सुदर्शन प्रियदर्शिनी की हिंदी कहानी 'मृगतृष्णा' Mrigtrishna- Sudarshan 'Priyadarshini' [Hindi Kahani]

हाँ कहानी को बीच में तोड़ कर एक बात कहता हूँ कि कहीं उसी छवि की जीती जागती परिछाई थी वह। उस समय मेरी उम्र कोई तेरह - चौदह साल की रही होगी। मेरी अल्हड़ आँखों ने उसे बस एक कौतुक से देखा होगा और वह कौतुक आज तक कहीं दुबका पड़ा है। 

मृगतृष्णा 

सुदर्शन प्रियदर्शिनी


रोज रोज इस बेंच पर बैठ कर क्या करता हूँ … क्या सोचता हूँ … समझ में नही आता। मस्तिष्क की शिरांयें शाम होते -होते भन्ना जाती हैं। क्या मैं पश्चाताप कर रहा हूँ, नही बिल्कुल नही। क्या मैं ग्लानि के बोध से उबरना चाहता हूँ ! शायद नहीं शायद हाँ. ग्लानि मुझे है लेकिन इस ग्लानि में पाप-बोध लेशमात्र भी नहीं है बल्कि एक पश्चाताप है कि मैं जो कुछ भी कर सकता था - कर नही सका . 

 अमेरिका जैसे देश में जहाँ कोई लक्ष्मण रेखा नही, कोई चरित्र के मानदंड नही, सभी कुछ कर सकता था, पर नही कर सका, शायद कर भी न सकता। क्यों कि हम हिंदुस्तानी जहाँ भी जाएँ अपनी बेगैरत संस्कृति की पोटली साथ ढोये चलते हैं। यही नही, हमारी गोरिल्ला नीति भी हमारे साथ-साथ चलती है, उठती है, बैठती है। इस के तहत हम करते सब कुछ हैं लेकिन लुक-छिप कर। यहाँ जो भी आया, उसी दिन उस समय में जड़ हो गया। उस के संस्कार, उस की अपेक्षाएं ( केवल ) अपेक्षाएं उसी दिन में बंद हो कर रह गई। आज जो मैं डींगे मार रहा हूँ कि यह कर सकता था, वह कर सकता था - यह मेरी ढीट सोच है केवल। करता तो तब न जब वह मुझे मिलती। वह तो कभी मिली ही नही। 

 हिंदुस्तान भी आज छलाँगें लगाना सीख गया है - देखा देखी। अँधा- धुंध नकल की परेड में अपनी सारी सीमाएं (बाड़ियां ) तोड़ - फोड़ कर एक अंधे सांड की तरह बेनूर किसी दौड़ में दौड़ता चला जा रहा है। उसी के पैरों के तले रौंदी जा रही है उस की अपनी बेटी -बहन - माँ - पत्नी। पर उसे दिखाई ही नही देता। धृतराष्ट्र की गद्दी पर बैठा विनाशक नीतियां चल रहा है। 

 आज की लड़कियों को ही देख लो। क्लब, स्ट्रैप्लेस, बैकलेस - ब्यॉय कट ,फ़्रंटलेस, सेक्स -सहवास जैसे शब्द लड़कियों के शब्दकोशों में वर्जित थे लेकिन आज यही शब्द शब्दकोश बनाते हैं। कुछ बातें हाई सोसाइटी के चोंचले हुआ करती थी और उन्हें आम समाज हिकारत की दृष्टि से देखता था - पर आज वह आधुनिकता है, फैशन है। समय के साथ चलने का परमिट है। 

 मैं स्वयं क्या कम हूँ। मैं क्यों सफाई दे रहा हूँ, पर आप ही बताएं - खुली थाली में षढ़व्यंजन परोसे मिले तो किसे भूख नही लगती ,या किस की भूख नही चमकती ! चलिये, छोड़िये मैं मुद्दे से हटना नही चाहता. कहने का तात्पर्य यह है की सब कुछ करते हुए भी हम बेजा अपने आप को कठघरों में बंद रख कर - जिंदगी के हसीन लम्हों को खिड़की के बाहर प्याज के छिलकों की तरह फैंकते रहते हैं। 

 मालूम नही वह आज कहाँ है, कैसी है। सुना था कि बच्चों को जन्म देने के बाद वैसी ही भौथर - भुतथड़ हो गई है जैसी पहले आम लड़कियां बच्चों को जन्म देने के बाद हो जाया करती थी। मेरी आँखों के सामने रहती तो मैं कभी उसे ऐसा नही होने देता। टोक - टोक कर यहां की लड़कियों की तरह उसे जिम भिजवा - भिजवा कर उस के शरीर के सारे मोड़ - उभार दुरुस्त करवाता रहता। पता नही कैसा होगा उस का पति जिस ने उस के सारे स्वर्गीय सौंदर्य को इस भोथरेपन से ढकने दिया होगा। पर हो सकता है वह स्वयं जानबूझ कर ऐसा करती हो। अपने आप से या मुझ से बदला लेने के लिए। आखिरकार - उस के इस हश्र का आध्यन्त मैं अकेला ही तो जिम्मेवार हूँ. मैंने ही उसे धकेला था इस भट्टी में। हम अपनी भट्टी आप खोदे और उस में गिरें - मरें - तड़फे तो शिकवा नही रहता। पर दूसरे द्वारा किये गए ऐसे अपराध को हम कोस कोस कर अनजाने में अपने आप को ही सजा देते रहते हैं। 

