स्त्री लेखन के लिए ‘जेंडर लेन्स’ चाहिए - सविता सिंह Feminist Literary Criticism in Hindi Literature : Initial Effort - Savita Singh

स्त्री लेखन के लिए ‘जेंडर लेन्स’ चाहिए, उससे बहुत सारी सच्चाइयाँ उदासियों संग उभर कर सामने आएंगी - हमें उन्हें ‘सच’ का स्थान (स्टेटस) देना चाहिए - सविता सिंह

हिन्दी साहित्य में स्त्री आलोचना: आरम्भिक प्रयास

सविता सिंह 

यदि साहित्य समाज का दर्पण है, तो वह समाज के बदलते स्वरूप को भी प्रतिबिम्बित करेगा ही। 

हिन्दी साहित्य में हो रहे स्त्री लेखन का यदि यह नया आग्रह है तो इसमें किसी आश्चर्य की गुंजाइश ही कहां है। लेकिन यह हो पाना भी कोई आसान बात नहीं है। साहित्य दूसरी बौद्धिक विधाओं की तरह अपनी संरचनात्मक जटिलता में ही इसे होने से रोकता है। स्त्री लेखन अपने कथ्य, शिल्प, शैली, वर्णनात्मकता, कल्पना इत्यादि में यह करता हुआ दिख रहा है, परन्तु इसकी आलोचनात्मक स्वीकृति अभी भी संदिग्ध है। कारण इस लेखन के मूल में गहरी प्रतिरोधात्मक संवेदना रही है, जो साहित्य में पितृसत्तात्मक मूल्यों को अपनी सामूहिक पीड़ा के ज़रिये पहचानने में लगी रही है। इसलिए आज स्त्री साहित्य को समझने के लिए आलोचना के स्त्रीवादी मानदण्ड स्थापित करने होंगे, और अपनाने होंगे ताकि पितृसत्ता के बौद्धिक विमर्श की गिरफ़्त से हमारा सौदंर्यबोध और साहित्यिक कल्पना अपने सरोकारों में मुक्त हो।
आज स्त्री साहित्य को समझने के लिए आलोचना के स्त्रीवादी मानदण्ड स्थापित करने होंगे, और अपनाने होंगे ताकि पितृसत्ता के बौद्धिक विमर्श की गिरफ़्त से हमारा सौदंर्यबोध और साहित्यिक कल्पना अपने सरोकारों में मुक्त हो। स्त्री लेखन के लिए ‘जेंडर लेन्स’ चाहिए - सविता सिंह Woman criticism in Hindi Literature : Initial Effort - Savita Singh प्रोफ़ेसर सविता सिंह
राजनीति शास्त्र में एम०ए०, एम०फिल०, पीएच०डी० (दिल्ली विश्वविद्यालय)। मैक्गिल विश्वविद्यालय, मांट्रियाल (कनाडा) में साढ़े चार वर्ष तक शोध एवं अध्यापन।
डेढ़ दशक तक दिल्ली विश्विद्यालय में अध्यापन। सम्प्रति इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्विद्यालय (इग्नू) में प्रोफेसर व स्कूल ऑफ जेन्डर एवं डेवलपमेंट स्टडीज़ की (संस्थापक) निदेशक।
स्वतंत्र भारत में पुरुष सत्ता को स्थापित करने वाली प्रक्रिया
          हम यह जानते हैं कि हमारा इतिहास संघर्ष और समर्पण, दोनों का रहा है। स्त्रियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ते हुए हर मोर्चे पर नये राष्ट्र-राज्य के गठन में योगदान दिया-चाहे वह कांग्रेस के द्वारा चलाया गया स्वतन्त्रता संग्राम का आन्दोलन हो या फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा। स्त्रियाँ हर जगह थीं, किसान आन्दोलन से लेकर मजदूर आंदोलनों तक उनके फैले आँचल को देखा और उस पर लिखी इबारतों को पढ़ा जा सकता है। हालांकि क्रूर सत्य यह भी है कि अपनी सजगता और सामान्यता में इसके साथ-साथ वे घर भी चलाती, संभालती रहीं। हर जगह स्त्रियों ने संघर्ष किया तथा परिवारों को चलाने के साथ-साथ घरेलूपन की चक्की में भी पिसती रहीं। और यही स्वतंत्र भारत में पुरुष सत्ता को स्थापित करने वाली प्रक्रिया भी थी।

          कहने का तात्पर्य यह है कि तमाम सुधार आन्दोलन जो भारतीय मुक्ति संग्राम का हिस्सा थे स्वतंत्रता प्राप्ति की ख़ातिर ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ती हुई स्त्रियों की स्थिति को सुधारने की पहल तो की, परन्तु इसी प्रक्रिया ने भारत की नयी पितृसत्ता की नींव भी रखी। स्त्रियों का पहले की तरह अनपढ़ होना, उनका अबोध होना, अब कोई गुण न होकर अवगुण माना जाने लग गया, उनका बचपन विवाह की आग में झोंकने के बजाय उन्हें प्रौढ़ हो अपनी वयस्कता में जीवन का अर्थ खोजने और अपनी मनुष्यता पाने की बात को स्वीकार किया गया। यह सब अपने आप में बड़ी उपलब्धियाँ थी, परन्तु परिवार की चौहद्दी से बाहर निकल इस मनुष्यता की व्यापक पहचान करने और समाज में एक व्यक्ति की तरह बड़ी राजनैतिक, सामाजिक गतिविधियों में शिरकत करने की छूट तो अभी भी सपना ही था। इन्हीं बातों की पुष्टि करती हुई कात्यायनी ने अपने एक महत्वपूर्ण लेख में लिखा है- "राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी के समर्थन के साथ-साथ पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि प्रश्नों पर सुधारवादी दृष्टिकोण वाली कहानियाँ और उपन्यास बड़े पैमाने पर लिखे गये, लेकिन स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता और पुरुष वर्चस्ववादी सामाजिक संरचना एवं उससे जुड़े नैतिक मूल्यजगत, प्रश्नों की ऐसी साहसिक प्रस्तुति का यहाँ सर्वथा अभाव था, जैसे मिसाल के तौर पर, बंगला साहित्य में शरत के लेखन के रूप में आया।" (कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत, पृ. 180)
 स्त्रियों का पहले की तरह अनपढ़ होना, उनका अबोध होना, अब कोई गुण न होकर अवगुण माना जाने लग गया

