उपन्यास अंश - पच्चीस वर्ग गज़ - अर्पण कुमार | Novel Extract


अर्पण कुमार का उपन्यास 'पच्चीस वर्ग गज़' दूर दिल्ली को कुछ पास तो ज़रूर लायेगा - भरत तिवारी #शब्दांकन

कितना फर्क है दिल्ली और पटना में

- अर्पण कुमार

नयी दिल्ली... देश भर से यहाँ छात्र अपनी अध्ययन-क़िस्मत जगाने के लिए आते हैं, किसी छोटे शहर किसी छोटे क़स्बे से आये अभिषेक के अनुभवों से इस प्रक्रिया की तहों में जाता अंश पढ़िए;  अर्पण कुमार का उपन्यास 'पच्चीस वर्ग गज़' दूर दिल्ली को कुछ पास तो ज़रूर लायेगा - भरत तिवारी 


'बरस रही है हरीमे हविस में दौलते हुस्न 
गदाए इश्क के कासे में इक नज़र भी नहीं
न जाने किस लिए उम्मीदवार बैठा हूँ
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं’  
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

जिस नेहरू कॉलोनी  में वह रहता था स्वयं वहाँ के अधिकांश लड़के और लड़कियाँ दिल्ली विश्वविद्यालय के अच्छे और नियमित कॉलेजों से दूर ही थे...

महानगर में सीमित संसाधनों में रह रहे परिवार में घर के हर सदस्य को एक निश्चित उम्र के बाद कुछ-न-कुछ कमाना होता है। ऐसे में वहाँ के बच्चे बारहवीं के बाद ही किसी न किसी व्यावसायिक पाठ्यक्रम की तरफ ध्यान देने लग जाते हैं। उनमें से कई होनहार विद्यार्थी भी परिवार के आर्थिक दवाब के बीच किसी स्टूडियो, फर्म, दुकान आदि में पार्ट-टाइम काम करने लग जाते हैं। अभिषेक ने दिल्ली में रहते हुए महानगरीय जीवन से जुड़ी ऐसी कई महत्वपूर्ण बातों को बड़े करीब से देखा। नेहरू नगर के स्थानीय लड़के-लड़कियों पर भी यही लागू था। अभिषेक एक शाम अपने मित्र आकाश पांडे के साथ पटरी पर अब्दुल के यहाँ चाय पीते हुए चर्चा करने लगा, “यार आकाश, कितना फर्क है दिल्ली और पटना में?

आकाश हँसने लगा, “क्या तुम्हें आज पता चला है?”

इस बीच अब्दुल चाय रखकर चला गया। आज उसके ठीए पर कुछ अधिक भीड़ थी। हमेशा की तरह ज्यादातर बाहर से आए जवान लड़के-लड़कियों का झुंड हर छोटी-मोटी बात पर जोर-जोर से चिल्ला कर बहस-मुबाहिसा कर रहा था। अभिषेक को भी हँसी आ गई। गरम-गरम चाय का घूँट लेते हुए अपनी बात को उसने दृढ़तपूर्वक रखना शुरू किया। यह अभिषेक की आदत थी, मजाक-मजाक में भी अगले पल वह अचानक गंभीर हो जाता। हाँ यह बात अलग थी कि उसकी गंभीरता में भी एक मासूमियत होती। उसकी बातें और उसकी जिज्ञासाएँ दोनों निर्दोष होतीं। उसके मन में जो आता उसे हू-ब-हू रख देता, “यार आकाश, जब हम लोग पटना में पढ़ रहे थे तो वहाँ कॉमर्स का कोई विशेष क्रेज नहीं था। पटना कॉलेज में कहाँ एक कोने में कॉमर्स कॉलेज खड़ा था।एक छोटी सी बिल्डिंग। अगर उसपर कॉलेज का नाम न लिखा हो तो पता भी न चले कि यहाँ कोई अलग से कॉमर्स कॉलेज भी है। वहाँ लड़के-लड़कियाँ भी अधिकांशतः या तो विज्ञान या कला में हिचकोले खाते रहते थे, लेकिन दिल्ली में देखो सबसे अधिक कॉमर्स का ही बोलबाला है। और तो और लोग दसवीं के बाद ही कॉमर्स स्ट्रीम में चले जाते हैं। श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स जैसे प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ना कितनी शान की बात मानी जाती है यहाँ”। आकाश अभिषेक की बात ध्यान से सुन रहा था, “बात तो तुम ठीक ही कह रहे हो यार

अभिषेक ने आगे कहना जारी रखा, “नॉर्थ कैंपस के जितने महत्वपूर्ण कॉलेज हैं किन्हीं को भी देख लो, बी-कॉम आनर्स के लिए कितना कट-ऑफ जाता है! फिर चाहे हंसराज कॉलेज हो, हिंदू कॉलेज हो, रामजस हो या किरोड़ीमल या फिर सेंट स्टीफेंस ही क्यों न हो!

