एक पराधीन राष्ट्र की सबसे बड़ी और आधुनिक चेतना राष्ट्रवाद ही होगी - प्रियंवद | Renaissance - Priyamvad

रैनेसाँ

प्रियंवद

रैनेसाँ ! इस दफा की 'बहुवचन' में जब यह लेख देखा तो लगा कि 'किस ज़माने की बात करते हो ..' लेकिन लेख प्रियंवद का लिखा है, सो, पढ़ना लाज़मी लगा, शुरू किया तो दिमाग की नसों में उस कर्रेंट ने भी दौड़ना शुरू किया जिसके (कर्रेंट) होने का पता ही नहीं था, जो इतिहासकार-प्रियंवद के अनन्य ज्ञान से ऊर्जित कलम पैदा हो रहा था. समाप्त चूँकि रात में हुआ इसलिए उनको अगली सुबह फोन करने की सोच, भाई अशोक मिश्र (संपादक, बहुवचन) से बात की, बधाई दी और सुबह लेखक से बात हुई. प्रियंवद जी खुश हुए, चर्चा हुई लेख के कुछ-एक बिन्दुओ पर जिनमें से कुछ का कर्रेंट जोर का झटका दे गया था और कुछ का चक्षु खोल गया था  ... मसलन 

"इस्लाम की खुली मानसिकता व उदार राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध भारत में जो मुस्लिम आक्रांता आए, वस्तुतः वे इस्लाम का भ्रष्ट संस्करण थे।"

शुर में वो बताते हैं, "इटली में मध्ययुग जब अपने चरम पर था तब दांते ‘डिवाइन कामेडी’ लिख रहा था और भारत में कबीर अपने करघे पर सबसे आधुनिक चेतना के ताने बाने बुन रहा था। इस तरह अब हम रैनेसाँ के हम तीन आवश्यक तत्व चिन्हित कर सकते हैं। पहला महान अतीत की तलाश या पुनर्रचना, दूसरा वर्तमान के आधुनिक मूल्य और तीसरा राष्ट्रवाद। " .... आगे  लिखते हैं 

१) यूरोप ने अपनी भाषा, ज्ञान, साहित्य कलाओं को भी महानतम सिद्ध करने की प्रक्रिया में इन्हें उपनिवेशों पर थोपा। उनकी प्राचीन भाषा, धर्म, साहित्य के मनमाने अर्थ करके उन्हें स्वयं उसे गढ़कर दिया। बहुत धीरे से उन्होंने उनकी भाषा, धर्म और दर्शन को हीन सिद्ध करते हुए अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

२) अकसर ही हिंदू नवजागरण या भारतीय नवजागरण या सिर्फ नवजागरण की बात करने वाले इस स्थिति या इन प्रश्नों से बचते हैं या इसे अनदेखा करते हैं पर हम इस पर बात करेंगे। ये प्रश्न हैं ‘मुस्लिम, रैनेसाँ या नवजागरण के। किसी भी भारतीय नवजागरण में ये समाहित क्यों नहीं हैं?

३) एक पराधीन राष्ट्र की सबसे बड़ी और आधुनिक चेतना राष्ट्रवाद ही होगी।

४) 1885 के बाद से ही हमने किसी भारतीय राष्ट्रवाद को न देखकर हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद ऐसी किसी चीज को देखा जो हिंदू और मुसलमान 1857 में एकजुट थे, अब दो अलग अस्मिताओं, इतिहास, परंपराओं, नायकों, राष्ट्रीयताओं, समाजों और धर्मों की अपनी-अपनी जमीन  उर्वर बनाने में जुट गए थे। ऐसा क्यों हुआ? क्यों ये दो राष्ट्रवाद अलग थे या क्यों एक नहीं हो सके?

कुल मिला कर "रैनेसाँ" प्रियंवद का एक ऐसा लेख है - जो अतीत की पड़ताल करते-करते हमें वर्तमान के उस चौराहे पर ले आता है, जहाँ हम 'अभी' खड़े हुए हैं... शब्दांकन पर इसे प्रकाशित करने के कारणों की बात करूँ तो कहना चाहूँगा -" प्रियंवद-का-रैनेसाँ एक निहायत ही ज़रूरी रिसर्च है जिसका उनसब के लिए पढना आवश्यक है जिनके अन्दर ज्ञानपिपासा है, चाहे वो हम-आप हों या फिर 'सिविल सर्विसेज' की तैयारी करता एक विद्यार्थी...."  

भरत तिवारी




जन्मः २२ दिसम्बर १९५२, कानपुर
शिक्षाः एम.ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति)
कृतियाँ- उपन्यास : वे वहां कैद हैं, परछाई नाच, छुट्टी के दिन का कोरस
कहानी संग्रह : एक अपवित्र पेड़, खरगोश, फाल्गुन की एक उपकथा, आईनाघर
इतिहास : भारत विभाजन की अंत:कथा
सम्मानः कथाक्रम सम्मान, विजय वर्मा पुरस्कार से सम्मानित
संपर्क: 15/269, सिविल लाइंस, कानपुर, उत्तर प्रदेश
फोन 91-512-2305561, 91-9839215236

एक पराधीन राष्ट्र की सबसे बड़ी और आधुनिक चेतना राष्ट्रवाद ही होगी

आज रैनेसाँ की बात करना अकारण या शायद कुछ विचित्र लगेगा, यदि हम इसे केवल यूरोप या कि इटली के एक परिवर्तनकारी युग के रूप में देखेंगे पर यदि हम धैर्य के साथ इसके जन्म, स्वरूप, इतिहास और आशय को समझ लें, तो यह हमारे वर्तमान के सबसे गहरे सरोकारों में एक है, विशेष रूप से कला, साहित्य और विचार की दुनिया में।

वास्तव में रैनेसाँ वैश्विक और जटिल विषय है। संभवतः मनुष्य के इतिहास में न तो दूसरा कोई कालखंड इतना महत्वपूर्ण रहा और न किसी पर इतनी अधिक बात की गई है। ऐसे विषय पर बात करने में बहकाव के अपने खतरे हैं। उसे ठीक से न समझे जाने का संकट भी है। हमारे साथ ऐसा कुछ न हो, इसलिए यह उचित होगा कि हम अपने विषय को कुछ खंडों में विभाजित कर लें और फिर क्रम से उन पर बात करते चलें। हम विषय के तीन खंड बनाते हैं। रैनेसाँ के जन्म, आशय, स्वरूप और इतिहास का पहला खंड, भारतीय संदर्भ में रैनेसाँ का दूसरा खंड और हमारे अपने वर्तमान में रैनेसाँ की उपस्थिति, संभावना या आवश्यकता का तीसरा खंड।

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हिंदी में हमने ‘रैनेसाँ’ उच्चारण चुना है। इसे ‘रैनेसाँ’, ‘रिनेसाँ’ और अंग्रेजी उच्चारण ‘रिनेसाँस’ भी कहा जाता है। इसके हिंदी अनुवाद के रूप में भी कई शब्द प्रचलित हैं। पुनर्जन्म, पुनर्जागरण, नवजागरण, नवोत्थान, पुनर्रूत्थान आदि। फिलहाल हमने अपने विषय के लिए हिंदी अनुवाद का शब्द न लेकर मूल शब्द ’रैनेसाँ’ का ही चुनाव किया है। 

Philosophy / School of Athens
Artist: Raphael
रैनेसाँ इटली के उस युग को कहा जाता है जिसने अपने समय के मनुष्य की पारंपरिक प्रवृत्तियों, विचारों और मूल्यों को बदला। पहले तो शुरू में कला और साहित्य में ही ये बदलाव आए और इसके लिए ही रैनेसाँ शब्द का प्रयोग किया गया पर बाद में दूसरे क्षेत्रों में भी जब बड़े बदलाव हुए, तो उन्हें व्यक्त करने के लिए भी रैनेसाँ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। इस तरह रैनेसाँ मनुष्य, समाज या राज्य के बड़े परिवर्तनों को इंगित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। समय के साथ यह शब्द अपना मूल आशय, व्यंजना, रूप खोता गया और एक ऐसा बेहद लचीला शब्द बन गया, जिसे किसी भी तरह के मामूली परिवर्तन के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। अब यह किसी भी आधुनिक मूल्य या नए विचार या सामाजिक, धार्मिक परिवर्तन मात्र के लिए भी प्रयोग होने लगा है। यहां हम पहले इसके मूल अर्थ और रूप को समझेंगे। इसकी कुछ विशेषताएं चिन्हित करेंगे और फिर आगे उसी आशय के साथ इसका व्यवहार करेंगे। हमारे लिए रैनेसाँ मात्र कोई आधुनिक मूल्य नहीं, या सिर्फ प्रगतिशीलता नहीं या सिर्फ एक स्थिति से दूसरी स्थिति में संक्रमण मात्र नहीं बल्कि कुछ निश्चित प्रवृत्तियों के साथ प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द होगा। 

