कहानी : पुनर्जन्म - रश्मि बड़थ्वाल | Hindi Story - Punar-janm : Rashmi Barthwal

पुनर्जन्म

रश्मि बड़थ्वाल

“अरे जुपली, ले अब तो फागुण आधे से ज्यादा निकल गया! अब तो समेट ले अपना समान, अकसा-बकसा लुटरी-कुटरी।”

धीर सिंह जुपली से कह रहा है, उसे मना रहा है, याद दिला रहा है पर जुपली की जीभ तो जैसे तालू से चिपकी पड़ी है। न हां कहती है, न ही ना।

हर मंगसीर (मार्गशीर्ष) जुपली को दिल्ली ले आता है और हर फागुण वापस गांव ले जाता है। यूं तो जुपली मंगसीर की जग्वाल (प्रतीक्षा) नहीं करती, जितनी करती है धीर सिंह की जग्वाल ही करती है, पर फागुण तो उसे बावली बना देता है। इन चार महीनों में गाँव-गलियों की खुद्द (याद आना) उसे रोज आठ-दस बार तो लगती ही है और गांव लौटने के लिए उसके मन पर सौ-सौ पंख उग आते हैं।

कितनी ही बार तो कहता है धीर सिंह...”कैसी निर्मोही है रे जुपली तू! सारी औरतें तो अपने पति के पास जाने के लिए खुश होती हैं और तू पति को छोड़ने में खुश हो रही है।” धीर सिंह की यह बात हमेशा ही तो जुपली को छोटी सी बात लगी..यूं ही फुर्र से एक नन्हीं सी खिक्क हंसी में उड़ा देने लायक.....

परन्तु इस बार धीर सिंह दस दिन से जाने की बात कर रहा है और जुपली सुनी-अनसुनी कर रही है, दरअसल जुपली अन्दर ही अन्दर शर्म से मरी जा रही है। उसके पिताजी ने बुढ़ापे में ब्याह जो रचा लिया है। पिछले ही महीने तो पाली गांव का सुरेन्दर आया था पिताजी के भेजे चिउड़ा-अरसा लेकर और साथ में मौस्याण ब्यै (सौतेली मां) का सन्देश भी कि फागुण के महीने में जग्वाल करूंगी।

तो यह फागुण भी लग गया पर जुपली के लिए तो जैसे सौण (श्रावण) हो गया...ये क्या करा बाप ने!
...पांच-सात साल बाद तीसरी अवस्था पर पहुंच जायेंगे...किस मुंह से सेहरा-पगड़ी बांधा होगा! ....किस मुंह से गये होंगे बारात लेकर!... क्या ढोल-डमौ बजे होंगे? ...बान दिये गये होंगे... लोग न्यौते गये होंगे?...पर अगर लोग न्यौते जाते तो क्या जुपली न न्यौती जाती?... न्यौतते जुपली को!... किन हाथों से?...जिन हाथों ने चार वर्ष पहले बेटी का शंख-पाणी (संकल्पाणि, कन्यादान हेतु) किया था...हे भगवान! मेरे बाप ने एक बार भी नहीं सोचा होगा कि अभागी जुपली की मां मरे तो दस वर्ष हो गये। मायके के नाम पर बस एक बाप ही तो है... पर ऐसा किस छोरी का बाप हुआ होगा जैसा जुपली का हुआ!... आखिर क्या सोच के किया यह सब...क्या सोच के...?!

जुपली की पसलियों के भीतर का भूकम्प थमता नहीं था। ससुराल से मायके का गांव दो ही मील तो दूर है। आते-जाते बटोही मिलते-मिलाते रहते हैं। वनों में घस्यारियां मिलती ही रहती हैं...गांव गलियों की बातें होती रहती हैं... क्या बोलते होंगे लोग, क्या सोचते होंगे! अब किसी से मायके की कुशल-खबर भी कैसे पूछनी है!...कैसे लेना है मायके नाम भी!...दूर की बात होती तो सोच लेती कि न रहे पिताजी...न रहा मायका...पर।

आखिर तो जुपली को गांव जाना ही था। अपना घर, गांव-गलियां, खेत-मकान सब छोड़छाड़ कर दिल्ली की इस छोटी सी नौकरी में तो पेट पालना भी मुश्किल है... जिंदगी क्या जियेंगे! जुपली जानती है अपने घर में जो बरक्कत है वह बाहर कहीं नहीं... कहीं भी नहीं है। तो घर लौटना ही है। मायके के गांव की धार (शिखर) पर है आखिरी बस स्टाप, उतरना तो वहीं पड़ेगा...फिर मायका लांघ कर ससुराल कैसे जायेगी!...कैसे जायेगी जुपली? ... कैसे?

