पिरितिया काहे के लगवला... कहानी - महेन्द्र प्रजापति | #Hindi Story by Mahendra Prajapati

एक सफल कहानी से शुरआत करने पर महेन्द्र को हार्दिक बधाई, महेंद्र को इस कहानी के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित होने की भी बधाई... अच्छा होता कि कहानी कुछ देर और सुनाते.
भरत तिवारी

पिरितिया काहे के लगवला . . . 

 - महेन्द्र प्रजापति


“माई रे बऊआ के फून (फोन) आइल बा। ” सोनवा का पाँच–छः वर्ष का बेटा सोमू नंग धड़ंग मिट्टी से लिपा−पुता शरीर लिए अपनी मां को पिता के फोन आने की सूचना देकर एक हाथ से अमरूद खाते और दूसरे से अपनी छुन्नी पकड़े वहीं खड़ा हो गया। फोन की खबर सुनते ही सोनवा सूप और चाउर वहीं छोड़कर बे−तहासा राजू के दुकान की ओर दौड़ी, आधा खाया अमरूद वहीं फेंक सोमू भी उसके पीछे हो लिया। राजू की दुकान पूरे इलाके में अकेली ऐसी दुकान थी जिस पर फोन लगा था। बाहर बिदेश कमाने−धमाने वाले फोन करके पहले अपने परिवार के किसी सदस्य को बुलाने की सूचना देते फिर पन्द्रह−बीस मिनट बाद दुबारा फोन करके बातचीत करते। लोगों को बुलाने का काम राजू का मंझला भतीजा हीरू करता। उसके बदले में उसे एक , दो या तीन रूपए मिल जाते। पैसे का यह विभाजन दूरी के हिसाब से था। मुहल्ले में किसी को बुलाना हो तो एक रूपया, हरिजन बस्ती और मियौटी का दो रूपया और अहिरौटी का तीन रूपया। अहिरौटी की दूरी राजू की दुकान से लगभग चार सौ मीटर की थी। जिसमें अहिरों के अस्सी−नब्बे घर के अलावा कोहार, लोहार, नाई, कहांर कुल मिलाकर बीस−बाइस घर होंगे।  “तो का ई दियादिबारी (दीवाली) पे भी घरे ना आईब का” सोनवा
फोन पे अपने पति से पूछ रही थी। दौड़कर आने से सांस फूल रही थी उसकी। उसकी साड़ी का पल्लू पकड़े सोमू अपनी सारी चेतना को एकत्र कर मां के चेहरे पर नज़रें गड़ाए उसके चेहरे के आते जाते हाव−भाव से उसकी बात को समझने की कोशिश कर रहा था। पिता के आने की खबर सुनने को जैसे वह बैचैन था।  “ना सोना ई बेर माफ कर, होली में जरूर घरे आईब” पति की आवाज़ थी।  