कहानी: बर्फ की मैनाएं - गीताश्री | Hindi Kahani - Geeta Shree

बर्फ की मैनाएं

गीताश्री

कहानी

प्यार - बेलाग भावना ; 
प्यार करने वाले - बेखुद ; 
बर्फ की मैनाएं - गीताश्री की नयी कहानी, प्रेमकहानी, बेखुदी में डूबी बेलाग भावना की कहानी...


वह सिर्फ तीन मैना देखना चाहती थी। एक खत आ जाए कहीं से, जो उसे थमा जाए, कभी न बदलने वाला मौसम। इंतजार कई बार उम्र से लंबा हो जाता है। वह जाते-जाते कह गया था कि पत्र लिखेगा। एक ही मुलाकात में इतना भरोसा... नहीं करना चाहिए था। 

बेतरहा पसीने से भीगी वह किसी पानी वाली जगह की तलाश में थी। घर से इतनी दूर वह अपने दम चली तो आई थी, पर अकेलेपन ने उसका दम निकाल दिया था। अच्छा होता शेफाली की बात मान जाती। दो दिन और रुक जाती तो उसका साथ मिल जाता और इतनी बोरियत भी न होती। अकेलेपन के भूगोल में पृथ्वी का नक्शा अजीब सा हो जाता है, जैसे सारी बनस्पतियां उदासी ओढ़ने लगती है और पानी थिरा जाता है, ठिठकती हो आंखों में कोई बूंद जैसे... 

उसकी आंखों में ठिठकी हुई बूंदें भी घनी परछाईयों से भरी हैं। अनगिनत सफेद स्याह परछाइयां... 

गड्डमड्ड परछाइयां... 

खुद भी तो परछाईं में बदल चुकी है या किसी परछाईं का पीछा कर रही है। 

उसे अभी इस बियाबान में पानी की तलाश है, अकेली भटकती हुई वह पहाड़ी जंगल में दूर तक निकल आई है। झाड़ियां और देवदार के वृक्षों से होकर गुजरते हुए जिंदगी बेहिसाब याद आ रही है और जितना सोचती है, प्यास उतनी बढ़ती जा रही है। कंठ सूख रहा था। पानी का बौटल लाना भूल गई थी। इन दिनों कहां होश? मन ठिकाने नहीं, तन कहां ठिकाने रहता। गेस्ट-हाउस से निकलते वक्त कहां होश था कि बैग उठा ले। आसपास भटकने का मन था और उसके बेकाबू पैर कहां ले आए थे, नहीं मालूम। थकान नहीं थी, बस एक प्यास थी जो कंठ को लगी थी, जिस्म जैसे जुदा था उस प्यास से।

घोड़ा वाला उसके साथ दूर तक जाने के मूड में था पर वह नितांत अकेले और तन्हा भटकना चाहती थी। सबको छोड़ कर ही तो आई थी। 

इस वक्त किसी का साथ नहीं चाहिए, बस प्यास बुझ जाए तो जंगल को जी लेगी, कुछ पल। 

वह पहाड़ के सबसे ऊंची चोटी पर खड़ी थी। सामने दूर गोल्फ मैदान जैसा कुछ दिख रहा था, मनुष्य-विहीन। उसने नीचे, घाटी की तरफ नजर दौड़ाई। कुछ कच्चे पक्के मकान नजर आ रहे थे। इस ऊंचाई पर पानी कहां से लाएं? उसने घाटी का मुआयना करना शुरु किया, दूर गहराई में कुछ चमक रहा था। घाटी में धूप पसरी हुई थी, बस देवदार के घने पेड़ो के साये से धूप दूर थी, कुछ पल के लिए उसे कोफ्त हुई। घाटी में चमकती हुई चीज कोई नदी या झील जैसी दिख रही थी या हो सकता है वहां पानी ठहरा हो। उसने सुना था कि पहाड़ गीले होते हैं और वहां कहीं भी पानी के छोटे-छोटे झरने मिल जाते हैं। उसे तब सोच कर बहुत रोमांच हुआ था और उसे लगा कि उन झरनों के सोते में अपना मुंह लगा कर पहाड़ का सारा पानी पी जाएगी। अपनी इस सोच पर उसे हंसी भी आई थी। पहाड़ का सारा पानी कैसे पीएगी... चखेगी जरूर। कैसा होगा स्वाद? इसी रूमानियत में डूबी वह दुर्गम चढ़ाई चढ़ गई। नीचे सब-कुछ बहुत छोटा नजर आ रहा था और प्यास बड़ी होती जा रही थी। 

एक चट्टान पर बैठ गई। वापस जाकर ही पानी मिलेगा, कोई उपाय नहीं। बेहतर हो, यहां बैठकर नजारा ले और फिर वापस लौट जाए। लौटने में भी उतना ही वक्त लगेगा जितना चढ़ाई में। पहाड़ी रास्ते हैं, संभल कर जाना होगा, फिसल गए तो खाई में। हल्की सिहरन हुई। 

उसने महसूस किया, वहां अकेली नहीं है। हवा है, पेड़ है, पत्थर हैं, बनस्पतियां हैं... 