          स्त्री प्रश्न पर, यानी उनके स्वायत्त जीवन और उसकी अभिव्यक्ति की दरकार को लेकर भारतीय वामपंथ में भी मौलिक रूप से एक सुचिन्तित अंधता ही रही, हालांकि वर्ग चेतना के कारण हर मनुष्य की मुक्ति कामना में उनकी मुक्ति का भी प्रश्न सम्मिलित रहा, परन्तु उनके दमन का कारण उनकी लैंगिकता और उनके घरेलू जीवन में उनका समा जाना, परिवार और राष्ट्र चलाने के लिए दमघोटू श्रम करना-इसकी पहचान वहाँ भी नहीं के बराबर ही रही। कात्यायनी अपने लेख ‘हिन्दी कविता में नारी विमर्श’ में इस बात को भी रखती हैं - ‘मध्यवर्ग से आये जो कवि-साहित्यकार विचारों के धरातल पर श्रमिक मुक्ति और समाजवाद के लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध थे और सामाजिक जीवन में ईमानदारी से सक्रिय थे उन्होंने भी अपने निजी जीवन में और पारिवारिक स्तर पर पुरुष आधिपत्यवादी परम्पराओं, रूढ़ियों से प्रायः विद्रोह नहीं  किया। परिवार संस्था में पुरुष स्वामित्ववादी ढाँचे घरेलू कामों की कमरतोड़ गुलामी, विवाह के परम्परागत स्त्री उत्पीड़न स्वरूप के विरूद्ध न तो वैयक्तिक स्तर पर विद्रोह के प्रयास हुए, न ही कोई सामाजिक आन्दोलन। जिन मध्यवर्गीय परिवारों के पुरुष, विचारों को अपना कर राजनीतिक या सांस्कृतिक आन्दोलनों में सक्रिय हुए, उन्हीं परिवारों की स्त्रियाँ मध्ययुगीन घरेलू गुलामी की गिरफ़्त में जकडी़ रहीं। उनकी चेतना को जागृत करने की कोई महत्वपूर्ण कोशिश भी नहीं हुई। नतीजतन राशिद जहाँ, इस्मत चुगताई आदि कुछ महत्वपूर्ण कहानीकारों के उदाहरण को छोड़ कर वामपंथी स्त्री रचनाकारों की उपस्थिति चौथे-पाँचवें-छठे दशक में एकदम विरल ही दिखती है। कविता के क्षेत्र में तो एकदम ही नहीं दिखती।” (कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत, पृ. 184)

          यदि वर्तमान स्थिति पर ध्यान दें तो पाएंगे कि स्त्री साहित्य इन्हीं पितृसत्तात्मक उपेक्षाओं, अंधताओं से अपने ढंग से लड़ता हुआ अस्तित्व में आया। यहाँ भी यह कहना आवश्यक है कि राष्ट्रीय आन्दोंलन की विचारधारात्मक संरचना के भीतर पुरुषों ने भी स्त्रियों की बेहतरी के लिए साहित्य लिखा, पत्र पत्रिकाएं भी निकालते रहे, भारतेन्दु हरिशचन्द्र द्वारा सम्पादित ‘बाला बोधिनी’ (जो उन्होनें 1874 में निकालना शुरू किया) से लेकर जयशंकर प्रसाद (ध्रुवस्वामिनी, कामायनी), प्रेमचन्द , यशपाल, जैनेन्द्र (सुनीता, त्याग पत्र) - एक बड़ा हिस्सा पुरुषों के साहित्य का स्त्रियों को केन्द्र में रखकर लिखा गया, परन्तु वहाँ स्त्री का पक्ष अपनी मौलिक पहचान और सरोकारों में कभी भी स्थापित नहीं हो सका। इसलिए हिन्दी में स्त्री साहित्य, महिलाओं के अपने लेखन के ज़रिये ही अपनी स्वायत्त पहचान स्थापित कर पाया। कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मन्नू भण्डारी, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल से लेकर मेत्रैयी पुष्पा तक आते-आते स्त्री का कथा साहित्य अपना स्थान बना पाया। हिन्दी कविता में भी सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर (महादेवी वर्मा से गुजरते हुए) गगन गिल, कात्यायनी, अनामिका, निर्मला गर्ग, सविता सिंह, नीलेश रघुवंषी तक स्त्री का वह पक्ष उभर आया, जो पितृसत्तात्मक मूल्यों को उसकी क्रूरता और आक्रामकता में दिखाता है, और इस तरह से स्त्री की मनुष्यता का नये ढंग से बोध कराता है। यह बात भी शायद यहाँ कहने की जरूरत है कि यह सच है कि हमारी कविताएँ, कहानियां और उपन्यास इसलिए भी प्रासंगिक हैं क्योंकि पितृसत्ता आज भी स्त्रियों के जीवन को पराधीनता के विष में डुबोये हुए है। स्त्रियों के प्रति तरह-तरह की हिंसा उसका द्योतक है और इसलिए साहित्य में यह आवश्यक है कि हम वैसी पितृसत्तात्मक कृतियों के प्रति निर्मम आलोचनात्मक मानदण्ड विकसित करें, जिनसे स्त्रीवादी लगती हुई उनकी कृतियाँ हमें अपनी मूल्य रचना में साफ़-साफ़ दिख सकें और हम अपनी रचनाओं को भी सजगता से पढ़े, लिखें और विश्लेषित करें।

          स्त्रियों का बड़ी संख्या में हिन्दी साहित्य में सक्रिय होना आज संतोष पैदा करता है कि अभिव्यक्ति और उसकी जटिलता को समझती हुई वे साहित्य लिख रही हैं। यह बात भारत में स्त्री लेखन के लिए नहीं, वरन यूरोप और अमेरिका में चल रहे स्त्री आन्दोलनों में भी यथेष्ट स्पष्टता से उभरी है कि स्त्री अपनी मुक्ति का रास्ता स्त्री आन्दोलनों के अलावा अपने लेखन से भी बना सकती है। फ्रेंच फेमेनिस्ट लेखिकाओं ने इस सम्भावना को एक बड़ा दार्शनिक फलक प्रदान किया है और भाषा पर चिंतन करते हुए भाषा की पितृसत्तात्मक संरचना को उजागर किया है। स्त्री लेखन की चुनौतियाँ इसलिए बहुत गहरी और जटिल हैं। अपने सरोकारों एवं पक्षधरता में यदि हम हिन्दी साहित्य में पितृसत्ता की अभिव्यक्ति पर विचार करते हैं तो उसके खिलाफ संघर्ष करती, प्रतिरोधी स्त्री रचनाओं को विश्लेषित करने के लिए आलोचना की पद्धति, जो स्त्रीवादी हो, विकसित करने की अब सख्त दरकार है। फौरी तौर पर यह कहा जा सकता है कि इसके लिए जरूरी है कि हम स्त्री के अनुभवों की प्रमाणिकता को महत्व दें। ये अनुभव चाहे वर्ग चेतना, दलित चेतना या फिर ख़ालिस स्त्रीवादी चेतना के रूप में ही क्यों न व्यक्त हुए हों, वे हमारे लिए महत्वपमर्ण होने चाहिए। उन्हें हम इसलिए ख़ारिज न करें कि उसमें दूसरे घटक या फिर प्रिज़्म शामिल नहीं है। स्त्री लेखन के लिए ‘जेंडर लेन्स’ चाहिए, उससे बहुत सारी सच्चाइयाँ उदासियों संग उभर कर सामने आएंगी या यों कहें अपने अवसाद-विषाद वाले रूपों में हमारे समक्ष प्रस्तुत होंगी - हमें उन्हें ‘सच’ का स्थान (स्टेटस) देना चाहिए।