बिफर गयी सोनवा, गुस्से से बोली ‘इ त हम दू साल से सुनते हयीं, तू खाली मन राखे जानेला बस, हमनी के त जैसे मोह खतम हो गईल ह” बहुत गुस्से में थी सोनवा, उसकी आंखे उबल रही थी। पति ने समझाया− “का करी सोना कलकत्ता में एकदमे काम ना रह गईल बा। इहां त काम से ज्यादा काम करे वाला हवें। एक दिन कमाओं त तीन दिन खाओ, यही त जिनगी है। सोच तानी इधरे से दिल्ली चल जाईं, भोलवा के फोन आईल रहे। कहत रहे उहां आराम से काम मिल जाई। तर−त्योहार में काम करे वाला लोग घरे भागेला त काम इफरात हो जाला” पति की सफाई सुन जैसे सोनवा का सब्र ही टूट गया डांटने लगी पति को फोन पर− “इ का नाटक लगा रहल हयीं जी, पहिले बम्बई गईली फिर उधरे से कलकत्ता निकल गईली अउर अब दिल्ली जा तानी। रहे दीं, कहीं जाए के जरूरत ना बा। चुपचाप घरे आ जाई, यहीं मेहनत मजूरी से पेट भर के मिल जाई। अकेले जिनगी जैसे पहाड़ भईल बा” सोनवा सिसक रही थी। सोमू के हाथ से मां का आंचल छूट गया। उसे भी पता चल गया कि बउआ इ बेर भी जल्दी घर नहीं आएंगे। सोनवा उसे 2 साल से यही दिलासा दे रही है कि अगले महीने तुम्हरे बउआ आएंगे तो तुम्हारे लिए बैट−गेना (गेंद) और मारे (ढेर सारा) कपड़ा लाऐंगे। मां की बातों से सोमू खुश हो जाता और दुलार से जाकर उसकी गोद में बैठ जाता। दोनों हाथ गले में डालकर कहता−“माई अगले बेर बउआ के फोन आई त उनकरा के कह दिहा कि हमरा खातिर बैट−गेना लइहैं चाहे मत,किताब जिन भूलइहैं, एक ठे गिन्ती−पहाड़ा के और एक ठे क . . .ख . . .ग के।  इ दूनों किताब जल्दी जल्दी−फट जाले। ए .बी .सी ड़ी .वाली प हम चढेना (कवर) चढ़ा के रखले हयीं। ” वह खूब सारी कॉपी कलम मंगवाने की भी गुजारिश करता। सोनवा उसके सांवले चेहरे पर टिमटिमाती चमकती नीली आंखों को देखती और गले लगाकर सारा प्यार उस पर उढेल देती। कुछ पल के लिए जैसे वह अपना दुख−गम सब कुछ भूल जाती। यही तो एक साथी था उसके दुख−सुख का। वह उसे चुमती, प्यार करती और पूछती−“का बनोगे पढ़कर। ?” “माट्टर” (मास्टर) वह हर बार यही जबाब देता और इस अंदाज में देता कि सोनवा की आंख भर जाती। वह खुश हो जाती चलो डाक्टर अउर इंजीनियर बनने को नहीं कहता, नहीं तो कहां से लाती इतना पैसा। एक दिन राजूआ के दुकान पर फोन सुनने गयी थी। प्रधान जी बतिया रहे थे किसी से। कह रहे थे डाक्टर बनने में पाँच−छः लाख अउर इंजीनियर बनने में चार−पाँच लाख लगेला। ई भी खाली फीस−फीस के। रहे खाए के अलग से। शहर में रहने खाने का पाँच−छः हजार से का कम आता होगा। सोमू के बउआ बता रहे थे, शहर में तीन−चार हजार तो खाली कमरा का केराया (किराया) है, लाईन  (लाईट) पानी का अलग से।

