एक विचार के रूप में हमारे साथ सदा रहेंगे राजेन्द्र यादव - अजित राय | Ajit Rai on Rajendra Yadav in Drishyantar

एक विचार के रूप में हमारे साथ सदा रहेंगे राजेन्द्र यादव 

अजित राय

ठीक रात के बारह बजे जब तारीख बदलती है, जब 28 अक्टूबर 2013 की जगह चुपके से 29 अक्टूबर 2013 आ जाता है, संगम पांडे का फोन आता है । हम सभी मित्रों में संगम सबसे अधिक संतुलित, नैतिक और गृहस्थ हैं । वे कभी रात के दस बजे के बाद फोन नहीं करते । इससे पहले कि मैं फोन उठाता, फोन कट गया । एक एसएमएस आया-‘राजेन्द्र जी नहीं रहे ।’ मैंने हड़बड़ाकर फोन किया । सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था । खबर सच थी । फिर भी विश्वास नहीं हुआ । विवेक मिश्र को फोन किया । खबर सच थी । अमेरिका में संजय सहाय को फोन किया । उनके दोनों फोन बंद थे । उनकी बहन सुकीर्ति सहाय को फोन किया और संदेश छोड़ा । राजेन्द्र जी अभी दो दिन पहले ही तो ‘दृश्यांतर’ के लोकार्पण समारोह में दूरदर्शन भवन आए थे । (उनका अंतिम भाषण हम रिपोर्ट के साथ अलग से छाप रहे हैं ।) रात भर हम मित्रों को फोन और एसएमएस करते रहे । सुबह–सुबह अमेरिका से संजय सहाय का फोन आया । ऐसा लगता था कि हम एक निचाट खालीपन से भर गए हों-यह खालीपन जानलेवा था । यह कुछ–कुछ वैसा ही है जैसे हम अपने पिता से खूब लड़ते–झगड़ते हैं और एक दिन अचानक जब वे चले जाते हैं तो हम अवाक रह जाते हैं । अपने पच्चीस साल के पत्रकारिता जीवन में मुझे सैकड़ों लेखकों–कलाकारों के साथ अंतरंग–आत्मीय समय बिताने का अवसर मिला है । उनमें राजेन्द्र जी विलक्षण थे । कभी मैंने सोचा था और राजेन्द्र जी से साझा किया था कि इन अनुभवों पर एक किताब लिखी जाए-‘एक सांस्कृतिक संवाददाता की डायरी’ । सुनकर उन्होंने सिगरेट का कश खींचते हुए कहा था कि वे इसे ‘हंस’ में धारावाहिक रूप में छापना चाहेंगे । उनका वाक्य था-‘‘यार, तुम्हारे पास इतना सारा खजाना भरा पड़ा है, अब इसे लिख ही डालो ।’’ बाद में कई बार उन्होंने याद भी दिलाया, पर तब मुझमें साहस नहीं था ।

       राजेन्द्र जी से मेरा रिश्ता उनके उपन्यासों- ‘सारा आकाश’ और ‘शह और मात’ के कारण बना । जब मैं 1984 में बी–ए– का छात्र था तो कलकत्ते में रहने वाली मेरी फुफेरी बहन नीलम सिंह ने मुझे ‘सारा आकाश’ उपहार में दिया था । मैं एक बैठक में उसे पढ़ गया । उपन्यास का पूर्वार्द्ध समाप्त होते–होते मैं इतना रोया कि किताब के पन्ने भीग गए । तभी बिजली चली गई जो कि मेरे शहर डुमरांव में आज भी अक्सर चली जाती है । जिन लोगों ने ‘सारा आकाश’ पढ़ा है, वे जानते हैं कि यह उपन्यास दो हिस्सों में है-‘पूर्वार्द्ध : सांझ’ और ‘उत्तरार्द्ध : सुबह’ । दोनों खंडों में दस–दस अध्याय हैं । पहले खंड का उपशीर्षक है-‘बिना उत्तर वाली दस दिशाएं’ । रात के बारह बजे मैंने टॉर्च की रौशनी में दूसरा खंड ‘प्रश्न पीड़ित दस दिशाएं’ पढ़कर खत्म किया । हमें अपने गांव के खेतों में टॉर्च के उजाले में रात–रात भर ताश खेलने का अभ्यास जो था । तब से मैं ‘सारा आकाश’ की सैकड़ों प्रतियां मित्रों को समय–समय पर उपहार में दे चुका हूं ।

