सतीश जमाली - मधुरेश | Madhuresh on Satish Jamali


Senior hindi critic Madhuresh writes about author Satish Jamali in Vartman Sahity's Novenber 2015 issue

सतीश जमाली : जर्जर डोंगी और बूढ़ा मछेरा

मधुरेश

संस्मरण




यह वही दौर था जब अपनी-अपनी दिशाएं तय करके हम उडऩे को अपने पर तौल रहे थे। कहानी की आलोचना में मेरी कुछ पहचान बन चुकी थी। शिवदान सिंह चौहान के दूसरे दौर वाली 'आलोचना’ पाँच खण्डों वाले स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी साहित्य विशेषांक सहित 'विकल्प’, 'कल्पना’, 'राष्ट्रवाणी’, 'आधार’ आदि के विशेषांकों में मेरे लेख आ चुके थे। सतीश जमाली तब 'कहानी’ में श्रीपत राय के सहयोगी बन कर आ चुके थे। शायद वे सन् 1970 की शुरुआत के दिन थे। लि़फा़फे में 'कहानी’ के लेटर हैड वाले कागज़ पर लिखा ढाई पंक्तियों वाला श्रीपत राय का पत्र मुझे मिला- 'कहानी’ में लिखने के अनुरोध के साथ। उसके विशेषांकों वाली पहले की धमक तो नहीं बची थी लेकिन तब भी वर्ष भर में वह दो विशेषांक निकालती थी। एक नववर्षांक के तौर पर जनवरी में दूसरा ग्रीष्मांक के रूप में जून में। श्रीपत राय का जब पत्र मिला तो मैंने सोचा कि लेख उन्हें इस तरह भिजवाया जाय कि वह जून वाले विशेषांक में सम्मिलित किया जा सके। इसी आशय की सूचना मैंने उन्हें दे ही दी। 'विशेषांक’ का लालच इसलिए भी था कि कहानी पर अब तक मेरे ये लेख उल्लिखित पत्रिकाओं के विशेषांकों में ही छपे थे। 'कल्पना’ वाला लेख शिवप्रसाद सिंह के अतिथि संपादन में दो खण्डों में प्रकाशित नवलेखन अंक में आया था। 'राष्ट्रवादी’ वाला लेख सनत कुमार के संपादन में पाँच खण्डों वाले कहानी विशेषांक में आया था।

'विकल्प’ का तो था ही कथा-साहित्य विशेषांक जिसे शैलेश मटियानी ने हर लेखक पर अपनी लंबी टिप्पणी के साथ बहुत परिश्रमपूर्वक संपादित किया था। जब एक महीने तक उस लेख के बारे में कोई सूचना नहीं मिली, मैंने श्रीपत राय को एक कार्ड उसके बारे में जानकारी के लिए लिखा। मुझे आज भी याद है, उसका उत्तर मुझे 'कहानी’ के सह-संपादक के रूप में सतीश जमाली से मिला था। उन्होंने सूचना दी थी कि मेरा लेख वहां पहुँच गया है। श्रीपत राय आजकल दिल्ली गए हैं और वे लेख अपने साथ ले गए हैं। उसके बारे में कोई निश्चित सूचना उनके आने पर ही मिल सकने की बात भी उन्होंने लिखी थी। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में खासा विलंब हुआ था। वह लेख जून वाले उस प्रस्तावित विशेषांक में न छप कर अगले सामान्य अंक में छपा था। तब तक मैं बदायूं पहुँच चुका था। 'कहानी’ का वह जुलाई अंक मुझे वहीं मिला। पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि रैपर पर मेरा नाम-पता उन्हीं का लिखा था। लेख की सूचना वाला जमाली का वह पत्र वस्तुत: उस एक लंबे सिलसिले की शुरुआत थी जो किसी न किसी रूप में पैंतालीस साल बाद आज भी बना है।

हमारे संबंधों के धागे विभिन्न रूपों में गुंथकर एक विविधवर्णी पैटर्न और रूपाकार बनाते हैं। 'कहानी’ के सहसंपादक के रूप में मेरे और श्रीपत राय के बीच सन्देशवाहक बाद में अपनी पत्रिका 'नई कहानी’ के संपादक, लेखक-आलोचक के बीच के संबंध और शायद सबसे अधिक एक लेखक-प्रकाशक के बीच के संबंध। लेकिन इन सबसे अधिक वरियता हमने मित्रता के संबंधों को ही दी है। विश्वरंजन द्वारा संपादित पुस्तक 'प्रकाश की बहती नदी’ के लिए मुझ पर 'मित्र मधुरेश’ शीर्षक संस्मरण द्वारा उन्होंने इसे पुष्ट और प्रमाणित भी किया है। समय और उम्र के साथ हमारे बीच संचार एवं संप्रेषण के माध्यम बदलते रहे हैं। एक वह दौर था जब हम सिर्फ पत्राचार से बंधे थे- नियमित और कामकाजी होने के बावजूद आत्मीयता की ऊष्मा से भरपूर। अब फोन पर लंबी-लंबी बात होती है और मिल न पाने की पीड़ा एक टीस बनकर रह-रहकर उभरती और कसकती है। प्रकाशन के दौर में बे-बात बात में रजिस्टर्ड या कूरियर से भिजवाई चिठ्ठियाँ लिखते थे। इस आदत के लिए उन्हें छेड़ते हुए मैं कहता भी था : क्यों इतना पैसा पोस्टेज में बर्बाद करते हो! इसे मेरी रायल्टी में जोड़ो तो मेरा भी कुछ भला होगा।