       सोनवा को इस बार भी एक झूठा दिलासा मिला। वह समझ गयी लाख समझाओ उ नहीं आएंगे, करेंगे अपनी वाली ही। रिसीवर रख कर लुग्गे के छोर से एक का सिक्का निकाल कर राजू के भतीजे को पकड़ाने लगी। राजू ने अपने भतीजे को कनखियों से पैसा नहीं लेने का इशारा किया, लेकिन सोनवा देख गयी। राजू ने अज़ीब सी नजर से उसे देखा और घबरा कर बोला−“पइसा रहे दीं भउजी”। पर सोनवा ने उसके भतीजे के हाथ में सख्ती से सिक्का पकड़ा दिया। वह सब जानती है, हरामी की नियत ठीक नहीं है। जब फोन सुनने जाओ नीचे से ऊपर तक घूरता रहता है।  बिना मतलब दुकान पर बैठाकर बतियाता है। कहता भाभी है, पर जानती हूँ, नियत में खोट है मुंहझौंसे के। सोमू को गोद में उठाया और घर आकर फिर से चाउर बनाने लगी। मन हुआ खूब चीख−चीख रोए, पर किसके लिए? कौन है जो सहारे के लिए अपना कंधा देगा और चुप कराएगा?। इहां तो जवान औरत को रोता देख बिना मतलब लोगों का कलेजा फाटता है, पर दिल में पाप समाया रहता है। का उ समझती नहीं है। गांव के लौडे सब घर में बूढ़ी मां−दादी को एक गिलास मांगने पर पानी ना दे और इहां आके बात बनाते हैं कि, भौजी अकेले परेशान होती हो, हमरे लायक कौनो सेवा हो तो कहना। सब हरामी की नियत जानती है। पर वह कभी हंसकर तो कभी गुस्सा होकर टाल जाती।
इतना ही नहीं हमेशा डर बना रहता है कि, कहीं कोई अनहोनी ना हो जाए। उस दिन को कैसे भूल सकती है, जब पतरू मास्टर का बड़का बेटवा बोझी भरी दोपहरी में घर में घुस गया। नहा रही थी सोनवा। भागी उठकर। अन्दर से ही डांट लगायी− “केहू के घरे में घुसे के इ कवन तरीका बा। ” बोझी तो जैसे सब लाज सरम घोर के पी गया था।  दो बेटियों का बाप है, फिर भी उसे अपनी इज्जत लुटने के कउनो डर नहीं है। उसकी तरफ बेशर्मी से बढ़ते हुए बोला−“कुछ ना भौजी, हम त बस हाल चाल लेवे आइल रहीं। ” सोनवा असमंजस में पड़ गयी। किस पद से इ भौजी कह रहा है। सोमू के बउआ से 6 साल से कम बड़ा ना होगा। उसके मन के पाप को समझ गयी।  लपक कर चाकू उठा लिया और दौड़ा लिया। माहौल को बिगड़ते देख बोझी वहां से भागा। ना भागता तो उसका घायल होना निश्चित था। खून उतर आया था सोनवा की आंख में। सोमू अपने दोस्तों को अपनी मां की हिम्मत की चर्चा खुलकर सुनाता। एक दिन बोझी की छोटकी बिटिया बबलिया की चोटी पकड़ कर पटक दिया और बोला−“सरउ तुम्हरे बउवा ना भागे होतन त माई चाकू से उनकर छुन्नीऐं काट देत” कहकर खूब हंसता। सोनवा मना करती, फिर भी कहता। उस घटना के बाद पूरे महल्ले में बोझी की खूब छिछालेदर हुई पर ‘रसरी जर जात का अइठन जात है कब्बो’। हमेशा घूरता रहता सोनवा को। वह भी डरी डरी रहती थी। जानती थी, मरद जात जब अपने नीचपना पे आ जा जाए तो अपनी बेटी−बहन ना पहचाने उ त गैर है। रह−रह कर उदास हो जाती। एक दिन