भयानक समय सचमुच मूर्त रूप में हमारे सामने आन पहुचा है - विभूति नारायण राय | Dreadful Time is here - Vibhuti Narayan Rai

  हमारे कवि क्या कर रहे हैं?
     क्या यह भयानक समय अब भी उन्हें डराता है?
             या फिर
              वे आने वाले अच्छे दिनों में अपना
                         हिस्सा तलाश रहे हैं?
                               - विभूति नारायण राय

कान्ति शर्मा, ममता कालिया, भारत भारद्वाज, रवीन्द्र कालिया, भरत तिवारी व विभूति नारायण राय

विमोचन: वर्तमान साहित्य के नोएडा, गोल्फ कोर्स, सम्पादकीय दफ़्तर में 'वर्तमान साहित्य' अगस्त-सितम्बर 2014 'दुर्लभ साहित्य विशेषांक' का विमोचन करती वरिष्ठ कथाकार सुश्री ममता कालिया

बाएं से: कान्ति शर्मा, ममता कालिया, भारत भारद्वाज, रवीन्द्र कालिया, भरत तिवारी व विभूति नारायण राय

आज की कविता में सबसे अधिक दोहराया जाने वाला वाक्य अपने समय को लेकर व्यक्त होने वाली चिंता है। कवि अक्सर यह कहता नजर आता है कि हमारा समय बड़ा भयानक है और इस मुश्किल समय में मनुष्य का बचा रहना या कुछ महत्वपूर्ण रचना असम्भव सा होता जा रहा है। अमूमन यह वक्तव्य फैशन के तहत दिया  जाता रहा है और अक्सर उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जिसका वह हक़दार है। लगभग बार बार भेड़िया के आने की फर्जी सूचना देने वाले मुहावरे जैसी स्थिति है। ऐसे में भेड़िया सचमुच आ जाय तो क्या होगा? आज जब वर्तमान साहित्य का यह अंक आपके हाथों में पहुँच रहा है तो यह भयानक समय सचमुच मूर्त रूप में हमारे सामने आन पहुचा है। ऐसे में हमारे कवि क्या कर रहे हैं? क्या यह भयानक समय अब भी उन्हें डराता है? या फिर वे आने वाले अच्छे दिनों में अपना हिस्सा तलाश रहे हैं? अच्छे दिनों के आगाज़ के पहले माहौल कुछ कुछ वैसा ही है जैसा आंधी-तूफ़ान के पहले होता है। हवा रुकी हुई है, काला आसमान धरती पर झुक आया है और परिंदे अपने घरौन्दों की तरफ लपके जा रहे हैं। सभी दम साधे तूफ़ान की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इनमें हमारे कवि भी हैं। पिछले सौ दिनों में मुझे एक भी कविता पढ़ने को नहीं मिली जिसमें भयानक समय का जिक्र आया हो या कम से कम ऐसे मुश्किल वक्त के आने की घोषणा की जा रही हो जिसमें कुछ भी अच्छा रचना असंभव हो जायेगा। तर्क दिया जा सकता है कि किसी का मूल्यांकन करने के लिए सौ दिन बहुत कम होते हैं, सही भी है। हमें कुछ दिन और इंतज़ार कर लेना चाहिए। अगले कुछ महीनों में इस पर विस्तार से बातें होंगी।
'वर्तमान साहित्य'
अगस्त–सितम्बर, 2014
दुर्लभ साहित्य विशेषांक
अन्दर की बात
  • विज्ञान और युग —  जवाहरलाल नेहरू
  • हिंदू संस्कृति  —  डा. राममनोहर लोहिया
  • हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी —  अमरनाथ झा
  • सभ्यता —  डाक्टर ताराचंद
  • इतिहास का सांप्रदायिक दुरुपयोग — प्रो. रामशरण शर्मा
  • साहित्य जनसमूह के हृदय का विकाश है — पं. बालकृष्ण भट्ट
  • आलोचना और अनुसन्धान — परशुराम चतुर्वेदी
  • समाजशास्त्रीय आलोचना — डॉक्टर देवराज
  • ‘रामचरितमानस’ का रचना–क्रम — डॉक्टर कामिल बुल्के
  • साहित्य में संयुक्त मोर्चा ? — शिवदान सिंह चौहान
  • साहित्यिक ‘अश्लीलता’ का प्रश्न — विजयदेव नारायण साही
  • यथार्थवाद — डा. वासुदेवशरण अग्रवाल
  • छायावाद क्या है ? — मुकुटधर पांडेय
  • हिन्दी पत्र–पत्रिकाओं का विकास — डॉक्टर रामरतन भटनागर
  • छोटी पत्रिकाएँ — नागेश्वर लाल
  • कवि–मित्र नरेन्द्र शर्मा की याद में — केदारनाथ अग्रवाल
  • राहुल जी के घर में सात दिन — डॉ. ईश्वरदत्त शर्मा
  • ‘मतवाला’ कैसे निकला — शिवपूजन सहाय
  • सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (१९२७–१९८३) — अमरकांत
  • निर्णय इतिहास करेगा — मिखाइल गोर्बाचेव और गैब्रील मार्क्वेज़ के बीच बातचीत
  • जार्ज लूकाच से एक भेंट — रामकुमार
  • आलोचना के जोखिम — नामवर सिंह से कवि केदारनाथ सिंह की बातचीत
  • मुक्तिबोध के पत्र — श्रीकांत वर्मा के नाम
  • स्वर्गीय ‘नवीन’ जी के कुछ पत्र — लक्ष्मीनारायण दुबे
  • हिन्दी–साहित्य का इतिहास — शिवपूजन सहाय
  • कंकावती १९६४ : राजकमल चौधरी — सुरेन्द्र चौधरी
  • उत्तरी भारत की संत–परम्परा — नामवर सिंह
  • रेणुजी का ‘मैला आँचल’ — नलिन विलोचन शर्मा
  • निराला की साहित्य–साधना “प्रथम खंड” जीवन–चरित — भगवत शरण उपाध्याय
पत्रिका मंगाने के लिए संपर्क करें: 
vartmansahitya.patrika@gmail.com या sampadak@shabdankan.com

