विनोद भारदवाज संस्मरणनामा - 5 : विष्णु खरे | Vinod Bhardwaj on Vishnu Khare


निर्मल वर्मा - विनोद भारदवाज संस्मरणनामा  


विनोद भारदवाज संस्मरणनामा - 13 : विष्णु खरे | Vinod Bhardwaj on Vishnu Khare

लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, फिल्मकारों की दुर्लभ स्मृतियाँ

संस्मरण 5

विष्णु खरे पर लिखना जितना मुश्किल है उतना ही उन्हें समझना. उनकी गिद्ध दृष्टि कुख्यात भी है.
कवि, उपन्यासकार, फिल्म और कला समीक्षक विनोद भारदवाज का जन्म लखनऊ में हुआ था और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की नौकरी क़े सिलसिले में तत्कालीन बॉम्बे में एक साल ट्रेनिंग क़े बाद उन्होंने दिल्ली में दिनमान और नवभारत टाइम्स में करीब 25 साल नौकरी की और अब दिल्ली में ही फ्रीलांसिंग करते हैं.कला की दुनिया पर उनका बहुचर्चित उपन्यास सेप्पुकु वाणी प्रकाशन से आया था जिसका अंग्रेजी अनुवाद हाल में हार्परकॉलिंस ने प्रकाशित किया है.इस उपन्यास त्रयी का दूसरा हिस्सा सच्चा झूठ भी वाणी से छपने की बाद हार्परकॉलिंस से ही अंग्रेजी में आ रहा है.इस त्रयी क़े  तीसरे उपन्यास एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा को वे आजकल लिख रहे हैं.जलता मकान और होशियारपुर इन दो कविता संग्रहों क़े अलावा उनका एक कहानी संग्रह चितेरी और कला और सिनेमा पर कई किताबें छप चुकी हैं.कविता का प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार क़े अलावा आपको संस्कृति सम्मान भी मिल चुका है.वे हिंदी क़े अकेले फिल्म समीक्षक हैं जो किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जूरी में बुलाये गए.1989 में उन्हें रूस क़े लेनिनग्राद फिल्म समारोह की जूरी में चुना गया था. संस्मरणनामा में विनोद भारद्धाज चर्चित लेखकों,कलाकारों,फिल्मकारों और पत्रकारों क़े संस्मरण एक खास सिनेमाई शैली में लिख रहे हैं.इस शैली में किसी को भी उसके सम्पूर्ण जीवन और कृतित्व को ध्यान में रख कर नहीं याद किया गया है.कुछ बातें,कुछ यादें,कुछ फ्लैशबैक,कुछ रोचक प्रसंग.

संपर्क:
एफ 16 ,प्रेस एन्क्लेव ,साकेत नई दिल्ली 110017
ईमेल:bhardwajvinodk@gmail.com
मेरा परिचय मुंबई से दिल्ली आने के बाद 1974 में उनसे हुआ. वह प्राग में रहने के बाद दिल्ली आ गए थे और उनके पास पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के कुछ अच्छे रिकॉर्ड थे. इस संगीत का मैं भी मुरीद था इसलिए उनके घर आना जाना शुरू हो गया. 1976 में देवप्रिया से मेरे विवाह के बाद उनकी पत्नी कुमुद भी मेरी पत्नी की अच्छी दोस्त बन गयीं. जब मैं अविवाहित था, तो एक बार दोपहर को खरे के घर चला गया, तो उन्होंने मुझे प्यार से डांट लगाई की मेरी अनुपस्थिति में तुम मेरे घर क्यों गए? अपनी सुन्दर पत्नी को ले कर वे बहुत पोज़ेसिव थे. लेकिन योग्यता और मानवीयता को अगर आधार बनाया जाये तो मैंने उन जैसा कोई व्यक्ति नहीं देखा. उनके काम भी अनोखे होते थे. नामवर सिंह से एक बार अनबन हो गई तो लम्बे समय के लिए वे गायब हो गए. नामवरजी को अपने दोस्त पुलिस अधिकारी मार्कण्डेय सिंह की मदद से उन्हें खोजना पड़ा. श्रीकांत वर्मा उनकी योग्यता के बहुत प्रशंशक थे पर अंतिम दिनों में उनकी खरे से बात नहीं होती थी. लेकिन जब न्यूयॉर्क से उनका शव दिल्ली आया, तो वही अकेले लेखक थे जो शव दुर्गन्ध से भरे बॉक्स को खोलने में लगे हुए थे. किसी को दिखाने के लिए नहीं, एक मित्र अग्रज कवि के प्रति श्रद्धांजलि के लिए. खरे के जीवन से कई तथ्य निकाल कर उन्हें बदनाम किया जा सकता है, आखिर कौन है जो आदर्श पुरुष हो?

इधर मुझे खुद उनकी गुस्से की उबलती उफनती भाषा से कभी कभी निराशा होती है पर अचानक उनका कोई अच्छा स्कॉलरली लेख पढ़ कर या अच्छी कविता पढ़ कर सब भूल जाता हूँ. उदय प्रकाश के पुरस्कार लौटाने के विवाद में हम दोनों की राय बिलकुल अलग थी पर हमारा संवाद बराबर बना हुआ था. एक बार जब मैं लंदन से लौटा, तो मालूम पड़ा की जनसत्ता में मेरे नई दुनिया में छपे हुसेन के इंटरव्यू पर उन्होंने मेरी जम कर धुनाई की थी. मैंने उन्हें बताया की आपका लेख मैंने पढ़ा ही नहीं. वे बोले यही तो तुम्हारी स्नॉबरी है.

इस समय हिंदी में उन जैसा आधुनिक विद्वान मुझे तो नहीं दीखता. पर उनकी विवादास्पद काली ज़ुबान उन्हें अलोकप्रिय बनाये रखेगी. लेकिन शहद वाली ज़ुबान से आज कुछ बदलेगा क्या? अशोक वाजपेयी अपनी किताब में अपने परिचय में खुद अपने को सर्वाधिक विवादास्पद संस्कृतिकर्मी कहते रहे हैं. विष्णु खरे कहे बिना ही सर्वाधिक विवादास्पद साहित्यकर्मी हैं. उन्होंने 75 की उम्र के प्रस्तावित शानदार जलसों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया. अपने कस्बे छिंदवाड़ा में पड़े अपना काम किये जा रहे हैं. वो पंख फ़ैलाने वाले बूढ़े गिद्ध नहीं हैं.
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