बीते हुए दिन कुछ ऎसे भी थे - राजेन्द्र राव

संस्मरण


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बीते हुए दिन कुछ  ऐसे भी थे

- राजेन्द्र राव

उन दिनों हिंदी समाज के मध्य वर्ग में साहित्यिक रुचि को सम्मानपूर्वक दृष्टि से देखा जाता था
लिखना शुरू किया तो मेरी उम्र करीब छब्बीस बरस थी और प्रेम तथा कुछ अन्य असफलताओं के बाद, रोजी रोटी की जद्दोजहद से उबर कर कुछ स्थिर हो चुका था। इस लिहाज से उन दिनों की रवायत के मुताबिक मुझे लेट एंट्री मानते हुए युवा लेखक के टाइटिल से नवाजा नहीं गया। उन दिनों (सत्तर के दशक में) युवा लेखक बीसेक साल के कच्चे छोरों को माना जाता था जिनके दूध के दांत न टूटे हों। हर युवा जल्दी से जल्दी इस उपाधि से छुटकारा पाने को आतुर रहता था। आज तो एकदम उल्टी स्थिति है - पचास पचास साल के युवा हैं और किसी भी सूरत में प्रौढ़ता की ओर कदम बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हैं। खैर बात उन दिनों की हो रही है जब आज के मुकाबले गिनी चुनी पत्रिकाएं थीं और संपादक बहुत सख्तजान होते थे। साहित्य जगत में प्रवेश पाना आसान नहीं था। आज के कुछ जाने माने और अत्यधिक प्रतिष्ठित लेखकों को अपनी प्रथम रचना के प्रकाशन के लिए बरसों खटना पड़ा था। एक छपी हुई पर्ची होती थी- “संपादक के अभिवादन और खेद सहित”, वह रचना से साथ नत्थी होकर बार बार लौटती थी। कोई उसका न तो बुरा मानता था न हतोत्साहित होता था। हर रिजेक्शन और अधिक संलग्नता और मेहनत की प्रेरणा लेकर आता था क्योंकि उन दिनों हिंदी की लोकप्रिय पत्रिकाओं पर पाठकों का भारी दबाव रहता था। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं की पहुंच अधिकांश हिंदीभाषी मध्यवर्गीय घरों में थी। अपनी पहली रचना के प्रकाशन के साथ ही लेखक के रूप में पहचान मिल जाती थी। पहली रचना के साथ ही फोटो और परिचय दिया जाता था और लोग सड़क, बाजार, स्टेशन या सिनेमा हाल में भी लेखक-लेखिकाओं को पहचान लेते थे। – मुझे याद है कि १९७३ में ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए फार्म जमा करवाने मैं आर टी ओ आफिस की एक खिड़की के सामने लगी लंबी लाइन में खड़ा था, जब नंबर आया तो संबंधित कर्मी ने मेरा फार्म देख कर पूछा – क्या आप कथाकार राजेंद्र राव हैं ?  मेरे हां कहने पर उसने साग्रह अंदर बुला लिया, बिठाया, चाय पिलाई और बगैर किसी दिक्कत के लाइसेंस बन गया।
एक बात अच्छी तरह से समझ में आ गई कि अपने प्रेम प्रसंगों की अक्सर डींग हांकने वाले ज्यादातर हिंदी लेखक नारी संसर्ग को तरसते हुए शब्दवीर (लफ्फाज) हैं और निरे कल्पना जगत में टहला करते हैं। हालांकि यह उनकी शक्ति भी है। मैं समझता हूं कि स्थिति आज भी ज्यादा बदली नहीं है। –कहीं नारी गंध सूंघ भर लें तुरंत फौजें मुड़ जाती हैं-उसी ओर।
उन दिनों न तो मोबाइल फोन थे और न फेसबुक जैसे त्वरित संपर्क के माध्यम सो चिट्ठी पत्री का ही बोलबाला था। कोई भी रचना छपते ही पाठकों की प्रतिक्रियाएं डाक से आने लगती थीं। पत्रिकाओं की पहुंच और प्रसार इतना अधिक कि आज की तरह फोन कर कर के मित्रों और परिचितों को बताना और पढ़ कर राय देने का आग्रह नहीं करना पड़ता था। – चूंकि साठोत्तरी कहानी के केंद्र में आम आदमी, उसका संघर्ष और उसकी विडंबनाएं रहती थीं इसलिए लक्ष्य पाठक वर्ग में पढ़ने की रुचि का अभाव नहीं था। उन्हें कहानियों में परिवेश, जीवन स्थितियां और पात्र जाने पहचाने से लगते थे। कई बार तो  ऐसा लगता कि लेखक ने उनकी ही कहानी लिख डाली है।  ऐसे में कथाकारों और पाठकों के बीच तादात्म्य स्थापित होने में देर नहीं लगती थी। अक्सर पहली कहानी से ही सैकड़ों जुड़ाव के इच्छुक पाठक सहज रूप से मिल जाते थे। आमने सामने नहीं, डाक के जरिये, पोस्टकार्ड-अंतर्देशीय पत्र और लिफाफे में बंद चिट्ठी के माध्यम से। लेखक भी सबको आभार प्रगट करते हुए पत्र लिखता था। इनमें से कुछ लेखक के पत्र को पाने के बाद चिट्ठी पत्री के सिलसिले को जारी रखते थे। कहानी के संदर्भ से इतर सूचनाओं का आदान प्रदान होने लगता था और एक विशुद्ध साहित्यिक और भावनात्मक संबंध की नींव पड़ जाती। यूं तो अधिकतर पत्राचार औपचारिक और अल्पकालिक होते लेकिन कुछ संवाद लंबे खिंच जाते थे। महीनों और कभी कभी तो बरस दर बरस इनका सिलसिला चलता रहता। कुछ मामलों में तो दोनों ओर पत्र के आगमन की आतुर प्रतीक्षा रहने लगती थी। दो चार दिन की देरी भी गिले शिकवे का बायस बन जाती। इन दीर्घसूत्री पत्राचारों का कलेवर भी निरंतर विशद होता जाता था। आज उनको पढ़ा जाए तो हंसी आएगी और युवा मानसिकता के अधकचरेपन पर शायद तरस भी लेकिन उन दिनों तो कल्पना के घोड़ों की सवारी का शौक अपने चरम पर था। जी हां, आपका अनुमान सही है- ऐसे हृदय स्पर्शी खतो किताबत अधिकतर पाठिकाओं से होती थी तथा संवाद का बौद्धिक स्तर अक्सर ऊंचा और आच्छादित (कुछ कुछ रहस्यमय सा) हुआ करता था। शुरुआत कहानी की विशेषताओं से होती और फिर साहित्यिक मुद्दों पर तर्क वितर्क का आदान प्रदान, कभी कभी तो घनघोर सैद्धांतिक बहस, सहमतियां और असहमतियां.....इसके बीच धीरे धीरे उभरता एक लगभग अदृष्य सा अपरिभाषित संबंध-सूत्र। साथ में ही अनेकानेक शंकाएं भी क्योंकि एक ओर जहां कृपालु पाठिका ने लेखक का चित्र और परिचय खूब मनोयोग से देखा समझा है वहीं लेखक सिर्फ अंधेरे में तीर चला रहा होता है। चलिए परिचय तो मान लीजिये झूठा-सच्चा जैसा भी लिखा गया हासिल हो जाता लेकिन चित्र तो कम से कम प्रारंभिक दौर में मांगा नहीं जा सकता था। और कोई भी पत्र लेखिका स्वयं अपना नख शिख वर्णन करने से रही तो सिवा अनुमान लगाने के कोई चारा नहीं था। और अनुमान के आधार (मसलन-हैंड राइटिंग, लिखने के कागज का चुनाव, उससे उठती भीनी भीनी खुशबू, स्याही का रंग, लिफाफे का रंग रूप आदि) आज की तारीख में भले ही हास्यास्पद लगें मगर कोई चारा नहीं था।