नयी शैलियाँ, नये शिल्प, नयी आभा

          दूसरे अगर इन अनुभवों को व्यक्त करने के लिए हमारे पास नयी शैलियाँ, नये शिल्प, नयी आभा आ सके तब हम अपनी रचनाओं की विशिष्टता को स्थापित कर सकते हैं। हमारे साहित्य का अपनी नयी चमक के साथ स्वीकृत होना हमारी मुक्ति की एक राह का आसान होना भी हो सकता है और हमारे आन्दोलनों में भी इसकी केंद्रीयता बन सकती है।
 ‘अनुभव’ स्त्रीवादी आलोचना में ‘सत्य’ का स्थान रखते हैं। 

          उदाहरण के तौर पर इस लेख में समकालीन दो कवयित्रियों की रचनाओं को लेते हैं। गगन गिल और नीलेश रघुवंशी की कविताओं को हम इस विश्लेषण के लिए चुन सकते हैं क्योंकि गगन गिल और नीलेश रघुवंशी के बीच कई और कवयित्रियों की कविताओं को समझने और सराहने में भी हमारी मदद होगी। दोनों समय के दो छोरों पर खड़ी अपने ढंग से लिख रही हैं। गगन गिल की आरम्भिक कविता ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ के बाद की कविताओं के बारे में उनके ज्यादातर पुरुष आलोचक यह मानते हैं कि वे जीवन राग से विमुख हो विराग की तरफ चली गयीं। प्रसिद्ध आलोचक गोविन्द प्रसाद के शब्दों में कहें तो गगन गिल की कविताएं ‘आत्म दमन’ की शिकार होती हुई ‘असमय विराग’ की तरफ मुड़ गयी हैं। प्रगतिशील सांचे की दृष्टि से भी यह विचलन ‘बुद्ध’ की तरफ जाता हुआ अंधेरे को पाने लायक ही रह गया है, वे कहते हैं-”अंधेरे में बुद्ध’ और ‘यह आकांक्षा समय नहीं अन्तर्मन की दोहरी परतों में घुसने का प्रयास है, किन्हीं ठोस अर्थों में समाज, लोक या इस संसार को समझना कवयित्री के सरोकार नहीं। कविता एक व्यक्तिगत यात्रा का पथ ढूँढती हुई उस एकांत को तलाश करने निकलती है, जहां दुख की जगह आनंद होगा। अवसाद जहां झर चुका होगा। आत्मा से यह एकांतिक यात्रा अवसाद में भीगी यात्रा है।” शायद शुरूआत ऐसे ही होती है वहां तक पहुंचने की जहां खुद से सामना होता है। दूसरों को यह बहुत उबाऊ लग सकता है, जैसे गोविंद प्रसाद आगे लिखते हैं - “गगन गिल एक ऐसी कवियित्री हैं जिनके यहां प्रश्न, संशय, आकांक्षा, स्वप्न, रहस्य जैसे पद बार-बार आते हैं। इनके पहले ही संग्रह में मृत्यु के प्रति एक अजब आसक्ति दिखाई पड़ती है। उनके यहां दरअसल दहशत की हद तक प्रेम है। वहां चरम लालसा के क्षण विराग से रंजित है। कभी-कभी लगता है कि गगन सूफियों की डगर पर चलने की लालसा पालती हैं, लेकिन चल नहीं पातीं (बाद के संग्रह में वे ऐसा ही करती है) क्योंकि वे मोक्ष को पाप की तरह चाहती हैं और पुण्य की तरह भी। मृत्यु संबंधी कविताओं और चुपचाप विषाद, कब्र, शोक, सन्नाटा और विलाप से जुड़ी कविताओं की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि कभी-कभी इस स्वर की एकरसता असह्य हो जाती है। इनमें आत्मविसर्जन चेतन से अधिक अवचेतन के स्तर पर घुलता दिखाई देता है। एक अनकहे दुख का अवसाद उसमें तैरता रहता है, ऊपर नहीं कहीं गहरे में।” (गोविंद प्रसाद, समकालीन हिन्दी कविता में स्त्री स्वर, अनयै सांचा, पृ. 37) 

          अपनी कविताओं और लेखन में गोविन्द प्रसाद स्वयं स्त्री और दलित प्रश्न को लेकर संवेदनशील हैं, फिर भी उपर्युक्त विश्लेषण में गगन गिल के अनुभव संसार का उन्हें इसलिए पता नहीं चल पाया है, क्योंकि स्त्री का अनुभव’ अलग से, उनके लिए, साहित्य में स्त्री लेखन का कोई विशेष आलोचनात्मक तत्व नहीं है। वहां वे विश्लेषण करते हुए बौद्धिकता से काम चलाते हैं जिसके मानदण्ड जरूरी तौर पर ‘स्त्रीवादी आलोचना’ के विकसित होते मानदण्डों को समाहित नहीं किये हुए हैं। ‘अनुभव’ स्त्रीवादी आलोचना में ‘सत्य’ का स्थान रखते हैं। यहां अनुभव सिर्फ ‘तथ्य’ यानी ‘फैक्ट’ नहीं है, जैसा कि विज्ञान या समाजशास्त्र में ज्ञानार्जन के लिए इसे बना दिया जाता है, फैक्ट जो दूसरे फैक्ट के जरिये पुष्ट या खारिज किया जाता है। यहां अनुभव अपनी ‘तथ्यता’ की वजह से असुरक्षित नहीं है, बल्कि ज्यादा विश्वसनीय है अपने होने में, और उसकी अभिव्यक्ति में जिसका वह अनुभव है उसके अपने ऐतिहासिक, सामाजिक, भौगोलिक स्थिति से ही पुष्ट हो
प्रेम पाने की भरसक पागल इच्छा इसलिए होती है, क्योंकि स्त्री को प्रेम, सच्चा प्रेम नहीं मिलता
 जाता है। एक स्त्री अपने अनुभवों को उसी तरह व्यक्त करती है, उसके लिखे की प्रामाणिकता उसके यूं होने से ही व्यक्त हो जाती है। प्रेम पाने की भरसक पागल इच्छा इसलिए होती है, क्योंकि स्त्री को प्रेम, सच्चा प्रेम नहीं मिलता। अक्सर छल, प्रवंचना और मृत्यु ही हाथ लगती है। इसके अलावा गगन गिल के यहां ‘बांझपन’, यानी निःसंतान होने की स्त्री की गहरी पीड़ा है जो विशेष रूप से उनकी कविताओं का अनुभव संसार रचती है। उन्हें पढ़ते हुए कहीं भी भाव की एकरसता इसलिए नहीं काटने दौड़ती क्योंकि पीड़ा के भिन्न-भिन्न अनुभव इसे परत-दर-परत गहरा बनाते जाते हैं। दूसरे के बच्चों को अपना बनाने का, उन्हें प्यार करने और देने का निवेदन, उनकी मनुष्यता का परिचय उनके स्त्री होने के रूप में हमें किन दारुण इलाकों में ले जाता है, यह एक स्त्री होकर आसानी से समझा जा सकता है। करुणा और दुख की कैसी विरल दुनिया है वह, जहां यह अनुभव, प्रेम नहीं दे पाने की विवशता, सिर्फ संवेदनात्मक नहीं लगती, बल्कि आस्तित्विक स्तर पर ले जाकर हमें अकेला कर देती है। गगन गिल की कविताओं की पंक्तियाँ ‘वह अपनी देह में लौटेगी’ यहां प्रासंगिक लगती हैं-