अप्रैल सन् 1979 में जब मैंने सतीश जमाली को अपने इलाहाबाद जाने की सूचना दी, इस प्रसंग में यह खुलासा भी हुआ कि यह मेरी पहली इलाहाबाद यात्रा है। तब और अनेक मित्रों की तरह उन्हें भी इस पर विस्मय हुआ था। मुझे लखनऊ में प्रकाशवती जी से मिलते हुए इलाहाबाद जाना था। लोकभारती, इलाहाबाद से यशपाल पर जिस आलोचनात्मक चयन की बात हुई थी, उसकी पांडुलिपि मुझे प्रकाशक को देनी थी। वैसे यह काम बखूबी डाक से भी हो सकता था। मेरी इच्छा थी कि लखनऊ और इलाहाबाद के जिन लेखकों के आलेख पुस्तक में हैं उनसे निजी तौर पर भी मिल कर बात करूं। उनके आगे यह प्रस्ताव भी रखूँ कि अपने पूर्व लिखित आलेख में यदि वे कुछ जोडऩा-घटाना या परिवर्तन-संशोधन करना चाहते हैं तो वैसा करें। जिन कुछ लोगों ने मेरे अनुरोध पर भी लिखा नहीं था, एक बार उनसे फिर उसे दोहराना चाहता था। तय यह हुआ था कि सुबह लखनऊ से चलकर दोपहर में इलाहाबाद पहुंचकर सीधे जमाली के यहाँ पहुँचूँगा। आगे के काम की योजना फिर उसके बाद उनसे बात करके ही बनाई जायेगी। कम से कम दो दिन मेरा वहां रुकने का विचार था।

रिक्शा जब जमाली के मकान के सामने रुका, एक महिला सात-आठ साल के एक बच्चे के साथ रिक्शे पर बैठकर कहीं जाने को तैयार थी। उसके साथ के बच्चे से कोई दो वर्ष बड़ा एक बच्चा दरवाजे के आगे उन्हें विदा करने को खड़ा था। पूछने पर पता चला कि वे जमाली की ही पत्नी हैं। वे लोग अस्पताल जा रहे थे जहां अचानक पाइल्स के आपरेशन के लिए जमाली को भरती कराना पड़ा था। उन लोगों को मेरी प्रतीक्षा थी। जमाली को अब दो-तीन दिन अस्पताल में ही रहना होगा। चाहूँ तो मैं भी उनके साथ अस्पताल चल सकता हूँ। दरवाजे पर खड़े बच्चे को अपनी अटैची पकड़ाकर मैं उसी रिक्शे पर बैठ उनके साथ अस्पताल चला गया था।

सरकारी अस्पताल के लंबे से गलियारे को पार कर जब हम लोग वार्ड में पहुंचे, जमाली अकेले बिस्तर पर लेटे थे। पत्नी और बच्चे के साथ मुझे देखकर झटके से उठाकर उन्होंने मुझे कौरिया-सा लिया। फिर वे हंसकर बोले, 'मधुरेश जी कैसा संयोग है कि आप इलाहाबाद में हैं और मैं अस्पताल में.....’ फिर उन्होंने बेड के पास ही पड़ी एक कुर्सी पर मुझे बिठा लिया। पत्नी वहीं पड़े एक स्टूल पर बैठ गई थी। फिर वहीं बैठे-बैठे देर तक हम लोग इस यात्रा के अनुभव और उद्देश्य पर बात करते रहे थे।

थोड़ी देर बाद ही मुझे ढूँढते हुए हृदयेश के भतीजे राजेन्द्र मेहरोत्रा वहां पहुँच गए। वे कहीं किसी बैंक में थे और मेरे कार्यक्रम की सूचना उन्हें हृदयेश के पत्र से मिल चुकी थी, जो कुछ देर पहले ही उन्हें मिला था। फिर उनके साथ बाहर निकलकर कहीं पास में ही कुछ खा-पीकर मैंने चाय पी और फिर वापस अस्पताल में आ गया। कुर्सी एक ही होने से राजेन्द्र को उस पर बिठाकर मैं बेड पर जमाली के साथ ही बैठ गया- दिन भर की थकान के कारण काफी कुछ उठंगा होकर, तकिया दबाए। शायद शनिवार के कारण राजेन्द्र का बैंक उस दिन आधे दिन का ही था। मरीज से मिलने का समय शाम पाँच से सात बजे तक था। जमाली का कहना था कि उस बीच कुछ मित्र मिलने आयेंगे। उनसे मिलकर घर से अटैची उठाते हुए मैं राजेन्द्र के साथ ही चला जाऊं। आपरेशन अगले दिन होना था। आगे का कार्यक्रम मैं राजेन्द्र के साथ ही बना लूं। अगले दिन रविवार होने से राजेन्द्र को इसमें सुविधा भी थी। राजेन्द्र के साथ दो दिन इलाहाबाद रुककर जब मैं लौटा जमाली अस्पताल में ही थे। अस्पताल में रोज देर तक उनके साथ रहना हुआ और आपरेशन से पहले उनसे खूब बातें हुईं- अधिकतर अपने लिखने-पढऩे और बदायूं तथा इलाहाबाद के अपने-अपने परिवेश और स्थितियों को लेकर। इलाहाबाद में या तो मैं राजेन्द्र के साथ अनेक लेखकों से मिला या फिर शैलेश मटियानी के साथ, जिनके घर मेरे साथ जाकर राजेन्द्र ने ही सोमवार को अपने बैंक जाते समय सारा कुछ तय कर दिया था। हमारे मित्र 'लेखक’ के संपादक विद्याधर शुक्ल को शायद उस दिन जमाली ने ही राजेन्द्र के कमरे पर भिजवाया था। फिर वे ही मुझे लेकर स्टेशन गए थे क्योंकि राजेन्द्र को सीधे बैंक से वहां पहुँचना था। विद्याधर जी मुझे स्टेशन ले जायेंगे, यह शायद जमाली ने ही तय कर दिया था। हो सकता है इसमें 'राजेन्द्र’ की भी कुछ भूमिका रही हो। कुल मिला कर अचानक जमाली के योजना से बाहर हो जाने पर भी, अपने उद्देश्य की दृष्टि से वह एक सफल ट्रिप थी।