 ऐसा नहीं कि पत्र मित्रता केवल सुधी पाठिकाओं से ही होती थी। कुछ गंभीर किस्म के पुरुष पाठक भी निरंतर संवाद करते थे। इसके अलावा समकालीन लेखक लेखिकाओं का पत्राचार भी महत्वपूर्ण समझा जाता था। लेखक भले ही कम रहे हों, उनके पास आने वाली डाक बहुत ज्यादा होती थी। यही तत्कालीन सोशल मीडिया था। लोगों के साहित्य से जुड़ाव को इस तरह समझा जा सकता है कि उन दिनों हिंदी समाज के मध्य वर्ग में साहित्यिक रुचि को सम्मानपूर्वक दृष्टि से देखा जाता था। औसतन हिंदी भाषियों की अंग्रेजी चूंकि दयनीय होने की हद तक कमजोर होती थी इसलिये उनकी बौद्धिकता को हिंदी साहित्य की छतरी के तले ही प्रश्रय मिल सकता था। इक्कीसवीं सदी आते आते जैसे जैसे द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास का अंग्रेजी ज्ञान निखरता गया, हिंदी साहित्य से उसका लगाव कम होता गया । अब न तो गुनाहों का देवता के नये नये संस्करण छपते हैं न शेखर एक जीवनी के। अब तो चेतन भगत या अमीष की किताबों पर नेह और पैसा दोनों बरस रहे हैं। अंग्रेजी के एकदम नये लेखकों की ‘चिक लिट’ विशेषण वाली हास्यास्पद किताबें भी बिक्री और लोकप्रियता के प्रतिमान रच रही हैं। पहले इसका ८०% हिंदी की अच्छी किताबों के हिस्से में जाता था।