बैठे−बैठे ना जाने का सोच रही थी कि, हाल चाल लेने शमीमा काकी आ गयीं। काकी का दुनिया में कोई नहीं था, पर काकी पूरी दुनिया की थी। पूरे गांव में किसी को कोई दुख−सुख हो काकी हाजिर रहतीं। सब उनकी इज्जत भी करते। किसी का छोट बड़ा कोई भी काम हो काकी से जरूर सलाह लेता। गांव में किसी को कोई दुख हो तो उनकी सूखी आंखे नम हो जाती। शादी बियाह में तो काकी जब लुग्गा खोंसकर नाचने लगती थी तो जवान औरते हाय−हाय करने लगती। लवंडा सब हाथ जोड़ लेते। जहां रहती हंसी ठिठोली का माहौल बना ही रहता। सोनवा के ससुर को तो जब देखो छेड़ती रहती थी। लोगों से सुन रखा था कि जवानी के दिनों में जीविका के लिए शादी−बियाह में लवंडा बन कर नाचते थे बस उसी को जोड़कर सोनवा के सास से गा−गा कर कहतीं−“आजमगढ़ में आम बिकाला, गोरखपुर में धनिया। कहां भौजी पाय गइलू दुल्हा नचनिया। ” बेचारे शर्मिले थे। शर्म के मारे कुछ बोलते नहीं थे पर बुरा भी नहीं मानते थे। जानते थे काकी जैसा धरम करम वाला पूरे गांव में कोई नहीं है। पति जीवन भर अरब कमाए। लड़का बच्चा नहीं हुए। पैसा की कमी कभी रही ही नहीं। महल जैसा घर दे दिया गांव वालों को। तीनों तल्ला मिलाकर उसमें क्या पैतीस−चालीस न कमरा होगा। ओसारा त इतना बड़ा कि, तीन शादियों की बारात एक साथ ठहर जाए। कई सालों तक सांसद विधायक अंत्री मंत्री सब ससुर से कह कर थक गयीं तब भी एक अस्पताल नहीं खुला गांव में। आखिर में उन्होंने नीचे का छः कमरा खुद दान कर दिया और शहर के दो सरकारी डाक्टरों से मान मनौव्वल करके सुबह−शाम दो घंटे के लिए वहां रख लिया। कुछ पैसा गांव वाले कुछ वो खुद मिलाकर हर महीने डाक्टर को दे देतीं। अनाज, सब्जी भी डाक्टरों को मुफ्त में रोज मिल ही जाता। गांव के लोगों को तो जैसे बिन मांगी मुराद मिल गयी। काकी को बोझी वाली घटना बता कर सोनवा खूब रोयी। सुनकर काकी का मन जैसे बैठ गया। सर पीट लीं। गुस्से से बोली− “का हो गया है, आजकल के लवंडन के हो, काहे न छाती पे चढिके गड़ासा से मुड़िए (गला) काटि देहलू, बड़ी जुवानी (जवानी) चढी रही हरामी के त। ” उनको देख सोनवा को जैसे साहस मिल गया। जब तक काकी रहीं वह खुश रही। उनके जाते ही फिर वही उदासी उसके चेहरे पर पसर गयी। मन करता कि जहर−माहुर खा ले पर सोमू का चेहरा और मूलचन्द (पति) के आने की उम्मीद उसे कुछ भी ऐसा वैसा करने से रोक देती। जब भी ऐसा विचार उसके मन में आता उस दिन सोमू को कहीं नहीं जाने देती। उस दिन उसका प्यार बढ़ जाता। उसे उबटन लगाती। तेल मालिश करती और खूब गाना−लोरी सुनाती। उसकी ममता अपनी पूरी ताकत से जैसे जाग जाती और जागती भी क्यूं नहीं उसके प्यार की निशानी जो है।  कितने मन से उसका नाम रखा था ‘सोमू’ ‘सोनवा’ से ‘सो’ और ‘मूलचन्द’ से ‘मू’ जोड़कर ‘सोमू’ नाम बना था।