फिर अरसे तक मेरा इलाहाबाद जाना नहीं हुआ। घर से बाहर निकलने पर जैसे मैं घबराता हूँ जमाली का स्वभाव भी कुछ वैसा ही होने से कभी-कभार गोष्ठियों-सम्मेलनों आदि में मिलना भी नहीं हुआ। इलाहाबाद में 'कहानी’ और सरस्वती प्रेस या तो बंद हो चुके थे या फिर प्रेस और प्रकाशन भले ही जैसे-तैसे घिसट रहा हो, 'कहानी’ तो बंद हो ही चुकी थी। श्रीपत राय भी इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली आ गए थे। जैसा सुना गया, अपनी संपत्ति का बंटवारा अपनी संतानों में करके वे दिल्ली में साकेत के एक किराए के फ्लैट में रहते थे। दिल्ली जाने पर एक बार नासिरा शर्मा और मैनेजर पाण्डेय के साथ मैं उनसे उसी फ्लैट में मिला था और लंबी गप-शप में पूरी एक शाम बिताई थी। उसके बाद एक पत्र में उन्होंने अफसोस जताते हुए लिखा था कि मेरा उनसे संपर्क तब हुआ जब उनका प्रकाशन एक माह से बंद हो गया था। जमाली से इस बीच जब तब पत्राचार बना था। इलाहाबाद आते-जाते मित्रों से उनके समाचार भी मिल जाते थे। वीरेन डंगवाल तब कालेज से लंबी छुट्टी लेकर इलाहाबाद में ही अपना शोध कार्य कर रहे थे। वे नीलाभ और ज्ञानरंजन आदि के सघन संपर्क में थे। बदायूं में कालेज में अर्थशास्त्र विभाग के डा. हरिश्चंद्र गुरनानी इलाहाबाद के ही थे, लगभग मेरी ही उम्र के ही। वे जमाली से भी परिचित थे। चीन में पहुंचकर उनकी जासूसी आदि के हैरत अंगेज किस्से वे सुनाते थे। गर्मियों की छुट्टियों में वे अधिकतर इलाहाबाद में ही रहते थे क्योंकि उनके माता-पिता वहीं थे। जमाली से मेरे परिचय के सूत्र निकालने पर वे लौटकर प्राय: ही जमाली से मिलने और मेरा जिक्र होने की चर्चा करते थे। पत्राचार में जमाली से इस तरह की बात कभी नहीं हुई, लेकिन दूर से ही सुने-सुनाये के आधार पर भी यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि यह जमाली के लिए कठिन संघर्ष का दौर था। इस बीच उन्होंने प्रकाशन का काम भी शुरू किया और 'नई कहानी’ नामक अपनी एक अनियतकालीन पत्रिका भी निकाली। प्रकाशक के रूप में उनकी अपनी मजबूरियां थीं, लेकिन उनके संपादकीय विवेक और अंतर्दृष्टि का अनुमान 'नई कहानी’ के प्रकाशित अंकों को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। 'कहानी’ में वे भैरव प्रसाद गुप्त के बाद आये थे। 'कहानी’ और 'नई कहानियां’ के बाद भैरव प्रसाद गुप्त ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो छिट-पुट काम किया उसे उनके 'सभारम्भ’ के दो अंकों से ही समझा जा सकता है। गहरे संपादकीय विवेक और समझ के बावजूद आर्थिक मोर्चे पर जमाली भी भैरव प्रसाद गुप्त वाली ही नियति के शिकार थे। उनका यह गड्ढा निरंतर गहरा होता गया और लगभग पूरे जीवन वे उस लंबी छलांग की तैयारी करते रहे जो उन्हें उस गड्ढे के पार कर सके।

राजेश की इच्छा से उपजा दबाव था कि पैसे की व्यवस्था करके भी यदि उसका शोध-प्रबंध प्रकाशित हो सके तो मैं उसकी सहायता करूं। उसका यह शोध-प्रबंध 'हिंदी उपन्यास और बौद्ध धर्म’ शीर्षक से वस्तुत: मेरी देख-रेख में ही लिखा गया था, भले ही उसके औपचारिक निदेशक मेरे मित्र चंदौसी के डा. पुत्तूलाल शर्मा रहे हों। ऐसी स्थितियों में ले-देकर मेरा ध्यान सतीश जमाली की ओर ही गया। अपने प्रकाशन से उन्होंने एक-दो ऐसे शोध-प्रबंध के अलावा ईश्वरशरण सिंघल का एक उपन्यास भी छापा था। राजेश का शोध-प्रबंध मैंने अवलोकनार्थ उन्हें भिजवा दिया। उनका सुझाव था कि उसे पर्याप्त संपादित करके, पुस्तक के रूप में डेढ़-दो सौ पृष्ठों की सीमा में समेटकर छापा जा सकता है। पर्याप्त परिश्रमपूर्वक लाल स्याही से उसपर निशान लगाकर उन्होंने स्वयं यह काम किया था। उनका कहना था कि राजेश के साथ मैं कभी उधर जाने का कार्यक्रम बना लूँ तो पूरी बात होने में आसानी होगी।

वे उसे ग्यारह हजार रुपये लेकर छापने के लिए तैयार थे। उस राशि की किताबें वे मुद्रित मूल्य पर चालीस प्रतिशत कमीशन काटकर लेखक को देंगे। उनका कहना था कि रुपये मिलने के बाद किताब छ: महीने के अन्दर निकल जायेगी।