तो उस स्वर्ण काल में युवा लेखक होने के इस वैशिष्ट्य का अनुभव मुझे भी हुआ। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग में धारावाहिक छपी कथा श्रंखलाओं, सारिका-कहानी-नई कहानियां आदि में छपी कहानियों के चलते बड़ी संख्या में पाठकों के पत्र आते थे। अभी भी एक अलमारी में पीले पड़ गये हजारों पत्र फाइलों में अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस पत्र विहीन युग में यह अविश्वनीय लगे तो कुछ ताज्जुब नहीं मगर सचाई यही है। इस चर्चा के चलते अनायास ही फाइलों में कैद कुछ पत्र प्रसंग जीवंत हो उठते हैं। पहले यह स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि पत्राचार में संलिप्त होने से पहले बरती जाने वाली सावधानी का भी जिक्र किया जाए। उन दिनों लेखकों के बीच फर्जी पाठिकाओं के सुलिखित-सुगंधित और सरस पत्रों के किस्से खूब सुने जाते थे। होता यह था कि कुछ शरीर किस्म के युवा लेखक महिलाओं के छद्म नामों से अपनी उर्वर कल्पना शक्ति का भरपूर प्रयोग करते हुए अत्यंत भाव विह्वल और प्रेम-पगे पत्र कुछ वरिष्ठ लेखकों और संदिग्ध संपादकों को लिखा करते थे और उनसे प्राप्त उत्साहजनक उत्तरों का, मजा ले लेकर, सामूहिक पाठ करते थे। ज्यादातर लेखक और संपादक इस पत्र जाल में फंस कर  ऐसी  ऐसी हास्यास्पद चिठ्ठियां लिख बैठते थे कि पूछिये मत। मुझे एक लेखक मित्र ने उस युग के लगभग सभी महारथियों के  ऐसे मूर्खतापूर्ण नमूने दिखाए तो एक बात अच्छी तरह से समझ में आ गई कि अपने प्रेम प्रसंगों की अक्सर डींग हांकने वाले ज्यादातर हिंदी लेखक नारी संसर्ग को तरसते हुए शब्दवीर (लफ्फाज) हैं और निरे कल्पना जगत में टहला करते हैं। हालांकि यह उनकी शक्ति भी है। मैं समझता हूं कि स्थिति आज भी ज्यादा बदली नहीं है। –कहीं नारी गंध सूंघ भर लें तुरंत फौजें मुड़ जाती हैं-उसी ओर। खैर कहने का तात्पर्य यह है कि किसी बिन बुलाई मेहमान से कोई शब्द व्यापार करने से पहले अच्छी तरह तसल्ली करना जरूरी था कि दूसरे सिरे पर सचमुच कोई साहित्य समर्पिता है या कोई चंडूल जाल बिछाए बैठा है।

