'अभिनेत्री' विनोद भारद्वाज की चर्चित #कहानी | 'Abhinetri' a story by Vinod Bhardwaj


अभिनेत्री

             ~ विनोद भारद्वाज

कहानी
विनोद भारद्वाज की चर्चित कहानी 'अभिनेत्री' | 'Abhinetri' a story by Vinod Bhardwaj


वह बहुत आकर्षक थी। आज की भाषा में बोल्ड ऐंड ब्यूटीफुल। सेक्सी। उस जमाने में हम उसे ‘मॉडर्न’ समझते थे - अवां गार्द। बिंदास। वह अभिनेत्री थी। सुंदर थी। सिग्रेट पीती थी। जींस पहनती थी। इन दिनों तो ऐसी लड़कियां छोटे शहरों में भी मिल जाएंगी। लेकिन आज से तीस साल पहले के बरेली की कल्पना कीजिए। अनुराधा हम जैसे ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ के नए रंगरूपों के लिए एक सनसनी की तरह थी। मैं तो उसे बस देखता ही रह जाता था।

उन दिनों एक कवि मित्र मुझसे कहता था, ‘‘अमां, नरेश, हमने तो तय कर लिया है। शराब या सिग्रेट तभी छुएंगे जब कोई त्रिपुर सुंदरी ऑफर करेगी। वरना ये चीजें शरीफ लोगों के हाथ लगाने लायक नहीं हैं।’’ यह कहकर वह कुछ अनोखी हिकारत से कॉलेज की लड़कियों की तरफ देखता था। पान से हमेशा उसके दांत रंगे रहते थे। भगवान जाने क्यों उसने अपनी कसम की सूची में शराब और सिग्रेट के साथ इस कम्बखत पान को कैसे छोड़ दिया था। बातचीत में हमारा ‘एस्थेटिक प्लेजर’ तो न बिगड़ता।

खैर, उस ‘निरीह कवि’ को मैंने कभी नहीं बताया कि एक शाम लाल लैंप की जादुई रोशनी में अनुराधा ने मुझे सिग्रेट ऑफर की। लेकिन मैंने मना कर दिया। उसने अपने प्यारे अंदाज में कहा, ‘‘साले, तुम घोंचू ही रहोगे क्या। चल एक बीयर का गिलास पी ले। मम्मा से डरता है न। जाते वक्त मैं तुझे इलायची खिला दूंगी। रात को दरवाजा खोलेगी, तो तू एक शानदार और सभ्य खुशबू के साथ घर में घुसेगा।’’

‘‘अनुराधा जी, क्या सचमुच मैं पी लूं? बहुत ज्यादा नशा तो नहीं आएगा।’’

अनुराधा के पति कुमार (अरे हां, वह बीस की थी और विवाहिता थी) ने मेरे लिए एक गिलास में बड़ी सफाई से बीयर भरी। मुझे उस वक्त यह बात कुछ खराब लग रही थी कि उस गिलास को अनुराधा ने मेरे लिए खुद क्यों नहीं बलाया। मैंने गटागट गिलास खाली कर लिया और झाग लगे कांच के गिलास को आंखों के सामने घुमाते हुए बड़ी देर तक अनुराधा को देखता रहा। वह मेरा आदर्श थी। उसकी छवि में मुझे एक साथ ग्रेटा गार्बो, मधुबाला, मर्लिन मनरो (उन दिनों अक्सर मुझे अपने एक प्रिय कवि की पंक्तियां याद आ जाती थीं- ‘मर्लिन मनरो, मेरी भव बाधा हरो!’) माता हारी (डच-इंडोनेशियन मूल की रहस्यमय नर्तकी जो जर्मन सीक्रेट सर्विस के लिए काम करने के जुर्म में मार दी गई थी) गीता बाली के मिलेजुले दर्शन हो जाते थे। उन दिनों स्टेज की किसी बड़ी एक्ट्रेस का नाम मैं जानता नहीं था। सीकरी या उत्तरा वावकर के नाम जब कुछ साल बाद सामने आए, तो मेरा अनुराधा से मोहभंग हो चुका था। उसने अपने ‘पहले प्यार’ कुमार से तलाक ले लिया था। और उन दिनों तो उसे मेरा नाम सुनना भी पसंद नहीं था।

लेकिन यह बात तब की है जब मैं सत्रह साल का था। अनुराधा मुझसे तीन साल बड़ी थी। बरेली में एक नाटक में अपने अभिनय से उसने तहलका मचा दिया था। कुमार उसे इतिहास पढ़ाते थे। दोनों का तूफानी प्रेम हुआ। उनकी शादी के कॉलेज में कई किस्से मशहूर थे। मैं जब इस ‘अवां गार्द’ पति-पत्नी के महान संपर्क में आया, तो उनकी शादी हो चुकी थी।

कुमार अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था। अनुराधा कभी-कभी उससे कहती, ‘‘साले, मुझसे इतना प्यार न करो। पछताओगे।’’

