कहानी - सरकारी मदद आ रही है - इंदिरा दाँगी | Indira Dangi ki Kahani

इंदिरा दाँगी ने वर्तमान हिंदी कथाजगत से उस युवा कहानीकार की कमी पूरी की है जिसका लेखन न सिर्फ़ रोचक है बल्कि विषयों को अपने ख़ास-तरीके से पेश भी करता है। भोपाल में रह रही, दतिया, (म.प्र.) की इंदिरा दाँगी में एक अच्छी बात और दिखने में आती है कि वो अपनी कहानियों में जल्दबाज़ी करती नहीं दिखतीं। इंदिरा को यह समझ है कि उत्कृष्ट-लेखन उत्कृष्ट-समय मांगता है और उनका इस बात को समझना - पाठक को लम्बे अरसे तक उनके अच्छे उपन्यास, कहानियाँ आदि पढ़ने मिलने की उम्मीद देता है।  ~ सं० 

युवा लेखिका इंदिरा दांगी को 2015 के 'साहित्य अकादेमी युवा सम्मान' (हिंदी) की बधाई 

Indira Dangi Hindi Story: Sarkari Madad Aa Rahi Hai


सरकारी मदद आ रही है  

~ इंदिरा दाँगी


ऐन गर्मियों की जिस्म खरोंचती धूप है।

हरि ने एक दृष्टि मुख्यमंत्री निवास के उस विराट आँगन पर डाली। सैकड़ों परेशान लोग ... ईश्वर के दरबार में खड़े, अपनी समस्त इंद्रियों से याचक और निरीह उम्मीदवारों जैसे प्रार्थी। चौड़ी सड़क के दोनों ओर रस्सियों और पुलिसकर्मियों से बनी सीमारेखाओं से सटे खड़े सैकड़ों स्त्री पुरुष हाथों में अपनी व्यथाओं और प्रार्थनाओं के पत्र लिये मुख्य भवन की ओर आखिरी उम्मीद की तरह ताक रहे हैं।


‘‘सिपाही भईया, आज मुख्यमंत्री साहब जनता दरबार में आयेंगे ना?’’ - झंग डुकरिया ने धुंघला ऐनक और पोपला मुँह पोंछते हुये पूछा।

‘‘मुझे क्या पता!’’ - धूप में देर से खड़ा सिपाही खीजी हुई आवाज़ में बोला। ...  हिन्दुस्तान में सबसे ज़्यादा निरीह कर्मचारी पुलिस का सिपाही ही होता है जो किसी भी मारक मौसम, किसी भी मौत घाटी में निहत्था तैनात रहता है ; चंद सिक्कों जैसी तनख़्वाह के बदले में ।

ख़ैर, हरि तीन दिनों से इस जनता दरबार में आ रहा है; पर क़िस्मत की परी या तो नाराज़ है या उसे भूल गई है, पिछले तीन दिनों ही मुख्यमंत्री सरकार के पास जनता दरबार के लिये समय नहीं रहा। घण्टों कतार में तपकर वो अपनी बीमार बहन को लिये लौट जाता।

हरि ने गमछे से मुँह पोंछा और पैबंदों से भरी छतरी की अधूरी छाया में अर्धनिद्रा में लेटी-कराहती बड़ी बहन की ओर देखा।

‘‘पानी पिओगी जिज्जी?’’

जिज्जी ने हामी भरी और हरि प्लास्टिक की मटमैली बोतल का गर्म पानी पिलाने लगा। ‘‘बेटा, जे कौन है तुम्हारी?’’ - अगली उम्मीदवार बूढ़ी ने फटी-मैली धोती के पल्ले से सिर ढँकते हुये पूछा।

‘‘जिज्जी हैं मेरी।’’

‘‘बीमार हैं?’’

‘‘बहुत! तभी तो यहाँ आये हैं मदद की आस लेकर। हमारा गाँव यहाँ से पाँच सौ किलोमीटर दूर है!’’

