राजेन्द्र यादव को याद करती कविता - अंधेरी कोठरी मेँ रोशनदान की तरह | Kavita Remembers Rajendra Yadav

अंधेरी कोठरी मेँ रोशनदान की तरह 

कविता


‘हंस’ मेरा दूसरा मायका था
आज राजेन्द्र जी पर जब लिखने बैठी हूँ, ऐन सुबह का वही समय है जब वे अपने पढ़ने के टेबल पर नियमित रूप से विद्यमान होते थे- अपनी शारीरिक-मानसिक विवशताओं के बावजूद, इस उम्र में भी । उनका वह कमरा, उनकी वह मेज, कुर्सी, किताबें और उनका वह दफ्तर सब उन्हें मिस कर रहे होंगे, ठीक मेरी ही तरह...

पंद्रह वर्षों की समयावधि, यदि बहुत बड़ी नहीं तो बहुत छोटी भी नहीं है। मैं कलम लिए चुपचाप बैठी हूँ, लिखूँ तो क्या लिखूँ और नहीं लिखूँ तो क्या नहीं । शब्द जैसे चुक-से गए हैं। पर कहना तो है ही चाहे इस चुकी हुई भाषा में ही सही...

यादें बहुत सारी हैं. हां, यादें हीं. हालांकि उन्हें यादें या कि स्मृतियां कह कर संबोधित करते हुये अभी भी कलम थरथराती है, जुबां की तरह...

मैं तय करती हूँ उनके लेखक और संपादक रूप पर नहीं लिखूँगी वह सबतो जगविदित है अभी बस वो बातें जो हमसे या हम सबसे जुड़ी हैं ..

वह 1998 रहा होगा ...23 नव. को पिता की बरसी पर एक कविता लिखी थी –

 क्षण–क्षण कर के न जाने बीत चुके है 
    कितने अंतहीन बरस
    इतने बरस कम तो नहीं होते पिता?
       राम का वनवास भी खत्म हो गया था सिर्फ चौदह वर्षो मे
            मेरी तपस्या का कोई अंत नहीं...
 क्षण भर को ही सही /मेरे सपनों मे आ जाओ पिता
      मैं तुम्हारे साथ हँसना-हंसाना चाहती हूँ
     खीजना-खिजाना चाहती हूँ
     जिदें करना और उन्हें मनवाना चाहती हूँ ...
     चाहती हूँ तुम्हारे साथ, तुम्हारे सहारे जीना
           अपना निलंबित बचपन।

पिता नहीं आ सकत थे, वे नहीं आए थे। सपनों मे भी नहीं… पर यह दुआ जैसे कुबूल हो गई थी। उन जैसी ही एक छवि कुछ दिनों बाद मेरे दैनंदिन मे शामिल हो गई थी। हाँ, पिता की कमी, घर से दूरी सबका खामियाजा मैंने राजेन्द्र जी से ही चाहा। अपनी पहले मुलाकात से ही, पिता जैसी ठहाकेदार हंसी, पाईप, किताबें, उनमें मुझे पापा का चेहरा दिखाई पड़ता। अगर मायके का सम्बन्ध स्त्रियों के अधिकार भाव, बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा दूसरा मायका था और इतना ही नहीं, राकेश के लिये असली ससुराल और सोनसी के लिये ननिहाल भी।

मैंने राजेन्द्रजी से एक बार कहा था की आपके कथित स्त्री विमर्श और आपके निजी जीवन के बीच एक लंबी खाई दिखती है। जिन अंतर्विरोधों का जिक्र आप दूसरे लेखकों के बारे में करते रहे हैं क्या आप खुद भी उनके शिकार नहीं? उन्होने हमेशा की तरह हंसते हुये ही जवाब दिया था- "स्त्री विमर्श को लेकर मैं जो कुछ भी सोचता हूँ, व्यवहार में भी ठीक वही उतार पाऊँ ऐसा हर समय संभव नहीं हो पाता। हां, मैं चाहता हूँ की वैसा हो। मैं अपने इस अंतर्विरोध से संतुष्ट हूँ ऐसा नहीं है। मैं बार-बार खुद को संशोधित-परिवर्धित करने की मानसिक प्रक्रिया से गुजरता हूं। जिसे तुम सिर्फ स्त्री विमर्श के संदर्भ में देख रही हो वह मेरे लिए अपने आप को पुन: संयोजित करने का प्रशिक्षण भी है। मैं जो हूँ, और जो हो सकता हूँ या कि होना चाहता हूँ उस बीच की खाई को हमेशा कम करने की कोशिश करता हूँ ।" ...और मैंने उनके व्यवहार में भी यह देखा भी था।

मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं उस वक़्त चुप रही, मैंने इसका प्रतिवाद नहीं किया... मुझे यह कहना चाहिए था कि हम उनके साथ बहुत महफूज थे, उतने जितने कि यह सबकुछ लिखने-कहने वाले लोगो के साथ नहीं हो सकते थे

यह मेरी ‘उलटबांसी’ कहानी से जुड़ा प्रकरण है। पहली दृष्टि में तो राजेन्द्र जी ने इसे बकवास करार दिया... बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन मिल जायेगा उसे?..

वह बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा है. और गर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में, तो फिर औरत को क्यों नहीं?..

होने को तो कुछ भी हो सकता है... वह कौन है.. कहां मिला, कैसे मिला कुछ भी नहीं...।

मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती.. कहानी मां और बेटी के बदलते संबंधों की है...किसी तीसरे पक्ष की नहीं। सो उसके होने –न –होने से कोई फर्क नहीं पड़ता । मैंने तर्क दिया था,  अपूर्वा के भीतर की स्त्री अपनी मां के निर्णय में उसके साथ है. लेकिन उसके भीतर की बेटी अपने पिता की जगह पर कैसे किसी और को देख कर सहज रह सकती है। इसलिये बेहतर है वह अपनी मां के नये पति के बारे में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाये.

राजेन्द्र जी ने दो – चार  दिनों बाद मुझसे पूछा था, तेरी उस कहानी कहानी का क्या हुआ?

टाईप हो रही है ।

फिर ?

फिर... दूँगी कहीं ...

पहले मुझे पढ़ने के लिए देना ।

लेकिन आप तो पढ़ चुके है...

मैं  फिर से पढ़ूँगा, कोई दिक्कत?

नहीं...

और इस बार उन्हें यह कहानी पसंद आ गई थी। उनके भीतर बसे आदिम पुरुष  के लिए भले ही एक माँ का उस उम्र  में लिया गया पुनर्विवाह का निर्णय अग्राह्य रहा हो पर उन्होंने अपने भीतर के संस्कारों और अंतर्विरोधों से लड़ते हुए एक स्त्री के पक्ष, तर्क और अनुभूतियों को समझने की चेष्टा की।

मुझे अब लगता है की `होना/सोना...’ को  भी उस भाषा-शैली में लिखने के लिए सबसे पहली लड़ाई उन्हें खुद से ही लडनी पड़ी होगी। वह लेख एक तरह से खुद को खोजने, चीन्हने की प्रक्रिया का ही एक अहम हिस्सा था

अपने भीतर के अंतर्विरोधों, आदिम पुरुष की आंतरिक बनावट और उसकी निर्मम मर्दानी भाषा-सोच की शिनाख्त। तब इस लेख की भाषा-शैली और कहन के लहजे पर भी बहुत सवाल उठे थे। पर शायद ही वह कोई स्त्री होगी जो कह सके कि उसने इस भाषा, ऐसी दृष्टि को कभी नहीं सुना-सहा; उनसे वाकिफ नहीं हुई। भीतर और बाहर के द्वंद्व से लड़-जूझकर आग को आग और पानी को पानी कहने का उनका यही अंदाज़ उन्हें भीड़ में अलग करता था।