कवि, उपन्यासकार, फिल्म और कला समीक्षक विनोद भारदवाज का जन्म लखनऊ में हुआ था और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की नौकरी क़े सिलसिले में तत्कालीन बॉम्बे में एक साल ट्रेनिंग क़े बाद उन्होंने दिल्ली में दिनमान और नवभारत टाइम्स में करीब 25 साल नौकरी की और अब दिल्ली में ही फ्रीलांसिंग करते हैं.कला की दुनिया पर उनका बहुचर्चित उपन्यास सेप्पुकु वाणी प्रकाशन से आया था जिसका अंग्रेजी अनुवाद हाल में हार्परकॉलिंस ने प्रकाशित किया है.इस उपन्यास त्रयी का दूसरा हिस्सा सच्चा झूठ भी वाणी से छपने की बाद हार्परकॉलिंस से ही अंग्रेजी में आ रहा है.इस त्रयी क़े  तीसरे उपन्यास एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा को वे आजकल लिख रहे हैं.जलता मकान और होशियारपुर इन दो कविता संग्रहों क़े अलावा उनका एक कहानी संग्रह चितेरी और कला और सिनेमा पर कई किताबें छप चुकी हैं.कविता का प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार क़े अलावा आपको संस्कृति सम्मान भी मिल चुका है.वे हिंदी क़े अकेले फिल्म समीक्षक हैं जो किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जूरी में बुलाये गए.1989 में उन्हें रूस क़े लेनिनग्राद फिल्म समारोह की जूरी में चुना गया था.

संपर्क:
एफ 16 ,प्रेस एन्क्लेव ,साकेत नई दिल्ली 110017
ईमेल:bhardwajvinodk@gmail.com
दरअसल उन दिनों मैं अपने को अनुराधा का ‘सीक्रेट’ और ‘हार्मलेस’ किस्म का प्रेमी मानता था। अक्सर उनके घर में दावतें होती थीं। शहर के कई कवि, चित्रकार व लेखक, रंगकर्मी, संगीतकार, बुद्धिजीवी वहां मौजूद होते थे। मैं उन दावतों में ‘आश्चर्यलोक में एलिस’ की तरह बैठा होता था। अनुराधा की अदाओं का मैं बड़ा बारीक अध्ययन करता था और पार्टी के अंत में उसका मुझे इलायची खिलाना मेरे लिए एक विराट ‘इरॉटिक अनुभव’ था।

इस ‘इरॉटिक अनुभव’ के अद्भुत आलोक में मैं घर लौटता था। मां डांटती थी। मैंने एक उभरते हुए पेंटर की शैली के फ्रैंचकट दाढ़ी बढ़ा ली थी। मुझे डर लगता था कि कहीं मेरी मां किसी दिन गुस्से में मेरी इस कलात्मक दाढ़ी को न नोच ले। और उसे इलायची की खुशबू का रहस्य पता चल जाए।

अनुराधा के घर की दावतों का मुझे कुछ ऐसा चस्का लग गया था कि कभी-कभी मैं कॉलेज की क्लास खत्म होते ही शिखर धूप में उनके घर के सामने सड़क के दूसरे तरफ छिप कर खड़ा हो जाता था। वे दोनों तीन बजे के आसपास रिक्शे पर घर लौटते थे। जब वे अंदर चले जाते, तो मैं शर्माता-झिझकता, किताबें गिराता-संभालता उनके घर की घंटी बजा देता था। वे लोग मुझे बहुत चाहते थे। कुमार अक्सर मेरे किताबी ज्ञान से आतंकित हो जाता था। मैं एक ही सांस में सार्त्र, काम्यू, विटगेंस्टाइन, जीवनानंद दास, मालरो, कारावेज्जियो, मजाज, भुवनेश्वर, माता हारी के नाम लेने की कला में माहिर था। लेकिन अनुराधा बड़ी बेरहमी से मेरा मजाक भी उड़ाती थी।

एक बार उन दिनों पटना में अखिल भारतीय बुद्धिजीवी सम्मेलन हुआ। दिल्ली की संस्कृति की दुनिया में मैंने भी एक हल्की सी दस्तक दे दी। एक निमंत्रण का जुगाड़ हो गया। बस, हमारा एक दल पटना पहुंच गया। झिझक के कारण में अनुराधा को कुछ बता भी न सका। लौटा, तो उसने मेरी अच्छी क्लास ली, ‘‘अच्छा तो साले, तुम सब बुद्धिजीवी हो गए हो। कितनी घटिया साउंड वाला शब्द है यह बुद्धिजीवी...’’

‘‘आप चाहें तो इंटेलेक्चुअल शब्द का इस्तेमाल कर सकती हैं...’’ 

‘‘कोई कम नकली शब्द नहीं है इंटेलेक्चुअल भी। तुम लोग कैसे अपने को बुद्धिजीवी कहने की हिम्मत जुटा लेते हो.... पाखंडी और नकली हो तुम बस लोग... कायर... फ्राड...’’