जुपली के भीतर एक नन्हीं जुपली रो रही थी...रोये जा रही थी...जुपली उसे चुपाने की कोशिश करती है पर सब व्यर्थ...इस नन्हीं जुपली की मां खो गयी है...किसी खिलौने से नहीं बहलती वह। धीर सिंह से भी नहीं बहलती वह जुपली से भी नहीं।

बहुत संभाल-सहेज कर जुपली को उसके मायके के दरवाजे तक लाया धीर सिंह। रात वहां रूका सुबह-सवेरे पहली गाड़ी से वापस दिल्ली लौट गया। अपने गांव जाने की फुर्सत नहीं थी उसके पास। कल सुबह दफ्तर में हाजिरी देनी है उसे!...जुपली के पिताजी से जाते-जाते कह गया...कह नहीं गया केवल, वादा ले गया कि दो दिन बाद ही जुपली को ‘घर’ जरूर पहुंचा दें।

धीर सिंह को इत्मीनान जरूर हुआ होगा जुपली के लिए...पर जुपली तो सोच रही है कि कैसे कटेंगे ये पहाड़ से दिन। पूरे के पूरे दो दिन!

इन दिनों गांव की कोई बेटी भी मायके नहीं आयी होगी। बारह-चौदह मकानों का गांव है पर पिताजी का मकान पड़ जाता है अकेले में जैसा, इकतरफसा सा। किसी को पता भी नहीं चला होगा कि जुपली आयी है...और अगर आ भी गया कोई सामने तो!... तो बात भी किस से मुंह करनी है!...बाप जी के कर्मों ने उसे कहीं का न रखा...मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं।

यही सब सोचते-सोचते जुपली घाम चढ़े तक मुंह ढके पड़ी रही... कल तो रात पड़े पहुंचे थे, पिताजी के पैर छुए खाना खाया सो गयी...पर अब? अब क्या करूँगी!...और वह जो मेरी मां बनकर लाड़ दिखा रही थी कल रात!...उससे कैसे बात करूँगी!

जुपली को लगा कि धीरे से द्वार सरका कर कोई अन्दर आया है। धीरे से उसके चेहरे से ओढ़ना हटाया है किसी ने...कोई उसका सर सहला रहा है हल्के हाथों...पिताजी होंगे...उसने सोचा...पर ना, यह पिताजी की देह गंध नहीं है...वह बांह के नीचे दबी आंख को मींच-मींच सोचती रही...सोने का नाटक करती रही...गोबर-गोमूत्र, मसाले घी और धूप-अगरबत्ती की रली-मिली सी गंध....किसकी देह की हो सकती है?...कि तभी छनक से चूड़ियां बजीं और मीठी सी आवाज सुनायी दी।

“धूप चढ़ गयी है उठ जाइये!”

‘ओ हो तो यह है मेरी मां की सौत! क्या मीठी आवाज सुनायी दी सुबह-सुबह। वाह गुड़ की डली में विष।’ मन ही मन गुनती-बुनती जुपली ने झट से ओढ़ना खींचकर मुंह ढंक लिया।

द्वार हल्के से चड़चड़ाया और फिर किसी की बाहर चली जाती पदचाप सुनायी दी। धीरे से ओढ़ना सरका कर देखा कमरे में कोई नहीं था। दोपहर की सी धूप चमक रही थी... आखिर कब तक मुंह छुपा कर रहती।

रसोई में गयी तो वहां कोई नहीं था। उसने सोचा चलो थोड़ा देर तो चैन से रहा जायेगा उस डायन की सूरत देखे बगैर।

देखने लगी इधर-उधर, गोबर-मिट्टी से लिपी-संवरी दीवारें-छत-फर्श, तारों की चमक सजाये तरतीब से रखे गये एक-एक बर्तन। पीतल के बन्ठे, तांबे की गागरें, लोहे के तवे-कड़ाही टीन के कनस्तर बांस के दबल और टोकरियां... साफ-सफाई देखकर जुपली खुश हुई पर तभी मां की सौत अन्दर आयी तो उसका सीना फिर ऐंठ अकड़ गया और वह बन्ठा उठाकर बाहर जाने को हुई कि पीछे से उसे पकड़ हाथ से हौले से बन्ठा छीन जमीन पर रख दिया मां की सौत ने। बोली “जरा देर के लिए तो आई हैं, आराम करिए, यह बोझ ढोने का काम मत करिए!”

