देखते ही देखते -तब और अब : निर्मला जैन | Time and Changes - Nirmala Jain

सबसे मार्मिक प्रसंग डॉ0 नामवर सिंह के एपेन्डिसाइटिस के ऑपरेशन का था। जब वे दिल्ली आकर ‘जनयुग’ के बाद राजकमल प्रकाशन के साहित्य-सलाहकार के रूप में कार्य कर रहे थे। भोजन के समय हमारे यहां होते तो हम सब साथ ही खाना खाते थे। एक दोपहर को खाने के बाद अचानक उन्हें अपेन्डिसाइटिस का अटैक हो गया।


जिन्होंने कई दशक पहले, तकनीकी विकास को ऐसी सहूलियत के रूप में देखा था, जिसके कारण लिखित साहित्य का अस्तित्व खतरे में पड़ने की पूरी संभावना पैदा हो रही थी। उनकी तमाम भविष्यवाणियां झूठी पड़ गयीं। रचनाएं बराबर प्रकाशित हो रही हैं, और होती रहेंगी। परिमाण में कमी की शिकायत की कोई गुँजाइश ही नहीं दे रही हैं समय की रचनाशीलता। शायद ही कभी पत्रिकाओं की संख्या में इतनी भरमार पहले कभी दिखाई पड़ी हो हिन्दी में।

निर्मला जैन Nirmala Jain

देखते ही देखते  (तब और अब) 

निर्मला जैन


तब यानी बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध। राजनीति और साहित्य की दुनिया का वह दौर जिसके बारे में नामवर सिंह ने ‘नेहरू युग’ और ‘अज्ञेय युग’ में समानान्तरता लक्ष्य की थी। 

जवाहरलाल नेहरू दरअसल ‘राजपुरुष’ ही नहीं ‘संस्कृति पुरुष’ भी थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का प्रभाव देश के औद्योगिक विकास पर ही नहीं, सांस्कृतिक गतिविधियों में भी दिखायी देता था। उन्हीं की पहल पर राजधानी दिल्ली में साहित्य, संगीत और ललित-तीनों अकादमियों की स्थापना हुई। साहित्य-अकादमी की शासी-परिषद की अध्यक्षता वे स्वयं करते थे। उसी दौर में लेखक बिरादरी के दद्दा कविवर मैथिलीशरण गुप्त राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। हरिवंशराय बच्चन विदेश मंत्रालय में लाए गए। उनके साथ ही बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का प्रवेश भी संसद मार्ग से दिल्ली के साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन में हो गया। 




जैनेन्द्रजी यहाँ पहले से ही विराजमान थे। उधर विश्वविद्यालय में   डॉ0 नगेन्द्र हिन्दी-विभाग की बागडोर सम्हाल चुके थे। साहित्यिक बिरादरी के अलावा, राजनीतिक हलकों में भी उनकी अच्छी आमद-रफ्त थी। किस्सा मशहूर था कि जब कई वर्ष विभाग के रीडर-अध्यक्ष रहने पर भी उनकी पदोन्नति प्रोफ़सर के रूप में नहीं हुई तो राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद ने विश्वविद्यालय के कुलपति को राष्ट्रपति भवन बुलाकर उनका ध्यान इस तरफ़ दिलाया। परिणाम स्वरूप चार वर्ष रीडर-अध्यक्ष रहने के बाद 1956 में उन्हें प्रोफेसर का पद मिला।
कविता का हो या गद्य-रचनाओं का, परिमाण में जितनी बहुतायत लक्षित की जा रही है, उसके अनुपात में गुणात्मकता में नहीं।
निर्मला जैन Nirmala Jain
निर्मला जैन
ए-20/17, डी.एल.ऍफ़. सिटी फेज़ - 1, गुडगाँव
उसी वर्ष मेरी नियुक्ति लड़कियों के उसी समय खुले मशहूर ‘लेडी श्रीराम कालिज’ में हुई थी। कालिज खुलने के पहले ही वर्ष में वहां साहित्यिक गतिविधियों की शुरुआत हो गयी। पहला आयोजन हुआ बच्चनजी के काव्यपाठ का । वे प्रिंसिपल श्रीमती होमाइ दस्तूर के परिचित थे। इस घटना की चर्चा मैं ‘नया ज्ञानोदय’ के अप्रैल-14 के अंक में ‘ज़माने में हम’ शीर्षक से प्रकाशित अपने ‘आत्मकथ्य’ में कर चुकी हूं। प्रासंगिक बात इतनी ही है कि उस दौर के वरिष्ठ रचनाकारों का आना मुख्यतः राजनीतिक गलियारों, सरकारी महकमों और पत्रकारिता के क्षेत्रों से हुआ, पर उनकी जन-सुलभता में कहीं कोई अवरोध या कमी लक्षित नहीं होती थी। 

शहर में युवतर रचनाकारों के प्रवेश का एक दूसरा मार्ग विश्वविद्यालय से जुड़े कालिजों के हिन्दी विभागों ने प्रशस्त किया। डॉ0 नगेन्द्र अपने समय के बड़े प्रतापी और प्रभावी अध्यक्षों में थे। दिल्ली देश की राजधानी सबके उन्मुखी भाव की नगरी, जाति-धर्म निरपेक्ष दृष्टि से डॉ0 नगेन्द्र ने तमाम लोगों का चयन ही नहीं किया, जहां संभावना दिखी वहां से आने के लिए प्रेरित भी किया। लम्बी सूची है ऐसे रचनाकारों की। जो नाम याद आ रहे हैं, उनमें कवियों में रामदरश मिश्र, कैलाश वाजपेयी, अजित कुमार, गंगाप्रसाद विमल, स्नेहमयी चौधरी, इन्दु जैन के अलावा डॉ0 हरभजन सिंह, कथाकारों में मन्नू भंडारी, महीप सिंह, नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल, आलोचकों में स्वर्गीय देवीशंकर अवस्थी, विश्वनाथ त्रिपाठी और नित्यानन्द तिवारी जैसे तमाम लोग शामिल थे। 

इतना ही नहीं पंडित कृष्णशंकर शुक्ल, डॉ0 भरतसिंह उपाध्याय और डॉ0 कैलाशचन्द्र मिश्र जैसे वरिष्ठ विद्वानों को सेवा-निवृत्त होने से कुछ वर्ष पहले आमंत्रित करके वे दिल्ली ले आए। जिन व्यक्तियों को उन्होंने साग्रह आमंत्रित किया, उनमें एक महत्वपूर्ण नाम मोहन राकेश का था। यह बात अलग है कि अपने मौला स्वभाव के कारण विश्वविद्यालय की अनुशासनबद्ध कार्य-प्रणाली उन्हें रास नहीं आयी। एम0 ए0 की सांध्यकालीन कक्षाओं के लिए उनकी नियुक्ति हुई थी। पर वे कक्षाओं से ज्यादा विद्यार्थियों की टोली के साथ ‘कैफ़े’ में पाए जाने लगे। और कुछ ही समय बाद खुद ही छोड़कर चले गए। 

डॉ0 नगेन्द्र अपना विरोध सहने के आदी नहीं थे-सार्वजनिक रूप से तो और भी नहीं। इसलिए लोग प्रायः उनकी बात काटने या उस पर टिप्पणी करने से कतराते थे। पर अगर संयोग से कभी ऐसा हो जाता था, तो    डॉ0 साहब की प्रतिक्रिया अवसर के अनुकूल होती थी। ऐसा एक दिलचस्प प्रसंग पं. कृष्णशंकर शुक्ल के साथ घटित हुआ। 

डॉ0 साहब ‘अनुसंधान परिषद’ की नियमित बैठकों का अंत अपने समापन भाषण से किया करते थे। ऐसे ही एक अवसर पर उन्होंने प्रसंगवश ज़िक्र किया कि वे शुक्लजी को आमंत्रित कर कानपुर से दिल्ली विश्वविद्यालय में लाए हैं। शुक्लजी श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति में विराजमान थे। बात उन्हें लग गई। वहीं से तुरंत दस्तबस्ता खड़े होकर बोले ‘‘बड़ा उपकार किया आपने’’। सब समझ गए कि यह विनम्र कृतज्ञता ज्ञापन नहीं है। विद्वान पंडित का आहत ब्राहमणत्व बोल रहा है। डॉ0 नगेन्द्र मौके की नज़ाकत को समझकर बात टाल गए। 

