कहानी ... प्लीज मम्मी, किल मी ! - प्रेम भारद्वाज

हिंदी कहानी कहानियां mercy killing प्रेम भारद्वाज Prem Bhardwaj


     मां ने बेटे की आंखों में अथाह दर्द को तैरते देखा... और वह सहसा काल में तब्दील हो गई। उसके स्तनों से दूध के बजाय मौत की धारा फ़ूट पड़ी... जवान बेटा मासूम शिशु बन उसके स्तनों को पूरी तन्मयता के साथ पीने लगा। इस बात से बेखबर होकर कि वह अपने अंत की ओर बढ़ रहा है।
     एक ऐसी अभिशप्त कथा जिसमें न जिंदगी की नूर है, न मौत का स्याहपन। खुशी और गम के बीच कोई नामालूम सी चीज। क्या नाम दिया जाए उसे? शब्दकोश की शरण में निराशा मिली। गुरुओं ने इसे गैरजरूरी प्रश्न बताकर टाल दिया गया।
     शब्द कितने लाचार होते हैं भावों को वहन करने में।
     शब्द से बड़ी व्यथा... व्यथा से भी बड़ी जिंदगी की हकीकत। जिंदगी फ़ंसी है लाचार शब्दों की खोह में। कैसे?
     कुछ इस तरह ...
     हाथ में ममता की खंजर लिए मां औलाद की हत्या करने खतरनाक इरादों से लैस आगे बढ़ती जा रही है। समय के माथे पर पसीना आ गया... रिश्ते पारंपरिक-मर्यादाओं के बिल से निकल कर चूहे, सांप, बिच्छुओं की तरह इधर-उधर भागने लगे मानो कोई जलजला आने वाला हो... मृत्यु संविधान के खंडहर में किसी प्यासी रूह की मानिंद भटकती ‘दर्शन’ के मुंडेर पर जा बैठी... करीब ही जल रही एक चित्ता में भस्म होती देह... उससे उठती धुंआ हवाओं में फ़ैलकर ‘मुक्ति’ लिख रही थी।
     * * *
     ‘मुझे बहुत दर्द हो रहा है मम्मी, बेइंतहां दर्द, और तुम इस बात को अच्छी तरह जानती हो कि मुझसे जरा भी दर्द बर्दाश्त नहीं होता।’
     माँ की नींद अचानक टूट गयी। आंखें खोलीं। सामने बिस्तर पर उनका बेटा अचेत पड़ा था- राज वत्स। उम्र 30 साल। पिछले सात-साल से यूं ही लेटा है। अचेत। स्पंदनहीन। शायद चेतनाविहीन भी। किसी लाश की मानिंद। अक्सर भ्रम होता है- सामने बिस्तर पर कोई लाश तो नहीं पड़ी पड़ा है जिसे वह बेटे के होने की मुगालते में जी रही हैं। बेटा- जो है, और नहीं भी।
     डॉक्टर कहते हैं, इसका दिमाग जिंदा है। जिस्म सुन्न। लेकिन वे दिल के बारे में कुछ नहीं बताते हैं कि क्या वो सुख-दुख अनुभव करता है।
     माँ के पास बोलने के लिए बहुत कुछ है। मन भरा है भाव से। न कहे गए शब्दों से। क्या मालूम यही स्थिति राज वत्स की भी हो। लाचारियों-विवशताओं के कब्रिस्तान में पड़ी दो लाशें ...जहां सन्नाटा है ...केवल सन्नाटा ही ...दिलों को लहूलुहान करता।
     दो लोग महज एक मीटर के फ़ासले पर। मगर कोई संवाद नहीं-दिन, महीने, साल। पूरे सात साल। दोनों के दरम्यान एक शब्द न बोला गया-न सुना ही गया।
     यह सब कुछ उस युग में था जो बहुत वाचाल है। पृथ्वी के दो छोरों पर बैठे लोगों के बीच पल-पल संवाद स्थापित करने का अत्याधाुनिक तकनीक उपलब्ध है। लेकिन माँ-बेटे के बीच तने हुये दुर्भाग्य के वितान पर हर तकनीक किल है। दिल के भीतर गहरे धांसे बेटे से मां की कोई बातचीत नहीं। दिल से दिमाग की दूरी पृथ्वी से अनंत अनाम ग्रह की दूरी बन गई जहां की रोशनी अभी भी पृथ्वी तक नहीं पहुंच पायी है।
     ऐसे में मां ने बेटे के साथ बातचीत का नया रास्ता ढूंढ लिया। वह अपनी आंखें बंद कर उसके सामने इजी चेयर पर बैठ जाती। फि़र कल्पना करने लग जाती कि आज इस खास वक्त में वह उससे क्या कहना चाह रहा होगा? कई बार तो वह काल्पनिक और नहीं बोले गए सवालों का जवाब देने लग जाती। ऐसा भी हुआ कि उनको बड़बड़ाते देखकर डॉक्टर और नर्स भी पूछ बैठते ‘किससे बात कर रही हैं आप? यहां तो कोई भी नहीं है।’
     मां आंचल की कोर से चुपचाप आंसू पोंछने लगती। वो कैसे बताए कि इस कमरे में उसके अलावा भी कोई और है- उनका बेटा राज वत्स।
     क्या हम बोलते तभी हैं जब हम शब्दों को उगल रहे होते हैं? सच तो यह है कि जब हम चुप होते हैं तो उसी समय सबसे ज्यादा बोल रहे होते हैं। मामला सिर्फ़ सुनने और महसूसने के फ़र्क का है। इस फ़र्क को मां से ज्यादा और कौन जानता है? मां को बेटे की आवाजें सुनाई देती जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ वहीं सुनती थी... कभी कुछ पुराना पढ़ा याद आ जाता। काफ्का सबसे ज्यादा ...।
     क्या इस तकलीफ़ से निजात मिल सकती... डाल से हिलग गए फ़ूलों से बिल्कुल अलग बर्ताव करना चाहिए ...। कितना कष्टकर हूं मैं आपके लिए... आप कितने बरस मेरे साथ यों ही रहेंगे? कितने बरस आपको इस तरह होने के साथ मैं रह पाऊंगा... वह एक ऐसा ठहरा है जो कहीं बह नहीं सकता ...
