनमें से कुछ  द्वीप एक दूसरे के काफी निकट हैं. अगाती के नजदीक ही कलपेत्ती और बंगाराम हैं. बिना किसी प्रकार के बसावट वाला नन्हा-सा कलपेत्ती तो अगाती के  बिल्कुल निकट है. मोटर बोट द्वारा वहाँ पहुंचने में कुल 10-12 मिनट लगते हैं.सागर के इस हिस्से में ढेरों कछुए हैं. पानी के भीतर उन्हें सरपट तैरते देखना अपने में एक अनूठा अनुभव है.इसे अतिश्योक्ति न माना जाए कि आते जाते हमने सैकड़ों की संख्या में कछुए देखे. द्वीप पर भारत सरकार ने आधिपत्य सूचित करते हुए  अशोकशीर्ष वाला एक स्तंभ लगवाया है. पूरे द्वीप की सैर आप 15 मिनट में कर लेंगे. कुछ जंगली पेड़ हैं तो कुछ नारियल के पेड़. पत्थर से तोड़ तोड़ हमने वहाँ नारियल खाए. छोटी सख्त पर बेहद मीठी गिरी. संभवतः ये पेड़ जंगली हैं- अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो कृषि वैज्ञानिकों के प्रयोगों से अछूती बचीं बिरला प्रजाती(!). कलपेत्ती में हम द्वीप घूमते रहे और इस बात पर खीजते रहे  कि वहाँ शराब की खाली बोतलें, कपड़ों के चिथड़े और पुराने जूते आदि बिखरे पड़े थे. हमें घुमाने ले जाने वालों ने बताया कि वहाँ अगाती के निवासी मौज मस्ती के लिए अक्सर ही आते हैं!

    अगाती और कलपेत्ती के बारे में एक बहुत विचित्र बताऊं- वहाँ छह दिनों में हमने केवल एक चिड़िया देखी.  और तो और वहाँ कौए तक नहीं हैं. इसका संभवतः एक कारण यह हो सकता है कि वहाँ मीठा जल सहज उपलब्ध ही नहीं है. वहाँ लोगों के लिए कुछ कुएं खोदे गए हैं, जिसके पानी को साफ करके प्रयोग में लाया जाता है. तो पानी नहीं तो खेती नहीं , न कोई पेड़ ही- तो चिड़ियाँ खाएंगी क्या और रहेंगी कैसे? इसी तरह कोई जंगली जानवर भी वहाँ नहीं हैं. हाँ बंगाराम में जरूर समुद्री पक्षी दिखे- नजदीक ही बालू के एक लघु द्वीप पर झुंड के झुंड!