पंडितजी एक तो कनौजिया ब्राहमण और दूसरे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शिष्य। वाक्-चातुरी उन्होंने काशी की परंपरा से विरासत में पायी थी। एक बार विश्वविद्यालय की एक गोष्ठी में उनका भाषण हुआ। उन दिनों ऐसे आयोजनों मे स्थानीय इन्द्रप्रस्थ कालिज की एक प्राध्यापिका निर्विवाद रूप से वक्ता से कोई न कोई प्रश्न पूछने खड़ी हो जाती थी-जो प्रायः अनर्गल होता था। हम लोगों ने उनका नामकरण ही कर दिया था ‘प्रश्नप्रिया’। उत्तर से उनका सहज समाधान भी नहीं होता था। क्योंकि तथाकथित प्रश्न जिज्ञासा से नहीं आत्मप्रदर्शन की लालसा से ही प्रेरित रहता था। ज़ाहिर है उनकी इस आदत से शुक्लजी भी अनभिज्ञ नहीं थे

ताज्जुब नहीं कि अखबारी खबरों के अनुसार युवा-पीढ़ी के कुछ उत्साही सदस्य, एकजुट होकर हिन्दी में ऐसे लेखन की पहल करना चाहते हैं जो विक्रम सेठ, चेतन भगत या अमिश त्रिपाठी की रचनाओं की तरह हज़ारों-लाखों की संख्या में छपें-बिकें और यथासंभव छोटे-बड़े पर्दों पर फिल्मायी भी जा सके, क्योंकि अर्थकरी प्रसिद्धि और पाठकों की विपुल संख्या तो आखिर वहीं है। ज़ाहिर है गंभीर साहित्य के प्रवक्ताओं और उसके बलबूते पर अपनी दुकानें सजाकर बैठे अवसरानुकूल फ़तवे देते महारथियों के सामने यह स्थिति कोई नयी ‘स्ट्रेटेजी’ बनाने की मजबूरी तो पैदा कर ही सकती है। 

उस दिन भाषण के बाद जैसे ही उन्होंने प्रश्न किया। पंडितजी तुरंत करबद्ध खड़े हो गए। बड़ी विनम्रता से बोले: ‘देवी, व्यक्ति कितना भी योग्य हो, उसे कभी न कभी तो हार माननी ही चाहिए। मैं आपके सामने पराजित हूँ ,नतमस्तक होकर स्वीकार करता हूं कि आपके प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। इस मारक उत्तर से उस समय तो कमरे में सन्नाटा व्याप गया पर इसका निश्चित लाभ आगे होने वाले आयोजनों में हुआ। 




कुल मिलाकर डॉ0 नगेन्द्र के नेतृत्व में विभाग बराबर हर तरह के कार्यक्रमों से जीवंत रहता था। उसी दौर में हमें कविवर सुमित्रानन्दन पंत का काव्य-पाठ सुनने का सौभाग्य मिला। महादेवी ने मैथिलीशरण गुप्त की स्मृति में पहला स्मृति-व्याख्यान दिया। आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी-भाषा से सम्बद्ध अपनी परियोजना पर केन्द्रित दो भाषण दिए। 

और तो और ‘प्रयोगवाद’ और ‘नयी कविता’ के प्रति अपनी रुद्ध-संवेदनशीलता के बावजूद उन्होंने अज्ञेयजी को नयी काव्य प्रवृत्तियों का खुलासा करने के लिए आमंत्रित किया। यह बात अलग है कि भीतर पनपती नाराज़गी के कारण अज्ञेयजी ने आदतन विश्वविद्यालय की पाठ्यचर्चा और शिक्षण-प्रणाली पर कुछ अशोभन टिप्पणी की। बाद में डॉ0 साहब ने अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए जो कहा, उसका सार यह था कि कविवर अपनी आदत से बाज़ नहीं आ सकते अतः उन्हें यथासंभव भविष्य में बुलाने से बचना चाहिए। 

विभागीय विकास और शैक्षिक गतिविधियों का यह पक्ष बहुत जीवन्त और उत्साहवर्धक था। पर प्रशासनिक मामलों में उनकी कुछ ऐसी कमज़ोरियाँ थीं, जिसकी अन्ततः उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। वे अपनी समझ से गलतियाँ या बेइमानी नहीं करते थे पर जो करते थे, उसमें सही-गलत का विवेक हमेशा अक्षुण्ण नहीं रहता था-खासकर व्यक्तियों की पहचान के मामले में। रचनाकारों में उनका तालमेल वयोवृद्ध, प्रौढ़, विभिन्न क्षेत्रों में जमी हुई मान्यता प्राप्त पीढ़ी के लोगों से तो बैठ जाता था। साहित्य की उदीयमान संघर्षशील पीढ़ी के लोग उन्हें रास नहीं आते थे। 

जहाँ तक मेरा सवाल था, मेरी पटरी इन्हीं लोगों के साथ बैठती थी। इसका एक कारण शायद यह भी था कि लेडी श्रीराम कालिज के हिन्दी विभाग में, संयोग से एक के बाद एक कई ऐसी महिलाओं की नियुक्ति हो गयी जिनका संबंध रचनाकारों से था। इनमें कृष्णचन्द्र शर्मा ‘भिक्खू’ की पत्नी शकुन्तला, कवि भारतभूषण अग्रवाल की पत्नी बिन्दु, डॉ0 नगेन्द्र की बेटी प्रतिभा, कवि गिरिजाकुमार माथुर की बेटी वीना और मनोहरश्याम जोशी की पत्नी भगवती पाँडे-जैसे लोग शामिल थे। जोशीजी का तो विवाह भी भगवती से बाद में हुआ था। नतीजतन इतने परिवारों से तो हमारा संबंध सहज रूप से हो ही गया, और साहित्य की उन तमाम गतिविधियों की जानकारी भी होने लगी, जिनसे ये किसी न किसी रूप में संबद्ध रहते थे। इनके अलावा भारतभूषण अग्रवाल के माध्यम से अजित कुमार और स्नेहमयी चौधरी और फिर क्रमशः राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी भी मित्र-मंडली में शामिल हो गए। राजेन्द्र-मन्नू, अजित-स्नेह और हमारे परिवार के बीच भौगोलिक दूरी भी बहुत कम थी। तीनों परिवार लगभग तीन किलोमीटर के घेरे के भीतर। भारत जी ज़रूर तब जंगपुरा में रहते थे। पर संबंध-निर्वाह करने में भौगोलिक दूरी को उन्होंने भी आड़े नहीं आने दिया। एक कारण शायद हमारे बच्चों का हमउम्र होना भी था। अजितजी का बेटा पवन, मन्नू की बिटिया रचना और मेरा छोटा बेटा संजय और भारतजी का बेटा अनुपम तो हमउम्र थे ही। भारतजी की दो बड़ी बेटियाँ, मेरी दो बड़ी संतानों की हमउम्र थी। लिहाज़ा बच्चों के बीच भी ऐसी पारिवारिक गिरोहबन्दी हो गयी कि हम लोग दिल्ली से बाहर भी सहयात्री होकर निकलने लगे। आपसी मेल-जोल का एक सबब, हमारी सामजिक हैसियत भी थी। 

हम सब मध्यवर्गीय परिवारों के लोग, लगभग एक जैसा खान-पान। वाहन के नाम पर बस मेरे पास तब एक ‘फ़िएट इलेविन’ गाड़ी हो गई थी, जिसे मैंने बड़ी कठिनाई से पैसे जोड़कर ग्यारह हज़ार में खरीदा था। वह भी एक पुरानी, दो दरवाज़ों वाली ‘फिएट फ़ाइव हन्ड्रेड’ घसीटने के बाद। जो दो बरस पहले एक सेना-अफ़सर से दो हज़ार रुपए में खरीदी गई थी। वह मेरी मजबूरी थी। कालिज पहले मेरे घर से सोलह किलोमीटर और माल रोड चले जाने के बाद बीस किलोमीटर से भी अधिक हो गया था। 

कालिज की सहयात्रियों ने परिहास में उसका नामकरण किया था ‘डिबिया’। यह बात अलग है कि वह ‘डिबिया’ भी, काफ़ी समय तक कालिज में इकलौती ही थी जिस पर वे लोग अक्सर सवारी गाँठती थी। पेट्रोल दो रुपये कुछ पैसे लीटर मिलता था। गाड़ी छोटी, एक लीटर में बीस किलोमीटर से अधिक सफ़र तय कर लेती थी। इसलिये खर्च बहुत बड़ी समस्या नहीं थी। समस्या यह थी कि वह रह रहकर खराब हो जाती थी, और उसे ठीक कराने की ज़हमत जैन साहब को उठानी पड़ती थी। 

