पंकज सुबीर की सुधा ओम ढींगरा से बेबाक बातचीत

देश क्या छोड़ा तड़ी पार हो गए ...सुधा ओम ढींगरा


सुधा जी, भारत में आपने मुख्‍य रूप से पत्रकार के रूप में काम किया, जबकि अमेरिका में साहित्‍यकार के रूप में, इन दोनों विधाओं में आप क्‍या परिवर्तन देखती हैं। दोनों के बीच क्‍या मूलभूत अंतर है।

      पंकज जी, पत्रकार घड़ी की सुई की टिकटिक के साथ काम करता है। निर्धारित समय में उसे अपनी रिपोर्टिंग, कवरेज, लीड या स्टोरी पूरी करनी होती है। समय की पाबन्दी बहुत अर्थ रखती है। थोड़ी सी चूक पत्रकार को पत्रकारिता जगत में पछाड़ देती है। जिस समाचार की आज माँग है, समय रहते उस सूचना को जनता तक नहीं पहुँचाया गया, तो दूसरे दिन उसका कोई महत्त्व नहीं रहता। पत्रकारिता में प्रतिस्पर्धा, बाज़ारवाद के चलते पत्रकार का जीवन तेज़ रफ़्तार से भागता है। साहित्यकार का जीवन इसके विपरीत होता है। यह नहीं कह रही कि साहित्यकार में अनुशासन या समय की पाबन्दी नहीं होती। अब कविता तो डेडलाइन की मोहताज नहीं उसे तो जब अपने-आप को लिखवाना है तभी आप लिख सकते हैं। आपके भीतर उमड़ेगी, पनपेगी फिर आकार लेगी। कहानी का और उपन्यास का विषय तथा पात्र जब तक पूरी तरह से आपके दिल-दिमाग़ में घुल नहीं जाते; आप उन्हें कलमबद्ध नहीं कर सकते। कई बार कहानी अड़ियल घोड़े सी अड़ जाती है अब कर लो जो करना, वर्षों आप उसे पूरा नहीं कर सकते। इन सब के लिए मौलिकता के साथ, संवेदना, कल्पना और शोध चाहिए। समाचार की सच्चाई के लिए आप शोध कर सकते हैं; पर कल्पना और संवेगों के लिए कोई स्थान नहीं वहाँ, ज्यों की त्यों बात लिखनी होती है। कलम और लेखन पत्रकार तथा साहित्यकार दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है पर इस महत्त्व की प्रकृति और स्वभाव दोनों के लिए अलग-अलग हैं।
हर कहानी किसी समाचार से पैदा होती है लेकिन उसे समाचार नहीं होना चाहिये । समाचार एक सूचना है जबकि कहानी उस सूचना के पीछे की अनदेखी सूचनाओं का विस्‍तार है। पत्रकार जब साहित्‍यकार बनता है तो उसके सामने यही दुविधा होती है कि उसकी कहानी समाचार जैसी न लगे । आपको इस समस्‍या से जूझना पड़ता है अथवा नहीं।

      पंकज जी, बढ़िया प्रश्न के लिए आभारी हूँ। जूझना तो पड़ा है लेकिन दूसरी तरह से। बचपन से कविताएँ लिखती थी। पत्रकारिता में आकर कई समाचार भीतर तक हिला देते थे, कवि हृदय चोट खा जाता और उसका असर रिपोर्टिंग पर पड़ता, भाषा में भावुकता अधिक आ जाती। सूचना देने के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग बेवजह और फ़जूल शब्दों को खर्च करना लगता। कहानीकार और उपन्यासकार कहीं मेरे भीतर बैठा होगा पत्रकारिता के दिनों में उसने सिर उठा लिया। पहले-पहल कवि-हृदय सब विधाओं पर भारी रहा। 'आँसू टपकते रहे', 'सहारे की तलाश', 'मन कलश', 'रात की बाहें और चाँद' कहानियाँ समाचार पत्रों में छपी, बेहद सराही गईं, ढेरों चिट्ठियाँ आईं। 'और गंगा बहती रही' उपन्यास पंजाब केसरी में धारावाहिक छपा था। बलात्कार की शिकार महिला की कहानी थी। बहुत पसंद किया गया था। अब इन कहानियों को पढ़ती हूँ तो कोरी भावुकता के अतिरिक्त वे कुछ नहीं लगतीं। उपन्यास को फिर से लिखने का सोच रही हूँ। हिन्दी भाषा बहुत सुदृढ़ भाषा है, इसमें अपने में एक लय-ताल है। विषय और विधा की माँग के अनुसार जब लेखक इस लय और ताल को बाँधना सीख लेता है तो मुश्किल नहीं आती। अनुभवों ने बड़ी मुस्तैदी से भीतर बैठे हरेक 'कार' को अपना-अपना कार्य करना सिखा दिया है और अलग-अलग खाँचे डगमग नहीं होते। सोच की स्पष्टता ने बहुत सहायता की है। उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका हिन्दी चेतना की संपादक हूँ और साथ ही साहित्यिक कर्म भी करती हूँ। पंकज जी एक बात उल्लेखनीय है कि 1995 तक समाचार पत्रों के साहित्यिक परिशिष्टों में छपना गर्व की बात होती थी। धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी में छपने की अलग गरिमा होती थी।
भारत और अमेरिका दो सर्वथा भिन्‍न सामाजिक परिवेश वाले देश हैं। दोनों का समाजिक ढांचा बिल्‍कुल अलग-अलग तरीके से गूंथा गया है। ऐसे में आपको अपनी रचनाओं में इन दोनों परिवेशों को एक ही मंच पर लाने में क्‍या कोई परेशानी नहीं होती।