वह शायद सन् 1994 का साल था। जुलाई में कालेज का नया सत्र शुरू हो गया था। अचानक मुझे लखनऊ से किसी संस्था का एक आमंत्रण मिला कि वे लोग यशपाल और साहिर लुधियानवी पर एक दो दिवसीय कार्यक्रम कर रहे हैं। फिल्म अभिनेता सुनील दत्त उसका उद्घाटन करेंगे और यशपाल संबंधी गोष्ठी की अध्यक्षता श्रीलाल शुक्ल करेंगे। हिन्दी-उर्दू के अनेक लेखक उसमें होंगे। प्रकाशवती जी उन दिनों कनाडा में थीं। मैंने यह सोचकर उस कार्यक्रम के लिए अपनी स्वीकृति दे दी कि एक दिन लखनऊ में रहकर दोपहर को इलाहाबाद निकल जायेंगे। रुपये की तैयारी के साथ राजेश (शर्मा) मेरे साथ था। एक तरह से यह सुझाव और उसके लिए मूल दबाव उसी का था।

जमाली तब सोहबतियाबाग में रहते थे- राजा डिंग वास की कोठी के पास। बस से उतरकर उनके यहाँ पहुँचने तक रात हो गयी थी। अपने पहुँचने की सूचना मैं उन्हें दे चुका था। यह आग्रह भी उन्हीं का था कि हम लोग सीधे उन्हीं के यहाँ पहुँचें। चाय पीकर फिर देर तक हम लोग योजना पर बात करते रहे। राजेश के शोध-प्रबंध की पांडुलिपि भी वे उठाकर लाए। लौट-पौट कर देखने से ही यह सा़फ हो जाता था कि उस पर उन्होंने खासा परिश्रम किया है। उस परिश्रम में उनका संपादकीय विवेक भी शामिल था।

अपने प्रकाशन की किताबें वे मुझे भिजवाते रहते थे। अपनी पुस्तकें भी अधिकतर उन्होंने स्वयं छापीं थीं। 'नई कहानी’ नामक जो अनियतकालीन पत्रिका वे निकालते थे उसमें सामान्यत: हर अंक में वे एक संपूर्ण उपन्यास देते थे। वे ऐसी व्यवस्था करते थे कि उपन्यास के उन मुद्रित फार्मों को अलग से निकलवाकर पुस्तक की एक हजार प्रतियां तैयार करवा लें। राजेश ने रुपये उन्हें दे दिए और तय हो गया कि पुस्तक जल्दी ही आ जायेगी। अपनी प्रकाशित कुछ नई पुस्तकें भी उन्होंने दिखाईं। अपने अलावा वे अन्य प्रकाशकों की पुस्तकों की सप्लाई का काम भी करते थे। एक कमरे में ऐसी ही पुस्तकों का चट्टा लगा था। एक-दो काम की किताबें हमने उनसे लीं भी।

सुबह उठाकर संगम जाने की बात रात में तय करके ही सोये थे। रास्ता बताने और सारी जरूरी हिदायतें देने के बावजूद जमाली स्वयं हमारे साथ नहीं गए- जाहिरा तौर पर अपने खराब स्वास्थ्य के कारण कहीं बाहर निकलने के तर्क से। पीछे के रास्ते से संगम उनके घर से बहुत दूर नहीं था। उन्होंने कहा, 'नहाने-घूमने के बाद आप लोग डेढ़-दो घंटे में लौट सकते हैं। वैसे वहां कचौड़ी और जलेबी का नाश्ता खूब चलता है...लोगों को खाते देख और नहाने के बाद लगी भूख की वजह से शायद आप भी उसे खाना चाहें...’ फिर हंसते हुए जोड़ा, 'लेकिन बस थोड़ा ही करें, नाश्ता हम लोग यहीं करेंगे.....आलू के परांठे बनवा रहे हैं...’ फिर वैसे ही हंसते हुए वे हमें बाहर गली के मोड़ तक छोडऩे आए- हाथ के इशारे से एक बार फिर रास्ता समझाते हुए।

जमाली के हिसाब से थोड़ा-कुछ लेकर फिर नाश्ता हमने घर लौट कर ही किया था। खूब सारे आलू वाले भरे परांठे और मीठा दही। उस लंबी बातचीत में ही जमाली की ओर से सुझाव आया कि मैं कहानी पर उन्हें एक किताब दूं-कोई दो-ढाई सौ पृष्ठों की। हिन्दी कहानी के उद्भव से शुरू करते हुए सारे आन्दोलनों :प्रवृत्तियों एवं प्रमुख कथा-धाराओं के लेखकों को समेटते हुए अपने समय की कहानी तक। उन्होंने कहा, 'कहानी पर आपने बहुत लिखा है....अरसे से लिख रहे हैं...बेशक आप उस सामग्री का उपयोग करें... लेकिन इस किताब की योजना समग्रता को ध्यान में रखकर नए सिरे से बनाएं। फिर बात को आगे बढ़ाते हुए और उसे व्यावहारिक रूप दते हुए वे बोले, 'मैं एक हजार प्रतियों का संस्करण छापूँगा, जो वास्तव में ग्यारह सौ का होगा। तीन सौ सजिल्द और सात सौ पेपरबैक। कोशिश रहेगी कि किताब जल्दी आए और पाठकों तक पहुंचे। आपको दोनों संस्करणों पर : हार्ड बाउंड और पेपर बैक पर : दस प्रतिशत रायल्टी मिलेगी। एक हजार रूपया अग्रिम तुरंत भिजवा दिया जाएगा।...सफल होने की स्थिति में इस सिलसिले को बढाया भी जा सकेगा...यानी इसी शृंखला में और विधाओं पर भी किताबें छापी जा सकेंगी।’

मेरी हिचक देखकर वे ही आगे बोले, 'आप अपने हिसाब से लिखने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र होंगे। यह छात्रों के लिए लिखी गयी किताब नहीं होगी.... लेकिन अगर छात्रों को भी उसका लाभ मिले तो आपको दिक्कत क्या है? उन्हें एक जगह मौलिक और प्रामाणिक सामग्री मिले वह भी समूचे सामाजिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में, एक सुनिश्चित विचार-दृष्टि के साथ यह तो अच्छी ही बात है...’