 अब जब उस को एक बार फिर देख सकने की तमन्ना लिए विदेश आ ही गया हूँ तो नजरिया भी पशिचिमी होता जा रहा है। इस नई दृष्टि से सोचता हूँ तो लगता है मैं गलत नही था। यहां तो लड़कियां स्वयं बूढ़ों से शादी करती हैं - उन के पैसे के लिए. बूढें स्वयं आगे बढ़ते है कि एक बार फिर वे अपनी बूढी हड्डियों में जोश महसूस कर सकें। किसी डाली को मरोड़ कर उस सुख को पा सके, जो उन मे से निचुड़ गया है। अपने आप को दिलासा दे सकें कि अभी भी उन के अंदर दम है। बुढ़ापें को दहलीज के बाहर धकियाते रहने का अच्छा ढंग है यह। मैं तो तब केवल चालीस के आसपास था, यह बात और है कि वह सेकण्ड ईयर की १९-२० साल की दहलीज के अंदर - बाहर फुदक रही - चुलबुल, उदंड, गोरी - चिट्टि गुड़िया थी - या चिड़िया थी। पर उस समय भी कहीं कंधों पर एक विवेक भरा दिमाग ढोये रहने वाली लड़की थी। 

 मैं जिस कालिज के आफिस में क्लर्क था, वहां वह पढ़ती थी। हम दोनों के बीच उम्र का इतना अंतराल था - मैं मानता हूँ, किन्तु में अपनी सारी भावनाओं को, उस के प्रति उठी बैचेनी को अपने अंदर सांकल लगा कर नही रख सकता था। जब कभी मेरे मुंह से कोई बेजा सी बात निकल जाती तो वह भौच्चक सी होकर मेरी और एक प्रश्नाकुल दृष्टि से ताकने लगती - मैं तुरंत सम्भल जाता। एक क्षण में उस का बाप बन जाता। नही बच्चे... ऐसा नही करते... ऐसा नही सोचते। और उसी लाघव में, में उसे अपने साथ सटा लेता। इसी तरह की अहिंसात्मक हथफेरियां मुझे रास आती रही। मेरा काम होता रहा। वह शायद अपने आप को विश्वास दिला कर कहती होगी --नहीं - नहीं, वह ऐसा क्यों सोच रही है। वही गलत है और मुझे उम्र का लाघव देकर छोड़ देती होगी। 

 वह नही जानती थी और तब में भी नही जानता था, वह मशहूर कहावत कि मैन गैट नॉटी एट फोर्टी ' चालीस साल में आदमी असली चंचल होता है। मेरा तो वह नटखट होने का दौर था। मुझे क्या मालूम था कि मेरा नटखट होना स्वाभाविक है। देखा जाय तो जिंदगी शुरू ही चालीस के बाद होती है। पहले तो आदमी छुट्टे सांड की तरह इधर - उधर खेत -खलियान में मुहं मारता घूमता है, उसे मालूम नही होता कि कहाँ किस मेड़ को लांघना है... चढ़ना है - या नही। बस एक धुन होती है सब कुछ खदेड़ देने की। पर चालीस के बाद तो वह घुन्ना हो जाता है। अपनी हर चाल घाघ की तरह नाम तोल कर चलता है। पैताना बिठा कर अपने शिकार पर पीछे से और बड़ी संजीदगी से वार करता है। अपने शिकार को मार कर भी बेदाग़ छूट जाता है। 

 आज सोचता हूँ तो समझ में आता है कि मेरी तो वह चालीस वाली ग्रहदशा चल रही थी, फिर मैंने क्यों नही पांसे फेंके। इस का पश्चतावा है मुझे। आज तक मेरी लावारिस हवसें उस के आसपास लपलपाती रही हैं। मेरी मदांध हथफेरियां न जाने उसे कहाँ - कहाँ गोदती रहीं है... जिन्हें शायद वह कभी जान नही पाई। 

 अरे ! यह बताना तो मैं भूल ही गया कि वह मुझ जैसे दुर्वासा ऋषि के अभिशाप की शिकार कैसे बनी। 

 इस से पहले कि मैं उस से मिलने का किस्सा सुनाऊं - मैं आप की एक भ्रांति दूर कर देना चाहता हूँ। वह यह कि जो हम आज तक मानते आये हैं कि सुंदर चेहरा - मोहरा ही आदमी को ले डूबता है, नही - बिल्कुल नही। पूर्णतया गलत धारणा है। चेहरे का कोई दोष नही होता। रंग कितना भी उजला हो। नयन नक्श कितने ही तराशे हुए हों - वह सब मिलकर भी कुछ नही कर सकते, जो ये दो छलकते घड़े, ये झिलमिल करती झील सी आँखें कर जाती हैं... इन के शिकार हुये तो बस - मरता पानी भी न मांगे। गया गर्त में। हुआ बेड़ा- गरक ! सारा संसार इसी की लपेट में लिपटा हुआ है। आज जो सारी दुनियां की जनसंख्या की समस्या है, अवैध यौन - संबंधों का रोना है, लावारिस कूड़े के टोकरे में पड़ी हिलती - डुलती नन्नी कोपलों की कहानी है वह सब इसी के तहत है। सारा संसार इसी में डूब - ऊब रहा है और डूबता रहेगा। इस का पार नही है। ऋषि, मुनि और देवता भी इस मार से नही बचे - तो में नाचीज़ क्या हूँ... य़ेह सारी तबाही उस की दो बिटर - बिटर मेरी ओर निरीह घायल कबूतर सी ताकती आँखों ने की जिन से मैं आज तक तबाह हूँ और उस को भी तबाह किया... एक म्यान में दो तलवारें कैसे टिकें। 