पश्चिमी रोम के पतन के बाद से पूर्वी रोम के पतन तक लगभग हजार वर्ष का समय कला और विचार की दृष्टि से ‘अंधकार युग’ माना जाता है। चर्च और राज्य दोनों ही असृजनशील भूमिकाओं में थे। राज्य बिखर रहा था, चर्च संकुचित, अनैतिक और शांतिकेंद्र बनने में व्यस्त था। इन कई सदियों तक हम कोई बड़ा दार्शनिक, बड़ा लेखक नहीं देखते। सोलहवीं सदी के मध्य में विज्ञान में कोपरनिकस ने पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। गोथिक कला से अलग वास्तुशास्त्र में बड़ा परिवर्तन हुआ। साहित्य में पेत्रर्क यह काम पहले कर चुके थे। यह वह समय था जब इटली छोटे-छोटे नगर राज्यों में बंट कर षड्यंत्रों, विलासिता और युद्धों में व्यस्त था। ‘केप ऑफ गुड होप’ से भारत के समुद्री मार्ग का पता चलना व अमरीका की खोज ने, समुद्रों पर स्पेन और पुर्तगाल का वर्चस्व बढ़ा दिया था। काली मिर्च पर इटली के व्यापार का आधिपत्य खत्म हो गया था। उसके ढहते सामंतवाद और पूंजी घरानों के लिए यह बड़ा झटका था। चर्च अपनी पवित्रता, नैतिकता को ही अविश्वसनीय बना चुका था। लोग मृत्यु के बाद एक सुखमय लोक की कल्पना में चर्च को अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई देते थे, उसके द्वारा बताई जीवन शैली अपनाते थे, जीवन में नैतिकताओं का पालन करते थे। उनकी इस गाढ़ी कमाई पर ही इन नगर राज्यों की विलासिता फलती-फूलती थी। वे आपसी युद्धों में जर्जर हो चुके थे। मामूली, गरीब या बिल्कुल वंचित लोग नगरों के कारखानों में दयनीय स्थितियों में काम करते थे। मनुष्य की अपनी सत्ता, अस्मिता, ‘इंडिविजुएलिज्म’ यानी व्यक्तिवाद ही रैनेसाँ की सबसे बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि इसके पहले कभी मनुष्य को इस रूप में देखा ही नहीं गया था। आस्था और अंधनिष्ठा की जगह तर्क और वैज्ञानिकता ने ली थी। अब महानता पारंपरिक या वंशगत नहीं थी, बल्कि जीवन को कोई विराट व कलात्मक अर्थ देने में थी।
Batista Sforza & Federico de Montefeltre
by Pierro della Francesca
- Individualism
शासन में उनका कोई अधिकार नहीं था। ऐसे इटली में कोई बड़ा परिवर्तन आना अनिवार्य था। वह परिवर्तन धीरे धीरे रैनेसाँ की शक्ल में उनके जीवन में आया। हालांकि इस रैनेसाँ में सब कुछ महान नहीं था, सब कुछ श्रेष्ठ नहीं था, फिर भी ‘मनुष्य’ की अपनी एक पहचान बनी थी और फिलहाल यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

इतालवी भाषा में रैनेसाँ को La Rinascit यानी ’पुनर्जन्म’ कहा गया। इसका पहला प्रयोग संभवतः वसारी ने 1550 ई. में अपनी कलाकारों की जीवनियों की प्रथम और प्रख्यात पुस्तक में किया। फ्रांसीसी विश्वकोश (1751-72) में पहली बार निश्चित रूप से Renaissance शब्द का प्रयोग हुआ। यह चौदहवीं से सोलहवीं सदी तक साहित्य और कला के विकास को व्यक्त करता था। हालांकि इटली में यह युग था कि आंदोलन सोलहवीं सदी में ही कमजोर पड़ना शुरू हो गया था, पर यूरोप के दूसरे देशों फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, इंग्लैंड और स्पेन में उस समय बढ़ रहा था। वहां इसकी अभिव्यक्ति कला और साहित्य के बाहर, नए समुद्री मार्ग, नए उपनिवेश, नई पूंजी और देश की सीमाओं से परे विशाल साम्राज्यों की शुरुआत में भी होने लगी थी। रूसो, वाल्तेयर के विचारों और फ्रांसीसी क्रांति के ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ के नारे में इसकी परिणति मानी गई। इस तरह रैनेसाँ वास्तव में कोई सीमित या निश्चित कालावधि या कलावधि का परिवर्तन नहीं था बल्कि एक विचार था जो इटली से शुरू होकर पूरे यूरोप में फैल रहा था। एक जीवन पद्धति थी जो युद्ध, व्यापार, राष्ट्रवाद, कला तथा साहित्य में अलग से दिखती थी। यदि हम इस रैनेसाँ की कुछ विशिष्टताएं चिन्हित करें, तो ये केवल आधुनिक मूल्य, आधुनिक विचार नहीं होंगी बल्कि एक ऐसे महान अतीत की पुनर्रचना होगी जो अपने वर्तमान आधुनिक चिंतन और नए मूल्यों से संयुक्त होकर एक ‘नवीनता’ को जन्म देती है। यदि हम उस समय के इटली में ऐसे कुछ मुख्य आधुनिक मूल्य तलाशना चाहें जिन्होंने रैनेसाँ को जन्म दिया, तो वे दो हैं। चर्च की घटती सत्ता और विज्ञान तथा तर्क का बढ़ता वर्चस्व। चर्च से मुक्ति ने ‘इंडिविजुएलिज्म’ को यानी व्यक्तिवाद को, व्यक्ति की अस्मिता को बढ़ावा दिया। यहां तक कि कालांतर में नैतिकता के किसी भी बंधन या अंकुश से मुक्त रहने के कारण रैनेसाँ का उभार अराजकता तक पहुँचा। मैकयावली इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह ध्यान से देखने की बात है कि यह नवीनता अपने इतिहास, अतीत और परंपराओं को खारिज नहीं करती। स्वयं को इससे अलग भी नहीं करती, बल्कि कुशलता के साथ उसे आत्मसात कर लेती है। उससे ही शक्ति ग्रहण करती है। उससे जुड़कर ही अपना नया स्वरूप गढ़ती है। यानी कोई समाज या राष्ट्र सदियां पहले के अपने जनक समाज या राष्ट्र को अपने वर्तमान अस्तित्व के लिए धन्यवाद देता है। उसका वंशज होना स्वीकार करता है और ऐसा वह राष्ट्रवाद की छतरी में करता है। आधुनिकता पर पुरातनता का यह संघात किसी बड़े व्यक्तिक्रम या गतिभंग को जन्म नहीं देता। यह इस तरह का भी नहीं होता कि काल वहां से खंडित होकर दो अलग-अलग हिस्सों में दिखने लगे। प्राचीनता से धीरे-धीरे विच्छिन्न होता हुआ, कहीं थोड़ा बदलता, कही थोड़ा उससे जुड़ा हुआ यह परिवर्तन, पूरी तरह अस्तित्व में आने में काफी समय ले लेता है। वह अपने पूर्वयुग से पूरी तरह संबंध विच्छेद नहीं करता बल्कि उससे उभरता हुआ एक द्वीप जैसा दिखता है। यह परिवर्तन मनुष्य की नई स्वतंत्रता और अधिकारों का घोष होता है। यह परिवर्तन मनुष्य जीवन के प्रत्येक पक्ष में होता है। भोजन, कपड़े से लेकर वैज्ञानिक स्थापनाओं, साहित्य व कला की व्याख्याओं तक में। फिर भी, इस नवीनता की, इन आधुनिक मूल्यों की प्रेरक शक्ति इसकी पुरातन संपदा ही होती है। समाज इस परिवर्तन में बहुत धीरे-धीरे सरकता हुआ प्रवेश करता है। धीरे-धीरे बदलता है। इतना धीरे कि दो युगों की विभाजन रेखा दिखती ही नहीं है। इटली में मध्ययुग जब अपने चरम पर था तब दांते ‘डिवाइन कामेडी’ लिख रहा था और भारत में कबीर अपने करघे पर सबसे आधुनिक चेतना के ताने बाने बुन रहा था। इस तरह अब हम रैनेसाँ के हम तीन आवश्यक तत्व चिन्हित कर सकते हैं। पहला महान अतीत की तलाश या पुनर्रचना, दूसरा वर्तमान के आधुनिक मूल्य और तीसरा राष्ट्रवाद।