     इस यात्रा का सबसे सुन्दर पड़ाव बंगाराम द्वीप था. अगाती से इस जगह पहुंचने के लिए मोटर बोट से करीब डेढ़ घंटे लगते हैं. कहाँ तो इस जगह पर हमें अपनी यात्रा के दूसरे दिन ही जाना था. पर प्राइवेट टूर वालों के चाल-चलगत से भला कौन न परिचित होगा? महोदय हमारे अगाती पहुंचने और उनके द्वारा बुक किए गए तथाकथित “ सी फे़सिंग  हट” में पनाह लेते ही गोया लक्षद्वीप विजय के लिए कूच कर गए. कभी पता चलता कि बंगाराम में किसी बिजनेस मीटिंग में हैं तो कभी कवाराती में! आखिर हमारी यात्रा का अंत भी नजदीक आता जा रहा था और धीरज का भी. तीसरे दिन रात को जब हमारा गुस्सा एकदम शिखर पर पहुंच गया तो हमें बतलाया गया कि हम अगले ही रोज बंगाराम ले जाए जा रहे हैं. सुबह सुबह तैयार होकर बैठे तो ज्ञात हुआ कि हवा की रफ़्तार इतनी तेज है कि मोटरबोट चलाने की अनुमति ही नहीं मिली और अगले दिन भी मौसम में किसी खास बदलाव की संभावना नहीं है. मन एकदम उदास हो गया. लगा कि  बंगाराम देखे बिना ही यहाँ से लौट आना पड़ेगा. खैर हमारी किस्मत इतनी खराब न थी. अगले रोज 10 बजते न बजते हवा की रफ्तार कुछ कम हुई और हम बंगाराम के लिए रवाना हो गए.पर हालत में ज्यादा सुधार न था.
गहरे पानी में पहुंचते ही हमारी नौका छलांगे भरने लगी. लहरें इतनी ऊंची और व्यग्र थीं कि बोट पर बैठे रहना कठिन था. हम लुढ़क-लुढ़क जा रहे थे और तब कुछ ऐसा हुआ कि जी जुड़ा गया और मन से आशीषें फूटने लगीं. ऋत्विक ने बड़ी मजबूती से पापा को पकड़ लिया था और ऋतंभरा ने मुझे. मन में एक फूल दो माली का गीत – तुझे सूरज कहूँ या चंदा की ये पंक्तियाँ – आज उँगली थाम के तेरी/तुझे मैं चलना सिखलाऊँ/कल हाथ पकड़ना मेरा /जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ/तू मिला तो मैं ने पाया/जीने का नया सहारा..गूंजने लगीं और आँखें नम हो आईं. सच संबंधों का राग कैसा विचित्र होता है !
    बंगाराम में अभी कुछ महीने पहले तक एक प्राइवेट  ग्रुप द्वारा बेहद जाना माना शानदार होटल-रिसॉर्ट चलाया जाता था. सरकार से हुए करारनामें के मुताबिक वहाँ सीमित मात्रा में ही भूमिगत  जल निकाला जा सकता था और कूड़ा कचरा फेंकने के लिए भी कुछ शर्तें थी . पर जैसा कि होता है खूब तो पानी निकाला जाने लगा और तमाम कचरा समुद्र की कोख में फेंका जाने लगा और उसके ऊपर से लाइसेंस फीस बढ़ाने को भी होटल वाले राजी नहीं हुए तो मामला न्यायालय पहुंच गया और इन दिनों होटल बंद है और बंगाराम नाआबाद! इस द्वीप का पूरा चक्कर करीब घंटे भर में लगाया जा सकता है. यहाँ तीन तालाब हैं जहाँ आप चिड़ियों को देख सुन सकते हैं- कई बगुले दिखे हमें. एक डीजलचालित छोटा सा पावर प्लांट भी है और कुछ लोग भी जो मच्छी सुखा  रहे थे और डिजाइन डाल डाल के चटाइयाँ बुन रहे थे. मनुष्य कहीं भी हो वह सौन्दर्य की सृष्टि करना चाहता है, भले ही वह उस जगह अकेला ही क्यों न हो और उसके सृजन को देखने –सराहने के लिए कोई दूसरा मौजूद न हो तब भी वह अपने आनंद के लिए भी कुछ नया, कुछ सुंदर रचेगा- यही प्राणी को मनुष्य बनाता है. कुछ स्त्रियाँ नारियल सुखा रही थीं तो कुछ गिरी का चूरा बनाने में व्यस्त थीं.

    द्वीप का चक्कर लगा लेने के बाद हम स्नॉर्क्लिंग के लिए रवाना हुए. वाह बंगाराम का अंडर वाटर वर्ल्ड अद्भुत है. इतने प्रकार की रंगबिरंगी मछलियाँ और कितने तरह के कोरल, सी-कुकुम्बर, सी-हॉर्स! समुद्र के भीतर देखते देखते जाने किस प्रेरणा से मैंने पानी के ऊपर सर निकाला तो जो दिखा वह अवर्णनीय है- सैकड़ों नन्हीं बाल  मछलियाँ सागर की लहर पर सवार हो करीब पाँच-सात फीट ऊपर उठीं और फिर जल में समा गईं..एक रंग-बिरंगी झिलमिल चादर! ऐसा लगा जैसे सैकड़ों मछलियाँ परिंदों के मानिंद हवा में उड़ रही हों....गजब !ऐसे दृष्य की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी!

