गुलज़ार की बातें करें... आइये यतीन्द्र मिश्र की बातें सुनें Happy Birthday Gulzar - Yatindra Mishra


गुलज़ार की बातें करें... आइये यतीन्द्र मिश्र की बातें सुनें

मीलों से दिन छोड़ आए सालों सी रात ले के चले

यतीन्द्र मिश्र


बहुत ख़ूबसूरत है हर बात लेकिन
अगर दिल भी होता तो क्या बात होती
लिखी जाती फिर दास्तान–ए–मुहब्बत
इक अफ़साने जैसी मुलाकात होती —मासूम

यह मैंने कभी नहीं सोचा था कि जिन अविस्मरणीय हिन्दी फिल्म गीतों ने मेरे किशोर मन पर अपनी आत्मीयता की एक रंगीन दुनिया रचा–बसा ली थी और जिनसे गुजरते हुए मैं युवा हुआय उन पर कभी अलग से विमर्श का मौका मिलेगा । और वह मौका जब गुलज़ार जैसे बेहतरीन गीतकार के संसार से जुड़ा हुआ हो, तो ऐसा अवसर न सिर्फ मेरे लिए बेहद महत्त्व का है, बल्कि उसमें एक ऐसे शायर के मानस को भी पकड़ने का दुर्लभ संयोग हाथ आया है, जो किसी भी युवा रचनाशीलता के लिए स्वागत योग्य उपलब्धि सरीखा है ।




यह सर्वविदित है कि गुलजार गीतकार से पहले सूफियाना किस्म का रंग लिए हुए एक शायर और अफसानानिग़ार भी हैं । वे ऐसी परम्परा के ध्वजवाहक हैं, जिसने हिन्दी और उर्दू के दोआबे को कहीं एक धरातल पर सम्भव कर दिखाया है । एक तरीके से गुलज़ार हिन्दी और उर्दू को मिलाने वाली हिन्दुस्तानी ज़ुबान के उस संगम पर खड़े हैं, जहाँ से गंगा, यमुना और सरस्वती की तरह कविता, कहानी और गीत एक जगह आकर आपस में तन्मय हो गये हैं । यह तन्मयता और कविता कहने की बेलौस अदा गुलज़ार का ऐसा अचूक हथियार है, जिसके नेज़े से वे समकालीन यथार्थ और परम्परागत दुनिया की रेशा–रेशा पड़ताल करते हैं । बहुत सम्भव है कि वे उस जगह जाकर अपनी कविता को सम्भव बनाते हों, जहाँ कविता और गीत का आपसी फर्क मिट जाता है या उनका कवि मन एक सुन्दर गीत को कहानी की शक्ल में गूँथ डालता हो और उस स्थिति में वह गीत किसी दृश्यावली का जीवन्त दस्तावेज़ बन जाती हो । गुलज़ार कविता कहते हुए एक गीत रचते हों अथवा गीत लिखते हुए कविता के दायरे में चले जाते हों— यह बहुत आसान सी लगती बात है । मगर इस आसानी के पीछे ही दरअसल उस गीतकार का चेहरा भी छिपा हुआ है, जो मुश्किल से मुश्किल परिस्थिति को भी एक गीतात्मक दृश्य में तब्दील कर देता है । उनके मित्र और मशहूर संगीतकार आर– डी– बर्मन की यह बात पूर्णतया उन पर फिट बैठती है कि कल आकर वो पंचम (आर– डी– बर्मन के आत्मीय लोगों में प्रचलित उनका नाम) से यह कह बैठेंगे— “यार अख़बार के न्यूज पर एक गीत लिखा है, इस पर एक धुन बना दे ।”

