कहानी : सफ़ेद चादर - अनिल प्रभा कुमार

बस, अब यह पाइन-ब्रुक वाला रास्ता ले लीजिए। ट्रैफ़िक - लाइट पर बांये, अगली ट्रैफ़िक – लाइट पर दांये, और इसी सड़क पर सीधे चलते जाओ जब तक कि……।”

        उनकी व्यस्तता देख कर वह रास्ता बताते-बताते रुक गई। वह बड़ी एकाग्रता से स्टियरिंग सम्भाले थे। यूं तो वह अब स्थानीय सड़क पर ही थे और वक्त था दोपहर दो बजे का। ट्रैफ़िक ज़्यादा ही लगता था और वह भी तेज़ गति से चलता हुआ। लेन एक ही थी और वह भी तंग सी। विपरीत दिशा से भी उतनी ही तेज़ी से कारें, ट्रक सभी सिर पर चढ़े आते लग रहे थे। गाड़ी चलाने में ध्यान केन्द्रित करने की ज़रुरत थी।

        अचानक, एक हिरण विपरीत दिशा से आते एक छोटे ट्रक से टकराया। एक भारी भूरी गेंद की तरह उछला। ठीक उनकी कार के दांये बम्पर से दोबारा टकराया और फिर घास की पट्टी पर गिर पड़ा। हवा में उठी उसकी टांगों में कम्पन हुआ और वह सड़क किनारे लगी घास और झाड़ियों के बीच लुढ़क गया।

        वह कार में आगे दायीं ओर पैसेन्जर सीट पर ही बैठी थी। हिरण ठीक उसके आगे ही गिरा था। सब कुछ इतना अचानक हुआ कि उसकी चीख थरथरा कर, कांपती सी आवाज़ में फिसल गई। ब्रेक लगाने का अवसर ही नहीं मिला । उसने डरते हुए साइड मिरर से देखा। हिरण में कोई गति नहीं हो रही थी । ख़ून भी उसे कहीं नहीं दिखा। उसने गहरी सांस ली। मन ही मन प्रार्थना की, प्लीज़ प्रभु, यह अब तड़पे नहीं।

        ज़रा सा आगे चलकर, खुली जगह देख उन्होंने कार अंदर मोड़ कर रोक ली। वह वहीं अन्दर बैठी रही। वह कार का निरीक्षण करने लगे। नम्बर –प्लेट का दायीं ओर का हिस्सा धक्के से अन्दर धंस गया और हैड- लाइट में दरार पड़ गई थी। सफ़ेद-सलेटी कार पर हिरण के भूरे-पीले बालों की परत चिपक गई। वह उंगली से छू कर कुछ देखने लगे तो वह चिल्लायी,

        “छूना मत”।

        उन्होंने माथे पर त्यौरियां डाल कर उसकी तरफ़ सिर्फ़ देखा, कहा कुछ नहीं।

        वह झेंप गई शायद आवाज़ ज़्यादा ही ऊंची निकल गई थी।

        “वोह, वोह, मेरा मतलब था कि जंगली हिरण के शरीर में ’टिक्स’ होते हैं न। भयानक लाइम की बीमारी हो सकती है उससे”।

        वह कार के सामने झुक कर मुआयना करने लगे, नुक्सान का अन्दाज़ा लगाने के लिए। वह शायद किसी के घर का ड्राइव-वे था। तीन लोग बाहर निकल आये । उनके तेवरों से वे समझ गए कि उन्हें इस तरह उनके कार रोके जाने पर आपत्ति थी।

        “हमारी कार से अभी- अभी एक हिरण टकरा गया है, इसलिए ज़रा रुक कर देख रहे हैं। बस, चलते हैं।” उन्होंने माफ़ी सी मांगते हुए अंग्रेज़ी में कहा।

        दोबारा कार में बैठते ही उन्होंने एक सवाल यूं ही उछाला- “क्या तुम सोचती हो कि हमें पुलिस को सूचना दे देनी चाहिए?”

        “मालूम नहीं।”

        “ वैसे अगर किसी आदमी को चोट लग जाए तो सूचना न देना अपराध माना जाता है।”

        “यहां सड़कों पर इतने जानवर मरे हुए पाए जाते हैं, तुम समझते हो कि इन सबकी

        रिपोर्ट होती होगी?”