 महारानी कॉलिज की वार्षिक खेल प्रतियोगताएं चल रही थी। तरह - तरह की दौड़ौ में, खेलों में लगभग दो सौ छात्र - छात्रांएं हिस्सा के रहे थे। मेरी भी वहीँ ड्यूटी लगी हुई थी। चुनी हुई टीमों का तारतम्य मेरे पास था। मैं ही बारी - बारी छात्रों के नाम पुकार कर उन्हें मैदान में बुलाता था। रनिंग रेस में दौड़ते हुए वह किसी अन्य छात्र की सायास की गई अड़ंगी से गिर गई थी। उस का चेहरा और दांया घुटना बुरी तरह से छिल गए थे। खेल को बीच में रोक नही जा सकता था। खेल चलता रहा और हम दी तीन लोग भाग कर उसे उठाने के लिए दौड़ पड़े। 

 एक दुबली - पतली लावण्यमयी छाया - सी छवि मेरे साथ चिपकी चल रही थी। मैं उसे कंधे का सहारा देकर फ़स्टेड के कक्ष तक ले गया था। दूसरी ओर एन . सी . सी का मास्टर तिवारी था। उसे उठा कर, तिवारी ने मेज पर लिटा दिया था। तभी बाहर से बुलावा आया और वह भागता हुआ चला गया... फ़स्टेड की नर्स और मैंने उस की महरम पट्टी की। वह घबराई कम शर्मिंदा ज्यादा थी। एक तो रेस अधूरी छूटने पर, दूसरा चोट की पीड़ा के कारण... में उसे बच्चों की तरह दुलराता रहा, यों भी वह केवल एक लुभावनी बच्ची सी मेरे सामने थी। 

 मालूम नही क्यों और कब बीच - बीच में उस की उघड़ी टांगों की सुरमई रंगत और चेहरे पर लगी चोटों पर दवा लगते उस की सी -सी मुझे सिरहाने लगी थी। एक कंपकपी सी पैदा करने लगी थी। पर इस कंपकपी को मैं कोई नाम नही दे पाया था। इस की पहचान मुझे बहुत बाद में हुई। जब मेरा उस के घर आना - जाना नियमित होता गया। 

 धीरे - धीरे यह भाव मेरे लिए जान - लेवा होता गया। बताना चाहता हूँ कि इस से पहले मैं ऐसा बिल्कुल नही था जैसा की आज आप के सामने अभिव्यक्त हो रहा हूँ। सफाई नही दे रहा हूँ ,पर में निहायत ही एक दब्बू किस्म का चुपचाप रहने वाला व्यक्ति था। मेरी गंम्भीरता, मेरी चुप्पी की लोग खिल्ली उड़ाया करते थे... मेरे साथी कॉलिज की इन लड़कियों के साथ जो यदा - कदा आफिस में किसी न किसी काम के लिए आती रहती थी, चुहलबाजियां और अठखेलियां करते रहते थे। मुझे यह सब जरा भी नही भाता था। मैंने उन की ओर कभी आँख उठा कर भी नही देखा था। समय ही नही होता था। मेरे काम की व्यस्तता ही मुझे दबोचे रखती थी। उस पर मैं बड़ा इन्ट्रोवर्ड किस्म का घर - घुसना व्यक्ति था ( जो में आज भी हूँ ) लड़कियों को दोष दृष्टि से देखना मैं पाप समझता था। घर में पत्नी हैं बच्चें हैं इसी में मेरी सीमित सुखी दुनिया थी। बचपन से ही मुझे मेरे दोस्त बुद्धू और पोंगा पंडित कहते थे। अपनी जवानी में भी कभी व्यवहारिक और ज्यादा सामाजिक नही हो पाया। 
 बचपन में मेरा जीवन साधारण - सा असाधारण रहा। एक ही बड़ी घटना थी - पिता की मृत्यु ! वह भी बिल्कुल अप्रत्याशित और असामयिक। न हारी न बीमारी। स्कूल से बस्ता पटकता मस्ती में घर आ रहा था तो रास्ते में किसी ने दबोच कर गले लगा लिया और बेतहाशा रोने लगे। ये हमारे पड़ोसी थे घनश्याम चाचा ! वे रोते रहे और कहते रहे - " मैं अनाथ हो गया " मतलब नही जानता था तब में इस विनाशक शब्द का ! पर जल्दी ही कड़वा सच सामने आ गया। चलते - फिरते मेरे पिता लाश बन कर घर के आँगन में पड़े थे। मेरे लिए लाश शब्द भी अनचीन्हा था। कुछ देर समझ नही आया था कि पिता नंग - धड़ंग कैसे लेटे हैं बीच आँगन में। बाद में पता चला गुसलखाने से नहा कर लौटते हुए लड़खड़ाये और यहीं आँगन में ढेर हो गए - कभी न उठने के लिए। 

