संस्कृति अब किसी भयानक अपराध कथा में बदलने लगी है - अजित राय | Ajit Rai on Unimaginable Changes in Culture [Drishyantar July 2014]

संस्कृति अब किसी भयानक अपराध कथा में बदलने लगी है

अजित राय


शर्मिला चटर्जी का बस इतना ही कसूर था कि उन्होंने फ्रांस के नीस शहर में एक पंजाबी लड़के से प्यार किया। इस प्यार की उन्हें ऐसी सजा मिलेगी, तब किसी ने कहां सोचा होगा। पिछले एक साल से टेलीफोन पर उन्होंने टुकड़ों–टुकड़ों में अपनी जो कहानी सुनाई वह किसी काल्पनिक उपन्यास या फिल्म जैसी लग सकती है, पर सच है। कभी–कभी सच हमारी फंतासी से भी अधिक दिलचस्प हो जाता है। बहरहाल।


आखिर हम भारतीयों में ऐसा कौन–सा जीन है जो बार–बार कानून तोड़ने और दूसरों को धोखा देने पर मजबूर करता है। यहां तक कि भारत से जो सांस्कृतिक दल विदेशों में जाते हैं, उनमें भी कई लोगों के अवैध रूप से सीमा पार करने, वापस न लौटने और वहीं बस जाने की घटनाएं सामने आती रही है जिसे कबूतरबाजी कहते हैं। कई लोगों पर ऐसे मुकदमे अब भी चल रहे हैं। हमेशा हम पर संदेह किया जाता है।

अजित राय

दिल्ली से ब्रूशेल्स होते हुए जब मैं नीस एयरपोर्ट पर उतरा तो सुबह के दस बजे थे। बाहर निकलते ही शर्मिला और उनकी बेटी वेदा मिल गर्इं। कार में बैठते ही शर्मिला ने अपने दुखों का पिटारा खोल दिया—‘अजित साब, हम अपने वजूद की आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारी मदद न तो यहां का प्रशासन कर रहा है न भारत सरकार।’

‘देखिए, मैं आपके लिए दो दिन का अतिरिक्त समय लेकर आया हूं। फिल्मोत्सव के बाद इत्मीनान से बातें करेंगे, कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा।’ लेकिन वह कहां मानने वाली थी। रास्ते भर अपना दुख सुनाती रही।

उसकी कहानी कोलकाता से शुरू होती है जब उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली और मां उसे गोद में लिए मुंबई आ गई और कुछ साल बाद पांडिचेरी में बस गई। वहीं उसकी पहली शादी हुई। जैसा कि अक्सर होता है उन लोगों के साथ जो शादी के लिए बने ही नहीं होते फिर भी उन्हें सामाजिक–पारिवारिक कारणों से शादी करनी होती है, वैसा ही शर्मिला के साथ हुआ। भयानक यंत्रणा, आर्थिक संघर्ष और ससुराल वालों के तानों से तंग आकर चुपचाप उसने अपना पासपोर्ट बनवाया, फ्रेंच दूतावास के कांसुलेट की कृपा से फ्रांस का वीजा लिया और पेरिस पहुंच गई। कई जगह ठोकरें खाने के बाद कान और नीस के पास एक गांव के रेस्त्रां में काम मिला। अब जैसा कि अक्सर होता है, एक अकेली कामकाजी स्त्री को भी कोई दोस्त तो चाहिए जो बाद में प्रेमी, फिर पति और फिर मालिक बन बैठता है। उसी रेस्त्रां में काम करने वाले एक पंजाबी युवक से उसका प्रेम हो गया जिससे उसकी एक बेटी है वेदा जो मुझे एयरपोर्ट पर मिली थी। यह भेद बाद में खुला कि वह व्यक्ति पहले से ही शादीशुदा था और अपनी पहली पत्नी को तलाक देने के झूठे वादे कर–करके शर्मिला के साथ रहने लगा था।


कुछ सालों बाद जब शर्मिला को फ्रांस की नागरिकता मिल गई और उसका फ्रेंच पासपोर्ट बन गया तो वह उसे पंजाब में अपने गांव ले आया। दबाव डाला गया कि शर्मिला उसके छोटे भाई से शादी करके उसे फ्रांस में काम दिला दे और जब वर्क परमिट मिल जाए तो तलाक दे दे। तब वह गर्भवती थी और अपने प्रेमी के बूढ़े मां–बाप के आंसूओं का खयाल करके उसने वह सब किया जो वह चाहता था। फ्रांस में काम पाने के बाद उस व्यक्ति ने भी शर्मिला का हाल–चाल तक नहीं पूछा।

