जातिवाद: ब्राह्मणवाद की उपज - अरुण माहेश्वरी | Arun Maheshwari on Casteism and Brahiminism


जातिवाद: ब्राह्मणवाद की उपज ... 

अरुण माहेश्वरी

अर्चना वर्मा जी ने अपनी फेसबुक की वाल पर ‘ब्राह्मणवाद’ शीर्षक से सात पोस्ट लगाई है। इसमें उन्होंने बड़ी सरलता से ब्राह्मणवाद के प्रसंग में कुछ मौलिक बातें कही है। उनकी बातों का लुब्बे-लुबाब यह है कि - क्यों ब्राह्मणवाद के नाम पर बेचारी ब्राह्मण जाति को लपेटा जाता है जबकि ब्राह्मणवाद का समानार्थी पद है जातिवाद। यदि जातिवाद कहके उससे अभिहित सारी बातें कही जा सकती है, और कही जाती रही है तो फिर फिजूल में ब्राह्मणवाद का वितंडा खड़ा करने का क्या मतलब है?
Arun Maheshwari on Casteism and Brahiminism

हमारा सवाल है कि क्या सचमुच ब्राह्मणवाद और जातिवाद समानार्थी है? ब्राह्मणवाद का इतिहास तो यह बात नहीं कहता। जातिवाद ब्राह्मणवाद की उपज जरूर है लेकिन ब्राह्मणवाद नहीं है। भारतीय दर्शन के इतिहासकारों के अनुसार ईसापूर्व 900 से लेकर ईस्वी सन् 400 के बीच के लंबे काल में वैदिक मंत्रों की संहिताओं, ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के बाद एक अलग कोटि का साहित्य सामने आया था जिसे ब्राह्मणग्रंथों के रूप में जाना जाता है। इन ग्रंथों में नाना प्रकार के अनुष्ठानों से जुड़े विधि-विधानों, कर्मकांडों, यागयज्ञों, कट्टरपंथी मान्यताओं ओर काल्पनिक प्रतीक योजनाओं की भरमार है। महीनों, सालों, दो-दो साल तक चलने वालें यज्ञों के विधान दिये हुए हैं। इतिहासकार इस काल को भारत की भौतिक उन्नति के साथ ही वर्ण व्यवस्था के उदय का भी काल बताते हैं।

इन ब्राह्मण ग्रंथों का ही आगे विकास आरण्यक ग्रंथों में हुआ। योग, यज्ञ के बजाय इनमें ध्यान और मनन को महत्व दिया गया। फिर आए उपनिषद। इन्हें साधारणतया ब्राह्मण ग्रंथों की परंपरा का अंश मानने पर भी उनके विकास में ब्राह्मणेत्तर चिंतन का पर्याप्त प्रभाव रहा। भारतीय चित्त के विकास के इतिहास में ब्राह्मणों के युग से उपनिषद युग में प्रवेश करना एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है। हरप्रसाद शास्त्री तो इसे प्राचीन भारत में हुई एक गौरवशाली बौद्धिक क्रांति कहते थे। ब्राह्मण विचारधारा का आरण्यक विचाराधारा में परिवर्तन भारतीय मूल्यों के परिवर्तन का नया चरण था जिसमें यज्ञानुष्ठान के बजाय ध्यानोपासना पर बल दिया जाने लगा।

वेदांत दर्शन के उत्तरकाल में ब्रह्म के जिस महान स्वरूप की कल्पना की गई थी वह वेदों में प्रयुक्त ब्रह्म शब्द से बिल्कुल अलग थी। वेदों के भाष्यकारों के अनुसार वहां आए ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ है - बलि या अन्नाहुति, सामगान, तंत्र और तंत्र विद्या, सफल याजि्ञक अनुष्ठान, मंत्रोच्चार और आहुतियां, होता द्वारा मंत्र पाठ, महान। इसीलिये, भारतीय इतिहास में ब्राह्मणवाद समानार्थी है कर्मकांडों का, अंध-विश्वासों, धार्मिक रूढि़वाद, पोंगापंथ, का। समाज के कठोर जातिवादि विभाजन, छुआछूत और खास प्रकार के शुचिता बोध का। इन सबके समुच्चय का। ईसापूर्व 900 से ईस्वीं 400 तक चले इस दौर को हरप्रसाद शास्त्री भारत की चरम भौतिक उन्नति से लेकर जातियों में पर्यवसन का दौर कहते हैं। उनके शब्दों में - ‘वैदिक उपद्रव का काल’। मनुस्मृति इसी दौर में रची गयी सामाजिक संरचना से जुड़े कठोर विधानों की संहिता है, ब्राह्मणवादी सनातन धर्म की सामाजिक संहिता, छुआछूत और शुचिता के संस्कार तक जाने वाली एक खास संहिता।

ऐसे में यदि हम अर्चना वर्मा की सलाह मान ले तो हम ‘भारतीय चित्त’ के निर्माण के इस अनोखे शुचिता बोध वाले विशेष विचारधारात्मक पहलू की समझ के सूत्र को ही गंवा देंगे। डा. अंबेडकर ब्राह्मणवाद का जिक्र ऐसे ही नहीं किया करते थे। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि विचारधारा के क्षेत्र में यह एक विशेष भारतीय परिघटना है। इसकी जगह सिर्फ जातिवाद का उल्लेख इस समस्या को उसके वास्तविक इतिहास से काट कर पूरी तरह से अबूझ बना देने का उपक्रम होगा।

कहना न होगा, भारतीय चिंतन के विकास का इतिहास इसी ब्राह्मणवाद के विरुद्ध लड़ाई का इतिहास है । भारतीय नवजागरण तक का इतिहास भी, जिसके प्रमुख नेता ब्राह्मण जाति के लोग ही थे। आज भी तमाम स्तरों पर यह लड़ाई जारी है।

अरुण माहेश्वरी
CF-204, Salt Lake, Kolkata – 700064
ईमेल: arunmaheshwari1951@gmail.com
मो०: 09831097219

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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (31-03-2015) को "क्या औचित्य है ऐसे सम्मानों का ?" {चर्चा अंक-1934} पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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