बनारसी राग दरबारी में आत्मगाथा - आकांक्षा पारे | Akanksha Pare's Review of Alpana Mishra's 'Anhiyaare Talchhat Main Chamka'

समीक्षा

बनारसी राग दरबारी में आत्मगाथा

- आकांक्षा पारे

जो बातें दिल से निकलती हैं वे अक्सर मां के लिए ही होती हैं। यह उपन्यास भी ऐसा ही है दिल से लिखा गया। यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो लड़ रही है अपने आप से, अपने परिवेश से, माहौल से कल्पना से और हां अपने वजूद से भी। बनारस हाल में खूब चर्चा का विषय रहा। बनारस की यही खासियत है कि यह चर्चा में रहना जानता है क्योंकि यहां की मिट्टी बांधती है और एक सौंधापन इससे कभी अलग नहीं होने देता। बिट्टो इसी सौंधे पन से धीरे-धीरे पग रही है, यह आंच इतनी धीमी है कि कहीं भी जलती महसूस नहीं होती, बस उसके संघर्ष की उष्मा देती है। 
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बिट्टो के साथ बनारस की गलियां घूमते हुए लगता ही नहीं कि उसकी मौसी का घर हमारा घर नहीं है। उसके भैया दामोदर भैया हमारे भैया नहीं है, वह मुन्ना बो भी अनजान है जो घऱ में पहले प्रेम विवाह कर आईं और उसी के लिए पराई हो गईं जो उनसे भांवर डाल कर घर ले आया था। 

अल्पना मिश्र के उपन्यास की ख़ासियत उसका वर्णन है। इसी वर्णन को पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई फिल्म आंखों के सामने से हो कर गुजर गई। जैसे किसी ने शब्द चित्र खींचा और यह देखिए घटना सामने हो रही है और आप पढ़ रहे हैं या देख रहे हैं, या पढ़ते हुए देख रहे हैं यह समझना मुश्किल लगता है। एक बानगी देखिएः इसी की अगली सुबह वह सुबह थी, जब मनोहर, मुन्ना जी और कान्हा के साथ दलबल साजे स्कूल के मैदान में उतरे। मैदान बड़ा था। चारों तरफ झाड़-झंखाड़ उगा था। माली नामक जीव कभी इधर से गुजरा होगा, इसकी दूर-दूर तक संभावना नहीं दिखाई देती थी। उस पर कुछ भी होने की संभावना थी। आवाजाही लगातार मची हुई थी। गपर-सपर की इतनी ध्वनियां मिली हुई थीं कि तुमुल कोलाहल का दृश्य बन गया था। कान्हा किताब थामे थे। पन्ना पलट-पलट कर बोलते जा रहे थे। बीच-बीच में उनके हाथ से किताब झटकर मुन्ना जी बोलने लगते थे। जब कान्हा बोल रहे होते तब मुन्ना जी इधर-उधर इम्तिहान की कॉपी पर झुकी लड़कियों को निहार लेते थे। यह ऐसा दृश्य है जिसे कस्बे के शायद हर व्यक्ति ने देखा या कम से कम ऐसे दृश्य के बारे में सुना होगा। परीक्षा के लिए नकल के कई किस्से मशहूर हैं, लेकिन अल्पना जी अपने उपन्यास में उसे ऐसे जीवंत करती हैं कि लगता है, कान्हा और मुन्ना हमारे सामने बैठ कर नकल कर रहे हैं, परीक्षा में पास होने के लिए चाहे कुछ आए या न आए बस कुंजी निकालो और छाप मारो। यदि मैं प्रधानमंत्री होता पर निबंध लिखाने का दृश्य बिलकुल राग दरबारी की याद दिला जाता है। जब वह मुन्ना बो की बात करती हैं तो भाषा भीग जाती है, जब वह मुन्ना की बाद करती हैं तो भाषा शरारत पर उतर आती है, जब वह दामोदर भैया की बात करती हैं तो भाषा दार्शनिक हो जाती है, जब वह मौसी की बात करती है तो भाषा कब दयनीय हो जाती है पता ही नहीं चलता। एक ही व्यक्ति एक साथ इतनी भाषा को निभा सके यही अल्पना मिश्र की खासियत है। लंबे अरसे से ऐसी चटक भाषा में कम लिखा जा रहा है। ज्यादातर भाषा के साथ प्रयोग हो रहे हैं और कई उपमाएं, अलंकार प्रयोग किए जा रहे हैं। लेकिन भाषा का प्रवाह जो स्थानीय रंग में डूब जाए जो वहां का ही बाशिंदा होने का अहसास कराए इस मायने में इस उपन्यास ने यह कमी पूरी की है।
अन्हियारे तलछट में चमका (उपन्यास) मूल्य: 200 रु.
अल्पना मिश्र 
आधार प्रकाशन, एससीऍफ़ 267 सेक्टर 16 , पंचकुला - 134 113 (हरियाणा)
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एक लड़की की यात्रा को उन्होंने अलग-अलग खंड में पिरोया है। एक-एक मोती इतने हौले-हौले घटना के धागे में डाला गया है पढ़ते वक्त भी कहीं कोई जल्दबाजी नहीं रखना पड़ती। सहज भाव से कहानी आगे बढ़ती है और एक पाठक की यात्रा भी। यह भी एक स्त्री की कहानी है, उसके संघर्ष और सपने की भी। लेकिन कहीं भी झंडाबरदारी का अहसास नहीं है। कहीं भी मैं अबला और पुरुष समाज के अत्याचार पर कोई भाषण नहीं। विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़की ने हमेशा पिता के सामने झुकी हुई मां को देखा। फिर भी उसके अपने तेवर हैं। मां जो दिखती अबला है लेकिन कितनी मजबूत है यह उन क्षणों में ही जाना जा सकता है जब वह अपनी बेटी को संबल देती है और वह भी शब्दों से नहीं बस अपनी मदद से। 