‘‘बड़ी दूर से आये हो बेटा! ... मैं भी बड़ी दूर से आई हूँ। अकेली, रेल के डिब्बे में दरवाज़े के पास दो दिन बैठके यहाँ तक आ पाई हूँ। दो दिन से कछू खाने को भी नहीं मिला!’’ ‘‘मेरे पास सत्तू है। आओ खा लें। मैं भी भूखा हूँ सबेरे से।’’

वे सत्तू बाँटने लगे और अपने दर्द भी।

‘‘बेटे-बहू रोटी नहीं देते। मारपीट के घर से निकाल दिया है। पंचायत से निराश्रित विधवा वाली पेंशन भी नहीं दे रहे हैं। रिश्वत माँग रहे हैं। मैं ग़रीब कहाँ से दूँ रिश्वत? मज़ूरी अब बनती नहीं। भूख बर्दाश्त होती नहीं। बस भटक रही हूँ जब तक ज़िन्दा हूँ।’’

‘‘मैं भी बड़ा परेशान हूँ माई! जिज्जी को बहुत बड़ी बीमारी है। बहुत रुपये लगेंगे इलाज में। सरकारी मदद मिल जाये तो मेरी बहन के प्राण बच जायें! जिज्जी के सिवा कोऊ नहीं है अपना कहने को संसार में।’’

दो नितांत अपरिचित एक-दूसरे को ढाँढस बँधा रहे थे। ... आम आदमी सरल होता है। छिपाव और दिखावा तो रईसों के कारोबार हैं।

अचानक भीड़ में हलचल बढ़ गई। ... जनता दरबार में आ चुके मुख्यमंत्री के निकट पहुँचने के लिये गर्मायी भीड़ और उसे नियंत्रित करने की मशक्कत करते सुरक्षाकर्मी।

सूबे के हुक्मरान साहब सड़क किनारों पर खड़े याचकों के प्रार्थनापत्र लेते, मिनिट-दो मिनिट रुककर गिड़गिड़ाहट सुनते, प्रार्थनापत्र अधिकारियों को देते और अगले याचक की ओर बढ़ जाते।

कतार बड़ी लम्बी थी। पौन घण्टे की उतावली प्रतीक्षा के बाद देवदूत उसके सामने से गुज़रे। सूबे का वो आम रहवासी रस्सियों और सुरक्षाकर्मियों की सीमारेखायें तोड़ता मुख्यमंत्री के पैरों पर गिर पड़ा। पहरेदार उसे खींचकर अलग कर देते अगर इशारे से उन्हें रोक न दिया गया होता।

‘‘रोओ मत भाई। बताओ क्या समस्या है?’’

मुख्यमंत्री ने झुककर उसके कंधे पर हाथ रखा। काँपते हाथों से उसने अपना प्रार्थनापत्र बढ़ा दिया और हाथ जोड़े , डबडबाई आँखों से मुख्यमंत्री को ताकने लगा।

‘‘हूँअ, तो तुम्हारी बहन गंभीर रूप से बीमार है और उसके इलाज के लिये तुम्हें सरकारी मदद की ज़रूरत है।’’ - मुख्यमंत्री ने हरि के कंधे पर सांत्वना का हाथ रखा ; पत्रकारों ने खचाक से फ़ोटोज़ उतार लीं।

‘‘तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारी बहन का इलाज ज़रूर होगा और इलाज का पूरा ख़र्च सरकार उठायेगी।’’

सी.एम. साहब ने प्रार्थनापत्र पर कुछ लिखा और सचिव को पकड़ाते हुये कहा,‘‘ जितनी जल्दी हो सके प्रार्थी को आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जाये।’’

हरि ने बहन को राजधानी के एक सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में भर्ती करवा दिया और रोज़ मुख्यमंत्री निवास के अधिकारियों से शीघ्र मदद का निवेदन कर आने लगा। बीमार बहन को वो हिम्मत बँधाता,