      पंकज जी दुखती रग पर हाथ रख दिया। सबसे बड़ी चुनौती आती है, जब कहानी का कोई पात्र दो संस्कृतियों के टकराव से पैदा हुए तनाव के अंतर्द्वंद से गुज़रता है। दोनों देशों के जीवन मूल्यों और दर्शन की भिन्नता में अगर थोड़ा सा झुकाव भारतीयता की तरफ़ हो जाता है तो कहा जाता है कि पुरानी बात है नया कुछ नहीं, पूर्व-पश्चिम का अन्तर है। जबकि यह सायास नहीं होता, स्वाभाविक और अनायास होता है। यहाँ हर भारतीय अपने भीतर एक भारत लेकर चलता है। यही हमारी अस्मिता और पहचान है। पात्र की मनःस्थिति और परिस्थितियों को कुशलता से वर्णित करने के बावजूद उसे समझा नहीं जाता बस पूर्वग्रहों से ग्रसित सोच के अंतर्गत देश से बाहर लिखे जा रहे साहित्य पर प्रतिक्रिया दे दी जाती है। अगर यहाँ की विद्रूपताओं, विसंगतियों को लेकर विदेशी पात्रों के साथ कुछ रचा जाता है तो कह दिया जाता है कि पाठक वर्ग तादात्म्य कैसे बनाए? जब विदेशी साहित्य को पढ़ा जाता है तो उसे कैसे समझा जाता है? अब अगर पूर्व अनुभवों और स्मृतियों में रचे-बसे पात्र आपसे कुछ लिखवा लें तो कहानी पढ़कर नामी साहित्यकार तक, जो भारत में बैठ कर विदेशी जीवन पर कहानियाँ लिखते हैं, कहने लगते हैं कि जिस देश में रह रहे हो अगर वहाँ का भोगा हुआ यथार्थ नहीं लिखा तो इसका अर्थ है आपने उस देश को स्वीकारा नहीं। हम आप से वहाँ की कहानियाँ चाहते हैं। पंकज जी हम कलम के सिपाही हैं और साहित्यिक मोर्चे पर हिन्दी साहित्य को एक नए भावबोध, नए सरोकार, एक नई व्याकुलता, बेचैनी तथा एक नए अस्तित्व बोध व आत्मबोध से समृद्ध करने के लिए डटे हुए हैं।
सुधा जी, देश से बाहर रह कर रचना कर रहा रचनाकार नॉसटेल्जिक होने से बच नहीं पाता। वो एक स्‍वाभाविक सी बात है। यहाँ देश में रह रहा रचनाकार भी अपने छूटे हुए गाँव, छूटे हुए शहर को लेकर नॉसटेल्जिक होता है। किन्‍तु यहाँ का रचनाकार जब अपने गाँव की बात करता है तो उसे ज़मीन से जुड़ा होना बताया जाता है, जबकि देश के बाहर का रचनाकार जब ऐसा करता है तो उसे कोरी भावुकता कहा जाता है। आपने भी इसे झेला है अथवा नहीं । नॉसटेल्जिक होने को आप किस रूप में लेती हैं।

पंकज सुबीर सुधा ओम ढींगरा sudha om dhingra Pankaj Subeer shabdankan interview pravasi bharatiya hindi writer in canada       दोहरी मानसिकता और दोहरे मापदंड अक्सर कचोटते हैं। यह मानवीय त्रासदी है। देश क्या छोड़ा तड़ी पार हो गए। माँ तो सब को याद आती है। कोई रो कर याद करता है, कोई हँस कर, कोई मुस्करा कर और कोई बस याद करता है। अभिव्यक्ति की तपिश और स्वरूप भिन्न हो सकता है पर भावना वहीन तो नहीं। नॉसटेल्जिक होने का दंश अभी तक झेल रहे हैं। समय-समय पर हमें यह कह कर नकार दिया जाता है कि विदेशों में रचा जा रहा हिन्दी साहित्य नॉसटेल्जिक है। हम यहाँ विपरीत परिस्थितियों में हिन्दी का प्रसार कर रहे हैं और अपनी संस्कृति को बचाए हुए हैं, जिसे कोरी भावुकता कहा जाता है। जिस गति से पश्चिमी संस्कृति की महामारी महानगरों से गाँवों की ओर बढ़ रही है, वह दिन दूर नहीं जब अपनी संस्कृति के अवशेष ढूँढने देश बंधु यहाँ आएँगे। मानती हूँ कि स्थान छोड़ने के तुरंत बाद की भावुकता उस समय के रचे गए साहित्य में नॉसटेल्जिया को स्थान दे देती है फिर धीरे-धीरे गंभीरता आने लगती है और यथार्थ का सामना लेखन में ठहराव ले आता है। नॉसटेल्जिया मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्ति है। अतीत में झाँकता हुआ लेखक वर्तमान में जीता है और भविष्य की कल्पना करता है। साहित्य में कोई विषय वर्जित नहीं फिर नॉसटेल्जिया की मोहर सिर्फ देश से बाहर के साहित्यकारों के लेखन पर क्यों लगाई जाती है। यह प्रवृत्ति तो आपको हर भाषा तथा हर देश के साहित्य में मिलेगी। साहित्य को जो थोड़ा बहुत जान पाई हूँ कि साहित्य सम्वेदनाओं की अभिव्यक्ति है और सम्वेदनाओं की कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती, हाँ, उन सम्वेदनाओं को ट्रीट कैसे किया गया है। लेखक का शिल्प तथा किस कुशलता से उसकी अभिव्यक्ति हुई है उसकी परख होनी चाहिए। मॉरिशस के महात्मा गाँधी इंस्टीटयूट में हिन्दी विभाग की अध्यक्षा डॉ. राजरानी गोविन ने तो अपना शोध- प्रबन्ध हिन्दी काव्य में 'नॉसटेल्जिया' पर ही लिखा है और वह दिल्ली विश्वविद्यालय में पीऍच. डी के लिए स्वीकृत हुआ।
पिछले कुछ वर्षों में हिन्‍दी साहित्‍य में मुख्‍य धारा का लेखन अधिकांश बाज़ारवाद, पूंजीवाद के विरोध में हुआ है। हिन्‍दी साहित्‍य ने इस विरोध को बहुत प्रभावी तरीके से दर्ज किया है। आप फिलहाल जिस देश में रहती हैं वो देश ही इस बाज़ारवाद तथा पूंजीवाद का जनक है। आप वहाँ रह कर इसे किस रूप में देखती हैं और इसे अपने साहित्‍य में किस प्रकार से उपयोग करती हैं।