उसी की तरह उदास और तन्हा। 

उसने पेड़ो की टहनियों पर निगाहें दौड़ाई। दो पहाड़ी मैना, वहां दुबकी हुई बैठी थीं। कैमरा नहीं लाई, फोटो खींचने लायक दृश्य था। वह देखती रही टकटकी लगाए। लगता है कुछ अच्छा घटित होने वाला है। इस वीराने में क्या अच्छा घटित होगा, बुरा घट सकता है। बुरा तो कहीं भी, कभी भी घट सकता है, वह वक्त, देशकाल देखकर नहीं घटता। 

ये मैनाएं बड़ी प्रतीकात्मक क्यों होती हैं? सात तालों में बंद होस्टल में ये मैनाएं ही थीं जो कभी-कभी खिड़की पर अपने पर मार जाया करती थीं। सुबह सबेरे अगर एक मैना दिखती तो गुड्डी चिल्लाती-"वन फौर सौरो। " तब तक सीमा को दो मैनाएं दिख जातीं।

वह खुशी के मारे चीख पड़ती- "टू फौर ज्वाय। आज तो मजा आएगा। कोई अच्छी खबर मिलेगी। " गुड्डी का उतरा हुआ मुंह देखकर सीमा चुप लगा जाती। गुड्डी प्रार्थना बुदबुदाने लगती - "हे भगवान आज कुछ बुरा न हो। एक मैना क्यों दिखती है मुझे... क्या होने वाला है, ओह भगवान... ?"

फिर तो रूम की पांचो लड़कियां खिड़की पर डट जातीं कि उन्हें भी दो या दो से अधिक मैना दिखे। वे इशारो से या अपनी प्रार्थनाओं से मैनाओं का आवाहन करतीं। सारी बहसे सुबह-सुबह मैनाओ पर केंद्रित हो जाती। रविवार की सुबह पांचो लड़कियां दो से अधिक मैनाओ का आवाहन करतीं। पूरे रूम में मैना-पाठ होता-वन फौर सौरो, टू फौर ज्वाय, थ्री फौर लैटर और फोर फौर गेस्ट... ... 

और उस कमरे की पाँचवीं, नयी लड़की, गंवई सी, विचित्र भाव से यह पाठ सुना करती और मैनाओ की संख्या से पूरे दिन को नियंत्रित होते देखती। 

जिसको एक मैना दिखती, वह दिन भर तनाव लिए घूमती। या किसी से झगड़ लेती या भिड़ंत हो जाती या डांट सुनकर आ जाती। किसी न किसी तरह का नुकसान पक्का और शाम होते-होते एक मैना अपनी करामात जरूर दिखा जाती। दो मैना वाली लड़की दिन भर मच-मच करती घूमती और होंठों से गाने के बोल हटते नहीं। कुछ न कुछ अच्छा जरुर होता, रुटीन से हटकर। तीन मैना चिठ्ठी का आगाज करती और चिठ्ठी आ जाती। रविवार की सुबह चार मैना दिखती और शाम होते-होते कोई गेस्ट विजिट करता। कोई आए, वहां का मौसम थोड़ा बदलता था। जिनके कोई न आता वे दूसरे के बदलते मौसम को हसरत भरी निगाहों से देखा करती।

मैनाओं की अहम भूमिका थी वहां का मौसम बदलने में और पाँचवीं लड़की अब मैनाओ को आजमाने के लिए खुद को तैयार कर चुकी थी। 

कुछ सालों तक उन ऊंची दीवारों, नुकीले मुंडेर पर कौआ, मैना के अलावा सिर्फ धूप उतरती थी, जिसे शाम धीरे-धीरे कुतर लेती थी। 

उन अंधेरों में पाँचवीं लड़की का दुख घुलता जाता, जिसे कभी-कभी सुबह की दो मैनाएं उन पर रुई के फाहे रख देतीं। यह अलग बात है कि कई दिनों तक उसे मैनाओ के झुंड दिखते जिनका कोई अर्थ लड़कियों ने ढूंढे नहीं थे। 

वह सिर्फ तीन मैना देखना चाहती थी। एक खत आ जाए कहीं से, जो उसे थमा जाए, कभी न बदलने वाला मौसम। इंतजार कई बार उम्र से लंबा हो जाता है। वह जाते-जाते कह गया था कि पत्र लिखेगा। एक ही मुलाकात में इतना भरोसा... नहीं करना चाहिए था। सिर्फ सात दिन का नेशनल कैंप था और पूरी भीड़ में एक अनगढ़ सा लड़का उसे भा गया था। या उस लड़के को वह भा गई थी। 

