मृदुला गर्ग : मिलजुल मन (उपन्यास अंश) Mridula Garg's 'Miljul Man' Sahitya Akademi Award Winner 2013

मृदुला गर्ग
                   मिलजुल मन (साहित्य अकादमी 2013 'हिन्दी' पुरस्कृत उपन्यास)

जुग्गी चाचा और हम

Mridula Garg sahitya akademi award winners 2013 जुग्गी चाचा हमारे घर रहने तभी आए जब गुल स्कूल से निकल, कॉलेज पहुँची। यानी एक फ़स्ल खत्म हुआ, दूसरा शुरु। हम मशाल हाथ में ले,मामाजी का उलट ढ़ूंढ़ने निकलते तो मुझे यक़ीन है, जुग्गी चाचा से उम्दा नमूना नहीं मिल सकता था। उनके साथ ने कई तरह हमारी ज़िन्दगी पर असर डाला। कुछ खुशनुमा, कुछ बदनुमा; ज़िन्दगी की मानिन्द।

       उनके आते ही पहला खुशगवार बदलाव राखी के त्योहार पर हुआ। हर साल की तरह, चचेरे भाई, मिक्की-टिक्कू के इंतज़ार में मुँह लटकाए,गुल और मैं, संकरे बरामदे की सीढ़ियों पर बैठीं,पड़ोस की जगत ताई की घड़ियाली आँसू भरी हमदर्दी झेल रही थीं। तभी हाथ मे दो राखियाँ पकड़े, जुग्गी चाचा नमूदार हुए और डाँट कर बोले,’कोई तमीज़ तहज़ीब है कि नहीं तुम में! राखी भी भाई ले कर आए तब तुम नकचढ़ी लड़कियाँ, बाँधने की ज़हमत उठाओगी।’

       वे जब बोलते इतनी ऊँची आवाज़ में कि पूरा मौहल्ला सुने। ताईजी को उसकी ज़रूरत नहीं थी। वे चाँदनी चौक में,सुंई का गिरना सुनने का माद्दा रखती थीं। जवाब हमारी बजाय उन्होंने दिया। बेचारी!सगा भाई है नहीं,हर साल रोती-बिसूरती चचेरे भाइयों की राह देखती बैठी रहती हैं। उन्हें कौन आने की जल्दी है;अपनी बहिन से राखी बँधवा, खा-पी कर फ़र्ज़ निभाने, दुपहर बाद चले आते हैं। अपना भाई अपना होता है, दूसरों का दूसरा। रहें बैठी भूखी-प्यासी, उनकी बला से।"

       उनकी बात आधी सच थी। हम इंतज़ार में बैठी ज़रूर थीं पर भूखी-प्यासी नहीं। इतना प्यार हमें चचेरे भाइयों से नहीं था। ऐसी रीत भी हमारे यहाँ नहीं थी। माँ को भूखे रहने का सुझाव देने की हिम्मत किसी में न थी। दुर्वासा समान गुस्सेबाज़ बाबाजी में भी नहीं। वे इतनी नाज़ुकजान थीं कि दादी कहती थीं, हमारी बहू ऐसी है कि धोई-पोंछी और छींके टांग दी। ससुराल में किसी की जुर्रत न हुई कि उनसे,रसोई में जाकर कुछ पकाने को कहे या उपवास-व्रत करने को। ख़ुशक़िस्मती से हम जैन थे इसलिए पति-पुत्र के लिए करवा चौथ,अहोई वग़ैरह के व्रत रखने का रिवाज न था। जो व्रत जैनी रखते, निर्जल और चौबीस घण्टे चलने वाले होते क्योंकि सूरज डूबने पर खाना मना था। सिर्फ़ एक बार चाव में आकर दादी के साथ, माँ ने निर्जल व्रत रख लिया था। शाम घिरने से पहले, चक्कर खा बेहोश हो गई थीं। दुर्वासा बाबाजी ने दादी को, बहू से व्रत करवाने की हिन्सा के लिए इतना लताड़ा कि वे भी बेहोश होने को आईं। माँ के सिर में बादाम रोगन की मालिश करके उन्हें होश में लाया गया था। बाहोश हुईं तो जैन मंज़ूरी के खिलाफ़, सूरज ढलने के काफ़ी बाद, बादाम का शर्बत पिला कर दुरुस्त किया गया था। मामाजी को पता चला था तो वे अलग भौंके-गांजे थे। उन्हें राखी बाँधने के इंतज़ार में माँ उपासी रहतीं तो बवंडर उठ खड़ा होता। वह दिन था और आज का दिन। माँ ने न कभी खुद व्रत किया न हमसे करने को कहा।