 वास्तव में अनाथ में उस दिन नही उस के बाद जब बड़े भाई के दुर्व्यवहार और उपेक्षाओं ने लताड़ा, तब हुआ । धीरे -धीरे दब्बू और कुंठित बन कर रह गया। मैं नितांत चुप्पा हो गया। माँ भी कुछ न कह पाती थी। यों माँ का बेहद प्यार और बहन - जीजा का अथाह निश्छल स्नेह भी मिला किन्तु एक बार का कुंठित मन फिर हरा नही हुआ। कभी खुल कर किसी से मन की बात नही कही। 

 हुआ यों कि माँ ननिहाल में किसी की अचानक मृत्यु पर चली गई। उन के जाने के बाद घर में किसी ने मेरी पूछताछ नही की। आज तक मैंने अपने ही घर में कभी भूख नही जताई थी। न कभी कोई इच्छा जाहिर की। उस का परिणाम यह रहा की घर में ही लगभग दो दिन तक भूखा रहा। मेरी इच्छाएं और भूख का समय माँ ही पहचानती थी। माँगना मुझे आता नही था। बिन मांगे, भाबी ने पूछा नही। 

 भाभी ने एक दिन शाम, लगभग झिंझोड़ कर कहा - क्या सारा दिन निठल्लों की तरह बैठे रहते हो। जाओ बाजार जाकर सामान ले आओ। मैंने चुपचाप झोला और पैसे पकड़े और सीधा बहन के पास पहुँच गया। मैं पहले भी एक बार यहाँ आ चुका था । इक्के वाले को पैसे देकर मैं वहां आसानी से पहुँच गया। दीदी ने मुझे भींच कर अपने स्नेह प्लावित बांहों में भर लिया। स्नेहातिरेक में मेरे भी आंसू भरपूर बह निकले। दीदी ने बहुत पुछा मेरे आने का कारण। पर मैं कुछ भी बता न सका । स्थिति के अंदाज में ही जीजा जी गांव जाकर मेरा सामान उठा लाये और तब से उन्हीं के निरीक्षण में मेरा सारा जीवन बीता। शिक्षा - दीक्षा, शादी - ब्याह सब कुछ। 

 एक और छोटी सी घटना है जिसे मैं बाद में या आज बहुत बड़ी घटना मानने लगा हूँ, क्यों कि अब जान गया हूँ कि छुटपन के पड़े निशान बहुत गहरे होते हैं जो उम्र भर नही छूटते। 
सुदर्शन प्रियदर्शिनी 
जन्म: लाहौर  अविभाजित पाकिस्तान (1942)
बचपन: शिमला
उच्च शिक्षा: चंदीगढ़
सम्प्रति: अमेरिका में १९८२ से
पुरूस्कार, सम्मान
महादेवी पुरूस्कार : हिंदी परिषद कनाडा
महानता पुरूस्कार : फेडरेशन ऑफ इंडिया ओहियो
गवर्नस मीडिया पुरुस्कार : ओहियो य़ू. एस .ऍ
शोध प्रबंध: आत्मकथात्मक शैली के हिंदी उपन्यासों का अध्ययन
हरियाणा कहानी  पुरूस्कार 2012
हिंदी चेतना एवं ढींगरा फैमिली फाउंडेशन - कहानी पुरूस्कार (१९१३)

प्रकाशित कृतियाँ
उपन्यास 
रेत के घर  (भावना प्रकाशन )
जलाक       (आधार शिला प्रकाशन)
सूरज नहीं उगेगा ( ओल्ड बुक उपलब्ध नही है )
न भेज्यो बिदेस  नमन प्रकाशन
अब के बिछुड़े
कहानी संग्रेह 
उत्तरायण  (नमन प्रकाशन)
शिखड़ी युग (अर्चना प्रकाशन)
बराह  (वाणी प्रकाशन)
यह युग रावण है   (अयन प्रकाशन)
मुझे बुद्ध नही  बनना  (अयन प्रकाशन)
अंग -संग
में कौन हाँ (चेतना प्रकाशन) - पंजाबी कविता  संग्रह
सम्पर्क:
सुदर्शन प्रियदर्शिनी
246 stratford drive
Broadview Hts. Ohio 44147
U.S.A
फोन: (440)717-1699
ईमेल: sudershenpriyadershini@yahoo.com

 जीजा जी के गांव का नाम था बोहरा - पश्चिम पाकिस्तान का कोई छोटा सा गाँव, जहाँ हम रहते थे। एक दिन दीदी की छोटी बेटी पिंकी को बहुत तेज बुखार आ गया। जीजा जी बाहर गए हुए थे। मैं स्कूल से आया बस्ता पटका तो देखा दीदी उदास बैठी है, चुपचाप पास बैठ गया। पिंकी के माथे पर हाथ फेरने लगा तभी दीदी ने रुआंसा चेहरा लिए कहा - जाओ जरा जाकर हकीम जी को घर बुला लायो या उन से इस के लिए दवा ले आयो। 
 मैं गांव की ऊबड़खाबड़ पगडंडियों पार कर एक घर में छोटी सी दूकान खोले हकीम मुराद - अली को लेने पहुंचा। हकीम जी छोटी - छोटी पुड़ियाँ बांध कर मरीजों को देते जा रहे थे और मैं एक कोने में जाकर हकीम जी के बुलावे के इन्तजार में बैठ गया। कोशिश कर रहा था कि कब हकीम जी मरीजों से छुट्टी पाएं और मेरी और देखें ताकि में उन से पिंकी के बुखार की बात कर उन्हें लिवा ले जाऊं। 