कुछ भी नया करने, सीखने-सीखने  के लिए  वो हमेशा तत्पर होते थे।चाहे मुझे या मुक्ता को प्रूफ देखना सिखाने की कोशिश करना हो या फिर बलवंत[कौर] से खुद कम्पयूटर चलाना। प्रूफ देखने में मुझे हमेशा से ऊब होती है। तब तो और भी होती थी। वही हमेशा की कहानी में डूब जाने, उसके साथ बह ल्रेने की आदत। मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि किसी रचना से ऐसे तटस्थ होकर कैसे गुजरा जा सकता है। मैं उनसे भी कहती मुझसे नहीं होता यह सब। बहुत बोरिंग लगता है। तो कहते - कल को जब तेरीं खुद की किताबें आएंगी फिर... शायद वो हमें आगामी दिनों के लिए, तैयार कर रहे थे। संघर्ष के उन दिनों में किसी भी तरह हमें अपने पैरों पर खड़े  देखना चाहते थे और इसके लिए वो हरसंभव यत्त्न भी करते थे।

उनपर यह इल्ज़ाम लग सकता है या कि लगता भी रहा है कि उनके प्रेम और अनुकंपा की अधिकारी हम लड़कियां ही रही हैं, यह अगर पूर्ण रूप से गलत नहीं तो सही भी नहीं है। सिर्फ हम लड़कियाँ ही नहीं उनके प्रिय पात्रों की इस शृंखला में हरिनारायण, गौरीनाथ ,हरेप्रकाश उपाध्याय, अजय नावरिया, विवेक मिश्र और भरत तिवारी से लेकर नए–पुराने  लेखकों की एक लंबी सूची बन सकती है।

मैंने अपने सामने उनके साथ जिन लोगों के रिश्तों को पनपते देखा वे हैं –गीता दी [गीतश्री] जयंती [रंगनाथन] कमलेश जैन, सोनी सिंह, शीबा असलम फहमी और असीमा [भट्ट] आदि...  मैत्रेयी जी का संबंध तो खैर पुराना ठहरा... राजेंद्र जी लोगों पर भरोसा बहुत जल्दी कर लेते थे। बच्चो की सी मासूमियत और सरल निश्छलता  के साथ... यहाँ उनकी तर्कबुद्धि, विवेचनशक्ति किसी से उनका कोई मतलब नहीं था। वे कल के आए किसी पर उतना ही भरोसा कर सकते थे जितना कि बरसों के किसी पुराने मित्र पर इस कारण उन्हे झेलना भी बहुत पड़ा। जहां उनके इस लगाव के कारण उनके अंध समर्थकों कि कमी नहीं थी, वहीं ऐसे लोगों कि भी नहीं जो तनिक से मतभेद और अपने छोटे–छोटे स्वार्थों कि पूर्ति होते न देख उनसे दूर जा खड़े होते थे। कहने कि बात नहीं कि उनके इस हद तक टूटने और कुछ हदतक उनकी मृत्यु के कारण भी ऐसे ही संबंध रहे। उन्हें यह एहसास था कि वो अकेले पड़ते जा रहे है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनके लिए कही जानेवाली अभद्र और अशालीन बातें... उनके आसपास कभी भी होने वाली हर महिला से उनके संबंध जोड़कर देखे जा रहे थे, यह भी कहा जा रहा था कि उनके आसपास की औरतें सुरक्षित नहीं। मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं उस वक़्त चुप रही, मैंने इसका प्रतिवाद नहीं किया... मुझे यह कहना चाहिए था कि हम उनके साथ बहुत महफूज थे, उतने जितने कि यह सबकुछ लिखने-कहने वाले लोगो के साथ नहीं हो सकते थे। और यह सिर्फ मेरा अनुभव नहीं इसकी तसदीक अर्चना जी, वीणा उनियाल से लेकर बलवंत और उपर्युक्त बहुत से लोगो से हो सकती है... अगर लगाव –दुराव के कुछ गिने –चुने संबंधो की बात छोड़ दें तो...