‘‘अनु डार्लिंग, क्यों तुम इस बेचारे के पीछे पड़ी हो। ऐसी जगहों पर जाना चाहिए। दिमाग खुलता है। बहसबाजी होती है। मैं तो इसकी उम्र में बड़ा दब्बू था।’’ कुमार ने यह कह कर मुझे थोड़ी राहत पहुंचाई।

कभी-कभी कुमार से मुझे एक विचित्र प्रकार की ईर्ष्या का भी अनुभव होता था। भला अनुराधा उसी से क्यों प्यार करे? फिर मुझे मन ही मन बड़ा अजीब सा डर महसूस होता था कि कहीं अनुराधा मुझे अपना छोटा भाई तो नहीं समझती है। भले ही वह प्यार कुमार से करे - हे ईश्वर, लेकिन मुझे अपना भाई न बना ले। यह मेरी गुप्त प्रार्थना थी।

मेरी कोई बहन नहीं थी। लेकिन मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि अनुराधा मुझे छोटे भाई का दर्जा दे। में उसका अच्छा दोस्त बनना चाहता था। और एक दिन मैंने उससे अपनी यह निरीह इच्छा बता भी दी। उसने बड़ी जोर से ठहाका लगाया। बोली, ‘‘तो तुम मेरे दोस्त बनना चाहते हो? साले, कहीं स्पेशल फ्रैंड बनने की कोई सीक्रेट डिजायर तो नहीं है मन में। कुमार तो तुम्हें बड़ा सीधा समझता है। पर मैं जानती हूं। तुम घुटे हुए बुद्धिजीवी हो। अच्छा तुम यह बताओ, कभी तुमने मास्टरबेशन किया है? कौन है तुम्हारी सपनों की रानी? कहीं मैं तो नहीं हूं?’’

‘‘आप भी बस.... अनुराधा जी.... समझिए न। कभी-कभी सपनों में मुझे मर्लिन मनरो दीखती है या फिर माता हारी...’’

‘‘साले, घोंचू, तुझे तो सपनों में अन्ना अखमतोवा दीखनी चाहिए। बुद्धिजीवी बनता है। सम्मेलनों में जाता है।’’

‘‘देखिए, उस सम्मेलन में मेरा जूता चोरी हो गया था। बड़ी महंगी पड़ी थी वह कॉन्फ्रेंस। फ्यूचर में मैं कभी ऐसी जगह नहीं जाऊंगा।’’

उस रात मैं काफी देर तक सोचता रहा कि अनुराधा ने मुझसे ‘मास्टरबेशन’ वाला सवाल क्यों किया? वह कैसे मेरे मन की अत्यंत गुप्त इच्छाओं, स्वैरकल्पनाओं के संसार में झांक लेती है? मैं उसके सामने सच बोलने का साहस क्यों नहीं जुटा सका?

कुमार की पार्टियों का मुझे इंतजार रहता था। काफी तैयारी करके जाता था मैं इन दावतों में। आज किसे ‘कोट’ करना है, किस किताब का फ्लैप पढ़ कर जाना है। अनुराधा का एक ‘कजिन’ किशोर अक्सर हम सबको मात दे दिया करता था। उसके पास एक फाक्सवैगन गाड़ी थी जो उस जमाने का एक अनोखा स्टेटस सिंबल थी। पीछे ‘एन्काउंटर’ जैसी किसी आधुनिक पत्रिका के अंक बिखरे पड़े रहते थे। कभी ‘न्यू लैफ्ट रिव्यू’, ‘कल्पना’, ‘माध्यम’ के अंक भी ‘वैरायिटी’ के लिए दीख जाते थे। किशोर लगभग हमारे लिए अज्ञात लेखकों और पुस्तकों के नाम एक विशेष अवसर पर एक उससे भी अधिक विशेष शैली में हवा में फेंक दिया करता था। अनुराधा को जब भी किशोर को चिढ़ाना होता था, तो वह ‘नेम ड्रॉपिंग’ को बाकायदा एक आकर्षक अभिनय के साथ जमीन पर ‘ड्रॉप’ करके दिखाती थी।

और अचानक अनुराधा बरेली छोड़कर दिल्ली चली गई। वह जाना नहीं चाहती थी। उन दिनों दिल्ली की ‘हाई सोसायटी’ से उसे सख्त चिढ़ थी। तो फिर वह अचानक दिल्ली क्यों चली गई? दरअसल कुमार ने ही उस पर ‘प्रैशर’ डाला था। उसका लगता था कि मेरी प्रतिभाशाली पत्नी के लिए यह शहर बहुत छोटा है। यहां वह कुछ नहीं कर पायेगी। इसलिए उसने अनुराधा को नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला दिलाया। वह उसे एक बहुत बड़ी अभिनेत्री के रूप में देखना चाहता था। अनुराधा की विदाई पार्टी में एक हंगारी लाल वाइन की बोतल खोली गई। मैं कुमार से वह हरे रंग की खाली बोतल घर ले आया था। किसी ‘मिमेंटो’ की तरह मैं उसे रखना चाहता था। आखिर अनुराधा से जुड़ा स्मृति चिन्ह भी अलग तरह का होना चाहिए। अनुराधा के दिल्ली जाने के बाद बरेली बहुत खराब लगने लगा। कुमार के यहां पार्टियों का सिलसिला भी कम हो गया। मैं भी अपने इम्तहानों में फंसा रहा।