        “मेरा नहीं ख्याल।”

        पहली बार इस नई जगह पर आए थे और देरी होने के विचार से थोड़ा तनाव बढ़ रहा था। वह सड़क पर डॉक्टर ली के नाम का बोर्ड ढूंढने लगे। उसके कंधे में बहुत दिनों से दर्द चल रहा था। दवा तेज़ थी और कोई ख़ास फ़ायदा भी नहीं हुआ। थैरेपी भी करवा कर देख ली। बस आराम आ ही नहीं रहा था। कुछ मित्रों ने सुझाव दिया – डॉक्टर ली का। चीनी आदमी है, नया- नया अमरीका में आया है। अंग्रेज़ी नहीं बोल पाता पर पुरानी चीनी विद्या “टुइना थैरेपी” से मालिश करता है। ऊर्जा के प्रवाह को नियमित कर, ज़्यादातर बीमारियां ठीक कर देता है। आज वही तीन बजे डॉक्टर ली से मिलना था।

        मेज़ पर पेट के बल लेट कर चेहरा उसने एक बड़े से गोल छेद के ऊपर रख लिया – सांस लेने के लिए।

        पाप हो गया, हत्या हो गई। हिरण को भी एक बार ट्रक से टकरा कर फिर दूसरी बार उन्हीं की कार से टकराना था क्या ? ठीक उसी के चेहरे के सामने।

        “रिलैक्स” डॉक्टर ली को इतनी अंग्रेज़ी आती लगती थी।

        वह उसके कंधे पर मालिश कर के गांठे ढूंढने लगा। एक जगह उसने गांठ पकड़ ली। अंगूठे और हथेली के पूरे दबाव से मसल दिया।

        वह दर्द से बिलबिलाई।

        “ओल्ड” डॉक्टर ली ने सफ़ाई दी।

        पास में उसके पति बैठे थे, चुपचाप देखते हुए, कुछ और ही सोचते हुए।

        “तुम्हारी पुरानी सोचने की आदत ने जो गांठे डाल दी हैं, उनको सुलझाने की कोशिश कर रहा है।”

        “यह कोई मज़ाक नहीं”, वह फिर दर्द से हिली।

        डॉक्टर ली ने शायद अपना पूरा वज़न ही अपने हाथों पर डाल कर उसके कंधों को दबा दिया।

        अगर हिरण बंपर से न टकरा कर उनके हुड पर ही गिरता तो? अगर उसी के उपर आकर हिरण गिर जाता तो? कितना वज़न होगा?

        उसकी बोझ से सांस घुटने लगी।

        डॉक्टर ली ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा “ओ.के”।

        उसके पति से बोला – “शी नो रिलैक्स “

        “आई नो”, जवाब सुनकर भी वह पहली बार नहीं चिढ़ी ।

        वापिसी में उन्होंने पूछा –”कैसी रही मालिश?”

        “बदन तो कुछ हल्का हो गया है, पर...।” उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

        “शुक्र करो कि कुछ नहीं हुआ।”

        “कुछ नहीं हुआ?”

        “मतलब बच गये।”

        “कहां बच पाया?”

        “जानती हो अगर हिरण विंड- शील्ड पर पड़ता और वह टूट कर हमारे ऊपर पड़ती तो इस वक्त हम अस्पताल में होते !”

        “हमें शायद हिरण को भी अस्पताल ले जाना चाहिए था।”

        “तुम्हारा दिमाग़ खराब हो गया है ।”

        “दिन- दहाड़े, इतनी दौड़ती सड़क पर वह तीर की तरह छूट कर क्यों आया होगा?”

        “क्योंकि हिरण बेवकूफ़ होते हैं।” वह खीझ रहे थे।

        शायद भूखा होगा, उसने सोचा।

        “नई गाड़ी है, अभी पिछले साल ही तो ली है। एक्सीडेंट हो गया। नुक्सान तो हुआ ही है न? पता नहीं इन्श्योरेन्स कम्पनी कितना भरपाया करती है और कितना अपनी जेब से देना पड़ेगा? ब्रेक तक लगाने का मौका नहीं था। बेवकूफ़ कहीं का।”

        उसे लगा कि सोच के साथ - साथ अब उनकी खीज भी बढ़ रही थी। भूख भी तो लगी होगी, उसे ध्यान आया। मालिश करवानी थी न, एक गिलास ’समूदी” पी कर ही चली थी वह।

        “मुझे नहीं पीनी यह फलों वाली लस्सी”, कह कर उन्होंने तो वह भी नहीं ली थी।

        “चिन्ता मत करो। घर पहुंचकर पहले खाना खाते हैं, फिर सोचेंगे कि आगे क्या करना है?” उसने सुझाव दिया।

        “नहीं, पहले ऑटो बॉडी- शॉप चलकर कार दिखानी होगी। क्या पता कार इस हालत में चलानी भी चाहिए या नहीं?”