इटली में सबसे पहले वास्तुशास्त्र में रैनेसाँ के इस परिवर्तन को देखा गया। फिर साहित्य में ग्रीक और लैटिन शैली तथा विचार और तर्क को अपनाने से यह युग शुरू होता है। इस युग की कुछ ऐसी विशिष्टताएं थीं जो इसे अपने समय की पारंपरिकता या कि प्राचीनता से अलग कर रहीं थीं। इनमें सबसे प्रमुख इसका ‘व्यक्तिवाद’ यानी व्यक्ति की सत्ता, ‘इंडिविजुएलिज्म’ था। मनुष्य अपने लिए एक नई तरह की स्वतंत्रता की मांग कर रहा था। धर्म, राज्य और समाज के पारंपरिक, तथा सदियों से चले आ रहे ढांचे में यह एक नई आवाज थी जो इसके पहले कभी नहीं सुनी गई थी। यह मनुष्य विभिन्न सत्ता केन्द्रों के सामने अपने अस्तित्व के महत्व को स्थापित करने तथा स्वीकृत किए जाने का सबसे बड़ा आविष्कार कर रहा था। इसमें भी बड़ी बात यह थी कि यह विचार सिर्फ यहीं पर नहीं रूका था। वह पूरी मानवता को समझने और जानने के लिए भी बहुत उत्सुक था। समझने की इसी कोशिश में ही रैनेसाँ में मनुष्य और प्रकृति, मनुष्य और विज्ञान, मनुष्य और  कला, मनुष्य और धर्म, मनुष्य और समाज, मनुष्य और मनुष्य के संबंधों की गहराई से पड़ताल की गई। इसे विश्लेषित किया गया। हालांकि उस समय इटली राज्य राजनैतिक रूप से असंगठित था। पीसा, फ्लोरंेस, मिलान, वेनिस, जैसे नगर राज्यों में बंटा था पर उसके पास धन बहुत था। इस धन के साथ उसके पास रोमन साम्राज्य का एक अद्वितीय, स्वीकृत, वर्चस्ववादी, महान, वैभवपूर्ण अतीत भी था। उस महान साम्राज्य के भग्नावशेष थे। पुस्तकों में उसकी स्मृतियां थीं। उसके लिए मात्र रोम ही वैश्विक कला, वैभव, शांति, धर्म और महानता का अंतिम प्रतीक था। रोमन साम्राज्य को पराजित और नष्ट करने वाले असभ्य, बर्बर और क्रूर थे।
Portrait of Giorgio Vasari,
north-west wall, state after cleaning
of the paint surface and fixation
of the coating, state during cleaning
of the paint surface,
Casa Vasari, Florence.
वसारी ने लिखा है ‘रोम के पतन के साथ उसके भग्नावशेषों के नीचे अपना शिल्प और शरीर दफन करके, सबसे उत्कृष्ट शिल्पकार, मूर्तिकार, चित्रकार और वास्तुशास्त्री भी खत्म हो गए। नष्ट होने वाली कलाओं में चित्रकला और मूर्तिकला प्रथम थीं। ये ऐसी कलाएं थीं जो हमें किसी भी अन्य कला से अधिक आनंद देती थीं। उसके बाद नष्ट होने वाला शरीर के हित के लिए आवश्यक वास्तुशास्त्र था। यह बना तो रहा पर पहले की तरह न तो श्रेष्ठ था न दोष रहित। यदि यह सच नहीं होता कि चित्रकला और मूर्तिकला उन लोगों के द्वारा जीवित रखी गई जो एक के बाद एक अपने काम के द्वारा अमर होते रहे, तो इन कलाओं की स्मृतियां धीरे-धीरे धुल-पुछ गई होतीं। कुछ व्यक्ति उन चित्रों और अभिलेखों द्वारा स्मृतियों में जीवित रहे जो व्यक्तिगत या सार्वजनिक इमारतों पर बने थे, जैसे कि एंपीथियेटर, स्नानागार, फव्वारे, मंदिर, स्तंभ, कोलोजियम, पिरामिड, मेहराबें, जलाशय, स्टेडियम, मकबरे। इनमें से अधिकांश जंगली बर्बरों द्वारा नष्ट कर दिए गए।  मनुष्यों द्वारा बनाया कुछ भी नहीं बचा था सिवाय बाहरी ढांचे और नाम के।’ इन सब प्राचीन इमारतों और इनके भव्य अतीत से इटली का और सीधा जन्मजात जुड़ाव था इसके अलावा उसकी भौगोलिक स्थिति, व्यापार तथा इतिहास भी उसे सिर्फ रोम से ही नहीं, ग्रीक की महान संस्कृति, कला, मेधा और स्मारकों से भी जोड़ते थे। ग्रीक के अतीत ने हमेशा ही रोम के सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले युग को गहराई तक प्रेरित और प्रभावित किया था। ग्रीक और रोम के इस संयुक्त महान अतीत का संघात इटली के तत्कालीन वर्तमान पर हुआ और परिणाम में रैनेसाँ ऐसी एक चीज का जन्म हुआ। 

The 19th century portrait of
Petrarch by Stefano Tofanelli.
रैनेसाँ के जनक माने जाने वाले इटली के साहित्यकार पेत्रर्क (1304-74)  ने बहुत श्रम और संलग्नता से ग्रीक और रोमन साहित्य के खोए हुए खजाने की तलाश की। उनकी शैली या कि मॉडल की नकल की। ‘सिसरो’ और ‘लिवि’ उसके आदर्श थे। वह प्राचीन रोम की सड़कों, खंडहरों और उसके कानूनों में गहरी रुचि रखता था। पेत्रर्क का इटली पर गहरा प्रभाव था इसलिए यह सब, लगभग एक आंदोलन जैसा बन गया। इससे उत्साहित होकर इटलीवासियों ने अपने प्राचीन जगत को तलाशना शुरू किया। उन्होंने पुरानी मूर्तियों, लंबे समय से भूली हुई या लुप्त पांडुलिपियों को तलाशा। रोम को केवल पोप और चर्च की जगह न समझकर उसे दुनिया के उस विशाल और महान साम्राज्य की तरह देखा जो ऑगस्तस और वर्जिल का शहर था। जब चौदहवीं सदी के मध्य में तुर्कों के आक्रमण के कारण पूर्वी रोम या बाइजैंटाइन साम्राज्य बिखरना शुरू हुआ तब वहां से भागने वाले ग्रीक विद्वानों का इटली में स्वागत हुआ। ये ग्रीक विद्वान पुस्तकों, पांडुलिपियों के साथ ग्रीस के अतीत के प्रति अपना गहरा प्रेम और उत्साह भी साथ लाए थे। उनके पास हजार वर्षों तक फैली हुई सीखने की गंभीर ललक और परंपरा थी। वाद-विवाद, बहसें, सिंपोजियम, तर्कवाद के मानक उदाहरण थे। उन्होंने इटली में भी एथेंस के प्लेटो जैसी अकादमी खोली। वहां प्राचीन शास्त्राीयता का ज्ञान दिया जाता था। इसी का असर था कि रैनेसाँ के लोगों ने 476 ई. में रोम के पतन के बाद का समय ‘अंधकार युग’ माना और उन लोगों को बर्बर, जिन्होंने रोम को नष्ट करके स्वयं को इसकी परंपराओं और विचारों से अलग कर दिया था। 