इसी संबंध में मुझे एक वाकया याद आ रहा है- हंस के 2003-04 के किसी अंक में कृष्णा अग्निहोत्री की एक आत्मकथात्मक कहानी आई थी- ‘ये क्या जगह है दोस्तों’। उस कहानी में उन्होने सिर्फ पत्रों के द्वारा ही किसी व्यक्ति से अपने आत्मिक लगाव और फिर उसके रूक्ष व्यवहार से अपने आहात होने की मार्मिक वेदना को बड़ी सरलता और सहजता से लिखा था। पत्रिका के उसी अंक में मेरी कहानी ‘भाय’ भी आई थी। मुझे उनकी कहानी पढ़ते ही उस व्यक्ति की पहचानने में तनिक भी देर नहीं हुई, कारण कि ठीक-ठीक वही बातें और उसी तरह के पत्र एक जनाब मुझे भी लिखते रहे थे। मुझे उनकी उनकी मंशा साफ समझ में आती थी। मैंने एक दिन राजेंद्र जी से कहा कि जब मुझ जैसी बेवकूफ लड़की को भी उन सज्जन कि हरकतें समझ मे आ रही थी तो कृष्णा जी तो अनुभवी ठहरीं। उन्हे क्यो नहीं समझ में आया कि ... तो राजेंद्र जी ने कहा था कि तुम इस बात को नहीं समझ पाओगी, तुम्हारे साथ राकेश है। परिवार है। अभी तुमलोग... पर जब आदमी की उम्र होने लगती है, जब वह अकेला हो चलता है तब उम्मीद और प्यार के हरेक झूठे-सच्चे तन्तु को भी सम्भाल कर रखना चाहता है। उसी में उलझकर थोड़ा और जी लेना भी...अभी तुम्हें यह सबकुछ समझ मे नहीं आएगा...। पर अब शायद मैं समझ रही हूँ... लोग चाहे भले ही उनसे अपना हित साधने के लिए जुड़ते हो पर उन्होने उन सबको अपना माना...

विद्यानिधि, मैं, संगीता, बलवंत और बाद में गीता दी ने भी उनके लेखों के संकलन का काम किया है। मैं, संगीता, मुक्ता हम सब अपने पीछे अपना बहुत कुछ छोड़ आए थे और दिल्ली में हमारे लिए रिश्ते और घर का मतलब सिर्फ राजेन्द्रजी ही थे। यूं तो राजेंद्र जी मुक्ता को मज़ाक में भाभीजी कहते थे पर बात एक रक्षाबंधन की है मुक्ता बहुत रो रही थी तो राजेंद्र जी ने कहा – ‘इसमें रोने वाली कौन सी बात है? तू यहाँ आ और मुझे राखी बांध दे।` वे हमारे लिए कल्पवृक्ष की तरह थे, हम सब ने उनमें जो देखा, जो खोजा वे हमारे लिए वही थे। वे अपने लिये तो जैसे थे ही नहीं। राजेश [रंजन] की जनसत्ता की नौकरी छूटने के बाद संगीता के लिए अपने पास कुछ काम देखना हो या ऐसी कोई और बात, वे ये सब ऐसे करते थे जैसे हमें नहीं उन्हें हमारी जरूरत हो। मैंने मुक्ता और मनोज को अपनी छोटी-छोटी शिकायतें उनसे करते देखा है- मसलन मुझे यह सिगरेट नहीं पीने देती। सारे खुले पैसे जेब से निकल लेती है... आदि-आदि।  मैं भी अपनी सारी शिकायतें लेकर वहीं पहुँचती थी। अपनी आर्चीज़ की नौकरी के वक़्त किसी न किसी बहाने आधे दिन की छुट्टी लेकर शनिवार को भागकर नारायणा से दरियागंज, 2/36 अंसारी रोड ; हंस के दफ्तर उनसे मिलने के लिए पहुँचना... यूं भी हमारी  गृहस्थी के वे नए-नए दिन थे और हमें भी किसी फ्रेंड, फिलौस्फर, गाइड कि जरूरत थी और कहने कि बात नहीं कि...