पिछले प्राय: सात वर्ष से मेरी कोई किताब नहीं आई थी। मेरी अंतिम पुस्तक साहित्य अकादमी से रांगेय राघव पर आयी मोनोग्राफ थी जो सन् 1987 में छपी थी। तत्काल हामी न भरकर मैंने उन्हें घर जाकर थोड़ा समय लेकर सोचने-विचारने के बाद कुछ निर्णय लेने की बात कही। दोपहर का भोजन कर फिर हम लोग बस से ही लखनऊ लौट आये थे। चलने से पहले जमाली ने सत्य प्रकाश मिश्र का जिक्र भी किया था जो उनके घर के सामने ही रहते थे। फिर थोड़ी देर के लिए हम लोग वहां भी गए थे।

बदायूं लौटकर भी इस मुद्दे पर जमाली से काफी पत्राचार हुआ। कुछ विश्वविद्यालयों और प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम देखकर उन्होंने अपने सुझाव भी दिए। लेकिन छोड़ सब कुछ मुझ पर ही दिया। उनका जोर सिर्फ इस पर था कि किताब की परिकल्पना समग्रता में हो और वह सारी की सारी सिरे से लिखी जाए। मेरी सारी शंकाओं को उन्होंने एक-एक करके निरस्त कर दिया। टाइप-वाइप का कोई झंझट नहीं था। फुलस्कैप कागज़ पर हाथ से लिखाकर ही उसे भिजवा दूं, बस वह पढऩे में आ सके। अंतत: एक प्रस्तावित रूपरेखा मैंने उन्हें भिजवाई ताकि आगे कोई झंझट न हो। उसपर उनकी स्वीकृति के साथ एक हजार रूपये का ड्राफ्ट भी नत्थी था—उनके कहे अनुसार किताब की अग्रिम रायल्टी के तौर पर।

तीन-चार साल की अवधि में जमाली ने मुझसे चार किताबें लिखवाईं और 'मैला आँचल’ पर एक किताब संपादित करवाई। कहानी वाली किताब की रूपरेखा भिजवाकर मैने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि काम इसके हिसाब से होना है। मैं नहीं चाहता था कि बाद में कोई अड़चन पड़े और काम बीच में रुक जाये या हमारे संबंध खराब हों। उन्होंने कई जगह सिलेबस देखकर कुछ सुझाव भी दिए। यह सुझाव भी मूलत: उन्हीं का था, जिसके सूत्र कहीं न कहीं नई कहानी संबंधी मेरे मूल्यांकन में ही निहित थे, कि नई कहानी की जो एक समाज सापेक्ष धारा है, भीष्म साहनी, मार्कंडेय, शेखर जोशी आदि की, उसे जनवादी कहानियों का प्रस्थान बिन्दु माना जाना चाहिए। उनका सीधा सवाल : नहीं तो क्या आप जनवादी कहानी में लिखेंगे क्या?’ लेकिन यह उनका हस्तक्षेप नहीं सुझाव था। एक संपादक और मेरे समकालीन लेखक के रूप में वे मेरे अधिकांश लेखन से परिचित थे। 'आलोचना’ में 'पुरानी पीढ़ी का योगदान’ से लेकर 'विकल्प’ और 'कल्पना’ में नई कहानी से लेकर सातवें दशक की कहानी तक मेरे मूल्यांकन के प्रसंग में मेरी स्थापनाओं और इस कालखंड में सक्रिय पीढिय़ों और विभिन्न आन्दोलनों को लेकर मेरी स्थापनाओं की जानकारी उन्हें थी। ऐसे पढ़े-लिखे और समझदार प्रकाशक हिन्दी में कहाँ हैं?

कहानी वाली किताब के शुरू के तीन अध्याय लिखकर मैंने उन्हें भिजवा दी। मैं फिर आश्वस्त हो जाना चाहता था कि मैं जो काम कर रहा हूँ वह ठीक और प्रकाशक के रूप में उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप है। भिजवाई गई सामग्री में सिर्फ इसका ध्यान रखा जाता था कि वह सुपाठ्य हो। उसकी एक फोटो प्रतिलिपि मैं अपने पास भी रख लेता था। एक सप्ताह में ही मुझे उनका पत्र मिला—'सामग्री प्रेस में दे दी है।’ आगे इसी तरह दो-दो, तीन-तीन अध्याय मैं उन्हें भिजवाता रहता कि मुद्रण का काम चलता रहे। यह क्रम शायद नवंबर-दिसंबर 95 में शुरू हुआ था और फरवरी 96 तक सारी पांडुलिपि मैंने उन्हें भिजवा दी। जैसे टुकड़ों में मैंने उन्हें पांडुलिपि भिजवाई उसी तरह दो-तीन टुकड़ों में उन्होंने 'हिंदी कहानी का विकास’ के प्रूफ मुझे भिजवाये। सन 96 का नया सत्र शुरू होते ही पुस्तक की हार्ड बाउंड और पेपर बैक लेखकीय प्रतियां मुझे मिल गईं। हमारे बीच कुछ तय नहीं हुआ था। मैंने उनसे दस पेपर बैक और दस हार्ड बाउंड प्रतियां लीं। मुझे बताये बिना ही प्राय: सभी लेखकों को उसकी प्रति उन्होंने भिजवाई। इसकी जानकारी मुझे उन लेखकों की आई प्रतिक्रियाओं से मिली।

पत्रिकाओं में समीक्षार्थ उसे भिजवाने पर उनका उतना जोर नहीं था। मेरी तरह वे भी चाहते थे कि किताब व्यापक रूप में पढ़ी जाए। उनके मन में शायद आगे भी इस शृंखला को चलाने और बढ़ाने का विचार था। इन प्रतिक्रियाओं का लाभ उस काम के लिए असंदिग्ध था।