अपने से बस दस-पन्द्रह ही साल बड़ी औरत को कोई मां कैसे कह लेगा! बोल न सकेगी जुपली! कभी नहीं! फिर कहां तो वह अपनी मां...सूखी साखी...कीड़ी जैसे सारे दिन घूमती रहती थी बेचारी! रोग-बीमारियों की मारी .... और कहां यह मोटी... दन-दन दनक रही है...चौतरफा राज रज रही है.... महारानी बनी है...कैसी अक्ल मारी गयी पिताजी की ... खाली हाथ झट से बाहर निकल गयी जुपली।

खेतों पगडंडियों पर यूं ही बेमतलब इधर-उधर फिरती रही...बिना बन्ठा-गागर झरने पर भी हो आई कोई मिल गया हाल चाल पूछ लिया तो हां-हूं से ज्यादा कुछ न कहा गया जुपली से। कुशल-खबर पूछने के बाद किसी से कुछ बात ही नहीं की जा सकी उससे। गांव के लोगों ने सोचा कि ‘बड़ी’ बन रही है तो बने हमारे ठेंगे से!...और फिर किसी ने मुंह भी न लगाया। दिन बस ढलने ही लगा था कि उसने देखा मां की सौत उसे खोजती चली आ रही है। वह उसे हाथ पकड़कर घर ले गयी।

“मैं कब से खोज रही थी आपको! गांव के सब घरों में पूछा...झरने पर भी नहीं मिली...आपके पिताजी तो वन की ओर गये हैं आपको खोजने कि जाने पुराने दिनों की खुद्द में उधर ही चली गयी हों आप!”

जुपली को पहली बार लगा कि उसने कुछ ठीक नहीं किया।

पिताजी थके-थके से घर लौट रहे थे। उसे देखते ही तसल्ली से मुस्कराए। “खोज लाई शीला जुपली को! बड़ी भूख लगी है, खाना लगाओ।”

चूल्हे के पीछे चुलख्यंद में डेग्ची, भड्डू , चसणी, कुन्डी में ढका रखा खाना, किसी ने हाथ भी नहीं लगाया था। शीला ने आंच तेज की, खाना गर्माया और दो थालियों में सजा दिया। पिताजी हाथ-मुंह धोकर खाने बैठे, मन मारकर वह भी बैठ गयी।

शीला लोहे की कड़ाही में दूध गाढ़ा करने लगी। जुपली को रबड़ी से रोटी खाना बहुत पसंद है पर यह शौक तो बस मां तक ही था...उसके बाद कौन करता यह मेहनत। दूध के पास घन्टा भर बैठो, धुआं खाओ, आंसू बहाओ, करछुल घुमाओ, आंच घटाओ-बढ़ाओ...जुपली से न होता यह झमेला।... पर आज मां की सौत ने मनुहार कर-करके रबड़ी-रोटी खिलायी जुपली को और उसका बचा-खुचा खुद खाने लगी।

कैसी है यह भूतनी!... मां बनने की कितनी कोशिश कर रही है!...सब कुछ तो हथिया लिया है...लेकिन मेरी मां कैसे बन सकती है मेरी मां की सौत! ...जुपली के मन को घड़ी-भर चैन नहीं... पल भर पलक न लग पायी उसकी... रात यूं ही सरक गयी। पर सुबह समय पर उठ गयी जुपली, कल वाली भूल आज न दोहरायी जाए इसलिए।

रसोई में गयी तो शीला नहीं थी वहां। जुपली ने सोचा रसोई का सऊर तो है, वह तो देख ही लिया पर अब जरा राणी जी का सन्नी (गौशाला) का सऊर भी तो देखें....