       मैं ‘सारा आकाश’ का इसलिए भी कृतज्ञ हूं कि यह किताब मुझे साहित्य की तरफ ले गई । बाबूजी ने तो मार–मारकर इंटरमीडिएट में हिंदी भाषा एवं साहित्य की जगह अंग्रेजी पढ़ने को मजबूर कर दिया था । उस निचाट दमघोंटू साहित्य–संस्कृति विरोधी वातावरण में ‘सारा आकाश’ ने मेरे लिए सांस लेने की एक खिड़की खोली । नीलम के ही कारण मुझे ‘गुनाहों का देवता’ (धर्मवीर भारती) और ‘वरदान’ (प्रेमचंद) पढ़ने को मिला । हमारे घर में सिलेबस के बाहर की किताबें पढ़ना कुफ्र से कम नहीं था । मैं अपने 36 कमरों वाले घर की छत के कोने में बैठकर चोरी–चोरी साहित्य पढ़ने लगा । ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ की घरेलू लाइब्रेरी योजना ही हमारा एकमात्र सहारा थी । पोस्टमैन को सख्त हिदायत थी कि किताबों का पैकेट मेरे अलावा किसी को नहीं देना है । सिनेमा देखने का शगल भी तभी शुरू हुआ । एक दिन बाबूजी के हाथ वह डायरी लग गई जिसमें उन किताबों और फिल्मों की सूची थी जो मैंने पढ़ी–देखी थीं । फिर मेरी जो पिटाई हुई कि आज तक भूल नहीं पाता हूं ।

       उस छोटे से कस्बे में आज की तरह ‘गर्लफ्रेंड–ब्बॉयफ्रेंड’ का रिवाज दूर–दूर तक नहीं था । किताबें ही हमारे लिए सब कुछ थीं । उसी दौरान निलय उपाध्याय से मुलाकात हुई । 28 दिसंबर, 1988 की शाम डुमरांव की जिस संस्था ने एक विराट कवि सम्मेलन आयोजित किया था, मुझे उसका सचिव बनाया गया था । निलय भी कविता–पाठ के लिए आमंत्रित थे । वे आरा में डॉ– चंद्रभूषण तिवारी के सान्निध्य में रहते थे । नए–नए कम्युनिस्ट बने थे । उन्होंने मुझे समझा–बुझाकर जनवादी लेखक संघ का सदस्य बनाया । मैंने उनसे पूछा कि क्या वे राजेन्द्र यादव को जानते हैं तो उन्होंने कहा कि ‘‘साथी, वे जलेस की केंद्रीय समिति के सम्मानित सदस्य हैं ।’’ मैंने प्रतिप्रश्न किया-‘‘लेकिन उनके उपन्यासों में तो क्रांति, आंदोलन, लाल सलाम, बुर्जुआ–सर्वहारा जैसा कुछ नहीं है ।’’ निलय ने तब मुझे ‘हंस’ की एक प्रति दी और राजेन्द्र जी का संपादकीय पढ़ने को कहा । निलय के कारण ही मेरी मुलाकात इब्बार रब्बी से हुई जो उन दिनों ‘नवभारत टाइम्स’ के पटना संस्करण में समाचार संपादक थे । वे भी जलेस में थे । फिर हमने जगह–जगह जनवादी लेखक संघ की शाखाएं खोलना शुरू किया । गया में जलेस के स्थापना अधिवेशन में कई वक्ताओं ने ‘हंस’ और राजेन्द्र यादव पर अच्छी–बुरी टिप्पणियां कीं । मैं एक अबोध नवसंस्कारी बालक की तरह टुकुर–टुकुर विद्वान वक्ताओं को देखता रहा । निलय ही मुझे अक्टूबर 1991 में हजारीबाग ले गए जहां जलेस के सांप्रदायिकता विरोधी सम्मेलन में डॉ– चंद्रभूषण तिवारी ने मुझे राजेन्द्र जी से मिलवाया था । रमणिका गुप्ता आयोजक थीं । तब मैं ‘हंस’ का नियमित पाठक बन चुका था । निलय और इब्बार रब्बी की कोशिशों से मुझे ‘नवभारत टाइम्स’ में सांस्कृतिक रिपोर्टिंग का काम मिला हुआ था । 12 अगस्त, 1992 को मैं दिल्ली आ गया ।

