मोदी का मुखौटा - ओम थानवी | Mask of Modi - Om Thanvi

अगर वे (मोदी ) 2002 के कत्लेआम में अपने शासन की विफलता के लिए ही माफी मांग लें तो ‘मोदी-मोदी’ का जयघोष करता वर्ग उनसे फौरन छिटक जाएगा - ओम थानवी


मुंबई में चुनाव सभा में उनकी मौजूदगी में शिवसेना के रामदास कदम ने मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला और मोदी की ओर इशारा कर कहा कि ‘‘वे (मोदी) सत्ता में आए तो छह महीने के भीतर पाकिस्तान को खत्म कर देंगे।’’
तब मोदी सुनते रहे। उस सभा का ठीक उस घड़ी का वीडियो देखें तो मोदी के चेहरे पर परेशानी या झुंझलाहट के भाव जरा नहीं दिखाई देते। दरअसल, यही मोदी का असल चेहरा है। 
एक दफा गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहा था कि वे भाजपा का मुखौटा हैं। यानी दिखाने वाले दांत। सच बोलने के लिए गोविंदाचार्य हमेशा के लिए भाजपा से बाहर कर दिए गए।

         नरेंद्र मोदी मुखौटा नहीं हैं। संघ की मरजी से उनकी प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी तय हुई है। मोदी की विजय के लिए स्वयंसेवक जितनी भाग-दौड़ कर रहे हैं, पहले उन्होंने शायद ही कभी की होगी। वे घर-घर जा रहे हैं। सभाओं में सक्रिय हैं। सोशल मीडिया पर भी पांव पसारे हैं।

         लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपना संघ का चेहरा, लगता है, कुछ छुपा लिया है। अब उनके चेहरे पर स्वेच्छा से ओढ़ा हुआ मुखौटा है। वे खुले संदेश भेजकर उन नेताओं को भाषा की तमीज और विचार की शुचिता समझा रहे हैं, जो कट्टर ढंग से पेश आ रहे हैं। मसलन पार्टी के नेता गिरिराज सिंह और विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया के बयानों पर उनकी प्रतिक्रिया।

         गिरिराज सिंह ने पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की मौजूदगी में कहा था कि मोदी को रोकने वालों के लिए भारत में कोई जगह न होगी, उनके लिए पाकिस्तान में ही जगह बचेगी। तोगड़िया ने मुसलमानों को हिंदू-बहुल बस्तियों से खदेड़ने की बात कही थी। गिरिराज सिंह के बयान पर ट्वीट करते हुए मोदी ने कहा कि इस तरह के बयान देने वालों से वे ‘‘अपील’’ करते हैं कि इनसे बचें। तोगड़िया का बयान आने पर उन्होंने कहा- इस तरह के संकीर्ण बयान देकर खुद को भाजपा का शुभचिंतक बताने वाले विकास और अच्छे शासन के मुद्दे से भटक रहे हैं।

         इसी बीच मोदी ने टीवी पर अपने चेहरे पर नरमी का इजहार शुरू किया है। वे मुस्कुराते हैं, हंसी-ठठ्ठा भी करते हैं। कभी इंटरव्यू में करण थापर के शुरुआती सवाल पर ही बिदक कर उठ खड़े होने वाले मोदी लंबे-लंबे इंटरव्यू दे रहे हैं। वे एकाधिक पत्रकारों- ज्यादातर श्रवणशील- के सामने भी ढेर सवालों के जवाब देते हैं। उनके ये जवाब प्रचार कंपनी के जुमलों (मिनिमम गवर्मेंट, मेक्सिमम गवर्नेंस!) से हटकर हैं।

         लेकिन क्या सचमुच हमारे सामने बदले हुए नरेंद्र मोदी आ गए हैं? क्या ये उदार विचार और नरम तेवर उनके मानस की किसी ‘फॉरमेटिंग’ का संकेत देते हैं?