       सच कहूँ, मुझे न राखी बाँधने में खास दिलचस्पी थी, न सगा भाई न होने पर रोंदू रंजिश। पर दुनिया का मानना था, होनी चाहिए। गुल उसके झाँसे में आ गई थी। उसकी सहेलियाँ हर राखी के बाद, भाइयों से मिले तोहफ़ों की नुमाइश करने आया करती थीं। किसी के दो भाई थे, किसी के तीन। एक मोहतरमा के पूरे पाँच थे।वे इकलौती बहिन थीं; राखी और भाई दूज के बाद, पूरी झाड़फ़ानूस बनी नमूदार होतां। जलन क्योंकर न होती?
”यार मोगरा,मेरा खयाल था,तुम जुग्गी चाचा का क़िस्सा बयान करने जा रही हो, यह क्या रोज़ा उपवास ले बैठीं?”

       ”तुम भी…घुसी चली आती हो गुफ़्तगू में। यह ज़िन्दगी है, तुम्हारा उपन्यास नहीं कि ठोक पीट कर एक जानिब चलाती रहूँ।”

       ”चलो, हांको इधर-उधर की।”

       ”माई लॉर्ड, ये तमाम बातें एक दूसरे से माक़ूल तरीके से जुड़ी हुई हैं, कुछ देर में साबित हो जाएगा।”

       ”ठीक है, पंचायती छोड़ो। क़िस्सा कहो।”

       ”मैं सरासर जुग्गी चाचा पर मर्कूज़ थी,माई लॉर्ड। जगत ताई का जवाब हमने नहीं,जुग्गी चाचा ने दिया,उसी बब्रूवाहनी सुर में।”

       ''कौन नामाक़ूल बतला गया कि इनका सगा भाई नहीं है। छहफ़ुटा मैं दीख नहीं रहा? चलो लड़कियों, फ़टाफ़ट राखी बांधों,रामदेब से कह आया हूँ,मेरी ठण्डाई और बेड़मी तैयार रखे। एक गरम, दूसरी ठण्डी हो गई तो तुम्हीं को भुगतना पड़ेगी। आगे से राखी ख़ुद ख़रीद कर लाना, इस बार शगुन से पैसे काटे ले रहा हूँ। दिलबहार के भी। लड्डू मुझे पसन्द नहीं,टीके में दिलबहार मंगाई है भीमसेन की दूकान से। कमबख्त एक ही मिठाई ढंग की बनाता है। लड्डू तुम खा लेना या तुम्हारे सगे चचा के बर्ख़ुर्दार जब तशरीफ़ लाएं,उन्हें खिला देना।’'

       यहाँ यह बतलाती चलूँ कि जुग्गी चाचा हमारे पिताजी के सौतेले भाई थे, मिक्की-टिक्कू के पिता,सगे। उसके बाद या पहले, उस हक़ीक़त का हमारे रिश्तों पर ज़रा असर न पड़ा। उस वक़्त बात ताईजी को लाजवाब करने को कही गई थी। पर...”

