अनुशासित प्रशासन लाने की एक सार्थक पहल- अशोक गुप्ता | Discipline and administration - Ashok Gupta


अनुशासित प्रशासन लाने की एक सार्थक पहल

-अशोक गुप्ता

कम से कम विगत तीन दशकों से भारतीय राजनेताओं के दंभ जनित व्यवहार में अनुशासन का घोर ह्रास देखा जा रहा है और दिनोदिन यह प्रवृत्ति बढ़ती ही दिख रही है। नेतागण खुद को समय और वैधानिक नियमों से ऊपर समझते हैं। एयर पोर्ट पर सुरक्षा जांच से गुज़रना उन्हें नागवार लगता है, एक विज्ञापन है न, जिसमें एक राजनेता देर से पहुँचने पर संबंधित अधिकारी से ही उल्टा धमकी धरा सवाल करते हैं, “तुम जानती हो हम कौन हैं ?” संकेत साफ़ है...  उनकी अपेक्षा है कि अधिकारी भी नियम और अनुशासन के प्रति गंभीरता न बरते।


अशोक गुप्ता

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भारतीय नौकरशाहों के बारे में यह बात तो एकदम ज़ाहिर है कि वह शैक्षिक योग्यता और बुद्धिलब्ध की परख के लंबे दौर से गुजर कर ही अपनी कुर्सी तक पहुँचते हैं और उनके सामने यह साफ़ रहता है उनकी डोर अंततः किसी न किसी राजनेता के ही हाथ होती है, जिसे अनुशासन और नियम पालन की झख रास नहीं आती। वैसे भी राजनेता यह चाहते हैं कि नौकरशाह भी कुछ अनुशासन संबंधी  अराजकता की आदत डाल लें ताकि उसी आधार पर अपने किसी प्रतिकूल मौके पर उन्हें दबोचा जा सके। अपने प्रधानमंत्री काल में इंदिरागांधी का यह व्यवहारगत छद्म खूब चला। वह किसी अधिकारी को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष निर्देश दे कर कुछ नियम विरुद्ध काम करा लेतीं थीं और चुपचाप उस काम का संज्ञान भी ले लेतीं थी, ताकि उस अधिकारी की पूंछ उनकी कुर्सी के नीचे दबी रहे। यह सिलसिला इस बात को साफ़ करने के लिये काफ़ी है कि अनुशासनहीनता और नियम कानून की अवहेलना का चलन राजनेता से नौकरशाह तक उतरता है और फिर उसे देख, सुन, और अपना कर बाबू और मुंशी की भी वल्ले वल्ले हो जाती है। 

ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल ने जो कदम अफसर आशीष जोशी के संदर्भ में उठाया है वह प्रशंसनीय है। जब हम अनुशासनहीनता के आदी हो जाते हैं तो हमें अभद्र अनुशासनहीनता सहज व्यवहार लगने लगती है, वर्ना सरकारी काम के दौरान सिगार पीना, तम्बाखू चबाना और मीटिंग के दौरान भी गुटखा खाना किसी भी पैमाने से सहज स्वीकार्य नहीं माना जा सकता। संबंधित अधिकारी आशीष जोशी ने जहाँ अपने इस व्यवहार को नाकारा है वहीँ यह भी कहा है कि “अगर यह शिकायत सही भी है तब भी इसे ‘अनुशासनहीनता’ नहीं माना जा सकता”। इससे स्पष्ट है कि वह जानते हैं कि वह आगे भी कभी ऐसा करते देखे जा सकते हैं, और अनुशासन के उनके पैमाने लचर और ढीले हैं। उनका मानना है कि तम्बाखू और धूम्रपान से संबंधित संवैधानिक चेतावनी भी महज़ एक खानापूरी है।

केजरीवाल एक राजनेता हैं और इस अंकुश की पहल उनकी ओर से हुई है। अगर केजरीवाल इस पहल का निर्वाह बिना किसी पूर्वाग्रह के निरंतर कर पाते हैं तो निश्चित रूप से व्यावहारिक स्तर पर अनुशासन और नियम कानून की बेहतर जगह बनेगी। किसी भी अफसर की लत किसी भी सरकार को नागवार गुजारनी ही चाहिये। देश की जनता को न तो लतियड़ सरकार चाहिये न ही लतियड़ नौकरशाही।