 मैं गुमसुम - चुपचाप बैठा रहा। मुझे चेत हुआ तब जब एक अल्हड़ सी लड़की ने मुझे झकझोरा - चल रोड़े खेलेंगे. मैंने उस के चेहरे की और देखा। वह चेहरा आज भी ज्यों का त्यों मेरी आँखों में अडोल बैठा है, मोटी - मोटी कजरारी, थोड़ी रतनारी अर्धोन्मीलित आँखें, छोटी तीखी फ्रेंच नाक, छोटे - छोटे कर्णफूलों से सुशोभित छोटे -छोटे खरग़ोशी कान, पहाड़ी तराई - सा उदीप्त माथा। ठोढी पर काला भूरा सा तिल और उभरे गालों का गुलाबीनुमा रंग। तब उस मूर्तिवत सौंदर्य - बखान की तमीज ही कहाँ थी। केवल एक भौचक दृष्टि थी और दूसरी और उस की अल्हड़ बुलाती हुई मनुहार। 

 आज ठीक से मीमांसा करूँ तो कहीं न कहीं बचपन की जिन छवियों को हम मन के किसी कोने में मूर्त कर लेते हैं, उन्हीं से उम्र भर बाकी छवियों का मिलान करते भटकते रहते हैं। कहीं मिलान हो तो भटकन ख़त्म हो। 
 बस यहाँ कहानी को बीच में तोड़ कर एक बात कहता हूँ कि कहीं उसी छवि की जीती जागती परिछाई थी वह। उस समय मेरी उम्र कोई तेरह - चौदह साल की रही होगी। मेरी अल्हड़ आँखों ने उसे बस एक कौतुक से देखा होगा और वह कौतुक आज तक कहीं दुबका पड़ा है। 

 हकीम जी अभी भी पूरी तरह से मरीजों से घिरे बैठे थे। पर मैं बरबस या परबस उस के साथ हो लिया। हम एक पेड़ के नीचे बैठ कर उस शाम रोड़े खेलते रहे। बीच - बीच में एक दूसरे को नज़र बचा कर देखते भी रहे। हिम्मत नही हुई कि पूछूं - तुम्हारा नाम क्या है। 

 बहुत बाद में उस का नाम पता चला। इतने युग बीत गए इस घटना को। फिर कभी हमीदा से मिलना नही हुआ। मिलने की कोई कोशिश भी नही हुई। जैसा कि मैंने बताया, मैं एक दब्बू और शर्मीला किस्म का प्राणी था। मेरी शादी हुई, पत्नी सुंदर मिली - कथित मापदंडों के अनुसार। पर हमीदा जैसी नही। मैं नौकरी भी करने लगा। फिर पार्टीशन हो गई। रोटी - बोटी के रिश्ते की जगह वहशी अलगाव। यह अदना सा आकर्षण इस उछाल में कहीं दूर दुबका पड़ा रह गया। 

 पर मन एक कोठरी है। उस में लगी हुई हर ईंट वहीं की वहीं रहती है। उस पर कितनी भी मोटी परतें पोतो, दूर अतल में उस की अपनी पहचान बनी रहती है जो सदैव अचल नींव के अंदर दबी रहती है। उस उद्दाम क्षण की स्मृति कहीं अंदर दबी रही। उम्र भर और आज तक। वह ऐसी स्मृति कि अंदर की तरफ मुड़े और एक बार देख लिया फिर पाट बंद कर दिया। रंग फीके पड़ते हैं पर छूटते नहीं। 

 आज सोचता हूँ तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि ऐसे लम्हे जीवन में कितने जरूरी हैं। ये शिलाजीत का काम करते हैं। हड्डियों में एक स्फुरण, एक जीने की लालसा पैदा करते हैं। घर की दाल में यहाँ - वहां का तड़का न लगे तो मुंह का जायका मर जाता है। यौवन में मस्त -भरपूर जवानी को देख कर कैसे अंग अंग फड़फड़ाने लगता है। जीने की इच्छा दोगुनी हो जाती है। इस में सोचिये हर्ज ही क्या है। अपने देश में तो मालूम नही किन्तु अडल्ट मूवीज़ देखने का और क्या उद्देश्य है। अपने आप को इस उम्र के दायरे से बाहर निकालने का एक प्रयास ही है। वह जब कभी मुझे एक गहरी दृष्टि से देखती तो मुझे अपना - आप एक दम नंगा दिखाई देता। जैसे बीच बाजार में किसी ने किसी की लोई उतार ली हो। मैं उस की इस दृष्टि से बचने के लिए खीसे निपोरता सा इधर - उधर जहरीले सांप की तरह अपने किसी बिल में घुसने का रास्ता टटोलने लगता। बहुत देर तक लगता रहता जैसे मेरे नंगे बदन को कोई छील, इस को परतों के अंदर से उलीच - उलीच कर बाहर निकालना चाहता है। 

 कभी - कभी रात में जब उस का ख्याल हावी हो जाता है तो साँस जैसे अंदर ही अंदर घुटने लगती है। करवटें बदलता हूँ - कभी सीधे, कभी दायें, कभी बाएं - कि साँस ठीक चलने लगे -- या नींद ठीक से आ जाये -- किन्तु उस समय लगता है कि सांसे जैसे मांसपेशियों में से घुट -घुट कर और कराह कर निकल रही है। 