गर्मी की छुट्टियां थीं। अनुराधा दिल्ली से अपने साथ दो ‘बड़े बुद्धिजीवी’ लेकर लौटी। दोनों अधेड़ उम्र के थे पर बातें बहुत शानदार करते थे। उनके सम्मान में कुमार ने एक अच्छी दावत दी। अनुराधा मुझे बदली हुई लग रही थी। पार्टी के बाद मुझे वह इलायची देना भी भूल गई। रिक्शे में अकेला अंधेरा में बैठा मैं पुरानी पार्टियों की याद कर रहा था। घर नजदीक था। देर रात को एक कमजोर आदमी को कुछ पैसे वाले लोग बुरी तरह पीट रहे थे। वह आदमी मार खाते हुए अजीब तरह से कराह-चिल्ला रहा था। मेरा सारा नशा उड़ गया। मैं सोचता रहा वह आदमी कौन होगा? उसे इतनी बुरी तरह से मारा जा रहा है? उसने क्या कोई बहुत बड़ा अपराध किया होगा? यह सोचते-सोचते अचानक मेरा मन हुआ कि मैं वापस अनुराधा के पास पहुंच जाऊं। रात को दरवाजा जोर-जोर से खटखटाऊं। अपने सफेद स्लीपिंग गाउन में अनुराधा अपने बाल बिखराये हुए चली आये। दरवाजा खोले, तो मैं उसे इलायची मांगूं।

और मैं बेचारा एक डरपोक बुद्धिजीवी रात को उस आदमी के पिटने पर कोई कविता लिखने, पेंटिंग बनाने के बारे में सोचता रहा। पर मैं उन आदमियों से यह पूछ नहीं सकता था कि भइया, क्यों मार रहे हो इस अकेले आदमी को? मैंने रिक्शेवाले को फौरन रास्ता बदलने के लिए कहा।

अगली सुबह अचानक अनुराधा ने एक प्रोग्राम बनाया। रानीखेत और कौसानी जाने का प्रोग्राम। मैंने कभी पहाड़ देखा नहीं था। सोचा की इस बुद्धिजीवी टीम के साथ कौसानी का सूर्योदय देखकर धन्य हो जाऊंगा। हम पांच लोगों की टीम उसी रात रानीखेत की ओर चल दी। कुमार बहुत उत्साहित था। प्रोफेसर भटनागर और उनके अंतरंग मित्र बी,एल. (उनका पूरा नाम हम कभी नहीं जान पाये) काफी जानकार और घुमक्कड़ किस्म के थे। मैं ठंड से पूरी तरह से बल्कि बुरी तरह से लड़ने की तैयारी करके स्टेशन पहुंचा था। अनुरोधा मुझ पर बहुत हंसी। ‘‘अरे बौड़म कहीं के, तुम जाड़ों में मास्को नहीं जा रहे हो। रानीखेत का मौसम बड़ा प्लैंजेंट होगा।’’

दोपहर को जब हम रानीखेत पहुंचे, तो एक भीषण आंधी ने हमारा स्वागत किया। एकाध मकान की छत को भी मैंने उड़ते हुए देखा। पहाड़ का पहला अनुभव विचित्र और भयभीत कर देने वाला था। सिर्फ दो कमरे खाली थे। एक थोड़ा बड़ा था, दूसरा काफी छोटा। मन ही मन मैं बहुत दुखी था कि भटनागर और बी.एल. के साथ मुझे कमरा शेयर करना होगा। पता नहीं इन बुद्धिजीवियों के खर्राटे कैसे होते हैं। मैं बहुत डरा हुआ था।

पर अनुराधा ने मुझे चौंका दिया। उसने कुमार से कहा, ‘‘तुम और बी.एल. छोटे कमरे में शिफ्ट हो जाओ। मैं, प्रोफेसर भटनागर और यह बच्चा बड़े कमरे में सो जायेंगे। इस बच्चे को भी तो आखिर में एडल्ट बनाना है।’’

‘एडल्ट’ तो मैं बनना चाहता था, अनुराधा के साथ कमरा शेयर करने ने भी मुझे रोमांचित किया पर मैं इस अनोखे ‘अरेंजमैंट’ से सचमुच चकित था। साफ नजर आ रहा था कि कुमार इस अत्याधुनिक ‘अरेंजमैंट’ से खुश नहीं है। उसका चेहरा उतर गया था। तेजी से उसने अटैची उठाई और ‘स्पोर्ट्समैन स्प्रिट’ दिखाते हुए बी.एल. के साथ कमरा शेयर करने के लिए चला गया। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। मैंने सोचा कि यही असली आधुनिकता है। दिल्ली से आधुनिक होकर आई है अनुराधा।

रात के भोजन के समय काफी गंभीर बातें हो रही थीं। पर मेरा मन यही सोच रहा था कि क्या सुंदर स्त्रियां खर्राटे भी लेती होंगी? लखनऊ के कॉफी हाउस में हिंदी के एक बहुत बड़े लेखक यशपाल एक बार बहुत ‘इनोसेंट’ सवाल कर रहे थे कि मेरा मन यह बात मानने को तैयार नहीं होता कि सुंदर स्त्रियां कभी पेशाब करने भी जाती होंगी। मेरे मन का सवाल भी कुछ इसी तर्ज पर था।

पर रात को बिस्तर पर मुझे नींद नहीं आरही थीं कंबख्त किसी के खर्राटें भी नहीं सुनाई पड़ रहे थे। भटनागर और अनुराधा बड़ी देर तक बर्टोल्ट ब्रैेष्ट, स्तेनिस्लावस्की और यूजीन ओनील पर बातें करते रहे। फिर अचानक विषय कुछ दिलचस्प हुआ। बर्टोल्ट ब्रैष्ट और पाबलो नेरूदा के प्रेम जीवन पर कुछ रोचक और ‘इरॉटिक’ किस्म का वार्तालाप शुरू हुआ। कुछ देर तो मैं सुनता रहा। भटनागर ने यह भोला सा प्रस्ताव रखा कि अनुराधा, मेरे पैर दबा दो। मैं चलते-चलते थक गया हूं।

