मामला मौलिकता का… प्रेम भारद्वाज

हमारे लेखन में पूर्वजों का लेखन इस तरह शामिल होता है जैसे हमारे मांस में हमारे द्वारा खाए गए जानवरों के मांस- बोर्हेस


आप किसी ट्रैफिक जाम में तो जरूर फंसे होंगे। तब उसकी घुटन और उससे मुक्ति की छटपटाहट को भी आपने जरूर महसूस किया होगा। फिलहाल मैं परंपरा, आधुनिकता, मौलिकता और सपनों के चौराहे पर लगे जाम में फंसा हूं। ऊपर से भ्रम का घना बादल। बाजार की तेज आंधी। निकलूं तो कैसे? अजीब सी बेचैनी। जेहन में तरह-तरह के खयालात। ऐसे वक्त में जो लिखा जा सकता है वह पेशे-नजर हैं।





बसे पहले निवेदन यह कि जिन शब्दों के सहारे मैं लिख रहा हूं वे बासी पड़ चुके हैं। बासी से भी आगे की चीज। भोजपुरी में इसके लिए शब्द है, ‘अरुआ’ जाना। अज्ञेय की मानें तो शब्द इतने घिस गए हैं, मटमैले हो चुके हैं कि इनमें पहले जैसे अर्थ नहीं रहे, प्रभाव तो दूर की बात है। अक्षमता और दारिद्रय का भयानक आलम। इतना कि मेरे पास एक भी सार्थक शब्द नहीं जिसे मैं अपना कह सकूं, मौलिक बता सकूं। यह बात अक्षरों पर भी लागू होती है। तो सबसे पहले दुनिया की तमाम भाषाओं के अक्षर और शब्द गढ़ने वालों को सलाम। उन्हें आभार कि आज अपने भाव मुझ और मुझ जैसे अरबों लोग अभिव्यक्त कर पा रहे हैं। एक ऐसे दौर में जब बच्चों को पढ़ने के लिए भोजन का लालच दिया जाता है और स्कूल में भोजन के नाम पर मिलती है मौत। जब 27 रुपए प्रतिदिन खर्च करने वाले को गरीबी की दायरे से आजाद मान लिया जा रहा है। जब तकनीकी ही तकनीक का काल बन जाती हो। (प्रमाण ‘तार’ का अलविदा होना है।) फेसबुकिए शब्दवीर क्रांति के ‘पोस्ट’ दाग रहे हों। ऐसे में बिलकुल लीक से हटकर चलने की बात जो जमाने के मौजूदा दौर से जुड़े होने के बावजूद उससे जुदा हो।

गे बढ़ने से पहले एक स्पष्टीकरण। इसे आप मेरा कमजोर आत्मविश्वास या भय भी मान ले सकते हैं। बावजूद इसके मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि आगे जो भी लिखने जा रहा हूं वह कोरी बकवास, दिमागी फितूर, दो कौड़ी का या हास्यास्पद हो सकता है। लेकिन अश्लील नहीं होगा, इसकी गारंटी लेता हूं। युवा मित्रा रोहित प्रकाश बार-बार एक जुमला उछालते हैं, ‘पुनरावृत्ति सौंदर्य का निषेध है।’ इस विचार को जुमला बना उसे बार-बार कह, पुनरावृत्ति के जरिए इसके सौंदर्य को वे नष्ट कर चुके। बोर्हेस के कथन और टीएस एलियट की उक्ति, ‘हजारों वर्षों के भाषा प्रवाह में खड़े होकर कोई मौलिक हो ही नहीं सकता’ के बरअक्स रोहित के जुमले को समझने की कोशिश हमें कहां ले जाएगी, यह तो कोशिश करके ही मालूम हो सकता है।

हुत सारे लोगों की तरह मैं भी मानता हूं कि हिंदी में मौलिकता का अभाव है। राजेंद्र यादव तो कई बार कह चुके हैं, ‘हिंदी साहित्य के तमाम विचार पश्चिम से आयातित हैं।’ अगर विचारों-सिद्धांतों को छोड़ भी दें तो रचनात्मक स्तर पर हिंदी साहित्य में सब कुछ ठहरा हुआ मालूम पड़ता है। ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है। मैं यह कहने की हिमाकत तो नहीं कर सकता कि साहित्य में भी यही स्थिति है। लेकिन अगर हम सिहांवलोकन करें तो पाएंगे कि कुछ लीकें बन गई हैं। साहित्य उसी पर चल रहा है, लोग लिखे जा रहे हैं। थोक भाव से। इस बात से बेपरवाह होकर कि उनके इस लिखने का क्या खास मतलब है... बाकियों से वह किस मायने में अलग है, कोई उसे क्यों पढ़ेगा। लब्बोलुआब यह कि वैचारिकी, सिद्धांत या रचनात्मक स्तर पर हम साहित्य के रेगिस्तान में मौलिकता के कतरा भर पानी को तरस से गए हैं। सिद्धांत और विश्व परिदृश्य में मौलिकता की विवेचना तो विद्वजन करेंगे, मेरे मन में तो इसे लेकर कुछ जिज्ञासा भर है।