वेदा के जन्म के कुछ ही दिन बाद शर्मिला के प्रेमी ने उससे साफ–साफ कह दिया कि वह उसके साथ नहीं रह सकता, कि वह पहली पत्नी से तलाक नहीं ले सकता, कि वह अपना रास्ता ले। जिसके लिए शर्मिला ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया उसने उसे ठोकर मारकर निकाल दिया। वह आज एक बड़े रेस्त्रां का स्वामी है और एक सुंदर अरब युवती के साथ प्रेमपूर्वक जी रहा है। उसका भाई भी फ्रांस में व्यवस्थित हो गया।

शर्मिला और उसकी बेटी वेदा मुझे पिछले वर्ष कान फिल्मोत्सव में मिली थी। इंडियन पैवेलियन में मेरे कारण उनको प्रवेश मिल गया और वे अनुराग कश्यप, नवाजुद्दीन सिद्दीकी आदि से मिलने में कामयाब हो सकी। वेदा बॉलीवुड की दीवानी हैं। इसी साल जनवरी में वेदा ने मुझे फ्रेंच में एक चिट्ठी मेल किया जिसका सारांश यह है—

‘मैं शर्मिला चटर्जी की बेटी हूं। अगले आठ दिनों बाद में सोलह साल की हो जाऊंगी। चूंकि मेरी मां ठीक से इंटरनेट नहीं जानती, इसलिए मैं उनकी ओर से अपनी दुखभरी कहानी बता रही हूं।’

‘मुझे कभी अपने पिता का प्यार नहीं मिला। एक सपने के साथ कि एक दिन मैं, मेरी मां और मेरे पिता एक परिवार की तरह साथ–साथ रहेंगे, मैं सोलह साल की हो रही हूं। हम कई बार पंजाब गए जहां मेरे पिता का गांव है, इस उम्मीद में कि शायद सब ठीक हो जाए। अक्टूबर 2005 में हम कुछ भारतीय कपड़ों और दूसरे सामान की खरीददारी करने पंजाब गए ताकि मोनक्को में मेरी मां की छोटी–सी दुकान चल सके। तब तक मेरी मां हताश हो चुकी थी। वहां हमें मिस्टर कुमार नामक युवक मिला। उसने हमारे साथ इतना अच्छा व्यवहार किया कि हम उसे अपना समझने लगे। कुछ ही दिनों में उसने मेरी मां से शादी कर ली। यह सब इस उम्मीद में हुआ कि शायद एक नया जीवन शुरू हो सके। हम वापस फ्रांस आ गए। वह मेरी मां से मिलने और साथ रहने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता था। वह अनपढ़ और बेरोजगार था। जब वह मई 2006 में मेरी मां की कोशिशों से फ्रांस में बसने में सफल हो गया तो हमें पता चला कि उसकी दिलचस्पी मेरी मां में कम फ्रांस में ज्यादा थी। यहां आते ही उसका व्यवहार बदल गया। वह रोज घर में हंगामा करने लगा। आजिज आकर एक दिन मेरी मां ने पुलिस में शिकायत कर दी। वह घर छोड़कर पेरिस चला गया। कुछ दिनों बाद वह लौटा और रोते हुए माफी मांगने लगा। हमने इस उम्मीद में उसे माफ कर दिया कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। पर कुछ भी ठीक नहीं हुआ। कलह और तनाव बढ़ता गया। उसने हमें बार–बार जान से मारने की धमकी दी। तंग आकर मेरी मां ने अपने मित्रों के सहयोग से एक अलग घर खरीदा। यह 2009 की बात है। 2011 में अंतत: उसने मिस्टर कुमार से तलाक के लिए कहा जिसपर वह राजी नहीं हुआ। यह मामला कोर्ट में गया। हमें अपना घर छोड़ना पड़ा और सात महीने हमने मित्रों के यहां शरण ले–लेकर गुजारा किया। उसने 2006 से ही मेरा यौन शोषण करना शुरू कर दिया था और धमकी दी थी कि यदि मैंने किसी को बताया तो वह हम दोनों को जान से मार देगा। वह मुझे जबरदस्ती पकड़ लेता था, कपड़े उतरवाता था और मुखमैथुन के लिए मजबूर करता था। मैं रोती रहती थी। डर के मारे स्कूल से छुट्टी होने पर भी घर नहीं जाती थी जब तक कि मेरी मां घर न पहुंच जाए।