      अच्छे प्रश्न के लिए आभार। सत्रहवीं सदी के एक सबसे प्रभावशाली फ्रेंच चिंतक वाल्तेयर के अनुसार कोई भी लेखक जनमत को इस बात से प्रभावित नहीं कर सकता कि वह बहुत बढ़िया लिखता है और तर्कसंगत विश्लेषण प्रस्तुत करता है। महत्त्वपूर्ण बात है कि वह जो लिखता है वह अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँच पाता है या नहीं। यहाँ जो साहित्य लिखा जाता है उसे जनमानस तक पहुँचाने के लिए हर संभव कोशिश की जाती है। अगर इसे बाज़ारवाद कहते हैं तो मुझे बुरा नहीं लगता। यहाँ लेखक और कलाकार अपनी प्रतिभा के दम पर रोटी-रोज़ी कमा सकते हैं। अर्थशास्त्र में ‘बाज़ारवाद’ नाम की कोई भी अवधारणा नहीं है। पालग्रेव के विश्वकोश में भी ‘मार्केटिज्म’ शब्द नहीं मिलेगा। 'बाज़ारवाद' शब्द कहाँ से आया? विचारणीय विषय है। 'बाज़ारवाद' शब्द भारत की देन हो सकता है। जैसे सेकुलर शब्द के अर्थ भारत में विश्व से अलग हैं, शब्दों का भारतीयकरण कर दिया जाता है।
      मैं वामपंथी परिवार से हूँ। घर में पूंजीवाद के जनक के विरुद्ध बहुत विचार-विमर्श चलता था। यहाँ आकर भी इस देश को पसंद नहीं कर पाई। धीरे-धीरे जब इस देश की सच्चाई सामने आने लगी तो भ्रम टूटा। यहाँ के पूंजीवाद का स्वरूप एक शोषक सामाजिक व्यवस्था के रूप में नहीं है; बल्कि जनमानस के सहायतार्थ उस शक्ति का प्रयोग किया जाता है। लोकतंत्र के साथ-साथ एक तरह से समाजवाद है, कोई भूखा नहीं सोता और बेसिक सुविधाएँ अमीर-ग़रीब सब के पास हैं। जिनके सर पर छत नहीं वे भी रात शेल्टर होम में गुज़ार सकते हैं और सूप किचन (रसोई) में जो हर शहर और हर कस्बे में होती है, मुफ़्त में खाना खा सकते हैं। बर्फ़बारी के दिनों में स्कूलों में होमलेस लोगों के रहने का इंतजाम किया जाता है। यह मैं कोरी भावुकता में नहीं कह रही, प्रशंसा भी नहीं कर रही, यह यहाँ का यथार्थ है, मैं 1982 से इस देश में रह रही हूँ और अपने देश में मैं इससे कम समय रही हूँ। सुपर सैंडी के बाद आज तक उन लोगों को होटलों में रखा हुआ है, जो बेघर हो गए हैं और सरकार उन्हें घर बनवाने के लिए पैसा दे रही है। वहाँ देश में पूँजीवाद का विकृत रूप देखकर विपरीत धारणाएँ पाल ली जाती हैं और फिर वैसा ही सबके लिए सोचा जाता है। बिल गेट्स, वारेन बफ़्फ़ेट, बिल कलिंगटन से तो सभी परिचित हैं। अपनी-अपनी संस्थाओं के द्वारा ये पूंजीपति अमेरिका में ही नहीं पूरी दुनिया के ग़रीब देशों में स्वास्थ्य सम्बन्धी और शिक्षा को लेकर मानवसेवा कर रहे हैं। यहाँ बच्चों को बचपन से ही स्कूलों में मानवसेवा करना सिखाया जाता है।
      पंकज जी, अच्छे-बुरे लोग पूरे संसार में हैं। शोषण यहाँ भी होता है पर जनता का नहीं। सिस्टम का। जनता के लिए दिए गए राहत कोष में घोटाला नहीं होता। सुविधाओं को लेकर कुछ लोग नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं। हाँ, यहाँ भी अँधेरे कोने हैं और मेरी कलम उनके साथ खड़ी होती है। सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को पहचानने तथा उन पर दिशायुक्त प्रहार करने की कोशिश मैं अपने साहित्य में ज़रूर करती हूँ। 'सूरज क्यों निकलता है' कहानी यहाँ के अँधेरे कोनों पर लिखी गई है।
‘सूरज क्यों निकलता है...? आपकी एक महत्त्वपूर्ण कहानी है। ये कहानी बहुत अच्छी कहानी है, किन्तु बहुत सी बातें केवल वही समझ सकता है जो वहाँ की जीवन शैली और वहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था को समझता हो।

      पंकज जी, यहाँ की जीवन शैली और प्रशासनिक व्यवस्था मीडिया की मेहरबानी से भारत के समाचारों में समय -समय पर स्थान पाती रहती है। कई बार महसूस होता है कि लोग यहाँ के बारे में हमसे अधिक जानते हैं। इस कहानी में इन सब का वर्णन इस तरह से किया गया है कि जो नहीं जानते वे भी जान जाएँ और कहानी के मर्म तक पहुँच सकें। इस कहानी का जन्म ही तब हुआ जब यहाँ की गन्दी बस्तियों में जाने का मुझे मौका मिला। ग़रीबी रेखा से नीचे वालों को मिलने वाली सरकारी सुविधाएँ लेते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी निकम्मे, निठल्ले परिवार देखे। सुविधाओं का दुरूपयोग करते हुए चरित्र, कर्मयोग की धज्जियाँ उड़ाते, भौतिकवादी संस्कृति को अँगूठा दिखाते, निर्लिप्त, तटस्थ और बेलाग से अपनी एक दुनिया बसाए हुए, कठोर-कायदे कानून, अनुशासन और सरकारी तंत्र को ढीठता से नकारते हुए एक वर्ग में, प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' के पात्र घीसू और माधो का विश्व-व्यापी रूप पाया तो विचलित हो उठी, अन्तःकरण छीज गया। समृद्ध राष्ट्र के अँधेरे कोने भारत की अंधी गलियों की तरह ही भयावह हैं। भोजन के लिए मिले कूपन बेच कर शराब, सिगरेट और औरत का जुगाड़ करने वालों ने अन्दर एक कोलाहल पैदा कर दिया। अकर्मण्यता के घिनौने रूप और विश्वव्यापी मानसिकता ने कहानी के बीज डाले और जिज्ञासा में इन्हीं बस्तियों की क्लबों को खंगालते हुए कहानी को खाद-पानी मिला। धीरेन्द्र अस्थाना की एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें मुम्बई की क्लबों का वर्णन था, जो इस कहानी में वर्णित क्लब से कहीं भिन्न नहीं था।
आपकी एक कविता ‘शहीद’ इराक में मारे गये अमरीकी सैनिकों को समर्पित है। ईराक में अमेरिका ने जो कुछ भी किया वो मानव विरोध में था। क्‍या आपने ईराक तथा अफगानिस्‍तान में अमेरिका द्वारा की गई बर्बरता पर भी कुछ लिखा है। वहाँ अमरीका में रह कर आप उस नृशंसता को किस रूप में देखती हैं। वहाँ की जनता उसे किस रूप में देखती है।

      लोगों तक जो समाचार पहुँचाए जाते हैं, वे एकतरफा होते हैं। पूंजीवादी देश के प्रति नफ़रत पैदा करने के लिए एक मुहिम चलाई गई है। 9/11 का हमला पूरे देश को झकझोर गया था। हर देश के लोग अपने देश से प्रेम करते हैं। देश की सुरक्षा पर जब आँच आती है तो सत्ता और जनता इकट्ठे खड़े हो जाते हैं। आतंकवाद को जड़ से समाप्त करके ही देश सुरक्षित रह सकता है, यह यहाँ का दर्शन और सोच है। लड़ाई कहीं भी हो, उसके परिणाम तो घातक होते हैं। युद्ध चाहे देश की सुरक्षा के लिए हो लोग पीड़ित होते ही हैं। आतंकवादी संगठनों ने पूरी दुनिया में आतंक फैलाया हुआ है। भारतवासियों को रोज़ किसी न किसी रूप में उनके आतंक का शिकार होना पड़ता है। वहाँ लोकतंत्र का अर्थ राजनीति का तंत्र है। राजनीतिज्ञों की प्राथमिकताएँ जनता और देश नहीं। वोटों की राजनीति यहाँ भी है पर देश और जनता का हित पहले देखा जाता है। यहाँ बहुत विमर्श चलता रहता है कि तालिबान ने जो अफ़गानिस्तान में किया वह भी तो मानव विरोध में था। किसी को तो आतंकवाद के खिलाफ़ खड़ा होना ही था। यह मेरी राय नहीं यहाँ की विचारधारा है। हाँ, इराक युद्ध का जनता ने विरोध किया था। मेरी कई कविताएँ इसके सैनिकों को समर्पित हैं। अफ़गानिस्तान युद्ध पर मेरी एक कहानी आ रही है, शीघ्र ही आप उसे पढ़ेंगे।
      वैसे पंकज जी अगर इतिहास के पन्ने पलटें तो हम पायेंगे कि आदि काल से विचारधारा, सत्ता, शक्ति और धर्म के लिए युद्ध होते रहे हैं। असुर देवताओं के सबसे प्रबल शत्रुओं में गिने जाते थे। पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भी असुरों और देवों में सदा युद्ध होता रहा। असुरों ने भारत में अनेकों वर्ष तक शासन किया था। इसके बाद उन्होंने ईरान के निकटवर्ती राज्यों पर विजय प्राप्त की और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किया। ईसाईयों की धार्मिक पुस्तक 'बाईबल' मे भी असुर राजाओं का उल्लेख यहुदियों को क़ैद कर उन्हें दास बनाने के रूप में हुआ है। भारत में जाति प्रथा को आरम्भ करने वाले असुर थे। असुर लोग आर्य धर्म के विरोधी और निरंकुश व्यवस्था को अपनाने वाले थे। यह उदाहरण मात्र इसलिए है कि हर काल, हर युग में युद्ध हुए हैं और बुद्धिजीवियों ने इनके विरुद्ध कलम उठाई है और आज भी संवेदनशील लोग विरोध दर्ज कर रहे हैं। मैं भी यहाँ बैठी यही कर रही हूँ।
सुधा जी, अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के मायने भारत में और अमेरिका में किस प्रकार भिन्‍न हैं ।