और मैं ‘प्रोटेस्ट’ में बिस्तार से उठ खड़ा हुआ। पर किसी ने मेरे ‘प्रोटेस्ट’ पर ध्यान नहीं दिया। मैं बाहर आया, तो देखा ‘रेलिग’ पर कुमार झुका हुआ सिग्रेट पी रहा है। कुछ देर तक हम लोग इस ‘अरेंजमैंट’ पर बातचीत करते रहे। कुमार ने कहा, ‘‘मैं इस हद तक सहन नहीं कर पाऊंगा। नरेश, क्या मुझे अनुराधा से बात करनी चाहिए।’’

‘‘क्यों नहीं? आखिर वह आपकी पत्नी हैं। पर अभी फौरन बात मत कीजिए। सिचुएशन ठीक नहीं है। कल आराम से किसी एकांत में बात कीजिएगा।’’

और अगली दोपहर को जो ‘सीन’ सामने आया वह किसी मसाला हिंदी फिल्म का भी ‘सीन’ हो सकता था। कुमार ने अनुराधा को अलग ले जाकर बातचीत की। बाद में अनुराधा बिना कुछ बताये गायब हो गई। हम चारों लोग चारों दिशाओं में ‘अनुराधा, अनुराधा’ कहते हुए बदहवास भागते रहे। शाम को एक चट्टान के पास वह अकेली चुपचाप बैठी हमें मिली। ‘ट्रिप’ को रद्द कर दिया गया। भटनागर और बी.एल. कौसानी की ओर चले गये। हम तीनों वापस बरेली आये। लौटते वक्त शायद ही किसी ने कोई बात की हो। अनुराधा ने कुमार से तलाक ले लिया। मुझसे तो वह बात करने के लिए भी नहीं तैयार थी। तीस साल तक वह मुझसे नहीं बोली।

उन दिनों मन में पहली बार यह सवाल उठा था - कला या जिंदगी? कला तो बहुत से लोगों, बहुत सी पीढ़ियों, समय के अलग-अलग पडावों के काम आती है। जिंदगी तो उसके मुकाबले में छोटी है। एक आप की जिंदगी होती है और कुछ लोग आपकी जिंदगी में आते हैं।

उन दिनों महान पश्चिमी संगीतकार गुस्टाफ मालर की पत्नी अल्मा के संस्मरण पढ़ रहा था। अल्मा का पति तो सचमुच महान था। उसकी महानता की थोड़ी सी झलक उसके समय को भी मिल गई थी। लेकिन अल्मा की शिकायत यही थी कि ऐसी महानता किस काम की अगर वह आपके निजी जीवन की उपेक्षा करे, एक तरह से उसे बर्बाद होने दे।

कुमार अकेला हो गया था। वह एक बहुत ‘केयरिंग हसबेैंड’ था। घर के प्रति वह बहुत समर्पित था। बहुत शौक से चीजें खरीद कर लाता था। उन दिनों बरेली में महंगा म्यूजिक सिस्टम बहुत कम लोगों के पास होता था। अनुराधा अभी दिल्ली नहीं गई थी। कुमार ने म्यूजिक सिस्टम खरीदने के बाद एक पार्टी दी। (उन दिनों हम लोग पार्टी के लिए कोई न कोई बहाना खोज लेते थे!) वह बहुत चाव से सिस्टम के बारे में बता रहा था। ‘‘देखो, नरेश हम कलाकारों-बुद्धिजीवियों के लिए यही चीजें ज्वैलरी की तरह हैं। लोग इतना पैसा जेवर पर खर्च करते हैं, महंगे कपड़े खरीदते हैं और हम लोग किसी म्यूजिक सिस्टम रेकॉर्ड या किताब पर खर्च करना चाहते हैं।’’

सिस्टम पर कुमार गंधर्व का एल.पी. चल रहा था। एल.पी. के कवर पर कुमार गंधर्व की आकर्षक मुद्रा थी - अपने प्यारे कुत्ते के साथ। हम सब लोग संगीत में बुरी तरह से डूबने की कोशिश में थे। अनुराधा ने सिग्रेट जलाई और एक खास तरह की व्यंग्यात्मक हंसी के साथ कहा, ‘‘अबे, घोंचू, बेकार ही बार-बार मुंडी हिला रहा है। कुछ जानता भी है शास्त्रीय संगीत के बारे में। कल तक तो किशोर कुमार के गाने गाता था।’’

‘‘तो क्या हुआ अनुराधा? आज भी गाता हूं।’’ मैंने शायद पहली बार अनुराधा की आंखों का सामना करने की कोशिश की थी। वह अक्सर मुझसे कहती थी- तुम आंखें मिलाकर क्यों नहीं बात करते। हमेशा चोरों की तरह इधर-उधर क्यों देखते रहते हो। मैंने अपने भीतर जोश और हिम्मत का एक ‘पैग’ उड़ेला और कहा, ‘‘अनुराधा जी, मैं किशोर कुमार भी सुनता हूं, कुमार गंधर्व भी और मोत्सार्ट भी। कहिए, आपको कोई एतराज है? क्या बरेली में रहकर मोत्सार्ट को मोजार्ट न कहना, उसका ‘नाइट म्यूजिक’ सुनना अपने आप में कोई क्राइम है?’’