जब साहित्यिक मित्रों की टोली वजूद में आयी, तब तक हमारी माली हैसियत कुछ बेहतर हो गयी थी। मेरी पहली पगार की राशि तीन सौ पंद्रह रुपये से बढ़कर, क्रमश पांच सौ की सीमा पार कर चुकी थी। और जैन साहब भी लगातार तरक्की कर ही रहे थे। मित्रों में से सिर्फ़ अजित कुमार दुपहिया स्कूटर की सवारी करते थे। जिसके पीछे की सीट पर धड़कते दिल से राम-राम करते हुए दो तीन बार बैठने का खतरा मैंने भी उठाया। भारतजी को डी.टी.सी. पर अगाध विश्वास था। बचे राजेन्द्र और मन्नू। सो उन्होंने कुछ वर्ष बीतने के बाद स्टैंडर्ड टैन गाड़ी खरीदी थी-नयी निकोर। पर तब तक हम लोग और तरक्की कर गए थे एम्बेसेडर हासिल करके। 

उन दिनों नयी गाड़ी बड़ी कठिनाई से मिलती थी-कई महीने लाइन में लगे रहने के बाद। जिन्हें जल्दी होती थी, वे पुरानी गाड़ियाँ नई से ज़्यादा दामों पर खरीदने के लिए मजबूर हो जाते थे। हमने यह गुर सीख लिया था। हर बार नयी गाड़ी लेते ही लगे हाथों, दो हज़ार देकर एक और गाड़ी बुक करा देते। जैसे ही उस गाड़ी का नम्बर आता, हम पुरानी को नयी से ज़्यादा कीमत पर बेच कर नयी गाड़ी खरीद लेते थे। पेट्रोल के उस सस्ते दौर में एम्बेसेडर की बदौलत दोस्तों की भी मौज हो गयी । हम आराम से दो परिवार उस गाड़ी में भरकर जहाँ-तहाँ सैर सपाटे के लिए निकल जाते थे। अजित परिवार के साथ हम लोगों ने मसूरी और आगरे की सैर की। भारतजी के साथ एक यादगार ट्रिप नैनीताल का लगाया। बाद में जब नामवर सिंह इस मंडली में शरीक हो गए तो वे हमारे साथ श्रीनगर गए। वहाँ हम लोगों ने डल-लेक पर हाउस-बोट में छुट्टियाँ गुज़ारीं। 

दिलचस्प बात यह थी कि साहित्यिक मित्रों की इस जमात के साथ जैन साहब का भी अद्भुत तालमेल बैठ गया था। इसके बावजूद कि हमारी गप-गोष्ठियों से विषय के स्तर पर उनका कोई संबंध नहीं था। विश्वविद्यालय और साहित्य की दुनिया, उसकी राजनीति, उठा-पटक के अलावा बौद्धिक और राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर घटित होने वाली हर बात हमारी बातचीत, बहस-मुबाहिसे का विषय होती थी। वे गाहे-बगाहे टिप्पणी करते, वरना तटस्थ श्रोता और दर्शक की तरह अपना मनोरंजन करते और हमारी मेहमाननवाज़ी की व्यवस्था का संचालन करके आत्मतुष्ट रहते थे। अपनी इस संतयी मुद्रा से उन्होेने पूरी मित्र-मंडली का दिल जीत लिया था। मेरे सभी मित्र उनकी शराफत के मुरीद हो गए थे। 

केवल द्रष्टा-श्रोता के रूप में ही नहीं, मित्रों के दुःख दर्द में साझेदारी करने में भी उन्हें कभी गुरेज़ नहीं हुआ। राजेन्द्र यादव की बहन ने किसी निजी प्रसंग में उद्वेलित होकर आत्महत्या का प्रयास किया, तो मन्नू का फोन आते ही वे तुरंत सबको जयप्रकाश नारायण अस्पताल ले गए। मन्नू के साथ मिलकर उसके दाखिले के लिए भागदौड़ की। राजेन्द्र के तो होश-हवास गुम हो गए थे। वे एकदम मूकबधिर से अस्पताल के भीतर विशाल पेड़ के चारों ओर खिचे सीमेंट के घेरे पर बैठे रहे। हम लोग रात के एक बजे तक वहाँ से नहीं हिले, जब तक पेट की धुलाई करके उसे एडमिट नहीं कर लिया गया। यह अलग बात है कि अन्ततः उसे बचाया नहीं जा सका। 

यही स्थिति एम्स में मन्नू के सीने में एक गिल्टी के ऑपरेशन के समय सामने आयी। मन्नू ने ‘एक कहानी यह भी’ में इस घटना का जिक्र किया है। ऐसा ही एक प्रसंग अजित जी के परिवार में घटित हुआ। स्नेहजी की एक रिश्ते की युवा भतीजी उनके यहाँ कुछ दिन रहने आयी। एक दिन उसे अचानक ‘मेलेनजाइटिस’ का अटैक हुआ। बीमारी के लक्षणों के बारे में हम सब एकदम अनजान। अजित जी ने फोन पर अपना संकट बताया तो तय पाया गया कि उसे तुरंत तीरथराम अस्पताल में दाखिल कर दिया जाए। उन्होंने इसकी व्यवस्था की पर इससे पहले कि हमें बीमारी की गंभीरता ठीक ठीक समझ में भी आती, उसका देहांत हो गया।  

सबसे मार्मिक प्रसंग डॉ0 नामवर सिंह के एपेन्डिसाइटिस के ऑपरेशन का था। जब वे दिल्ली आकर ‘जनयुग’ के बाद राजकमल प्रकाशन के साहित्य-सलाहकार के रूप में कार्य कर रहे थे। भोजन के समय हमारे यहां होते तो हम सब साथ ही खाना खाते थे। एक दोपहर को खाने के बाद अचानक उन्हें अपेन्डिसाइटिस का अटैक हो गया। उसी बेहाल अवस्था में जैन साहब उन्हें अपने फेमिली डाक्टर प्रेमशंकर भार्गव के पास लेकर भागे। क्लिनिक चाँदनी चौक में था। डॉ0 साहब ने देखते ही दर्द और उल्टियों का उपचार तो कर दिया था पर जल्दी से जल्दी ऑपरेशन की सलाह दी। नामवरजी इसके लिए बनारस जाने को तैयार नहीं थे। हम लोगों पर पूरा भरोसा था उन्हें। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि ऑपरेशन की व्यवस्था यथासंभव ऐसी जगह कर दी जाए जो बहुत मंहगी भी न हो, और स्वयं उनकी देखभाल कर ले। डॉ0 भार्गव की सलाह से यह व्यवस्था दरियागंज में डॉ0 भाटिया के नर्सिंग होम में करायी गई। मेरे पूछने पर उन्होंने सख्त ताकीद कर दी कि इस प्रसंग की सूचना बनारस में किसी को नहीं दी जाए। मैंने प्रश्न किया, ‘‘काशी को भी नहीं ?’’ उनका उत्तर था, ‘‘बिल्कुल नहीं, ऑपरेशन का नाम सुनते ही वहाँ भगदड़ मच जाएगी। काशी अकेले थोड़े ही आ पाएंगे आएगी पूरी मंडली। उनकी मेहमानदारी कौन करेगा ?’’ बात समझ में आने वाली थी। ऑपरेशन बहुत कायदे और किफ़ायत से हो गया। उस बेहद साफ सुथरे प्राइवेट नर्सिंग होम में। ऑपरेशन के समय वहाँ सिर्फ़ मैं और जैन साहब थे। रात के लिए हमने एक प्राइवेट नर्स की व्यवस्था कर दी। तब तक शीलाजी से मेरी विशेष मित्रता नहीं थी। नामवरजी ने उन्हें सूचित करवा दिया तो अगले दिन सुबह वे मिजाज़पुर्सी के लिए आफिस जाते समय पधारीं। वहाँ की व्यवस्था से हैरान थी। शायद इसलिए कि उनकी सलाह और सहायता के बिना यह काम हुआ कैसे ? बहरहाल, उन्हें न बताना था, न बताया गया। ब्यौरे की जानकारी सिर्फ़ हमारे अलावा नामवरजी के मित्र पुलिस अफसर मार्कण्डेय सिंह को थी। अस्पताल से छुट्टी के बाद उन्होंने कुछ दिन लखनऊ रोड पर उन्हीं के घर रहकर स्वास्थ्य लाभ किया। 