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बस स्वतंत्रता है, कुछ बदलाव नहीं लाया जा सकता। यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता परिवर्तन ला सकती है। अगर समस्या का हल आपके पास है तो ध्यान दिया जाता है। आप की आवाज़ कुएँ की आवाज़ बन कर नहीं रहती।
पिछले कुछ दिनों में भारत से बाहर रह रहे साहित्यकारों का लेखन काफी प्रकाश में आया है। किन्तु, ये लेखन अभी भी अपना उतना प्रभाव नहीं छोड़ पाया है जितना छोड़ना चाहिये, इसके पीछे आप क्या कारण समझती हैं।

      कारण मैं तभी बता सकती हूँ अगर मुझे लगे कि लेखन प्रभाव नहीं छोड़ रहा। आपने कहा है कि उतना प्रभाव नहीं छोड़ पाया है जितना छोड़ना चाहिये तो प्रभाव के इस गणित को मैं नहीं जानती। सिर्फ इतना कहूँगी कि संपादक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखकों के साथ भारत से बाहर के रचनाकारों को छाप रहे हैं और आए दिन पत्रिकाओं में कहानियों पर चर्चा हो रही है। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भारत से बाहर लिखा जा रहा साहित्य स्थान पा रहा है। कई विश्वविद्यालयों में विदेशों में रचे जा रहे साहित्य पर शोध हो रहा है। लेखक निरन्तर लिख रहे हैं, छप रहे हैं। सबका अपना पाठक वर्ग है।
आपकी कहानियों में भी भारत से बाहर रह रहे साहित्यकारों की तरह विदेशी परिवेश ज़्यादा होता है। उस परिवेश से भारत का अधिकांश आम पाठक परिचित नहीं है, आपको नहीं लगता कि उस आम पाठक को इसके चलते आपकी कहानी से तादात्म्य बनाने में दिक्क़त आती होगी।

      निर्मल वर्मा को १९५९ से १९७२ तक यूरोप में प्रवास करने का अवसर मिला। उस समय उनके द्वारा लिखे साहित्य में यूरोप का वर्णन आप पढ़ सकते हैं। यूरोप की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों की झलक उनकी कहानियों में मिलती है। चेकोस्लोवाकिया के शहर प्राग का परिवेश कई कहानियों में बिखरा हुआ है। उनकी कहानियों के साथ पाठक ने तादात्म्यता बनाई, उन्हें सराहा। अमेरिका आने के बाद उषा प्रियंवदा के उपन्यास अंतर्वंशी, भया कबीर उदास और अधिकांश कहानियाँ अमेरिकी अथवा यूरोपीय परिवेश में लिखी गई हैं। तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ 'कब्र का मुनाफ़ा', 'पासपोर्ट का रंग', ' ओवरफ़्लो पार्किंग' आदि में ब्रिटेन का परिवेश हैं। दरअसल पाठक जिज्ञासु होता है। नए विषय, नया परिवेश उसे हमेशा आकर्षित करता है। कथ्य और शिल्प का सामंजस्य और निर्वाह ठीक हो तो तादात्म्य में दिक्क़त नहीं आती।
      वैश्वीकरण ने विश्व को इतना करीब कर दिया है कि विदेशी परिवेश अब आम जनता की पहचान से परे नहीं रहा। युवा पीढ़ी की कई कहानियाँ पढ़कर ऐसा आभास होता है कि ये विदेशों में लिखी गई हैं या भारत में। और फिर जिस परिवेश में लेखक साँस लेता है, उसका प्रभाव तो लेखन में आता ही है। मेरी कहानियों को, बहुचर्चित मुहावरे की भाषा में, भोगे हुए यथार्थ की संज्ञा भी दी जा सकती है और इसी तथ्य के कारण इन कहानियों में आधुनिकता का स्वर भी अधिक प्रबल है। विचित्र प्रसंगों तथा संवेदनाओं के साथ हर वर्ग का पाठक तादात्म्य का अनुभव कर सकता है।
कई बार ऐसा लगता है कि बाहर के साहित्यकार वहाँ की जीवन शैली भारत के पाठकों को समझाने के लिये लिख रहे हैं।

      कहानी पढ़कर हर पाठक की प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। कई देश से बाहर की जीवन शैली को जानना चाहते हैं और उन कहानियों को रूचि से पढ़ते हैं और कई पाठकों की प्रतिक्रिया विपरीत होती है, ठीक इसी तरह की प्रतिक्रियाएँ ठेठ ग्रामीण जीवन और महानगरीय विसंगतियों के वर्णन से होती हैं। कई बार कथ्य की मांग पर भी जीवन शैली और परिवेश को विस्तार दिया जाता है। यह सायास नहीं होता।
आपकी कहानियों में या तो पंजाब होता है या अमरीका, ऐसे में समूचे भारत में फैला पाठक वर्ग उन कहानियों से किस प्रकार अपने को जोड़ेगा।

      पंकज जी, कहानी का दर्द, संवेदनाएँ, अंतर्वेदनाएँ, कथ्य-शिल्प पाठक वर्ग को अपने साथ जोड़ता है। फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मैला आँचल, राजेन्द्र सिंह बेदी के एक चादर मैली सी, सुषम बेदी के हवन और कृष्णा सोबती के मित्रो मरजानी को समूचे भारत ने स्वीकार किया है। रेणु जी का उपन्यास मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचा गया और इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। बेदी जी का और कृष्णा सोबती का उपन्यास पंजाब की पृष्ठभूमि पर और सुषम जी का अमेरिका की भूमि पर रचा गया। तेजेन्द्र शर्मा की 'टिबरी टाइट', 'कोख का किराया', 'देह की कीमत' आदि कई कहानियों में पंजाब और ब्रिटेन बसा हुआ है और पाठकों ने उन कहानियों को स्वीकार किया है तथा पाठक वर्ग उनके साथ जुड़ा है।
आपके कहानी संग्रह ‘कौन सी ज़मीन अपनी’ में अधिकांश कहानियाँ वहीं अमरीका में घटित होती हैं। या किसी न किसी रूप में वहीं जुड़ी रहती हैं। कहानियाँ भारत आती भी हैं तो पंजाब आती हैं। ये आपके दायरे को सीमित नहीं कर रहा है।