यह एक अनचीन्हीं और खोई हुई धुन के पीछे गुलज़ार का पागलपन ही है, जो उन्हें सफल गीतकार बनाता है । सफल गीतकार का आशय यहाँ सिर्फ इतना कि एक ऐसा गीत रचने वाला शायर, जो प्रेम के लिए प्रेम, करुणा के लिए करुणा, हँसी ठिठोली के लिए हँसी ठिठोली और अवसाद के लिए पीड़ा को हू–ब–हू स्वर दे देता है । यह उतना आसान नहीं है, जितना हम उनके फिल्मी गीतों में घटता हुआ देख पाते हैं । इसके लिए गुलज़ार के कवि व्यक्तित्व और उनके अन्तरंग को टटोलने पर ही जाना जा सकता है कि यह सरलता उनके यहाँ बार–बार कहाँ से आ जाती है । इस जानने की चाहत में यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा कि हम जान पाएँ कि एक गीतकार के लिए वे कौन सी चुनौतियाँ, आत्मीय क्षण, हार्दिक रिश्ते और पारस्परिक अनुभूतियाँ महत्त्व की हैं, जिसने उनसे एक अमर गीत की रचना करवाई । यह सभी जानते हैं कि गुलज़ार ने पिछले पाँच दशकों में हिन्दी सिनेमा के लिए अपना अमूल्य योगदान करते हुए असंख्य गीत, सैकड़ों पटकथाएँ और बहुतेरी फिल्मों के लिए संवाद लिखे । अब इनमें यह देखना प्रीतिकर है कि आज दशकों के समय अन्तराल में फैली हुई उनकी विशद रचनाधर्मिता में से कुछ अविस्मरणीय गीत ऐसे नज़र आते हैं, जो भरे–पूरे रात के आकाश में चमकते हुए सितारों की तरह चन्द्रमा के चन्दोवे में टँके हैं । इन सितारों की कहानी को उतनी ही सुन्दरता से कह पाना या उसकी सिलसिलेवार निशानदेही करना, थोड़ा मुश्किल भरा काम है ।



गुलज़ार के उन गीतों के सन्दर्भ में, जो हिन्दी फिल्म सिनेमा के लिए लिखे गये, को किसी एक अवधारणा या प्रस्तावना की घेरेबन्दी में समेटा नहीं जा सकता । यह ढ़ेरों गीत विभिन्न मनोभूमियों में संचरण करते हुए अपने निहितार्थों को कई परतों में उजागर करते हैं । उदाहरण के लिए किसी एक गीत को हम भले ही किसी विशिष्ट परिस्थिति में घटता हुआ सिनेमा के परदे पर देख रहे हों, मगर उनके अर्थों के बहुतेरे आयाम उन्हें सुनते या गुनगुनाते हुए पा सकते हैं । ‘ख़ामोशी’ फिल्म के एक गीत से यह बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि कैसे उस कहानी की विशिष्टता को व्यक्त करता हुआ गुलज़ार का गीत ‘हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू/प्यार से छूकर इन्हें रिश्तों का इलज़ाम न दो’ अपने तजऱ्े बयाँ में कुछ दूसरे और सामयिक अर्थ भी रखता आया है । इस तरह के गीतों की एक लम्बी परम्परा बनती है खुद गुलज़ार के अपने संकलन मेंय साथ ही फिल्मेतिहास की लम्बी गीत परम्परा में, जहाँ उनके समकालीन शैलेन्द्र, गोपाल दास नीरज, आनन्द बख़्शी, कैफी आज़मी, इन्दीवर, जावेद अख़्तर और निदा फाज़ली जैसे सशक्त गीतकार मौजूद हैं और पूर्ववर्ती परम्परा में शकील बदाँयूनी, मज़रूह सुल्तानपुरी, नरेन्द्र शर्मा, जि़या सरहदी, राजेन्द्र कृष्ण, राजा मेंहदी अली ख़ाँ, हसरत जयपुरी, असद भोपाली, प्रेम धवन, ज़ाँ निसार अख़्तर, भरत व्यास, डी– एन– मधोक और साहिर लुधियानवी जैसे बड़े लोग शामिल हैं । इन्हीं लोगों के बीच एक विशिष्ट और नये ढंग की परम्परा बनती है, जो हिन्दुस्तानी ज़ुबान के करीब है, जिसमें हिन्दी और उर्दू पूरी परिपक्वता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे चले हैं और जिससे गुलज़ार के गीतों का आँगन महकता दिखाई देता है ।