जो लोग गौर करते रहे हैं वे जानते हैं कि लड़कियों की लिखावट कुछ अलग किस्म की होती है, उनके बात करने के अंदाज की तरह-कुछ तिरछापन, कुछ लटके झटके कुछ महीन किस्म की कलमकारी और अक्षरों के कलात्मक नख-शिख। मुझे इसका अनुभव अपने स्कूल के दिनों से रहा था इसलिये मेरे पास जब भी  ऐसी चिट्ठियां आईं ज्यादा शशोपंज नहीं हुआ। बेखटके खतो किताबत आगे बढ़ती गई। –तो एक थीं संध्या राय(नाम थोड़ा बदला है), वह हमेशा अंतर्देशीय पत्र लिखती थीं। रहती थीं रांची में जो कि उन दिनों बिहार में था। पत्राचार का आरंभ हुआ रामकथा वाचक पं.राम किंकर जी के मेरे द्वारा लिए गए एक बोल्ड साक्षात्कार के कारण जो साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपा था। संध्या राय बचपन से ही फादर कामिल बुल्के के सानिंध्य में रही थीं और उन्हें तुलसी कृत रामचरित मानस से काफी लगाव था। मुझे लगा कि वह कोई साध्वी टाइप हैं मगर फिर एक कहानी छपी और उसकी अनोखी व्याख्या करता हरे रंग का अंतर्देशीय आया तो पता चला कि हिंदी की शोध छात्रा हैं। कहानी में सेक्सुअल ओवरटोन्स या अंडरटोन्स से उन्हें कोई खास परेशानी नहीं है। यह अत्यंत उत्साहवर्धक सूचना थी । जल्दी ही खांटी साहित्यिक संवाद होने लगा, समसामयिक कथा परिदृष्य पर टिप्पणियों के आदान प्रदान में जितनी चतुराई से मैं अवांतर प्रसंग डाल देता था उतनी ही बारीकी से बिटवीन द लाइंस उनका सधा हुआ जवाब आ जाता था। देखते ही देखते उनके पत्रों की फाइल सुदीर्घ नजर आने लगी। एक प्रच्छन्न आत्मीयता हरे रंग के सुलेख में एकदम निराकार होकर समाई हुई थी जो कि गाहे बगाहे इस युवा लेखक के असंतोष का कारण बनती। अति बौद्धिकता की कड़ी धूप में रस तत्व का तत्काल वाष्पीकरण होते देख कभी कभी आत्मिक क्लेश होने लगता मगर संबंध की इस विलक्षण प्रौढ़ता से भला कैसे बचा जा सकता था ? मेरे कंधों पर बचपन से ही भद्रता का बैताल सवार रहा है इसलिए इधर से तो कुछ होना नहीं था सो एक पारम्परिक पहल उनकी तरफ से ही हुई- पहली बार बजाए अंतर्देशीय पत्र के लिफाफा आया, उसमें पत्र के साथ रसीदी टिकट के बराबर श्याम-श्वेत फोटो था जिसमें दो चोटियों वाली एक दुबली पतली लड़की धूप का चश्मा लगाए हुए किसी उद्यान में खड़ी थी। पत्र में लिखा था कि आप भी सोचते होंगे कि यह दिमाग खाने वाली लड़की न जाने कैसी है। अब मैं जैसी हूं आपके सामने हूं। आपका फोटो तो हम लोग पत्रिकाओं में देखा ही करते हैं अब आप भी देख लीजिये। –मैंने बहुत आंख फाड़ फाड़ कर देखा मगर उस रसीदी टिकट में भला क्या और कितना देखा जा सकता था। ताव में आकर लिख भेजा कि अगर फोटो भेजना ही था तो कम से कम  ऐसा भेजतीं कि कुछ दृष्टव्य हो…..। लौटती डाक से एक और लिफाफा तीर की तरह आया जिसमें पोस्टकार्ड साइज का वही चित्र था। –‘ सौरी, गलती से आपको प्रूफ कापी भेज दी। ‘खैर, दिल को बेपनाह तसल्ली हुई। जाने क्यों ?