 अब यहाँ आये भी दो वर्ष होने को आये। सब कुछ करता हूँ -- सारे दायित्व निभाता हूँ पर कहीं अंदर से खोखला और रीता -रीता महसूस करता हूँ। एक बेमानी सी प्रतिच्छाया मुझे आठों पहर दबोचे रखती है। कहीं एक भी झलक, कहीं एक भी सुराग मिल जाता तो कब का सकून पा लेता। उस के पिता ने जो पता और नंबर दिया वह सरासर गलत था। पति के प्रति उस का बेमन का समर्पण उसे कैसा लगता होगा ! यों मैं आज भी उस के अतरंग क्रिया -कल्लोल की चित्र - वृत्ति खींचने में लगा रहता हूँ। 

 पत्नी सुंदर है, कॉफी सुंदर। पर मेरे बचपन का कोई मायावी आकर्षण उसे कमतर कर देता है। उस पर यह अतृप्त आकांक्षा उसे और फीका कर देती है। कोई अनछुई भाग उसे अपने अंधकार में तिरोहित कर लेती है। वह हिरण की तृष्णा ( मृगतृष्णा ) है जो अपने अंदर उपस्थित गंध के होते भी उसे बाहर की और भगाती है। 

 ऐसा ही होता है जब कच्ची उम्र का कोई तिलस्मी चेहरा उम्र भर बाकी चेहरों पर कालिख पोतता रहता है। कहीं कटे हुए चाँद की तरह अधर में लटकता छोड़ जाता है। इसी कारण हम अपने - आप में अपने से कम से कमतर कर के हीन ग्रंथियों के शिकार होते जाते है। अपने अंदर के खालीपन को भरने के हित हम न जाने क्या - क्या खाली करते जाते हैं। 

 मेरी आँखों में बसे घाघ भेड़िये की ताक को वह अच्छी तरह समझने लगी थी। पर वह मेरी ताक से ज्यादा तेज तर्रार हिरणी थी, कुलांचे भर कर मेरे सामने ही मुझे मात देकर उस पर अपनी कुलच्छनी प्राण - घातक मुस्कान से मेरा चीरहरण कर बार -बार विजयी हो कर लौट जाती थी। 

 में बार बार घिघयाता रहा हूँ। सर पटकता रहा हूँ -- उस के आगे - पीछे, दायें - बाएं, परोक्ष - अपरोक्ष - पर उस ने कभी यह सांत्वना मुझे नही होने दी कि वह मेरी इन चोरबाजारियों को समझती है। सच कहता हूँ, लड़कियों जैसा चतुर - घुन्ना और कोई घाघ नही होता। वे उम्र भर कस्तूरी की तरह अपनी भावनाओं की कटोरी ढक कर रख छोड़ती हैं। उस तपिश में जल - जल कर भस्म हो जाएँ, पर साथ वाले को आहट तक नही देती। 

 बस एक बार वह मेरे सामने कच्ची पड़ी थी। गिड़गिड़ाने की हद तक। वह भी देखिये कैसे ! मेरी ही चिता पर घी डालने जैसा उपक्रम था वह। में नही मानता कि मन ही मन वह जानती नही थी। नारी एक आदम भू की सी संवेदना की मालिक है जिसे मीलों दूर से मानस गंध का आभास हो जाता है। वह एक नजर में आदमी को तिरछी या सीधी नजर का पैंतरा जान जाती है। 

 वह एक दिन मुझ से आकर बोली - अंकल, आप से एक बात कहना चाहती हूँ। मेरे अंदर का महासागर ठाठें मारने लगा। मैंने फौरन स्थिति का लाभ उठाया और झट अपनी बांह उस के गले की इर्द - गिर्द सांप सी लिपटा ली। वह उदास और अनमनी थी मैंने प्यार से पूछा - क्या बात है ? 

 अंकल आप मेरे पापा से एक बात कर सकते हैं ? 

 क्या ? 

 वह जहां मेरी शादी करना चाहते हैं, मैं वहां शादी नही करना चाहती। 

 पर क्यों ?

 मैं किसी और से प्यार करती हूँ और मैं उसी से शादी करना चाहती हूँ। 

 कौन है वह ! मैंने जैसे चिल्ला कर पूछा … 

 वह मैं बाद में बताउंगी, अभी तो आप बस मेरे पापा को किसी तरह मना लीजिये। वह आप की बात मान 
जाएंगे। 

 मैं बताना भूल ही गया कि आभा के आकर्षण की सीढ़ियां धीरे - धीरे मुझे उस के घर तक ले गई थीं। मैंने उस के घर में एक विश्वसनीय अंकल की सी घुसपैंठ कर ली थी। उस के पिता मुझे दोस्तों की तरह समझते थे। 
 आभा के इस अनुग्रह ने मुझे आगबबूला कर दिया। मैं अपने आप को बड़ी कठिनाई से संयमित कर पाया। आजकल के लड़कों के शोहदेपन और आवारगी को केंद्र बना कर उसे मैं कितनी देर तक फटकारता रहा। उस लड़के को गालियां देता रहा। आभा मेरा रवैया देख कर अवश्य भोच्चक थी। उस का उल्लसित चेहरा, उस की चंचल चितवन धीरे -धीरे किसी खोह में विलीन होती गई। उस के बाद वह हिरणियों - सी कुलांचे भरना भूल गई थी। 