इस संकलन को बनाने के पीछे भी इसी प्रेरणा ने काम किया है कि हम गुलज़ार होने की सारी शर्तों को हिन्दुस्तानी भाषा की तहज़ीब में विश्लेषित करके देख सकें । इस जतन में यह बात पूरी प्रखरता के साथ मौजूद मिलती है कि भले ही उनके अधिसंख्य गीत हिन्दी फिल्मों में अपना रूपाकार पा सके हैं, मगर उनमें उर्दू और हिन्दी का अपना हृदय कितनी शिद्दत के साथ शुरू से अन्त तक धड़कता रहा है । यह बात फिल्मी गीतों से अलग उनकी कविता–यात्रा और ग़ज़लों की दुनिया में भी आसानी से मौजूद मिलती है । किसी भी शायर या कहानीकार के रचनाकर्म में यह अलगा पाना बड़ा ज़ोख़िम भरा काम है कि कहाँ तक वह एक कवि है और कहाँ तक पहुँचने के बाद वह एक किस्सागो के रूप में अपना रास्ता बदल लेता है । एक समर्थ रचनाकार दरअसल इसीलिए उस बहुरूपिये की तरह होता है, जिसकी पोटली में दुनिया जहान को चकित करने का तिलिस्म मौजूद रहता है । उस जादू या मंत्र को पकड़ पाना, खुद उसके अपने ही वश में नहीं होता, क्योंकि अपनी एक नयी सपनीली दुनिया रचने के फेर में उसे भेस बदल–बदल कर कभी कवि, कभी गीतकार तो कभी किस्सागो बनना पड़ता है । उसे ऐसी दुनिया रचनी पड़ती है, जिसमें एक हरी पत्ती के असीम वैभव के साथ उसका मंगल रचने वाले ढ़ेरों कलरव करते तोते मौजूद हों, तमाम किस्म के अलभ्य फल और सतरंगी गुलबूटे हों— साथ ही रंग–बिरंगी तितलियाँ और किलकारियों से भरा बचपन भी उपस्थित हो । ऐसी दुनिया के आमंत्रण के लिये कोई भी गीत कभी मुकम्मल या सम्पूर्ण गीत नहीं है, न ही कोई कहानी उसका असर बताने वाली पूरी और अन्तिम कहानी ही । ऐसी ही परिस्थितियों से गुज़रते हुए एक शायर किरदार कभी गीत, तो कभी ग़ज़ल लिखता है और इस दुनिया से अपनी पकड़ बनाए रखता है । गुलज़ार भी ऐसी ही किसी सम्भावना को पाने के उपक्रम में अपने रचनाकार किरदार के साथ चहलकदमी करते हुए एक गीतकार के बाने को ओढ़ पाए हैं ।

गीतकार बनने की इस प्रक्रिया में स्वयं गुलज़ार ने फिल्मों में एक लम्बा समय बिताया है । बहुतेरे दिग्गज फिल्मकारों की सोहबत में उठे–बैठे हैं, सैकड़ों कहानियों को न जाने कितनी बार कितने तरीकों से सुना–पढ़ा है, अधिसंख्य पटकथाओं में फेरबदल की टीपें दजऱ् होते हुए और संवादों में रोज़ ही कुछ जुड़ते–घटते अपनी आँखों से देखा है । इन सारी राहों से गुज़रते हुए, एक गीत को उसकी सबसे नैसर्गिक उपस्थिति में पाने की आकाँक्षा में उनके जैसे गीतकार ने अपनी स्वयं की मन:स्थिति को कितनी दफा बदल–बदल कर देखा होगा, इसका हिसाब लगा पाना भी बड़ा कठिन है । स्वयं गुलज़ार ही, एक बेपरवाह धुन को अपने लिए नबेरते समय कितनी जद्दोजहद, पशोपेश, संकट और अन्तर्विरोधों में पड़े होंगें— कह पाना मुश्किल है । फिर भी यह हमारे लिए कम दिलचस्प नहीं कि पिछले पचास सालों के हिन्दी फिल्म संगीत के इतिहास को सरसरी तौर पर जाँचते समय कुछ बेहद मार्मिक क्षणों को भी हम पकड़ पाएँ, जिनमें गुलज़ार के बेपनाह दर्द और मुहब्बत के रेशे बन्द हों और जिनसे किसी मधुर गीत ने अपना जन्म पाया हो ।