       ''पर जोगनाथ के मन में कुछ मलाल रहा ज़रूर होगा। तभी यह साबित करने को कि बड़े चाचा की निस्बत,वह बैजनाथ के कुनबे के ज़्यादा चहेता था,भाई का किरदार मौजूं लगा होगा।”
''बाल की ख़ाल निकालनी हो तो माना जा सकता है।”

       ''बाल को समूचा अलग करना हो तो सिनिक की तरह कहा जा सकता है कि जोगनाथ सोचता होगा, भाई की नई रईसी में बेहतर हिस्सेदारी तब होगी, जब बेटा क़बूला जाए।”

       ''तुम मरे लेखक! लगाओ सिनिसिज़्म। गुल और मेरे लिए उस वक़्त मतलब की बात यह थी कि एक बार, जुग्गी चाचा ने हमसे राखी क्या बँधवाई, हमारे माँ-बाप को पीछे छोड़,हमारे पालक बन गए। अजब थे हमारे पालनहार, हमें उनकी निगरानी में सौंप, राहत की साँस ली। अपने आज़ाद खयाल नज़रिये पर उनका शक्की मिज़ाज हावी होने दिया।”

       पहले बतला चुकी हूँ कि उनकी चेतावनी के चलते, गुल पब्लिक बस में सफ़र नहीं करती थी। और भी बहुत कुछ था, जिसमें उनकी तजवीज़ चलती थीं।

       पिताजी की माली हालत सुधरी। उन्होंने वह घर जिसमें अब तक हम, बहैसयित किरायेदार रहते थे,खरीद लिया। तो गुल और मुझें साईकिल सवारी का शौक़ चर्राया। पिताजी से ख़रीदने को कहा तो बोले, पहले किराये की साइकिल पर चलाना सीख लो, सीख जाओगी तो खरीद देंगे। ज़ाहिर है, जुग्गी चाचा से। । पर उन्होंने सिखलाने से साफ़ इन्कार कर दिया। उनका कहना था,"लड़कियों का साइकिल चलाना, शोहदों को न्योता देना है।’

       हमें बहुत गुस्सा आया। गुल बोली,"मेरी तमाम सहेलियाँ साइकिल चलाती हैं। उनके बड़े बुज़ुर्ग, दादा-नाना भी उसमें ऐब नहीं मानते। आप कहते हैं, आप हमारे चाचा नहीं, बड़े भाई हैं और हैं, बुड्ढों से गये गुज़रे।’
"बुड्ढों को शोहदों का क्या इल्म?’

       "आप शोहदों के माहिरे खसूस हैं?’

       जुग्गी चाचा ज़रा बुरा नहीं माने। हा-हा कर हँस दिये। उनकी हँसी उनके ऊँचे सुर की तरह ठोस बब्रूवाहनी थी। फिर अपने तकियाकलामों में से एक दुहराया,’फ़िक्र क्यों करती हो, मैं हूँ न।’

       "आप क्या करेंगे?'

       "देखती जाओ।’

       वाक़ई उन्होंने दिखला दिया। एक ज़बर 350 सी.सी नॉर्टन मोटरसाइकिल खरीदी और बारी-बारी से मुझे और गुल को पीछे बिठला, दिल्ली की सैर करवाने लगे।

       एक बार दोनों को साथ ले चले। आगे चालक की सीट पर चाचा, पीछे की गद्दी पर,ख़ूब घेरदार गरारा पहने गुल और दोनों के बीच,घुसी-भिंची मैं। न पूरी पिछली गद्दी पर न अगली पर। मैं पहना करती थी स्कर्ट-ब्लाउज़ तो कम से कम जगह में ठूंसी जा सकती थी। गरारा ठहरा मुग़लिया शाही लिबास; जब तक फ़हरा कर न पहनो क्या बात बने। जुग्गी चाचा को मेरे स्कर्ट ब्लाउज़ पहनने से एतराज़ क्यों न था,बाद में समझा। उन की नज़र में वह सेक्सी पोशाक नहीं थी यानी शोहदों की दिलचस्पी की बायस नहीं हो सकती थी।