लगभग हमउम्र मित्रों की इस मंडली के बीच इस पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला हमें बराबर भावनात्मक दृष्टि से समृद्ध तो करता ही था, उत्साह और जिजीविषा भी प्रवाहित किए रहता था। साथ ही वरिष्ठ पीढ़ी के प्रति सम्मान और संबंध बनाए रखने में भी कोई कमी या कोताही नहीं बरती जाती थी। उनके माध्यम से परंपरा की निरंतरता को समझने और बनाए रखने की ईमानदार कोशिश हमने बराबर जारी रखी। बीतते समय की रचना-प्रवृत्ति के विरुद्ध कोई फ़तवा जारी करने की कोई ज़रुरत या जल्दी का दबाव हमें महसूस नहीं होता था।

एक बार मन्नूजी से, शहर में अश्कजी की आमद की जानकारी मिली। वे उन दिनों शिक्षा-संस्थाओं और नाट्य-मंडलियों के बीच लोकप्रिय एकांकी नाटककार थे। रामकुमार वर्मा और जगदीशकुमार माथुर को भी उनसे कमतर ही समझा जाता था। यह बात अलग है कि मैंने कभी उनके ‘अंजो दीदी’ या ‘तौलिये’ जैसे किसी भी नाटक को प्रस्तुति के लिए नहीं चुना था। मेरा अनुमान था कि वे विद्यार्थियों के लायक ऐसा दिलचस्प भाषण देंगे कि हिन्दी साहित्य के प्रति उनकी रूचि बढ़ेगी। मैंने साग्रह अपनी अहिंदीभाषी प्रिंसिपल को भी आयोजन में आमंत्रित कर लिया। 

अश्कजी आए। लड़कियों से भरे बड़े हॉल को देखकर संभवतः उनका संतुलन गड़बड़ा गया। मैंने उनका प्रशस्ति भरा परिचय कराया। उन्होंने भाषण का आरम्भ कुछ चुटकुलेबाजी से किया और क्रमशः फूहड़ता से अश्लीलता की दिशा में उसका विस्तार करते हुए समापन इस घोषणा से किया कि वे अपने बेटे के लिए उपयुक्त वधू तलाश करने के अभियान पर निकले हैैं। उनकी इस हरकत से जो शर्मिंदगी उठानी पड़ी, उसका जिक्र बेकार है। मेरे लिए उनको धन्यवाद देना भी वैतरणी पार करने जैसा हो गया। बाद में प्रिंसिपल को जो सफ़ाई दी सो अलग। यूँ वे भद्र महिला मेरे धर्मसंकट और मजबूरी को बड़ी समझदारी से सराहकर मुझे सांत्वना ही देती रही, यह अलग बात है। 

इससे ठीक अलग अनुभव दिनकरजी के साथ हुआ। मेरी उनसे भेंट दद्दा के घर में एकाध बार हो चुकी थी। उनका ‘कुरुक्षेत्र’ पाठयक्रम में निर्धारित था। मैंने उन्हें एकल काव्य-पाठ और विद्यार्थियों से बातचीत के लिए आमंत्रित किया-फोन से। वे बड़ी सहजता से राज़ी हो गए-शर्त इतनी कि उन्हें लाने के लिए किसी को भेज दूँ। डॉ0 नगेन्द्र से मैंने चर्चा की। सुनकर वे गंभीर हो गए। बस इतना ही कहा, ‘‘किसी लड़की को अकेली मत भेज देना उन्हें लाने के लिए।’’ मैंने व्याख्या कराना ज़रूरी नहीं समझा। बस लड़की को दफ़्तर के एक जिम्मेदार व्यक्ति के साथ भेज दिया। 

दिनकरजी आए-वही भरे हाल में। उन दिनों वे कविता-पाठ में भी स्टार की हैसियत रखते थे। उन्होंने पहले मंच से कुछ कविताएँ सुनायीं, फिर सहसा बोले, ‘‘भई श्रोताओं से इतनी दूर से बात नहीं बनती। नीचे व्यवस्था कराओ।’’ मैंने नीचे कुर्सियां लगवानी शुरू की तो उन्होंने टोका, ‘‘अरे कुर्सियां नहीं, बीचोेंबीच एक मेज़ लगवा दो।’’ उनकी आज्ञा का पालन किया गया। स्टेज के नीचे बीचोंबीच मेज़ पर वे पालथी मारकर विराजमान हो गए। सामने श्रोता समूह। बुलन्द आवाज़ में बड़ी देर तक कविता पाठ करते रहे। वाणी उनकी बड़ी ओजस्वी थी। बिना माइक के भी पूरे हॉल में उनकी आवाज़ गूँजती थी। श्रोता निहाल-उनका वशीकरण ऐसा चला कि वह अनुभव बड़े दिनों तक यादगार होकर रह गया। उस समय तक सस्वर कविता-वाचन की परंपरा निःशेष नहीं हुई थी। छंद से मुक्ति हुई तो गंभीर रचनाएँ सुनने की नहीं पढ़ने की चीज़ होकर रह गयीं। और सुनने-सुनाने का रिश्ता खास किस्म की अदाकारी से हो गया। जिसके सहारे तमाम हल्की रचनाएँ और उनके अदाकार बाज़ार पर हावी होते चले गए। 

कॉलिज के दिनों का एक और यादगार प्रसंग है, जिसका संबंध नए कवियों से है। कई वर्ष तक ‘नए’ कवि सुर-ताल में बाँधकर काव्य-पाठ करने वाले कवियों की सोहबत में मंच से काव्य-पाठ करने से कतराते थे। एक साथ होने पर गलेबाज़ अदाकार तो अपने इस कौशल से जनता की वाहवाही लूट लेते थे और ‘नए कवि’ अपनी सारी अर्थगर्भिता और बौद्धिकता के बावजूद हूट कर दिए जाते थे। इसलिए वे कोई निमंत्रण स्वीकार करने से पहले ‘सोहबत’ तय करने का आग्रह करने लगे। भारतभूषण अग्रवाल ने तो कवि-सम्मेलनियों को मात देने के चक्कर में ‘तुक्तक’ लिख डाले। जो ‘कागज़ के फूल’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। गोकि इस हरकत से उन्होंने अपने समानधर्माओं की नाराज़गी मोल ले ली। 

साठ से सत्तर के बीच के उस दशक के यशस्वी सितारे ‘अज्ञेय’ जी थे। आकर्षक कद-काठी, चुस्त-दुरुस्त वेशभूषा, मितभाषी किंचित दाढ़ी पर छपी आधी इँच मुस्कान वाला उनका चेहरा अजब ढँग से रौबीला था। वे दर्शक को आकर्षित नहीं आतंकित ज्यादा करते थे-अपनी सुपर बौद्धिक छाप से। यह समझने में लम्बा समय लगा कि वह उनका सहज नहीं, अर्जित-आरोपित व्यक्तित्व था। जिसे उन्होंने बड़े यत्न से साधा था। क्रमशः यह ‘साधित’ ही उनका ‘सहज’ प्रतीत होने लगा था। हिन्दी में ‘प्रयोगवाद’ से ‘नयी कविता’ तक की काव्य-यात्रा के ये शिखर पुरुष तब हिन्दी पत्रकारिता में कीर्तिमान स्थापित करने के लिए ‘दिनमान’ के सम्पादक का दायित्व वहन कर चुके थे। उनके पिछलगुओं के रूप में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय का प्रवेश भी वहाँ हो चुका था। बाद में श्रीकांत वर्मा का भी। वात्स्यायनजी इन सबके बीच बड़े भाई कहलाते थे। और उसी तर्ज़ पर सर्वेश्वरजी और रघुवीर सहाय ‘छोटे भाई’ और ‘मोटे भाई’ विशेषणों से जाने जाते थे। 