मौलिकता का संबंध कल्पना से है और कल्पना हमारे मौजूदा दौर में जैसे कटघरे में कैद कर दी गई है। बेशक उसका अंत नहीं हुआ है मगर अंत के करीब जरूर है। वह जल बिन मछली की तरह छटपटा रही है। रेत पर या मछुआरे के उस जाल में जहां से निकालकर उसे बाजार में बेचा जाना तय है। मुक्तिबोध ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखते हैं, ‘सौंदर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशीलता कल्पना के सहारे, संवेदित अनुभव का ही विस्तार हो जाए। कलाकार का वास्तविक अनुभव और अनुभव की संवेदनाओं द्वारा प्रेरित पफैंटेसी, इन दोनों के बीच कल्पना का एक रोल होता है। वह रोल, वह भूमिका एक सृजनशील भूमिका होगी।’ मुक्तिबोध में पचास-साठ साल पहले कल्पना के महत्व को समझा था। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। नोबेल प्राप्त वीएस नायपाल ताल ठोंककर कहते हैं, ‘यह नॉन फिक्शन का दौर है।’ मतलब वे भी कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के खिलाफ हैं।

क लेखक बेशक यथार्थ की जमीन पर खड़ा होता है, लेकिन रचना में कल्पना की ईंटें ही उसे एक मजबूत और ऊंची मीनार में तब्दील करती हैं। एक रचनाकार अपनी कृति में अज्ञात का साक्षात्कार करता है। साहित्य में अज्ञात की अभिव्यक्ति का एक रूप हम जेम्स ज्वायस की किताब ‘यूलिसिस’ के अंतिम सवा सौ पृष्ठों में पाते है। प्रसन्न कुमार चौधरी कल्पना के महत्व को रेखांकित करते हैं, ‘कल्पना यथार्थ का विस्थापन नहीं है। वह हमारे जटिल अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। साहित्य के केंद्र में अनुभूति है, इसलिए जब तक कोई घटना अनुभूति के स्तर नहीं उतरती, उस पर साहित्यिक कृति सामने नहीं आती।’ नेपोलियन के रूसी अभियान पर तोलस्ताय की कालजयी कृति ‘युद्ध और शांति’ उस घटना के करीब साठ साल बाद आई। समय के हिसाब से महान रूसी साहित्यकार पुश्किन या गोगोल उस घटना के ज्यादा करीब थे, तोलस्ताय का तो तब जन्म भी नहीं हुआ था। कल्पना और स्मृति का बड़ा घालमेल है। कई बार स्मृति को ही कल्पना मान लिया जाता है।

लियट कहा करते थे, ‘कल्पना में बहुत अधिक स्मृतियां होती हैं।’ लेकिन निर्मल वर्मा की सोच हैं, ‘स्मृति निस्संदेह लेखन को विश्वसनीय बनाती है और उसे अतीत की सुगंध से भर देती है, लेकिन कोई भी लेखक स्मृति का बंदी नहीं बनेगा।’कल्पना का मतलब यथार्थ को खारिज करना नहीं। न सच्चाई को दरकिनार करना है। हवाई महल बनाना तो कतई नहीं। सिद्धांतों-परिकल्पनाओं के गझिन संसार में भटके बिना कल्पना से हमारा इतना आशय भर है कि वह यथार्थ को नयापन, मौलिकता दे। कुछ ऐसा रचे जिसमें ताजगी हो। एक टटकेपन का एहसास हो। मेरी जानकारी में हिंदी साहित्य के भीतर ऐसा कम हो रहा है। साहित्य ने पैरोडी की राह पकड़ ली है। किसी मंदिर में गाए जाने वाले भजनों की तरह जिनमें नई धुन न रच पाने के कारण फिल्मी धुनों पर शब्द फिट कर दिए जाते हैं। अधिकतर रचनाओं में शब्द फिट कर दिए जा रहे हैं। कोई शिव, कोई दुर्गा तो कोई साईं बाबा के प्रति भक्ति भाव से भरा है, पैरोडी दर पैरोडी।