कुछ ही दिनों बाद दफ्तर के काम से कोलकाता जाने का प्रोग्राम बना । जिस ट्रेन से जाना था वह रांची होकर जाती थी। संध्या से मिलने का अच्छा मौका हो सकता था मगर दिक्कत यह हुई कि गाड़ी रात को दो बजे रांची स्टेशन पर पहुंचती थी। इतनी रात गए महज दस मिनट की मुलाकात के लिए किसी को (वह भी एक लड़की को) स्टेशन बुलाने का ख्याल ही बेतुका था। हां, एक तरीका यह हो सकता था कि जर्नी ब्रेक करके एक दिन वहां रुका जाता और संध्या ही नहीं फादर कामिल बुल्के से भी भेंट की जाती। गहराई से सोचने पर लगा कि यह भी एक तरह से ज्यादती होगी कि महज एक छोटे से पत्र संबंध के आधार पर मान न मान मैं तेरा मेहमान बन कर लद लिया जाए। इसलिए बगैर किसी संभावना का उल्लेख किये यात्रा की सूचना मात्र दे दी। उधर से जवाब आया कि वे लोग (? ) स्टेशन पर मिलने आएंगे। उनका घर स्टेशन के पास ही है।

जाड़े के दिन थे। उन दिनों ए.सी. डिब्बों का चलन शुरू ही हुआ था। मैं फर्स्ट क्लास में कंबल ओढ़े जागता और करवटें बदलता रहा। अन्य सहयात्री सो रहे थे, बत्ती बुझा कर इसलिए पढ़ते रहने की सुविधा भी नहीं थी। खैर, किसी तरह रात के दो बजे और गाड़ी सही समय पर रांची स्टेशन पहुंच गई। मैं उतर कर इधर उधर देखने लगा लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सही बात तो यह थी कि जो धूप का चश्मा लगाए हुए (उसकी एकमात्र फोटो से) उसकी छबि मस्तिष्क पटल पर गड्ड मड्ड हो रही थी उसके आधार पर पहचानना मुश्किल था। जेब में हाथ डाले डिब्बे के सामने खड़ा रहा, समय बीता जा रहा था और स्टापेज कुल दस मिनट था। सोचता रहा कि इस बेढ़ब समय पर किसी को मिलने बुलाना निरी मूर्खता नहीं तो और क्या है! कुछ निराशा भी हुई कि पत्र रोमांस भी कैसा रेत का घरौंदा है, एक ही आघात से ढ़ह जाएगा। उन दिनों सार्वजनिक स्थानों पर यहां तक कि ट्रेन में भी धूम्रपान न तो गैरकानूनी था न ही आपत्तिजनक। जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला ही था कि दाईं ओर से आवाज आई-“ वो रहे राजेन्द्र जी !”कहते हुए एक लंबी और कृषकाय चश्मेवाली सांवली लड़की एक गोरे चिट्टे-गोल मटोल छोटे लड़के के साथ हांफती हुई आ खड़ी हुई। बहुत खुश होते हुए उसने कहा-“सौरी राजेन्द्र जी! आपको वेट करना पड़ा। इतने समय आटो नहीं मिला तो हम लोग पैदल ही चले आए। ये है मेरा छोटा भाई, पलाश। ..। ”पलाश ने बहुत सम्मान प्रदर्शित करते हुए नमस्ते किया। –“चलिये एक कप चाय पीते हैं। वो सामने स्टाल देख रहे हैं न, चाय के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सत्यजित राय जब यहां शूटिंग के लिए आए थे तो इसी स्टाल पल चाय पीते थे। “मैं उनके साथ चल पड़ा। सिगरेट का पैकेट वापिस जेब में रख लिया। पलाश के हाथ में एक बैग था। संध्या ने उसमें से एक प्लास्टिक का टिफिन बाक्स निकाल कर खोला और मेरी ओर बढ़ाया, “लीजिए यह केक हम लोगों ने खास तौर पर आपके लिए बनाया है। मैं चाहती थी कि आपको इस टी स्टाल की चाय के साथ यह आफर करूं। खाकर बताइये तो कैसा बना है ?”केक वाकई बहुत अच्छा और ताजा था। मैंने तारीफ में कुछ जुमले कहे मगर जमे नहीं। खाना और बोलना एक साथ हो नहीं पाता। वह बराबर, अपने चश्मे के पीछे से, मेरा मुंह देखे जा रही थी। अचानक मुझे घबराहट और उलझन होने लगी। इससे पहले किसी शायद ही किसी ने मुझे इस तरह घूरा हो। और यह भी अच्छी तरह पता था कि आंखों में बसा लेने लायक चेहरा तो वह नहीं ही था। तो फिर यह क्या हो रहा है ? मैंने बमुश्किल उससे नजरें चुराईं और ट्रेन के पिछले हिस्से की ओर देखने लगा। कि गार्ड हरी झंडी दिखाए और जान छूटे । ……..मेरे बार बार घड़ी देखने को लेकर उसने मुस्कुराते हुए कहा, आप बिल्कुल चिंता न करें, आज ट्रेन देर तक रुकेगी। उधर से राजधानी आ रही है, उसके विदा होने के बाद ही जाएगी यहां से। हम लोग पूछ कर आए हैं। “चाय आई तो अनुभव हुआ कि उसने यूं ही तारीफ नहीं की थी, उम्दा फ्लेवर वाली चाय थी। बहुत ही साफ सुथरा और सज्जित स्टाल था। संध्या लगातार बोलती जा रही थी, अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में, फादर कामिल बुल्के के बारे में। वह एक कालेज में हिंदी पढ़ाती थी। वे लोग पंजाबी थे मगर पार्टीशन के बाद यहां आ बसे थे। यहां पर खानदानी व्यवसाय था और अच्छा चल रहा था। संध्या ने बताया कि उसका और कुछ लेखकों से भी पत्र व्यवहार चल रहा था मगर मुलाकात पहले पहल मुझसे ही हुई थी।