मां के रहने तक ही सन्नी ढंग की रह सकी थी...फिर तो गाय गोरू ही न रहे...पिछले साल तो सन्नी की पिछली दीवार उजड़ ही गयी थी। देख कर कलेजा मुंह को आ गया था...मां होती तो कहीं ऐसा होता कि घर की सन्नी में गाय-गोरू ही नहीं और यह उजड़ना...जाने अब कुछ है भी या नहीं। असगुन का विचार उसे हिला गया।

घर से सन्नी ज्यादा दूर नहीं...ज्यों ही सन्नी के धोरे पहुंची जुपली तो मंत्रविद्ध सी ठिठकी देखती ही रह गयी थी.. वैसी ही लिपी-पुती संवरी दीवारें, छत। टूट-फूट का नामोनिशान भी नहीं...कौन कहेगा कि कभी उजड़ी थी!...अन्दर दो गाय एक बछिया...और दो बराबर के बछड़े बंधे थे। जुपली ने एक-एक जानवर को गौर से देखा...पास से देखा छू कर देखा...सहला कर देखा...तौला-परखा...आह! प्राणों में हरियाली उतर आयी। एक-एक पशु को देखकर लगता कि अभी-अभी इसकी तेल मालिश हुई है...खा-अघा कर जुगाली करते प्राणी!...मन झूम उठा!...उन्हें सहलाते उंगलियां गड़ा-गड़ा कर छेड़ती रही वह।

“बड़े पिल्ल बने हो सबके सब! पूड़ी-कचौड़ी खाते हो क्या रोज!”

पशुओं के होठों पर दबी-दबी मुस्कान...जैसे कि मज़ाक में कही गयी बात भी सच ही हो!

आनन्द में सराबोर मन लिये घर लौटी जुपली! रसोई में गयी तो शीला वहां नहीं थी...कहां गयी होगी वह सुबह-सुबह सवेरे... जुपली सोच रही थी, कि तभी शीला जाड़े से थरथराती-गड़गड़ाती सर पर पोटली रखे आती दिखायी दी।

“देखिये मैं गडरी लेकर आयी हूँ। आपको गडरी का साग बहुत पसंद है न!” हंसते हुए शीला ने पोटली खोल दी “कैसी है?”

जुपली से कोई जवाब देते नहीं बना। चूल्हे में आग जलाकर बोली “आग ताप लो” और बाहर निकल गयी।

सोचती रही गडरी लाना क्या, आसान है! मुंह अंधेरे गयी होगी उतनी दूर... नदी-रौखड़ फिसलते पत्थर काई...पानी के सांप ...कितना खतरा उठाकर लायी जा सकती है गडरी...फिर यह ठंड...नदी किनारे की गीली धुंध ... एक-एक नन्हीं-नन्हीं बूटी चुनते ... कितनी तो ऊब होती है पर यह लायी है छः आदमियों के तृप्त होने लायक...

आज जुपली ने गाय दुही, आंगन बुहारा, नहा-धोकर खाना खाया और फिर समय काटने के लिए गांव की गलियों में फिरने लगी। मन में उमड़-घुमड़ चल रही थी...वही सब चीजें क्यों पकाती है यह, मेरी मां की सौत, जो मुझे पसंद हैं... और जो वहां दिल्ली में कभी नहीं मिल सकतीं। गडरी का साग, मूला का थिंच्वणी, भंगल की चटनी, मुंगरी का पल्यौ, सोंठू की पकौड़ी, झंगौरे की खीर, पटुड़्या फाणू, चौलूं की कुरमुरी लगड़ी ... कोई भी चीज बाकी नहीं रही खाने से इन दो दिनों में...एक घड़ी भी शीला का हाथ काम से खाली नहीं देखा...साफ-सफाई, पकाना-परोसना, बोलना-बतियाना, किसी भी काम में तो कोई कमी नहीं है...कुसऊर तो जैसे उसके धोरे आ भी न सकता हो।

....पिताजी का स्वास्थ्य भी तो कितना अच्छा हो गया है...! पिछले साल कह रहे थे ‘भोर का तारा हो चला हूं बेटी!’ पिछले दस सालों में ऐसे साफ-सुथरे भी कभी न दिखे...काया पर मांस बढ़ चला है...झुकी कमर सतर दिख रही है.. चेहरे की झुर्रियां तक जैसे किसी ने पोंछ-पोंछ डाली हों...घर में ही नहीं, मन से भी कितने-कितने अकेले हो गये थे पिताजी...! ...फिर जिसने मेरे पिताजी को सहारा दिया, टेक लगायी उनकी जिन्दगी पर, उस प्राणी से क्यों इतनी खार खा रही हूँ मैं....?