       गुल का रेशमी नया-नकोर गरारा उस पर खूब फ़ब रहा था, इतना कि वह ख़ुद पर फ़िदा हो चली थी। सजीलेपन का तक़ाज़ा था कि गरारा जितना फ़हराया जा सके, फ़हरा कर बैठा जाए। सड़क पर चलते नौजवानों की निगाहें उस पर टिक आहें भर रही होंगी, इसमें न उसे शुबहा था न मुझे। जुग्गी चाचा ने नई-नई मोटरसाइकिल चलानी सीखी थी इसलिए पूरा ध्यान चलाने पर था वरना उस दिन दो-चार शोहदे पिट कर रहते।

       पर वहाँ कुछ और हादसा घट गया। फ़हराते गरारे का एक सिरा पिछले पहिये में जा फँसा। उस के साथ मिल, फिरकनी-सा घूमने लगा। गरारे के पहुँचे में घेर काफ़ी था, और मोटरसाइकिल की रफ़्तार बेहद धीमी। तभी-तभी चलानी सीखी थी इसलिए रफ़्तार 350 सी.सी की कैफ़ियत से मेल नहीं खाती थी। फिर भी गरारा कब तक लोहा लेता। आखिर चीं बोल गया। जब नेफ़े तक पहिये की गिरफ़्त में आ रहा तो कटी पतंग की मानिन्द, गुलमोहर को पिछली सीट से खींच, ज़मीन पर ला गिराया।

       जुग्गी चाचा बोले,"हमने पहले ही कहा था,मोटर साइकिल पर बैठने की तमीज़ है नहीं,साइकिल किस बूते चलाओगी।’

       गुल को चेहरे के बल पट पड़ा देख, मेरा रोना निकल गया।

       उन्होंने डाँट कर कहा,"चुप, रोंदू। गिरी वह है, तुम क्यों रो रही हो।’

       मैं और ज़ोर से रो कर बोली,"गुल मर गई!"

       "हैं!’चाचा उसे उठाने को झुकते, उससे पहले वह खुद उठ कर बोली,"मरे तू! नया का नया गरारा फाड़ कर रख दिया इस शैतान के चरखे ने!"

       "मुँह पर खरोंच भी है,"मैंने कहा।

       सुनते ही गुल ने बेतहाशा रोना शुरु कर दिया। बोली,"अब मेरा क्या होगा?’

       "होना क्या था? खरोंच ही है न। ऐसी क्या मुसीबत आ गई।"

       "मेरा चेहरा बिगड़ गया। मैं बाबाजी से शिक़ायत करूँगी। देखना वे क्या ख़बर लेते हैं आपकी। कहेंगे,लड़की का मामला है, चेहरे पर दाग़ आ गया तो अच्छा दूल्हा कैसे मिलेगा?"

       "पागल हुई है? लालाजी छोड़ भाईसाहब से भी कुछ मत कहना, खा मेरी क़सम। चल, तुझे हकीम कल्लन खाँ के पास ले चलता हूँ, क़रीब ही हैं। ऐसा मलहम देंगे कि भाभी सी गोरी हो जाएगी।"

       वाक़ई! तो पहले क्यों नहीं लिवा ले गए, बड़े भाईसहब!

       "पागल कौन है, आप तय कीजिए। फटा गरारा पहन, कहीं भी कैसे जाऊँगी, बतलाएंगे?"

       "या ख़ुदा!" जुग्गी चाचा सिर पकड़ बैठ गये।

       आज का ज़माना तो था नहीं कि दूकान-दूकान सिली-सिलाई पोशाक मिले। वह भी गरारा! मिल सकती थी तो साड़ी। उन्होंने तजवीज़ रखी कि वे एक साड़ी खरीद लाते हैं; गुल उसे कुर्ती और गरारे के ऊपर बाँध ले। पर गुल अपना जोकर बनाने को किसी हाल तैयार नहीं हुई। कहा,"यहाँ सड़क पर?"