      जहाँ आप रहते हैं, कहानियाँ तो वहीं से आएँगी और उसी के इर्द-गिर्द घूमेंगी क्योंकि वह आपका कम्फर्ट ज़ोन होता है। कृष्ण बिहारी वर्षों से आबुदाबी पर लिख रहे हैं। तेजेन्द्र शर्मा ने ब्रिटेन पर कई कहानियाँ लिखी हैं। अर्चना पेन्यूली ने डेनमार्क को लेकर कहानियाँ लिखी हैं और उनका उपन्यास' वेयर डू आई बिलांग' भी डेनमार्क की पृष्ठभूमि पर ही लिखा गया। उषा प्रियंवदा की जिन कहानियों का परिवेश भारतीय है उनमें भी प्रमुख पात्र, जो प्रायः नारी है, का सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में यूरोप अथवा अमेरिका से रहता है। हाँ कल्पना की दुनिया बसा कर शोध के साथ आप कुछ भी लिख सकते हैं। पर वह भोगा हुआ यथार्थ नहीं होता। कल्पितार्थ होता है। फिक्शन। मैंने ऐसी भी कई कहानियाँ लिखी हैं।
     
'प्रवासी साहित्य’ शब्द को लेकर भारत से बाहर रह रहे साहित्यकार अक्सर आपत्ति जताते रहते हैं। वे प्रवासी विशेषांकों का विरोध करते हैं। किन्तु, देखने में आता है कि ये ही साहित्यकार भारत में प्रवासी साहित्य सम्मेलनों में भाग लेते हैं, बल्कि कई तो उस आयोजन से कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं।

      दोहरी मानसिकता, दोहरे मापदंडों वाले लोग तो आपको हर देश, हर स्थान पर मिलेंगे। ऐसे लोग शब्दों को नारे की तरह प्रयोग करते हैं, साहित्य जगत का ध्यान आकर्षित करने के लिए। पंकज जी, समय की छलनी काम को छानती है। मैं सिर्फ काम करने में विश्वास रखती हूँ। उससे अलग कुछ नहीं सोचती। साहित्य का सागर इतना गहरा है, अक्सर सोचती हूँ कि अभी हमने किया ही क्या है?
हिन्दी साहित्य में इस समय चार धाराएँ हैं, स्त्री लेखन, युवा लेखन, दलित लेखन और प्रवासी लेखन। इनमें से पहली तीन धाराएँ अब मुख्य धारा के समानांतर हो चुकी हैं, किन्तु, प्रवासी लेखन अभी भी बहुत पीछे है। कुछ गिने चुने नामों के अलावा बहुत संभावना नज़र नहीं आती। उस में भी प्रवासी साहित्य में युवा लेखन लगभग शून्य ही दिख रहा है । इसे आप किस रूप में लेती हैं।

      'प्रवासी साहित्य' कह कर हमें दूर कर हाशिये पर डाल दिया जाता है। इसीलिए भारत से बाहर रह रहे साहित्यकारों ने इस शब्द पर आपत्ति जताई थी। आलोचक, समीक्षक हम पर ध्यान नहीं देना चाहते। पंकज जी, जब दूर कर दिए जायेंगे, पीछे तो रहेंगे। भारत की जनसँख्या के अनुसार वहाँ रचनाकार हैं पर मुख्यधारा में तो गिने चुने नाम हैं। प्रवासी लेखन के साथ भी यही बात है। विदेशों के युवा लेखकों को सामने आने में समय लगेगा। हिन्दी यूएसए की टीम एक पीढ़ी तैयार कर रही है। उनमें से भी कितने हिन्दी में लेखन करेंगे और कितने अंग्रेज़ी की तरफ मुड़ जायेंगे, समय ही बताएगा। अभी तो यह विषय हमारे लिए भी विचारणीय है। भारत में हिन्दी के प्रतिष्ठित, वरिष्ठ लेखकों के बच्चे ही अंग्रेज़ी को अपनाए हुए हैं, फिर यहाँ तो अंग्रेज़ी का वर्चस्व है।
हिन्‍दी साहित्‍य इस समय आलोचकों की कमी से जूझ रहा है। विशेषकर पिछले दस पन्‍द्रह सालों में जो लेखन हुआ है उसे आलोचना बिल्‍कुल नहीं मिली। उस पर भी देश से बाहर रचे गये साहित्‍य की हालत तो और भी खराब है ।उस साहित्‍य को लेकर गंभीरता से किसी आलोचक ने कोई काम नहीं किया। क्‍या आपको नहीं लगता कि देश से बाहर रह कर हिन्‍दी साहित्‍य रच रहे रचनाकारों को अब अपने ही बीच से अपने आलोचक भी तैयार करने होंगे।

      आपने बिलकुल सही कहा, यही हम सब सोच रहे हैं। चुनौती फिर भी रहेगी। बाहर से आई आलोचनाओं को कैसे लिया जायेगा, समय ही बताएगा।
हिन्‍दी साहित्‍य और विश्‍व साहित्‍य में आप ऐसा क्‍या अंतर पाती हैं जिसके द्वारा ये बताया जा सके कि हिन्‍दी का लेखक और नोबल पुरस्‍कार ये दोनों ज़मीन और आसमान की तरह क्‍यों लगते हैं। विश्‍व साहित्‍य की तुलना में हिन्‍दी साहित्‍य क्‍यों पीछे नज़र आता है।

      पंकज जी, आप स्वयं प्रतिष्ठित कहानीकार और उपन्यासकार हैं। साहित्य को अलग-अलग खाँचों में बाँट कर गुटबंदी और खेमेंबाज़ी के चलते एकजुट होकर किसी एक साहित्यकार के काम को नोबल प्राईज़ कमेटी के सम्मुख प्रस्तुत करना हिन्दी साहित्यकारों के बस की बात नहीं। हिन्दी विश्व में चीन की भाषा 'मन्दारिन' से भी आगे निकल गई है, पर हिन्दी का कितना साहित्य विश्व बाज़ार में सुलभता से उपलब्ध है। अनुवादक बाहर के साहित्य का अनुवाद करते हैं और हिन्दी प्रेमी बड़े शौक से पढ़ते हैं पर हिन्दी की कितनी पुस्तकों का अनुवाद हुआ है जिन पर विश्व भर की बुक कल्बें चर्चा कर सकें। यही चर्चाएँ किसी भी भाषा के साहित्य को विश्व स्तर की ख्याति दिलवाने में सक्षम हैं। हिन्दी भाषी लोगों की उदासीनता ही हिन्दी साहित्य को पीछे ले जा रही है।
विश्‍व साहित्‍य की बात यदि हम नहीं भी करें तो हिन्‍दी साहित्‍य भारतीय भाषाओं के ही साहित्‍य जैसे मराठी, बंगाली आदि से ही पीछे नज़र आता है।