     शाम को मां अक्सर अस्पताल का मुआयना करने निकल जाती। अलबत्ता ये कहना बेहतर होगा कि वो अस्पताल की बीमार जिंदगियों से रू-ब-रू होने जातीं। दूसरों को गमजदा देखकर खुद का गम कुछ हल्का हो जाता है। मगर मां का नहीं हो पाता।
     अस्पताल से बड़ी कोई अध्ययनशाला नहीं ...हर मरीज एक अफ़साना ...जिंदगी का एक दर्दनाक किस्सा। दर्द का पाठ आत्मा को शुध्ह करता है लेकिन यहीं प्रश्न खड़ा होता है-आत्मा क्या है? क्या वही जो गीता में कृष्ण ने बताया है। मां को लगता, महाभारत और गीता एक कथा कहानी के सिवाय कुछ नहीं है। महज तर्क का जंजाल। अपनी बात को प्रमाणित करने की जिद। युध्ह, स्वार्थ, सत्ता और हिंसा को जायज ठहराने की झूठी मगर मजबूत दलील। जिसे धर्म-अध्यात्म की चाशनी में लपेट कर पेश किया गया है ...हिंसा मनुष्य विरोधाी है। वह किसी भी स्थिति में जायज नहीं हो सकती? क्या किसी को तकलीफ़ देना हिंसा नहीं है? किसी को तकलीफ़ सहते मूकदर्शक बन देखते रहना भी क्या हिंसा की परिधिा में आता है?
     रूह को अजर-अमर बनाने वाले ने जिस्म के साथ इतनी नाइंसाफ़ी क्यों की? जिस्म बीमार होगा... जर्जर होगा और एक दिन सब कुछ भस्म। अजब है ईश्वर का दस्तूर। आत्मा तो किसी को कभी दिखाई नहीं देता। उसके होने पर यकीन करना भी कठिन है। सामने मौजूद तो जिस्म ही होता है-
     मां के सामने भी एक जिस्म है। उसके ही वजूद का हिस्सा। वह उसको जिंदा माने या मुर्दा ...माँ का दिल उसको जिंदा मानने के मोह में फ़ंसा है ...लेकिन एक बदमाश दिमाग है जो अक्सर सामने पड़े जिस्म के जीवित होने पर सवाल पैदा करता रहता है।
     चलती सांसों का नाम ही अगर जिंदगी है, तो वही सही।
     बेटे की सांसे बेशक चलती हैं ...
     लेकिन निगाहें न कुछ देखती है, न पहचानती हैं। लाचार सांसें, बेजान धड़कनें ं...पथराई आंखें।
     ‘क्या सोच रही हैं आंटी।’
     बंद कमरे में वह इस सवाल के साथ दाखिल होती है। जस्सी नाम है उसका। केरल की है। उम्र 35 साल। अपनों के नाम पर केवल बूढ़ी मां जो अक्सर बीमार रहती है। शादी इस वजह से नहीं की कि अगर पति मां को साथ रखने को राजी नहीं हुआ तो वो कहां जाएगी बुढ़ापे में?
     ‘कुछ नहीं बेटी, आओ’ मां की तंद्रा टूटी।
     ‘‘कितनी बार समझाया आंटी, जब लाइफ़ के बारे में कुछ समझ में नहीं आए तो सब कुछ ऊपर वाले के भरोसे छोड़ देना चाहिए?’’