‘‘मैं बड़ा चंट हूँ जिज्जी! मैने मुख्यमंत्री साहब के दफ्तर में इसी अस्पताल का पता लिखा दिया है। सरकारी मदद का रुपया सीधा यहीं आयेगा तुम्हारे पलंग पर। बस दो-चार दिनों में मदद मिल जायेगी और तुम्हारा आपरेशन हो जायेगा। फिर तुम पहले-सी मज़बूत-मुचन्डू हो जाओगी और मुझे पहले की ही तरह ख़ूब डाँटा करोगी कि अरे मूरख, कब तक मज़ूरी में हाथ घिसता रहेगा! कछू अपना काम-धंधा शुरू कर ले तो तेरा ब्याह भी हो जाये। बहू आये तो मुझे तेरे लिये सेर-सेर भर आटे की रोटियाँ बनाने से मुक्ति मिले!’’

वो इस नाटकीय ढंग से यह बात कहता कि बहन के पीड़ा से मुरझाये मुख पर फ़ीकी ख़ुशी तैर जाती।

दस दिन बीत गये हैं। एक दोपहर हरि को सरकारी चिट्ठी मिली कि मुख्यमंत्री ने उसकी बहन के इलाज के लिये स्वेच्छानुदान निधि से पचास हज़ार रुपये मंजूर किये हैं और राशि शीघ्र ही उसे भेजी जायेगी।

हरि की टूटती हिम्मत और क्षण-क्षण मौत की तरफ बढ़ रही बहन के लिये चिट्ठी संजीवनी थी। ग़रीब आदमी पूरे वार्ड में चिट्ठी दिखाता फिरा और अस्पताल परिसर में बने रामजानकी मंदिर में दो रुपये के चने-इलायचीदाने भी चढ़ा आया।

पन्द्रह दिन और बीत गये। हर दिन तीन किलोमीटर पैदल चलकर वो मुख्यमंत्री निवास जाता है और अधिकारियों से सरकारी मदद के लिये हाथ जोड़कर विनती कर आता है।

अब हरि के वे रुपये भी ख़र्च हो चुके जो गाँव में हर संभव जगह से कर्ज़ के तौर पर उठाये थे। वो चिन्ता में है। उसने झोपड़ी और मामूली गृहस्थी के बारे में ध्यान लगाकर सोचा पर ऐसा कुछ याद नहीं आया जिसे बेचकर कुछ और रुपयों का इंतज़ाम हो सके; और फिर पाँच सौ किलोमीटर दूर गाँव तक पहुँचने के लिये भी तो रुपये चाहिये! जेब में दो रुपये तक नहीं बचे ; जिज्जी के लिये कल दवाईयाँ नहीं ख़रीदीं तो बड़े डाॅक्टर साहब फिर चिल्लायेंगे।

बदबू और भीड़ से भरे जनरल वार्ड में बहन के पलंग के पास गंदे फर्श पर चिथड़ा चादर बिछाये लेटे हरि की आँखों में नींद नहीं है। पोटली खोलकर देखी, हांलाकि वो जानता था कि आटा तो कल रात ही ख़त्म हो चुका। आज दिन भर से वो भूखा है। रोज़ तो सामने वाली चक्की से आटा ख़रीद लाता था और अस्पताल परिसर में ईट के चार-छह टुकड़ों से बनाये चूल्हे में इधर-उधर की लकड़ियाँ डालकर मोटी रोटियाँ सेंककर खा लेता और अस्पताल की टँकी से बोतल में भरकर पानी पीता रहता। जिज्जी के खाने-पीने का भी यही इन्तज़ाम था; पर आज हरि के पूरे रुपये ख़त्म हो चुके। पोटली में जो मुट्ठी भर आटा था उससे तीन रोटियाँ बन सकीं और तीनों ही उसने बहन को खिला दी थीं ; और अब रात में उसे बड़ी भयंकर भूख लग रही थी।