‘छोटे भाई’ सर्वेेश्वरजी इत्तफ़ाक से अजित कुमार के बगलगीर पड़ोसी हुआ करते थे। एक दिन अजितजी के घर पर उन्होंने बातचीत के दौरान अचानक प्रश्न किया, ‘‘आप कभी अज्ञेयजी को क्यों नहीं बुलाती काव्य-पाठ करने के लिए ?’’ मैंने सहज भाव से उत्तर दिया कि ‘‘मैंने सुना है कि वे तो कहीं जाते ही नही, ऐसे आयोजनों में।’’ जवाब में सर्वेश्वरजी ने मुझे आश्वस्त करके उन्हें लाने की जिम्मेदारी खुद ले ली। पता लगा कि छोटे भाई ने उन दिनों ‘बडे़ भाई’ को मंचों पर सुलभ कराने का अभियान चला रखा था। क्योेंकि काफ़ी दिन नख़रा दिखाने के बाद अज्ञेयजी की समझ में यह बात आ गई थी कि इस चक्कर में वे धीरे धीरे अलभ्य नहीं अलोकप्रिय होते जा रहे हैं। लोगों ने उन्हें अलभ्य मानकर आमंत्रित करना ही छोड़ दिया है। इस अप्रत्याशित स्थिति में उन्हें पुनः मंच-प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी सर्वेश्वरजी ने ले ली थी। 

आश्वासन के अनुरूप  काव्य-गोष्ठी की तारीख और कवि तय हो गए। अज्ञेयजी की अध्यक्षता में शमशेर बहादुर सिंह, भारतभूषण अग्रवाल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और अजितकुमार के काव्य-पाठ की योजना बनी। नियत तिथि और समय पर हॉल में श्रोता और आमंत्रित सभी कवि उपस्थित, पर अध्यक्ष गायब। पन्द्रह मिनट प्रतीक्षा के बाद फोन किया गया-घर और आफ़िस दोनों जगह। उनका कहीं कोई पता नहीं था। घर से किसी ने इतना ही कहा कि, ‘‘घर से निकले तो काफी समय हो गया है। अगर कहा है तो पहँुच ही रहे होंगे।’’ इस जवाब से कोई सहायता नहीं मिलने वाली थी। मोबाइल का ज़माना नहीं था कि उनका सीधे अता-पता लगाया जा सकता। प्रतीक्षा करते-करते जब लगभग 45 मिनिट के करीब हो गए और श्रोताआंे में खलबली मचने लगी, तो मैंने धीरे से शमशेरजी से आसन ग्रहण करने का अनुरोध किया। वे भीरू इंसान, इस प्रस्ताव से ही घबरा गए। बोले, ‘‘थोड़ी देर और देख लेते।’’ मैंने अपनी मजबूरी बताई, ‘‘शमशेरजी, मुझे डर है कि ये लड़कियाँ बेचैन हो रही हैं-कहीं हाल न खाली कर जाएँ।’’ भाई के रौब के मारे शमशेरजी बड़ी मुश्किल से तैयार हुए। लगभग एक घंटा हो चुका था। वे सकुचाते हुए अध्यक्ष के आसन की तरफ बढ़ ही रहे थे कि सहसा हॉल के प्रवेश द्वार पर अज्ञेयजी की भव्य आकृति प्रकट हुई। वे मंथर गति से आए। बिना कोई सफ़ाई दिए या पछतावा जताए, अध्यक्ष के आसन पर विराजमान हो गए, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। 




गोष्ठी तो संपन्न हो गई, राज़ी खुशी बिना किसी झंझट के। बाद में धीरे से आमंत्रित कवियों ने बताया कि आयोजनों में निर्धारित समय के बाद देर से आना, अज्ञेयजी की अदा है, ताकि श्रोताओं की जिज्ञासा और बेकली अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाए। और उसके बाद बड़े शाही अँदाज में मौके पर उनकी एन्ट्री हो। निश्चय ही यह बड़ी मारक योजना थी। क्योंकि उनके इंतजार में आकुल-व्याकुल होते, भिनभिनाते श्रोतागण, उनके प्रकट होते ही सहसा स्तब्ध हो गए। मंत्रमुग्ध से, उनके सम्मान में उनकी कदमताल के साथ पंक्ति दर पंक्ति खड़े होते चले गए। उनकी उपस्थिति बड़ी गरिमापूर्ण होती थी-यही उनके प्रतिस्पर्धियों और समानधर्माओं की दुखती रग थी, और अनुगतों के लिए सम्मोहिनी। 

ऐसे आयोजनों और रचनाकर्मियों से निरंतर और जीवंत संबंध बना रहने का एक बहुत बड़ा लाभ मुझे यह हुआ कि समकालीन परिदृश्य और प्रवृत्तियों से मेरा संपर्क बना रहा। वरना संभवतः मेरी गति भी पाठयक्रम में निर्धारित साहित्य से बहुत आगे नहीं बढ़ती और आलोचना दृष्टि भी ढाँचे में बंधी रह जाती। यह दुर्घटना इसलिए भी तय थी क्योंकि विश्वविद्यालय में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद डॉ0 नगेन्द्र ने समीक्षात्मक लेखन से क्रमशः विराग ले लिया। आचार्यत्व की गरिमा उन्हें शास्त्रीय मानदण्डों का विवेचन-विश्लेषण करने और शास्त्रीय ग्रंथों का अनुवाद करने-कराने में सुरक्षित दिखायी पड़ने लगी थी। 

संस्कृत और अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम की काव्यशास्त्रीय चिंतन-परंपरा को, हिन्दी पाठकों को सुलभ कराने की दिशा में उनका योगदान ऐतिहासिक माना जाएगा। उन्होंने संस्कृत और पश्चिम के साहित्यशास्त्र की तमाम क्लासिक रचनाओं के हिन्दी अनुवाद कराए। स्वयं उनकी भूमिकाएँ लिखीं। आग्रह उनका बराबर इस बात पर रहता था कि दोनों परंपराओं के बीच सामान्य बिन्दुओं को रेखांकित करके एक वैश्विक चिंतन-परंपरा का प्रतिपादन करें। ठीक उसी तर्ज़ पर, जिस पर         डॉ0 राधाकृष्णन ने ‘भारतीय साहित्य’ की परिभाषा यह कहकर की थी कि वह अलग-अलग भाषाओं में लिखा गया एक ही साहित्य है। 

इन ग्रंथों की प्रकाशन व्यवस्था के लिए उन्होंने तत्कालीन शिक्षा-मंत्रालय से अनुदान की व्यवस्था करके दिल्ली विश्वविद्यालय में एक ‘‘हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय’ की स्थापना की। उपर्युक्त ग्रंथों के अलावा, लम्बे समय तक उस निदेशालय से समाज-विज्ञान से सम्बद्ध विषयों के विभिन्न महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद और हिन्दी में लेखन-प्रकाशन होता रहा। समय के साथ ‘काव्यशास्त्र’ की दिशा में काम होना तो बंद हो गया, पर अन्य रचनाओं का प्रकाशन अब तक जारी है। खेद की बात है कि क्रमशः उन काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के आगामी संस्करण निकलने बंद हो गए और अब केवल निजी पुस्तकालयों में ही उनके होने की उम्मीद की जा सकती है। 

कुल जमा नतीजा यह हुआ कि दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की मानसिकता पर शास्त्रीयता हावी हो गयी। वे डॉ0 नगेन्द्र जिन्होंने अपने समकालीन रचनाकारों-जैनेन्द्र, बच्चन, दिनकर और अज्ञेय तक के साहित्य पर बड़ी संवेदनशीलता और विवेकसम्मत नज़रिये से समीक्षात्मक लेखन किया था इनके बाद की पीढ़ी के साहित्य के प्रति इतने संवेदनहीन हो जाएंगे इसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था। समकालीन साहित्य को तुरंत पाठयक्रमों में जगह न देने के पीछे तर्क हो सकता था, पर इसकी संभावना को एक सिरे से नकारने के कारण उनके और समकालीन रचनाकारों के बीच संवाद ही भंग हो गया। यह स्थिति विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों के लिए बहुत शुभ नहीं हुई। इसलिए और भी क्योंकि उस दौर में (1954-70) भारतीय विश्वविद्यालयों में डॉ0 नगेन्द्र का प्रताप अपने चरम पर था। 