     ‘‘सात साल में भरोसा बचा नहीं रह जाता बेटी’’ मां ने गहरी सांस छोड़ी।
     जब भी जस्सी को मौका मिलता, वो मां से मिलने चली आती। उसके साथ क्या रिश्ता है, यह मां समझ नहीं पाती। शायद दर्द के भी रिश्ते होते हैं।
     ‘‘आज आंटी बहुत सैड है।’’
     मुस्करायी थी जस्सी। किसी के लिए भी बहुत कठिन था अस्पताल के उस कक्ष में मुस्कराना जहां जिंदगी ठहर सी गयी थी। दिलासे जहां खुदखुशी कर लेते थे, प्रार्थनाएं अपाहिज हो जातीं थी, मरहम अपना मकसद भूल जाते थे। ये तो जस्सी का हौसला ही था जो वहां दो जिंदा लाशों के बीच मुस्कराने की जुर्रत कर लेती थी। मां बुरा भी नहीं मानती। अलबत्ता उसको जस्सी का इंतजार रहता।
     ‘‘मां कहा करती है-गॉड पर भरोसा नहीं छोड़ना चाहिए। दुःख उसी को मिलता है जिनको गॉड लव करता है। क्या जीसस ने कम दुख झेले।’’ जस्सी अपनी धुन में थी।
     ‘‘जीवन की सच्चाई किताबों और कथा-कहानियों से बाहर होती है जस्सी’’-
     ‘‘आज तुम ज्यादा डिप्रेस हो आंटी,-मगर घबराओ मत, आज हम तुम्हारे बेटे के लिए प्रेयर करेगा-सब ठीक हो जायेगा।’’
     ‘‘अफ़सोस कि मेरा बेटा तुम्हारी प्रार्थनाओं की हद से बाहर आ चुका है।’’ लरजता स्वर। आंखों में आंसू, जिसे जस्सी ने आगे बढ़कर पोंछा। न जाने क्या सोचकर मां जस्सी के सीने से लग फ़फ़क-पड़ी-‘‘बेटी, कोई इम्तहान इतना बड़ा होता है क्या।’’
     जस्सी ने मां को रोने दिया। मन के भीतर जमा गुबार था जो आंसुओं के रूप में बाहर आ रहा था- कतरा-कतरा।
     * * *
     वह पैरों में पंख लगाकर दौड़ता था। उसके हर डग में सदियों की कोशिश छिपी होती।
     वह दौड़ता था। बहुत तेज। दुनिया के एक छोर से दूसरे तक दौड़ते हुए पहुंचने का जोश। धीरे चलने वाले लोग उसे बिल्कुल पसंद नहीं। स्लोनेस के विरू) थी उसकी जीवन शैली। सोच। दर्शन। दलीलें। सब कुछ। कहा करता- ‘रफ्तार ही जीवन है’। शोले के गब्बर वाले अंदाज में-‘जो ठहर गया, समझी वो मर गया।’’
     रेल यात्रा के दौरान अगर एक मिनट के लिए भी ट्रेन रुकती और अगर वह जाग रहा होता तो उतरकर प्लेटफ़ॉर्म पर टहलने लग जाता। अगर प्लेटफ़ार्म नहीं है तो पत्थर की गिट्टियों पर, जमीन पर। लेकिन नीचे उतर कर सिग्नल होने तक टहलता जरूर। रुकना पसंद ही नहीं था उसे।
     मां अक्सर उसे चेताती ‘‘बेटा ऐसे हर जगह नहीं उतरा करते़ ..कभी टेªन आगे चली जाएगी-तुम पीछे छूट जाओगे।’’
     बददुआ नहीं दिया था मां ने। लेकिन वह चेतावनी बददुआ में ही तब्दील हो गई। जिंदगी की टेªन आगे निकल गई। राज पीछे छूट गया-बहुत पीछे। ...जिसे रफ्तार का नशा था, उसकी जिंदगी ठहराव का प्रतीक बन गई। किसी पत्थर के बुत की मानिंद। फ़र्क सिर्फ़ इतना है-राज के भीतर दिल धड़कता है-क्या पता संवेदना भी महफ़ूज हो?
     मां रो रही है। सामने बेटे को हसरत भरी निगाहों से देखते हुए। कमरे में टीवी चल रहा है। ओलंपिक का लाइव शो। सौ, दो सौ और चार सौ मीटर की दौड़ में भारतीय धावक पीछे रह गए-खाली हाथ। ‘देखना मैं फ़र्राटा दौड़ में ओलंपिक से गोल्ड मेडल लेकर लौटूँगा- आकर तेरे ही गले में पहनाऊंगा उस मेडल को। इस धरती पर तूने ही तो मुझे कुछ चलना- दौड़ना सिखाया है। तू मेरी पहली कोच।’’
     जिंदगी में अनगिनत सवाल। मगर दो अहम। पहला। इस पूरी कायनात में मेरा वजूद क्या है, कौन हूं मैं? दूसरा जो मैं नहीं हूं, वह दरअसल है क्या?