वो उठ बैठा। सामने पीली दीवार पर टंगी पुरानी घड़ी रात के दो बजा रही थी। बोतल का पूरा पानी तो पहले ही पी चुका था। क्या करे अब? उसने पोटली से चिट्ठी निकाली जिसमें लिखा था कि उसकी बहन के इलाज के लिये पचास हज़ार रुपये की सरकारी मदद शीघ्र भेजी जायेगी। सात बार हरि ने उस चिट्ठी को पढ़ा; फिर ख़ुद को तसल्ली देता सो गया।

बड़े सबेरे जागा। जिज्जी के चेहरे पर सुकून अब केवल नींद में ही दिखता है। वो सोई हुई मरियम-सी बहन को निहारने लगा। माँ-बाप बनकर जिस बहन ने उसे पाला है; आज उसे दवाईयों की ज़रूरत है।

हरि अस्पताल से बाहर चला गया और देर शाम मिट्टी, धूल और पसीने मंे लथपथ लौटा। उसे देखते ही नर्स चीखी, ‘‘ऐ, तू कहाँ रहा आज दिन भर? पेशेन्ट को क्या हमारे भरोसे छोड़ गया था यहाँ? न इसके पास दवाईयाँ हैं न खाना। दिन भर से रो रही है बेचारी। अगर इसे मारना ही है तो ले जाओ यहाँ से। हम पर क्यों थोपना चाहते हो इस बीमार, भूखी औरत की मौत?’’

‘‘सिस्टर जी, कल से एक रुपया भी नहीं था जेब में ; मज़दूरी करने गया था। ये देखिये, सौ रुपये कमाये हैं। मैं अभी जिज्जी की दवाईयाँ और खाना लिये आता हूँ।’- चेहरे के पसीने को मैली आस्तीन से पोंछता वो फ़ुर्ती में मुड़ा।

‘‘ऐ सुन!’’- नर्स का लहज़ा कड़वा था - ‘‘ बड़े डाॅक्टर साहब बहुत नाराज़ हो रहे थे। अब से अगर तू पेशेन्ट को छोड़कर पूरे दिन के लिये गा़यब हुआ तो हम पेशेन्ट को अस्पताल से बाहर निकाल देंगे।’’


‘‘ठीक है सिस्टर जी, कल से हम मज़ूदरी पे नहीं जायेंगे।’’ कह तो दिया उसने ; पर अगली सुबह फिर हाथ में रुपये नहीं थे। जिज्जी के पैताने बैठा हरि झाडू लगाते वार्ड बाॅय को उदासी से देख रहा था। वो भूखा था।

‘‘भईया जी, तनिक सुनिये।’’- डरते-डरते वो वार्ड बाॅय के करीब गया।

‘‘क्या है बे ?’’

‘‘लाईये भईया जी, झाडू मैं लगाये देता हूँ।’’

‘‘अबे तू क्यों लगायेगा झाडू? मेरा काम है, मैं कर लूँगा। चल भाग यहाँ से!’’

‘‘भईया जी, मैं बड़ी सफाई से झाडू लगाऊँगा, एकदम चकाचक। बदले में आप मुझे पाँच रुपये दे देना। चार भी दोगे तो चलेगा।’’

वार्डबाॅय ने एक पल को उसके प्रार्थना भरे चेहरे की तरफ़ देखा; फिर झाडू पकड़ा दी। हरि ने पूरे वार्ड को अच्छी तरह बुहारा जिसके एवज़ में उसे पाँच रुपये मिले जिससे उसने दो कप चाय ख़रीदी, एक अपनी बहन के लिये, दूसरी अपने लिये। दो दिन बाद उसे चाय पीने को मिली थी। चेहरे पर ऐसी तृप्ति दिख रही थी जैसे सत्यनारायण कथा का प्रसाद पा लिया हो।

‘‘ऐ सुन!’’- वार्ड बाॅय ने पुकारा।

‘‘हाँ, भईया जी।’’ - वो भूखे बच्चे की तरह लपका। ‘‘तेरे पास एक भी रुपया नहीं बचा क्या?’’