‘‘अबे, तू इतना सेंटी क्यों हो रहा है? मैं तो यूं ही मजाक कर रही थी। तुम में कहीं कोई बात देखी थी, तभी तो तुम्हें हम सब लोग इतना चाहते हैं, पार्टियों में तुम्हें बुलाते हैं। हमारी भाषा में तो तुम अभी ठीक से एडल्ट भी नहीं हुए हो। पर तुममें कहीं कुछ है...’’ 

हमारी पार्टियों में एक आकर्षण शेषमणि श्रीवास्तव की कविताएं उन दिनों ‘धर्मयुग’ में छप चुकी थीं। राजकमल चौधरी की लाल कागज पर हरी स्याही से लिखी चिट्ठियां दिखा कर वह हम सबको चमत्कृत कर चुका था। अनुराधा की बात सुनकर उसने फौरन संगीत बंद करवाया और अपने झोले से रघुवीर सहाय की पुस्तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ निकाली और उनकी ‘स्वीकार’ कविता का पाठ शुरू कर दिया: ‘‘तुममें कहीं कुछ है/ कि तुम्हें उगता सूरज, मेमने, गिलहरियां, कभी-कभी का मौसम/ जंगली फूल-पत्तियां, टहनियां-भली लगती हैं/ आओ उस कुछ को हम दोनों प्यार करें...’’

मुझे एक कविता याद थी। नाटकीय ढंग से मैंने इसकी अंतिम पंक्ति सुनाई, ‘‘एक दूसरे के उसी विगलित मन को स्वीकार करें।’’

स्वीकार करता हूं कि आज भी मेरे मन में इन पार्टियों का ‘नॉस्टेल्जिया’ है। हम लोग अक्सर सतही, फैशनेबुल, लेग पुलिंग किस्म की बातें ही करते थे। पर कभी-कभी कुछ ढंग की बातें भी हो जाती थीं। कुमार बहुत ‘प्यारा’ किस्म का प्राणी था। वह सचमुच अनुराधा की बहुत ‘केयर’ करता था। रसोई में जाकर बहुत सारा काम खुद ही कर देता था। पार्टी के बाद सुबह बर्तन भी खुद ही धोता था। इस बारे में उसकी राय दिलचस्प थी, ‘‘बर्तन मांजते वक्त दिमाग की गंदगी भी साफ हो जाती है। रात की पार्टी के बाद दिमाग को भी एक जबरदस्त धुलाई की जरूरत होती है।’’’

सिग्रेट पीने के बारे में भी उसका कमेंट कम दिलचस्प नहीं था, ‘‘दिमाग में बहुत से मच्छर घुस जाते हैं। गांवों में लोग मच्छर भगाने के लिए कंउे जलाते हैं और सिग्रेट से मैं दिमाग के मच्छर भगाता हूं।’’

लेकिन हमारी पहाड़ की इस विस्फोटक यात्रा के बाद पार्टियों का सिलसिला बंद हो गया। मैं कभी-कभी कुमार से मिलने जरूर जाता था। उन दिनों हमारे शब्दकोश में ‘सहानुभूति’ शब्द से सबको चिढ़ थी। लेकिन मुझे कुमार के साथ सहानुभूति महसूस होती थी।

‘‘आखिर प्रोफेसर भटनागर में ऐसा क्या है जो आपके जैसा डेवोटेड हस्बैंड इस तरह से छला गया?’’

‘‘डेवोटेड होना ही शायद मेरी गलती थी। वैसे मैं तुम्हें यह बता दूं, भटनागर के साथ इसकी ज्यादा देर पटेगी नहीं। वह चार बजे एक कन्या के साथ ‘लुक बैक इन एंगर’ पर बौद्धिक बकवास कर रहा होता है और पांच बजे उसे किसी दूसरी कन्या के साथ पाउल क्ले का कला चिंतन डिस्कस करना होता है। ही इज ए ग्रेट फ्रॉड!’’

‘‘यही तो दिक्कत है। वह मामूली फ्रॉड नहीं है। ग्रेट फ्रॉड होने के लिए थोड़ा मेहनत करनी पड़ती है। प्रतिभा की जरूरत पड़ती है। वह किसी पहुंचे हुए संत की तरह सम्मोहित करने वाली बातें करता है!’’