     अस्पताल में अलग-अलग चेहरे। हाफ़ंते लड़खड़ाते-रोते बिलखते। अलग-अलग दुख। किस्से। अफ़साने। दुखों का कोलाज। गडमड खयालात। फि़ल्म ‘वेटिंग फ़ार गोदो’ का दृश्य। खंडहर में आती आहटों को सुनकर बेटे का इंतजार कर रही मां को लगता है-वो आ गया जिसकी उससे प्रतीक्षा थी।
     कभी-कभी वो भ्रम का शिकार हो जाती है-आखिर वह इंतजार कर किसका रही है? बेटे के ठीक होने का जो संभव नहीं है। शायद नामुमकिन की हद तक मुश्किल। या फि़र उसकी मौत का जो पीड़ा से मुक्ति का द्वार खोलेगी।
     क्या कोई मां अपने बेटे की मौत का इंतजार कर सकती है। जर्जर काया, बीमारी के दलदल में धंसी जिंदगी, नरक की सी यातना ..एक लापता उम्मीद का इंतजार।
     मां को कई बार लगता, जो जीवन जिया, वह निरर्थक था। हम सब मरे हुए हैं। यह मृत्युबोध कुछ लोगों के लिए प्रतिकार भी है। स्मृति, आवांगर्द, फ़ंतासी, न्यूडिज्म, अतियथार्थ और निहिलिज्म के दरम्यान उलझी जिंदगी। उसको अपने ही कंधों पर अरथी की तरह ढोते लोग। अजीब दृश्य। अपने ही कंधों पर खुद की अर्थी।
     सहसा ही मां का हाथ अपने कंधे पर चला जाता है। इस बात का यकीन करने के लिए कि उसके कंधे पर तो कोई अर्थी नहीं है।
     सोचों की दिशा बदलती है। शरीर के साथ जुड़ी कामनाओं का सच क्या है? शरीर के न रहने पर भी कामनाएं रहती हैं ...वो अनादि हैं। सपनों के वास्ते। लड़ने-भिड़ने के लिए कामनाओं का होना जरूरी है।
     एक सवाल मां को परेशान कर गया। क्या ऐसा नहीं है कि मनुष्य के जीवन की शुरूआत और उसका अवसान दोनों ही इच्छाओं से संचालित होेते हैं।
     इच्छाएं भी हिंसक हुआ करती हैं। कई बार इसकी चपेट में वे अपने आ जाते हैं जिनको हम बेहद चाहते हैं। कुछ मामलों में अगर हम इच्छा की जगह प्रेम को रख दें तो ज्यादा फ़र्क नहीं पड़ता।
     स्वाति नाम था उसका। सबको लगा था वह है राज वत्स को प्रेम करती है।
     राज को रफ्तार से प्रेम था। स्वाति को राज से। राज कम से कम समय में दौड़ कर दुनिया को लांघ लेना चाहता था। स्वाति राज को ही बांहों में भरकर दुनिया को अपने भीतर उतार-लेना चाहती थी। तब जीवन में आने वाले मझदार और भंवर का इल्म नहीं था उसको।
     राज जब मुर्दा सा बिस्तर पर लेटा था। तब बहुत रोई भी स्वाति। बिलख-बिलख कर। प्रथम झटका था वह लगा जैसे उसकी दुनिया ही लूट गई।
     दो साल तक दोस्त आए। तीन साल तक रिश्तेदार। स्वाति इनसे ज्यादा महान निकली। वह चार सालों तक यहां आती रही-।
     तीन साल पहले जब स्वाति मिलने आयी तब उसके चेहरे पर दुखों का कोई भाव नहीं था। भावविहीन चेहरा। एकदम सपाट।
     वह आकर चुपचाप बैठ गई। खामोशी। कई पल यूं ही सरकते रहे। पहल मां ने की ‘‘कैसी हो? बहुत दिनों बाद आयी हो-शायद छह महीने बाद।’’
     ‘‘यहां आने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है आंटी। राज की हालत देखकर लगता नहीं कि यह कभी ठीक भी होगा। सच तो यह है कि हालात के तपते रेस्तिान में प्यार भी सूखने लगा’’
     ‘‘रेगिस्तान की क्या हस्ती कि वो प्यार के फ़ूल को मुरझा दे।’’
     ‘‘किस जमाने की बात कर रही हैं आप। यह देवदास नहीं, देव डी का जमाना है। प्रेम के लिए खुद को तबाह करना पागलपन और मूर्खता है - मैं पागल नहीं हूं।’’
     ‘बिना पागलपन के प्रेम कैसा।’
     ‘मेरे जैसा-’
     मां सन्न रह गयी स्वाति का जवाब सुनकर। कुछ समझी, बहुत कुछ नहीं भी। कुछ देर की चुप्पी। आंखों ने आंखों से बातें की। स्वाति जाने से पहले एक कार्ड राज के सिरहाने रख गई। फि़र वह तेजी से मुड़ती हुए कमरे से बाहर चली गई-
     वह स्वाति की शादी का कार्ड था। 16 अप्रैल को शादी है। कार्ड में एक खत भी था।
     मां ने खत पढ़ना शुरू किया।
     डियर राज,
     हर रिश्ते की एक उम्र होती है। हमारे रिश्ते की भी थी शायद। वह मेरे शादी के इस पैगाम के साथ खत्म हो रही है। दस सालों का रिश्ता। दुख तो होता है-मगर किया भी क्या जा सकता है। मैं सावि=ी नहीं जो तुम्हारे लिए यमराज से लड़ जाऊं। मेरे सपने हैं-अरमान भी। उन्हें मुझे पूरे करने हैं। जीना तो पड़ता ही है। मैं कोई माफ़ंी नहीं मांगने जा रही। तुम नियति के आगे लाचार हो। मैं अपनी महत्वाकांक्षाओं के आगे। गलती किसी की नहीं। सच कहूं तो तुमसे बिछड़ने या बेबाक ढंग से कहें तो तुमको मझदार में छोड़ने, बेकाई करने का मुझे दुख है। मैं तो तुम्हारे साथ मझदार में डूबना चाहती थी। लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पायी। बड़ी खुशी के लिए छोटे दुख तो झेलने ही पड़ते हैं। क्या पता जिसे रोशनी समझ तुम्हारे अंधाकार से निकल रही हूँ वह रोशनी अंधाकार से भी बदतर हो। रोशनी का भी अंधोरा होता हैं। बहरहाल, साहिर का वो गाना तो याद होगा ‘वो अफ़साना जिसे अंजाम तक ले जाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देखकर छोड़ना बेहतर।’