        “आप मुझे फिर से टेंशन दे रहे हैं, सारी की कराई मालिश का असर हवा हो गया।” वह वाकई तनाव- ग्रस्त होती जा रही थी।

        “कुछ सुनाई देता है, ज़रा ध्यान से सुनो।” वह भी तनाव में थे।

        कार जहां भी लालबत्ती पर रुक कर फिर चलती तो खटाक की आवाज़ होती, ठीक उसके नीचे वाले पहिए की तरफ़।

        “अच्छा चलो, पहले बॉडी-शॉप ही चलो।” वह चुप करके बैठ गई।

       

        बॉडी-शॉप वाले ने घूम-फिर कर हुड खोला। ऊपर-नीचे झाँककर, अच्छी तरह से मुआयना किया।

        “यह लोग करेंगे क्या?” उसने पति से अपनी भाषा में पूछा।

        “नुक्सान हुए हिस्से को फेंक देंगे। नया हिस्सा मंगवा कर लगा देंगे। पता ही नहीं लगेगा कि कभी कुछ हुआ भी था।”

        पति उस आदमी के साथ अन्दर दफ़्तर में लिखत -पढ़त करने चले गए।

        वह खिड़की नीचे करके वहीं बैठी रही। उस बुझे से दफ़्तर के बांयी ओर टायरों का ढेर लगा था और दांयी ओर कारों के टूटे, जले या जंग खाये, मुड़े-तुड़े हिस्से थे - कोई दरवाज़ा कोई हुड या कोई बम्पर बड़ी बेतरतीबी से फेंके गए थे। पता नहीं कहां से दिमाग़ में एक ख़्याल आया, भगवान राम जब दण्डक-वन से गुज़र रहे होंगे तो यूं ही राक्षसों द्वारा मारे गए ऋषि - मुनियों के अस्थि-समूह के ढेर देखे होंगे। उसने मुँह फेर लिया।

        अब उस आदमी ने उसकी खिड़की के नीचे झुक कर लोहे का कोई पुर्ज़ा बाहर घसीटा और उसके पति के हाथ में पकड़ा दिया।

        “धक्के से अलग हो गया था, यही आवाज़ कर रहा था। वैसे गाड़ी घर ले जा सकते हो।”

        पति के माथे पर गहरे बल थे। फिर से बैठे और कार चला दी।

        “क्या कहता है?” उसने कोमलता से पूछा।

        “अभी तो यूं ही अन्दाज़ से खर्चा बताया है, दो हज़ार डॉलरस का।”

        “दो हज़ार डॉलरस इस्स के?” उसने अविश्वास से कहा।”

        “घर चलकर इन्श्योरेन्स कम्पनी को फ़ोन करता हूं। देखो? ’कोलिज़न’ तो सिर्फ़ हज़ार डॉलरस का ही है बाक़ी ह्ज़ार ज़ेब से देना पड़ेगा। ऊपर से बीमे की दर पता नहीं कितनी और बढ़ जाएगी? बैठे-बिठाए चूना लग गया।” वह अभी भी उधेड़-बुन में लगे थे।

       

        गाड़ी गैराज के अन्दर ले जा रहे थे तो उसने टोका, “गाड़ी बाहर ही रहने दो, आज अन्दर मत ले जाना।”

        “क्यों?” वह असमंजस में थे।

        “बस कहा न।” गाड़ी रुकते ही वह घर के अन्दर भागी। जल्दी से नहाकर, कपड़े बदल नीचे आई।

        वह भोजन की प्रतीक्षा में मेज़ पर बैठे थे, कागज़ के आंकड़ों में उलझे हुए।

        “आप भी जल्दी से नहा लीजिए।”

        “इस वक्त?”