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी पाठयक्रमों को अधिकांश विभाग मॉडल के रूप में देखते थे। इतना ही नहीं प्रशासनिक मामलों में भी उनकी भूमिका निर्णायक होती थी। आम धारणा थी कि नियुक्तियों में भी उनकी स्थिति भाग्य-विधाता की सी रहती थी। उनके साथ सहयोग करने वालों में आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी और अलीगढ़ के डॉ0 हरवंशलाल शर्मा का ज़िक्र बराबर किया जाता था। डॉ0 नगेन्द्र को इस बात का श्रेय भी दिया जाता था कि उन्होंने अपनी चयन-समिति में पंडितजी के विरोध को भुलाकर उनके विपत्ति काल में उनका साथ दिया। गोकि इस प्रसंग में काशी हिन्दी विश्वविद्यालय में द्विवेदीजी के विरोधियों से उनके संबंध असहज हो गए। 

लगभग सोलह वर्ष (1954-1970) के बीच मध्याह्न के सूर्य की तरह  डॉ0 नगेन्द्र का ताप अपने चरम पर पहुँचकर उनके भीतर पनपती तानाशाही प्रवृत्ति के कारण क्षयोन्मुख हो चला था। लोग उनकी कद्रदानी को भूलने लगे। विभाग के भीतर-बाहर पनपती विषम परिस्थितियों के बीच उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। यह बात अलग है कि अनेक उतार-चढ़ावों से गुज़रते उसी विभाग के वे एक बार फिर अध्यक्ष हुए, कुलपति के अनुरोध पर, अपने सेवा-निवृत्त होने से पहले। विश्वविद्यालय से उनकी विदाई उसी हैसियत में हुई-1980 में। 

बात केवल दिल्ली विश्वविद्यालय की ही नहीं थी। अखिल भारतीय परिदृश्य में यह क्रमशः एक पूरी पीढ़ी के अवसान का समय था। राजनीतिक घटनाएँ, शैक्षिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को गहराई तक प्रभावित कर रही थीं। जीवन का छन्द बदल रहा था। आधुनिकताअपनी ‘उत्तर’ स्थिति की ओर बढ़ रही थी। साम्राज्यवादी शक्तियों ने वैश्वीकरण के पाठ का ककहरा रोप दिया था। परिभाषाएं-अवधारणाएँ बदल रही थीं। 

सामाजिक संस्थाओं के ढाँचे रूपांतरित हो रहे थे। बल स्थिति से अधिक गति पर, गुण से अधिक परिमाण पर दिया जाने लगा था। युवा पीढ़ी बहुत जल्दी में थी, बहुत कुछ पा लेने की। महत्व साध्य का था, साधन चाहे जो हो। ‘साध्य’ की कोई निश्चित परिभाषा, कोई स्पष्ट अवधारणा बहुतों के सामने शायद थी ही नहीं। घोर वर्तमान जीविता और अद्भुत ‘तत्कालवाद’ की एक नामालूम सी प्रक्रिया ने पूरे समय और समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। विश्व बटता जा रहा था-‘पहली’, ‘दूसरी’, ‘तीसरी’ दुनिया के धड़ों में। 

बार-बार सांस्कृतिक उपनिवेशवाद के विरुद्ध सर्तकता की दुहाई देने वाली आवाजें भी लाचार सी हो चली थी-‘‘मैदान के मैदान होने के’’ आगे। सूचना-प्रौद्योगिकी के विकास ने मनुष्य को जितना जानकारी-सम्पन्न बनाया, उतना ही बोध और स्मृति-शून्य तकनीकी निर्भर। उँगली के स्पर्श से जो जानकारी सुलभ हो, उसे स्मृति में धारण करने, उस पर चिंतन-मनन करने की निरर्थकता का अहसास बहुत रास आने लगा। कैल्कुलेटर हाथ में आते ही तमाम छोटे दुकानदार ही नहीं पटरी पर बैठकर सुबह-शाम सब्ज़ी बेचने वाले तक पैसों की जोड़-घटा के तमाम सूत्र भूल गए। ‘पहाड़े’ याद करने-कराने की ज़हमत उठाना बेमानी हो गया। दो जमा तीन करने के लिए भी ‘यंत्र’ अपरिहार्य हो चला है। काल के ‘एकरेखीय’ या ‘चक्रिय’ बोध को लेकर होने वाली बहसें निरर्थक सी जान पड़ने लगीं। अतीत और भविष्य से विच्छिन्न तात्कालिकता की समारोहधर्मी उपस्थिति इस रचना-समय की पहचान बनती गई ।

जिन्होंने कई दशक पहले, तकनीकी विकास को ऐसी सहूलियत के रूप में देखा था, जिसके कारण लिखित साहित्य का अस्तित्व खतरे में पड़ने की पूरी संभावना पैदा हो रही थी। उनकी तमाम भविष्यवाणियां झूठी पड़ गयीं। रचनाएं बराबर प्रकाशित हो रही हैं, और होती रहेंगी। परिमाण में कमी की शिकायत की कोई गुँजाइश ही नहीं दे रही हैं समय की रचनाशीलता। शायद ही कभी पत्रिकाओं की संख्या में इतनी भरमार पहले कभी दिखाई पड़ी हो हिन्दी में। मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, अर्धवार्षिक, यहां तक कि एकाध वार्षिक पत्रिका ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है। इधर एक और परिघटना ने ‘रोजगारी’ पत्रिकाओं की संख्या में बढ़ोतरी की है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अमरीका के ‘पब्लिश ऑर पेरिश’ के सिद्धांत को नौकरीयार्थी पीढ़ी पर लागू कर दिया है। अध्यापकी चूँकि अब पर्याप्त अर्थकरी हो गई है इसलिए प्रवेश-द्वार पर भीड़ में नौबत धक्कामुक्की तक पहुँच चुकी है। आश्चर्य नहीं, अचानक अध्यापक-सम्पादकों ने बड़ी संख्या में पत्रिकाओं के प्रकाशन का अतिरिक्त दायित्व ओढ़ लिया है। आइ-एस-बी-एन नंबर लेना कोई बड़ी समस्या है नहीं। सुना गया है कि ऐसी पत्रिकाओं में ‘छपने’ के लिए मानदेय सम्पादक महोदय को देना होता है। कुछ समय पहले तक ‘रेट’ एक हज़ार रुपये था। ज़ाहिर है समय के साथ माँग और आपूर्ति के अनुपात के अनुरूप यह राशि घटती-बढ़ती रह सकती है। यह बात अलग है कि सर्जनात्मक रचनाशीलता की दृष्टि से इस पूरे व्यापार का कोई महत्व नहीं है। 

इनके अलावा भी जो बाज़ारवाद जीवनचर्या में पूरी तरह व्याप्त है, साहित्य आखिर उससे कहां बचेगा। जीवन में जो त्वरा, जो अधैर्य, जो विज्ञापनधर्मिता समाज के व्यवहार को निर्धारित-संचालित कर रही है, उसके प्रभाव से साहित्य कैसे बचाव करेगा। रचना अपनी मूल प्रकति में ऐसा उत्पाद होती है जिसकी प्रक्रिया और प्रकृति हस्त-शिल्प और लघु-उद्योग से मेल खाती है, जिसका ताना-बाना, रेशा-रेशा बड़ी निष्ठा, मनोयोग और साधना से बुना जाता है। उसके कद्रदान भी उसी अनुपात में अल्पसंख्यक होते हैं। इनसे अलग जन-लुभावनी लोकप्रियता को साधने वाले रचनाकारों के रचना-संसार, उनके लक्ष्यीभूत पाठक श्रोतावर्ग की एक अलग दुनिया होती है। वह अपने नियमों से चलती और खासी आबाद रहती है। 