ल्पना यथार्थ के शिकंजे में कैद कसमसा रही है। हमारे भीतर और आस-पास के माहौल में इतनी प्रचुरता में यथार्थ ठूंस दिया गया है कि कल्पना के लिए स्पेस ही नहीं बचा है। हम मानसिक नक्शा नहीं बना पा रहे हैं। कोई वैकल्पिक खाका नहीं है। कल्पना के लिए न एकांत है, न समय। हम दौड़ तो तेज रहे हैं, मगर उड़ नहीं पा रहे। रचनाकार का काम दौड़ने का ही नहीं, उड़ने का भी होता है। साहित्य सत्ता और विज्ञान के आगे के चीज होती है। तकनीक और सूचनाओं की बमबारी ने समाज, समय और मन के भीतर असंतुलन कायम किया है। अनर्स्ट फिशर भी मानते हैं कि सूचनाओं की बाढ़ सत्य के बारे में हमें जानकार नहीं बनाती, बल्कि सत्य को अपने साथ बहा ले जाती है। चारों दिशाओं से बेशुमार आ रही सूचनाएं एक दूसरे को काटने लगती हैं। ऐसे में जिस आदमी के पास सबसे ज्यादा सूचनाएं होती हैं वह ताकतवर बनने की बजाए सबसे ज्यादा कंफ्यूज और भ्रमित रहता है। भ्रम से लदे समय में हम खंडित यथार्थ में जीने को अभिशप्त हैं, संपूर्ण कुछ भी नहीं है। यथार्थ भी नहीं। कुछ भी टिकाऊ नहीं है। प्रेमचंद के जमाने में किसानी जीवन का संपूर्ण यथार्थ था। आज कुछ भी संपूर्ण नहीं है। आधा-अधूरा। टुकड़ों में बंटा। अपने-अपने अजनबी की तर्ज पर अपना-अपना यथार्थ। किसी के पास भूख। किसी के पास रोटी है। किसी के पास बाजार। कहीं प्रेम, कहीं स्त्री-पुरुष। सब कुछ थोड़ा-थोड़ा।

हा जा रहा है कि समाज में आंदोलन नहीं है इसलिए वैकल्पिक नक्शा नहीं बन पा रहा है। जो सपने देख रहे हैं, वैचारिक नक्शे के बारे में सोचते हैं, उन पर पाबंदी है। यह अपने ही देश में नहीं दूसरे देशों में भी हो रहा है। वर्ष 2011 अप्रैल के मध्य में चीनी सरकार ने टी.वी., फिल्मों और उपन्यासों में ऐसे कथानकों पर रोक लगाई जिसमें किसी वैकल्पिक यथार्थ या समय-यात्रा का समावेश किया गया हो। सरकार का तर्क था कि वे लोग विकल्प के सपने देखते हैं। इसलिए सपनों पर रोक लगाना जरूरी है। जहां तक अपने देश भारत की बात है तो हमें ऐसी किसी सीधे तौर पर लगाई जाने वाली रोक की जरूरत नहीं। यहां शासन ने हमारे सपने देखने की क्षमता का ही दमन कर दिया है। हमने सपने देखने छोड़ दिया है। अब हम सिर्फ लालसाओं, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पालते हैं। जबकि सपने उनसे बहुत बड़ी चीज हैं। यह हमारे समय की त्रासदी है कि सपने इच्छाओं में ढल गए हैं, और इच्छाएं लालसाओं-वासनाओं में।

मने विज्ञान और तकनीक को ही अंतिम सच मान लिया है। अब तो अनुमेय यानी अनुमान के अनुसार चीजें होने लगी हैं। तकनीक से उपजे मशीनी जीवन ने संवेदना और कल्पनाओं को संकुचित किया है। समाजशास्त्र और सोशल अप्रोच से भी साहित्य की मौलिकता में कमी आई है। सामाजिक रिसर्च साहित्य नहीं है। मूल चीज है जीवनानुभूति। तथ्यों-आंकड़ों के जाल में मानवीय तत्व गुम होकर रह गया है। रिसर्च यह तो बता सकता है कि अमुक गांव में इतने और देश भर में कुल कितने विकलांग हैं। लेकिन वह उन लोगों के दर्द, उनके घायल सपनों, टीस और न दौड़ पाने की छटपटाहट के बारे में मौन रहेगा। यह काम साहित्य का है। साहित्य का क्या महत्व है, यह आइंस्टीन के एक बयान से समझा जा सकता है, ‘अपने तमाम आविष्कारों की बजाए अगर मैं दोस्तोवयस्की की तरह ‘अपराध और दंड’ लिखता तो मुझे ज्यादा खुशी होती।’