“वह उसे पाप की तरह चाहेगी
वह उसे पुण्य की तरह चाहेगी
वह चाहेगी
उसे सपने की तरह
जिसे देखा हो उसने 
हमेशा खुली आंखों से कि जैसे वह कंधा हो
किसी बांझ के रोने के लिए।”

          देह गगन गिल के लिए एक गुप्त स्थल है जहां चीजें  घटनाएं, तृप्तियां, अतृप्तियां यूं है जैसे वहां जैसी कहीं और नहीं हो सकतीं । एक तरह का वैसा आवास जिसमें रहने वाली आत्मा उसके महत्व और उसकी क्षणभंगुरता को जानते हुए उससे स्वलाप करती है। देह का बांझपन वहां दुखद स्वीकृति की तरह साफ़-साफ़ दिखता है। ग्लानि नहीं है वहां, स्वीकार है। परन्तु दुख भी अपने पवित्र रूप में उपस्थित है - एक संतान के नहीं होने का तीक्ष्ण दुख। संतानहीनता एक निजी स्थिति है, जहां से भाप की तरह पीड़ा उठती रहती है। ‘कजिका: कुछ विलाप’ श्रृंखला की यह विलक्षण कविता गगन गिल के अनुभव संसार को हमारे सामने ले आती है, स्त्री होने के नाते किस तरह हम इस दुख से हिल जाते है -

“वह नहीं लिखती दीवार पर मेरा नाम
अपनी माँ से छिपकर
जीने की दीवार पर वह लिखती है एक गुप्त संदेश:
गुरप्रीत मैडम आय लव यू
ये अकथनीय प्रेम जिसके बारे में वह अभी से जान रही है,
जिसे वह अभी से बचाना चाहती है
मेरे बारे में वह चुप है
मैं उसके जीवन में कुछ खुली जगह में हूं
कुछ अंधकार में
मैं उससे पूछती हूं
तुम मेरी बेटी बनोगी ?
वह कोई हिसाब लगाती है
अच्छा बन जाऊंगी
“सबके पास कोई न कोई है
और मेरी माँ के पास दो
आपका तो कोई नहीं’
मैं उसे भींच लेती हूँ
उसके और मेरे बीच मेरी काया का जंजाल है।”



अगर कहीं सचमुच
वह मां हुई होती,
अगर कहीं सचमुच
उसका बच्चा चौबीसों घंटे
उसके सपने में से निकलकर
उसकी शामत बना होता-
सपने लेनेवाली यह लड़की
कितनी बेचारी होती!
अकेली, उदास, हारी हुई
उसकी सारी थकावटें,
उदासियां और हारें
तब इस थकान से कितनी अलग होतीं
ये कुर्सी पर अलग-अलग बैठने की
इस हार में
उसके साथ-साथ चलती हैं! (एक दिन लौटेगी लड़की)

          इस तरह की ‘उदासियां कितनी अलग होती हैं’, यह कविता एक अजब जटिल यथार्थ को हमारे सम्मुख पेश करती है जिसमें स्त्री की एक भीतरी दुनिया का पता चलता है जिसमें संतान के लिए वह किस हद तक जाने को तैयार होती है। वह प्रेम नितांत अलग किस्म का है, पुरुषों को प्रेम करने से भिन्न। गगन लिखती हैं -

‘अच्छा हुआ उसने पुत्र नहीं जन्मा
अच्छा हुआ उसने किसी कमजोर क्षण में सिर्फ इस इच्छा को पनपने दिया
और आदमी को इसका पता नहीं चला
अक्स, उसका भुरभुराया नहीं वह जीता जागता उसके सपने में आया
और छाया सा चला गया
अच्छा हुआ वह पुत्र धारण करने से पहले किसी बिस्तर तक नहीं गयी
और शाम की वह लालसा कुर्सियों में अलग बैठे बैठे शाम में ढल गयी।” 

          तरह-तरह से संतान को पाने, खोने, नहीं पा सकने की वेदना गगन के अनुभव संसार में यथार्थ और फेंटेंसी दोनों स्तरों पर खुद को रचती है और स्त्री अनुभव की यह एक ऐसी उपस्थिति है, जिसे ध्यान से नहीं पढ़ने और न समझने से स्त्री कविता के इस विशिष्ट रंग को समझने से हम वंचित ही रह जायेंगे। अस्तित्व को उसके उसठपन से उबार कर जीवन की उन गहरी परतों तक नहीं पहुँचाया जा सकता, और जिसे पाने के लिए ही जैसे वह कहती हैं-

“लेकिन आजकल वह जिद में है
अपनी देह का सादापन धीरे-धीरे उखाड़ती हुई।” (लड़की अभी उदास नहीं)

दुख, अवसाद पीड़ा, पुरूषों को उबाऊ लग सकता है। स्त्री के संसार में वह कृत्रिम ढंग से पैदा की गयी संवेदना नहीं, वे जीती जागती संवेदना हैं जो लगातार नये रंग और स्वाद अख्तियार करती हैं। उसकी विशिष्टता अपनी सच्चाई में हमें हमेशा चौंकाती है -

“घर में कहीं छुपकर रोयेगा एक दुख
लड़की बार-बार जाएगी उसका मुंह ढाँपने।”

X X X

लड़की बार-बार जाएगी दुख के दरवाज़े तक
बार-बार लौटेगी दुख के दरवाज़े पर
बीच में कांपेंगे
ढेर जली पत्तियों के

लड़की की होगी एक बहन राजकुमारी-सी
हो जाएगी चुप जो
पता नहीं क्या सोच
बूंद-बूंद निचोड़ेगी लड़की अपना रक्त
सपने नहीं होंगे हरे
बहन के फिर भी
बोलेंगे सिर्फ़
लड़की के पश्चाताप
उगेगा नहीं कुछ
कहीं भी