‘‘नहीं भईया जी, तभी तो कल मज़दूरी को गया था ; पर नर्स बहनजी ने कहा है कि अब अगर पूरे दिन के लिये कहीं गया तो जिज्जी को अस्पताल से बाहर कर देंगी।’’

‘‘वो छिनाल तो है ही ऐसी; डाॅक्टर साहब की लौंडी! ग़रीब आदमी की भूख और कष्ट उसकी समझ में नहीं आते; पर मैं तेरी मदद कर सकता हूँ। तेरे खाने-पीने का इन्तज़ाम हो सकता है।’’ ‘‘आपका बड़ा उपकार होगा भईया जी।’’

‘‘उपकार-वुपकार कुछ नहीं, पूरा एक हफ्ता तुझे अस्पताल के काम करने होंगे वो भी डाॅक्टर लोग की नज़रें बचाके। ये डाॅक्टर भी ना ... ख़ुद तो सरकारी दवाईयाँ चुरा-चुराकर बेचते हैं। प्रायवेट प्रैक्टिस करते हैं। मेडीकल वालों से कमीशन खाते हैं और हम ग़रीब कर्मचारियों को नियमों के नाम पर लताड़ते हैं!’’

‘‘भईया जी, आप खाने-पीने के इन्तज़ाम के बारे में कुछ कह रहे थे!’’

‘‘हाँ, यहाँ अस्पताल से बाहर सड़क के दाँये मोड़ से सीधे जाकर बाँये मुड़ते ही एक ख़ैराती सोसायटी है जहाँ सुबह-शाम ग़रीबों को मु़फ्त खाना मिलता है। तू वहाँ से खाना ले आया कर। आधा ख़ुद खाया कर और आधा अपनी बहन को खिलाया कर।’’

‘‘मैं जीवन भर आपको दुआयें दूँगा भईया जी। विपदा की इस घड़ी में आपने देवता की तरह आकर मुझ ग़रीब को उबारा है!’’

‘‘ठीक है। ठीक है ; पर तू वो अस्पताल के काम वाली बात मत भूलना।’’

अब हरि सुबह-शाम उस ख़ैराती संस्था के बाहर भिखारियों, ग़रीबों और ज़रूरतमंदों की लम्बी कतार में खड़ा रहता और डेढ़-दो घण्टे इंतज़ार के बाद उसे खाना मिल जाता। नमकीन पानी जैसी दाल, चमड़े-सी रोटियाँ और कंकड़ मिले मोटे चावल वो भी सिर्फ एक आदमी का पेट भरने लायक। आधा खाना वो वहीं खा लेता और बाकी आधा बहन के लिये ले आता।

पेट तो जैसे-तैसे भर रहा था पर जिज्जी की दवाईयाँ? जिज्जी के बदन पर चाँदी के जो दो-चार आख़िरी जेवर थे, वे भी बिक गये ; चलो, कुछ दिनों की दवाईयों का इन्तज़ाम तो हुआ!

हरि सुबह-शाम मु़फ्त भोजन की कतार में खड़ा होता। हर दोपहर मुख्यमंत्री निवास के अधिकारियों के सामने शीघ्र मदद के लिये गिड़गिड़ाता और जब मरीज असहनीय पीड़ा से कराहने लगती, पोटली से निकालकर मुख्यमंत्री की चिट्ठी ऊँचे और विश्वास भरे स्वर में पढ़कर सुनाता। भाई-बहन दोनों को आशा थी कि चिट्ठी आई है तो सरकारी मदद भी जल्दी ही आ जायेगी।

बारह दिन और बीत गये। बेचने को कुछ नहीं बचा। दो दिनों से हरि की बहन बिना दवाईयों के कराह रही है। डाॅक्टर दवा लाने या पेशेन्ट को अस्पताल से ले जाने के लिये कई बार कह चुके थे।

वो अस्पताल के बाहर बैठा राख मन से, चौराहे की चहल पहल देख रहा है। रमजान के दिन हैं। चौराहे के एक ओर टेंट में रोजा इफ्तार की दावत चल रही है। हरि को बहुत दिनों से पेट भर खाना नहीं मिला। अच्छे भोजन का स्वाद कैसा होता है, वो भूलने लगा है। ... इस समय दिमाग में सिर्फ भूख है।

हरि ने हिम्मत बटोरी और टेंट के बाहर खड़े बदबूदार भिखारी दल में जा मिला। स्वादिष्ट ख़ुशबू की तेज़ गंध में मज़दूर से भिखारी हो जाने का कष्ट दबता जा रहा था ... दबता जा रहा था !