मौलिकता का अभाव कभी पुनरावृत्ति तो कई दफे प्रभाव की शक्ल अख्तियार कर लेता है। रचना पर प्रभाव का विवाद बहुत पुराना है। प्रभाव अपनी हद में रहे तो ठीक है। मगर जब कभी वह अपनी परिधि का अतिक्रमण करता है तो मामला नकल का होकर अशोभनीय हो जाता है। विश्व साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं। शेक्सपीयर ने भी नींद को मृत्यु की बहन कहा, और यही बात बाद में शैली ने भी कही, ‘मृत्यु की सगी बहन है नींद।’ महान रचनाकारों में भले ही सदियों का फासला हो, लेकिन वे एक सा सोचते हैं। इस उदाहरण से तो यही प्रमाणित होता है।

लेकिन मामला मौलिकता का, कल्पना का, सपनों का है। किसी बड़े लेखक के लिए मौलिक होना कितना अहम है। क्या मौलिकता एक मानदंड है किसी रचनाकार के बड़े होने का। मौलिकता का संबंध कल्पना और यथार्थ में से किससे है? सच और झूठ में मौलिक क्या है? मौलिकता सच हो सकती है और झूठ भी। कल्पना सच के विपरीत होती है यानी झूठ, नैतिक, अनैतिक, सामाजिक, असमाजिक कुछ भी हो सकती है। प्रियंवद के उपन्यास ‘धर्मस्थल’ का एक संवाद याद आता है, ‘रचना के संसार में जब भी तुम कुछ नया करना चाहते हो तो सबसे पहले स्वयं को नष्ट करना होता है। अपने रचनाकार होने के बोध् को मारना पड़ता है। हर रचना के बाद सबसे पहले अपने अंदर उसकी हत्या करनी होती है, जिसने उसे रचा था। रचनाकार होने के बोध, गर्व की हत्या करनी होती है। जो रचा उसकी भी हत्या करनी होती है। तभी अगली रचना का भ्रूण जन्म लेता है। अनिश्चत, भंगुर नया जीवन?’ श्रीकांत वर्मा भी कहते हैं, ‘जो बचेगा, कैसे रचेगा’ लेकिन लोग बच-बचकर रच रहे है। अपने भीतर के अहंकार की हत्या करने की बजाए उसकी हत्या करने पर आमादा है जो उनके अहंकार के आड़े आता है।

चपन में पढ़ी थी एक कविता, ‘कल्पना करो, नवीन कल्पना करो।’ साहिर लुधियानवी ने कहा, ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें।’ पाश तो चेतावनी के अंदाज में बता गए, ‘सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।’ जानता हूं, कल्पना और स्वप्न, दोनों अलग चीजें हैं। लेकिन उनका मूल प्रस्थान बिंदु एक है। जब आधुनिकता का एक स्तर निराशा से जूझने का भी हो। विकास की चकाचौंध के गर्भ में अंधकार लगातार गहराता जा रहा हो। ऐसे में कल्पना और सपनों का मद्धम रोशनी वाला चिराग ही रास्ता दिखाएगा। लेकिन धीरे-धीरे ये चीजें गायब हो रही हैं, लेखन और जीवन, दोनों से ही। इतिहास का अंत, कविता का अंत, विचार का अंत के बाद क्या नया दौर कल्पनाओं के अंत का है। सर्वेक्षण और वैज्ञानिक खोज भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि अब आदमी पहले की तुलना में नींद में सपने कम देखता है। इसे आप व्यक्तिगत स्तर पर भी परख सकते हैं। हमारी योजना ‘कल्पना के अंत बनाम हिंदी साहित्य में मौलिकता’ पर एक लंबी बहस कराने की है। आप इसमें आमंत्रित है। ओपनिंग शॉट रोहित प्रकाश को लगाना है जो यह जुमला उछाल रहे हैं।

हरहाल, वही चैराहा, वही जाम, परंपरा, लीक, आधुनिकता सब अपने-अपने वाहनों पर बैठे जाम खुलने का इंतजार कर रहे है। मैं भी। कोई तो नीचे उतरकर जाम के भूगोल को समझे, जाम खुलवाए।

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1 टिप्पणियाँ

  1. आदरणीय अपकी यह प्रभावशाली प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' पर संकलित की गयी है।
    कृपया http://nirjhar.times.blogspot.in पर पधारें,आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।
    सादर

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