       चाचा फिर सिर थाम बैठ गये।

       तब मैंने अक्ल लगा कर कहा कि क्यों न हम एक साड़ी और एक लम्बी बरसाती ख़रीदें। बरसाती से ढक कर गुल को हकीम कल्लन खाँ के घर ले जाएं। घर के भीतर वह चाहे तो साड़ी बाँध ले या खरोंच पर मलहम लगवा, बरसाती में घर पहुँच ले।

       तजवीज़ सुन पहले गुल ने खींच कर एक घूंसा मेरी पीठ पर जमाया। पर जुग्गी चाचा के बार-बार मेरी अक्ल की दाद देने पर बरसाती पहन, हकीम जी के घर जाने को राज़ी हो गई। उस रज़ामंदी में कुछ हाथ लाचारी का था और कुछ लालच का कि वाक़ई हकीम कल्लन खाँ ऐसा मलहम दे दें, जिससे चेहरे का रंग माँ जैसा हो रहे। साड़ी हमने बाद के लिए मुल्तवी रखी पर ज़रूरत न पड़ी।

       गरदन से टखनों तक मर्दाना बरसाती में लैस गुल हकीमजी के यहाँ पहुँची तो उनकी सवालिया नज़र का,ऐसी खा जाने वाली निगाह से जवाब दिया कि उन्होंने सोचा, लड़की पर चुड़ैल आई है,उसी को उतरवाने, अजब भेष में लाया गया है। चाचा ने पूरी कहानी बयान करके उनका शक़ दूर किया पर गुल की खूंखार नज़र के सामने, डर के मारे, बेचारे हँस भी न पाये। उठ कर भीतर गये और बेटी को साथ लिये लौटे। उसने एक सैकिंड में हमारी उलझन सुलझा दी। बोली,"इसमें क्या है। मेरा बुर्क़ा पहना कर बीबी को घर ले जाइए,बाद में जुग्गी भाई लौटा लाएंगे। घरवाले पूछेंगे तो कह दीजिएगा कॉलेज के ड्रामे में अनारकली बनी हैं, उस के रिहर्सल के लिए गई थीं।"

       हम उछल पड़े। सुझाव गुल को भी रास आया। जुग्गी चाचा बाग-बाग हो बोले,"अब समझ में आया, रज़िया सुल्तान, सुल्तान क्योंकर बनी थीं।"

       बेटी ने एक रज़ियाई हिकमत और सुझाई,"जुग्गी भाई चाहें तो जब बुर्क़ा लौटाने आएं, इनका गरारा लेते आएं, ऐसी रफ़ू करवाऊंगी कि कसीदाकारी लगेगी।"

       चाचा इतनी देर वाह-वाह करते रहे कि लगा, वालिद सामने न बैठे होते और पिटने का डर न होता तो लड़की का हाथ चूम लेते। वह काम हमने कर डाला। पहली बार बुर्क़े की अज़मत समझ आई। एकदम ख़ुदाई चीज़ थी। लिबास का लिबास, ख्वाब का ख्वाब। गरारा पहन ख़ुद को शहज़ादी महसूस करने वाली गुल, बुके में सिर से पाँव तक अनारकली हो उठी। ऊपर से हकीम साहब ने करामाती मलहम पकड़ा दिया। नतीजतन वह कुछ और अकड़-फैल कर मोटरसाइकिल पर सवार हुई और मुझे पहले से भी ज़्यादा घुट-पिस कर बैठेना पड़ा। पर घर पहुँचने की जुगत तो भिड़ी।

       गुल और मैं पिछले दरवाज़े से दाख़िल हो सीधे पिछवाड़े की कोठरी में घुसे। पारबती के सिवा किसी ने नहीं देखा। उसकी हाय दैया को अनारकली के झूठ से दबाया कि बुर्क़ा उतरते ही वह फिर दैया री उचार उठी। पर हम पहले से तैयार थीं। एक साथ उसके मुँह पर हाथ रख आवाज़ घोटी और माँ के नाज़ुक दिल का हवाला दे, क़ौल भरवाया कि मोटरसाइकिल के पेड़ से टकराने की बाबत, किसी को कानोंकान ख़बर न होने देगी।      
हकीम के पास गए। मलहम मिला। पर अफ़सोस गुल का रंग न निखरा। पर खरोंच से चेहरे पर निशान भी न पड़ा। हाँ, जुग्गी चाचा को बस में करने का हथियार हाथ लग गया। जब कोई काम करवाना हो, लड़की का मामला बना, बाबाजी से शिक़ायत की घमकी दे दो। शेर मेमना हो रहेगा।