        “वह हिरण मर गया है न।” उसने धीमी आवाज़ में आंखे नीची करते हुए कहा।

        ’मैने मुँह-हाथ धो लिया है। खाना देना हो तो दो।” लगा उन्हें गुस्सा आना शुरु हो गया था। उसने चुपचाप कल का बचा खाना माइक्रोवेव में गरम करना रख दिया। पीटा- ब्रैड टोस्टर-अवन में डाल कर वह जल्दी से ऊपर आ गई। मंदिर में जोत जला दी -”प्रभु, उस हिरण की आत्मा को शांति देना।”

        वह फ़ोन पर व्यस्त थे। बात करते हुए सब सूचनाएं नोट करते जाते थे। फिर दूसरा और फिर तीसरा फ़ोन।

        आख़िर वह क्लान्त से आकर उसके पास बैठ गए। उसे उन पर करुणा-सी आई। सारे झंझटों से निपटना तो मर्दों को ही होता है न।

        “चाय बनाऊँ ?” उसने उनका चेहरा पढ़ते हुए पूछा।

        उन्होंने हामी में सिर हिलाया ।

        वह हिरण भी शायद कुछ न मिलने पर, जंगल के इस पार जान की ज़ोखिम उठाकर, आबादी में घुसने निकल पड़ा होगा। नहीं तो हिरणो का झुंड रात को ही कुछ खाने को निकलता है। खबरों में था कि न्यू-जर्सी में हिरणों की आबादी बहुत बढ़ गई है। तो? आबादी बढ़ जाए तो क्या जान की क़ीमत कम हो जाती है?

        वह बैठ गई । किसे झुठला रही है? यहां एक भी आदमी मर जाए तो कितना हल्ला होता है और वहां बाक़ी दुनिया में रोज़ कितने लोग मरते हैं? आंकड़े, नम्बरस बस! जिसका वह एक नम्बर होता है, कभी उसकी देह में जीकर तो देखो।

        पता नहीं क्यों वह उखड़ती जा रही थी।

        “क्या तुम जानना चाहती हो कि मेरी इन्श्योरेन्स वालों से क्या बात हुई?”

        वह सुनने के लिए बैठ गई।

        “क़िस्मत से यह दुर्घटना ’कोलिज़न’ की श्रेणी में नहीं आती क्योंकि इसमें किसी की ग़लती नही थी। ’कॉम्परिहैन्सिव’ के वर्ग में आती है। जिसमें तुम्हारी ग़लती न हो, फिर भी नुक्सान हो जाए।”

        “तो?”

        “तो इन्श्योरेन्स की दर नहीं बढ़ेगी। एक हज़ार डॉलरस हमें अपनी जेब से देने पड़ेंगे बाक़ी की रक़म हमारी इन्श्योरेन्स भर देगी।”

        “हिरण के शव का क्या होगा?” वह पूछ नहीं पाई।

        “ऑटो बॉडी -शॉप वाले से भी बात कर ली है। कल तुम्हें जल्दी उठकर मेरे साथ चलना होगा। मेरी गाड़ी ठीक होने के लिए छोड़ आएंगे और वापिसी में तुम्हारी गाड़ी में दोनो लौट आएंगे।”

        “अच्छा।” कह कर वह उठ गई।

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        सिर में दर्द तेज़ होता गया, जी मतलाने लगा। पहले भी एक बार उसने हाइवे पर किसी जीप के आगे बंधे मृत हिरण को देखा था। कोई निर्दोष जानवर का शिकार कर, तग़मे की तरह उसे अपनी जीप के आगे बांध, सारी दुनिया कि दिखाते हुए भागा जा रहा था। एक झलक ही मिली थी उसे, हिरण की लटकी हुई गर्दन की। हिरण उसकी चेतना पर टंगा रह गया। और आज यह सब कुछ अनजाने में ही हो गया।

        वह अभी तक कुछ-कुछ सकते में थी। एकदम अचानक, इतने अचानक? क्या ऐसे ही होता है सब कुछ? ऐसे ही एक क्षण कोई दौड़ता हुआ प्राणी और दूसरे ही पल किनारे पड़ी लाश!

        ऐसे ही क्या मुकेश भी दौड़ कर सड़क पार करने लगा होगा, तेज़ आती बस ने उसे ऊपर उठा कर, नीचे पटका होगा और फिर ....।

        वह घबरा कर खड़ी हो गई। ढेर सारे पानी के साथ टॉयनाल की दो गोलियां निगल लीं। उसे कुछ नहीं सोचना है इस बारे में। यह बात तो उसने चेतना के बहुत गहरे गर्त्त में धकेल दी थी। आज उभर कैसे आई।

        हिरण की आंखे नही दिखीं। मुकेश की आंखो जैसी गहरी काली होंगी?