     तो बेहतरी के लिए ही
     अलविदा। (जो मोड़
     खूबसूरत नहीं।)
     स्वाति।
     पुनश्चः मैं जानती हूं, तुम इसे पढ़ नहीं सकते। सुन भी नहीं सकते। मगर मैं चाहती हूं इसे तुम्हारी मां पढ़कर सुनाए, मुझे अच्छा लगेगा। न जाने क्यों मुझे यकीन है मेरी भावनाएं तुम तक पहुंच जाएंगी।
     स्वाति की इच्छा का पूरा सम्मान करते हुए मां ने वह खत ऊंचे स्वर में पढ़कर सुनाया। फि़र गौर से बेटे की ओर देखा ...प्रतिक्रिया जानने के लिए। कोई भाव नहीं। सिर्फ़ शून्य। महाशून्य। ऐसा क्यों होता है, जिसे दर्द भी बर्दाश्त नहीं होता उसके लिए ही सितम का अंतहीन सिलसिला नसीब बन जाता है।
     बगल के कमरे में हेेम भर्ती है। पत्रकार है। बहुत संवेदनशील। सच्चा। दुनिया में अकेला है। इसलिए अपनी ही धुन में रहता है। मां की इच्छा हुई, उससे मिला जाए। दो दुखी लोगों का मिलना ही जख्मों का मरहम बन जाता है। जख्म भरे या नहीं, थोड़ी राहत जरूर महसूस होती है।
     हेम शायद बाथरूम में था। दरवाजा खुला था। और उसके बिस्तर पर एक डायरी भी। पहली पंक्ति ही ‘बीमारी’ से शुरू हो रही थी। मां उसे पढ़ने की इच्छा का संवरण नहीं कर पाई। लिखा था-
     आदमी बीमार है या समय ही बीमार हो गया है, जिसकी नब्ज पर हाथ रखने वाला कोई नहीं। कोई बताने वाला नहीं कि इस दर्द की दवा क्या है-समय का अर्थ इस देश से भी लिया जा सकता है। देश की सेहत बहुत अच्छी नहीं है। वह किसी अस्पताल, किसी ट्रामा सेंटर, बिस्तर पर नहीं पड़ा है-मगर है बीमार। किसी को फि़क्र नहीं। इस देश में कोई चीज अपनी जगह नहीं ...। रोटी चाहिए, वह नहीं, इंसाफ़ की सांसें फ़ूल रही है। ईमानदारी कोमा में, मौत का कोई भी पल हो सकता है-। सच्चाई को कैंसर हो गया है-उसे मरने से कोई नहीं बचा सकता। आजाद देश में सब आजाद हैं-लेकिन हकीकतन हर कोई अपनी ही आजादी का गुलाम बन गया है। यह नए ढंग की गुलामी है जो गुलामी लगती भी नहीं और जो हालात हैं उसका मतलब आजादी होता नहीं। अरुणा शानबाग को इच्छा मृत्यु की इजाजत नहीं जिसके मरने पर रोने वाला कोई नहीं। जिसके न जीने का मतलब है, न मरने का। वैसे भी जिनके सपने मर जाते हैं उनके धारती पर बने रहने का कोई औचित्य रह नहीं जाता।
     बाथरूम का दरवाजा खुलता है। होठों पर मुस्कान फ़ैल जाती है- ‘अरे, आंटी कब आयीं?’
     ‘‘तुम्हारी डायरी बिना तुमसे पूछे पढ़ रही थी’ मां ने उस प्रश्न का उत्तर देना जैसे मुनासिब नहीं समझा।
     ‘यह डायरी नहीं, सच्चाई का दस्तावेज है’-
     ‘इसमें व्यक्ति नहीं समाज और देश है’
     ‘जमीन से जुड़े लोगों की सोच आसमान जैसी होती है।’
     ‘और उनका क्या जो जमीन में धंसते ही नहीं, उसमें दफ़न हो जाते हैं ...जो कहीं किसी को दिखाई भी नहीं देते।’
     ‘नियति। अपना-अपना नसीब’
     ‘‘नहीं मानता नसीब को--तकदीर से तदबीर बड़ी होती है।’
     ‘मुझे देखकर भी क्या यही बात तुम दावे के साथ कह सकते हो-’
     ‘आंटी, आप मेरे लिए एक ऐसा प्रश्न हैं जिसका मैं उत्तर ढूंढ नहीं पा रहा हूं’
     ‘ये तुम्हारे पेशे का दोष है ..तुम पत्रकार लोग सवाल बहुत उछालते हो--बड़ा आसान होता है सवाल करना। जब उसका जवाब तलाशना पड़े तो पता चलता है .जवाब की खोज में गौतम को बुध्ह बनना पड़ता है।
     सांसों की डोर से बंधे शरीर को घसीटना नरक की यातना झेलने सरीखा होता है। मां को अस्पताल से बाहर अक्सर एक कुत्ता दिखाई देता है। उसकी पिछली टांग टूटी है ...सिर पर एक बड़ा घाव... मवाद से भरा... वह चल नहीं पाता। बामुश्किल रेंगता है ...उस कुत्ते को जीवित नहीं कहा जा सकता। मरा भी नहीं माना जा सकता .....मां को उस पर तरस भी आता है। उसका कोई इलाज क्यों नहीं करता? वह जिंदा ही क्यों है? मर क्यों नहीं जाता? मां ने उस कुत्ते की आंखों को बहुत गौर से देखा है- तकलीफ़ से लबरेज। मुक्ति की चाहत से भरी बुझी-बुझी थकी आंखें,। वह घायल और लाचार कुत्ता खुद मरने की जुगत भी तो नहीं कर सकता?