अलग-अलग भागों में बंटा यह आत्मकथा रूपी उपन्यास का हर खंड अलग है फिर भी जुड़ा हुआ। कई स्त्रियां मिल कर इस उपन्यास को एक मुकाम तक पहुंचाती हैं। स्त्रियां अलग हैं, स्थतियां अलग हैं लेकिन सबके दुख दर्द साझे हैं। यही साझा दुख बताता है कि चाहे बिट्टो हो, मौसी हो, मुन्ना बो हो या बिट्टो की मां हो यदि लड़ने का माद्दा है तो कठिनाई तो जाएगी ही। अपनी बहन के यहां से आर्थिक मदद लेती मौसी की छटपटाहट इतनी है कि लगता है जिसका जवान बेटा न कमाए, पति को घर की फिक्र न हो तो स्त्री जीवन को कैसे चलाती है। लेकिन फिर भी एक उम्मीद है उस स्त्री के पास जिसके बूते वह जीती है और अपनी स्थिति में जो श्रेष्ठ करना है करती है। अपनी भतीजी को नाश्ता न दे पाने की कमी को वह किराए पर रह रहे हलवाई की दुकान उठ जाने से छुपा जाती है। अपने बेटे की नौकरी न करने की कमी को उसके ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाने से ढांपती है। आजकल ऐसी स्त्रियों के बारे में कोई नहीं बात करना चाहता। 

एक खुदमुख्तार स्त्री की छवि ने ऐसी स्त्रियों को ढक दिया है। अब ऐसी स्त्री मूर्ख कहलाती है जो अपने और अपने परिवार की कमियों को छुपाती है। लेकिन आज भी गांवों-कस्बों में असंख्य ऐसी स्त्रियां मौजूद हैं। दरअसल अन्हियारे तलछठ में चमका उसी मूर्ख स्त्री की गाथा है जिस पर बात करना सच में अब कोई नहीं चाहता। 

आकांक्षा पारे काशिव, आउटलुक पत्रिका की फीचर एडिटर हैं  

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