       मज़े की बात यह थी कि जितना लोग दादा से ख़ौफ़ खाते थे, उतना दादी से बेखौफ़ थे। दादा की मौजूदा बीवी, जुग्गी चाचा की सगी और पिताजी की सौतेली माँ थीं। चूंकि सगी माँ को हमने क्या, हमारी माँ ने भी देखा न था, इसलिए उन्हीं को बतौर सास और दादी पहचाना जाता था। गुल से उनका अच्छा याराना था।
”पागल हो क्या? दादी से याराना?”

       ''थोड़ी बहुत हूँ। पर इसमें नहीं। दादी थीं ही यारबाश चीज़। ऐसी फड़कती गज़लें गाया करती थीं, क्या बतलाऊँ! सुना था, रंडियों के मौहल्ले के क़रीब रिहाइश थी। उनकी गायकी सुन-सुन,गज़ल गायकी में महारत हासिल की थी। गले का सोज़ ख़ुदा का बख्शा था। गुल की शादी के रतजगे में वह-वह गज़ल गाईं कि अख्तरी बाई की याद ताज़ा हो आई। उसकी सहेलियों ने सोचा, मुजरेवाली बुलवाई होंगी। बेचारी अफ़सरज़ादियाँ जानती न थीं कि मुजरेवालियाँ, मर्दों की मजलिस में गाती थीं, औरतों के बीच नहीं। एक बार गाँव की पुश्तैनी हवेली की एक शादी के दौरान,हमारी बड़ी चाची ज़िद पर अड़ गई थीं कि मुजरेवाली का गाना सुन कर रहेंगी। मनुहार करके बाईजी को ज़नानखाने भेजा गया था। उन्होंने बेहद सुरीली आवाज़ में मीराबाई का भजन अदा किया था। औरतें रूठ कर बोली थीं,"यह क्या, कोई फड़कती हुई चीज़ सुनाइए!"बाईजी ने कानों को हाथ लगा फ़रमाया था,’यह तो रूहानी मसर्रत देने वाली गायकी है; इससे ज़्यादा फड़कती चीज़ सुनाने की मेरी ताब नहीं है।" एक नई नवेली बोल उठी थी,"वह सुनाओ न, जो मर्दों की महफ़िल में गाती हो। पर्दे के पीछे से हम भी सुना करती हैं।" बाईजी ने हाथ जोड़ दिये थे,"आपके सौ ख़ून माफ़ हूज़ूर पर हमारी भी इज़्ज़त है,हम उसे ग़ारत नहीं कर सकतीं।"

       ख़ुदा के फ़ज़ल से दादीजी पर बंदिश न थी। वे जो चाहें, जब चाहें गा सकती थीं, बशर्ते ग़ैर मर्द वहाँ न हो। सो उनकी गज़ल गायकी खाविंद के पहलू और औरतों की महफ़िलों तक महदूद थी। गुल की सहेलियों को पता चला कि गज़ल गाने वाली हमारी दादी हैं तो बोलती यूँ बन्द हुई कि मैं उन पर सवाया पड़ ली।
"गुल का उनसे याराना था, तुम्हारा नहीं?”

       "मुझे वे बहुत अच्छी लगती थीं पर बात करने जाती तो कर न पाती। जाने क्यों मुझे उन पर दया आने लगती थी और ख़ुद पर गुस्सा।”

       "क्यों भला?”