     फि़र ऐसा ही हुआ कि बिस्तर पर पड़े राज के चहरे को गौर से देखते हुए अचानक उस मरियल घायल कुत्ते की बेबस आंखें दिखाई देने लग जाती। दर्द से मुक्ति की चाहत लिए। किसी ने कहा- संजय लीला भंसाली की फि़ल्म ‘गुजारिश’ आयी है जो इच्छा-मृत्यु पर आधाारित है। उसे लगा, यह फि़ल्म उसे देखनी चाहिए। वह गयी भी। फि़ल्म को देखते हुए वह बहुत रोयी थी। ईश्वर क्या वाकई जादूगर है। क्या जादू का मतलब मनोरंजन होता है? ऐसा जादू किस काम का जो किसी के हित में न हो? लोक कथाओं की तरह कोई जादूगर उसको मिल जाता, जो उसके राज को ठीक कर देता।

* * *

     रोते-रोते मां को कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। मन का द्वन्द्व स्वप्न में ढ़ल गया।
     राज उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा है। आंसुओं से भरा चेहरा। उसकी जुबान से ही नहीं पूरे वजूद से एक फ़रियाद फ़ूट रही है-‘मां, तू इतनी स्वार्थी क्यों हो गई है? मुझसे अब बर्दाश्त नहीं होता। लाश की तरह तेरे सामने पड़े रहना सहन नहीं होता-हर पल तुझे रोते देखना भी असहनीय हो चला है। मोह से बाहर निकल। मोह से बड़ा स्वार्थ दुनिया में कुछ नहीं।’
     ‘तू चाहता क्या है?’
     ‘मुक्ति।’
     ‘किससे’
     ‘दर्द और बेशक इस देह से’
     ‘मुझे क्या करना होगा’
     ‘मैं लाचार हूं। तू तो नहीं-। प्लीज मम्मी किल मी-किल मी मम्मी,-प्लीज’
     ‘नहीं-नहीं नहीं-’
     सपना टूटता है। सामने राज अचेत लेटा है-जैसे पिछले सात सालों से। वह आगे बढ़कर उसका करवट बदलती है। सपने की बातों को झटकने की कोशिश।
     लेकिन यह सपना उसे बार-बार आने लगा। रोते बेटे की एक ही गुजारिश ‘‘प्लीज मम्मी किल मी’’। कुछ समय बाद ऐसा हुआ कि यह फ़रियाद जागते हुए भी दिमाग की दीवारों पर दस्तक देने लगा। कहीं राज यही तो नहीं चाहता, क्या मालूम उसकी यही इच्छा हो।
     दिल पर पत्थर रखकर उसने बेटे की इच्छा मृत्यु की याचिका अदालत में दाखिल की। महीने भर बाद इच्छा मृत्यु को अपराधा और समाज हित में अनुचित बताते हुए अदालत ने अपील ठुकरा दी।
     मां परेशान। सोचने लगी। किसी जमाने में इच्छामृत्यु का वरदान मिलता था कठिन तपस्या के बाद। मगर आज वह अपराध है।
     मरने का अधिकार नहीं। जीने के हालात नहीं। इन दोनों के बीच फ़ंसी जिंदगी।
     कानून की जटिलताएं। आत्महत्या और इच्छामृत्यु एक नहीं। भले ही दोनों में मृत्यु का वरण है। अदालत के सामने दो मुद्दे। जीवन के अधिकार को कानूनी मान्यता। इच्छामृत्यु भी आत्महत्या के दायरे मे। आत्महत्या अपराध है, इस आधार पर इच्छामृत्यु की इजाजत नहीं दी जा सकती।
     परेशान मां बगल के कमरे में चली गई-हेम के पास। वह उसे देखकर मुस्कराती है।
     ‘जब दर्द हद से गुजर जाए तो वह किसी आवरण से नहीं ढक पाता ...मुस्कराहट से भी नहीं।’ हेम बोला।
     ‘अदालत ने मेरे बेटे की इच्छामृत्यु की अपील ठुकरा दी है। कहा है- मरण का वरण अपराध है।’
     ‘गलती अदालत या व्यवस्था की नहीं, हमारी है आंटी।’
     ‘मतलब’
     ‘‘अगर मरण का वरण अपराध है तो हम महामूर्ख हैं जो अपराध करने की इजाजत उस व्यवस्था से मांग रहे हैं जो सबसे बड़ा अपराधी है। भूख से मरते लोग, लू, शीत लहर और बाढ़ में मरते लोग- साल-दर-साल विदर्भ में लाखों किसानों की खुदकुशी। कौन है इन मौतों का जिम्मेदार। अकबर का एलान-‘सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा ..और हम अनारकली तूझे जीने नहीं देंगे’ ...पता है आंटी, 1984 के दंगे में 4 हजार लोग, 2002 के दंगों में भी हजारों मारे गए। इस देश में जो ईमानदार हैं उन्हें भ्रष्टाचार मारती है- हर रोज, हर जगह।’’
     ‘मेरे सामने देश का बदरंग मानचि मत रखो- साफ़-साफ़ बताओ मैं अब क्या करूं-’’
     ‘आप तो उस राह पर चल पड़ी हैं जिस पर चलने की हिम्मत आज तक किसी मां ने नहीं की होगी। एक मां अपने बेटे की मौत की फ़रियाद कर रही है। दरअसल, आप उस मकान में रहने को अभिशप्त हैं जो बंद गली का आखिरी मकान है- आगे का रास्ता बंद है। कहीं लिखा नहीं है मगर मान लीजिए’
     ‘कोई भी रास्ता पूरी तरह से बंद नहीं होता। अंधेरे में भी चल पड़ो तो रास्ता खुद-ब-खुद निकल आता है।’
     ‘क्या करेंगी आप’
     ‘अंधेरे में चलूंगी’
     ‘यानी’
     ‘मैं राष्ट्रपति के पास अपील करूंगी’