 इधर उस के पिता उस के विवाह के लिए चिंतित थे और उधर मैं अपने बारे में। मैं आभा को अपनी आँखों से ओझल नही करना चाहता था और उस व्यक्ति के लिए तो बिलकुल नही जिसे वह चाहती थी। मेरी विकृत सोच कल्पना नहीं कर पाती थी - आभा का किसी अन्य के प्रति पूर्ण समर्पण। में मन ही मन उस की नोच - खसोट करता रहता था पर उसे किसी चाहने वाले को नही सौंप सकता था। उस के लिए मैंने उस के पिता की भरपूर सहायता की और उन्ही के चुने हुए लड़के के लिए हामी भरी। 

 आभा की आँखों में मैं अपदस्त तो हो गया था पर न जाने किस राक्षसी वृत्ति के आधीन था कि अंदर ही अंदर एक सकूँ सा मिल गया था। 

 आभा का विवाह हो गया। उस की हूक - भरी सिसकियाँ आज भी गाय के रंभाने जैसा आभास देती हैं। यह उस के और मेरे जीवन की सब से बड़ी ट्रेजडी थी। एकाध बार शादी के बाद उसे देखा तो वह एक मुरझाई पत्तों की डाली हो गई थी। वह फिर कभी हरी नही हुई। मुझ से तो वह आँख तक न मिलाती। में सोचता, मैंने अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार ली है। में अगर उसे मनचाहे लड़के को पाने में सहायता देता तो आज वह आधी मेरी होती। मुझ से अपना दुःख - सुख कहती, बातें करती। मैंने तो उस फुदकती चिड़िया के पंख ही काट डाले थे। इस से मेरा मानसिक संतुलन भी बिगड़ने लगा था। मैं हर क्षण इसी उहाँपोह में रहता कि कैसे उसे पकड़कर सामने बिठाऊँ कि उस का अंग- अंग चरमराकर मेरी झोली में आ गिरे। में भींच कर उस की हड्डियों का चूरा बना दूँ। मेरे अंदर का राक्षस बड़े से बड़ा होता गया। आज तक वह विकराल बेताल मुझे अंदर ही अंदर निगलता रहता है। मैं इसी मनःस्थिति से उबरने के लिए अमेरिका आ गया क्यों कि मुझे मालूम था कि वह अपने पति के साथ अमेरिका चली गई है। 

 मैं बहुत सालों तक पत्नी के भाई का आग्रह टालता रहा था और अंत में मैंने जाने का निर्णय लिया। मैं पहले अकेला ही जाऊँगा - इस बात पर पत्नी ने कोई उज्र नही किया। आभा के पिता से उस का पता लेकर मैं एक और ही दुनिया में फुदकने लगा। अंदर बैठा राक्षस जैसे तांडव नर्तन करने लगा। मेरा साला भी उसी शहर में था - संयोगवश, जिस में आभा रहती थी। 

 आज सोचता हूँ तो लगता है - इस तरह आवेग की बेतरतीबी से अपने ओर बढ़ने देने में उस का भी हाथ था। या यों कहो कि उस के अंदर बैठी उस कमजोर औरत का हाथ है जो उसे खुले आम यह स्वीकार करने से रोकती है कि कंही वह अंदर ही अंदर मुझ से आतंकित है। संशयों के घेरों में घिरी हुई वह अपने आप से और मुझ से बदला ले रही हैं, एक अनकही पीड़ा से गुजर रही है और उम्र भर गुजरती रहेगी। तब भी शायद मैं नही पश्चताउँगा और यही कहूँगा - तड़फे - अपने प्यार के बिना। वह इसी योग्य है - इसी योग्य। 

 वह मेरी घाघ नजर को पहचानती है, फिर भी अंकल के थप्पड़ से मेरे होश दुरुस्त करती रहती थी। जब से मैंने उसे उस लड़के के बारे में बुरा - भला कहा, मैंने उस की आँखों में अपने लिए हिकारत और घृणा ही देखी है। में जानता था, वह मुझे और मेरी नियत को अच्छी तरह से जानती है, पर न जानने का भरपूर नाटक करती है। मेरी पत्नी को मुहं भर -भर कर एंटी के बजाय भाभी कहती है। बच्चों के साथ भी छोटे बहन - भाइयों जैसा रिश्ता जोड़ती है। मैं देखता रहता उस के इस सायास नाटक को। में सांप की तरह फुतकारता सामने बैठा बिसूरता और अंदर ही अंदर डंक मारने को कुलबुलाता रहता। बस इसी भूल - भूलभुलैया में बीच का इतना समय चींटी की चाल सा सरका है। एक बार में उस के रूबरू होना चाहता हूँ। उस के क्षत - विक्षत चेहरे को, उस की उजड़ी हुई जिंदगी को देखना चाहता हूँ। अब जाकर मौका हाथ लगा ह. में गेंद की उछाल सा उछल रहा था। उमर की, अपने सफेद बालों की ,चेहरे की झुर्रियों की मुझे कोई शर्म नही रह गई थी। 

 अपनी यह साध पूरी करने के हित मैंने अपनी पत्नी के साथ मिल कर उस के लिए दहेज सरीखे कपड़े - गहने भी खरीदे। चाचा - ताऊ या उस के शब्दों में अंकल बनने का लाघव पास था। इस गरिमामयी फेन्स (चारदीवारी ) को लांघ कर कोई नही देख सकता था। शायद पति भी नही। मैं मन ही मन उसे नई दुल्हन सा सजा रहा था। उस का अंग - अंग जवानी से फड़कना देखना चाहता था। 

