यूज एंड थ्रो की नई सभ्यता - कृष्ण बिहारी | Krishna Bihari: Samai se Baat-11


युवा पीढ़ी के पास नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सपने नहीं हैं... 

 -कृष्ण बिहारी

समय से बात -११  


युवा पीढ़ी के पास जोश है. उत्साह है. साहस है. लगन है. सुविधाएँ हैं. अवसर हैं. आकाश है. पंख हैं. उड़ान है. संघर्ष है. एक नहीं अनेक विकल्प हैं. और, एक से बढ़कर एक लक्ष्य हैं. देखा जाए तो आज के युवा के पास विकसित दुनिया है. मैं बीसवीं सदी के अंतिम दशक में पैदा हुए युवक-युवतियों को आज की युवा पीढ़ी मानते हुए अपनी बात शुरू कर रहा हूँ. यह पीढ़ी आज पचीस वर्ष की है. इतना सब कुछ है आज की युवा पीढ़ी के पास कि उसके और सफलता के बीच की दूरी जैसे ख़त्म हो गई है. लेकिन इस सफल कहलाने या सफल होने के पीछे उसकी जिंदगी कितनी अपनी है और कितनी समाज की, इस सवाल ने उसे बेचैनी के चौराहे पर खड़ा कर दिया है. वह पीढ़ी जो १९९० में युवा पीढ़ी थी, जिसकी संतान आज की युवा पीढ़ी है, वह भी इस पीढ़ी की भागमभाग जिन्दगी के संकटों से जूझ रही है लेकिन उसका भी जूझना हर मोर्चे पर अकेले होते जाना है. आखिर, ऐसा क्यों हुआ ? और आगे आने वाली स्थिति में क्या इसका रूप और विकृतियाँ नहीं लाएगा आदि कई सवाल हैं जिनसे बचना मुश्किल है. पिछले ३० वर्षों में मनुष्य की स्थिति में जो आर्थिक बदलाव हुए हैं उनके पीछे वैज्ञानिक प्रगति का बहुत बड़ा हाथ है. तकनीकी विकास ने देखते-देखते दुनिया को ग्लोबल कर दिया. बहुत दूर दिखने वाली दुनिया न केवल सिमटकर हथेलियों पर आ गई बल्कि उस दुनिया के सभी दरवाजे इस तरह खुल गए कि उसमें किसी भी दिशा से प्रवेश आसान हो गया. ऐसा पहले नहीं था. बीसवीं सदी की सभी युवा पीढ़ियों के सामने इतने विकल्प नहीं थे. पर, उसके पास सपने थे. कम थे, मगर सपने थे. कभी-कभी तो उसके सपने समूह के सपने थे. यह समूह घर के लोगों से लेकर गाँव-कस्बे तक के लोगों का भी हो सकता था. उसके सपने अपनेपन की शक्ति का साथ पाकर लक्ष्य की ओर बढ़ते थे. उसकी लक्ष्य-प्राप्ति अकेले की ख़ुशी नहीं थी. एक सामूहिक उत्सव था. मैं बीसवीं सदी के दौर के चित्र उभार रहा हूँ... 


कृष्ण बिहारी
पो. बॉक्स - 52088. अबूधाबी, यू ए ई
email : krishnatbihari@yahoo.com
mobile : +971505429756, +971554561090