रैनेसाँ के इस नए लेखन और नई कला शैली में मनुष्य की स्वतंत्रता और सौंदर्य की नई परिभाषाएं भी ढूंढ़ी गईं। अपने सर्वोत्कृष्ट और प्रभावी रूप में ये चित्रकला और मूर्तिकला में दिखाई दीं। इन दोनों में मनुष्य का दैहिक सौंदर्य अपने चरम रूप में प्रस्तुत था। स्त्री और पुरुष की निर्वसन देहों की मांसलता, नग्नता, सौष्ठवता के साथ उनके चेहरों पर आत्मिक शांति, उल्लास और जीवन के यथार्थवादी, कठोर क्षण भी थे। इनमें मनुष्य देह के माध्यम से उसकी मुक्ति और अस्तित्व की सत्ता का घोष था। इनमें काया और माया, आत्मा और देह, धर्म और आवेग का संयुक्त प्रदर्शन था। इन दोनों कलाओं में से भी, चित्रकला ने युगांतकारी छलांग मारी थी। प्रकृति, प्रेम, सौंदर्य, स्वतंत्रता, उल्लास पहली बार चित्रकला का विषय बने थे। राज्य और चर्च के नियंत्रणकारी, वर्चस्ववादी शक्ति केंद्रों से अलग इतिहास, जीवनियों और कलाओं में सामान्य मनुष्य को स्थान दिया गया। चित्रकला में इस परिवर्तन दिखने के दो बड़े कारण थे। पहला कारण तकनीकी ज्ञान था। इसमें रोशनी और छाया के कुशल प्रयोग के साथ मनुष्य शरीर की ऐसी जानकारी भी थी जो उसकी एक एक मांसपेशी को उभार सकती थी। दूसरा कारण था चित्र बनाने के लिए तेल की खोज और उसका बढ़ता प्रयोग। राफेल, माइकेल एंजलो, लियोनार्दो द विंची, तिशन, रैनेसाँ की इस चित्रकला की पराकाष्ठा का प्रतीक हैं।

ऐसा भी नहीं हुआ कि रैनेसाँ का कलाकार किसी एक विधा या एक विशेषज्ञता तक ही सीमित रहा। आत्मविश्वास और उत्साह से भरे लोग ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भी दखल दे रहे थे उनमें पारंगत हो रहे थे। लियोनार्दो द विंची वैज्ञानिक, चित्रकार, मूर्तिकार, गणितज्ञ और दार्शनिक भी था। सिंचाई की योजनाएं तैयार करने और उसके यंत्र बनाने से लेकर वह ‘मोनालिसा’ और ‘द लास्ट सपर’ तक काम कर रहा था। बेनवेनुतो चेल्लीनी ने दुनिया की पहली आत्मकथा लिखी। वह संगीतज्ञ, वास्तुशास्त्राी, स्वर्णकार, योद्धा और चित्रकार था। मैकायवली इतिहास और राज्य शासन का ज्ञानी था। राजनीतिज्ञ था। उसने ‘द प्रिंस’ नाम से ऐसी पुस्तक लिखी जिसमें पुरानी राजनैतिक व्यवस्थाओं व सैद्धांतिक को ध्वस्त करके एक नए राजा को गढ़ा गया था। यह राजा कहीं से भी दैवीय, पवित्र, नैतिक या जनरक्षक नहीं था। यह क्रूर, बर्बर, कुटिल, अनैतिक और हिंसक था। उसकी सफलता के लिए यही गुण वांछित थे। मैकायवली ने ही आने वाले सदियों के तानाशाहों और नीत्शे जैसे विचारकों को नई दिशा दिखाई। उसने अपने तर्कों व इतिहास के परिणामों से सिद्ध किया कि सिर्फ श्रेष्ठतम, उच्चतम व शक्तिशाली को ही जीने, शासन करने और स्वतंत्र रहने का अधिकार है। उस भीड़ को नहीं जो सिर्फ हांके जाने के लिए होती है। वास्तुशास्त्रा में भी रोम और बाइजैंतियक शैली को अपनाते हुए एक नई शैली विकसित की गई। इसका केंद्र फलोरेंस बना। 1436 ई. के अनेक चर्चों में ‘ब्रूनेल्लेस्की’ के बनाए गुंबद इस नई शैली के उदाहरण हैं। 

इस तरह रैनेसाँ की लगभग तीन पूरी सदियां उथल-पुथल भरी, संघर्षपूर्ण और सृजनात्मकता की सदियां थीं। जैसा कहा गया, इसका एक बड़ा कारण यह था कि इटली के पास नई पूंजी थी। इस नई पूंजी के अपने नए मनुष्य थे। इनमें राजा, बैंकर्स, महाजन, व्यापारी, भूस्वामी और चर्च के पोप भी थे। ये कलाकारों को संरक्षण देने और इनकी कलाकृतियों को अपने स्वामित्व या कि संग्रहालय में रखने के लिए आपस में मुकाबला करते रहते थे। कलाकार भी उधर ही जाता था जिधर वह अधिक धन, सुविधा और योग्य संरक्षक देखता था। यहां पर एक महत्वपूर्ण बात उभरकर सामने आती है कि रैनेसाँ की लगभग तीन पूरी कला शताब्दियां उस राज्य, धर्म और पूंजी पर आश्रित थीं जो मनुष्य को सीमित स्वतंत्रता और अधिकार देते हैं या फिर देते ही नहीं हैं। उस समय की दूसरी स्थितियां या उनके अध्ययन के परिणामों से अलग, यह एक सच था कि राजा, पोप और धनी घरानों ने ही कलाकरों को धन, सम्मान व काम करने की सुविधाएं दीं। इनके बनाए विराट चित्र, मूर्तियां और इमारतें या तो चर्च में हैं या फिर महलो में। नगरों के सार्वजनिक स्थलों की कलाकृतियां भी इन्हीं के संरक्षण में बनीं बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि कला के इतिहास में शायद ही कभी इतने बड़े स्तर पर, इतनी अधिक संख्या में कलाकारों का पहले या बाद में इतना सम्मान हुआ हो। वसारी की लिखी लगभग दो सौ समकालीन कलाकारों की जीवनियां इसका प्रमाण हैं। लियोनार्दो द विंची और माइकेल एंजलो का सम्मान, लोकप्रियता और वर्चस्व देखकर आश्चर्य होता है। सम्राट भी इनसे दबते थे चर्च और धनी परिवार भी। जब लियानार्दो अंतिम दिनों में बीमार था, तब राजा उसे देखने आता था। वसारी ने लिखा है ‘राजा, जिसने उसके पास अकसर आने को अपनी आदत बना लिया था, आया। उसके सम्मान के लिए लियोनार्दो द विंची उठ कर बिस्तर पर बैठ गया, उसे अपनी बीमारी और उसके लक्षणों के बारे में बताने के लिए और वही बात दोहराते हुए कि उसे अपनी कला के साथ जो करना चाहिए था, वह न करके उसने ईश्वर और दुनिया के मनुष्यों को बहुत आहत किया है। वह अपनी आने वाली मृत्यु की अंतिम स्थिति में था। राजा उठा। उसकी मदद करने के लिए, अपनी सहानुभूति दिखाने के लिए और उसका दर्द कम करने के लिए, उसने उसका सर थाम लिया। लियोनार्दो की दैवीय आत्मा, जो इस बात के प्रति जागरूक थी कि वह इससे बड़ा सम्मान प्राप्त नहीं कर सकती, पचहत्तर वर्ष की आयु में उस राजा की बांहों में खत्म हो गई।’  माइकेल एंजलो की प्रतिभा उसके जीवनकाल में और मृत्यु के बाद भी सराही जाती रही। सर्वोच्च सत्ता वाले अनेक पोप हमेशा उसे अपने पास रखना चाहते थे। तुर्की का सुलेमान, फ्रांस का राजा, पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट चार्ल्स और मेदिची परिवार हमेशा उसे बड़ी तनख्वाहों पर अपने पास रखना चाहते थे। माइकेल एंजलो की मृत्यु के बाद उसकी अंत्येष्टि का आयोजन, उसमें शामिल असंख्य लोग, उसके अंतिम दर्शनों के लिए रखा गया शव, समस्त इटली के कलाकारों की उपस्थिति, राजकीय शोक, हमारे आज के बहुत से कलाकारों के लिए परीकथाओं जैसा अविश्वसनीय होगा। 

अब यहां एक बेहद जरूरी प्रश्न या कि बहस के लिए पूरा स्पेस है, कि क्या किसी भी समाज या राज्य  में कला तभी उनमुक्तता, सहजता और उत्कृष्टता के साथ विकसित होती है जब उसे धर्म, राज्य या पूंजी का आश्रय मिले? इसी के साथ अगला प्रश्न पैदा होता है कि क्या कला का कोई जनपक्ष भी होता है ? खास तौर से दर्शनीय कलाओं, जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, नाटक, नृत्य, संगीत आदि का? हालांकि वाल्तेयर ने पहली बार इतिहास, कला और जीवनियों को राज्य के खांचों से मुक्त करके लोक जीवन से जोड़ा था, फिर भी कला के जनपक्षीय उपयोग, प्रयोजन और रचनात्मकता की बात मार्क्स से पहले इतने तर्कपूर्ण और तथ्यात्मक ढंग से नहीं हुई थी। यहां से एक बड़ी और जरूरी बहस की शुरुआत होती है, पर हम इसे यहां भविष्य के लिए छोड़कर अपने दूसरे खंड में प्रवेश करते हुए, रैनेसाँ को भारत के संदर्भ में देखते हैं पर इसके पहले जरूरी है कि हम यूरोपीय रैनेसाँ और भारतीय रैनेसाँ ऐसी किसी अवधारणा में फर्क समझ लें। 