       दिल्ली आते ही पहला काम यह किया कि राजेन्द्र जी से मिलने दरियागंज ‘हंस’ के दफ्तर गया । वह 1992 के अगस्त की 18 तारीख थी । मैं एनसीईआरटी के हॉस्टल में रहता था । राजेन्द्र जी के सामने बैठते ही वहां कार्यरत दुर्गाप्रसाद ने पानी का गिलास मेरे सामने रखा । थोड़ी देर में एक कप चाय आ गई । मैं संकोच में बिंधा बैठा रहा । राजेन्द्र जी ने जोर से कहा-‘‘पीओ, यह तुम्हारी चाय है ।’’ शाम ढल चुकी थी । तब मैं बिल्कुल ही अज्ञात कुलशील था । शाम को 6 बजे वे उठे । मैं भी उनके पीछे–पीछे चला । कार तक पहुंचकर उन्होंने दूसरी तरफ से मुझे कार में बैठने को कहा । अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण अब तक मैं कार में नहीं बैठा था । मैं उनकी बगल में बैठ गया । मेरी जिंदगी में वह पहला अवसर था जब मैं कार में सफर कर रहा था । वे उन दिनों हौजखास के एसएफएस फ्लैट में रहते थे । उन्होंने ड्राइवर को एनसीईआरटी कैम्पस चलने को कहा । उन्होंने मुझे मेरे हॉस्टल तक छोड़ा ।

       यह वृतांत इसलिए कि राजेन्द्र यादव को बिना इस वृतांत के नहीं समझा जा सकता-उस रिश्ते को भी नहीं समझा जा सकता, मैं जानता हूं ऐसे वृतांत उन सैकड़ों लोगों के पास होंगे जिन्हें राजेन्द्र जी की सरपरस्ती मिली । हिंदी में अब ऐसी जगह नहीं बची जहां कोई अज्ञात कुलशील बिना पूर्व सूचना के जा पहुंचे, और एक गिलास जल और एक कप चाय से उसका स्वागत किया जाए ।

       एक बार बनारस से किसी सिलसिले में अनुपम दिल्ली आया हुआ था । गया से ‘हिंदुस्तान’ के वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ पाठक भी आए थे । मैंने ‘सारा आकाश’ पर इसी नाम से बनी बासु चटर्जी की फिल्म के बारे में सुन रखा था । हम तीनों दरियागंज गए । हमने राजेन्द्र जी से फिल्म देखने की फरमाइश की । तब वे केदार जी के मकान में (मयूर विहार) रहने लगे थे । शाम को हम तीनों उनकी कार में लदकर उनके घर गए । मैं तब ‘तत्व चिंतन’ या ‘रसरंजन’ नहीं करता था । राजेन्द्र जी ने मेरे सामने कुछ ड्राई फ्रूट्स रखे और कहा-‘‘अच्छे बच्चों की तरह कुछ खाते रहो । अनुपम और पाठक जी ने राजेन्द्र जी का ‘रस–साथ’ दिया । मेरे लिए तो इतना ही अभूतपूर्व था कि मैं राजेन्द्र जी के घर में उन्हीं के साथ अपनी प्रिय किताब पर बनी फिल्म ‘सारा आकाश’ देख रहा था । मेरे जीवन में ‘तत्व चिंतन’ की शुरुआत सन् 2000 की सर्दियों से हुई ।