पंकज सुबीर सुधा ओम ढींगरा sudha om dhingra Pankaj Subeer shabdankan interview pravasi bharatiya hindi writer in canada       पंकज जी, अपना अनुभव बताती हूँ, यहाँ मैंने गंभीर साहित्य को लेकर गोष्ठियाँ, कवि सम्मलेन करवाने चाहे। हिन्दी भाषी घरों में बैठे रहे, कोई सुनने नहीं आया। जबकि मराठी और बांग्ला भाषी अपनी गोष्ठियों में बड़ी तादाद में आये। हिन्दी भाषी प्रदेशों के लोगों को इकठ्ठा करने के लिए आयोजन किया। ताकि किसी तरह यहाँ हिन्दी और साहित्य की बात हो सके। कोरिओग्राफ़र्स ने अथक मेहनत कर बच्चों से महादेवी, सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी और महादेवी की कविताओं पर नृत्य नाटिकाएँ तैयार करवाईं। एक -दो बॉलीवुड नंबर थे, लोगों को फ़िल्मी गीतों पर ठुमके पसंद आए।
      इसके विपरीत बांग्ला भाषी और मराठी आयोजनों में उनके साहित्य और कला का खुल कर प्रदर्शन किया जाता है और लोग भरपूर सम्मान देते हैं। कहने का भाव है भाषा और साहित्य के प्रति जो प्रतिबद्धता इन दोनों प्रदेशों के लोगों में है वह हिन्दी वालों में कम मिलती है। हिन्दी भाषी कितने बच्चे महादेवी, पन्त, निराला को बचपन से जानते हैं जबकि बंगाली बच्चे छुटपन से ही टैगोर और रविन्द्र संगीत से परिचित होते हैं।
साहित्य को लेकर विदेशों में आप जो बड़े आयोजन करते हैं, उन बड़े आयोजनों का मतलब कवि सम्मलेन होता है । भारी भरकम राशि देकर मंचीय कवियों को बुलाया जाता है । इस प्रकार का कोई आयोजन आपकी संस्थाएँ गंभीर साहित्य को लेकर बड़े स्तर पर क्यों नहीं करती। आप स्वयं भी जिन संस्थाओं से जुड़ी हैं उनमें भी बड़े साहित्यिक आयोजनों के नाम पर केवल कवि सम्मलेन होते हैं।

      पंकज जी आपका यह प्रश्न बताता है कि विदेशों में हिन्दी की स्थिति की सही जानकारी नहीं है लोगों को। विदेशों में हिन्दी विदेशी भाषा के रूप में जानी व पहचानी जाती है और इसी तरह विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। जो भारतीय यहाँ हैं वे भी भारत की अलग- अलग भाषाओं के खेमों में बंटे हुए हैं। सिर्फ हिन्दी भाषी ही हिन्दी की संस्थाएँ चलाते हैं। सबसे बड़ी और पुरानी संस्था है-अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति। इसके वार्षिक अधिवेशन में कई साहित्यकार हिस्सा ले चुके हैं। गंभीर साहित्य पर कई सत्र होते हैं। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य हैं-हिन्दी भाषियों को एक छत तले लाना और हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना। युवा पीढ़ी को हिन्दी के प्रति सजग और सचेत करना। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाने की सुविधाएँ जुटाना। अमेरिका की भगौलिक स्थिति के कारण हिन्दी-भाषी दूर -दूर तक फैले हुए हैं। गंभीर साहित्य को लेकर गोष्ठियाँ और कवि सम्मेलनों की स्थिति मैं पहले स्पष्ट कर चुकी हूँ। अतः मंचीय कवि सम्मलेन ही एक ऐसा आयोजन होता है जो तक़रीबन सब भारतीयों को एक छत तले ले आता है, लोग भारी संख्या में आते हैं और इन कवि सम्मेलनों को बेहद सराहते हैं। हिन्दी के लिए धन एकत्रित करने का यही एकमात्र साधन है। युवा पीढ़ी का हिन्दी के प्रति रुझान फिल्मों के बाद कवि सम्मेलनों ने ही बढ़ाया है। यह यहाँ की सच्चाई है। यह आक्षेप सरासर गलत है कि हम भारी भरकम राशि देकर कवियों को बुलाते हैं। हम ऐसा कर ही नहीं सकते, हमारी संस्था नॉन प्रॉफिट संस्था है। किसी को भी जब विज़िटर वीज़ा पर बुलाया जाता है तो वह यहाँ पैसा नहीं कमा सकता, यानि नौकरी या कहीं भी कोई काम नहीं कर सकता। हम सिर्फ थोड़ा सा मानदेय, दिन भर के खर्च का देते हैं। यहाँ के कानून अनुसार काम करते हैं। कवि सम्मेलनों से एकत्रित धन को हम हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयोग करते हैं। मैं इस संस्था के कविसम्मेलनों की संयोजक हूँ। 1989 से कविसम्मेलन करवा रही हूँ। इसके अतिरिक्त गंभीर साहित्य को लेकर कविता, कथा और साहित्यिक गोष्टियाँ पूरे अमेरिका में होती रहती हैं। आपने पूछा है कि गंभीर साहित्य को लेकर बड़े स्तर पर आयोजन क्यों नहीं करते? उसके लिए धन कहाँ से लाएँ? जो धन हम एकत्रित करते हैं, उससे हिन्दी के प्रचार- प्रसार की यहाँ की ज़रूरतों को ही मुश्किल से पूरा कर पाते हैं। हिन्दी जिस देश की भाषा है वहाँ हिन्दी के नाम पर धन एकत्रित करना मुश्किल है, पंकज जी आप सोचिए विदेश में यह कार्य कितना कठिन होगा...
भारत से बाहर बसे हिन्दी के साहित्यकारों में भी अब दो गुट दिखाई देने लगे हैं। एक ब्रिटेन में बसे साहित्यकारों का गुट तथा दूसरा अमरीका में बसे साहित्यकारों का गुट। इसे आप किस रूप में लेती हैं।

( हँसते हुए ) पंकज जी,भारत की गुटबंदी अभी विदेशों में पँहुची नहीं। आपको जो गुट दिखाई देते हैं, यह देशों की भगौलिक दूरी है। भविष्य में शायद वैश्विक हिन्दी साहित्य का अमेरिका का हिन्दी साहित्य, ब्रिटेन का हिन्दी साहित्य अथवा डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, नार्वे, खाड़ी देशों का हिन्दी साहित्य के रूप में मूल्याँकन हो। वह साहित्य के मूल्याँकन की सुविधा मात्र होगा, गुटबंदी नहीं।

101 Guymon Ct., Morrisville, NC-27560, USA.
Email-sudhadrishti@gmail.com
919-801-0672 (Cell) 919-678-9056 (Home)

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24 टिप्पणियाँ

  1. सुधा जी और पंकज जी के बीच का बात- चीत पढ़ा. दो संस्कृतियों के बीच का लिंक बहुत अच्छी तरह दिया गया .कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला गया .आखिर एक विद्वान का दूसरे विद्वान के साथ बात करना रोचक होगा ही .