ज़्ाकात में दो मुट्ठी भजिये और तीन केले मिले; बहुत दिनों बाद खाने को कुछ स्वादिष्ट था। वो सड़क किनारे उकडूँ बैठकर खाने लगा। मन में पश्चाताप और दुख था। आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने जेब से मुख्यमंत्री की चिट्ठी निकालकर पढ़ी और शेष बचे मुट्ठी भर भजिये और दो केले अपने गमछे में बाँधकर अस्पताल लौट आया।

जिज्जी को गहरी नींद सोते देखना हरि को अच्छा लगा। पिछले दो दिनों से बिना दवाईयों के उसकी बहन दिन-रात कराहती रही थी। लगता है अब ज़रा आराम मिला है। हरि ने गमछा जिज्जी के सिरहाने रख दिया। जब उठेंगी तो वो उन्हें बतायेगा कि वो उनके लिये भजिया और केले ख़रीदकर लाया है।

हरि जिज्जी के पैताने बैठ गया और जेब से मुख्यमंत्री की चिट्ठी निकालकर पढ़ने लगा। भिखारी बन चुके मज़दूर का मन बेहद व्यथित है ; कितने दिन हो गये यहाँ पड़े-पड़े! कब आयेगी सरकारी मदद? कब होगा जिज्जी का आपरेशन? कब लौट पायेंगे वे अपने गाँव?

वो देर तक, उदास बैठा, शून्य में ताकता रहा। अचानक उसे ध्यान आया कि जिज्जी को सोये बहुत देर हो गई है और वे भूखी होंगी।

‘‘उठो जिज्जी, कुछ खा लो फिर सो जाना। तनिक देखो तो, क्या लाया हूँ मैं ! ... जिज्जी!!’’

तीन-चार बार उसने बहन का हाथ हिलाया, आवाज़ें दीं फिर ग़ौर से देखने लगा; बहन के मुख पर मंदिर की प्रतिमाओं जैसी शांति थी। रोआँ-रोआँ मरती देह के चरम कष्ट से छूटकर वो मुक्त अप्सरा हो गई थी।

अनिष्ट की आशंका से रोआँसा होकर वो अपनी बहन को झिझोड़ने लगा।

तभी बड़े डाॅक्टर साहब के साथ दो-तीन अधिकारीनुमा लोग वहाँ आ गये।

‘‘हरिप्रसाद तुम्हारा ही नाम है? तुमने अपनी बहन के इलाज के लिये मुख्यमंत्री के यहाँ आवेदन दिया था?’’

... अरे, पर ये तो हरि नहीं है, ये तो पत्थर का बुत है!

डाॅक्टर ने आगे बढ़कर पेशेन्ट की नब्ज़ देखी।

‘‘शी इज़ नो मोर।’’ - डाॅक्टर ने अधिकारी को बताया।

‘‘क्या??’’ - आम आदमी की तरह अधिकारी पल भर के लिये चैंका फिर अगले ही पल संभलते हुये पुनः प्रशासनिक अधिकारी बन गया।

‘‘ओह! तब तो, इसके इलाज के लिये सरकारी मदद का जो चौक हम लाये हैं, उसे वापस ले जाना होगा!’’


००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

2 टिप्पणियाँ

  1. बहुत मार्मिक और आज के हालात को बयां करती बेहतरीन कहानी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत मार्मिक और आज के हालात को उजागर करती बेहतरीन कहानी।

      हटाएं