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक और नयी सदी के एक दशक के बीच रचनाशीलता में अद्भुत गति आयी है। इस समय रचनाकारों की तीन पीढ़ियाँ सामानान्तर रचना रत हैं। इनके बीच चमचमाते महानगरों के सितारे ही नहीं, देश के तमाम ग्रामीण-कस्बाई क्षेत्रों के छोटे नगरों के और सुदूर प्रदेशों के लोग भी शामिल है। समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़ी महिलाओं और अलग-अलग पेशों के लोगों की संख्या भी अच्छी खासी है। यानी कमी न लिखने वालों की है। छापने वाली पत्रिकाओं की और न ही पुस्तकों की। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जिन्हें प्रकाशित न हो पाने की शिकायत है। आलोचकों से सभी को शिकायत है-नोटिस न लेने की, कलम न उठाने की और सबसे अधिक ‘सराहना’ न करने की। गोकि प्रायोजित समीक्षाओं का अम्बार लगा है। ‘विमोचनों’ ‘लोकार्पणों’ की रस्म-अदायगी से पूरा वातावरण लबरेज है। सब पत्रिकाओं के पिछले पृष्ठ ऐसी सूचनाओं से पटे रहते हैं। एक मायने में यह अच्छा लक्षण है। अपने ढँग की रचनाशीलता अभिव्यक्ति पा रही है। तदनुरूप सबके अपने आलोचक हैं। क्षेत्रीय मंच है। समारोहों का अपना ढँग, अपना प्रचार-प्रसार है। कहीं कोई दिक्कत नहीं है। कठिनाई पैदा तब होती है जब इनमें ऐसी आत्ममुग्धता और आत्मतुष्टता पलने लगती है जो रचनाकार के अपने विकास में तो बाधक होती ही है, उसे औरों के प्रति असहनशील भी बना देती है। न उन्हें उपेक्षा सहन होती है, न आलोचना। वे नहीं समझते कि झूठी प्रशंसा अस्थाई भोला भ्रम पैदा कर सकती है, रचना की सही समझ में मददगार नहीं होती। समीक्षा का दायित्व होता है सहृदयता और विवेक से रचना का विवेचन-विश्लेषण करना, उसी सही समझ और समुचित पाठ का मार्ग प्रशस्त करना। जब तक रचनाकार अपनी समीक्षा के प्रति यह समझदारी पैदा नहीं करेंगे आलोचकों से उनकी शिकायत बनी रहेगी। आलोचक पाठक पहले होता है, आलोचक बाद में। ज़ाहिर है उसकी सदाशयता और समझदारी के प्रति जब तक भरोसा पैदा नहीं होता, तब तक वह बचाब का रास्ता अख्तियार करने या फिर मध्यम-मार्ग से कतरा कर निकल जाने में अपनी खैर मनाता रहेगा। व्यावहारिक दृष्टि से भी, किसी व्यक्ति के लिए प्रकाशित होने वाले समग्र साहित्य को पढ़ना संभव हो ही नहीं सकता। ज़ाहिर है पठनीय कृतियों के चयन का आधार या तो रचनाकार की प्रतिष्ठा होती है या फिर रचना की ख्याति। 

आज भी स्थिति इस दृष्टि से बड़ी आश्वस्तकर है कि किसी भी अच्छी रचना के प्रकाशित होते ही आनन-फानन में उसकी सूचना संभावित पाठक-वर्ग में तुरंत प्रसारित हो जाती है। वह कविता हो या गद्य रचना। 

इस भरे-पूरे परिदृश्य में कुछ बातों पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। परिमाण के होते हुए भी साहित्य की प्रवृतिगत पहचान को रेखांकित करना आज कठिन है, विमर्शों के तमाम कोलाहल के बावजूद। इसमें सन्देह नहीं कि ‘स्त्री’ और ‘दलित’ प्रश्न पर केन्द्रित सरोकारों ने पिछली सदी के अंतिम दशक में जिस रचनाधर्मिता को प्रेरित और सवंर्द्धित किया था, उसके पीछे गंभीर सामाजिक चिन्ता थी। पर क्रमशः उसका स्खलन ब्रांडधर्मी लेखन में होने लगा। ऐसी रचनाओं का अम्बार लग गया जिनका ‘उत्पादन’ इस ‘ठप्पे’ के सहारे साहित्य की दुनिया में मान्यता प्राप्त करने की लालसा से लगभग ‘उद्योग’ की तरह किया जा रहा था। इस तथाकथित साहित्य की अपनी रूढ़ियाँ और मार्केटिंग के अपने तौर-तरीके विकसित हो गए। ‘सामाजिक न्याय’ की गंभीर चिंता से प्रेरित रचनाआंे के बीच ‘असल’ और ‘नकल’ की पहचान दुष्कर और श्रमसाध्य हो चली। इस कठिनाई ने निश्चित रूप से पाठकों की संख्या को प्रभावित किया है। 




इसके अतिरिक्त भी जो रचा जा रहा है, उसमें किन्हीं केन्द्रीय प्रवृत्तियों को रेखांकित करना अब कठिन है। विषय और शिल्प दोनो दृष्टियों से। लीक से हटकर नयी ‘राहों का अन्वेषण’ करने वाले रचनाकर्मियों को एक विशेष दौर में पहले ‘प्रयोगवादी’ और फिर ‘नए’ विशेषणों से पहचान देने की कोशिश की गई थी। रचनाकर्म के वर्तमान सर्वतंत्र मुक्त परिदृश्य में ऐसा कोई प्रयास विफल होने के लिए अभिशप्त होगा। ध्यान देने की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ‘आपाधापी’ भरे माहौल में भी रचनाकर्मियों की वरिष्ठ पीढ़ी ने भी ‘सन्यास’ नहीं लिया है। भले ही वे युवा पीढ़ी के समानान्तर किसी दौड़ में शामिल न हांे, पर उनकी कलम से जो रचनाएँँ आकार ले रही हैं उनके पीछे गंभीर सोच, समय-संलग्नता और अभिव्यक्ति के नए ढब अपनाने की ललक निःशेष नहीं हुई है। उदाहरण के लिए ‘तद्भव’ के ‘आख्यान पर एकाग्र’ अंक चौबीस का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा। पत्रिका के संपादक स्वयं हिन्दी के जाने-माने कथाकार अखिलेश हैं। उन्होंने कितने जतन से इस त्रैमासिक पत्रिका का नियमित संपादन किया और इसके स्तर और पठनीयता में गिरावट नहीं आने दी, यह सर्वविदित है। 

इस अंक में जिन कथाकारों की रचनाओं का चयन किया गया है। क्या उससे इस वस्तुस्थिति का खुलासा नहीं होता कि ‘आख्यानधर्मिता’ आज भी विशेष रूप से उन्हीं कथाकारों में मिलती है जो ‘ठेठ’ समसामयिक प्रयोगधर्मिता से आतंकित नहीं है। दिलचस्प बात है कि वरिष्ठ कथाकारों में काशीनाथ सिंह, राजेश जोशी, शिवमूर्ति, योगेन्द्र आहूजा के अलावा लेखिकाओं में सारा राय और नीलाक्षी सिंह को शामिल किया गया है। युवा पीढ़ी के नाम पर एकमात्र मनोजकुमार पांडेय की एक कहानी और राजू शर्मा के एक लघु उपन्यास (90 पृष्ठ) को इस अंक में जगह मिली है। 

सम्पादक का यह दावा गौर तलब है कि इसमें सम्मिलित रचनाकार ‘‘इतने अलग अलग परिवेश, समुदाय, पीढ़ियों, वैचारिकी से ताल्लुक रखते हैं कि उनकी रचनाओं की विषयवस्तु, अभिव्यक्ति शैली, भाषा आदि परस्पर ऐसी अलैहदा हो जाती है कि चकित होना पड़ता है। रचना जगत की ऐसी अनेकानेक छवियों की मौजूदगी समकालीन कथा-परिदृश्य की कमज़ोरी नहीं, उसका वैशिष्टय और शक्ति है।’’

कहना न होगा कि बात इतने पर खत्म नहीं होती। यह चयन इसका भी प्रमाण है कि अभी भी वरिष्ठ पीढ़ी ने मैदान नहीं छोड़ा है, क्योंकि उनमें आख्यानपरकता के साथ प्रयोगधर्मिता और ताज़गी ‘नेरेशन’ का निजी ढब अलग पहचाना जा सकता है। उनके विस्थानापन्न की संभावना फिलहाल नज़र नहीं आ रही है। 

इसकी एक खास वजह शायद समकालीनों में कुछ नया, कुछ अलग, विशिष्ट सा दिखने का हठाग्रह हो सकता है। भले ही इसके लिए ‘कथ्य’ और ‘शिल्प’ दोनों के साथ कुछ ज़ोर-आज़माइश करनी पड़े। रचना की पठनीयता बाधित हो जाए। अंग्रेजी की ‘नयी बोतल में पुरानी शराब’ वाली कहावत चरितार्थ हो। इस प्रवृत्ति का उदाहरण ‘तद्भव’ के इसी अंक में संकलित उपन्यास ‘युक्लिड और दावौसः एक घटता हुआ अफ़साना’ में ही देखा जा सकता है। 

पाठक का चौंकना शीर्षक से ही आरम्भ हो जाता है। उपन्यास की शुरूआत जिस दूरान्तरप्रवाही विराम-मुक्त भाषिक-विन्यास से होती है वह पठनीयता में बाधक भले ही हो, पर यह आभास ज़रूर पैदा करती है कि कथ्य नया है-एकदम टटका। नई तकनीकी की सहायता से करोड़ों की जनसंख्या को अचूक पहचान देने की जद्दोजहद में जूझती सत्ता। इस सवाल से प्रेरित विमर्श। 