उन दिनों उनके लंचबॉक्स मे आलू की एक सब्जी जरूर होती थी पर इसके साथ-साथ जो दूसरी बात जरूर होती वह यह कि हंस के दफ्तर में उन दिनों हर आने-जानेवाले से मेरे आलू प्रेम की चर्चा। अर्चना जी ने उनदिनों अपने लिखे एक लेख `तोते कि जान` मे इसका जिक्र भी किया है। हमसब  को यह गुमान था कि राजेंद्र जी हमसे बहुत स्नेह करते हैं और हमें ही नहीं उनसे मिलने वाले हरेक इंसान को यह गुमान होता होगा। उनदिनों मैं उनसे कहा करती थी कि `लड़की जिसने इन्जन ड्राइवर से प्यार किया `[ई. हरिहरन की एक कहानी जिसका हिन्दी अनुवाद उनदिनों हंस मे आया था] की लड़की मैं हूँ और पादरी वो। सहजीवन के उन्हीं दिनों में जब किन्ही कारणवश मैं और राकेश कुछ दिन अलग रहने का निर्णय लेना चाहते थे और मेरे फ्रीलान्सर होने की वजह से मुझे वर्किंग वुमेन हॉस्टल मिलने में भी परेशानी थी और उसका खर्च वहन कर पाने में भी, तब राजेंद्र जी ने यह सुझाव दिया था कि मैं मन्नू जी के साथ रह जाऊ और वो जो भी डिक्टेट करें मैं लिख दिया करूँ। मन्नू जी की आँखों मे उन दिनों परेशानी थी, उनकी आत्मकथा का एक खंड उन्हीं दिनों छपा था और काफी चर्चित भी हुआ था। हालांकि यह संभव नहीं हो सका था पर मन्नू जी से मिलने की मेरी हार्दिक ईच्छा इसी कारण पूरी हो सकी थी।  राजेंद्र जी सबके लिया कितना सोचते थे यह भी उस दिन समझ सकी थीं ।

पाखी के विशेषांक मे उनपर लिखे गए लेख को लेकर मैं सहमी हुई थी, पता नहीं वो इसे किस तरह लें। कारण कि अपनी अपनी छोटी–छोटी शिकायतें, अपने छोटे –छोटे दुख जो कि कभी न कभी हर संबंध में आते ही आते है मैंने उसमें सब को दर्ज कर डाला था। पर उसके बाद जब मैं अपने पहले उपन्यास के लोकार्पण के समय उनसे मिली तो वे उसी पुराने उत्साह और गर्मजोशी के साथ मिले। हमें हमेशा की तरह घर पर भी बुलाया। खाना बनवाकर रखा - गरम-गरम आलू की सब्जी और पूरियाँ। मुझे हाल में छपी कहानी ‘बावड़ी’ के लिए चेक दिया और सोनसी को चौकलेट और पेन – इससे नानाजी को चिट्ठी लिखना। उसकी कवितायें भी सुनी और उसी प्यार से तंबाकू न लेने की उसकी हिदायतें भी। तब यह कहाँ पता था की यह हमारी आखिरी मुलाक़ात है ... 

मेरी ज़िंदगी का वह दौर बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा था. निश्चित आय का स्रोत नहीं. हां लिखने और छपने के लिये जगहें थी, और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो रहने-खाने की दिक्कत न हो. पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे. लेकिन उस पूरे समय राजेन्द्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगातार शामिल रखा जिससे मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही. हिन्दी अकादमी के उपर्युक्त आयोजन के अलावा राजेन्द्र जी के साक्षात्कार, पत्रों और लेखों की किताबों का संयोजन-संपादन उसी समयावधि की उपलब्धियां हैं.

और सिर्फ मैं ही नहीं, मेरी जानकारी में ऐसी मदद उन्होंने कई लोगों की थी। वह मटियानी जी की कि अन्तिम कहानी थी जो हंस में छपी थी। नाम अभी मेरी स्मृति मे नहीं है। पर उसके छपने की भी एक अलग कहानी है । मटियानी जी काफी दिनों से अस्वस्थ थे, यह बात पूरी हिन्दी-पट्टी को पता था। न उनकी दिमागी हालत ठीक थी न आर्थिक स्थिति। सिर में अनवरत दर्द रहने की शिकायत उन्हें उन दिनों लगातार रहती थी। ऐसे में कही जाते वक़्त राजेंद्र जी रास्ता बदलकर उनसे मिलने चले गए थे और उन्हें यह कहकर कुछ रुपये, अगर मुझे ठीक याद है तो शायद 10 हजार; थमाये थे कि यह तुम्हारी कहानी का अग्रिम पारिश्रमिक है। तुम मुझे जल्दी से अपनी कहानी लिखकर भेजो... यह वही कहानी थी। यह सारा वाकया मुझे कहानी के साथ आई मटियानी जी की चिट्ठी से ही मालूम हुआ था जिसमें उन्होने राजेंद्र जी के इस आकस्मिक आगमन और अचंभित कर देने वाले स्वभाव की चर्चा काफी गदगद होकर की थी। चूकि उन दिनों चिट्ठियों के संग्रह पर काम करने के कारण चिठ्ठिया मैं ही  संभाल रही थी इसलिए यह वाकया ज्यों का त्यों याद है...