अनुराधा उन दिनों मेरे लिए लगभग एक खलनायिका बन गई थी। विडंबना यह थी कि उसकी जिस ‘बोल्डनेस’ ने मुझे इतना प्रभावित किया था उसी ने अंत में उससे मुझे दूर भी किया। बरेली मुझे भी छोड़ना पड़ा। पांच साल बाद। दिल्ली ही नियति थी। कुमार बरेली में ही रह गया। वह एक अत्यंत प्रतिभाशाली मूर्तिशिल्पी था। एक बार दिल्ली में एक अच्छी नौकरी का उसे मौका भी मिला। लेकिन उसने अपने शहर नहीं छोड़ा। वह आज भी वहीं एक सुरक्षित जीवन बिता रहा है। बागबानी के अपने शौक को उसने एक आध्यात्मिक आनंद में बदल दिया है। कुछ साल बाद उसने दोबारा घर बसा लिया था। इस बार घरेलू पत्नी चुनी थी। मूर्तिशिल्पी के रूप में उसने काम लगभग बंद कर दिया। कॉलेज में पढ़ाता था। वहीं एक सुरक्षित पर लगभग गुमनाम जिंदगी ने उसकी रचनात्मकता पर कब्जा कर लिया। मूर्तिशिल्पी के रूप में उसकी अंतिम कलाकृति बीस साल पहले सामने आई थी। बरेली के एक पुराने स्वतंत्रता सेनानी के निधन के बाद उनके नाम से एक सड़क बनी और उनकी एक बुत बीचोबीच चौराहे पर स्थापित किया गया। नगरवासियों के बहुत जोर देने पर कुमार ने यह मूर्ति बना दी थी। आज भी वह वहीं पर है। साल में एकाध बार उसकी सफाई हो जाती है। तब उस मूर्ति को गेंदे के फूलों का हार पहनाया जाता है। कुमार की प्रतिभा की यही करुण कहानी है।

लेकिन अनुराधा कहां है? वह तो अपनी प्रतिभा के शिखर पर है। अब तो दिल्ली में भी बहुत कम ही नजर आती है। मुंबई में टेलीविजन के धारावाहिकों की वह अत्यंत सफल अभिनेत्री है। पर दो दशकों तक वह दिल्ली के रंगमंच पर छाई रही। रानीखेत कांड के बाद मैंने उसे दस साल बाद देखा था। ‘लुक बैक इन एंगर’ देखने गया था। उसमें अनुराधा की भी भूमिका है यह मुझे नहीं पता था। एक दोस्त के पास दो टिकट थे। मुझे भी आग्रह करके ले गया। स्टेज पर अनुराधा को देखकर मैं चकित रह गया। उसके अभिनय में जबर्दस्त ‘पैशन’ था और उतनी ही परेशानी भी। एक बार मन हुआ कि उसे बधाई दूं। पर हिम्मत नहीं हुई। शायद वह मुझसे बात ही न करे।

दिल्ली में अनुराधा के संघर्ष की कहानी से थोड़ा-बहुत परिचय था। यहां के सांस्कृतिक विश्व में धीरे-धीरे मेरी भी एक पहचान बनने लगी। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक का मैं नियमित लेखक था। कई विषयों पर लिखता था- संस्कृति पर भी और विचार पर भी। राजधानी के ‘कॉकटेल सर्किट’ की सूची में मेरा नाम भी शामिल हो गया। मैंने शुरुआत अपेक्षाकृत गंभीर लेखन से की थी। लेकिन धीरे-धीरे अखबारों में विचार से ज्यादा सांस्कृतिक अचार महत्वपूर्ण हो गया। जिस अखबार के संपादकीय पृष्ठ में कभी रेजी देब्रे, मिलोवान जिलास और गोदार के बारे में छपता था उस पर अब जूही चावला जैसी अभिनेत्रियों के लंबे इंटरव्यू छपते थे। जिस अभिनेत्री का इंटरव्यू संपादकीय पृष्ठ पर छपता था उसकी लगभग वही बातें मुखपृष्ठ पर  ‘एंकर’ में छपती थीं। कुछ दिन बाद वही बातें एक भड़कीली और उत्तेजक तस्वीर के साथ कलर सप्लीमेंट के अंतिम पृष्ठ पर छपती थीं। इतना ही जैसे काफी नहीं था। संडे मैगजीन में वही इंटरव्यू थोड़ा कम चटपटी तस्वीर के साथ छपता था। अखबार टेलीविजन से मुकाबला करते-करते निरंतर निरर्थक और खराब होते जा रहे थे।

कलर सप्लीमेंट में मेरा सांस्कृतिक गपशप का कालम मेरी तस्वीर के साथ छपता था। पार्टियों में मेरी मांग थी। एक शाम के कई निमंत्रण होते थे। कभी किसी अंबैसडर के यहां, कभी किसी पांच सितारा होटल के मालिक के यहां और कभी फैशन डिजाइनर के यहां मैं अपनी शामें बिताता था। दो दशकों में इस दुनिया को मैंने अभूतपूर्व तेजी से बदलते हुए देखा है। एक नाम आज अखबारों के ‘हाई सोसायटी’ कालमों में छाया हुआ है। हर पार्टी में किसी सुंदरी के साथ वह शैंपेन का गिलास लिए खड़ा होता है। कुछ साल पहले वह एक साधारण क्लर्क था। पर आज वह अपने को नये मिलेलियम की सबसे बड़ी प्रतिभा समझता है। इस तरह के किसी एवार्ड का भी उसने जुगाड़ कर लिया है।

अनुराधा से जब दोबारा एक लंबे अंतराल के बाद सचमुच आमने सामने मेैं मिला, तो ‘वैन्यू’ एक अंबैसडर के यहां पार्टी थी। एक पार्टीबाज महिला ने मेरा परिचय कराने की कोशिश की। हलो, हलो हुई। ‘‘इन्हें कौन नहीं जानता।’’ मैंने कहा।