         कोई नादान ही उनकी इस ‘मासूमियत’ पर फिदा होना चाहेगा। कुछ चीजें उनके संकीर्ण मानस की पहचान बन चुकी हैं। नहीं लगता कि उन पर वे किसी भी सूरत में आंच आने देना चाहेंगे। वे जानते हैं उनकी हार-जीत का दारोमदार हिंदू मतों पर ही है। अगर वे 2002 के कत्लेआम में अपने शासन की विफलता के लिए ही माफी मांग लें तो ‘मोदी-मोदी’ का जयघोष करता वर्ग उनसे फौरन छिटक जाएगा।

         इसी तरह, मुसलिम टोपी न पहनने की जिद को इन्हीं चुनावों में उन्होंने दिखावे का ‘‘पाप’’ ठहरा डाला। जबकि उनकी पार्टी के ही अध्यक्ष राजनाथ सिंह यह ‘‘पाप’’ लखनऊ में कर रहे थे।

         अभी दो रोज पहले, इस उदार दौर में, बरबस उनके असल चेहरे की पहचान उभर आई। मुंबई में चुनाव सभा में उनकी मौजूदगी में शिवसेना के रामदास कदम ने मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला और मोदी की ओर इशारा कर कहा कि ‘‘वे (मोदी) सत्ता में आए तो छह महीने के भीतर पाकिस्तान को खत्म कर देंगे।’’
तब मोदी सुनते रहे। उस सभा का ठीक उस घड़ी का वीडियो देखें तो मोदी के चेहरे पर परेशानी या झुंझलाहट के भाव जरा नहीं दिखाई देते। दरअसल, यही मोदी का असल चेहरा है। वे इससे छुटकारा पाना चाहते हैं, इसका कोई प्रमाण ‘अच्छे दिनों’ के चुनाव प्रचार में अब तक कहीं देखने को नहीं मिला। उलटे उनके सबसे विश्वस्त अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में ही मुसलमानों से बदला लेने की हुंकार भरी।

         क्या अमित शाह मोदी से विपरीत विचार लेकर चलते हैं? क्या मोदी को उनके प्रचार अभियान, प्रचार के क्षेत्र और प्रचार की विषय-वस्तु की कोई जानकारी नहीं। यह नामुमकिन है।

         मोदी के चुनाव प्रचार की विषय-वस्तु पर शोध करने, लिखने, तरतीबवार करने पर कोई ढाई सौ लोग तैनात हैं। इनके साथ मोदी के नजदीकी सलाहकार सक्रिय हैं। विषय-वस्तु को अंतिम रूप मोदी की सहमति से ही मिलता है। ‘द टेलीग्राफ’ ने इस बंदोबस्त और प्रक्रिया पर विस्तार से जानकारी दी है।

         जाहिर है, उदारता का तेवर मोदी का ताजा फैसला है। उन्हें जीत के लिए उस सहिष्णु वर्ग का समर्थन भी जरूरी लगने लगा है, जो शायद तटस्थ है। संभव है कि उनके शोधकर्ताओं ने हिंदुत्व के भरोसे दाल गलते न देखी हो। वरना मोदी खुलेआम मुसलमानों और पाकिस्तान के बारे में खुद जहर बुझी बोली बोलते आए हैं। उनके समर्थकों ने उनकी प्रशासनिक काबिलियत के इजहार के लिए यू-ट्यूब पर इंडिया टीवी की ‘अदालत’ का एक टुकड़ा प्रचारित किया। उसमें यह पूछने पर कि आतंककारियों के मुंबई हमले के वक्त आपके हाथ कमान होती तो  क्या करते? मोदी कहते हैं- वही करता जो मैंने गुजरात में किया था। पाकिस्तान? उसे उसकी भाषा में जवाब देंगे। पाकिस्तान हमला कर चला जाए तो अमेरिका नहीं, पाकिस्तान ‘में’ जाना होगा। विरोधियों को पाकिस्तानी एजेंट ठहराने का विचार भी पहले-पहल खुद मोदी के दिमाग में ही कौंधा था।
लेकिन यह उनका पुराना तेवर है। अब ऐसा बोलने वाले को वे रोकेंगे। 272 का लक्ष्य दूर नजर आने लगा है। राजग मिलकर भी बेड़े को पार न लगा सका तो? नैया कौन पार लगाएगा? और किस शर्त पर। क्या शर्त   मोदी पर आकर रुक जाएगी?