दिन भर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सब उलझे रहते फिर शाम को साथ बैठ कर चुहलबाजी होती। सबकी नकल उतारने वाला लड़का 10 राज्यों की टीम में सबसे ज्यादा पॉपुलर हो चुका था। उसे अच्छा लगता कि वह लड़का उसे तिरछी निगाहों से देखता रहता है।

दोनों की तिरछी निगाहें अक्सर टकराती और दोनों झेंप जाते। दोनों के बीच अनकहा छंद पनप रहा था कि विदा की बेला आ गई। 

नीतू कुमारी... चंद्रा देवी ने हकार लगाई। 

खिड़की से बाहर उसने आज नहीं देखा था सो मैनाएं नहीं दिखी थी। उसके भीतर तीन मैनाएं फुदक रही थीं। 

चंद्रा देवी ने उसके हाथ में एक बंडल पकड़ा दिया। 

आपका कोई पार्सल आया है... खोलकर देख लो। 

पार्सल... हैरान शब्द बाहर उछले। 

चिट्ठी होती तो क्या बिगड़ जाता... ?

किसने भेजा होगा? क्या होगा? गांव से कोई न कोई सामान साथ लेकर आता है। उसकी दुनिया का अभी विस्तार हुआ नहीं था। बस परिवार के नाम पर एक पिता और छोटा भाई था। मां के घर से जाने बाद दुनिया सन्नाटे में डूबी थी जहां कोई किसी से ज्यादा बात नहीं करता था। 

हड़बड़ाते हुए उसने पार्सल खोला। 

अखबार के पन्ने से खुल कर एक ऊनी शौल और एक पन्ना गिरा। उसने लपक कर पन्ना उठाया, भीतर के तीन मैनाएं पंख फरफरा रही थीं, जोर-जोर से। 

प्रिय नीतू जी

कुशलते कुशल हूं, कुशल चाहता हूं, दिल में लगन है, मिलन चाहता हूं। 

आपके लिए एक तोहफा भेज रहा हूं, स्वीकार करें। ये मेरी खड्डी में, मेरे द्वारा बनाया हुआ शौल है, इसे गौर से देखिएगा, फिर ओढ़ कर फोटो खिंचवा कर हमें निम्नलिखित पते पर भेजिएगा।

 सिर्फ आपका 

नरेंद्र कुमार सिंह

ग्राम - वाशिंग

डाकखाना- बवेली

जिला-कुल्लु, हि० प्र०



उसने झुक कर शौल उठाया। पूरा खोलकर देखा-पूरा सादा था। ग्रे कलर का, बार्डर पर सुंदर डिजाइन बना हुआ था। झालरें लटकी हुई सुंदर दिख रही थीं। उसने लिखा था, गौर से देखना... गौर से देखते हुए किनारे पर नजर गई। वहां डिजाइन की तरह लिखा था – एनके ।

एनके - नरेंद्र कुमार या नीतू कुमारी... दोनों नाम हो सकते थे। नाम का कैसा संयोग है। उसने भीतर की दो मैनाओ को देखा, जो सुख दे रही थीं, तीसरी चिट्ठी थमा कर ओझल हो गई थी।

"अरे... आप अकेली यहां क्या कर रही हैं? "

उसकी सुधि लौटी। कौन उसे इस वीराने में आवाज दे रहा है। कौन उसे 20 साल पुराने अतीत से बाहर ला रहा है।

लेकिन ध्यानावस्था खत्म हो चुकी थी और मन की मैनाएं झाड़ियों में दुबकी हुई थी। 

नीतू ने चारों तरफ देखा, वह ठीक उसके पीछे खड़ा था। 

"आप... ?"

जी मैं... इधर ही जंगल में रहता हूं, ट्रैकिंग वालो के लिए कैंप का कारोबार है हमारा। इधर सामान्य टूरिस्ट आते नहीं। 

"क्या पानी मिलेगा? प्यास जोर की लगी है।"

आपको कैंप तक साथ चलना पड़ेगा, ज्यादा दूर नहीं है। आइए, वहां और भी कुछ मिलेगा।

वह मुसकुराया। अधेड़ उम्र का तगड़ा पहाड़ी व्यक्ति, बिना हांफे पहाड़ की चोटी पर विचर रहा था। हिमाचली टोपी और मफलर से चेहरा और गर्दन आधी ढंकी हुई थी। 

नीतू साथ चल पड़ी। पानी की चाहत सबसे ऊपर थी। पानी पीकर इन अजनबियो से बात करेगी। स्थानीय चीजो के बारे में बात का जा सकती है। नीतू को कुल्लू में कुछ दिन बिताना था और किसी की तलाश करनी थी।

उसके पीछे-पीछे हो ली। पगडंडियों पर पड़ी सूखी लकड़ियो के चरमराने की आवाज आ रही थी, पानी की अदृश्य उपस्थिति भी कलकल कर रही थी। प्यास जब बढ़ती है तो कहीं भी खींच ले जाती है।

दो सौ मीटर की ढलान पर कुछ टैंट दिख रहे थे। 

आपको पता है, जहां आप बैठी थीं, वो कौन सी जगह है? 