एक गीत का जन्म इस अर्थ में भी फिल्म–कला के लिए प्रासंगिक घटना है, जिसकी प्रक्रिया से गुजरकर हम गीतकार के साथ–साथ उस फिल्म की पटकथा तथा उसके पात्रों की अन्तर्यात्रा को समझ सकें । गुलज़ार के लिखे उनके प्रसिद्ध व पहले ही गीत ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ (फिल्म : बन्दिनी) को बानगी के तौर पर लिया जा सकता है । ‘बन्दिनी’ के सिचुएशन में यह गीत नायिका कल्याणी की उस मनोदशा को व्यक्त करता है, जहाँ वह अपने प्रियतम के लिये थोड़ा झिझकते हुए मगर घर के आँगन से बाहर पूरे उल्लास से निकल जाती है । गीत के बोलों की पारम्परिक शब्दावली, कुछ–कुछ उन वैष्णव पदों के समकक्ष नज़र आती है, जो स्वयं कल्याणी प्रतिदिन अपने पिता से सुनती–पढ़ती रही है । अब इस गीत के बोल ‘बन्दिनी’ की नायिका के अभिप्रायों को बताने में सक्षम हैं ही, अन्य पात्रों से उसके रिश्ते के ताने–बाने को उजागर करने में भी माहिर हैं, जिनसे पटकथा अपना अभिप्राय हासिल करती है । बिमल रॉय और सचिन देव बर्मन जैसे दो दिग्गज कलाकारों की अपनी कलाओं के प्रति आत्मीयता भी यह गीत शब्दश: व्यक्त कर देता है । गीत की ये पंक्तियाँ पढ़ने योग्य हैं—

कुछ खो दिया है पाई के
कुछ पा लिया गँवाई के
कहाँ ले चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के

मीरा, चैतन्य महाप्रभु, पल्टूदास, स्वामी हरिदास, बैजू बावरा और गोपाल नायक जैसे वैष्णव सन्त कवियों–निर्गुणियों की बावरी होने वाली परम्परा में यदि कल्याणी जैसा पात्र भी बावरी होने की सीमा तक पहुँचा हुआ है, तब यह गीत न केवल उस वैष्णव पृष्ठभूमि को रेखांकित करने वाला एक अमर गीत बन जाता है, बल्कि वह उस वैष्णवता के समीप भी जा पहुँचता है, जिसको पूरी फिल्म में बिमल रॉय ने एक अन्तर्लय की तरह पिरो रखा है ।

‘बन्दिनी’ के साथ 1963 से शुरू हुआ गीतों का यह सफरनामा, आज छियालीस वर्षों के बाद भी गुलज़ार की कलम से बदस्तूर जारी है । इस नवेली यात्रा में वे न जाने कितने अनजान चेहरों से बावस्ता हुए होंगे और न जाने कितने चेहरों को अपने गीतों की शक्ल में सार्थक पहचान दी होगी । कभी किसी वैष्णव लड़की के लिए कोई प्रेम गीत लिखा होगा, तो कभी किसी माँ के लिए उसके आँचल को भिगोने वाली लोरी । एक हताश व्यक्ति की निराशा को अपना स्वर दिया होगा, तो कई बार उत्सव के बहाने त्यौहारों को इन्द्रधनुषी रंग भी बख़्शे होंगे । कभी जीवन का फलसफा बताने वाली पंक्तियों के मोह में पड़े होंगे, तो कई बार गैरजरूरी से लगते लम्हों को भी पूरी हरारत से याद किया होगा । एक गीतकार की विभिन्न मनोभूमियों में टहलने की अद्भुत यात्रा को कुछ गीतों के मिसरों से आपस में बाँधकर समझा जा सकता है । मसलन—