       मां को उदास देख सोमू उस दिन दिनभर कहीं खेलने नहीं गया। उसकी छाती से चिपका रहा और मां को यह एहसास दिलाता रहा कि तुम अकेली नहीं हो। वह कभी उसके आंसू पोछता, कभी चुप कराता। कभी−कभी तो अजीब−अजीब हरकत करके उसे हंसाता भी। जाने कहां से उसने ये हुनर सीखा है कि सोनवा जब भी परेशान होती वह उसे साहस देता। उदासी और परेशानी को अपने चेहरे पर मंडराने नहीं देता। शायद समझ गया था कि मां के दुख−सुख का वह अकेला ही तो साथी है।  वह भी पेरशान हो जाएगा तो मां अपना दुख किससे कहेगी। गांव मुहल्ले के लोग समझाते, कुछ दिन के लिए अपने नैहर चली जाओ पर नहीं जाती। जाती भी तो कैसे? इतना बड़ा घर है। दू ठे चउबा हैं। किसके भरोसे छोड़ के जाए? पट्टिदार हैं कि बस उन्हें मौका चाहिए हड़पने का। चार दिन के लिए कहीं जाओ तो आठ हाथ छेक लेते हैं। ऐसा नहीं कि सोनवा के नईहर में किसी चीज की कमी है। दो भाई मलेटरी में हैं। आठ−दस बिगहा खेती है। कुछ चीज की कमी नहीं पर बिटिया को ई का शोभा देता है कि, जा कर मां बाप की छाती पे बैठ जाओं। जमाना किसिम−किसिम का बात बनाता है। फिर अपनी भी तो कुछ इज्जत है। जब उसकी किस्मत ही रूठी है तो किसी से कुछ का कहना। बस सबका सुनना−सहना है। दादी ने जब बियाह तय किया तो सोनवा कुल उन्नीस साल की थी। दादी ने घर में खुश होकर बताया था कि, घर में ना सास है, ना ननद−देवर। एक ससुर है, वो भी बिमरिहा (बीमार) है।  कुछ दिन का मेहमान है। फिर तो हमारी सोनवा का राज होगा घर पर। दादी अपने जीवन अनुभव से यही सीख पायी थी कि
बिटिया−बहिन की शादी बियाह वहीं करो जहां ना देवर−ननद का टंटा हो ना सास की धौंस। बिटिया, रानी बनकर पूरे घर की मालकिन बनी फिरे। सोनवा ने बहुत मना किया कि का करेगी ऐसे घर में जाकर जहां हंसने−बोलने को एक देवर−ननद और सेवा करने को एक सास भी ना हो। पर उसकी एक ना चली। शादी हो गई। शादी के पन्द्रह दिन बाद ही मूलचन्द बम्बई कमाने निकल गया। दादी का अनुभव बेकार कैसे जाता दो महीना भी नहीं गुजरा की ससुर जी भी विदा हो लिए। सोनवा बुरी तरह से टूट गयी। इतना दुख कभी झेला नहीं था सो जब तब रोने लगती। ससुर का क्रियाकर्म बीता नहीं कि मूलचन्द फिर से बम्बई जाने की तैयारी करने लगा। सोनवा ने बहुत समझाया कि मत जाओ। यहीं रहो। कुछ करो। पर वह नहीं माना। ऐसा नहीं कि उसे सोनवा से प्यार नहीं है। जान से भी ज्यादा चाहता है उसे। परदेश में उसके बिना का उसका मन लगता है? एकदम नहीं लगता। कई बार मन हुआ साथ ले जाए पर शहर का रंग−ढंग उसे भाता नहीं और भाई−पट्टिदारों की करतूत देख सोनवा खुद साथ जाने से मना कर देती। वह यहां रूक भी जाता। यहीं कमाता खाता।
लेकिन वह खूब जानता है। गांव में रहो तो दिनभर बड़मनई लोगन की बेगारी करो। बिना मजूरी दिन भर खटो। काम के लिए मना करो तो गारी−फजीहत करेगें सो अलग से। एक तो काम करा के ठीक मजूरी नहीं देंगे और यह ताना सुनाएंगे उपर से कि “तुम्हरे मां बाप गुलामी किए तो तुम भी करो। ” 
बस यही सुनकर उसका खून जल जाता है। शहर में लोग इतना खटाता है कि खून चूस लेता पर पैसा भी इज्जत से देता है। ईंहा ता दिन भर गांड रगड़ों और शाम को आधा पेट खाओ। घर में कोई दुख−सुख पड़ जाए तो लाला पटवारी से सूद पर या घर, चउआ गिरवी रख के पैसा लो। एक बार ले लो तो भरते रहो जिनगी भर। उ त शुकर मनाओ कि बियाह में मिले पैसे से लाला का सारा हिसाब अपने सामने कटवा कर दो लोगों से गवाही लिया कि अब लाला का उस पर कुछ उधार नहीं है। नहीं ता ललवा साला एक नंबर का हरामी है। उसका एक बेला पेट भर खाना खा तो ना जाने कौन हिसाब लगाता है कि जिनगी भर खेत का कुल चाउर गेहूं उसके घर भेजते रहो फिर भी उसका कर्जा नहीं उतरता।

