फेसबुकिया लेखन, प्रकाशक और महात्वाकांक्षाओं का मेला - अनंत विजय | Anant Vijay on Delhi World Book Fair 2014


यह बात सही है कि मौसम का असर जनजीवन पर पड़ता है और लोग सिकुड़ने लगते हैं लेकिन विचारों और विमर्श का सिकुड़ना चिंता का सबब होता है । 

दिल्ली का विश्वपुस्तक मेला खत्म हुआ और मौसम ने तख्तापलट कर दिया । एक बार फिर से देश की राजधानी दिल्ली ठंढ के आगोश में है । दिल्ली विश्व पुस्तक मेला में जो रचनात्मक ऊर्जा और उष्मा साहित्य जगत में पैदा हुई थी उसपर भी मौसम का असर दिख रहा है । साहित्यकारों और लेखकों के बीच पुस्तक मेले में हुए विमर्श की गर्माहट गायब सी दिख रही है । यह बात सही है कि मौसम का असर जनजीवन पर पड़ता है और लोग सिकुड़ने लगते हैं लेकिन विचारों और विमर्श का सिकुड़ना चिंता का सबब होता है । चिंता इस बात की भी होती है अगर इस वैचारिकी में इतना तेज था तो उसकी गूंज लंबे वक्त तक सुनाई पड़नी चाहिए थी । यह संभव नहीं है कि विमर्श का जो कोलाहल था वो भोर में चिड़ियों की कलरव की माफिक था कि सूरज के चढते ही वो शांत होता चला जाता है दिन निकलते ही खामोशी छा जाती है । विश्व पुस्तक मेले के दौरान नौ दिनों तक अलग अलग विषयों और पुस्तकों के विमोचवन के बहाने से तकरीबन सौ गोष्ठियां और संवाद हुए होंगे । पुस्तक मेला में हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों का सिर्फ जमावड़ा ही नहीं था
 इस बार पुस्तक मेला लेखकों के महात्वाकांक्षाओं का उत्सव था, खासतौर पर वैसे लेखकों का जिन्हें लेखक होने का भ्रम है और वो सोशल मीडिया पर अपनी रचनाओं की बाढ़ से पाठकों का आप्लावित करते रहते हैं ।
बल्कि उन्होंने पाठकों के साथ अपने विचार भी साझा किए । हिंदी महोत्सव तक आयोजित किए गए । पुस्तक मेला के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस बार मेला का चरित्र बदलने की भरसक कोशिश की । कुछ हद तक उसको बदलने में उनको सफलता भी मिली । पुस्तक मेला के इस बदले हुए स्वरूप को देखकर मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि ये मेला पुस्तकों के अलावा साहित्योत्सव के लिए भी मंच प्रदान कर रहा था । पुस्तक मेला में हुई इन गोष्ठियों के बाद जो एक वैचारिक उष्मा पैदा होनी चाहिए थी वो महसूस नहीं की जा रही है । हिंदी के प्रकाशकों को इस बार सिर्फ यह शिकायत थी कि हिंदी का हॉल प्रगति मैदान के एक कोने में लगा था और वो वैसे हॉल में जहां कुछ प्रकाशक उपर तो कुछ नीचे थे ।  लेकिन अगर हम हिंदी के हॉल की भी बात करें तो वो काफी व्यवस्थित था । इस बार प्रकाशकों के स्टॉल पर पुस्तक विमोचनों के वक्त ठेलमठेल नहीं मच रहा था । हॉल के अंदर ही साहित्य मंच से लेकर सेमिनार कक्ष बनाए गए थे, जहां पुस्तक विमोचन और उसपर चर्चा होती थी । साहित्य मंच पर तो एक के बाद एक अनवरत रूप से विषय विशेष पर भी चर्चा और कविता पाठ होता था । साहित्य मंच से ही शुरू होती है हिंदी