लगभग तीस साल पहले वर्तमान साहित्य का प्रकाशन शुरू हुआ था। प्रारम्भिक दो अंक अखिलेश ने सम्पादित किये और यह उनके कुशल सम्पादन का नतीजा था कि पहले अंक से ही इसने सुधीजनों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। बाद में अपनी लम्बी यात्रा के दौरान सम्पादक के रूप में इसे धनंजय, से.रा.यात्री, ओम प्रकाश गर्ग, किसलय बंदोपाध्याय, सुरेश सलिल, अजामिल, कपिलेश भोज, हरीश्चन्द्र अग्रवाल जैसे लोग मिले जिन्होंने अपनी प्रतिभा और क्षमता भर इसे एक स्तरीय पत्रिका बनाये रखा। इसके लिए मील का पत्थर साबित हुआ कहानी महाविशेषांक जो 1991 में रवीन्द्र कालिया के सम्पादन में प्रकाशित हुआ था। उस समय रचनारत कोई भी महत्वपूर्ण कथाकार नहीं था जो इस अंक में न छपा हो और आज के बहुत से प्रतिष्ठित कथालेखकों की तरफ पहली बार इसी अंक के माध्यम से लोगों का ध्यान गया था। बाद में वर्तमान साहित्य ने शताब्दी अंकों की एक अद्भुत शृंखला प्रकाशित की और इसके आलोचकों को भी स्वीकार करना पड़ा कि खड़ी बोली के सौ सालों का साहित्यिक इतिहास बिना इन विशेषांकों के जि़क्र के अधूरा रहेगा। इनके अतिरिक्त इसने एक संग्रहणीय फिल्म विशेषांक भी इसी दौरान प्रकाशित किया।