       तीन महीने से कुछ अधिक हो गया मूलचन्द का कोई फोन नहीं आया। दो साल से ज्यादा हो गया मूलचन्द को देखे हुए। कितना मन करता है उसका कि उसका पति उसके साथ बैठे। बात करे और अपना दुख सुख कहे।  कभी− कभी मन आशंकाओं से भर जाता। सुन्नर काका की बिटिया शीला का पति ऐसे ही तीन साल जब बम्बई से नहीं आया तो पता किया गया तब सच सामने आया उ किसी बंगालिन को रख लिया था। रख का लिया था, सुना है बंगालिन जादूगरनी होती हैं। मंतर मार के अपने वस में कर लेती हैं। शीला की माई बता रही थी, उनकर दामाद त उ बंगालिन के वस में ऐसे हो गए थे कि, किसी को पहचानते ही ना थे। जबरदस्ती उन्हें गांव लाया गया। सोखैती−ओझैती हुई तब जाकर लोगन को पहचाने। सोनवा यही सब सोचकर पेरशान हो जाती, फिर खुद ही मन को समझाती, इ सब गलत बात है। मरद जब तक ना चाहे कोई मेहरिया कैसे उसे वस में कर लेगी? सुन्नर काका के दा.माद के प्रसंग की चर्चा पूरे गांव में हुई। एक दिन शमीमा काकी आयी तो सोनवा उन्हें बताने लगी। काकी बोली− “इ सब खाली मरद के नाटक होत है।  कउनो बंगालन, गुजरातन और कउनो जादू मंतर ना हो है। जब मरद का लंगोट ढीला हो जाए तो इहे सब होता है। हमरे मरद चालीस साल अरब में रहे उनकरे पे त कवनो जादू मंतर ना चला। गांव−जबार के सैकड़न लोग बम्बई−दिल्ली, कलकत्ता कमाए जात हैं, उन सब के कुछ ना होत है। उ एक ठे कहावत ना सुने हउ का ‘नाती सिखवैं नानी के चलबू नानी गवनें’ तवन नाई है ई। काकी की बात से सोनवा को बहुत बल मिला पर डर पूरा नहीं गया बोली− “काकी हम त इ भी सुनत रही कि उनकरा पे बंगालिनिया के जादू टोना का असर बहुत दिन रहा। घरे लायन गए तो केहू के पहचानतै ना रहैं। ” सोनवा की बात सुनकर काकी असली बात समझ गयीं। वह उसका मर्म जानती थी। वह खूव जानती थी पति के बिना जिनगी के दुख का होत है। सोनवा के सर पे हाथ फेर के समझाने लगी−“बिटिया ई हमेशा याद रखिहा कि आपन इज्जत अपने हाथ में होले। जमाना खाली मजा लेवे जानत है। रिश्ता नाता विस्वास से चलत है बबूनी। विस्वास रखबू तो कउनों उंच−नीच ना होई। हम तुहरे मूलचन्द के गोदी में खेलाए हंई। खूब जानत हईं उनका। बहुत खुद्दार मरद है। ओकरा पे विश्वास रखा बस। तुहरे सिवा उ बदकिस्मत के अउर के बा। रहल ई सुन्नर के दामाद के बात त उ सररू खाली नाटक करत रहैं। सुन्नर गलत किए कि उनकरा के गांव लिया आए। जब बम्बई में मिले तबै पटक वहीं तोर दियो होते त, तुरंतै सब वहीं याद आ जात।
हम रहित त तुरते छुट्टी−छुटट करवाय देइत। अरे अइसन मुआ इन्सान के कबो आपन बिटिया−बहिन देवे के चाही हो? का भरोसा कल फिर केहू के चक्कर में पड़ जाए। ” काकी बात कर ही रही थी कि सोमू उनके लिए तीन चार काला नमक लगा, पका हुआ साफ अमरूद काट कर लाकर उनके सामने रख दिया। वह शमीम काकी के आते ही खटोला बिझा देता। पानी, भेली या चीनी दे देता। वह काकी की बातों का मतलब कभी समझ नहीं पाया। बस इतना जानता था कि उनके आते ही माई चहक जाती है। उस दिन वह बहुत खुश रहती। काकी को भी वह बहुत प्यारा लगता। जब जाने लगती एक−दो रूपया उसके हाथ पे रख देती और कहती− “ला मूलचन्द के पूत गट्टा खा लिहा। ” सोमू अमरूद रखते हुए बोला−“काकी लेव अमरूद खाय लो, एकदम ताजा है। ” काकी हंसकर बोली− “ई सरउ हमके अब्बै मुआबे पे लगल हवें। चलल हवैं बुढ़ौती में हमके अमरूद खियाबै। अब्बै खांसी−जोखाम हो जाई त डांगडर के दवाई के पैसा के दी, तोहार बाप, आएं। ” बहुत समझदार था सोमू बोला−“ ना काकी तू खा, कुछ ना होई यही बदे एमें हम कारियवा नमक मिल दिहलें हंई। ” काकी उसकी समझदारी पे खुश हों गई। सोनवा से बोली− “खूब मेहनत से पढ़ाबा इ लईका के। तोहार कुल गरह काटी। बहुत समझदार ह।  एकदम अपने बापै पे गयल है”