पैसा लेकर भी राजेश शर्मा का शोध प्रबंध किन्हीं कारणों से जमाली छाप न सके। काफी समय निकल जाने पर मैंने ही उन्हें इस प्रसंग में एक चिठ्ठी लिखी। पैसा मेरे मा़र्फत और मेरी उपस्थिति में ही गया था। पर्याप्त विलंब से उन्होंने मुझे राजेश को लेकर इलाहाबाद आने को लिखा। मैं तो नहीं गया, राजेश को ही मैंने भेज दिया। दो दिन बाद लौट कर राजेश ने मुझे बताया कि जमाली ने उसकी पांडुलिपि के साथ रुपये लौटा दिए हैं। राजेश से उन्होंने ठीक-ठाक व्यवहार किया। मेरे बारे में भी देर तक बातें कीं। फिर उसे रूपये लौटाते हुए उन्होंने कहा था, 'यह पहला मौक़ा है जब किसी से आया पैसा मैं लौटा रहा हूँ...तुम्हें यह पैसा मधुरेश जी के कारण ही मिल रहा है ...’ पांडुलिपि पर किया गया उनका श्रम उस पर लगाए गए उनके निशानों से स्पष्ट था। बाद में प्रदीप सक्सेना के सहयोग से दिल्ली के स्वराज प्रकाशन से 'बौद्ध धर्म और हिंदी साहित्य’ जैसे भ्रामक शीर्षक से वह छपी। लेकिन वह उसी संपादित रूप में छपी जिसका स्वरूप जमाली ने ही तय किया था। उसके लिए प्रकाशक ने सात हजार रूपया लेकर सिर्फ 6 लेखकीय प्रतियां उसे दीं। बाद में जरूरत पडऩे पर, प्रकाशक अजय मिश्रा से उसकी दोस्ती हो जाने के बावजूद अपनी पुस्तक की प्रतियां उसे खरीदनी पड़ती थीं।

हमारे-मेरे और जमाली—के बीच कायदे से लिखी-पढ़ी कोई व्यवस्था नहीं थी। सब कुछ ज़ुबानी तौर पर तय हुआ था। उनकी समझ और व्यवहार का ही नतीजा था कि चार-पाँच साल में मैंने उन्हें पाँच किताबें दीं। 'हिन्दी कहानी का विकास’ के बाद 'हिन्दी उपन्यास का विकास’ आई और फिर 'हिन्दी आलोचना का विकास’, 'हिन्दी नाटक और रंगमंच का विकास’ के उनके प्रस्ताव के लिए मैंने मना कर दिया। क्योंकि नाटक और रंगमंच का मुझे कोई व्यावहारिक ज्ञान या अनुभव नहीं था। सेवा निवृत्ति के बाद बरेली आकर, 'मैला आँचल का महत्त्व’ संपादित और 'दिव्या का महत्त्व’ मेरी अपनी लिखी पुस्तकें आईं। 'दिव्या’ वाली किताब के तत्काल बाद ऐसी एक किताब का प्रस्ताव लोकभारती, इलाहाबाद से भी मिला। तब तक जमाली से मेरी बात हो चुकी थी। इसका उल्लेख करते हुए मैंने लोक भारती को मना कर दिया।

किसी व्यवस्थित लिखा-पढ़ी के बिना भी जमाली ने कायदे से समय पर किताबों का हिसाब किया। वे अलग-अलग किताब का हिसाब बनवाकर उसका अलग ही ड्राफ्ट भिजवाते थे। मेरे कहे बिना ही उन्होंने लेखकों को उदारतापूर्वक किताबें भिजवाईं। शुरू में संस्करण समाप्त होते ही किताब का नया संस्करण भी तुरंत निकाला। बाद में उनकी आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने से यह नहीं हो सका। बच्चों के बड़े होने से घर-गृहस्थी का खर्च भी शायद बढ़ा।

उनका स्थायी आग्रह-सा था, उस बार जब मैं गया तो वे बीमार होकर अस्पताल में थे, अत: एक-दो दिन को फिर इलाहाबाद जाऊं। तब मैं बदायूं में ही था। अनुराग की पोस्टिंग लखनऊ में थी। एक बार छुट्टियों में जब लखनऊ गया दो दिन के लिए उसी के साथ इलाहाबाद भी गया। जब भी दोपहर में बस से ही लखनऊ से चलकर शाम को वहां पहुंचे थे। रुके होटल में ही थे। निकलने पर लोकभारती पर कुछ अधिक समय लग जाने पर जमाली के यहाँ जाने के लिए देर हो चुकी थी। फोन पर उन्हें स्थिति की सूचना देकर फिर सुबह पहुँचने की बात ही तय हुई थी। अगले दिन होटल के सामने की कचौड़ी-जलेबी का नाश्ता करके हम लोग नौ बजे के करीब जमाली के यहाँ पहुंचे थे। चूंकि लौटना उसी दिन था, कहीं आने-जाने या किसी से मिलने की सुविधा भी नहीं थी। इसीलिए किसी को अपने जाने की सूचना भी नहीं दी थी। अमरकांत की बीमारी की चर्चा अलबत्ता जमाली से ही सुनी। लेकिन उनका घर जमाली के यहाँ से बहुत दूर था।

दोपहर हो रही थी-इलाहाबाद में जून की दोपहर। जमाली स्वयं अस्वस्थ थे। अत: फिर वह टल ही गया। बाद में अमरकांत से किसी ने शायद मेरे इलाहाबाद जाने का जिक्र किया तो उनका पत्र मिला- 'इलाहाबाद आकर भी आप बिना मिले लौट गए’ के उलाहने वाला। जमाली के यहाँ खाना खाकर दोपहर बाद ही हम लोग लौट पड़े थे। मना करने पर भी, तेज धूप में जमाली हमें रिक्शा करवाने सड़क तक आये थे।