‘एक दिन मैंने हिम्मत करके अपनी मां को सब कुछ बता दिया। यह सब इतना पीड़ादायक और घृणित था कि मेरी मां डिप्रेशन में चली गई। मेरी मां की नौकरी चली गई। उसका इलाज चल रहा है। वह बेरोजगारी भत्ता पर गुजारा कर रही है। तलाक और यौन शोषण के आपराधिक मुकदमे कोर्ट में लंबित हैं। इस हालत में पढ़ाई में मैं ध्यान नहीं दे पाती हूं। मुझे हमेशा डर लगा रहता है। घर और स्कूल में मैंने सबसे बात करना बंद कर दिया है। मेरे जीवन में अब कोई उत्साह नहीं बचा। हम इस दुष्चक्र से निकलना चाहते हैं।’

मित्रों, यदि यह घटना भारत में घटती तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता। यूरोप के सबसे आधुनिक कहे जाने वाले देश फ्रांस में यह सब हुआ जहां मानवाधिकार के सैकड़ों कानून हैं। जब मैंने पेरिस में भारतीय दूतावास से संपर्क किया तो वर्मा जी ने मुझे आश्वासन दिया कि वे इस मामले में जरूर कुछ करेंगे। मैंने फ्रांस में भारत के राजदूत अरुण के. सिंह से भी मदद की अपील की। उन्होंने हमारी पत्रिका ‘दृश्यांतर’ की तारीफ की। शर्मिला बस इतना चाहती है कि उसे जितनी जल्दी हो सके तलाक मिल जाए और उसकी बेटी को न्याय मिले। वह फिर से अपना बिजनेस शुरू करना चाहती है। अब उसे किसी पुरुष का साथ नहीं चाहिए।

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जर्मन फिल्म समीक्षक और मेरी दोस्त एलिस ने मुझे सख्त हिदायत दी थी कि मैं अपना तौलिया, तकिया, बेडशीट आदि साथ ले आऊं। ये सारे सामान शर्मिला ले आई थी। उसने बड़ी आत्मीयता से खाना बनाया था और ढेर सारी चीजें लाई थी। इस हालत में भी उसकी उदारता से मैं चकित था। हमने कान में समुद्र किनारे पिकनिक मनाया, एलिस के अपार्टमेंट में अपना सामान रखा और फेस्टिवल के मीडिया सेंटर में औपचारिकताएं पूरी की। एलिस ने शाम को थाईलैंड की राजकुमारी की पार्टी के आमंत्रण का जुगाड़ कर रखा था। उस रात पहली बार मैंने शर्मिला और वेदा को इतना खुश देखा। रात के दो बजे हम सब विदा हुए।