एक इस दुख से
दूसरे उस दुख तक
एक हैरानी उसके
पैरों में चमकेगी
लड़की बार-बार जाएगी दुख के दरवाज़े तक

घर में अचानक
हो जाएंगे चुप सब” (बहन होगी उसकी तब भी चुप, एक दिन लौटेगी लड़की)

          अपनी ‘मर्सिया’ कविता में गगन गिल एक स्त्री की कल्पना में साकार हो रहे एक ऐसे अप्राप्य पुत्र की जीवन्त उपस्थिति रचती हैं जो वस्तुतः अपनी अनुपस्थिति की सच्चाई के द्वारा हमारे पितृसत्तात्मक समाज में उसके लिए उपजे या उपजाये गये सुख और दुख दोनों का ही स्रोत है। वे लिखती हैं-

“एक घर के आंगन में, बेटे
हम कभी नहीं आएंगे
उस घर के आंगन में तुम
यूं ही हैरान खड़े रहोगे
मां की जवानी से मां के बुढ़ापे तक
मां के सपने में आओगे जब भी
इतनी ही उम्र में कैसे रहोगे
दो ढाई साल की उम्र में”

          इसलिए भी गगन गिल का असमय विराग स्त्रीवादी दृष्टिकोण से एक दूसरा ही यथार्थ हमारे सामने पेश करता है। मृत्यु समान लगता प्रेम, कलेजे को छील देने वाला, अभिव्यक्त न हो पाने वाला वात्सल्य, विवाह की कठोरता में दफ्न स्त्री जीवन - इसमें भला लिप्त भी कैसे रहा जाए - सांसारिकता का यह दारूण स्वरूप स्त्री को कोई बेहतर ठिकाना खोजने को भी विवश कर सकता है। इसके कई रास्ते हो सकते हैं - स्थितियों को बदलना सबसे बेहतर रास्ता है। कितनी ही स्त्रियाँ मगर यह रास्ता भी चुन पाना संभव पाती हैं ? अपने दुख को वे फिर कहां ले जाएं ? किसी भिक्षु के भिक्षा पात्र में, जैसे गगन डाल आती हैं वहां अपना दुख ? बुद्ध के अंधेरे में जहां इस संसार को समझने का एक अलग शास्त्र है - दूसरी ‘कासमॉलोजी’।
सत्य यह है कि व्यक्तिगत रूप में वह पुरुषों से श्रेष्ठ होती हैं। इसलिए भी कि उसने कभी ऐसे परिवार की संरचना नही की (ऐतिहासिक तौर) पर जिसमें उसने किसी भी व्यक्ति के शोषण या दमन को सैद्धांतिक रूप से जायज़ ठहराया हो। उसने अब तक किसी राष्ट्र राज्य की संरचना नही की है, नहीं ही युद्ध पर आधारित किसी भी दूसरे तरह के राज्य की स्थापना ही की है या उसे अपनी कल्पना का हिस्सा बनाया है।

          यह विकल्प भी स्त्री क्यों चुनती है, इसका सही विश्लेषण तभी हो सकता है जब स्त्री जीवन की कठोरता को समझा जाये और उससे सहानुभूति रखी जाए। बुद्ध ने ‘स्त्रियों के लिए’ क्या किया, क्या नहीं किया उसका भी सही मूल्यांकन तभी हो सकता है। गगन गिल के यहां यदि उनका ‘स्त्री आत्म’ किसी विराग के किले में कैद है, तो नीलेश के यहां उनकी वर्ग चेतना में सम्मिलित। निम्नवर्गीय स्थिति का जैसा चित्रण नीलेश की कविताओं में मिलता है वह कहीं से सिर्फ वर्ग चेतना मात्र नहीं है, उस चेतना में स्त्री की चेतना उसकी एक परत की तरह लगातार सक्रिय रहती है। इसलिए नीलेश ‘घर निकासी’ के साथ-साथ ‘पानी का स्वाद’ जैसा कविता संग्रह हिन्दी साहित्य को देती हैं - यह यात्रा ‘ढाबा’ शीर्षक कविता श्रृंखला से लेकर ‘पहली रूलाई तक’ की श्रृंखला तक की एक स्त्री कवि की यात्रा है । हमारे लिए यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना अंधेरे उजाले से मार खाता, उससे निपटता स्त्री की ‘आत्मचेतना’ जो गगन के कविता संसार का भी यथार्थ है।

          यदि उनकी ढाबा श्रृंखला वाली कविताओं को ही आलोचनात्मक दृष्टि से श्रेष्ठ कविताएँ मानें, क्योंकि इनमें वर्गचेतना के अंर्तगत पिता, भाई और माँ - सबों के प्रति इसी दृष्टिकोण से लिखा गया है, तब हम नीलेश को आंशिक रूप से ही समझ पाएंगे। हालाँकि पिता और भाई पर नीलेश की कविताएँ बेहद मार्मिक हैं, और शायद पिता पर लिखी गयी दूसरी कविताएँ जो स्त्रियों द्वारा लिखी गयी हैं, (जिनकी वर्ग स्थिति अलग है, और जिन कविताओं में पिता के प्रति कटुता का भाव है) उनसे बेहतर भी। और यह भी नीलेश की अपनी वर्ग स्थिति के ही कारण है। पिता की गरीबी यहाँ ज़्यादा दहकाने वाली भावना है वनिस्पत उन पिताओं की अमीरी के जो उनकी बेटियों के लिए दूसरा यथार्थ रचती है - संपत्ति से वंचित कर दिये जाने के अनुभव का यथार्थ और उसकी कटुता।

          नीलेश की कविता में पिता मनुष्य के तौर पर दमन करने वाला पुरुष नहीं, अपितु स्वयं भारतीय सामाजिक व्यवस्था में शोषण का शिकार है। वर्गीय स्थिति से निर्मित पिता की मनुष्यता ’यात्रा करते पिता‘ कविता में बहुत ही करुण ढंग से व्यक्त होती है -

“पहुँच जाते हैं प्लेटफार्म पर
गाड़ी आने से आधा घंटा पहले
रखते हैं अंदर की जेब में टिकट
खड़े हो जाते हैं चुपचाप ट्रेन में
जगह मिलने की प्रतीक्षा या कोशिश कभी नहीं करते
पिता उम्र के इस पड़ावों में

X X X

भला क्या पिता इतनी दूर खड़े-खड़े जाएँगे
झुकते घुटनों और सामान पकड़े पिता
क्या कोई जगह देगा?
थके हारे पिता
पहुँचते हैं घर
यात्रा अनायास थकान और दूसरे शहर जाने की तकलीफ
भाँपती है माँ
माँ पिता की यात्रा जानती है
इसलिए कभी नहीं पूछती
कैसा रहा सफ़र