साहित्य को लेकर चिंता । इस बार पुस्तक मेला लेखकों के महात्वाकांक्षाओं का उत्सव था, खासतौर पर वैसे लेखकों का जिन्हें लेखक होने का भ्रम है और वो सोशल मीडिया पर अपनी रचनाओं की बाढ़ से पाठकों का आप्लावित करते रहते हैं । हिंदी में इस तरह के लेखकों को फेसबुकिया लेखक कहा जाने लगा है । अगर आप फेसबुक पर सक्रिय हैं और साहित्य से आपका लेना देना है तो ऐसे लेखकों की आासानी से पहचान की जा सकती है । आज के इंटरनेट के इस दौर में ये लेखक
सोशल मीडिया के इन उत्सवधर्मी और प्रचारपिपासु लेखकों ने जिस तरह से पुस्तक मेला को हाईजैक कर लिया वो हिंदी साहित्य के लिए चिंता का विषय होना चाहिए ।
थोक के भाव से कविताएं लिखते हैं और फेसबुक पर दनादन पोस्ट करते रहते हैं । इन औसत दर्जे के लेखकों का एक पूरा गिरोह फेसबुक पर है जो एक दूसरे की वाहवाही में प्राणपन से जुट जाता है । यह बात ठीक है कि फेसबुक ने इस तरह के लेखकों को एक ऐसा मंच दिया है जो उनकी साहित्यक और लेखकीय क्षुधा को शांत कर देती है । गिरोह के मित्रों से प्रशंसा हासिल कर दुनिया में अपनी लोकप्रियता साबित करने का भ्रम भी पाल लेते हैं । इस बार के पुस्तक मेले में फेसबुकिया लेखकों का ही जोर था और यही हमारी चिंता का विषय है । हालात यहां तक पहुंच गए थे कि इन लेखकों में वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ फोटो खिंचवाने और उसे फौरन फेसबुक पर पोस्ट करने की होड़ लगी थी । किसी भी गोष्ठी या पुस्तक विमोचन की तस्वीरें कार्यक्रम के दौरान ही दनादन फेसबुक पर पोस्ट हो रही थी । फेसबुक पर प्रतिष्ठा पाने के लिए इस तरह के लेखक ज्यादा से ज्यादा फोटो खिंचवा लेना चाह रहे थे । इसमें कोई हर्ज भी नहीं है । मैं तो हमेशा से इस बात की वकालत करता रहा हूं कि हिंदी के लेखकों को तकनीक का फायदा उठाना चाहिए । पुस्तक मेला के दौरान ही मीडिया में साहित्य की उपेक्षा पर ज्ञानपीठ की गोष्ठी में मैंने इस बात को प्रमुखता से रेखांकित करने की कोशिश की थी । लेकिन सोशल मीडिया के इन उत्सवधर्मी और प्रचारपिपासु लेखकों ने जिस तरह से पुस्तक मेला को हाईजैक कर लिया वो हिंदी साहित्य के लिए चिंता का विषय होना चाहिए । गंभीरता की जगह फूहड़ता ने ले ली थी और विमर्श की जगह आत्मप्रशंसा और आत्मप्रचार ने। पुस्तक मेला के आयोजक से जुड़े अफसरों ने भी इस तरफ से आंखें मूंदी हुई थी । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस बार वो लोग सिर्फ अपने प्रयोग को सफल होते देखना चाहते थे । गुणवत्ता पर ध्यान नहीं था ।  हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक, जिनका उपन्यास भी इस पुस्तक मेले में जारी हुआ, ने मुझसे कहा कि उन्हें पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि वो कितने लोकप्रिय हैं । उन्होंने बताया कि कई कवयित्रियां उनके साथ फोटो खिंचवा कर गई हैं लेकिन उनको उनमें से किसी कवि या कवियित्री का नाम याद नहीं था ।