इटली और फिर यूरोप के लिए रैनेसाँ बहुआयामी प्रगति थी। इसमें समुद्रों को मथना, नए उपनिवेश बनाना, वहां से पहले व्यापारिक पूंजी फिर औद्योगिक पूंजी अर्जित करके अपना विकास करना शामिल था। यह उनके अपने देश और मनुष्य के लिए लंबी छलांग थी, एक महत्वपूर्ण विकास था। इसमें वैज्ञानिक, नए विचार, आविष्कार, दार्शनिक, चिंतन भी शामिल होते गए पर वे देश जो उपनिवेश बने थे, और इस शोषण का शिकार थे उनके लिए यह सब दूसरे अर्थ देता था। उनके लिए यह गुलामी थी, संसाधनहीन होना था, साम्राज्यवाद के अमानवीय शोषण का शिकार होना था। जो पश्चिम के लिए राष्ट्रवाद बनता था वह हमारे लिए घृणा की वस्तु थी। इसी क्रम में यूरोप ने अपनी भाषा, ज्ञान, साहित्य कलाओं को भी महानतम सिद्ध करने की प्रक्रिया में इन्हें उपनिवेशों पर थोपा। उनकी प्राचीन भाषा, धर्म, साहित्य के मनमाने अर्थ करके उन्हें स्वयं उसे गढ़कर दिया। बहुत धीरे से उन्होंने उनकी भाषा, धर्म और दर्शन को हीन सिद्ध करते हुए अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। प्राच्यवाद की थ्योरी यही सिद्ध करती है। अगर हम बहुत मूल प्रश्न पर लौटें कि भारत में अंग्रेजों ने जिनसे संस्कृत ज्ञान प्राप्त करके यहां की पुस्तकों का अध्ययन किया वे कौन थे, तो हमें बहुत से चौंकाने वाले नाम मिलेंगे। क्या वे स्वयं संस्कृत जानते थे? क्या उनके पास मूल अपरिवर्तित ग्रंथ थे? क्या वे उनका उचित भाष्य कर सकते थे? क्या वे अंग्रेजों को उनकी भाषा में यह सब संप्रेषित कर सकते थे? नहीं, यह संभव ही नहीं था। लिहाजा यहां फिर एक बहस, एक प्रश्न जन्म लेता है, और हम फिर उसे भविष्य के लिए छोड़कर आगे बढ़ते हैं।

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हमने माना है कि एक वर्तमान अपने महान अतीत की तलाश करता है उसे पुनर्निर्मित करता है या उसे अपना आदर्श मानकर वैसा बनना चाहता है। वह ऐसा क्यों करता है? क्या आधुनिक मूल्य या विचार उसके लिए पर्याप्त नहीं होते? उसे संतुष्ट नहीं करते? उत्तेजित या प्रेरित नहीं करते? उसका अतीत, जो अकसर उससे बहुत दूर जा चुका होता है, वह उसके अंदर से कुछ सिद्धांत, दर्शन, धर्म, पुस्तकें, गौरव ढूंढ़ कर क्यों अपने को गर्वीला महसूस करता है? यदि हम थोड़ी सूक्ष्मता से परीक्षण और विश्लेषण करें, तो हम समझ लेंगे कि वास्तव में वह एक प्रच्छन्न राष्ट्रवाद के आवेग या उल्लास में ऐसा करता है। उसे अपने राष्ट्र से प्रेम होता है और यही आवेग उसे अपने महान जनक तक पहुंचने को प्रेरित करता है। किसी ‘महान जनक’ की अनुपस्थिति में उसे अपना वर्तमान धूसर लगता है- लगभग अज्ञात माता-पिता के पुत्र की तरह। यह राष्ट्रवाद उसे जितना पीछे ले जाता है, वह उतना ही संतुष्ट होता है। इतना कि वह पीछे लौटते हुए मनुष्य को सभ्य बनाने वाले समाजों के जन्म तक का दायित्व भी ले लेता है, बल्कि सृष्टि के जन्म का भी। मनुष्य प्रजाति के आदि स्त्राी पुरुष भी उसके अपने ही होते हैं। यह देखने के लिए हमें दूर जाने की जरूरत नहीं है। हम किसी भी राज्य, समाज में ऐसे चिद्द पा सकते हैं जो सृष्टि के जन्म, मनुष्य के विकास, कलाओं की उन्नति का कारण या मूल अपने वर्तमान के अतीत को ही मानते हैं। 

इस तरह भारत ने या अन्य उपनिवेशों ने अपना जो ‘रैनेसाँ’ गढ़ा, या वहां जो ‘नवजागरण’ पैदा हुआ, वह उनके प्राचीन, अतीत, राष्ट्रवाद और आधुनिक चेतना से जुड़कर रैनेसाँ की तीनों शर्तें तो पूरी करता था, पर वह निश्चित रूप से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ओर झुका था। उसे यह होना ही था क्योंकि यह प्रत्येक दृष्टि से अंग्रेजों के, यूरोप के साम्राज्यवाद के और इस तरह उनके रैनेसाँ के सीधे विरोध में जन्मा था और तना खड़ा था। ध्यान दें कि एक पराधीन राष्ट्र की सबसे बड़ी और आधुनिक चेतना राष्ट्रवाद ही होगी। इस तरह यूरोपीय रैनसाँ के तीनों अनिवार्य तत्व होने के बाद भी भारतीय रैनेसाँ उसके विरोध में जन्मा था। जबकि उसका यूरोपीय रैनेसाँ से कोई सीधा लेना देना नहीं था। 

अब यहां तक आते-आते हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जब भी हम किसी परिवर्तन केे लिए रैनेसाँ शब्द का प्रयोग करेंगे, तो हमें उसमें उसके तीन आधार तत्व चाहिए होंगे, उन्हंे तलाशना होगा। जहां ये तीनों तत्व मिलते हैं वहां उसे हम रैनेसाँ कह सकेंगे, वर्ना वह एक स्थानीय, राष्ट्रीय, सांस्कृतिक नवजागरण या परिवर्तन मात्र ही कहा जाएगा। इसमें भाषा, धर्म, साहित्य, कला, राजनीति समाज, समाहित हो सकते हैं। कभी संयुक्त रूप से या कभी कोई एक भी। इस तरह से जब हम देखते हैं तो भारतीय नवजागरण हिंदू नवजागरण से बहुत अलग नहीं हो पाता है। यहां अनायास हम एक सूत्र पर भी पहुंचते हैं जो आगे हमारे काम आने वाला है। वह यह कि उपनिवेश के रैनेसॉ को हमेशा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ होना ही है और इसलिए स्वतंत्रता पूर्व भारत का कोई भी भारतीय नवजागरण ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की छाया में ही जन्मा था। यानी हम फिर दोहरा सकते हैं कि जो भी परिवर्तन था, जिसे हमने नवजागरण माना वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद होना ही था यानी हिंदू नवजागरण ही होना था।

भारत में हम बंगाल नवजागरण के रूप में नवजागरण शब्द को मुख्य रूप से  पहली बार सुनते हैं। इसे हिंदू नवजागरण या कि भारतीय नवजागरण के रूप में भी देखा जाता है। यदि हिंदी अनुवाद या इसके नामों पर न भी जाएं, तो भी, यह रैनेसाँ की तीनों शर्तांे को पूरा करता था। एक महान अतीत, वर्तमान की आधुनिक चेतना तथा राष्ट्रवाद। राममोहन राय से ब्रहम समाज, प्रार्थना समाज, बंकिमचन्द्र, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, अरविंद और रवींद्रनाथ टैगोर तक आते-आते बंगाल में बहुत साफ तरीके से, अलग और परिवर्तनकारी युग दिखने लगा था। अंग्रेजी पढ़ी जाने लगी थी। आधुनिक चिकित्सा सीखने के लिए ब्राह्मण ने मुर्दा काटना शुरू कर दिया था। सती प्रथा का विरोध शुरू हो गया था। समाचार पत्र निकलने लगे थे। भारतीय दर्शन, इतिहास और संस्कृति के नाम पर एक महान हिंदू अतीत को निश्चित स्वरूप में पुनर्गठित किया जाने लगा था। इसे पुनर्गठित करने वाले यूरोप की आधुनिक शिक्षा, चेतना, मूल्यों और परिवर्तनों से अच्छी तरह परिचित थे। तीनों तत्वों के पारस्परिक संघात से जन्मी यह बेचैनी, उत्तेजना और परिवर्तन कामना, बंगाल से शुरू होकर महाराष्ट्र फिर पंजाब और पूरे भारत में फैली जिसकी परिणति स्वतंत्रता में हुई। इस तरह यह भारतीय या कि हिंदू नवजागरण स्वतंत्रता पर पहुंचकर समाप्त हो गया पर यहां हम एक अत्यंत उलझी हुई स्थिति में भी पहुंच गए हैं। अकसर ही हिंदू नवजागरण या भारतीय नवजागरण या सिर्फ नवजागरण की बात करने वाले इस स्थिति या इन प्रश्नों से बचते हैं या इसे अनदेखा करते हैं पर हम इस पर बात करेंगे। ये प्रश्न हैं ‘मुस्लिम, रैनेसाँ या नवजागरण के। किसी भी भारतीय नवजागरण में ये समाहित क्यों नहीं हैं?