रवींद्र कालिया तब भारतीय ज्ञानपीठ में 'नया ज्ञानोदय’ के संपादक और संस्थान के निदेशक थे। वह लगभग उनका अंतिम दौर था। जब मैंने उन्हें लिखा कि सतीश जमाली की उनकी सहायता की आवश्यकता है और उन्हें उनके लिए कुछ करना चाहिए। उस पत्र में मैंने उन्हें यह ताकीद भी की थी कि जमाली को कुछ पता नहीं चलना चाहिए कि इस प्रसंग में मैंने आपको कुछ लिखा है। मैंने उन्हें लिखा था- 'आप जानते हैं कि वे बहुत टची और संवेदनशील व्यक्ति हैं। न आप चाहेंगे न ही मैं कि उनके स्वाभिमान को किसी तरह की कोई ठेस पहुंचे! तब अमरकांत की संपूर्ण कहानियों को उन्होंने दो खण्डों में पुनर्प्रकाशित किया था। बरसों पहले 'वर्ष-75 ' शीर्षक से उनके और ममता कालिया के संपादन में अमरकांत पर केन्द्रित संकलन को 'अमरकांत: एक मूल्यांकन’ के परिवर्तित शीर्षक से सामयिक प्रकाशन, दिल्ली से नए रूप में प्रकाशित करवाया था। जमाली के प्रसंग में मेरा संकेत वस्तुत: इसी ओर था। कुल जमा उनके तीन सौ-सौ, सवा-सवा सौ पृष्ठों के उपन्यास हैं- 'प्रतिबद्ध’, 'तीसरी दुनिया’ और 'छप्पर टोला’- और उनकी लगभग सौ के करीब कहानियां होंगी। वर्षों से उनकी ये रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं। मैंने कालिया को लिखा था कि तीन जिल्दों में भारतीय ज्ञानपीठ से इनके प्रकाशन की व्यवस्था हो जाने पर जमाली को कुछ आर्थिक सहयोग भी मिलेगा, जिसकी खासतौर से उन्हें इस समय जरूरत है। इससे उन्हें मानसिक ऊर्जा भी मिलेगी जो उन्हें आगे के लिए रचनात्मक रूप में सक्रिय कर सकती है। मैंने अपनी ओर से कालिया को यह सूचना भी दी थी कि जमाली इलाहाबाद के अपने दिनों पर संस्मरण लिख रहे हैं। एक बड़ी किताब का उनका विचार है जिसका आधे से अधिक हिस्सा वे लिख चुके हैं। कालिया चाहें तो उन्हें बूस्ट अप करके उसे जल्दी लिखवाकर ज्ञानपीठ से ही छाप सकते हैं।

कालिया का उत्तर मुझे अगले हफ्ते ही मिला। अमरकांत की तरह उनकी किताबों के प्रकाशन के प्रसंग में अपनी कठिनाइयों का उल्लेख भी उन्होंने किया। निर्मल वर्मा और अमरकांत की बात अलग है सामान्यत: ज्ञानपीठ पूर्व-प्रकाशित रचनाओं का प्रकाशन नहीं करता है। फिर उन्होंने लिखा था, 'जमाली को मैं जानता हूँ। वे जिद्दी और किसी कदर कुंठित व्यक्ति हैं। मित्रों के सुझाव पर विभूति नारायण राय ने उन्हें 'बहुवचन’ के संपादन के लिए वर्धा आमंत्रित किया था। वहां और भी अवसर थे। घर से निकलने पर एक रचनात्मक दुनिया उन्हें मिलती, लेकिन वे नहीं गए। फिर उन्होंने सूचना दी थी कि उनके स्वभाव को देखते हुए जितना संभव होता है वे करते हैं। पिछले एक डेढ़ वर्ष में उन्होंने 'नया ज्ञानोदय’ में जमाली की चार-पाँच कहानियां और मार्कंडेय तथा शेखर जोशी आदि पर संस्करण प्रकाशित करने का उल्लेख किया था। बाद में जमाली ने ही फोन पर बताया था कि उनका ठीक-ठाक पारिश्रमिक कालिया ने भिजवाया था। मैंने जमाली को कुरेदा, 'आप वर्धा गए क्यों नहीं ?’

जमाली का उत्तर था, 'मधुरेश जी मेरी अपनी मजबूरियां हैं। मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। घर से बाहर जाने की हिम्मत नहीं होती...मुझे लगता है कि बाहर निकलकर मुझे एडजस्ट करने में परेशानी होगी...मैं, मानसिक रूप से इसके लिए अपने को तैयार नहीं कर पाता। फिर उन्होंने स्वयं ही बताया कि 'कहानी’ से अलग होने के बाद जब वे इलाहाबाद में ही बेरोजगारी के दौर में थे, राजकमल प्रकाशन से अलग होकर ओमप्रकाश ने अपना राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली में शुरू किया था। शायद किसी मित्र के सुझाव पर ओमप्रकाश ने सहायक संपादक के रूप में उन्हें दिल्ली आने को कहा था, लेकिन वे गए नहीं। उनके अन्दर का अनाम-अदृश्य डर उन्हें ऐसा कुछ भी नया करने से रोकता है।