फिर से आइयो बदरा बिदेसी
तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी
भर के जाइयो हमारी तलैया
मैं तलैया के किनारे मिलूँगी —नमकीन




आनेवाला पल, जानेवाला है
हो सके तो इसमें
जि़न्दगी बिता दो
पल जो यह जानेवाला है —गोलमाल


रोज़ अकेली आए
रोज़ अकेली जाए
चाँद कटोरा लिए भिखारन रात —मेरे अपने


उपर्युक्त तीनों गीतों से यह स्पष्ट है कि एक गीतकार का मन अनगिनत सिलवटों में लिपटा हुआ कितनी अनजान खिड़कियों को अन्धेरों की ओर खोलता है । कभी बरसात के लिए बादलों को पुकारने में भी उसे कुछ देने का स्वर बनता है कि वह हमें पानी दे, इससे पहले उसे मोती से जड़कर आकर्षक और समृद्ध बनाया जा सके । कहीं रात जैसी बड़ी कायनात के लिए भी भिखारन होने का दावा करता है कि उसके पास सिर्फ एक पूँजी, चन्द्रमा का एक कटोरा ही है, जिसके सहारे वह भीख माँग सकती है । साथ ही इस बात का आलम भी गुलज़ार के यहाँ दजऱ् है कि आने वाला पल हमेशा हाथ से सरककर अगले ही क्षण चला जाता है । उसे पकड़कर जी लेना ही श्रेयस्कर है अन्यथा वह बिखरकर टूट जायेगा । गुलज़ार के गीतों को इत्मीनान से पढ़ते हुए एक सबसे सन्तोषप्रद बात यह हाथ लगती है कि अधिकांश गीतों की शब्द रचना और उसका भाव जगत उनकी अधिसंख्य ऐसी कविताओं में भी अपने बहुलार्थ के साथ उपस्थित हैं, जो उनके फिल्मी किरदार से कोसों दूर है । ‘आनेवाला पल जानेवाला है’ जैसे गीत को पढ़ते समय हमें एकाएक उनकी कविता ‘आदमी बुलबुला है’ याद आती है । कविता की पंक्तिया इस तरह हैं—

आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर
टूटता भी है, डूबता भी है
फिर उभरता है, फिर से बहता है
वक़्त की हथेली पर बहता
आदमी बुलबुला है पानी का । (आदमी बुलबुला है)

फिल्मी गीतों की समानार्थी सी लगती गुलज़ार की ढेरों कविताएँ और ग़ज़लों का पुनर्पाठ बेहद दिलचस्प होगा, यदि उनके सन्दर्भों से काटकर हम उन्हें एक जगह रखकर पढ़ सकें । इस तथ्य की रोचकता के साथ उसमें उस शायर व्यक्तित्व की झलक देख पाना भी शायद आसान हो, फिल्म कला में ढेरों अन्य चीज़ें पढ़ते वक्त जिन्हें हम आसानी से भुला देते हैं । वहाँ किरदार की कैफियत, पटकथा की बारीकियाँ और गीत की सिचुएशन ज्यादा प्रभावी होती है और यहाँ कवि का अन्तर्मन, कविता का भाषा–संस्कार और कथ्य की व्याप्ति पर जोर रहता है । मगर इन दोनों के सहमेल से विकसित किसी विचार, सादृश्य, बिम्ब या शब्द को पकड़ पाना उस कवि, गीतकार और किस्सागो के अन्तरंग में झाँकने जैसा है, जहाँ हमें एक साथ तीनों के किरदार गले मिलते दिखाई पड़ते हैं । कुछ उदाहरण के साथ इस रोचकता को रेखांकित करना चाहूँगा, जहाँ दो भिन्न मन:स्थितियाँ एक हो गयी हैं—