इस संदर्भ में हम हाल के समय को किंचित अनुकूल पाते हैं। केन्द्र सरकार के सांसद मंत्री बड़बोले भले ही हों, उनमें किसी व्यसन से जुड़ी आदत नजर नहीं आते। नरेंद्र मोदी से लेकर अनेक बड़े नेता पान, तमाखू और शराब जैसे नशे से विज्ञाप्य दूरी ही रखते हैं और अगर वह प्रयोग करते भी हैं, तो भी वह उसे अपनी शान की तरह अपनी कार्यशैली में नहीं प्रदर्शित करते। वैसे तो पान, तम्बाखू, गुटखा आदि खाना निश्चित रूप से स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है, लेकिन क्या कहा जाय, इनका उत्पादन और वितरण, बाज़ार के स्वास्थ्य को बहुत रास आता है। यह तो आंकड़ेबाज़ ही बताएँगे कि देश के कुल वित्तीय हैसियत में तम्बाखू और शराब का क्या योगदान है लेकिन टीवी पर अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, शराब के विभिन्न रूपों का, और गुटखा उत्पादों का विज्ञापन, जिसमें सिनेमा के बड़े बड़े सितारे अपना योगदान देते हैं, उससे पता चलता है देश की वित्तीय छत को साधने में यह तथाकथित ‘वर्जित’ उत्पाद एक मजबूत खम्भे की भूमिका निभाते हैं। आँकड़ेबाज़ इस तथ्य को भी सामने ला सकते हैं कि देश के लगभग सभी वर्गों में इन उत्पादों के सेवन से होने वाली मौतों और बीमार आबादी का प्रतिशत क्या है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह उत्पाद अंततः हानिकारक ही हैं, और यत्र तत्र विज्ञापित चेतावनी इनके प्रचार प्रसार को रोकने में लगभग नाकाम है। इसलिये एक ओर यह काम देश के बड़े अर्थशास्त्रियों के जिम्मे आता है कि वह इस मजबूत खम्भे का कोई विकल्प खोजें और नशे की दुष्प्रवृत्ति पर अंकुश बनाए की कोई व्यावहारिक राह बनाएँ। 

इसी क्रम में यह प्रसंग उठाना यहां अप्रासंगिक नहीं है कि नशे की लत एक ओर निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों की खुशी छीनती है, दूसरी ओर समाज के हर वर्ग में अपराधी प्रवृत्ति को जन्म देती है। देखें तो हम एक ओर संजय दत्त का उदाहरण ले सकते हैं तो दूसरी ओर हमें रोज़-ब-रोज़ गली कूंचों में। नाली में गिरे नशाखोर दिख ही जाते हैं। नशे के विविध, तैयार और कच्चे उत्पाद तस्करों और सीमा रक्षकों की नैतिकता का कितना इम्तेहान ले रहे हैं यह भी हमारे सामने साफ़ है। हमारे कई विरोधी देश भारत में नशाखोरी की आदत को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं और हमारा युवा वर्ग उसकी गिरफ्त में आता जा रहा है। कुल मिला कर देश के लिये यह वांछित ही है कि, कम से कम स्वीकृत संस्कृति के रूप में नशे को न अपनाया जाय।  

हो सकता है कि सार्वजनिक रूप से धूम्रपान और तम्बाखू गुटखा के प्रयोग को प्रतिबंधित करने और उस प्रतिबंध को सचमुच लागू करने को व्यावहारिक रूप से कठिन माना जाय, लेकिन ऐसा है नहीं। मुझे खूब याद है कि साठ के दशक में सिनेमा हॉल का सिगरेट बीड़ी के धुंए से भरा होना आम बात थी। रेलगाड़ी के डिब्बे में किसी को भी बीड़ी सिगरेट पीने में झिझक नहीं होती थी और रेलवे प्लेटफॉर्म पर यह नज़ारा आम था लेकिन अब ऐसा नहीं है। सिनेमा हॉल, और मेट्रो ट्रेन में धूम्रपान करते लोग नज़र नहीं आते। रेलवे स्टेशन पर भी यह दृश्य बहुत आम नहीं है। तो फिर प्रशासन की जरा सी सतर्कता से इस ओर सार्थक परिवर्तन क्यों नहीं देखा जा सकता है। 

मैं फिर अपने मूल संदर्भ की ओर लौटता हूँ। किसी अधिकारी का, अपने कार्य स्थल पर खुले आम धूम्रपान करना या तम्बाखू गुटखा खाना सिर्फ यह जताता है कि अधिकारी विशेष अपने इस अभ्यास को अपनी शान और रौब का हिस्सा मान रहा है। आमूल परिवेश पर अंकुश लगा कर इस प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सकता है। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि फौज में कोई भी रैंक या ओहदा ऐसा नहीं होता जिसके लिये अनुशासन की बाध्यता न हो और दैनन्दिनी में इसकी अवहेलना के कोई प्रसंग भी सामने नहीं देखे जाते, क्योंकि वहां अनुशासन मूल संकृति का हिस्सा बन गया है, जब कि राजनैतिक परिवेश में अनुशासन के पालन को इज्ज़त के खिलाफ माना जाता है। यह एक खतरनाक मूल्यबोध है। 

अरविंद केजरीवाल ने राजनैतिक और कार्यकारी परिवेश में नये सिरे से अनुशासन रोपने की जो पहल की है उसका स्वागत किया जाना चाहिये। क्या ही अच्छा हो कि साफ़ सुथरी केन्द्र सरकार अरविंद की इस पहल में तहे-दिल से सहयोगी बने।

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