          ’पिता की पीठ‘ कविता नीलेश की दूसरी विलक्षण कविता है। पिता की पीठ यहाँ पितृसत्तात्मक कम लगती है, एक गरीब की पथरायी पीठ ज़्यादा। यहाँ पूरा परिवार इस सच्चाई को अनुभव के स्तर पर जानता है, यहाँ इस परिवार के सदस्य आपस में स्पर्धा रखने वाले, दूसरे के प्रतिद्वंदी, खुद में अकेले मनुष्य नहीं है जिन्हें अपनी निजी तकलीफ़ ही जायज़ लगती है, दूसरो की तकलीफ़ के बनिस्पत। यहाँ एक सामूहिक पीड़ा का अहसास है जो पारिवारिक से ज़्यादा सामाजिक अर्थ लिए हुए है। यह कविता स्त्री कविता के वर्गीय अनुभव का इस मायने में एक अद्भुत प्रतिफल है:

“माँ नहीं पहचानती अक्षर
नहीं, जानती लिखना-पढ़ना
कैसे फिर पहचान लेती है नोट
आकार से रंग से या
पिता के पसीने की गंध से
आता है जिस दिन एक खटखटाता नोट
माँ की धँसी आँखों में तैरती है
पिता की फटी बनियान पसीने से तर-ब-तर
सहलाती है नोट को
सहलाती हो जैसे पिता की पीठ
पिता और नोट के बीच सफर करते हैं माँ के तंगहाल सपने
नोट तुड़ाते हुए हर बार
हिचकिचाती है माँ

          अनुभवों की प्रामाणिक दुनिया नीलेश की ’ढाबा‘ कविता श्रृंखला से कुछ इस तरह बाहर की दुनिया में आती है कि ढाबे के चूल्हे की आग, उसका ताप, बर्तनों का रूप, ढाबा चलाते परिवार की मशक्कत, उससे उठती रोटियों और सब्ज़ियों में मिली हुई गन्ध, कुछ इस तरह कि आप भी इन्हें पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं। आप एक परिवार की आठ बेटियों और एक बेटे को साथ-साथ संघर्ष करते देख सकते हैं। यहाँ प्रेम अपने कई-कई रूपों में उपस्थित है - माँ का पिता के लिए प्रेम, बहन का बहनों के लिए प्रेम, सबका भाई के लिए प्रेम, साथ ही उस प्रेम के लिए भी प्रेम जिससे मिलने तक की फुर्सत नहीं ढाबे के काम और उस जीवन के दबावों की वजह से। इस स्थिति में रोने के बजाय हँसने से ही काम चलाना कितना दारुण अनुभव जान पड़ता है! नीलेश की कुछ पंक्तियाँ यहाँ देखने लायक हैं -

’ढाबे पर सिंकती रोटियों की महक
और तपेले से उठती सब्ज़ी की भाप से चलती थी हमारी साँसे
बने इसी भाप से बच्चों के खिलौने
तपते थे आग में हमारे चेहरे
थकते पाँवों के साथ-साथ कंधे
पानी के भारी बर्तनों के बोझ से
हमारे थके चेहरे देख पिघलती थी माँ की आँखें
सिहरता था कहीं अंदर ही अंदर ढाबा

X X X

ढाबे पर झाड़ू लगाते बर्तन मांजते हुआ प्रेम
वह आकर खड़ा हो जाता
सामने वाली पान की गुमटी पर
रोटी बनाते-बनाते देखती उसकी तरफ़
तवे पर जलती रोटी करती इशारा ’आना शाम को‘
दोपहर को भागती आती थी शाम
निकलने को होती ढाबे से
आ जाता कोई ग्राहक
हम हँसते रहते देर तक फिर मिलने का वादा करते हुए

          वर्ग चेतना से अंतर्लयित ये अनुभव तब स्त्री की लैंगिक चेतना में बदलता दिखता है जब नीलेश अपने अजन्मे बच्चे से, जो अभी गर्भ में है, वार्तालाप करने लगती है। स्त्री का यह संबंध अपने बच्चे के साथ अभी से पक्का होता दिखता है। इस नये संबंध में पहले ही इतनी बातें होने लगती हैं इस दुनिया की जटिलताओं के बारे में, इतनी अभिन्नता स्थापित होती जाती है कि यह सब कुछ एक रहस्य की तरह लगने लगती है। ऐसा संबंध कोई पुरुष क्या कभी अपने बच्चे के साथ स्थापित कर सकता है ? क्या यह संभव भी है? यह तो स्त्री जीवन की भिन्नता का मौलिक अनुभव है। एक नैसर्गिक खुशी जो स्त्री अपने बच्चे के जन्म लेने से पहले ही पा लेती है, जिसे वह किसी भी दूसरे व्यक्ति से इसी रूप में साझा नहीं करती-यह संसार इसी अर्थ में स्त्री के लिए पृथक रूप से अर्थवान है। शायद यही कारण है क्यों स्त्री विवाह, विवाह की पितृसत्तात्मक मर्यादा और इसकी तमाम संरचनाओं में धँसती चली जाती है। ये सारी संरचनात्मक उपस्थितियाँ इस बड़े अर्थ में प्राकृतिक अर्थ ग्रहण कर लेती हैं और पितृसत्ता भी प्राकृतिक लगने लगती है। स्त्री के इर्द-गिर्द सामाजिक ढंग से रची गयी नहीं लगती। हो सकता है नीलेश अपनी कविताओं में अपनी स्वतःस्फूर्त भावनाएँ ही प्रस्तुत कर रही हों लेकिन यह भावपूर्ण अनुभूतियाँ अस्तित्व की किन्हीं गहरी परतों से निर्मित हुई हैं। इसका कहीं-कहीं प्रमाण भी मिलता है इन कविताओ में। यहाँ पर जानबूझकर मैं पश्चिम का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण नहीं प्रस्तुत करना चाहती। यह एक लंबा प्रसंग है। स्त्री जीवन में मातृत्व की सत्यता को लेकर हुई बहसों पर आधारित इस विश्लेषण पर अलग से ही एक लेख लिखा जाना चाहिए। फिलहाल नीलेश की ये कविताएँ हमें पता देती हैं कैसे स्त्री अपने घरेलू बनाये जाने को स्वीकार करती है, उन संरचनाओं द्वारा परिभाषित हो उसका हिस्सा बनती है जिसे हम परिवार कहते हैं, जिसमें वह अपनी असमानता को भी बर्दाश्त करती है। जबकि सत्य यह है कि व्यक्तिगत रूप में वह पुरुषों से श्रेष्ठ होती हैं। इसलिए भी कि उसने कभी ऐसे परिवार की संरचना नही की (ऐतिहासिक तौर) पर जिसमें उसने किसी भी व्यक्ति के शोषण या दमन को सैद्धांतिक रूप से जायज़ ठहराया हो। उसने अब तक किसी राष्ट्र राज्य की संरचना नही की है, नहीं ही युद्ध पर आधारित किसी भी दूसरे तरह के राज्य की स्थापना ही की है या उसे अपनी कल्पना का हिस्सा बनाया है। नीलेश की कविताएँ जिस तरह अपने अजन्मे बच्चे का सामाजीकरण करती हैं वह अपने पाठक को एक विलक्षण अंर्तदृष्टि देती है। यह इसलिए भी ज़रूरी है यहाँ कहना कि यहाँ एक सहज प्रयास दिखता है कि बच्चा समाज को पहले ही से उसकी पितृसत्तात्मकता में स्वीकार कर ले, हाँलाकि यह प्रयास इन कविताओं में अनजाने ही होता है। ’ममत्व‘ या ममता भी कितना बड़ा सोसयलाईजिंग घटक हो सकता है नीलेश बिना केट मीचेल को पढ़े ही हमें इससे अवगत करा रही हैं। अजन्मे बच्चे से इस क्रूर संसार का सामना कराना कैसा कृत्य है? कैसी विकट भावनाएँ यहाँ कार्यरत हैं? यहाँ वह अपने बच्चे को इस जीवन की कठोरता का परिचय अभी से दे रही हैं ताकि वह अपने मिलने वाले जीवन को जी सके। अच्छी बात यह है कि यह भी वह अपने पुराने अंदाज़, यानी हँसी मज़ाक वाली शैली में ही करती हैं। कविता कितने स्तरों पर चलती है यह तो पढ़ते-पढ़ते, उसमें पैठते हुए, मज़ाक को एक तरफ धकेलते हुए ही महसूस होता है।