     ‘उसी राष्ट्रपति के पास जिनके पास पहले से ही कई आतंकवादियों और खूंखार अपराधियों की दया याचिकाएं सालों से सड़ रही हैं। फ़ांसी को उम्र कैद में बदलने की मांग। वे मृत्यु से बचना चाहते हैं। इसलिए फ़रियाद की है। आपको बेटे की मौत चाहिए। मंजूरी किसी को नहीं। बहरहाल परसों मैं इस अस्पताल से डिस्चार्ज हो रहा हूं। अब वही रिपोर्टिंग। घूम-घूम कर लोगों से मिलना। आपको अपनी कुछ रिपोर्टिंग मेल करूंगा।’
     ऐसा पहली बार हुआ कि हेम की बातें मां को अच्छी नहीं लगी। शायद दूसरी तरह की अपेक्षाएं रही होगी। उजालों की उम्मीद ने अंधेरे को और गहरा कर दिया। सब कुछ जब्त करती हुई वह बेटे के पास लौट आयी।
     दो महीने बाद वह राष्ट्रपति के सामने थी। बेटे की इच्छा मृत्यु के साथ। संयोग से राष्ट्रपति महिला थीं, एक तीखा सवाल ‘क्या ये आपका अपना बेटा है।
     -‘जी’
     ‘ऐसा होता नहीं है।’
     ‘मगर है-’
     ‘हैरत। दुनिया का आठवां नहीं पहला आश्चर्य। मां मैं भी हूं-पता नहीं इसे आपका साहस कहूं, पागलपन या कुछ और। मां की ममता तो नहीं कह पाऊंगी।’
     ‘आप जहां खड़ी हैं वहां से मेरा दर्द नजर नहीं आएगा। कुछ भी कहिये, मुझे कोई एतराज नहीं। हाथ जोड़कर यही विनती है कि मेरे बेटे को मौत बख्श दें।’
     राष्ट्रपति कुछ नहीं बोलीं। आंखों में हैरत। हैरत में नमी। नमी में पता नहीं कैसे-कैसे तैरते भाव। उनमें से एक मां की ममता को कटघरे में खड़ा करने का भाव भी।
     कानून अपने ढंग से काम करता है। व्यवस्था की अपनी चाल होती है। इनके बीच जकड़ा आदमी अपनी बदहाली को नियति मानने को मजबूर। मां का अथक संघर्ष जारी था। वह उस चौखट से टकरा रही थी जहां से उसे कुछ हासिल होना मुश्किल था।
     मंदिर-मस्जिदों में उसने जाना बहुत पहले ही छोड़ दिया था। ईश्वर पर भरोसा भी नहीं रहा। जो इतना क्रूर, तटस्थ, संवेदनहीन और लाचारी का बुत बना हो वो हमारे देश की सरकार या व्यवस्था तो हो सकती है ईश्वर नहीं, मां ऐसा सोचती।
     लेकिन क्या किया जाए कि वे इन्हीं पत्थरों में संवेदना की नमी भी ढूंढ़ रही थीं। कानून की मोटी किताबें, घूमावदार उलझी परिभाषाएं, धाराएं, इन सबके बीच वह अपने लिए जगह तलाश रही थीं। वह वहां खड़ी होकर चीख रही थीं जहां बोर्ड पर लिखा था-‘यहां आवाज करना मना है।’
     जो कि होना ही था। राष्ट्रपति ने उसके बेटे की इच्छामृत्यु को मंजूरी नहीं दी। एक टिप्पणी जड़ दी -‘हमारी संवेदना आपके साथ है। लेकिन क्रूरता की इजाजत देना संभव नहीं।’
     बेहद गुस्सा आया था मां को। कैसी संवेदना? कैसा साथ? क्या क्रूरता कई बार बदली हुई परिस्थितियों में अपनी परिभाषा के बाहर नहीं आ जाती। प्रसव वेदना से गुजरना भी असहनीय दर्द को झेलना होता है। बहुत तकलीफ़देह। क्या उसे भी क्रूरता कहा जा सकता है जो पति और बच्चा देता है। नहीं, यह पीड़ा मुक्ति का द्वार खोलती है-बच्चा गर्भ के अंधोरों से निकलकर नई दुनिया में आता है। उजालों के संसार में -
     डॉक्टर और उनका विज्ञान कुछ भी कहे। अगर उनका बेटा सपने में आकर कह रहा है कि उसे दर्द हो रहा है, तो हो रहा है। मुझे उसकी मुक्ति के लिए एक बार फि़र प्रसव वेदना से गुजरना होगा ...।
     उन दिनों नवरात्रि चल रही थी। दुर्गा की प्रतिमाएं जगह-जगह स्थापित की गई थीं। एक प्रतिमा अस्पताल परिसर में भी थी। शाम को न जाने क्या सोचकर मां वहां गई। एक जमाने बाद दुर्गा की प्रतिमा के आगे हाथ जोड़े। प्रार्थना की। कुछ मांगा। गेट के बाहर वह मरियल कुत्ता भी दिखाई दिया। मुक्ति की चाह में रेंगता। चेहरे पर बेहद गंभीरता और सख्त भाव लिए वह बेटे के कमरे में लौट आई। दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था-एक तफ़ूान सा।
     मां ने कमरे की लाइट ऑफ़ कर दी। खुद बेटे के बिस्तर पर चढ़ गई। सालों से अचेत पड़े बेटे के सिर को गोद में रखा। उसके माथे को सहलाती रही। उसे चूमती रही। उस क्षण को याद किया जब 30 साल पहले उसे नवरात्रि में ही जन्म दिया था। अचानक वह उस पुरानी प्रसव वेदना की मनोदशा में पहुंच गई। आंखों में वही दर्द। चेहरे पर वहीं टीस। सब कुछ 30 साल पुराना। राज को जन्म देते वक्त जैसा। फि़र न जाने क्या सोचकर उसने बेटे के बदन से सारे वस्त्र उतार दिए। यही काम खुद के साथ किया। अब बेटे का सिर उनकी दोनों जांघों के बीच था,... और मां के एक हाथ में ...फि़र ..