1857 के विप्लव के बाद देश में बड़े परिवर्तन हुए। ये राजनीति, समाज, धर्म और आर्थिक जगत के परिवर्तन थे। सबसे बड़ा परिवर्तन मुगल साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खत्म होकर इंग्लैंड का सीधा शासन होना था। अंग्रेजों से मुक्ति अब मात्र स्वप्न नहीं रह गया था। यह बहुत पास की चीज लगने लगी थी। 1857 के बाद एक उग्र राष्ट्रवाद ने धीरे-धीरे संगठित व निश्चित शक्ल लेनी शुरू कर दी थी इसका केंद्र बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब थे। इस राष्ट्रवाद के आसपास एक महान हिंदू संस्कृति का अतीत गढ़ा जा चुका था। 1885 में कांग्रेस के जन्म के साथ ही हिंदू और मुसलमान का एक बड़ा भेद पनपना शुरू हो गया था। सर सैय्यद अहमद मुसलमानों को कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीयता से दूर करके अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजों के नजदीक लाए। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के अंग्रेज प्रिंसिपल ने इसमें सक्रिय और रणनीतिक भूमिका निभाई। समय के साथ धीरे-धीरे राष्ट्रवाद की चेतना के दो हिस्से हो गए। दुर्भाग्य से 1885 के बाद से ही हमने किसी भारतीय राष्ट्रवाद को न देखकर हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद ऐसी किसी चीज को देखा जो हिंदू और मुसलमान 1857 में एकजुट थे, अब दो अलग अस्मिताओं, इतिहास, परंपराओं, नायकों, राष्ट्रीयताओं, समाजों और धर्मों की अपनी-अपनी जमीन  उर्वर बनाने में जुट गए थे। ऐसा क्यों हुआ? क्यों ये दो राष्ट्रवाद अलग थे या क्यों एक नहीं हो सके? यहां से हम ‘राष्ट्रवाद’ का न करके इसके उच्चतम रूप नवजागरण शब्द का प्रयोग करेंगे। हिंदू नवजागरण के बारे में हम बात कर चुके हैं या करते रहे हैं, पर मुस्लिम नवजागरण या पुनर्जागरण पर हमने कभी बात नहीं की। यह क्या था? कभी कोई मुस्लिम नवजागरण हुआ या नहीं? भारत में यदि कोई मुस्लिम नवजागरण था तो कौन उसके वाहक थे? कहां से शुरू होकर कहां तक गया? या फिर मुस्लिम राष्ट्रवाद, अतीत और आधुनिकता की परिणति पाकिस्तान के जन्म में थी? इटली और यूरोप और पूरी दुनिया में बड़ा परिवर्तन कभी न कभी हुआ, पर भारत के मुसलमानों या कि दुनिया के किसी हिस्से के मुसलमानों में ऐसा क्यों नहीं हुआ? हुआ तो कब, कहां? 

इन सवालों पर बात करने से हम सामान्यतः बचते हैं पर हम इनका उत्तर ढूंढने की कोशिश करेंगे और इसके लिए हम थोड़ा पीछे लौटेंगे। भारत में गुप्त साम्राज्य अंतिम वृहद सार्वभौम हिंदू साम्राज्य था। उसके पतन के बाद का इतिहास छुटपुट हिंदू राजवंशों, (हर्ष को चाहे तो अलग कर दंे ) का इतिहास है जो एक तरह से अपनी आंतरिकता में जर्जर सामंतवाद ही रहा। भारत के बाहर इस्लामी जगत में उम्मैया और अब्बासी वंशों के पतन के बाद अरब साम्राज्य का भी यही स्वरूप बना। लगभग 400 वर्षों तक विश्व के वृहद्तम व समृद्धतम साम्राज्य को रचने के बाद अरब साम्राज्य भी छोटी-छोटी सल्तनतों और सामंतों में बंटता चला गया। भारत में जब महमूद गजनवी के साथ इस्लाम आक्रामक रूप में पहली बार भारत आया, तो वस्तुतः यह दो बड़े साम्राज्यों का संघात या संपर्क न होकर छोटे-छोटे सामंतों के क्षेत्राीय संघर्षों का संघात था। बाद में जो मुसलमान भारत में आए और फिर यहां रह गए, उनके साथ अरब साम्राज्य व इस्लाम की विकसित परंपराएं न आकर, छोटे-छोटे सामंतों की क्षेत्राीय कट्टरता, स्वार्थ व हिंसा आई थी। भारत में जो हिंदू राजवंश बचे थे, उनके पास भी किसी बड़े साम्राज्य या विकसित समाज की परंपरा या इतिहास की स्मृतियां नहीं थीं, बल्कि छोटे-छोटे जातिगत अहंकार व क्षेत्राीयता के संघर्ष थे। इस तरह भारत में दोनों धर्मों व दम तोड़ती सभ्यताओं का प्राथमिक संपर्क इस तरह नहीं हुआ जिसमें एक के अंदर दूसरे के समाहित होने की संभावना होती है। खंड-खंड अस्मिताओं व स्वार्थों के साथ दोनों का मिश्रण हुआ और परिणाम में न तो कोई बड़ी विचारधारा पनपी, न साम्राज्य और न ही राष्ट्रीय दृष्टि।

सन् 1193 से 1526 के बीच दिल्ली की गद्दी पर करीब 35 सुल्तान बैठे जो कम से कम पांच राजवंशों के थे। इनमें से प्रत्येक वंश इस्लाम का अनुयायी था और प्रत्येक वंश दूसरे मुस्लिम वंश द्वारा ही गद्दी पर से हटाया गया। 35 सुल्तानों में से कम से कम 19 की हत्याएं हुईं जो किसी हिंदू ने नहीं बल्कि मुसलमानों ने ही की थीं। इसके बाद मुगलवंश का इतिहास पुनः भाइयों के कत्लों का इतिहास है। अन्य प्रांतों के मुस्लिम सामंतों या वंशों के विद्रोह और उनमें आपसी युद्ध का अलग इतिहास है, दूसरे शब्दों में यह मुसलमानों के सत्ता के आपसी संघर्ष, क्षेत्राीयता और विभिन्न वंशों के आपसी झगड़ों, हत्याओं से जुड़ा है न कि ‘इस्लाम’ के प्रर्वतन विस्तार या ’राजनीतिक दर्शन’ से, अथवा हिंदू व मुसलमान के संघर्ष से।