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  2. बेहद रोचक और अंतरंग साक्षात्कार ।

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  3. आपने बहुत सच्ची बाते की हैं जाने क्या हिन्दी उर्दू वालों को हो गया है अपनी ज़बान की तरफ उनका कोई रुझान नहीं जबकि दूसरी भारतीय ज़बान वाले कैसे चिड़िया के परो की तरह आपस मेँ सिमटे और जुड़े हुए है आपकी गुफ़्तुगु उम्दा है मुबारकबाद

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  4. khubsurat swal khubseerat jawab


    Chaand Shukla
    Denmark

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  5. पत्रकारिता जैसी तीव्र-गति विधा के बाद के बाद साहित्यिक लेखन की गहनता और संपादन का दायित्व- जिसने वर्तमान स्थितियों के प्रति और सचेत बना दिया है, सुवीर जी के द्वारा पूछे गये प्रर्श्नों के उत्तर में स्पष्ट झलक रहा है.
    रचनाकार की दृष्टि के साथ हिन्दी सहित्य के सामने जो समस्याएँ खड़ी हैं वे भी सामने आई.
    हिन्दी भाषियों की अपने भाषा और साहित्य प्रति उदासीनता जग-विदित है- बोलने में .पढ़ने में ,और आयोजनों को गंभीरता से लेने में भी .यह उत्साह की कमी,और अलग-थलग रहने की आदत देश और विदेश दोनो में समान रूप से. न हिन्दी से जुड़ाव न परस्पर समभाव .हिन्दी साहित्य में जो गुटबंदी चलती हैं ,भले ही अभी विदेशों नहीं दिखती , उनसे भी हिन्दी का अहित हुआ है .बंगाली,मराठी आदि बोलनेवाले संख्या में बहुत कम होने पर भी अपने आयोजनों में उत्साह से भाग लेते हैं परस्पर जुड़ाव है उनमें ,अपना भाषा को स्वीकार करने और उससे जु़ड़ने में आनन्द पाते हैं .
    भारत से बाहर रह कर कर लेखन करनेवाले के सामने कुछ नई द्विधायें होती हैं - आवासी और प्रवासी दोनों ( खाँचे बना दिये गये हैं )में एडजस्ट होना प्रवासी कोई अलग जीव नहीं हैं .अनुभवों का बहुआयामी विस्तार . (मुझे तो अमेरिका के भारतीय अधिक भारतीय लगते है)यहाँ आकर उनमें जो कुछ नया और जुड़ता है उसे व्यक्त करने को प्रयासशील रहते हैं जिससे मानवीय संवेदनाओं को और व्यापकता मिलती है.दृष्टि के कोण बदलते हैं. पढ़ते समय बात ग्रहण करने की है जो जितना ग्रहण कर सके.साहित्य तो समृद्ध ही होगा. एक बात और - भीतर जो भारत है उसके अनुभव अनायास आयेंगे ,शुरुआत वहीं से हुई है, आधार वहीं से मिला है उसके बाद विकसित होने के क्रम यहाँ के हवा-पानी के साथ दोनों इतने संश्लिष्ट कि अलगाना मुश्किल .
    सुधा जी ने अपना पक्ष समग्रता से सामने रखा है.
    इस बेबाक बातचीत के लिए पंकज सुवीर जी और सुधा जी दोनों का आभार !

    जवाब देंहटाएं
  6. पत्रकारिता जैसी तीव्र-गति विधा के बाद के बाद साहित्यिक लेखन की गहनता और संपादन का दायित्व- जिसने वर्तमान स्थितियों के प्रति और सचेत बना दिया है, सुवीर जी के द्वारा पूछे गये प्रर्श्नों के उत्तर में स्पष्ट झलक रहा है.
    रचनाकार की दृष्टि के साथ हिन्दी सहित्य के सामने जो समस्याएँ खड़ी हैं वे भी सामने आई.
    हिन्दी भाषियों की अपने भाषा और साहित्य प्रति उदासीनता जग-विदित है- बोलने में .पढ़ने में ,और आयोजनों को गंभीरता से लेने में भी .यह उत्साह की कमी,और अलग-थलग रहने की आदत देश और विदेश दोनो में समान रूप से. न हिन्दी से जुड़ाव न परस्पर समभाव .हिन्दी साहित्य में जो गुटबंदी चलती हैं ,भले ही अभी विदेशों नहीं दिखती , उनसे भी हिन्दी का अहित हुआ है .बंगाली,मराठी आदि बोलनेवाले संख्या में बहुत कम होने पर भी अपने आयोजनों में उत्साह से भाग लेते हैं परस्पर जुड़ाव है उनमें ,अपना भाषा को स्वीकार करने और उससे जु़ड़ने में आनन्द पाते हैं .
    भारत से बाहर रह कर कर लेखन करनेवाले के सामने कुछ नई द्विधायें होती हैं - आवासी और प्रवासी दोनों ( खाँचे बना दिये गये हैं )में एडजस्ट होना प्रवासी कोई अलग जीव नहीं हैं .अनुभवों का बहुआयामी विस्तार . (मुझे तो अमेरिका के भारतीय अधिक भारतीय लगते है)यहाँ आकर उनमें जो कुछ नया और जुड़ता है उसे व्यक्त करने को प्रयासशील रहते हैं जिससे मानवीय संवेदनाओं को और व्यापकता मिलती है.दृष्टि के कोण बदलते हैं. पढ़ते समय बात ग्रहण करने की है जो जितना ग्रहण कर सके.साहित्य तो समृद्ध ही होगा. एक बात और - भीतर जो भारत है उसके अनुभव अनायास आयेंगे ,शुरुआत वहीं से हुई है, आधार वहीं से मिला है उसके बाद विकसित होने के क्रम यहाँ के हवा-पानी के साथ दोनों इतने संश्लिष्ट कि अलगाना मुश्किल .
    सुधा जी ने अपना पक्ष समग्रता से सामने रखा है.
    इस बेबाक बातचीत के लिए पंकज सुवीर जी और सुधा जी दोनों का आभार !
    - प्रतिभा सक्सेना.
    *

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  7. बहुत सुन्दर और सार्थक बातचीत के लिये बधाई पंकज सुबीर को.....और आप को कि आप ने जवाब बहुत ही कुशलता से दिये.