कृषि-प्रधान देश में खेती ही परिवार की प्रतिष्ठा का पैमाना थी. इसके अलावा समाज अपने खानदानी पेशे से सम्बद्ध था. संयुक्त परिवार की उस व्यवस्था में शिक्षा केवल सवर्णों और सचेत परिवारों तक ही सीमित थी. पढ़े-लिखे लोग भी खेती करते थे या पुश्तैनी व्यवसाय में शामिल हो जाते थे. पुश्तैनी व्यवसाय से जुड़े लोग व्यापारी अथवा कारीगर थे. जो लोग पढ़-लिखकर बाहर निकलते उनके सामने रोजगार की समस्या के समाधान के लिए पोस्ट ऑफिस, रेलवे, कृषि और सिंचाई, शिक्षा आदि विभागों के अलावा सेना और पुलिस विभाग के आँगन थे. इनमें पढ़े-लिखे तथा कम पढ़े-लिखों, दोनों के लिए जगह थी. पढ़े-लिखे लोगों के पास बाबू या बड़े बाबू की कुर्सी होती थी. कुछ लोग साहब भी होते थे. इनके अतिरिक्त जो कारीगर और मजदूर तबका था, श्रम ही जिसकी पूँजी थी, वे लोग कलकत्ता और कानपुर का रुख करते थे. इन दोनों बड़े शहरों ने बीसवीं सदी में उत्तर प्रदेश और बिहार के अगणित परिवारों को रोजी-रोटी दी है. इन सभी विभागों में काम करने वाले लोगों की जगहें अलग-अलग थीं मगर उनकी जड़ें गाँव में थीं. वे गाँव से दूर रहते हुए भी गाँव को अपने भीतर उसी तरह जिन्दा रखते थे जैसे ढाई-तीन सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका गए भारतीय भारत को अपने भीतर बसाते हुए जिए या अब भी जी रहे हैं. वे गाँव आते रहते थे. साल-दर-साल. सपरिवार. शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार एक संस्कृति की तरह उनमें सांस लेते थे. लेकिन यह स्थिति यथावत नहीं रह सकी. १९७० के करीब देश में जो चकबंदी हुई उसने देश के किसानों का चाहे जितना भी भला किया हो, समाज के पारम्परिक ढाँचे को तहस-नहस कर दिया. चकबंदी होते ही संयुक्त परिवार टूट गए. सामूहिक सपने का अंत हो गया. घरों में चूल्हे अलग हो गए. आँगन में परदे और दीवारें खडी हो गयीं. भाइयों के बीच का अपनापन टूट गया और सब कुछ अपना-अपना हो गया. अपने और पराये की नींव पड़ी. खेती अधिया और बटाई पर चली गई. गाँव के लोग जो रोजी-रोटी के लिए शहरों में जाकर अपने गाँव के लिए परदेसी हो गए थे वे सचमुच के परदेसी हो गए. उनका गाँव आना-जाना कम होता गया. उन दिनों अगर किसी युवक को अपनी शिक्षा के बलबूते विदेश में जाने का मौका मिल गया तो उसे प्रतिभा पलायन का नाम दिया गया. प्रतिभा पलायन पर लगभग दो दशक तक तत्कालीन मीडिया जो केवल अखबार और रेडियो तक सीमित था, अपनी भड़ास भी निकालता रहता था. वह एक संक्रमण काल था और उसकी इन सब स्थितियों के बीच भी अगर कुछ बचा हुआ था, तो, वह था - परिवार. मध्य वर्गीय हो या उच्च वर्गीय या फिर समाज का निचला तबका, परिवारों में माता-पिता और चार-पांच संतानें होना तो आम बात थी. आर्थिक संकट के बीच भी इतने सदस्यों वाले परिवार जी-खा रहे थे. लेकिन १९८० के बाद या ९० के दशक में युवा हुई पीढ़ी के सामने यकायक एक बदली हुई दुनिया थी. आर्थिक उदारीकरण, तकनीकी विकास, संचार की सुविधाओं से लैस होती दुनिया ने युवाओं के सामने एक नया क्षितिज खोल दिया. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की युवा पीढ़ियों के पास लुप्त होती हुई ही सही मगर 'सामूहिकता' विरासत थी जो इक्कीसवीं सदी की युवा पीढ़ी के हाथों रेत की तरह फिसल गई. अब उसके सामने हम की जगह मैं है. अकेले का आत्मबल है, अकेले की निराशा भी. यदि आत्मबल को बनाए रखने की समस्या है तो निराशा से उबरने का संकट भी. अपनी सफलता के लिए अब वह कहीं भी जा सकता है. अब उसका दुनिया के किसी भी छोर तक जाना प्रतिभा पलायन के अंतर्गत नहीं आता. अपनी बुनियाद से कंगूरा बनने की जद्दोजहद में वह किसी खूंटे से जुडा नहीं रहा इसलिए उसकी परिधि में उसे किसी का साथ बांधे नहीं रहा. वह मोह जैसे शब्द से दूर हुआ. गलाकाट प्रतियोगिता में उसे केवल लक्ष्य दिख रहा है. इस दौड़ में उसके साथ परिवेश तो है लेकिन साथ-साथ जिया हुआ समाज नहीं है. साथ-साथ जिया हुआ घर भी नहीं है. उसके सामने लैप टॉप है. आई फोन है. इंटरनेट है. टार्गेट है. टेंशन है. हर वक़्त अपनाए गए प्रोफेशन की बौखलाहट है. इनके बीच वह यह भी भूल गया है कि एक और दुनिया भी है जिसमें एक शब्द सुकून या निश्चिन्तता भी है... 

अपने प्रोफेशन में भी उसपर तलवार लटकती रहती है. निजी क्षेत्र आपको अवसर देते हैं तो आपसे अवसर लेते भी हैं. निजी क्षेत्रों में रोजी-रोटी के मामले एकतरफा नहीं चलते. आउट सोर्सिंग के इस जमाने में दोनों पक्ष स्वतंत्र तो हैं लेकिन दोनों में संस्थान अधिक मजबूत है. मजबूत संस्थान का आतंक भी इस युवा पीढ़ी पर है... 