कान भी अजीब जगह है। यहां दिन में तो भीड़–भाड़ रहती ही है, रातें भी गुलजार रहती है। आखिरी शो भले ही रात के साढ़े दस बजे शुरू होता है, लेकिन पार्टियां तो रातभर चलती है। एलिस और मैं एक ही अपार्टमेंट में ठहरे थे जहां बीस मिनट में पैदल जाया जा सकता है। एक ही चाबी थी जो मेरे पास रहती थी। रोज रात के तीन–तीन बजे तक पार्टीबाजी मेरे बस की नहीं थी। दूसरे दिन ही मैंने उसे साफ–साफ बता दिया कि मैं तो बारह बजे चला जाऊंगा। वह तो रात में तीन बजे लौटती थी। उसे डर थ कि यदि मैं गहरी नींद में सो गया तो दरवाजा कौन खोलेगा। अपार्टमेंट से पहले दो दरवाजे और थे जो इलेक्ट्रॉनिक चाबी से खुलते थे। मैंने उसे आश्वस्त किया कि मैं नींद से उठकर दरवाजा खोल दूंगा। इतनी रात गए लौटने के बाद भी वह सुबह–सुबह तैयार होकर पहले प्रेस शो में चली जाती। उसे मेरे आलस्य पर गुस्सा आता। अपने को रोज रसोई, बेडरूम और टायलेट साफ करने की आदत नहीं थी। पर मैंने बड़ी हिम्मत करके यूरोपीय जीवन शैली सीखी। फिर भी कोई न कोई गलती हो ही जाती और मुझे उसका लेक्चर सुनना पड़ता। धीरे–धीरे सब सामान्य हो गया। हम अपने–अपने ढंग से फिल्में देखते, पार्टीबाजी करते, खाते–पीते, मीडिया सेंटर में काम करते और दुनिया भर के फिल्म प्रेमियों के साथ मस्ती करते। यह एक ऐसी दुनिया थी जहां सब बराबर थे, सभी आजाद थे, सभी अनुशासित थे। यदि आप में योग्यता है तो सभी उसका आदर करेंगे। कान फिल्मोत्सव की मीडिया प्रमुख क्रिस्टीन को जब पता चला कि मैं हिंदी का पहला रिपोर्टर हूं जो यहां पहुंच सका तो उसने मुझे अपने कक्ष में आमंत्रित किया, काफी पिलाई और ढेर सारी बातें कीं।

एक दिन इंडियन पैवेलियन के बाहर मुझे अचानक अलेक्जांद्रा की बेटी जेसिका मिल गई। उसने कहा कि उसके पास भीतर जाने का पास नहीं है। जेसिका ने मुझे एक मार्मिक एसएमएस भेजा था, ‘मैं अलेक्जांद्रा की बेटी जेसिका हूं। मेरी मां जेल में है क्योंकि जिस भारतीय पर उसने भरोसा किया उसने उसे धोखा दिया। क्या आपकी ओर से मैं उसे कोई संदेश कहूं।’ मेरे होश उड़ गए थे। अलेक्जांद्रा बर्लिन फेस्टिवल (2012) में आयोजक थी। (देखें संपादकीय, दृश्यांतर, मई 2014) मैंने उसे सांत्वना देते हुए लिखा था कि मैं तुम्हारी मां का हालचाल पूछने म्यूनिख की जेल में जाऊंगा। उसका जवाब आया, ‘मेरे पिता रोज उससे मिलने जाते हैं। मुझे जेल जाकर उससे मिलने की अनुमति नहीं है। आप यहां किस दिन आएंगे, बताएं तो मेरे पिता आपके लिए अनुमति पत्र बनवा कर रख लेंगे। कृपया उस आदमी से कहिए कि वह मेरी मां के पैसे लौटा दे जिससे मुझे मां वापस मिल जाए।’ वहां अलेक्जांद्रा ने बताया कि जिस भारतीय पुरुष पर भरोसा करके उसने कंपनी बनाई, पत्रिका निकाली, फिल्म समारोह आयोजित किए उसने उसे धोखा दिया। कंपनी दिवालिया हो गई और उसे जेल जाना पड़ा। उसने मुझे जो दास्तान सुनाया, वह अविश्वसनीय था। उसने आगे कहा, ‘मेरे साथ जो हुआ सो हुआ, अब मैं चाहती हूं कि भारत आकर ये बातें सबको बता दूं ताकि वह आदमी किसी और को धोखा न दे सके।’ उसका अपने पति से तलाक हो चुका है। मुझे लगने लगा कि संस्कृति अब किसी भयानक अपराध कथा में बदलने लगी है। इसलिए इस प्रसंग को यहीं समाप्त करता हूं।