        “सिर कुचल गया था।’ बड़ी भाभी ने बताया।

        “नहीं जानना है उसे।” वह चीख़ कर बाहर भागी थी।

        “कोई उससे मुकेश की मौत के बारे में बात न करे।” पति ने उसके दिल्ली पहुंचने से पहले ही उसके घर-वालों को आगाह कर दिया था।

        उस दिन भी तो वह सो ही रही थी। पति उसके सिरहाने आकर बैठ गए। अभी जागती दुनिया में लौटी नहीं थी।

        “मुकेश की मौत हो गई है।”

        वह उठ कर बिस्तर पर बैठ गई। उसके, उससे भी छोटे भाई की अचानक? जैसे वह उनकी बात का मतलब समझने की कोशिश कर रही हो।

        “एक्सीडैंट” उन्होंने कहा।

        वह सुन्न सी बैठी रही। मां तो नही रहीं, पर बाबूजी?

        “मैं दिल्ली जाउंगी।” उसने उठने की क़ोशिश की।

        “क्या करोगी जाकर? अब तक तो उसकी बॉडी भी.....” उसने पति के मुंह पर कसकर हाथ रख दिया ।

        “मत कहो मेरे भाई को बॉडी।” लगा जैसे ख़ून का हर क़तरा चीखें मारने लगा। फूट-फूट कर रो पड़ी।

        फिर शांत हो गई। पेट में बहुत ज़ोर से ऎंठन होने लगी। फिर सिर में भयानक दर्द। दर्द असहनीय था।

        अस्पताल मे दर्द को कम करने वाला इंजैक्शन दिया गया। ऐसा सदमे से हो जाता है। इस बारे में कोई ज़्यादा बात न करे।

        वह ख़ुद भी बात नही करती। शरीर की भयानक पीड़ा उसे मानसिक पीड़ा से बरगला कर दूसरी ओर ले गई थी।

        वह उखड़ी -उखड़ी सी रात के खाने की तैयारी करने लगी। सब्ज़ी काटते हुए पूछा -”हिरण शाकाहारी होते हैं न?”

        “तुम अभी तक उसके बारे में सोच रही हो?”

        “आप क्या सोच रहे हैं?”

        “शुक्र कर रहा हूं कि इन्श्योरेन्स की दर नहीं बढ़ेगी। यह जो एक हज़ार की चोट लगी है, इसकी छुट्टियां मना सकते थे।”

        उसने उन्हें कातरता से देखा। कुछ भी कह नहीं पाई। बस, जैसे सब संतुलन गड़बड़ा गया हो।

        उन्हें खाना खिला कर वह सोने चल दी। थक गई है।

        करवटें बदलती रही। मन इतना अशांत क्यूं? आंखे बन्द कर मंत्र बुदबुदाती है। ध्यान कहीं नहीं लगता।

        एक धुन्ध में लिपटी सड़क है। दिल्ली वाले उसके घर के सामने वाली। हल्का सा अंधेरा है और सड़क सुनसान। अचानक जैसे किसी के इशारे पर दोनों ओर की सड़कों पर कारों, स्कूटरों और बसों का भारी रेला दौड़ने लगता है। दोनों सड़कों के बीच एक छोटी सी पटरी है और उसी पटरी पर ट्रैफ़िक सिगनल। एक बस तेज़ी से दैड़ती हुई आती है। तरकश से छूटे तीर की तरह मुकेश उससे टकराता है। उसका शरीर थोड़ा सा हवा में ऊपर उछलता है और फिर बस के पहियों के नीचे।

        बाबूजी दूर अपने घर की बाल्कनी पर खड़े होकर देख रहे हैं। लोगों की भीड़, शोर, पुलिस की सीटियां, सड़क पर ख़ून ही ख़ून।

        एक बूढ़ा बाप देख रहा है पुलिस वालों ने उसके जवान बेटे पर सफ़ेद चादर ओढ़ा दी।

        ड्रॉइवर दिन -दहाड़े शराब पीकर गाड़ी चला रहा था। लाल बत्ती भी फ़ुर्ती से पार कर गया।

        “उसने जान-बूझ कर चलती बस के आगे कूद-कर आत्म-हत्या की होगी।” फिर से सफ़ेद चादर ओढ़ा दी गई।

        सफ़ेद चादर ने उसकी जवान पत्नी और दोनो बच्चों को भी ढक दिया। चादर फैलती जा रही थी। कुछ नही दिखता। चारो तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा। सारे शहर की बत्तियां गुल हो गईं। सब जगह बस धुंआ ही धुंआ। उसकी सांस घुटने लगी।

        उसने घबरा कर आंखे खोल दीं। सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। एयर-कंडीशन्ड कमरे में पंखा भी चल रहा था। इसके बावजूद बदन पसीने से भीग गया।

        वह उठ कर बैठ गई, बैठी रही। यह चेतना के गहरे गड्ढे में दफ़न किया हुआ सच, सपने में कैसे उतर आया?