         इन्हीं संशयों ने अचानक एक ‘नया’ मोदी हमें दिया है। जो राममंदिर, समान नागरिक संहिता और धारा 370 के एजेंडे के मानो खिलाफ खड़ा है- ‘‘संविधान देश को चलाता है, वही सर्वोच्च है।’’ लेकिन चुनाव प्रचार में सामने आए तेजी के तेवर? वे तो ‘‘चुनावी’’ होते हैं जी!

         अगर नरेंद्र मोदी का यह बुनियादी सोच होता तो पूरा चुनाव प्रचार अलग धुरी पर खड़ा होता। मगर चुनाव प्रचार उसी तर्ज पर है। अमित शाह, गिरिराज सिंह या रामदास कदम की गूंज यहां-वहां बनी रहेगी। लेकिन ‘भावी प्रधानमंत्री’ की नरम, नम्र, ‘स्टेट्समैन’ छवि अब वे मजबूरन पेश करेंगे।

         हिसाब लगाया गया है कि ‘मोदी सरकार’ की संभावना खड़ी करने में पांच हजार करोड़ रुपया खर्च हुआ है। मनमोहन सिंह सरकार से मोहभंग के बाद कारपोरेट लॉबी ‘विकास पुरुष’ मोदी की गद्दीनशीनी के लिए कमर कसे बैठी है। इसलिए साधनों की कमी कैसे हो सकती है! इतना सघन, व्यक्ति-केंद्रित प्रचार शायद ही पहले हमारे यहां हुआ होगा।

         राजीव गांधी ने ‘रीडिफ्यूजन’ के जरिए जब मगरमच्छों वाले डरावने चुनाव प्रचार का सहारा लिया था, वह अभियान भी इतना पेशेवराना न था। मोदी की ब्रांडिंग प्रचार-प्रबंधकों ने साबुन-तेल की तरह शुद्ध व्यावसायिक शैली में की है। वह इतनी आक्रामक है कि खुद पार्टी के दिग्गज हैरान- और कुछ बेचैन भी- हैं।
लेकिन लगता है यह चुनाव प्रचार जो संदेश अब तक नहीं दे सका- या उन्होंने देना न चाहा- उसे मोदी अब टीवी के जरिए घरों में जा-जा कर खुद दे रहे हैं। एकबारगी बड़ा सुखद लगता है। सबको साथ लेकर चलना है। एक नया भारत बनाना है। संविधान माईबाप है। पड़ोसी भाई हैं। भाईचारा बढ़ाना है।

         जैसे मोदी में देवता जागा हो। लेकिन यह सब चुनावी रणनीति का दूसरा तेवर है। चेहरे पर दूसरा चेहरा। मुखौटा। सच्चाई क्या है, यह वक्त साबित कर देगा- अगर मोदी सत्तासीन हो सके।

साभार जनसत्ता 25.04.2014

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1 टिप्पणियाँ

  1. Defeating Modi or BJP/RSS or even Congress and all their allies in past, present or even "would be" in future, or any such party who works for capital, in whatever name; can not be successful, by giving slogans of secularism, socialism and even fighting against capitalism!
    Capital is dead entity but it was alive in past in form of labour, its further growth is by accumulating surplus value by sucking blood of live labours! There is no other way! Make it pure, honest, pro people, pro peasants; it has to compete with other capital, international capital and if it loses, its existence will be destroyed by either merging with the winner or by vanishing in thin air, by getting annihilated!
    So, fighting against Modi has no meaning as, one can see, Congress is rising again, AAP is busy in purifying Capital! Antithesis of Modi or Capital's representatives, henchmen is not making another "Pure" capital but replacing it with social wealth! Scientific #Socialism
    Author's analysis is good but solution is lacking!

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