पिछले वर्ष डेबुसी थियेटर के सामने कैफे रोमा में अपना अड्डा जमता था। इस बार वहां नहीं जा पाया था। ओस्लो से नसरुल्ला कुरैशी आए और फिर हमारी महफिलें जमने लगीं। पेरिस के एक रेस्त्रां मालिक राकेश दत्ता भी आए और मुंबई वाले जी–के– देसाई को भी साथ लाए। वहां फिल्मकार सुधीर मिश्रा से अक्सर मुलाकात हो जाती थी। दो फिल्मों के बीच में जो भी वक्त मिलता हम कैफे रोमा में मिलते और चर्चा करते। एक शाम जब मैं फिल्म देखकर लौटा तो मेरा मूड उखड़ा हुआ था। शर्लिन चोपड़ा की जिस ‘कामसूत्र–3 डी’ पर करोड़ों रुपये बरबाद किए गए थे—वह फिल्म इतनी खराब थी कि अंतिम दृश्य तक सभागार में एक भी दर्शक नहीं बचा। मुझे इतना गुस्सा आया कि मन हुआ फिल्मकार को वहीं–––। यह दर्शकों के साथ धोखा था। भारत में जब यह फिल्म गाजे–बाजे के साथ रिलीज होगी तो एक बार दर्शक जरूर देखने जाएंगे लेकिन हर कोई निर्माता–निर्देशक को शाप देता हुआ निकलेगा। मार्केट स्क्रीनिंग में भारी पैसा खर्च करके इसे दिखाया गया था। शुरू में तो ‘कामसूत्र’ के नाम पर सभागार भर गया, पर जैसे–जैसे फिल्म आगे बढ़ी, सबकी समझ में आ गया कि ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’। मेरा मानना है कि ऐसी घटनाओं से विदेशों में पहले से ही गिरी हुई हमारी साख और गिर जाती है। कामसूत्र के लेखक वात्सयायन की आत्मा निश्चित ही विलाप कर रही होगी। नसरुल्ला कुरैशी ने कहा, ‘मुझे तो पहले से ही पता था कि यह फिल्म ऐसी ही है।’

कान में अंतिम दो दिन सभी सभागारों में चुनी हुई फिल्मों को दुबारा दिखाया जाता है ताकि जो नहीं देख सके हों वे देख लें। उधर बार–बार शर्मिला का फोन आ रहा था। 25 मई की शाम मैंने अपना बोरिया–बिस्तर बांधा और कान से मोनेक्को माउंट कार्लो की ट्रेन में बैठ गया। दो दिन बाद मुझे पेरिस पहुँचना था।

ट्रेन में मैं सोचने लगा कि आखिर हम भारतीयों में ऐसा कौन–सा जीन है जो बार–बार कानून तोड़ने और दूसरों को धोखा देने पर मजबूर करता है। यहां तक कि भारत से जो सांस्कृतिक दल विदेशों में जाते हैं, उनमें भी कई लोगों के अवैध रूप से सीमा पार करने, वापस न लौटने और वहीं बस जाने की घटनाएं सामने आती रही है जिसे कबूतरबाजी कहते हैं। कई लोगों पर ऐसे मुकदमे अब भी चल रहे हैं। हमेशा हम पर संदेह किया जाता है। यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कई अफ्रीकी देशों में अनेक भारतीय कारोबारियों पर टैक्स संबंधी मुकदमे चल रहे हैं। हम वहां खूब पैसा कमाना चाहते हैं, वहां की नागरिक सुविधाओं का लाभ उठाना चाहते हैं, लेकिन ईमानदारी से टैक्स नहीं देना चाहते। संस्कृति के नाम पर जो सरकारी–गैर सरकारी धन खर्च होता है वह कहां से आता है और कहां जाता है, यह एक अलग कहानी है। पच्चीस साल तक देश–विदेश की सांस्कृतिक पत्रकारिता करने के बाद मुझे विश्वास होने लगा है कि संस्कृति अब किसी भयानक अपराध कथा में बदलने लगी है।

इस अंक में ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्म शताब्दी पर विशेष सामग्री दी जा रही है जिसके लिए हम विष्णु खरे के आभारी हैं। वरिष्ठ फिल्मकार सईद मिर्जा से त्रिपुरारि शरण का संवाद भी है। रंगमंच में देवेंद्र राज अंकुर का आलेख है जो ‘दृश्यांतर’ के मई 2014 अंक में छपे मनोज रूपड़ा के लेख से असहमति जताते हुए लिखा गया है। साथ ही उषा किरण खान का संपूर्ण नाटक ‘हीरा डोम’ और उस पर वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडे की टिप्पणी दे रहे हैं। कविता खंड में राजेश जोशी की कुछ नए फार्म वाली कविताएं हैं। इस बार हिंदी के अलग तरह के दो लेखकों—दूधनाथ सिंह और अवधेश प्रीत—के उपन्यास अंश हैं। 


अजित राय / दृश्यांतर / जुलाई 2014
Ajit Rai /Drishyantar / July 2014

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