       आज सोचता हूं कि आखिर वह क्या था जो हमें राजेन्द्र यादव से जोड़ता था । एक बराबरी का रिश्ता जो वे नई पीढ़ी के हर व्यक्ति से बरतते थे । ऐसा बहुत कुछ था जिसकी व्याख्या संभव नहीं है । हम उनसे असहमत होकर भी उनके प्रिय बने रह सकते थे । साहित्य में ऐसा लोकतंत्र जो हिंदुस्तान में कहीं न सुनाई पड़ता है, न दिखाई देता है । फिर भी अपने एंजेडे पर अडिग । वे इस बात के खिलाफ थे कि हम मनुष्य को मरने के बाद देवता बना दें । इसलिए जाहिर है कि वे भी देवता नहीं थे, न हम उन्हें देवता के रूप में याद कर रहे हैं । वे अक्सर आहत भी होते थे, और कन्फेस करता हूं कभी–कभी मुझे उनको चोट पहुंचाने में बड़ा मजा आता था । वे फिर पलटकर वार करते थे-और मुझे पहले से पता होता था । अजय नावरिया और संजय सहाय मेरे और उनके परवर्ती रिश्तों की द्वंद्वात्मकता को बखूबी जानते हैं । यह सच है कि ‘हंस’ के लिए सांस्कृतिक रिपोर्टिंग में वे कभी दखल नहीं देते थे-न कभी डिक्टेट करते थे, बस सुझाव देते थे । यदि मैं असहमति जाहिर करता तो पूरी बात सुनने के बाद कहते ‘‘अच्छा, छोड़ो!’’ एक संपादक के रूप में हमने उनसे बहुत कुछ सीखा । लगभग 15 सालों तक मैं ‘हंस’ से नियमित रूप से जुड़ा रहा । हर अंक के लिए एक लीड रिपोर्ट जरूर लिखता था जो नियमित स्तंभ ‘रेतघड़ी’ में छपती थी । यदि उनका प्रोत्साहन और साथ नहीं मिला होता तो हम सब कब के कहीं खो गए होते ।

       जनवरी 2007 की बात है । कृष्ण बिहारी दुबई में हिंदी सम्मेलन कर रहे थे । ‘हंस’ के दफ्तर में जब मैं पहुंचा तो उसी सम्मेलन में शिरकत की चर्चा चल रही थी । मुझे बचपन से विदेश यात्राओं की ख्वाहिश रही है, पर तब तक इसका न तो अवसर मिला था न मेरी सामर्थ्य थी । मैंने राजेन्द्र जी से कहा-‘‘मैं आपके अटेंडेंट के रूप में दुबई चलना चाहता हूं । आप किशन या कमल को तो साथ ले ही जाते हैं ।’’ राजेन्द्र जी ने कुछ नहीं कहा । दूसरे दिन 8 बजे सुबह उनका फोन आया-‘‘अबे, अभी तक सो रहे हो । अच्छा जल्दी से तैयारी कर लो 16 जनवरी की दोपहर की फ्लाइट से तुम भी मेरे साथ जा रहे हो ।’’ जब मैं एयरपोर्ट पहुंचा तो यह देखकर थोड़ा संकोच में पड़ गया कि कमल भी उनके साथ था । किशन के पास तब पासपोर्ट नहीं था । यह राजेन्द्र जी का बड़प्पन था कि उन्होंने स्वतंत्र रूप से सांस्कृतिक पत्रकार के रूप में मेरे नाम का प्रस्ताव किया था, अपने अटेंडेंट के रूप में नहीं । हालांकि उन्हें हम पिता समान मानते थे । मुझे उनकी सेवा में रहने में कोई आपत्ति नहीं थी । हिंदी साहित्य की दुनिया में दूसरों को कमतर, हीन और गुलाम समझने का चलन रहा है । राजेन्द्र यादव अकेले इस प्रचलन के प्रतिपक्ष थे ।