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
रात भर जो मिला उगते बदन पर हमको
काट के डाल दिया जलते अलाव में उसे
रात भर फूँकों से हर लौ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के र्इंधन को जलाये रखा (अलाव)

इस कविता की अर्थ व्याप्ति से लगा हुआ गीत—

जिया जले जाँ जले
नैनों तले धुआँ चले–––
रात भर धुआँ चले
गिनती रहती हूँ मैं अपनी करवटों के सिलसिले
क्या करूँ कैसे कहूँ
रात कब कैसे ढले (दिल से)



इसी तरह—

कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये
कितनी मुद्दत हुई किसी क़न्दील में जलती रौशनी रखे (चाँदघर)

इस कविता की अर्थ व्याप्ति से लगा हुआ गीत—

मेरे सरहाने जलाओ सपने
मुझे जरा सी तो नींद आये (माया मेमसाब)

ऐसे गीतों और कविताओं की लयात्मक जुगलबन्दी हमें गुलज़ार की अब तक की रचना–यात्रा में बड़ी आसानी से दिख जाती है । यह अकारण नहीं है, क्योंकि गीत लिखते हुए उनके भीतर बैठा कवि बार–बार उन्हीं शाश्वत मूल्यों और सम्भावनाओं से टकराता है, जिनसे पहले ही उनका शायर कभी रू–ब–रू हो चुका है । या ऐसा भी सम्भव है कि किसी गीत को रचते समय उस विशिष्ट परिस्थिति ने उनके कवि मन को कुछ अदेखे धरातलों से भी घेरा होगा, जिसके कारण वे गीत लिखने के बाद भी उस परस्थिति से आसानी से अपना पीछा छुड़ा नहीं पाते । उस परिस्थिति से उनका विरेचन तभी सम्भव है, जब वे उस मनोदशा को अन्य कोणों से भी परखते हुए कुछ अतिरिक्त कविताएँ उन्हीं सम्भावनाओं पर लिख डालें । इस अर्थ में यह कहना भी यहाँ प्रासंगिक होगा कि एक विशेष परिस्थिति को तमाम प्रकार से व्यक्त करने की एक कवि की जिद के चलते गुलज़ार के फिल्मकार ने एक दो फिल्में भी कवितानुमा ढंग से बनायी हैं । मसलन— ‘इजाज़त’ जैसी फिल्म को देखते हुए बार–बार मन में आता है कि किसी एक कविता या गीत को मुकम्मल तौर से पूरा न कर पाने की कोशिश में उस भाव जगत का सिनेमाई रूपान्तरण है यह फिल्म । हो सकता है अधिकांश लोग इस तर्क से सहमत न होंय फिर भी इस बात से वे अवश्य ही सहमति जताएँगे कि ‘इजाज़त’ में एक गीत की समाप्ति के बाद और उससे पहले की ज्यादातर दृश्यावलियाँ कहीं न कहीं से उसी गीत या कविता को एक्सप्लेन करने वाली युक्तियों में तब्दील हो गयीं हैं । इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि ‘इजाज़त’ में कहानी का नरेशन उसके संवादों, गीतों व दृश्यों की आपसी समझदारी में कहीं अन्तर्लय की तरह डूब गया है ।

गुलज़ार के सवा सौ गीतों का यह पाठ इस अर्थ में भी विशिष्ट है कि यहाँ फिल्मों की व्यावसायिक चकाचैंध से अलग उनके शब्दों की संवेदनशीलता और उसमें स्वत: ही आ गये साहित्य जैसी संवेदनात्मकता ने एक नया कलेवर अख़्तियार कर लिया है । इसमें रूमानियत की पर्याप्त गुंजाइश के बावजूद जीवन के वे मार्मिक क्षण भी स्वत: स्थान पा गये हैं, जिनके कारण इन गीतों में आज भी उतनी ही सरसता, माधुर्य और हरारत महसूस होती है ।

यतीन्द्र मिश्र

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