‘‘अब तो आपको भी सब लोग जानते हैं।’’ अनुराधा ने अपने गिलास में से ड्रिंक का एक सिप लेते हुए कहा।

मुझे थोड़ा धक्का लगा। मैं उम्मीद करता था कि अनुराधा कहेगी, ‘‘अबे, घोंचू, तू नहीं बदला।’’

अनुराधा ने मुझसे कुछ नहीं कहा। पर वह बहुत आक्रामक भी नहीं दीख रही थी। पार्टी जब अंतिम क्षणों में थी, तो बाहर में टैक्सी खोज रहा था। अनुराधा ने मुझे अपनी कार में लिफ्ट दी। तीन पैग पीने के बाद भी वह आराम से गाड़ी चला रही थी। लेकिन अनुराधा मुझसे अपेक्षाकृत गंभीरता और आश्चर्यजनक जिम्मेदारी के साथ बात कर रही थी। कुमार के बारे में हम लोगों ने कोई बात नहीं की। जब उसने मुझे मेरे घर के सामने छोड़ा, तो मेरा मन यह जरूर हुआ कि उससे पूछूं, ‘‘इलायची नहीं दोगी?’’

उसने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था। रात को जब मुझे नींद नहीं आ रही थी, तो मैंने उसका फोन नंबर मिलाया। काफी देर उससे बातें हुईं। पर सब कुछ औपचारिक था। बल्कि वह सुन कर तो मेरा नशा ही उड़ गया कि मैं उस पर कोई अच्छा सा आर्टिकल लिख दूं।

मैं एक ‘विद्रोही’ अनुराधा से बतियाना चाह रहा था। किसी तरह से मैंने उसे प्रेरित भी किया, ‘‘अनुराधा, तुमने मुझे आज घोंचू भी नहीं कहा।’’

अनुराधा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने थोड़ा साहस करके कहा, ‘‘अनुराधा, तुमने मुझे माफ कर दिया?’’

‘‘किस बात के लिए?’’

‘‘मैंने शायद तुम्हें गलत समझा था। अब लगता है कि तुम कुमार के साथ बरेली रह जातीं, तो कुछ बड़ा न कर पातीं। एक रिटायर्ड किस्म के जीवन में गमले में भिंडी उगाने की कोशिश कर रही होतीं या कैक्टस। तुम एक अच्छी बीवी तो बन जाती लेकिन तुम्हारे भीतर का कलाकार मर गया होाता।’’

‘‘देखो, नरेश, मुझे तुमसे मिल कर अच्छा लगा। तुमने ‘आप’ छोड़ दिया और मुझसे ‘तुम’ करके बात की यह भी अच्छी बात है। मैं तुम्हारे लिखे को बराबर ‘फॉलो’ करती रही हूं। मुझे बस तुमसे एक अच्छा राइट अप चाहिए। शायद तुम मेरे बारे में सबसे अच्छी तरह से लिख सकते हो। वैसे लिखा तो मेरे बारे में बहुत गया है।’’

‘‘अनुराधा, मैं तुम्हारी जीवनी लिख सकता हूं। तुम्हारे रचनात्मक संघर्ष की पूरी कहानी सामने आनी चाहिए।’’

‘‘कौन साला चाहता है उसकी पूरी कहानी सामने आये।’’ अनुराधा के स्वर में थोड़ी पुरानी झलक मैंने पहचानी।

‘‘जीवनी ईमानदारी से लिखी जानी चाहिए। तथ्यों का वर्णन निर्मम होकर किया जाना चाहिए। अनुराधा, तुम तैयार हो जाओ, तो बेस्टसैलर लिखा जा सकता है।’’

‘‘एक शर्त है।’’

‘‘क्या!’’

‘‘मेरी जीवनी में कुमार का कोई जिक्र नहीं होगा। तुम उस चैप्टर को तो गायब ही कर दो। मेेरे बचपन के बारे में लिखो, मेरी अभिनय यात्रा पर लिखो।’’

‘‘देखो, अनुराधा, कुमार का भी तुम्हारे जीवन में महत्वपूर्ण रोल है?’’

‘‘कौन सा कुमार? कैसा कुमार? साले, तुम घोंचू ही रहे। मैं एक अभिनेत्री हूं। मैं रोल करती हूं। पर मेरे जीवन में किसी का रोल नहीं है।’’

मैंने फोन रख दिया। समझ में नहीं आ रहा था कि ‘घोंचू’ सुनकर धन्य होना चाहिए या नहीं। अंत में पाठकों को यही संक्षिप्त सूचना देनी है कि एक बड़े प्रकाशक ने मेरी लिखी अनुराधा की जीवनी छापी है। प्रधानमंत्री को पहली प्रति भेंट की गई। यह किताब खूब बिकती है। कई समीक्षाएं छप चुकी हैं। कुमार का इसमें कोई जिक्र नहीं है। आखिर मैं तो कोई अभिनेता नहीं हूं। मेरे जीवन में अनुराधा का रोल है। मैंने यह मान लिया है कि उसमें कुमार का कोई रोल नहीं था। इतिहास से गायब हो चुके लोगों की कोई भूमिकाएं नहीं होतीं। वे अपने आध्यात्मिक एकांत में सिर्फ गमले में भिंडी उगा रहे होते हैं।
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