मेरी शुरुआती कहानियां वे यह कहकर लौटाते रहे कि `इसमें तू कहाँ है’।  उनके संकेत शायद मैं नहीं समझ पा रही थी। तब बाद में उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि `तू अपने अनुभव लिखने से क्यों हिचक रही है? परिवार, समाज और आसपास की बातें तथा खुद अपने भीतर के द्वंद्व जैसे विषयों पर हमारे यहां कहानियाँ बहुत कम है।‘ [उस समय भी मुझे लगा कि जैसे पापा ही मुझसे यह कह रहे हैं। यथार्थ के प्रति पापा का वह आग्रह भी मुझे स्मृत था; जिसके कारण उन्होने हम बच्चों को परियों, जादूगरनिओ की कहानी से दूर रखकर यथार्थवादी कहानियों से जोड़ा था। शायद उन्हें भान था कि हमें अपनी जिंदगी कि लड़ाइयाँ अकेले अपने दम पर लड़नी है।] उनका इशारा मेरे सहजीवन की तरफ था। यह उनके कहे का ही नतीजा था कि मैं अपने भीतर के भय से जूझकर `मेरी नाप के कपड़े’, `भय’ और `आशियाना’ लिख सकी। मैं लड़ सकी इस भय से कि मैं पहचान ली जाऊँगी। यदि उन्होने वो कहानियाँ लौटाई न होती तो पता नहीं कब मैं अपने इस भय से मुक्त हो पाती। चार वर्षों के सहजीवन के बाद जब मैंने और राकेश ने शादी का निर्णय लिया तो राजेन्द्रजी ने मुझे यह कहा था कि `अच्छी तरह सोच विचार कर निर्णय लेना। इसलिए तो बिलकुल भी नहीं कि चार साल तक साथ रहने के बाद अलग हुई तो लोग क्या कहेंगे?‘ शादी के ठीक दो दिन पहले उनकी यह बात जाहिर है मुझे अच्छी नहीं लगी थी. पर अब तटस्थ भाव से सोचूँ तो उसके निहितार्थ समझ में आते है हमारे लिए उनकी चिंता और प्यार भी। इसी तरह उनकी बहुत सी बातों को समझा जाना अभी बाकी है।

कभी राकेश कि छुट्टी पर बात जा अटकती, कभी सोनसी के स्कूल और क्लास पर... वे चाहे जन्मदिन हो या हंस की गोष्ठी  यही कहते रहे - तू आ जा, उस साले को छुट्टी नहीं है तो बेटी को लेकर आजा। आज दुख है तो सिर्फ यह है कि वे बार-बार कहते रहे पर मैं उनसे मिलने नहीं जा सकी। पूरे डेढ़ साल। इतने दिन तो कभी नहीं बीते थे उनसे मिले बगैर। और फिर एक दिन ... अब मेरे जन्मदिन पर सुबह-सुबह उनका फोन कभी नहीं आएगा। अब राकेश से हुई हर झूठी–सच्ची लड़ाई के बाद कभी नहीं कह सकूँगी कि मैं दिल्ली जा रही हूँ... दिल्ली जाने और उनसे मिलने की वह बेचैनी भी अब कभी नहीं होगी। उनके जाने के साथ जैसे भीतर बहुत कुछ मरा है... टूटा है किरिच-किरिच। मैं पोली हो गई हूँ जैसे ....


कविता राकेश
एन. एच. 3/ सी-76, एन. टी. पी. सी. विंद्याचल, पोस्ट - विंद्यनगर, सिंगरौली, म. प्र.- 486885 
फोन 07509977020  

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