"इसे लवर्स प्वाइंट कहते हैं... यहां या तो लवर्स आते हैं या ट्रैकर्स। किसी को अकेला पहली बार देखा। सो पूछ बैठा। "

अच्छा !!!

नीतू को वह आदमी बहुत दिलचस्प लगा। 

"आप तो यहीं के मालूम पड़ते हैं। आप तो मेरी मदद कर सकते हैं। "

"कैसी मदद? वह हैरानी से बोला। आपको कुछ लोकल चीजें खरीदनी हो तो बताना, मैं गुरुदयाल को आपके साथ लगा दूंगा। सस्ते ऊनी कपड़े और शौल दिलवा देगा, दोनो यहां की खास होती है।"

टोटी वाले जग से पानी पीते-पीते नीतू ने कहा-" मुझे किसी खड्डी से शौल खरीदना है, दुकान से नहीं। "

खड्डी का भाव ही दिलवाएंगे आपको, वहां क्या करेंगी जाकर? वह गांव में होता है और आप पहाड़ी रास्तो को तो जानती हैं... गाने की पैरोडी सुनाता हूं... "ये रास्ते हैं, पहाड़ के, चढना उछल उछल के, हड्डी नजर न आएगी, जो गिर गए उछल के... "

"अच्छा गाते हैं आप... " नीतू मुस्कुराई। 

"जी, टाइम पास के लिए सब करना पड़ता है... 

ये आपने कुल्लू शौल ही तो ओढ रखा है, पुरानी दिखती है... "

नीतू ने शौल को जोर से लपेट लिया। नीतू को लगा वह आदमी तिरछी नजर से शौल को देख रहा है। एनके वाला छोर नीचे लटक रहा था।

टैंट से कुछ युवा लड़के लड़कियां बाहर निकल आए थे। अक्टूबर में पहाड़ का मौसम मैदानों जैसा ही होता है, खुशगवार और लुभावना। 

"मैं चलती हूं... "

"गुरुदयाल, मैम को गेस्ट हाउस तक छोड़ कर आ... "

"मैं अकेली चली जाऊंगी, आप रास्ता पता दें, कहां इन्हें परेशान कर रहे हैं... "

मैम, ये शहर नहीं, पहाड़ हैं, न मौसम का पता न रास्तों का। इसे साथ ले जाएं। दिन भर में हमारे 20 चक्कर लग जाते हैं, ऊपर नीचे। सबकी जरूरत का सामान नीचे से लाना पड़ता है।

नीतू कुछ देर और वहां रुकना चाहती थी। पर वह आदमी उसे भेजने पर आमादा था, उसे ऐसा महसूस हुआ। खुद उसने ही कहा कि चलती हूं तो वह रोके किस हक से? चलना चाहिए...  जिस परछाई का उसे पीछा करना है वो यहां नहीं, कहां है मालूम नहीं। 

उस पार्सल के बाद, न कोई मैना मुंडेर पर दिखी न किसी खत का जवाब आया। होस्टल खत्म, नौकरी शुरु, विवाह और तलाक लगभग साथ-साथ। जिंदगी शुरु होते ही खत्म। अब थी छोटे कस्बे में टीचर की नौकरी और तनहाई।

"गुरुदयाल... एक बात बताओ, यहां बर्फ गिरती है? किस महीने में? "

"दिसंबर से मार्च तक कभी भी ... जहां भी देवदार के पेड़ होते हैं, वहां बर्फ गिरती है... "

तुम इनके क्या लगते हो? 

"वे मेरे पिता है... "

"हम्म्म... "

गेस्ट हाउस दिखने लगा था... 

नीतू ने अपनी देह से शौल उतारी, सुनो, मेरा "एक काम करोगे?"

"क्या? "

"यहां तक पहुंचाने के लिए शुक्रिया। तुम्हें देने के लिए मेरे पास और कुछ नहीं है। ये शौल रख लो, अपने पिता को दे देना। एक अजनबी की तरफ से प्यास बुझाने की कीमत है... !!"

गुरुदयाल अनमनेपन से शौल लेकर लौट गया। नीतू को लगा, देवदार बर्फ से ढंक गए हैं। एक अकेली, दुबकी हुई मैना वहां जम गई है। 
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गीताश्री

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