       19 अप्रैल 2010 को मुझे लीवर में इनफेक्शन के कारण पीएसआरआई अस्पताल (शेख सराय, दिल्ली) में भर्ती होना पड़ा । यह वही दौर था जब राजेन्द्र जी से मेरे संबंध पहले की तरह नहीं रह गए थे, उसमें थोड़ी खटास आ गई थी । हालांकि उस दौरान भी संजय सहाय और अजय नावरिया से वे लगातार मेरा हालचाल पूछते रहे थे । ‘हंस’ की प्रिंटलाइन से वे मेरा नाम हटा चुके थे । लेकिन उस तना तनी के दौर में भी हमारे निजी संबंधों में एक मर्यादा बनी हुई थी । हमारे बीच संवाद बना रहा । वे कई बार धीमी आवाज में व्यंग्य करते थे-‘‘अब तुम्हें ‘हंस’ की जरूरत नहीं रही । तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के लिए ‘हंस’ छोटी जगह हो गई है ।’’ मैं चुपचाप उनकी बात सुन लेता था । उस दौर में संजय सहाय ने, जो बाद में ‘हंस’ से जुड़ गए थे, कई बार मुझसे कहा-‘‘राजेन्द्र जी आपको वैसे ही प्यार करते हैं जैसे कोई लाचार पिता अपने बिगड़ैल बेटे को करता है ।’’ यह बात मैं भी मानता हूं । उन्होंने प्रकट रूप में कभी गुस्सा नहीं किया । कम–से–कम मैंने तो किसी पर उन्हें गुस्सा करते नहीं देखा था । 2003 से 2010 तक के सात सालों में हमारे रिश्तों का एक तिकोना इंद्रधनुष बना रहा जिसके केंद्र में राजेन्द्र जी थे-तो बाकी दो कोणों पर मैं और अजय नावरिया । लेकिन मेरे और राजेन्द्र जी के रिश्तों का यह इंद्रधनुष जिस आसमान में चमकता था उस आसमान का नाम है संजय सहाय ।

Rajendra Yadav Ajit Rai Doordarshan Hindi Magazine Drishyantar        जब त्रिपुरारि भाई ने सात महीने की लंबी सरकारी प्रक्रिया के बाद दर्जनों नामों के बड़े पैनल में से मुझे दूरदर्शन की पत्रिका का संपादक नियुक्त किया तो सबसे अधिक खुशी राजेन्द्र जी को हुई जैसे उस पिता को होती है जिसके बिगड़ैल बेटे को नौकरी मिल जाए । जब मैंने प्रवेशांक के लिए उनसे अपनी कोई रचना देने को कहा तो उन्होंने सहर्ष अपना अप्रकाशित उपन्यास ‘भूत’ दे दिया और कहा इसके बारे में अलग से टिप्पणी लिख कर दूंगा । जब मैं ‘दृश्यांतर’ का प्रवेशांक देने गया तो मैंने उनकी एक फोटो ली जो इस अंक के कवर पर छप रही है । मैंने उनसे जब पत्रिका के लोकार्पण समारोह में आने का अनुरोध किया तो महज दो दिन की नोटिस पर भी वे आए ।

उन्होंने संगम पांडेय से पूछा था कि ‘हंस’ में ‘दृश्यांतर’ की समीक्षा क्यों नहीं छाप रहे हो ? संगम को मेरे और राजेन्द्र जी के रिश्तों में आई तनातनी का पता था । वे चुप रहे । राजेन्द्र जी ने कहा-‘‘आदमी भले ही दुष्ट है, पर पत्रिका साले ने अच्छी निकाली है ।’’ 
उन्होंने दिनेश कुमार से लिखवाकर ‘हंस’ के नवंबर अंक में ‘दृश्यांतर’ की अच्छी समीक्षा छापी । मुझे लगता है कि वे मेरे जैसे अपने बिगड़ैल बेटे को सार्वजनिक रूप से आशीर्वाद देने के लिए ही रुके हुए थे । वे लोकार्पण समारोह में आए और खूब बोले । उन्हें याद करने का सबसे अच्छा तरीका यही होगा कि उन्होंने ‘दृश्यांतर’ से जो उम्मीदें की थीं, हम उस पर खरे उतरें । राजेन्द्र यादव एक खांटी इंसान और एक अडिग विचार के रूप में हमारे साथ सदा रहेंगे ।

अजित राय
दृश्यांतर नवम्बर 2013 

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