पर क्रमशः कुछ विषम रास्तों से गुज़रती कथा समय में वापिस लौटती है-वही एमर्जेन्सी, नसबंदी, सत्ता और जनता आमने-सामने, नक्सलवाद के शक से प्रेरित पकड़ा-धकड़ी, एंकाउंटर आदि आदि। और इस सबको अंजाम देने वाली दो पीढ़िया शीर्षक में मौजूद ‘युक्लिड’ और ‘दावौस’ संज्ञाओं की कुछ चमत्कारिक व्याख्याएँ, ध्यान ज़रूर खींचती है, पर ‘अफ़साना’ भाषिक मकड़जाल में घटने की नहीं घिसटने की सी प्रतीति कराता है। ‘नए’, ‘पुराने’ की यह विषम जुगलबंदी ‘प्रयोग’ से अधिक कुछ नहीं ठहरती। 

कहना गलत न होगा कि क्षेत्र कविता का हो या गद्य-रचनाओं का, परिमाण में जितनी बहुतायत लक्षित की जा रही है, उसके अनुपात में गुणात्मकता में नहीं। जैसा कहा जा चुका है, इसकी वजह पूरे परिदृश्य में व्याप्त ‘तुरंतावाद’ है। लिखने से छपने और मान्यता प्राप्त करने तक की यात्रा अनुचिंतन, मनन, साधना के बल पर नहीं, दूसरे रास्तों से पा लेने की आकांक्षा का असर नवोदित पीढ़ी की रचनाओं की प्रभविष्णुता पर पड़ रहा है। एक और कठिनाई सूचना-प्रोद्योगिकी के निर्बाध विकास ने पैदा की है। इस सुविधा ने जोड़-तोड़धर्मी रचनाओं के उत्पादन का काम बहुत आसान कर दिया। प्रकाशक तक इस प्रवृत्ति को व्यंग से ‘कटिंग-पेस्टिंग’ विशेषण से नवाज़ने ही नहीं लगे है, इनके विरुद्ध सावधानी भी बरतने लगे हैं। यूँ जिन्हें बेसब्री है, उन्हें अब एक समानान्तर प्रकाशन-चैनल सुलभ है। और कहीं नहीं तो फे़सबुक, ब्लाग जैसे माध्यमों से उत्साही नयी पीढ़ी कम-से-कम एक खास किस्म के नवोदित पाठक वर्ग में अपनी पैठ बना लेती है। 

असंभव नहीं है कि एक दिन ऐसा आए जब दो या अधिक रचना-वर्ग, उनके अपने पाठक, बहस के अलग मुद्दे, समानान्तर फलते-फूलते अपनी दुनिया में मगन रहें। क्योंकि अब एक दूसरे के क्षेत्र में घुसपैठ करने की प्रवृत्ति के परिणाम सुखद होने की संभावना कम ही दिखायी पड़ती है। 

इधर एक नई खबर ने कुतूहल पैदा किया। लम्बे समय से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के कथाकारों की यह दुखती रग रही है कि उनकी पहचान यानी लोकप्रियता अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय कथाकारों की तुलना में बहुत कम है। इतना ही नहीं इधर ऐसी रचनाओं पर आधारित फिल्में बनाने का चलन भी बढ़ा है। इन पुस्तकों के हज़ारों की संख्या में छपने वाले सस्ते जाली संस्करण शहरों के हर चौराहे पर फेरीवालों के हाथों में भी अपनी मौजूदगी दर्ज कर रहे हैं। अगर यह स्थिति हिन्दी में भी लेखकों की एक नए ढँग और सोच वाली युवा पीढ़ी को इस बाज़ार में कूदने के लिए प्रोत्साहित करे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि ऐसी रचनाओं की लोकप्रियता का आधार जासूसी या तिलस्म जैसी चौंकाने वाली विषयवस्तु नहीं होती। ये समाज की बदलती हुई जीवन-शैली से पैदा होनी वाली रोज़मर्रा की कठिनाइयों पर नज़र टिकाकर बोलचाल के परिचित मुहावरे में बड़े प्रभावी और रोचक ढँग से पाठक को समय से रू-ब-रू कराते हैं। 

प्रयोग की एक और दिशा है। इतिहास और सांस्कृतिक जीवन में मौजूद पुरा-कथाओं की पुर्नव्याख्या। अलौकिक का तार्किक रूपान्तरण गंभीर साहित्यिक रचनाओं के बरक्स ऐसी रचनाओं के हिन्दी अनुवादों ने (जो बहुत सफल भी नहीं कहे जा सकते) भारतीय भाषाओं के बाज़ार पर कितनी दूर तक कब्ज़ा कर लिया है-इसका अध्ययन दिलचस्प होगा। क्योंकि आखिर मामला तो बाज़ार और बाज़ारवाद का है। 

ताज्जुब नहीं कि अखबारी खबरों के अनुसार युवा-पीढ़ी के कुछ उत्साही सदस्य, एकजुट होकर हिन्दी में ऐसे लेखन की पहल करना चाहते हैं जो विक्रम सेठ, चेतन भगत या अमिश त्रिपाठी की रचनाओं की तरह हज़ारों-लाखों की संख्या में छपें-बिकें और यथासंभव छोटे-बड़े पर्दों पर फिल्मायी भी जा सके, क्योंकि अर्थकरी प्रसिद्धि और पाठकों की विपुल संख्या तो आखिर वहीं है। ज़ाहिर है गंभीर साहित्य के प्रवक्ताओं और उसके बलबूते पर अपनी दुकानें सजाकर बैठे अवसरानुकूल फ़तवे देते महारथियों के सामने यह स्थिति कोई नयी ‘स्ट्रेटेजी’ बनाने की मजबूरी तो पैदा कर ही सकती है। 

नए संकल्प से लैस इस पीढ़ी का संबंध ‘हिन्दी साहित्य’ छोड़ तमाम दूसरे विषयों से है। ज़ाहिर है इन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला है कि ठेठ हिन्दी-जगत के उन महन्तों का जो तरह-तरह की गद्दियों पर बैठै रचनाकारों को स्थापित-विस्थापित करने का दावा करते हैं, उनका इनके बारे में क्या कहना होगा। वैसे इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वे पाली बदलकर इन्हें ही सराहने लगे। 

एक छोटे से किस्से से बात खत्म करना दिलचस्प होगा। मेरे एक हमउम्र रचनाकार मित्र थे। वास्तव में कुछ वर्ष बड़े पर लगातार दस वर्ष छोटे दिखने की फ़िराक में रहते थे। लोकप्रिय होने के लोभ में नए-से-नए रचनाकार की पीठ थपथपाना उनकी दिनचर्या थी। उसी उत्साह में उन्होंने ‘ब्लॉग’ की दुनिया में घुसपैठ की। आए-दिन फोन करते, ‘‘क्या कर रही    हो ? अरे ज़रा ब्लॉग पर जाकर ‘अमुक’ की एन्ट्री देखो।’’ उन्होंने बहुत कोशिश की मुझे इस कला में दीक्षित और इस दुनिया में प्रवेश कराने की। यह स्थिति बीस-तीस वर्ष पहले पैदा हुई होती, तो संभवतः मैं उत्साह में ऐसा कर गुज़रती। पर अपनी सीमाओं की समझ के चलते मैंने उनके लाख कहने के बावजूद उनके प्रस्ताव पर अमल नहीं किया। 

अलबत्ता उनसे अक्सर पूछ लेती थी कि उस दुनिया में क्या सरगर्मियाँ चल रही हैं, या वहाँ की ताज़ा खबर क्या है ? उनके उत्तर से कभी गरमागरम बहस होती, कभी मनोरंजन। बहुत समय नहीं बीता होगा कि एक दिन उन्होंने दुःखी मन से सूचना दी कि उनके समर्पितों (तथाकथित) ने उनकी कुछ ऐसी गत बनायी कि उन्होंने ‘ब्लॉग’ बक्से को खोलने से तौबा की। नाम बताना ज़रूरी नहीं, क्योंकि वे अब सारी जवाबदेहियों से परे जा चुके हैं। विश्वास है, पाठकों ने उनके नाम का अनुमान लगा ही लिया होगा!

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