          ये कविताएँ नीलेश के संग्रह ’पानी का स्वाद‘ में ’पहली रूलाई तक डायरी‘ के तहत श्रंखलाबद्ध हैं जिसका ज़िक्र हम कर रहे हैं। शुरू से आखि़र तक इन कविताओं के ज़रिए  सहज आत्मीयता में ही इस क्रूर संसार का संज्ञान वह बच्चे को कराती हैं और यह करती हुई स्वंय भी उद्वेलित होती हैं। शिशु के इस संसार में आने की उत्सुकता एक बहुत करीब ठहरे रहस्य को जानने की उत्सुकता की तरह है। एक अंजान आगन्तुक को अपने भीतर धड़कते हुए जानना एक स्पंदित सत्य को जानने की तरह है। उसे बिना देखे उसके साथ वार्तालाप करना, उससे ऐसे जुड़ना जैसे कोई और उससे नहीं जुड़ सकता। स्त्री की ऐसी नितांत ऐकांतिक अंतःक्रिया, हिन्दी की किसी कवयित्री के यहाँ नही है। और यह अहसास भी कितना विरल है अपने आप में-स्त्री का शरीर दूसरे शरीर की उत्पत्ति करता हुआ, साथ में क्या कुछ सामाजिक रचता है? अनुभव के कैसे द्वैत में वह उतरता जाता है -एक जो नैसर्गिक और अप्रतिम है, दूसरा जो चिरपरिचित और कठिन । क्या कुछ होता जाता है गर्भ और समाज के बीच, भीतर और बाहर की दुनिया के बीच - कब बाहर की दुनिया भीतर की दुनिया को भी अपने संतापों और अंर्तविरोधों से ग्रस लेती है! देह एक पर्दे की तरह हो जाती है - ढँके सारे सच को, ममता की चादर से ही सही। माँ का प्रेम सब कुछ बचाता रहता है। नीलेश पूछती हैं अपने अजन्मे बच्चे से-

“भीतर ही भीतर कैसा लग रहा है
तुम्हें कहीं अंधेरा तो नहीं लग रहा
क्या तुम्हें बारिश की आवाज़ सुनाई देती है
बारिश हो रही है बाहर
घनघोर बारिश
X X X
कितना आसान है कहना-
जन्म देना सृष्टि का सबसे सुखद कार्य है
लेकिन कितना मुश्किल है जन्म देना
यह पीड़ा, यह कष्ट तुम क्या जानोगे।
वैसे भी अगर तुम लड़का हुए तो जान नहीं पाओगे कभी भी
और लड़की हुए तो कैसे सहोगे इतना कष्ट!

          नीलेश एक स्त्री होने के नाते सहज ही जानती है कि यदि उनकी संतान लड़का हुआ तो निश्चित ही पितृसत्तात्मक मूल्यों द्वारा ग्रस लिया जाएगा और उसके लिए यह संसार अपनी शोषण व्यवस्था में भी सहज ही प्रतीत होगा। स्त्री का दमन भी सहज ही स्वीकृत हो जाएगा इसलिए वह कहती है कि यदि उनकी संतान लड़का हुआ तो वह जान भी नहीं पाएगा (यहाँ उनका अर्थ सिर्फ इतना नहीं है कि लड़का प्रसव पीड़ा नहीं महसूस कर पाएगा क्योंकि प्रकृति ने पुरुषों को इस दर्द के लिए नहीं चुना है) संसार की कठोरता को क्योंकि उससे अपेक्षित होगा कठोर होना और यदि वह लड़की हुई तो एक विलाप अभी से ही शुरू हो जाता है नीलेश के भीतर - ’तब तुम कैसे सहोगे इतना कष्ट‘। मातृत्व कैसी फँसी-फँसी सी स्थिति है, पहली रूलाई सी जो बाद में संयमित हो एक दूसरी स्थिति बन जाती है - ’सच पर जैसे झूठ की एक दूसरी सख्त परत पड़ी हो (मेरी ही कविता की एक पंक्ति)। इन सारी विकट संसारिक विद्रूपताओं के बावजूद माँ अपने बच्चे को, अपने शरीर के हिस्से को, इस धरती पर किस कौतुहल से लाती है, किस उत्सुकता से उसका स्वागत करती है, किन आशंकाओ से वह घिरी रहती है, यह सब करती हुई; किन क्रूरताओं के प्रति वह उसे आगाह करती है, किस तरह फिर भी वह उन्हीं में उसे उतरते हुए देखती भी है.... अपना विलोप भी वह इन्हीं सब में होती हुई देखती है। ये सारे प्रश्न ज्यादातर अनुत्तरित रहते हैं सामान्यतः। परन्तु नीलेश सारे प्रश्नों को टटोलती हुई जीवन की कठोरताओं के बीच उसके उल्लास का बेहद कोमल पक्ष हमारे समक्ष प्रकट करती हैं! स्त्री जीवन का सुख और उसकी त्रासदी हमारे समक्ष नीलेश इस मासूमियत से रखती हैं कि धीरे - धीरे कविता में बढ़ते हुए किसी घातक सत्य से सामना हो जाने का डर बना रहता है। ऐसा घातक सत्य जो मुक्ति की कामना से साक्षात्कार करा दे। फिर यह सभी कुछ, अस्तित्व की यह सारी राजनीति भी जैसे तत्क्षण बेमानी हो जाती है। अपनी इन कविताओं में नीलेश इस तनाव को बनाए रखती हैं - वह तनाव जो स्त्री के स्त्री होने तथा माँ होने के बीच बना रहता है। माँ बनने का अर्थ इस संसार मे धँसना है, इसकी यातना को अपने ही आँचल से अपनी आँखों को पोंछते हुए स्वीकार करना है।