इस्लाम की खुली मानसिकता व उदार राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध भारत में जो मुस्लिम आक्रांता आए, वस्तुतः वे इस्लाम का भ्रष्ट संस्करण थे। मुहम्मद साहब के बाद के 400 वर्षों में जो विकसित, बौद्धिक, विराट अरब साम्राज्य फैला था उसे मंगोलों ने 40 वर्ष के अंदर छिन्न-भिन्न कर दिया था। पूरा इस्लामी जगत टुकड़ो में, वंशों में, कबीलों में, लुटेरे और सिद्धांतविहीन क्षेत्राीय अधिनायकों में बंट गया था। इन्होंने ही भारत में प्रवेश किया था। महमूद गजनवी इसका आरंभ व प्रतीक था। इन छोटे-छोटे कबीलों, बादशाहों और भाड़़े के सिपाहियों का न तो कोई राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य था, न इनमें किसी विशाल साम्राज्य के नागरिक होने का अनुशासन था, न नियमबद्ध समाज की परंपराएं थीं। तलवार और शासन उनका एकमात्र संबल था। ये इस्लाम की दार्शनिकता, बौद्धिकता, मर्म और उसके ज्ञान से पूरी तरह वंचित थे। इन बाहरी आक्रांताओं के अलावा परिवर्तित मुसलमानों का एक बहुत बड़ा वर्ग भी भारत में तैयार हुआ। भारत में धीरे-धीरे यह वर्ग बहुत बड़े वर्ग में विकसित होता रहा। इस वर्ग के अपने संकट थे। एक तरफ उनकी अपनी स्थानीयता थी जिसमें वे पले थे, बड़े हुए थे, तो दूसरी तरफ उनकी आस्था थी जिसका सब कुछ अरब में था। विदेशी मुसलमान अपने साथ स्त्रिायां व संतानें नहीं लाए थे। इस तरह धर्म परिवर्तन से, संतति से, विदेश की विभिन्न राष्ट्रीयता वाले इस्लाम के मिले-जुले स्वरूपों के घालमेल से, एक अजीब तरह का इस्लामी शासन भारत में फैला। अलग-अलग स्तरों पर यह अलग-अलग तरीकों से देश के मूल निवासियों से जुड़ा था। मुगल शासकों ने यह नीति रखी थी कि दोनों धर्म समानांतर चलें। उन्होंने हिंदुओं की आंतरिक धार्मिक व सामाजिक संरचना में कोई हस्तक्षेप नहीं किया पर स्वयं अपने लिए उन्होंने कट्टर तरीके के इस्लाम को अपनाए रखना ही अपने शासन के लिए उपयुक्त समझा। इस तरह जो मिश्रित सभ्यता उत्पन्न हुई वस्तुतः वह दोनों के खंडित अंशों का मिश्रण था न कि दोनों के प्राचीन साम्राज्यों की परंपराओं, संस्कृति, भाषाओं और विचारों का गहनतम मिश्रण था। जड़ मंे वे अलग थे पर ऊपर जाकर आपस में दो वृक्षों की मिली शाखाओं की तरह हो गए थे। इस मुस्लिम वर्ग के पास इसलिए न तो राष्ट्रवाद सी कोई अवधारणा कभी न पनपी और न ही इसे अपने अल्पसंख्यक होने का कभी बोध हुआ, क्योंकि यह कभी सत्ता से हटा ही नहीं। 1857 की पराजय ने इसे अचानक वहां फेंक दिया जहां ये दोनों नई स्थितियां उसके दोनों ओर खड़ी थीं। हिंदू जब अपने धर्म की बात करता था तो राष्ट्र उसमें स्वयं ही समाहित हो जाता था। इतिहास, परंपराएं, भूगोल, समाहित रहते थे। उसका धर्मयुद्ध उसे राष्ट्रवाद में बदल देता था। दूसरी तरफ जब मुसलमान अपने धर्म की बात करता था तो राष्ट्र उसमें नहीं दिखता था। यहां का इतिहास, यहां की परंपराएं, नायक नहीं दिखते थे। उसका धर्मयुद्ध राष्ट्रवाद न होकर सांप्रदायिक व ‘अन्य’ की सत्ता में बदल जाता था। इस तरह भारतीय राष्ट्रवाद के उभार में हिंदू सक्रिय व सुरक्षित था पर मुसलमान संकट में, द्वंद्व में था। उसके किसी नेता के पास, उसकी किसी पुस्तक में, इतिहास में, ऐसी स्थितियों के लिए स्पष्ट निर्देश नहीं थे कि जब सत्ता इस्लाम की न हो, तब संघर्ष इस्लाम की स्थापना का किया जाए या राष्ट्रवादी चेतनाओं की स्थानीयताओं, विरोधी धर्म और निष्ठाओं से जुड़कर उनके लिए संघर्ष किया जाए। भारत के मुसलमानों के लिए यह नया संकटपूर्ण पड़ाव था।

भारतीय मुसलमानों के लिए एक दूसरा संकटपूर्ण पड़ाव यह था कि 1857 की असफलताओं के बाद बदली हुई परिस्थितियों में वह खुद को नए तरह के अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में पा रहा था। अल्पसंख्यक वह पहले भी था, पर वह तब राजनीतिक शक्ति व सत्ता का केंद्र था। अब वह सत्ताहीन और पराजित था। मुस्लिम धर्म, समाज व राजनीति में भी मुस्लिम अल्पसंख्यक ऐसी कोई अवधारणा नहीं है। उसकी समग्र संरचना इसी आधार पर है जब इस्लाम ही स्थितियों का संचालक है, नियंता है। अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज कैसे किसी बहुसंख्यक समाज में लचीलेपन व सहयोग के साथ रह सकता है इस संदर्भ में न तो कोई स्पष्ट निर्देेश हैं न इसके ऐतिहासिक उदाहरण हैं। ऐसा इसलिए है कि इस्लाम की उत्पत्ति मूलतः कबीलाई संगठन के रूप में हुई, तलवार से वह फैला और अपने गहरे अंतर्गुम्फन, एकनिष्ठ कट्टरता और निर्विवाद संरचना के बल पर बना रहा। उसमें किसी तरह के समायोजन या मध्यमार्ग की संभावना नहीं थी। उसकी पूरी संरचना के गुच्छे से किसी को स्वतंत्र रूप से अलग नहीं किया जा सकता। इस्लाम का इतिहास दिखाता है कि धर्म और जीवन पद्धति में वह केवल तभी प्रभावी और उन्नत हो सकता है  जब उसके पास राजनीतिक शक्ति व सत्ता हो, इसके अनुयायी का राज्य पर नियंत्रण हो। जब और जहां उन्होंने ऐसा नहीं पाया कि वे शक्ति का केंद्र हैं, तब वहां उन्होंने खुद को असहाय, कठिन व संकटपूर्ण परिस्थितियांे में पाया है। 

अकबर, वलीउल्लाह, सर सैयद अहमद, इकबाल, जिन्ना भारतीय मुस्लिम  जगत के शिखर पुरुष हैं। भारतीय इतिहास में इन्हें किसी न किसी दृष्टि के अंतर्गत, किसी न किसी रूप में, राष्ट्रीय चेतना के प्रतीकों के रूप में भी देखा जाता है। इनकी राष्ट्रीय चेतना से हमारा आशय, हिंदू मुस्लिम विघटनवादी प्रवृत्तियों से अलग एक विराट राष्ट्रीय परिदृष्टि जिसमें भारत समाहित था, है। भारत में इनकी छवि लगभग ऐसे क्रांतिकारी मुसलमानों के रूप में प्रस्तुत की जाती है जो अपने समय के सर्वाधिक प्रभावी व्यक्ति थे।  इनमें इस्लाम अपनी उदारतम व्याख्याओं व स्वरूप के साथ व्यक्त होता है, जिन्ना को छोड़कर क्योंकि वह मूलतः अधार्मिक थे। ये व्यक्ति इस्लाम को उसकी मौलिक शिक्षाओं के निकटतम अर्थों में देखते थे। ये अपने समय में प्रगतिशील थे। इस्लाम व मुस्लिम समाज में पुनर्जागरण पैदा करने वालों की भूमिका में थे। अकबर का सुलहकुल, वलीउल्लाह का कुरआन व इस्लाम का दार्शनिक विवेचन, सैयद अहमद का ‘भारत की दुल्हन की हिंदू मुस्लिम दो आंखें’ इकबाल का ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ और जिन्ना का निर्विवाद राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय लक्ष्य व तिलक व गोखले पर श्रद्धा, इन सबको विशिष्ट रूप से अलग करते हैं पर जब कभी इस्लाम राज्य, सत्ता, राजनीति के संदर्भ में आता था, तब ये नाम भी प्रश्नों के घेरे में आ जाते हैं।