चाय पीकर हम फिर डिब्बे तक आए। मैं उसे अपना कहानी संग्रह भेंट करना चाहता था। किताब लेकर उसने कहा, ”इस पर मेरे लिए कुछ लिख दीजिये ना। पहली बार कोई लेखक मुझे अपनी कृति दे रहा है। मेरे लिए यह एक स्मरणीय क्षण है। मैं लिखने से पहले सोच में पड़ गया कि संबोधन में किस हद तक आत्मीयता जताई जा सकती है। कुछ भी तो स्पष्ट नहीं था। मैंने लिखा- ‘संध्या जी के लिए, शुभकामनाओं सहित’। उसने खुशी खुशी किताब हाथ में लेकर पढ़ा और एक क्षण के लिए चेहरा फीका पड़ गया। उसने धीरे से कहा, ”आप कुछ ज्यादा ही फार्मल हो गए !”मुझे बात समझ में आ गई लेकिन तीर छूट चुका था। उसने गंभीर होकर कहा, ”आप बड़े कथाकार हैं। मेरे जैसी जाने कितनी प्रशंसिकाएं मिलती होंगी आपको। हो सके तो रिटर्न जर्नी में एक दिन ब्रेक करके रांची में रुकिये। यहां बहुत कुछ है देखने को…फादर तो खैर हैं ही। मैं उनके पास आपको ले चलूंगी। …मेरे घर के लोगों से भी मिलियेगा। वे बहुत उत्सुक हैं आपसे मिलने के लिए। आपका पत्र आता है तो मम्मी हमेशा आपका हालचाल पूछती हैं। पापा ने भी आपकी कहानियां पढ़ी हैं। …….”वह कहते कहते अचानक रुक गई । चश्मे के लेंस के पार उसकी बड़ी बड़ी आंखें कुछ आगे की बात कहतीं कि ट्रेन ने बहुत तीखी सीटी बजाई जैसे बहुत खफ़ा हो, इस तरह रोक रखे जाने पर। प्लेटफार्म पर आराम से टहल रहे लोगों में खलबली मची। कुछ लोग तो लपक कर सवार हो गए। मेरी बैचेनी भांप कर संध्या ने हंसते हुए कहा –‘अभी यह जा नहीं पाएगी। राजधानी निकलने के बाद ही इसका नंबर लगेगा। अभी कुछ देर और हम लोगों को झेलिये लेखक महोदय !’मैंने चौंक कर उसके चेहरे पर यह पढ़ने की कोशिश की कि यह शिकायत है या शरारत। उसने आगे कहा-‘सच बताइये आपने जैसी स्मार्ट और सुंदर लड़की की कल्पना की होगी मैं वैसी नहीं निकली ना? ....मुझे देख कर आप निराश हुए हैं ना? ’और फिर से हंसना शुरू कर दिया। मेरी हालत  ऐसी कि जैसे कोई चोर पकड़ा गया हो। यह आक्रामकता एकदम अप्रत्याशित थी। अनपेक्षित भी। मैं शायद निराश दिख भी रहा होऊं। तुरंत बचाव की मुद्रा में आकर कहा-‘आप यह क्या कह रही हैं। मुझे तो यह सब चेखोव की कहानी की तरह अत्यंत रूमानी और रहस्यमय सा लग रहा है। विश्वास नहीं हो रहा कि यह स्वप्न है या वास्तविकता। ‘मैंने भले ही यह त्वरित डायलाग अपनी सफाई में गढा़ हो मगर वह खिल उठी-‘जो भी हो मगर मुझे तो आप बिल्कुल वैसे ही लगे जैसा मैंने सोचा था। बस बोलने में जरा संकोची हैं। …सुनिये हम लोग जब आ रहे थे तो आप सिगरेट सुलगाने जा रहे थे फिर जेब में रख लिये, अब जला लीजिये ना। मुझे सिगरेट की भीनी भीनी गंध बहुत भाती है। मेरे पापा पीते हैं तो मैं चुपके से उनके पास पहुंच कर पैसिव स्मोकिंग करने लगती हूं। मुझे गहरी सांस लेते हुए देख कर बहुत डांट पड़ती है। ‘मैंने सिगरेट का पैकेट निकाला और आज्ञा का पालन करते हुए एक गहरा कश लिया। उसने सचमुच गहरी सांस भरना शुरू कर दिया और मदहोश होने का अभिनय करने लगी। मैं याद करने की कोशिश करने लगा कि यह प्रसंग किस उपन्यास या कहानी में पढ़ा था। उसने भी पढ़ा होगा, शायद यह कोई गूढ़ संकेत हो । मेरी स्मॄति ने साथ नहीं दिया मगर यह जाहिर हो गया कि वह एक स्प्रिंग की तरह खुलती जा रही थी। मामला उतना सीधा साधा नहीं था जितना मैं समज रहा था। यह एहसास होते ही मेरी दिलचस्पी का स्तर यकायक ऊंचा उठ गया।