रात भर जुपली सोचती रही झपकियां लेती रही...पर अभी भी मां की सौत के लिए मां कहने का साहस न आया था।

        ...बस धूप निकलते ही पिताजी के साथ वह ससुराल के रास्ते लग लेगी...यही सोचते-सोचते वह रसोई में गयी। उसने देखा शीला बड़ी सी परात भर स्वाल-पकौड़े (बेटियों के ससुराल भेजे जाने वाले पकवान) बनाकर अब खाने की तैयारी में जुटी पड़ी थी।

इस समय न तो जुपली ससुराल से आयी थी और न ही यह आना मायके आना था। कायदे से यह तो रस्ते चलने का सुस्ताना हुआ इसमें कैसी विदाई, कहां का कलेऊ...अपनी मां तक तो बनाती नहीं इतना सब और...ये तो वही मां की सौत है, मैंने आकर जिसके पैर भी न छुए, दिखाने भर को जरा सा भी न झुकी उसके आगे... कुशल-खबर भी न पूछी थी....

शीला ने कहा “देखिये तो, कलेऊ जाने मैंने ठीक बनाया भी होगा या नहीं! मेरे सामने आप पहली बार आयीं पर मुझे तो सऊर ही नहीं पर अगली बार सब आपको पूछ-पूछ का ही ढंग से बनाऊंगी। बता दे रही हूं , अगली बार नहीं भेजने वाली मैं दो महीने से पहले, हां!”

जुपली के सीने से जैसे चट्टान खिसक गयी और घड़ी भर तो वह भौंचक सी उस चट्टान के टूट-टूट गिरने की आवाज सुनती रही...और फिर उसकी आँखे भर आईं...मन के अन्दर जो दावानल था उस पर हिमपात होता गया...एक घड़ी में जैसे झम्म से घनघोर रात की जगह चमचमाती चांदनी खिल आयी...जैसे किसी पंछी के बंधे पंख झट से खोल दिए किसी ने...गर्दन पर रखा जोल (जुआ) उतार दिया हो किसी ने! एक साथ कितनी-कितनी अनुभूतियां हिलोर लेने लगीं जुपली के भीतर वह भौंचक देखती रही जैसे कि हथेली पर रखा रतन अंधेरे में कंकड़ समझकर बस फेंकने ही वाली थी कि झट से अचानक से उजाला फैल गया और उसका इतना बड़ा नुक्सान होते-होते बचा हो और वह साड़ी के पल्लू में चेहरा छिपा कर रोने लगी।

शीला हड़बड़ायी आयी ‘क्या हुआ?’ आप क्यों रोई? मेरा कहा बुरा लगा हो तो मेरी...मेरी जीभ जला दीजिए पर रोइये मत! आपको मेरी सौं”

जुपली ने रोते-रोते भी रूलाई रोकने की कोशिश कर कहा “रोऊँ न तो क्या करूँ? दुनिया की कोई औरत यूं अपनी बेटी से आप आप करके बोलती है जैसा तुम कह रही हो मां!”

शीला ने झट बाहों में ले लिया जुपली को और उसे गोद में समेट कर सिसकने लगी। चार आंखों से स्रोत फूट पड़े थे और दो आंचल तर हुये जा रहे थे...जुपली को लग रहा था कि वह पूरे महीने भर के बाद अब कहीं खुल कर सांस ले पा रही है। कैसे सोचती रही मैं कि वह मेरी मां की सौत है... कैसी कुमति है मेरी...जुपली को रह-रह कर अपना व्यवहार याद आता और वह शर्म से मरी जाती..

कौन सौतेली! किसकी सौतेली! यह तो मेरी अपनी मां है जो अपने रोगों से तंग आकर चली गयी थी कहीं... और फिर लौटी तो स्वस्थ होकर और सबके लिए खुशहाली लेकर...ऋद्धि-सिद्धि लेकर.. मां के बिना भी कहीं मायका सोहाता है?... उसके मस्तिष्क में जो आंधी चल रही है उसमें उड़ता जा रहा है सब कूड़ा-कर्कट .... सारा कबाड़ जो उसने महीने भर से बड़ा कीमती सामान समझ कर संभाल-संभाल कर रखा था।

“तुम्हारे बिना मायका मसान लगता था...” हिचकियां बंध गयी है जुपली की और शीला ने अपने ममतामय वक्ष में भींच लिया है उसे।
रश्मि बड़थ्वाल
21 नील विहार,निकट सैक्टर 14, इन्दिरा नगर, लखनऊ 16

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