दूसरों के लिए ख़ास तौर से अपने आत्मीय मित्रों से वे कुछ भी कह सकते हैं लेकिन स्वयं अपने लिए संकोच की मोटी चादर को वे कभी उघाड़ नहीं पाते। मेरे पास ऐसे दोनों प्रसंगों के ही उदाहरण हैं। तब मैं बदायूं में था। एक दिन उनका पत्र मिला। भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में 'नई कहानियाँ’ के जो संपादकीय 'मेरा पन्ना’ शीर्षक से उन्होंने लिखे थे उसकी फोटो प्रतिलिपि उन्हें मिली नहीं थी। उनकी कोई परिचित या संबंधी भैरव प्रसाद गुप्त पर शोध कर रही थी। उन्होंने मुझे लिखा, 'आपके पास पत्रिकाओं का भण्डार है। 'नई कहानियां’ की फाइल भी होगी। वे संपादकीय मुझे भिजवायें।’ ... अभी पिछले दिनों सामयिक प्रकाशन दिल्ली से मेरे आत्मकथात्मक संस्मरणों की पुस्तक 'आलोचक का आकाश’ आई। मैंने प्रकाशक को लिखकर उसकी प्रति जमाली को भी भिजवाई थी। काफी समय तक जब उसकी कोई सूचना नहीं मिली मैंने उन्हें फोन किया। तब वे इलाहाबाद छोड़कर कानपुर आ गए थे। लेकिन मुझे इसकी कोई जानकारी न होने पर, प्रकाशक को मैंने इलाहाबाद का पता ही दिया था। किताब उन्हें मिली नहीं। मैंने उन्हें कहा- आप प्रकाशक को लिख दें और वस्तुस्थिति की सूचना देते हुए अपना नया पता बता दें। मुझसे हामी भरके भी उन्होंने प्रकाशक को लिखा नहीं। पूछने पर बोले, 'मधुरेश जी, अपने लिए कुछ कहने का मेरा मन नहीं हुआ।....’ फिर मैंने कानपुर में ही रचना शर्मा को कहकर उनके पास अपनी प्रति लेकर भिजवाया था और उन्होंने पढ़ा था।


उनके संघर्ष के अनेक मोर्चे हैं। बढ़ती उम्र और छीजती ऊर्जा के साथ वे अनेक बीमारियों के शिकार हैं। सन 2008 में घर को सहेजने और संवारने वाली उनकी पत्नी प्रमिला के निधन ने उन्हें भावनात्मक रूप से बहुत अकेला कर दिया है। दो बेटों में से बड़ा आशीष पिछले काफी समय से अमेरिका में जा बसा है। आय का कोई नियमित श्रोत और साधन उनके पास न होने से अपने रोजमर्रा की जरूरतों के लिए भी वे अधिकतर अपने बच्चों पर निर्भर हैं। वे 75 की धिया छूने को हैं न कोई उनका 'निमित्त’ है और न ही कोई 'अमृत महोत्सव’। निरंतर और नियमित लेखन के न साधन हैं, न ही स्थितियां। कुल जमा जो तीन जिल्दों वाला उनका रचना-संसार है वह वर्षों से अप्राप्य और अनुपलब्ध है। अपनी कोई पत्रिका नहीं है इसलिए दूसरों को साधने और नाथने की स्थिति में भी वे नहीं हैं। पूंजी के अभाव में परिश्रम करके जो पुस्तकें उन्होंने मित्र लेखकों से लिखवाईं थीं बरसों उनके प्रकाशन और बिक्री की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी। फिर जैसे-तैसे, पता नहीं किन स्थितियों और शर्तों पर, उनके छोटे बेटे सुमित ने जिसके नाम पर ही उनका सुमित प्रकाशन था, लोकभारती से कोई अनुबंध करके अपनी कुछ पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन की व्यवस्था की है।

सबसे दुखद स्थिति यह है कि यहां-वहां घूम-भटक कर जिस इलाहाबाद में वे सन 1968 से 2012 तक यानी कोई पैंतालीस वर्ष रहे, वह इलाहाबाद उनसे छूट गया है। अपने समाज और परिवेश से कटे, मित्रों और परिचितों से दूर वे जिस बीहड़ और उजाड़ दुनिया के वाशिंदे हैं उसमें कोई किसी को नहीं पहचानता। जैसे वे किसी टापू पर कैद हैं और कहीं आने-जाने के कोई साधन वहां नहीं हैं। कानपुर में लेखक न हों ऐसा नहीं है। कुछ तो ऐसे हैं ही जो उनकी अपनी पीढी के भी हैं और उनके साथ वे छपे और चर्चा में रहे हैं। बहुतों को उन्होंने अपनी पत्रिका में छापा है।

मधुरेश
संपर्क : 372, छोटी बमनपुरी बरेली- 243003
मो. 09319838309

पिछले दिनों एक विज्ञप्ति देखी थी कि कृष्ण बिहारी की पत्रिका 'निकट’ का एक अंक सतीश जमाली पर केन्द्रित होगा और उसका संपादन शिवमूर्ति करेंगे। स्वाभाविक ही था जमाली इससे उत्साहित थे कि कभी का उनका लिखा-पढ़ा आखिर व्यर्थ नहीं गया है। मैंने फोन करके स्वयं शिवमूर्ति से उनके लिए एक संस्मरण लिखने के लिए कहा। जमाली पर मेरी पूर्वप्रकाशित सामग्री की जानकारी भी शिवमूर्ति ने ली थी। लेकिन फिर पता चला कि उस अंक की योजना रद्द हो गई है। इलाहाबाद भी धीरे-धीरे एक बीहड़ और उजाड़ बस्ती में बदलता जा रहा है। लेकिन जमाली के मन में रह-रह कर उसी में लौट जाने की जैसे एक हुक सी उठती है। अभी परसों ही उन्होंने फोन पर बताया था : 'मेरा एक भतीजा वहां है, मैं वहीं चला जाऊंगा।’ रवीन्द्र कालिया की बात शायद ठीक है। बेशक जमाली एक जिद्दी और कुंठित व्यक्ति हैं। लेकिन इसके बिना लेखक कौन हुआ? पसीने से ही नहीं जमाली ने अपने खून से इस पौधे को सींचा और संवारा है।




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