       काकी चली गयीं। सोनवा दिनभर आज घर बाहर की सफाई के काम में लगी रही। साथ ही सोमू भी। मशीन से पानी भर भर के ला−ला कर देता। आज पूरा घर दुआर साफ चमक गया। आज सोनवा को मूलचन्द की बहुत याद आ रही थी। काकी की बातों से उसको बहुत ताकत मिली थी। सोनवा जानती थी मूलचन्द से ई दूरी का बस एक कारण है−पैसा। भगवान ने सबको बराबर ही बनाया लेकिन मानुष है कि जितना है उतना और चाहिए। बस इसी मार काट में पूरा जीवन खतम। गरीब आदमी के इज्जत है ना अधिकार, बस खटने खाने का हुनर है वो भी ना आवे त भूखे प्यासे मरो। प्यार के अधिकार त जईसे भगवान गरीब के किस्मत में लिखे ही भुलाए गए। का प्यार मोहब्बत घुमना फिरना खाली उनके लिए है जिनके पास धन है? प्यार का धन से होता है? उ दिन को कैसे भूल सकती है जब मूलचंद उसे ले गया था सिनेमा दिखाने। तीन घंटा उसके कंधे पे सिर टिकाए उसका हाथ पकड़े फिलिम देखती रही। जैसे लगा यही जिनगी तो जिनगी है। जिसके साथ पूरा जीवन बिताना है, का उसके साथ ऐसे कुछ घंटा प्यार से बैठा भी नहीं जा सकता? शाम को लौटी तो बहुत खुश थी। जैसे ही दुआर पे मूलचन्द साईकिल से उतरा रजूआ कहीं से आ रहा था।  पूछ लिया− “कहां गए रहे भैया, भउजी को लेके। ” मूलचन्द मुस्कुराया, बोला− “सिनेमा देखे। ” रजूआ एक नम्बर का चाटू है पूछने लगा− “कवन सिनेमा देखे भैया। ” मूलचन्द साईकिल अन्दर ले जाते हुए बोला−“अपने भौजी से ही पूछ ला। ” “तूं ही बता द भौजी। ” राजू ने कनखियों से देखकर कहा। सोनवा ने पूरी चाहत से मूलचन्द को देखा और बोली−“हम हो गईली तोहार” फिर सब हंस पड़े तभी उधर से बुद्धन पंडित गुजरे और तीखे शब्दों में बोले−“हां हां अब त जेकरा खाए के ठेकान ना ह उहौ अपने मेहरारू के शहर में पिच्चर देखावे जाई। बाप दूसरे के बेगारी कर के मर गया। बेटा का थाहे नहीं लगता है। ” सुनकर आग लग गयी थी सोनवा के देह में। मन किया दौड़ा के गड़ासा मार दे पंडित को पर मूलचन्द ने रोक लिया बोला− “कीचड़ पे पाथर मारोगी तो अपने मुंह पे ही छींटा आएगा। ” बहुत गुस्से में थी वह बोली−“हम का केहू के कर्जा मांग के सिनेमा देखे गइल रहीं। मेहनत की कमाई ह जैसे चाहे उड़ाए। इ कवन होने बोले वाला। ” मूलचन्द बहुत समझाया तब कहीं जाकर मानी उस दिन।