          फिर भी यह संबंध जो माँ और अजन्मे बच्चे के बीच बनता है, प्रकृति भी इसी के ज़रिए अपनी पुनर्रचना होती देखती है और इस रचना के भीतर तैरती पीड़ा की मूक साक्षी भी बनी रहती है। इसी अर्थ में स्त्री प्रकृति और मातृत्व दोनों से विद्रोह भी कर सकती है। दुनिया की कई संस्कृतियों मे यह कठिन प्रयास किये भी गये हैं लेकिन भारतवर्ष में माँ के रूप में स्त्री का कुछ ऐसा उद्दातीकरण किया गया है कि यह एक ऐसे लोक की रचना करता है जिसमें उसे अपनी इस भूमिका से मुकरना आसान नहीं है, वैचारिक स्तर पर और भी। फिर भी माँ के साथ शिशु का वार्तालाप (एकालाप) जो अभी भी गर्भ के अंधेरे मे है, स्त्री के एकान्त का एक स्पृहनीय दृश्य प्रस्तुत करता है जो पुरूषों के लिए अप्राप्य अनुभव है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री अनुभव की यह विशिष्ट एवं एकांतिक अनुभूति नीलेश की रचना प्रक्रिया में जो जगह पाती है, या कहें खोजती है, वह सामूहिक स्तर पर स्त्री साहित्य के लिए एक आविष्कार से कम नही है। ज्ञान, अनुभव, संवेदना और सहज हास से रचा जाता हुआ संशयों का स्त्री संसार पत्थर पर उगी दूब की तरह प्रकट होता है, अपने विकट सौंदर्य के साथ और अपने देखने वाले को ठिठका देता है।

          इन कविताओं में जो सत्य उद्घाटित होता है उसका सौंदर्य स्त्री के एकांत की गुप्त रचना में है। माँ और शिशु के बीच का यह वार्तालाप इतना सहज होते हुए इतने संशयो से भर देने वाला है कि ऐसा अनुभव कम ही होता होगा, किन्हीं दो मनुष्यों के बीच। यहाँ जो भाषा का लेन-देन हो रहा है, भावनाओं का जो आदान-प्रदान हो रहा है वह एक सीकरेट की तरह है, जो इसी प्रक्रिया मे घटित होता है, बच्चे के जीवन को जो बाद में भी बचाता रहेगा। माँ का अपनी संतान के साथ जो गुप्त संबंध बनता है जिसे समाज कभी भी डीकोड नही कर पाता वही आखि़र स्त्री को सबकुछ बर्दाश्त करने के लिए बाध्य भी करता है। इस रहस्य की प्रतीति नीलेश की इन पंक्तियों से बख़ूबी होती है। वे लिखती हैं-

“चार महीने पंद्रह दिन हो गये, अब तो बता दो कौन हो तुम 
चुपके से नींद में बताना।
क्या तुम्हें भी हमारी बातों में मज़ा आने लगा है
पूरे पाँच महीने के हो गये हो तुम आज
कुछ दिनों बाद तुम पूरे छः महीने के हो जाओगे
तुम्हारा नाक-नक्शा, चेहरा-मोहरा जाने
कितनी शक्लें उभरती हैं
एकदम चमकदार होना चाहिए तुम्हें‘

          यह अंतरंगता जो अभी स्थापित होती है वही इस पितृसत्तामकता को भी चलाती है, इस सृष्टि को बिल्कुल अपने रूप में स्वीकार करती हुई। रोज़मर्रा के जीवन में उसके तर्क को आत्मसात करती हुई तथा सब कुछ को सामान्यीकृत करती हुई-

क्या तुम मार्च के अंत या अप्रैल के शुरू में आओगे?
ढेरों काम याद आ रहे हैं इन दिनों
तुम्हारे लिए कपड़े, मालिश की व्यवस्था ...

पापा दोस्त की शादी में गये हैं
घर पर बस तुम और मैं ....

X X X

जब तुम हरकत करते हो लगता है कोई पत्ता भी न खड़के
तुम्हारा चलना फिरना महसूस करूँ चुपचाप
बहुत धीरे से पेट पर हाथ रखती हूँ
ज़ोर तो नहीं पड़ता न
क्या तुम कभी उबासी लेते हो?

          ज़ाहिर है माँ और बच्चे के लिए यह जीवन की यात्रा है, कोई मामूली यात्रा नहीं। यह स्त्री की अपनी यात्रा है जिसमें वह कुछ उत्पादित करती है - जीवन, जीवन को चलाने वाली संरचना जो फिर उसे घेर लेती है। नीलेश लिखती हैं -

इन दिनों एक ऐसे अनुभव से गुज़र रही हूँ
जिसे सिर्फ जिया जा सकता है, कहा नहीं जा सकता
बहुत विराट है यह अनुभव, सुखद कष्टप्रद दोनों
इन दिनों जिस यात्रा में हूँ/ उससे बड़ी यात्रा कोई नहीं हो सकती/
एक ऐसी गाड़ी में हूँ सवार/ जिसमें पहले कभी नहीं बैठी’

          यह है स्त्री अनुभव की जटिल दुनिया जिसे वह रचती है, अपने खिलाफ़ भी और जिसको समझे बिना, जिसको अपनी आलोचना में जगह दिये बिना, स्त्री लेखन को साहित्य में जगह नहीं मिल सकती। गगन गिल और नीलेश रघुवंशी की कविताओं से उद्धृत पंक्तियां हिन्दी साहित्य में आलोचना के लिए ऐसी चुनौतियां पेश करती हैं जिनके लिए एक स्त्रीवादी आलोचना की पद्धति आवश्यक है और इस पद्धति को स्थापित करने की आवश्यक शर्तें फिलहाल मामूली ही हैं। स्त्री के जीवन की भिन्नता को पहचानना, उसके अनुभवों की सत्यता को स्वीकारना तथा उनका सहानुभूतिपरक विश्लेषण, शायद उन जरूरी शर्तों की वे पहली कुछ ईंटें हैं जिन्हें हमारे साहित्य कर्म में पहचान मिलनी चाहिए।

- सविता सिंह



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