अब इसका दूसरा पक्ष भी सामने आया । इस तरह के फेसबुकिया लेखकों की महात्वाकांक्षा ने कुछ छोटे प्रकाशकों के लिए संभावना के द्वार खोल दिए । हिंदी के इस तरह के प्रकाशकों ने इन लेखकों की हिलोरें ले रही महात्वाकांक्षा को जमकर भुनाया । पहले तो इन फेसबुकिया लेखकों की महात्वाकांक्षा को जमकर हवा दी गई और फिर जब वो चने की झाड़ पर जा बैठे तो उनको इस बात के लिए राजी किया गया कि वो पैसे देकर अपनी किताबें छपवाएं । प्रसिद्ध होने की महात्वाकांक्षा के शिकार इन लेखकों ने जमकर पैसे लुटाए । बताया यह गया कि कविता संग्रह छापने के लिए पच्चीस हजार और फिर विमोचन समारोह करवाने के लिए अलग से पैसे लिए गए । उसमें भी प्रकाशकों ने चालाकी यह की गई कि लेखक को बताया कि पुस्तक मेला का दबाव बहुत ज्यादा है लिहाजा वो कम प्रतियां छाप पाएंगे । इस तरह से कंप्यूटर से पचास साठ प्रिंट निकालकर उसे बाइंड करवाया गया । कंप्यूटर से कवर निकालकर लेखकों के हाथ में किताब थमा दी गई । अब किताब छपकर आई तो फिर विमोचन भी होना था । प्रकाशकों ने मेले में घूम रहे कुछ बड़े लेखकों को पकड़ा उनके साथ खड़े करवा कर लेखक की किताब विमोचन की फोटो खिंचवा दी । फेसबुकिया लेखकों के लिए और क्या चाहिए था। फेसबुक पर डालने के लिए आदर्श तस्वीर और प्रकाशक को मिले हजारों रुपए । इस तरह से पुस्तक मेले में प्रकाशकों ने जमकर कमाई की । सवाल यही कि इससे हिंदी साहित्य की तो छोड़े इन लेखकों का कितना भला होगा । इस तरह से पैसे देकर किताबें छपवाने और क्षणिक प्रसिद्धि लेखकों का नुकसान तो करवाती भी है साहित्य का भी नुकसान होता है । साहित्य का नुकसान यूं होता है कि कोई नया पाठक इस प्रचार के झांसे में पड़कर किताब खरीद लेता है और उसको पढ़ने के बाद वो जो धारणा हिंदी साहित्य को लेकर बनाता है उसके दूरगामी परिणाम निकलते हैं । प्रकाशक तो कारोबारी हैं उनपर हम ज्यादा तोहमत नहीं लगा सकते हां उनसे यह अपेक्षा जरूर कर सकते हैं कि वो सिर्फ कारोबारी नहीं हैं देश में पाठक और पुस्तक संस्कृति बनाने में उनकी भी जिम्मेदारी है लिहाजा वो लाभ के चक्कर में तो रहें लोभ के चक्कर में ना पड़़ें । हिंदी के ही कई प्रतिष्ठित प्रकाशकों को इस जिम्मेदारी का इल्म है लिहाजा वो इसका निर्वाह भी करते हैं लेकिन मेला के समय पैदा हुए प्रकाशक हिंदी के लिए घातक साबित हो रहे हैं । जरूरत इस बात की है कि प्रकाशक संघ इसको रोकने के लिए पहल करे । उधर फेसबुकिया लेखकों से आग्रह की किया जा सकता है कि वो अपनी महात्वाकांक्षा और प्रचारपिपासा पर लगाम लगाएं । उन्हें यह समझना होगा कि साहित्य सचमु साधना है और साधना के लिए श्रम बेहद आवश्यक है । 