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  8. शकुन्तला बहादुर
    स्वदेश और विदेश में रचे जा रहे हिन्दी-साहित्य जगत की भरपूर जानकारी देने वाला ये साक्षात्कार ज्ञानवर्धक भी है और प्रभावी भी ।आपके साहित्य-सृजन पर उठाए गए प्रश्नों के साथ ही विदेश में लिखे जा रहे साहित्य के सम्बन्ध में भी आपके सभी उत्तर बेबाक़ हैं , जो वास्तविकता से परिचित कराते हैं । विदेश के रचनाकारों पर किये गए आरोपों और भारत के साहित्यकारों की भ्रामक धारणाओं का निराकरण करने में आपकी दक्षता से मैं अभिभूत हूँ । आपके सभी उत्तर प्रमाण सहित तर्क-संगत, सशक्त और आश्वस्त करने वाले हैं । हिन्दी-भाषियों की हिन्दी के कार्यक्रमों के प्रति उदासीनता - स्वदेश में भी - मन को विक्षुब्ध करती है । अन्य भारतीय भाषा-भाषियों की अपनी भाषा और साहित्यिक कार्यक्रमों में अभिरुचि तथा उसके प्रयोग में कटिबद्धता को देखकर मन ग्लानि से भर जाता है । श्री पंकज सुबीर जी के प्रश्न सूझबूझ वाले और तथ्यों को कुरेदने वाले थे , आप के उत्तर भी समीचीन रहे , जो
    आपके व्यापक वैदुष्य को प्रमाणित करते हैं । इस सार्थक साक्षात्कार के लिये आप दोनों का साधुवाद और आप दोनों
    को हार्दिक-बधाई !! मुझे आपने ये साक्षात्कार पढ़ने का अवसर दिया - तदर्थ आभारी हूँ ।
    शुभकामनाओं सहित,
    शकुन्तला बहादुर
    shakunbahadur@yahoo.com

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  9. इस बेबाक बातचीत को पढ़के बहुत ही मज़ा आया ... भरपूर जानकारी समेटे .. देश विदेश में साहित्य पे होने वाले काम के साथ विस्तृत बहु-विषयों पे ये बातचीत बहुत हो रोचक लगी ... बधाई इस साक्षात्कार के लिए पंकज जी को ...

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  10. सुदर्शन प्रियदर्शिनी
    पंकज सुबीर द्वारा लिए गये सुधा जी के साक्षात्कार के प्रश्नोत्तरों में दोनों की महारथ उभर कर आई है . उत्तर अपने आप में परिपूर्ण -स्थितियों और अपेक्षित समाधानों की और इंगित करते हैं; विशेषत प्रवासी लेखकों की स्थितियों , संघर्ष और कशमकश का सुंदर उद्घाटन हुआ है . वास्तव में हमारी स्थिति 'तड़ी -पार ' होने की ही प्रतीति करवाती है ; जो स्वीकार्य नही है . कुछ लोग इस में हुए निर्देशों से -रास्तों को सुगम बना सकते हैं ताकि साहित्य स्वस्थ होकर पनप सके और गुटबंदियों में सिकुड़ कर या घुट कर न रह जाये .
    दोनों के लिए साधुवाद .
    सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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  11. इस व्यापक ठोस और संदर्भित बातचीत से बहुत कुछ सामने आया है. जिस स्पष्टता से पंकजभाई ने प्रश्न रखे हैं आदरणीया सुधा जी ने उतने ही खुले और उन्मुक्त ढंग से विचार रखें हैं. प्रश्नकर्ता का सामर्थ्य और उत्तरदाता का व्यक्तित्व निखर कर आया है. सुधा जी कई कण्ट्रोवर्सियल प्रश्नों पर जितनी बेबाक हुई हैं वह उनकी वैचारक प्रगाढता का ही परिचय देता है. बिना शक उनकी सोच उनकी है जो कई मायनों में कइयों को संतुष्ट न कर सके लेकिन उनकी सोच का आधार विन्दु दृढ है.
    भाई, बहुत-बहुत बधाई इस परिचर्चा को साझा करने के लिए. शुभम्

    -सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  12. सुधा ओम ढींगरा का साक्षात्कार लीक से हटकर थोड़ा अलग है। पंकज सुबीर जी ने गहन अध्ययन के बाद अपने प्रश्न तैयार किए। सुधा जी ने भी बहुत सलीके से पूरे तथ्यों के साथ सुलझे हुए सटीक जवाब दिये। ऐसे साक्षात्कार रोज़ रोज़ पढ़ने को नहीं मिलते। हिन्दी के प्रति स्वदेश में उदासीनता ....विदेश में किए जा रहें प्रयासों में कहीं असर न दिखाने लगे....यह प्रश्न ज़हन में घूम रहा हैं.....बहरहाल बेबाक बातचीत द्वारा वैचारिक प्रगाढ़ता का परिचय देता...इस सिलसिले के लिए सुधा जो और पंकज से को साधूवाद।

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  13. Hindi BLOG : http://www.lavanyashah.com/

    नमस्ते सुधा जी एवं पंकज भाई
    आप दोनों की बातचीत मैं तो यही कहूँगी कि यह
    प्रथम आध्याय का रूप ले और विचारों के आदान प्रदान का सिलसिला
    जारी रहे ताकि , भारत में रहनेवालो से प्रवासी भारतीयों की मन: स्थिति
    अधिक स्पस्ट हो और भौगोलिक प्रदेश की दूरियां सिकुड़ कर समीप आ जाएँ
    रही बात ' हिन्दी की , हिन्दी साहित्य की और परिवेश से जुडी बातों की तो उनके बारे में
    अधिक सूचना , जानकारी भी एक दूजे तक पहुंचे यह भी आवश्यक है।
    मैं सन १९७४ में अमरीका के सर्वाधिक आबादीवाले प्रांत केलिफोर्निया के होलीवुड संस्था के लिए
    मशहूर शहर लोस एंजिलिस में ३ वर्ष रही थी। फिर सन १९८९ से दुबारा अमरीका आकर स्थायी हुई।
    अब लम्बे आवास के बाद यहाँ के समाज के बारे में काफी जानकारी मिल पायी है। ऐसे साक्षात्कारों
    के कारण ही यहाँ के भारतीयों के बारे में, समाज के बारे में, साहित्य के बारे में हम हमारे विचार साझा करते
    रहेंगें। आप दोनों को मेरी बधाई एवं शुभकामनाएं
    स स्नेह , सादर
    - लावण्या

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  14. आदरणीय यह प्रभावशाली साक्षात्कार 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक किया गया है। http://nirjhar-times.blogspot.in पर आपका स्वागत है,कृपया अवलोकन करें।
    सूचनार्थ

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  15. आदरणीय यह प्रभावशाली साक्षात्कार 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक किया गया है। http://nirjhar-times.blogspot.in पर आपका स्वागत है,कृपया अवलोकन करें।
    सूचनार्थ

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  16. आदरणीय यह प्रभावशाली साक्षात्कार 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक किया गया है। http://nirjhar-times.blogspot.in पर आपका स्वागत है,कृपया अवलोकन करें।
    सूचनार्थ

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  17. Ek behtareen sakshatkaar subir ji ke arthpurn prashn aur sudha ji ke purn uttar .ek din deshbandhu hindi sahitya dhundhte hue America kahin sachmuch na jaane lagen .nisandeh angrezi bacchon badon sabke sir chdhkar bol rahi hai.

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