 मैंने यहां न्यूयार्क में आकर सारी फोन डायरेक्टरी छान मारी। इस शहर की न जाने कितनी काउन्टीस थी, और उतनी ही डायरेक्टरीज़। हर एरिया का अपना कोड। कहाँ- कहाँ ढूंढता उस का नाम । उस के पति का नाम मालूम था लेकिन किसी डायरेक्टरी में वह नाम नही मिला। जहाँ किसी मिलते - जुलते नाम पर फोन किया, ढेर सारी पशिचमी गालियां मिली। उस के पिता ने गलत पता क्यों दिया, समझ नही पाया। 

 एक दिन हार कर मैंने उस के पिता को चिठ्ठी लिखी। बहुत दिनों बाद उत्तर आया। उन के शब्द - शर्मा जी, आभा अब न्यूयार्क में नही है। वैभव को आस्ट्रेलिया में असाइनमेंट मिली है, अगले तीन सालों के लिए, बड़ा प्रोग्रेसिव लड़का है। वे लोग तीन महीने पहले ही वंहा से चले गए हैं। 

 मैंने तो अपना घर उजाड़ लिया था। अपनी बसी - बसाई जिंदगी में भूचाल खड़ा कर दिया था। इस उम्र में पश्चिम की इस आधारहीन सभ्यता में एक हो जाना मेरे लिए न सही, पर पत्नी के लिए अग्नि परीक्षा थी। यही नही, बच्चों का भी स्कूल और बाहरी वातावरण में एक हो जाने वाला संघर्ष मैं रोज देखता था। बेचारे दब्बू और हींन ग्रंथियों से ग्रस्त होते जा रहे थे। अब साले से किस मुहं से वापिस जाने की बात करता और मुहम्मद तुगलक की तरह राजधानियाँ बदलता घूमता। 

 पता नही ऊपर वाले की कलम कैसे चलती है। हमारी बनाई लकीरों को अपनी लौह - नीति से काटता - पीटता रहता है, क्यों उस ने मेरी जवानी पर यह अटकनी लगा दी थी। सारी उम्र की दौड़ पर अपनी अड़ंगी लगा कर मुझे लंगड़ा कर दिया था। आभा ! तुम कितनी धूर्त हो। तुम्हारी आँखों की तरेर, तुम्हारे मन का चोर मैं पहचानता हूँ। जरूर तुम्हें कोई दिवास्वप्न हुआ होगा और तुम ने जानबूझ कर ऐसा करने के लिये पति को उकसाया होगा। 

 मैं बदहवासी में सड़कों पर घूमता रहता था बेखबर ! विनोद ( अपने साले) के कहने पर मैंने गाड़ी चलानी सीखी, नौकरी भी करने लगा, परिवार को भी बुला लिया था। कभी - कभी घर के सारे काम जान बूझ कर बाहर घूमने के इरादे से, अपने सिर ले लेता। घंटों पार्क या मार्किट में इधर - उधर रखी बैंचों पर बैठा ट्रैफिक का आवागमन, लोगों के करतब, अमेरिका की रंगीन दुनिया को टुकटुक देखता रहता रहता... कहीं किसी अनजानी, मरी हुई आशा को मुट्ठी में दबा कर । इस दुनिया ने मेरी पुरानी दुनिया को भी धता बता दी थी। 

 तभी मैंने अचानक सड़क के पार एक हॉलमार्क की गिफ्ट की दुकान पर एक सिर किसी चीज पर झुका हुआ देखा। वह कोई कैलकुलेटर या कैश - रजिस्टर पर झुका हुआ था शायद। मेरे शरीर में एक अजीब सी विद्धुत - लहर दौड़ गई। 

 उस सिर पर जैसे समुन्द्र से उठने वाली भयानक गोल -गोल ,घूमती - सी लहरों के छल्ले उड़ने लगे थे। मैंने उस सिर के आस -पास गर्दन दांये - बांये घुमाई। सभी दिशाओं से, सभी कोणों से, उसे परखने की कोशिश की। वही - वही की वही । सुंदर काश्तकार की गढ़ी हुयी कांच की गुड़िया। स्कर्ट की चुन्नटों में लहराती सुडौल - तुरइयों सी टांगें. थोड़ा नीचे तक उघडा गला। यौवन की तराइयों का उतार - चढ़ाव। वही हाव - भाव - वही रंग... वही है - वही है 'मेरी आभा' और मैं बेतहाशा जैसे चिल्लाता सा सड़क के पार भागा। बीच का जमघट... भागती - रौंदती सड़क - उस पार का डैरी - क्वीन, बॉस्टन पीज़ा, कैसल ड्रेकुला, चलते - फिरते ब्लीच्ड काले, लैटिनो, चाइनीस, कैनेडियन,अमेरिकन, काली फैल्ट वाला एक गंजा ब्लीच्ड हब्शी... सारे गड़मड़ा गए थे और मेरा हाथ उठा हुआ था, सामने वाली दुकान की ओर, जिस के बोर्ड पर " ऑल यूं वांट " लिखा था। वह आभा थी - आभा, किसी ने मेरी तरफ नही देखा और में भीड़ की चपेट में धाराशाही होकर बीचोबीच गिरा पड़ा था। मेरी लाश होती हुई देह की ओर किसी का ध्यान नही था। मेरी आँखों में इस समय उत्तर रही थी - आभा के रूप की चिलकती धूप और लम्बी रस्सी के गले में पड़ी कुएं में उतरती मेरी मृगतृष्णा। 



एक टिप्पणी भेजें

4 टिप्पणियाँ