आज की दुनिया में जीवन का हर पक्ष बाजार बन चुका है. बाजार विज्ञापनों के माध्यम से स्टूडियो फ्लैट में घुस आया है. घरों को तो उसने पहले ही अपार्टमेंट्स में बदल दिया. मैंने शुरू में ही लिखा कि आज की युवा पीढ़ी के पास सब कुछ है लेकिन उसमें जीवन की संजीवनी नहीं है. जीवन से पारिवारिकता का 'रस' निचुड़कर सूख गया है... 

उसका जीवन बनावटी और दिखावटी हो गया है. कम से कम समय में अधिक से अधिक धन कमाने की धुन में उसकी अपनी भाषा तक उससे इतनी दूर हो गई कि यदि वह उसे पाना भी चाहे तो उसकी एक-दो पीढियां इसी में खप जायेंगी. विकास की तथाकथित अंधी दौड़ में उसने अपना विनाश तो किया ही अपने भविष्य को भी दांव पर लगा दिया है. उसकी इस दौड़ में पीछे से सहायक उसके माता-पिता रहे जिन्हें ' पैकेज' दिखता रहा. कि, उनकी संतान को १२ लाख का पैकेज मिला है. कि, उनकी संतान को २४ लाख का पैकेज मिला है. कि, उनकी संतान अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, यू के में है. आज महानगरीय सभ्यता के हर तीसरे घर के बच्चे विदेश में हैं. यह उन सबके लिए कितने बड़े गौरव की बात है जो दोनों सिरों पर एकांत का निर्वासन भुगत रहे हैं... 

यूज एंड थ्रो की नई सभ्यता में बड़ी हो रही इस पीढी के पास पैसा है. पब है. बार और रेस्तरां हैं. होटल है. और, अस्थाई लिव-इन है. इस पीढ़ी के पास जुड़ाव नहीं है. जुड़ाव की संस्कृति नहीं है. जुड़ाव के सपने नहीं हैं... यह पीढ़ी परिवार में अगली पीढ़ी का इंजन नहीं है. यह पीढ़ी किसी रेलगाड़ी का डिब्बा भी नहीं है. इस पीढ़ी का इंजन और डिब्बे किसी यार्ड में पड़े हैं... 

मैं आज की युवा पीढ़ी से कहना चाहता हूँ कि दौड़ो... खूब दौड़ो... मगर लय में दौड़ो. बस..., आगे, बहुत आगे जाओ किन्तु अपनी जड़ों की ओर लौटना मत भूलो... 

०००

देश की राजनीतिक दशा और दिशा अपने अधोपतन की ओर अग्रसर है. तंत्र ही सड़ गया है. आदमी के पास आशाएं ही आशाएं हैं. कौन पूरा करे ? यदि कोई चेहरा दीखता है तो उसी पर सब आश्रित हो जाते हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आ रहा है. इसमें मोदी का काम-काज कम, उनके सांसदों की भूमिका प्रबल है. अनावश्यक वक्तव्य आये दिन चाय के प्याले में तूफ़ान ला रहे हैं. और, प्रधानमंत्री ऐसे लोगों को चुप भी नहीं करा पा रहे. यह उनकी कमजोरी है या इन सब अवांछित लोगों की अनदेखी ? अरविन्द केजरीवाल के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. उनके निकटस्थ लोग उनके खिलाफ है. सबके अपने-अपने राम हैं. आम जनता का कोई भी अपना नहीं है. लेकिन... क्या कोई सबको खुश रख सकता है ? जो लोग कह रहे हैं कि वे निःस्वार्थ राजनीति में आये, उन सबके स्वार्थ हैं. यह बड़े फायदे का बिजनेस है. कल लालू यादव ने कहा कि समाजवादी जनता दल बनेगा और उसमें छः राजनीतिक दलों का विलय होगा. केवल घोषणा की औपचारिकता बाकी है. अब लालू, मुलायम, देवेगौडा, नीतीश और अन्य इकट्ठा होकर क्या कर पायेंगे ? इनकी विश्वसनीयता अपने आप में संदिग्ध है. ये चुके हुए लोग अब और अधिक चुक गए हैं लेकिन सत्ता का सुख इन्हें भूले नहीं भुला रहा. कभी इन लोगों की ईमानदारी की लोग कसम खाते थे. अब इनके नाम को न लेने की कसम खाते है. तीन बेर खाती थीं वे तीन बेर खाती हैं... यही हाल है. कोई उम्मीद नहीं दिख रही कि हम भारतीय होने का गौरव महसूस करें...  

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