       "पता नहीं,ठीक से नहीं कह सकती। मुझे लगता था,उन्हें कभी किसी ने संजीदगी से नहीं लिया। जैसे वे अंग्रेज़ी की एक कविता गाते हुए, लजा कर कहती, वह उन्हें बाबाजी ने सिखलाई थी। माइ लव इज़ लाइक ए रेड-रेड रोज़; माइ लव इज़ लाइक ए ब्ल्यू-ब्ल्यू वॉयलट!(मेरी प्यारी लाल-लाल गुलाब है, मेरी प्यारी नीला-नीला वॉयलट है)। जब-जब उसे गातीं,मेरी आँखों में आँसू आ जाते। कितनी भोली थीं वे और कितनी हेठी होती रही थी उनकी। गुल से कहा तो वह हँस दी। फिर संजीदा हो कर बोली,तू भी न, लोगों का मज़ा खराब करने में उस्ताद है।’उसके बाद उसने उनसे कहा,वह कवित्त उनकी निजी चीज़ थी,उसे गा कर न सुनाया करें। दादी हँस-हँस कर दुहरी हो गईं। बालीं,हम कौन अपनी मर्ज़ी से सुनाते हैं। तुम्हारे बाबाजी ने कहा,वह वाली पोयम सुनाया कर, लोग जानें तुझे अंग्रेज़ी भी आती है। समझ रही हो न, जो मैं कह रही हूँ?”

       "कुछ-कुछ।”

       ख़ैर वापस जुग्गी चाचा पर आया जाए। तमाम ज़बानदराज़ी और नोंक झोंक के बावजूद, भाई-बहिन का रिश्ता बना तो उनके और गुल के बीच। बल्कि उससे कहीं ज़्यादा जिगरी, बहिनों जैसा। उसकी नज़दीक़ी या बहनापा उस दिन समझ में आया जब गुल को उनसे कहते सुना,"आज मैं मोटरसाईकिल पर न बैठूँगी, मेरा किड़िच हो गया।"

       गुल की सहेलियाँ और हम बहिनें आपसदारी में माहवारी को किड़िच कहा करती थीं। हुआ यह था कि एक दिन यकायक गुल की माहवारी स्कूल में हो गई। पाखाने में घुसने की जल्दी में, उसने एक बाथरूम का पल्ला थपथपा कर आवाज़ लगाई, जो है,जल्दी बाहर आए। बराबर के बाथरूम में आग लगी है। दरवाज़ा धड़ाक से खुला और स्कूल की सबसे लहीम शहीम टीचर, साड़ी घुटनों से ऊपर उठाए बाहर निकलीं। ग़लती से गुल टीचरों के बाथरूम के आगे जा खड़ी हुई थी। मित्रा टीचर उसे धकेलती हुई बाहर भागीं तो साड़ी पेटीकोट से बाहर निकल ली। वे उसे पकड़ बिला एक पल थमे दौड़ती रहीं। गुल को हिदायत देती हुईं,सब कोई को बोलो!
गुल ख़ाली बाथरूम में घुस गई पर हँसी भीतर घोट न पाई। बाहर छूटी सहेलियाँ भीतर से गूँजती हँसी सुन, हैरान होती रहीं। बाहर निकली तो सबने एक साथ पूछा,क्या हुआ? ठहाकों के बीच,जो अबूझ शब्द पल्ले पड़ा,वह था किड़िच!तभी से हम माहवारी को किड़िच कहने लगे। हम बेझिझक सबके सामने वह कह सकते थे क्योंकि हमारे सिवा,उसका मतलब कोई नहीं समझता था। चाचा का उसमें राज़दाँ होना,मुझे भीतर तक थरथरा गया।