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9 टिप्पणियाँ

  1. पुस्तक छापी जाये या न छापी जाये, पर फेसबुक ओर ब्लॉग ने एक पूरा वर्ग खड़ा किया है जिसे साहित्य पढ़ना भी अच्छा लगता है।

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  2. HINDI SAHITYA MEIN KITNE ` KHAANCHE ` BANENGE ? STREE LEKHAN ,
    DALIT LEKHAN , PRAVASI LEKHAN AUR AB FACEBOOKIYA LEKHAN .
    SAHITYA MEIN AESE ` KHAANCHE ` BANAANE WAALON KEE BUDDHI PAR
    ` NAAZ ` HOTAA HAI .

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  3. हकीकत उजागर करता बडा मारक आलेख है और काफ़ी हद तक सही भी क्योंकि कभी कभी हम नाम की वजह से ही धोखा खा जाते हैं और ऐसी पुस्तक खरीद लेते हैं कि बाद मे अपना ही सिर फ़ोडने को मन करता है और मज़े की चीज़ ये कि वो एक जानी मानी हस्ती हो जिसने कुछ लिखा हो और हमने जबरदस्ती उसे पढा हो क्योंकि भाई पैसे लगाये हैं आखिर :) और हम उससे गुजरे हैं तो लगता है कि इससे अच्छा तो कई फ़ेसबुक पर लिखते हैं तब फ़ेसबुक अपनी सार्थकता सिद्ध करती है इसलिये प्रकाशक भी उतना ही जिम्मेदार होता है जितना लेखक क्योंकि उक्त जानी मानी हस्ती की किताब आयी भी नामी गिरामी प्रकाशन से तो इसे क्या कहा जाये एक तरह से पाठकों से ठगी ही ना ऐसे मे यदि एक अन्जान प्रकाशक अन्जान लेखक को छापता है और उसमे कुछ ऐसा है जो इन तथाकथितों जाने मानों से बेहतर है तो बुराई ही क्या है मगर जैसा आपने कहा उस पर भी ध्यान देना जरूरी है कि छोटे लाभ के लिये पाठकों और लेखकों की जेब पर भी डाका नही पडना चाहिये

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  4. प्रलयंकारी, विध्वंसकारी और हाहाकारी ना सही मगर आलेख अच्छा है(वैसे ये शब्द पत्रकारिता के लिए अधिक उपयुक्त हैं), मगर थोड़ी निराशा इसलिए हुई कि उदाहरण के तौर पर किसी प्रकाशक, लेखक या कवि का ज़िक्र नहीं

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  5. फेसबुकिया कवि/कवयित्री कहकर जब आप किसी का मजाक उड़ाते हैं, तो आप उन तमाम प्रतिभाशाली गुमनाम लोगों का भी मजाक उड़ाते हैं, जिन्होंने इस मंच के माध्यम से अपने आपको साबित किया है | और उन तमाम कोशिशों का भी, जिनमें खड़े होने, गिरने और संभलने की बुनियाद पर चलने और दौड़ने की इमारतें खड़ी की जाती हैं | हां... यदि आपका मतलब साधारण और ख़राब कविताओं से है, तो वे फेसबुक के आने के बहुत पहले से पत्रिकाओं और किताबों के द्वारा परोसी जाती रहीं हैं | इसका ठीकरा भी सिर्फ फेसबुक के माथे पर नहीं फोड़ा जा सकता है | जबकि इसके उलट इन फेसबुकिया कवियों/कवयित्रियों ने जो भी किया है, अपने दम पर किया है | कम से कम कल को कोई साहित्य का सामंत इनके लिए यह तो नहीं ही कह सकेगा कि मैंने इस पीढ़ी को पैदा किया है | आप स्वीकार कीजिए या इनकार, सच तो यही है कि रचनात्मकता की एक पौध यहाँ से भी निकल रही है |

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  6. उम्दा आलेख |पर यदि कोइ व्यक्ति महत्वाकांक्षी है और अपनी इच्छा पूरी करना चाहता है तो इसमें बुराई क्या है |

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  7. साहित्य का स्तर तो पाठक ही तय करेंगे ,प्रयास करने वाले को हतोत्साहित्य न करे

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  8. आपकी बात से सहमती है , लेकिन यह भी सत्य है कि फेस बुक पर कभी कभी कुछ अच्छी रचनाएँ भी पढने को मिल जाती है. यहाँ एक बात कहना चाहूँगा कि हिंदी ही स्थिति अभी ऐसी हो रखी है कि पाठक कम एवं रचना कार ज्यादा हैं, इसका एक बड़ा कारण जो आपने ऊपर बताया वो है , लेकिन यहीं एक स्थिति यह भी है कि प्रकाशक नये यद्यपि अच्छे रचनाकारों को क्या अवसर देने के लिए तैयार हैं .. इसका जवाब है नहीं , इस क्षेत्र में भी पैरवी, चाटुकारिता, पहुँच आदि आदि बुराइयाँ गहरे जड़ जमायी हुई है. हालांकि मैं स्वयं कवितायेँ लिखता हूँ और शायद यह भ्रम पाले हूँ कि मैं भी साहित्य सृजन में लगा हूँ .. :) , हालांकि मैं फेसबुक की चूहा दौड़ में शामिल नहीं हूँ एवं अपने ब्लॉग पर ही लिखता हूँ .. लेकिन सत्य तो पाठक या सुधि जनों के विचार से ही पता चल सकता है .. यहाँ लिंक छोड़े जा रहा हूँ , कभी पधार कर सत्य से अवगत कराइएगा .. KAVYASUDHA ( काव्यसुधा )

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