    शुरु में मेरा तैराक पार्टनर उंगली से इशारा कर कर के मछलियाँ या कोरल आदि मुझे दिखाता था पर कुछ देर बाद किसी नए दृष्य को देख मैं उसका ध्यान आकर्षित करने लगी. सच में एक गजब की बॉंडिंग हममें विकसित हो गई थी उस पल. जहाँ कोरल श्रृंखला थी उससे सट कर ही थी एक गहरी खूब गहरी खाई- एक दम पहाड़ों का सा दृष्य. हम किनारे तक जाकर कोरल देख आए पर गहराई की ओर  देखते ही जी घबराने लगता था...  मैं बहुत देर थी सागर में, पर मन भरता ही न था. प्यास बुझती ही न थी मुझे रह रह कर आस्ट्रेलिया  का ग्रेट रीफ़ बैरियर याद आता रहा. वहाँ स्नॉर्क्लिंग की ऐसी  व्यक्तिगत व्यवस्था नहीं है.यदि आप खुद अच्छे तैराक नहीं हैं और आपने पहले कभी स्नॉर्क्लिंग नहीं की तो आप  कोरल का आनंद केवल ग्लास बॉटम बोट से ही ले सकते हैं वैसे नहीं जैसी मैंने बंगाराम में देखी. लाइफ़ जैकेट पहना कर हमारे तैराक पार्टनर ने हमें इतनी खूबसूरत दुनिया दिखलाई  कि एक बार तो ऐसा लगा कि अब जग-संसार में क्या सच में लौटा जाए? आह कितना विनीत कर देने वाला पल था वो...इतने विराट को सामने ला दिखाने वाला पल...मन को कोमल तान से भर देने वाला पल... प्रकृति के सम्मुख नत मस्तक हो जाने वाला पल..अपने को पा लेने वाला पल..ऐसे ही क्षणों में जयशंकर प्रसाद के मन में यह कविता फूटी होगी- ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे... तो क्या वहाँ से लौटना लिखना होगा....शायद  उसकी जरुरत नहीं...ये जो चित्र देख रहें हैं न उस मनोरम स्थान के इन्हें और सैकड़ों अन्य चित्र बिटिया ऋतंभरा ने लिए हैं बड़े मनोयोग से...

    लक्षद्वीप को देखना  कभी न समाप्त होने वाला अनुभव है- वैसा अनुभव जो आपके साथ रहता हुआ आपको पल पल आपकी जड़ों तक ले जाता है,आपको आकाश की उंचाइयों तक पहुँचाता है और  उस सर्जक के सतत दर्शन करवाता है, जो आपके भीतर और बाहर हर जगह मौजूद है..जरूरत है तो बस यह कि आप उसे महसूस करते रहें.

सुमन केशरी, नई दिल्ली


फोटो: ऋतंभरा

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4 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर यात्रा वृत्तान्त ......वह भी उतने ही सुंदर चित्र के साथ
    आभार....

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  2. सुमन केशरी8 मई 2013, 5:39:00 pm

    यह जान कर बहुत खुशी हो रही है कि आप सबको यह यात्रा वृतांतअच्छा लगा...दरअसल लक्षद्वीप जगह ही ऐसी है कि कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है...

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  3. बहुत ही सुन्दर व विस्तारपूर्वक आपने अपनी लक्षद्वीप यात्रा का वर्णन किया है | मेरे संस्थान के साथी अक्सर अपने एल. ऍफ़.सी टूर पर यहाँ की यात्रा करते हैं इस लिए मैंने आपकी पोस्ट को फेस बुक पर शेयर किया है | मेरे ख्याल से आपकी पोस्ट से बढकर और कहीं भी इससे अच्छी जानकारी समूचे इन्टरनेट पर नहीं है | पोस्ट के लिए आपको साधूवाद |

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    1. S C Joiya जी मैंने लक्षद्वीप की यात्रा बहुत मन से की और यह जगह है ही ऐसी कि लिखने के लिए उंगलियाँ मचलने लगीं। इतनी सुंदर जगह क्या बतलाऊँ। आपको मौका मिले तो एक बार जरूर जाएँ वहाँ।

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