मुस्लिम राष्ट्रवादी, जो पाकिस्तान के जन्म के समर्थक हैं, इसी को सैयद अहमद का महत्वपूर्ण योगदान मानते हैं कि उन्होंने मुसलमानों को अंग्रेजी भाषा में शिक्षित व दीक्षित करके हिंदू आधिपत्य से मुक्ति की राह दिखाई। मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने की स्थिति सैयद अहमद को अस्वीकार्य थी, और मात्र बहुसंख्यक होने के कारण हिंदू वर्चस्व अस्वीकार था। उनका भय बड़ा था, जो संभव है, भविष्य में सच भी हो सकता था क्योंकि अल्पसंख्यकों के लिए बहुसंख्यक हमेशा आक्रामक, अन्य व भय पैदा करने वाले होते हैं। उनको येे उसी तरह देखते हैं जैसे विदेशी शासन को। उसी तरह की प्रतिरोधी भावनाएं अपने अंदर गढ़ लेते हैं। यह भय व प्रतिरोधी भावनाएं अल्पसंख्यकों को अपनी कट्टरता के गहरे तीव्र आवेग के साथ, अपनी परंपराओं, धर्म, सामाजिक संरचना व प्रतीकों के प्रति निष्ठापूर्ण समर्पण के साथ, उन्हें बहुसंख्यक के विरोध में कठोर बनाए रखता है। वे किसी लचीलेपन को स्वीकार नहीं करते। किसी भी तरह का लचीलापन या अपनी किसी भी पुरातनता से विचलन, उन्हें स्वयं पर आक्रमण व अपना अपमान लगता है। ये अल्पसंख्यक अलग बस्ती के रूप में, अलग शक्ति के केंद्रों व अवधारणाओं के जनक होते हैं। बहुसंख्यक का राष्ट्रवाद इनका राष्ट्रवाद कभी नहीं बन पाता। ये उसके प्रति तटस्थ या उदासीन होते हैं। कालांतर में बहुसंख्यक इस अल्पसंख्यक को इसलिए बाहरी या अनिवार्य विवशता की तरह मानता हुआ घृणा से देखने लगता है क्योंकि उसका राष्ट्रवाद अल्पसंख्यकों का राष्ट्रवाद नहीं होता। विशेष रूप से वे बहुसंख्यक, जो स्वयं भी अपनी संरचना में उसी कट्टरता का पोषक होते हैं। 1857 के बाद के भारत का अल्पसंख्यक मुसलमान इसी भय व शंकाओं में जीने लगा था और इसीलिए हिंदुओं से अलग वह अपना एक अलग नवजागरण विकसित कर रहा था। उसका भारतीय अरबी व अंतरराष्ट्रीय गौरवशाली अतीत इस नवजागरण का मुख्य प्रेरक था। उसकी पुनर्स्थापना, इसका स्वप्न था। 

1857 की पराजय के बाद मुसलमान के दो मजबूत स्तंभ, सत्ता और इस्लाम पर प्रश्नविहीन आस्था में एक स्तंभ सत्ता ढह चुका था। दूसरा स्तंभ यानी वह प्रश्नविहीन आस्था वहाबी, देवबंद व पैन इस्लामिज्म से होती हुई अंततः एक अलग राष्ट्रीयता में जाकर समाप्त र्हुईं। इस तरह भारत के मुसलमानों के पास रैनेसाँ के तीनों तत्व नहीं बचे थे। भारत के संदर्भ में न कोई महान अतीत, न राष्ट्रवाद और न स्वतंत्रता या अन्य सामाजिक आधुनिक मूल्य। इसलिए उनके बीच किसी नवजागरण की संभावना नहीं थीे। ये तीनों तत्व आज भी भारतीय मुसलमानों में संभव नहीं हैं इसलिए हमें कहीं कोई मुस्लिम नवजागरण नहीं दिखता। यदि यही स्थिति बनी रही तो भविष्य में भी इसकी कोई संभावना नहीं होगी। 

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अब हम अपने तीसरे और अंतिम खंड यानी अपने वर्तमान में प्रवेश करते हैं। मूल रैनेसाँ के चुने हुए हमारे तीनों तत्व आज संभव नहीं हैं। हमारा राष्ट्र और इसका वर्तमान अब देशकाल की सीमाओं से परे जा चुका है। राष्ट्र की अवधारणा वैश्विकता में समाहित हो चुकी है। आधुनिक मूल्य भी अब वैश्विक होते हैं, राष्ट्रीय या स्थानीय नहीं। हमारी स्वतंत्रता भी अब संदिग्ध है। यदि हम पूरी दुनिया पर सतर्क नजर डालें तो हम देखेगंे कि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण की निगरानी हो रही है। अप्रत्यक्ष रूप से हम प्रत्येक स्तर पर नियंत्रित किए चुके जा चुके हैैं। एक अदृश्य ‘हे जिमनी है’ जो मैकायवली के तर्कांे से पूरी तरह जुड़ती है। ‘अरब देशों के बसंत उभार’ का सच या कि एडवर्ड स्नोडन का पूरी दुनिया में शरण के लिए भागना हमारे समय की सच्चाई है। राज्य, पूंजी, भाषा, हथियार, तकनीक, सूचना के दैत्य हमारे ‘मनुष्य’ की अस्मिता या ‘इंडिविजुएलिटी’ को निगलने के लिए हमें हथेली पर उठा चुके हैं। वही मनुष्य, जिसने रैनेसाँ की पहचान के रूप में लगभग सात सौ साल पहले इनके विरुद्ध अपनी स्वतंत्रता का, मुक्ति का संघर्ष शुरू किया था। आज हमारे मनुष्य को फिर एक बड़े परिवर्तन या नवजागरण या रैनेसाँ की जरूरत है पर हमारे पास इसके आवश्यक तीनों तत्व अनुपस्थित हैं। हमारे पास न कोई महान अतीत है, न कोई प्रच्छन्न राष्ट्रवाद और न वर्तमान की कोई आधुनिक चेतना न प्रगतिकामी मूल्य। तो? हम क्या करें? क्या होगा? यदि अर्नाल्ड टायन्बी के सभ्यताओं के विश्लेषण को आधार मानें, तो एक असृजनशील समाज की ये स्थितियां एक त्रता के आगमन की हैं और यह त्रता निश्चित रूप से तलवार से सज्जित होगा। ध्यान देना चाहिए कि तलवार से सज्जित त्रता अपने साथ किसी नवजागरण को नहीं लाता। वहां कोई प्रगतिशील, मनुष्य समर्थक चेतना विकसित नहीं होती, कोई रैनेसाँ जन्म नहीं लेता। बहुत अधिक ध्यान दें, कि त्रता एक नए युग का वायदा करता है। अपने साथ वह रैनेसाँ के तीनों तत्व भी लाता दिखता है। मुसोलिनी के पास अतीत के रूप में ऑगस्त्स का रोम था, समाजवाद की आधुनिक चेतना थी, राष्ट्रवाद था। हिटलर के पास आर्यं संस्कृति थी, समाजवाद की आधुनिकता थी और राष्ट्रवाद था। फ्रेंको के पास अतीत के रूप में साम्राज्यवादी स्पेन था, आधुनिकतम सैन्यशक्ति थी और राष्ट्रवाद था। तीनों देश बिखरे, टूटे, आंतरिक संघर्षों और एक स्थायी ठहाराव में चले गए थे। तीनों ने अपने देश में नए युग का, नए स्वप्नों का वायदा किया था। वे अपने देश के त्रता दिख रहे थे पर ऐसा हुआ नहीं। ऐसा होता भी नहीं। नवजागरण के आवरण में वहां एक दूसरा अंधकार रचा जा रहा होता है। वहां मनुष्य को वह मुक्ति नहीं मिलती, वह अस्मिता, वह स्वतंत्रता नहीं मिलती जो उसके अस्तित्व को, स्वप्नों को आकांक्षाओं को पंख दे। विस्तार दे, कोई बड़ा आकाश दे! वहां सब कुछ गर्दनों पर लटकती तलवार की धार के नीचे होता है। समाज या सभ्यताएं इसके बीच अकसर भ्रम में पड़ जाती हैं और गलत राह पर चल देती हैं। हमें यह तलवार दिखती नहीं पर इसका आतंक, इसकी ‘हेजिमनी’ की धार होती है। किसी भी मुक्ति, विरोध या परिवर्तन के स्वर को बर्बरता से दबा दिया जाता है। स्पार्टकस से एडवर्ड स्नोडन तक हजारों सालों से भौंचक्के हो हम यह देख रहे हैं। टायन्बी ने सभ्यताओं के विकास में इसे एक अनिवार्य स्थिति माना है। हम आज फिर भी वही खड़े है। रैनेसाँ या फिर एक गहरा अंधकार युग, इनमें से कोई एक ही हमारा भविष्य है। सिक्के के अब यही दो पहलू हैं। हमारे अरचनात्मक, असृजनशील, स्वप्नविहीन वर्तमान का सच फिलहाल गहरी अनिश्चितता है। हवा में सिक्का उछाला जा चुका है। इसके एक ओर मनुष्य की आंतरिकता का आलोक है, मुक्ति के स्वप्न हैं, दूसरी ओर भविष्य में गहरे तहखाने में बंद की जाने वाली हमारी अस्मिता की चेतना है।

हम सब बेचैनी और उत्सुकता से हवा में तैरते सिक्के के नीचे आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

बहुवचन अक्टूबर 2014 से साभार