     अगली सुबह अस्पताल के लोगों को राहत देने वाली थी। अजीब सी राहत। दर्द में लिपटी। उदासी में डूबी। तरह-तरह की बातें। राज ने अपने दर्द से मुक्ति पा ली। अंतहीन इंतजार का अंत हो गया था। पोस्टमार्टम की जरूरत नहीं समझी गई। अस्पताल के कुछ लोगों ने कल मां को दुर्गा के सामने प्रार्थना करते देखा। उसने उनकी प्रार्थना सुन ली। जो काम कानून सरकार और व्यवस्था नहीं कर सकी उसे नियति ने कर डाला। बातें थी, बातें इसी तरह होती हैं। पानी पर लाठी पीटने सदृश।
     लेकिन मां कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। अस्पताल के लोगों ने उन्हें बहुत तलाशा। वह कहीं नहीं मिली। अलबत्ता उनका लैपटॉप ...उसी कमरे में था। उसे ऑन किया गया ..क्या पता उसमें कोई जानकारी हो। सीधे मां का जी-मेल एकाउंट खुल गया। उसमें एक मेल आया था-हेम का। जस्सी ने उस मेल को खोला ...।
     परेशान आंटी
     प्रणाम
     मैं विदर्भ में आया हूं। जहां पिछले दस सालों में लाखों किसानों ने आत्महत्या की। अभी मेरे सामने पांच लोगों वाले परिवार के मुखिया की लाश पड़ी है। अब इस परिवार का क्या होगा ...मुआवजा मिलेगा ...लाख रुपया। यही राशि पहले मिल जाती तो आत्महत्या की नौबत क्यों आती? यहां आकर मैंने देखा-आत्महत्या और हत्या का फ़र्क मिट गया है। ये आत्महत्या नहीं, हत्याएं हैं जो सरकार कर रही है और जो अपराध की श्रेणी में भी आता है-मगर किसी की क्या मजाल कि सरकार को कटघरे में खड़ा कर उस पर हत्या का मुकदमा चलाए। लेकिन यही सरकार, यह व्यवस्था, तेरे लाश बने बेटे को इच्छामृत्यु की इजाजत नहीं देगी ...आज का अखबार तो देखा होगा एक युवक ने हाईकोर्ट के सामने इसलिए आत्मदाह कर लिया क्योंकि उसको इंसाफ़ नहीं मिला ...’’
     -‘हेम चंद पाण्डेय
     जस्सी ने व्यक्तिगत तौर पर राज के अंतिम संस्कार की तैयारी की। उसने हेम को मेल भी किया-राज की मौत हो चुकी है-मां लापता है-उनको ढूंढ़ने में मदद करे।
     वक्त ने करवट ली। जिंदगी के बिस्तर पर गहरे जख्म की सिलवटें पड़ गयी। ममत्व की बाढ़ ने संतुलन का बांध तोड़ दिया-पानी पागलों की तरह भटकने लगा।
     मां का स्तन सुख चुका था। उसने शिशु को आवाज दिया और प्रसव वेदना से तड़पने लगी। मालूम नहीं शिशु ने उसकी आवाज सुनी या नहीं मगर वह सामने नहीं आया। मां की पुकार जारी थी... शिशु दूर नहीं उसके भीतर ही तो था... जो अब बाहर नहीं आना चाहता था। गलियों में घूमता एक जोगी कबीर के पद गाता हुआ अपनी धुन में टहल रहा था-‘मुझको क्या ढूंढे रे बंदें मैं तो तेरे पास में ...’

     * * *
बहुवचन अप्रैल-जून २०१३ में प्रकाशित कहानी

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2 टिप्पणियाँ

  1. बहुत-बहुत धन्यवाद शब्दांकन टीम का प्रेम जी की इतनी जबरजस्त किस्सागोई में लिखी कहानी से बावस्ता कराने के लिए .....

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  2. इस कथा को पढ चुका हूँ.. शायद बहुवचन में.
    प्रसव पीड़ा का विलोम कुछ होता हो नहीं पता. किन्तु, इस व्युत्क्रम के व्यवहार को साझा करती है यह कथा. कहन रोचक है, प्रवाह यथोचित. हालिया फिल्मी गीतों के विन्दु आजके पाठकों का आग्रह रहा हो. लेकिन बचा जा स्कता था.
    आपके माध्यम से प्रेम भारद्वाज भाई को मेरी बधाइयाँ.

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