       चाचा, बहिन की तरह गुल के राज़दां थे तो भाई का फ़र्ज़ निभाने में भी कोताही नहीं करते थे। ठीक लठैत की तरह, उसकी चौकीदारी में तैनात रहते थे। मुझे याद है अपने मोहल्ले के एक कुन्दज़ेहन किस्म के छोकरे ने एक मर्तबा गुल को इश्क़िया ख़त लिख मारा था,जो बतौर रस्म अदायगी,उसने जुग्गी चाचा की नज़र कर दिया था। मज़ा देखो कि जब बकौल गुल,उसने ज़िन्दगी का इकलौता इश्क़ किया यानी आशिक़ की आशिक़ी में खुद मुब्तिला हुईं तो चाचा को भनक न पड़ने दी। पर वह क़िस्मत का मारा, आशिक़ भर था, माशूक़ नहीं। सो सरे राह जुग्गी चाचा ने उसकी वह धुनाई की कि उसके बाद, बेचारा हमारे घर के सामने से गुज़रता, तो नज़रें इतनी नीची रख कि पिताजी से नमस्ते कहने की भी, जुर्रत न करता। उन्होंने एक बार कहा भी,'बब्बन को क्या हुआ आजकल दुआ-सलाम भी नहीं करता। एक बार नाम ले कर पुकारा तो ऐसे भागा जैसे भूत-कुत्ते पीछे लगे हों।’ लगे जो थे। पर उन्हें कौन बतलाने जाता। चाचा की सख्त मनाही थी।

       गुल को ख़त लिख,उस बदक़िस्मत ने एक नहीं, दो ग़लतियाँ की थीं। पिटाई करते हुए जुग्गी चाचा बराबर दोनों की याद दिलाते रहे थे। पहली, इश्क़िया ख़त लिखा। दूसरी, तमाम हिज्जे ग़लत किये। हर थप्पड़ के बाद वे कहते,"फिर करोगे?"वह कहता,"नहीं।"वे पूछते,"क्या?"वह कहता,"ख़त नहीं लिखूंगा।"वे कहते"और हिज्जे? हिज्जे ग़लत करोगे?"वह कहता,"कान पकड़ता हूँ,नहीं करूँगा।" वे एक धौल और जमा कर कहते,"यानी अगली बार सही हिज्जे करके ख़त लिखोगे?’वह नहीं कहता तो पिटता, हाँ कहता तो पिटता कि "मोहब्बत या माशूक़ के नाम के हिज्जे आते हों चाहे नहीं, ख़त लिखोगे ज़रूर।’ पूरा मौहल्ला जुट गया था। पर जुग्गी चाचा के बेतुके सवालों में ऐसी लताफ़त थी कि एक ने भी आगे बढ़ कर लड़के को छुड़ाने की पहल नहीं की। सब साँस रोक, उनके अगले जुमले और लप्पड़-थप्पड़-दोहत्थड़ में तालमेल बिठलाने का, इन्तज़ार करते रहे।

       पता नहीं यह सर्कस कितनी देर चलता पर तभी देहरादून से डाक्टर नाना का पैग़ाम लिये, एक आदमी आया कि कुछ देर बाद, उनकी तशरीफ़ आने वाली है, ख़ास तौर पर पिताजी से मिलने। और पिताजी घर पर थे नहीं। माँ ने चाचा को तलब करने, रामदेब और पारबती को इकट्ठा दौड़ा दिया था। अपनी फ़टफ़टिया पर सवार हो, जल्दी से चाँदनी चौक के घण्टाघर हलवाई से, कुछ नायाब मिठाई ले कर आएं। पारबती ने मार खाते बब्बन को देखा तो ममता उमड़ आई। चाचा को बाँह से खींच अलग करते हुए, भाभी का तुग़लक़ी फ़रमान सुना दिया। बब्बन ऐसे भागा कि नाहक हम ऑलम्पिक में हिस्सा लेने को, ढंग का दौड़ाक न होने को रोते रहे थे तब तलक।
मृदुला गर्ग
ई 421(भूतल) ग्रेटर कैलाश-2, नई दिल्ली -110048
sahitya akademi award winners 2013



मिलजुल मन - हम कहेंगे क़िस्सा, आप मानेंगे सच्चाई।


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4 टिप्पणियाँ

  1. BAHUT ACHHA LAGA PAR PYAS BADH GAYI AAGE BADHNE KI!!!!!

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  2. पूरी पुस्तक पढ़ें तब बताएँ ।मुझे तो लगा में स्वयम पूरे उपन्यास के साथ चल रही हूँ बेहद सरल एवंग्रह्य है।

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