       “चाची रे चाचा के फोन आईल बा” राजू का भतीजा आकर बोला। हाथ में लिया झाडू वहीं पटकी और भागी राजू के दुकान की तरफ।

       “केतना दिन बाद फून किए जी। सब ठीक बा ना? आज तोहार बहुत याद आय रही थी। ” सोनवा एक सांस में बोल गयी बाद में देखा प्रधान जी वहीं बैठे थे तो लजा गयी। प्रधान जी भी रसिक थे मुस्कुरा दिए।

       “ एक बात कहीं सोनवा”

       “कहो”

       “अब हम फिर कलकत्ता जा तानी”

       “काहे”

       “ अरे जानती ही हो हमको कोई हुनर तो आता नहीं बस मजूरी की आस है। इहां दिल्ली में मंहगाई एतना ह कि पानी भी खरीद के पीयो। खर्चा पूरा हो नहीं पाता फिर का बचाएंगे”

       “ एही से कह तानी घरे आ जाईं। तोहरा के देखे भी दू साल से ज्यादा हो गईल। सोमू हरदम पूछता है बउबा कब आइहें”

       “ ना सोना अभी ना होली में आए के कोशिश करब। अब कलकत्ता जा के कवनौ छोट मोट धन्धा क लेव मजूरी ना करव। उहां अपने जान पहचान के बहुत लोग रहत हैं। कउनो रास्ता निकलबे करी”

       “जइसन आप ठीक सोंची”

       “हम इ होली में जरूर आईब तू चिन्ता जिन कर”

       “पक्का ना”

       “ हां सोना तुहार कसम”

       “ ठीक बा”

       वह उदास मन से फोन रख कर एक का सिक्का राजू को पकड़ा दी। सामने से सुन्नर काका का
लड़का आ रहा था। पद में देवर लगता है। बहुत मजाकिया है। सोनवा जानती है दिल का साफ है इसलिए हंसी मजाक कर लेती हैं। आकर राजू के दुकान पे किसी को फोन मिलाने लगा और कनखियों से सोनवा को देखकर गाया− “भउजी के झुलनी हेराईल सरपतवा में,भईया मजवा उड़ावें कलकतवा में। ” और हंस दिया। सोनवा उसे प्यार से एक चपत लगाकर दुकान से बाहर आ गयी। मन भारी हो गया था उसका। मूलचन्द ने होली में आने का भरोसा तो दिया है पर कुछ ठिकाना नहीं है। खूब जानती है वह। दशहरा नजदीक आ रहा है। मुहल्ले वालों ने मिलकर दुर्गा और लक्ष्मी गणेश की मूर्ति बैठाया है। दिन और रात को भक्ति गाना चलाते हैं और समय फिल्मी। सोनवा आकर दुआर पे बैठ गयी। साउंड पे तेज–तेज बजता गाना उसके दिमाग में अभी भी गूंज रहा है−अकेल जिया रहलो ना जाए, पिरितिया काहे के लगवला . . . . . .



महेन्द्र प्रजापति
एम् फिल (हिंदी), पी. एच. डी. (ज़ारी)
संपादक – समसामयिक सृजन
2576, पंजाबी बस्ती, निकट घंटा घर
सब्जीमंडी
दिल्ली - 110007
मो० 09871 9070 81 / 08802 8310 72


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