2004 में एक ऐसा दौर आया जब मुझे लगा कि मेरे लिए पत्रिका आगे निकाल पाना संभव नहीं है। मैंने अपने गाँव में एक पुस्तकालय स्थापित किया था और यह समय था जब एक छोटे से केंद्र से बढ़कर यह एक बड़ी बहुआयामी संस्था में तब्दील हो रहा था और मुझे लगने लगा था कि अपनी व्यस्त नौकरी के कारण मैं दोनों के लिए समय नहीं निकाल पाऊँगा। चुनाव मुश्किल था पर गाँव मुझे ज़्यादा ज़रूरी लग रहा था और मैंने उसी के पक्ष में फैसला किया। पत्रिका बंद होती कि इसी बीच संयोगवश अलीगढ़ से कुंवर पाल सिंह और नमिता सिंह लखनऊ पधारे और एक दोपहर भोजन पर इसके भविष्य का फैसला हो गया। कुंवर पाल सिंह ने मेरे अनुरोध पर वर्तमान साहित्य के प्रकाशन की जि़म्मेदारी संभालने का वादा कर लिया। जो लोग कुंवर पाल सिंह को जानते हैं वे मेरी इस राय से सहमत होंगे कि प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता से भरपूर कुंवर पाल सिंह एक बेहतरीन इंसान थे और अपने जनपक्षधर मूल्यों से किसी स्तर पर समझौता किये बिना वे निरंतर एक सुंदर दुनिया का सपना देखते रहते थे। साहित्य उनके लिए इसी सुंदर दुनिया को हासिल करने का एक माध्यम था। वर्तमान साहित्य को उन्होंने अपनी राजनीति का औजार बनाया और इसका रचनात्मक पक्ष संभाला हिंदी की महत्वपूर्ण कथाकार नमिता सिंह ने। दोनों ने मिल कर 2009 के अंत तक नियमित पत्रिका निकाली। अपने खराब स्वास्थ्य में कुंवर पाल सिंह अंतिम दिनों वर्तमान साहित्य ही जीते रहे। उनके जाने के बाद नमिता जी ने जिस धैर्य और बहादुरी के साथ पत्रिका निकाली उसके लिए हम सब के मन में आदर का भाव रहा है। बढ़ती उम्र और खराब स्वास्थ्य के कारण जिस समय नमिता जी ने सम्पादन से मुक्ति की इच्छा व्यक्त की उन्हीं दिनों मेरा वर्धा का कार्यकाल समाप्त हो रहा था और मैंने सहर्ष उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। इस तरह वर्तमान साहित्य का नया दौर शुरू हो रहा है। इसमें नया सिर्फ यही है कि एक नई टीम सम्पादन का दायित्व संभाल रही है, पत्रिका की नीति और पक्षधरता वही होगी जो कुंवर पाल सिंह और नमिता सिंह की थीं या उनके पहले थीं।

इस अंक से वर्तमान साहित्य के साथ हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता के दो महत्वपूर्ण नाम : रवीन्द्र कालिया और भारत भारद्वाज जुड़ रहे हैं। दोनों परिचय के मोहताज नहीं हैं। पाठकों को वागर्थ और नया ज्ञानोदय के सन्दर्भ में रवीन्द्र कालिया की सम्पादन क्षमता का स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह पिछले तीन दशकों के दौरान हमने अलग-अलग पत्रिकाओं में अपने नियमित कालमों के जरिये असाधारण स्मृति और विवेचना कौशल का प्रदर्शन करते भारत भारद्वाज को देखा है। इन दोनों की सक्रिय उपस्थिति निश्चित रूप से वर्तमान साहित्य को एक जरूरी और पठनीय पत्रिका बने रहने में मदद करेगी।
Dreadful Time is here - Vibhuti Narayan Rai 
vimochan, vartman sahitya, kanti sharma, mamta kalia, ravindra kalia, bharat bhardwaj, bharat tiwari, vibhuti narayan rai

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