        पति दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए।

        “जल्दी से तैयार होकर नीचे आ जाओ। गाड़ी छोड़ने में देर हो रही है।”

        उसने मुंह-हाथ धोया। नीली जीन्स के ऊपर सफ़ेद टी-शर्ट पहन ली। बाल कस कर पॉनी-टेल में बांधे।

        उसके बेरंगत चेहरे को देखकर वह चौंके। लगा जैसे वह किसी शव –यात्रा पर जाने के लिए तैयार होकर आई हो।

        “तुम ठीक हो न?” उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रख दिए।

        “हिरण के ऊपर सफ़ेद चादर डाल देनी चाहिए थी।”

        वह झुंझला कर कुछ कहने ही वाले थे पर उसका चेहरा देख कर चुप कर गए।

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डॉ अनिल प्रभा कुमार

जन्म: दिल्ली में
शिक्षा: पी.एच डी."हिन्दी के सामाजिक नाटकों में युगबोध" विषय पर शोध।
कार्यक्षेत्र:  विद्यार्थी-जीवन में ही दिल्ली दूरदर्शन पर हिन्दी 'पत्रिका' और “नई आवाज़” कार्यक्रमों में व्यस्त रही।  'झानोदय' के 'नई कलम' विशेषांक में 'खाली दायरे' कहानी पर प्रथम पुरस्कार पाने पर लिखने में प्रोत्साहन मिला। कुछ रचनाएँ 'आवेश', 'संचेतना', 'झानोदय' और 'धर्मयुग' में भी छ्पीं।
अमरीका आकर,  न्यूयॉर्क में 'वॉयस आफ अमरीका' की संवाददाता के रूप में काम किया और फिर अगले सात वर्षों तक 'विज़न्यूज़' में तकनीकी संपादक के रूप में। इस दौर में कविताएँ लिखीं जो विभिन्न पत्रिकाओं में छपीं।
न्यूयॉर्क के स्थानीय दूरदर्शन पर कहानियों का प्रसारण। पिछले कुछ वर्षों से कहानियां और कविताएं लिखने में रत। कुछ कहानियां वर्त्तमान - साहित्य के प्रवासी महाविशेषांक में छपी है।
वागर्थ, हंस, अन्यथा, कथादेश, शोध-दिशा, परिकथा, पुष्पगंधा, हरिगंधा, आधारशिला और वर्त्तमान– साहित्य आदि पत्रिकाओं के अलावा, “अभिव्यक्ति” के कथा महोत्सव में “फिर से” कहानी  पुरस्कृत हुई।                          
बहता पानीकहानी संग्रह (२०१२), भावना प्रकाशन से प्रकाशित।
उजाले की क़समकविता संग्रह (२०१३) भावना प्रकाशन


संप्रति:  विलियम पैट्रसन यूनिवर्सिटी, न्यू जर्सी में हिन्दी भाषा और साहित्य का प्राध्यापन और लेखन।
संपर्क:  Dr. Anil Prabha Kumar
119 Osage Road, Wayne, NJ 07470.
Phone: 973 628 1324
ईमेल: aksk414@hotmail.com


       

       

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2 टिप्पणियाँ

  1. अनिल्प्रभा जी की यह कहानी एक ऐसे विषय को लेकर लिखी गई है जो मन को गहरे छू कर
    हमें अन्दर तक झकझोर देती है नहीं तो, एक जानवर की मौत पर कोई इतना संजीदा नहीं होता है.जब हिरन की मौत पर परेशान होकर अपने भाव व्यक्त करती हैं कि कभी उसकी देह में जीकर देखे मतलब-तभी उस दर्द को समझा जा सकता है.इसीलिए यह पूरी कहानी हमें एक मार्मिक मोड़ पर खडा कर देती है.और ख़ामोशी के तरल अहसास से अपने को बंधा हुआ पते हैं.सुन्दर,अनिल्प्रभा जी को मैं विशेष रूप से बधाई देता हूँ.

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  2. aapki is kahani ne mujhe andar tak jhakjhora hai,yeh bahut hee gehre tak us hiran ke madhyam se ek naye darshan shaastr ki vyakhyaa karta huaa mehsoos hua.bahut hee marmik rachna hai,sundar.
    ashok andrey

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