मेरे चेहरे पर किसी सूक्ष्म भाव को मुग्धता मान कर उसने इतराते हुए कहा- ‘आपकी सिगरेट के धुएं में कितना नशा है!....तभी न आप  ऐसी कहानियां लिख पाते हैं। ‘ यह प्रहसन कुछ और आगे बढ़ता कि राजधानी एक्सप्रेस आ धमकी और दृश्यभंग हो गया। संध्या ने गंभीर होकर कहा-‘आप मानेंगे कि आपके आने से पहले कितना कुछ सोचा था कि आप मिलेंगे तो ये कहूंगी, वो कहूंगी…जाने क्या क्या सोच लिया था। इतना कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते । ….बाबा रे!राजेंद्र जी सच बताऊं लड़कियां जो हैं एकदम पागल होती हैं। और देखिये न, सामने आए तो सब भूल गयी। ….अच्छा आप बताइये कि आपने जो बोलने के लिये सोचा था सब बोल दिया या कुछ बचा कर लिये जा रहे हैं? अरे राम, मैं भी कितनी पागल हूं…आप तो कुछ बोले ही नहीं। ‘और वह मुंह पर हाथ रख कर चुप हो गई। –अब होना तो यह चाहिये था कि इस दुर्लभ मुग्धाभाव में निहित राग तत्व की परख की जाती मगर लेखकों के साथ यही दिक्कत है- उनमें एक कृत्रिम वार्धक्य युवावस्था में ही जड़ जमा लेता है। मुझे उसके लटके झटके बाल सुलभ और हास्यास्पद लगे जबकि मैं उन दिनों मुश्किल बत्तीस-तैंतीस का रहा होऊंगा। अटपटे वचन सुन कर बेवजह एक किस्म का अभिभावक भाव मेरे में जाग उठा और मैं उससे कैरियर और शोधकार्य जैसे कतई अप्रासंगिक विषयों पर बात करके अपना और उसका समय नष्ट करता रहा। हालांकि मुझे इस बात का पूरा पूरा एहसास था कि  ऐसा करके मैं एक अत्यंत सात्विक किस्म के रूमानी और संभावनाशील क्षण की निर्मम हत्या करने का पोंगापन कर रहा हूं। ….लेकिन मित्रों  ऐसा होता है, हो जाता है। और कोई लेखक एक बार अपने हाई होर्स पर सवार हो जाए तो उसका इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं होता। मैं उसे पैरेंट ईगो में समझाता रहा कि कल्पना और यथार्थ में चलने वाला अनवरत द्वंद्व लेखक के मन और मस्तिष्क को कैसे मथता रहता है। …सहसा राजधानी एक्सप्रेस छूट गई तो मेरे प्रवचन पर ब्रेक लगा। संध्या सकपका सी गई थी। मेरे चुप होते ही वह मुझे घूर कर देखने लगी। इस बार मुझे जरा भी अटपटा नहीं लगा क्योंकि मैं समझ गया था कि मुझे देखते हुए भी नहीं देख रही है और अपने ख्यालों की दुनिया में खोई हुई है। मुझे तीव्रता से यह अनुभूति हुई कि अब मेरी गाड़ी छूटने की बारी है। किसी भी क्षण सीटी बजा कर या चीख कर ट्रेन हमेशा हमेशा के लिये चल देने वाली थी। ….उसने अपने भाई के हाथ से बैग लिया और एक कापी निकाल कर मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ” मैंने भी एक कहानी लिखी है। आप पढ़ कर बताइयेगा कि कैसी बन पड़ी है और इसे कहां भेजा जा सकता है। काट छांट की जरूरत समझें तो निस्संकोच कर दें। हां इसका अंत मत बदलवाइयेगा। …मैं वैसा ही चाहती हूं। “

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राजेन्द्र राव

साहित्‍य संपादक
दैनिक जागरण पुनर्नवा

संपर्क: 374 ए-2, तिवारीपुर, जे के रेयन गेट के सामने, जाजमऊ, कानपुर-208010 (उ.प्र.)
मोबाईल: 09935266693
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तभी गाड़ी ने सीटी दी। उसने केक वाला डिब्बा मुझे पकड़ा दिया-“सुबह आपके नाश्ते के लिये। ..और देखिये अगर लौटते में यहां रुकने का मन बन जाए तो फोन कर दीजियेगा। उस कापी में फोन नंबर लिखा है। और…..”वह बोलते बोलते अटक गई, जैसे गला रुंध आया हो। मेरे पीछे से गाड़ी चल दी, मैं पलट कर अपने डिब्बे में जा चढ़ा। दरवाजे पर खड़ा होकर संध्या और पलाश को हाथ हिलाते हुए देखता रहा….जब तक वे ओझल नहीं हो गए।

मेरा मानना है कि पाठक भी कम कल्पनाशील नहीं होते। वे जान जाएंगे कि लौटते समय वहां कोई पड़ाव बनता था कि नहीं। और संध्या की उस कहानी का कथ्य क्या था, यह भी आसानी से समझ लेंगे। – ऐसे कुछ यादगार किस्से और भी हैं जिनमें लेखकों का मुलम्मा उतरता है और जो एंटी क्लाइमेक्स में जाकर विश्राम पाते हैं। फिर कभी……..।



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3 टिप्पणियाँ

  1. बहुत दिन बाद किसी रचना में ऐसा मन रमा। 35-4० साल पहले का समय ताज़ा हो आया।हृदय से बधाई आपको

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  2. बेहद रोचक रचना के लिए बधाई।

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