आकाश ने बात आगे बढ़ाई। कुछ सोचते हुए बोला, “कॉमर्स की तो बात ही छोड़ो अभिषेक। हमारे यहाँ तो बायोलोजी का भी कुछ खास क्रेज नहीं है। इधर फिर भी थोड़ा मेडिकल में जाने का चलन बढ़ा है, नहीं तो जिसे देखो पहले वही इंजीनियर बनना चाहता था, मानो सभी आर्यभट्ट के सच्चे वारिस हों”|

आकाश की इस व्यंग्यजन्य टिप्पणी पर अभिषेक हँसे वगैर नहीं रह सका। दोनों दोस्त इस तरह की चर्चा अक्सरहाँ किया करते। दोनों की आपस में केमेस्ट्री बैठती थी। आकाश समस्तीपुर का था और अभिषेक पटना जिला स्थित मसौढ़ी से आया था। वही मसौढ़ी जो तारेगना स्टेशन के नाम से भी जाना जाता है। दरअसल तारेगना एक ऊँचा टीला है और उसके नाम से एक गाँव भी है। मसौढ़ी इसके आसपास क्रमशः विकसित हुआ शहर है। कहते हैं कि आर्यभट्ट इसी ऊँचे टीले से तारों की गणना किया करते थे। तभी इस जगह का नाम तारेगना पड़ा। तारेगना अर्थात तारों की गणना। अभी हाल ही में जब सूर्य-ग्रहण लगा था तो दुनिया भर के अखबारों में तारेगना का नाम वास्तव में एक तारे की तरह चमक रहा था। पूरे विश्व के खगोलविद वहाँ इकट्ठा हुए थे, क्योंकि सूर्यग्रहण का सबसे बेहतर दृश्य यहीं से दिखना था। इस छोटे से शहर में तो इतनी व्यवस्था कहाँ संभव थी इसलिए सूबे के मुख्यमंत्री के निर्देश पर दुनिया भर से आए आगंतुकों के लिए टेंट लगाया गया था, मगर उस दिन कुछ वहाँ आकाश में बादल घिर आए और हल्की-फुल्की बुँदा-बाँदी हो गई। खगोलविदों को तारेगना के आकाश ने निराश कर दिया था।

अभिषेक और आकाश अक्सरहाँ बीच-बीच में अपने कमरे से निकलकर बाहर चाय पीने के लिए आ जाया करते। इससे पढ़ाई को फिर से शुरू करने में उनका मूड बन जाता और हल्की-फुल्की चर्चा से पुनः बैठकर किताबों पर ध्यान लगाने में सुविधा होती। शाम में पप्पू बर्गर वाले से कभी बर्गर खा लेते तो कभी चौरसिया पान भंडार से सादा पान खा लेते। एक दिन अभिषेक आकाश से अपनी बात कहने लगा, “यार मेरी एक अजीबोगरीब समस्या है। पान खाने के बाद मैं अतिरिक्त रूप से शायराना हो जाता हूँ। पान को देर तक चबाते हुए मैं अपने कमरे के दिवान पर एक करवट लेटा-लेटा देर तक कुछ पढ़ता रहता हूँ या फिर खुद ही अपने विचारों को कलमबद्ध करने लगता हूँ । मुझे अच्छा लगता है, यूँ पान चबाते हुए कुछ सोचना। किसी लड़की या स्त्री से बात करना, अच्छा, मज़े की बात देखो। इससे फिर पढ़ाई में भी मेरा ध्यान काफी लगता है”|

आकाश उसकी बात पर हँसते हुए कहने लगा, “ हाँ भाई लड़कियों का तो खैर नहीं मालूम मगर देखो ना, अकेले पढ़ने के लिए हमें कितनी तरह की जद्दोजहद करनी पड़ती है। माता-पिता पैसों का इंतज़ाम करते हैं, दूर दिल्ली में आकर कॉलेज/कोचिंग में एडमिशन लेने पड़ते हैं, किराए का कोई कमरा ढ़ूँढ़ना पड़ता है, फिर कमरे का पार्टनर खोजो, खाने की व्यवस्था करो, फोटोस्टेट, स्टेशनरी ,चाय-नश्ता, जाने क्या क्या”|

अब अभिषेक ने अपना निष्कर्ष देना शुरू किया, “और देखो परिवेश का कितना फर्क पड़ता है! दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट होने कारण इस इस जे.जे. कॉलोनी का भाग्य कैसे पलटा खा गया। कितने पैसे बनाए यहाँ के स्थानीय लोगों ने। इन सबके लिए बाहर से आए विद्यार्थियों की सुविधाओं पर आश्रित इनकी अर्थव्यवस्था भी कैसे विकसित हो रही है। और वह अर्थव्यवस्था भी बहुविकल्पी अर्थव्यवस्था है! मसलन खाने की बात ही लें, तो आपके पास कई तरह के विकल्प हैं। आप ढाबे पर जाकर खा सकते हैं, हर बार का स्वतंत्र भुगतान करते हुए और अगर वहाँ आपको नियमित खाना है तो आप अपना मासिक रजिस्टर भी खुलवा सकते हैं। आपको ढाबे के शोर-शराबे में सीमित और संकुचित जगह में, दूसरों द्वारा धुले बरतन में आपको मीन-मेख निकालने की आदत हो तो यही ढाबेवाले आपके घर तक टिफिन भी भिजवा देंगे। और अगर आपमें ज्यादा पुरुषार्थ है, तो आप खुद रसोइया की व्यवस्था कीजिए, सारे राशन-पानी, सब्जी, बरतन, गैस-चूल्हा आदि की व्यवस्था कीजिए और अपने हिसाब से अपने जायका का मज़ा लीजिए। और रसोइया ....यहाँ भी आपके सामने कई विकल्प हैं। बिहार का, नेपाल का और कई बार तो कुछ मकानमालकिन या मुहल्ले की दूसरी औरतें भी यह काम कर देती हैं।

अभिषेक जिस ‘ए’ ब्लॉक में 212 नं मकान में रह रहा था तब उसके ठीक नीचेवाले फ्लोर पर बिहार के मधुबनी जिले का एक लड़का हिमांशु झा रहता था। उसके यहाँ मकानमालकिन की पत्नी ही खाना बनाती थी। मकान मालिक रमेश चोपड़ा की पत्नी। अभिषेक को यह बात पचती नहीं थी। मगर मिसेज चोपड़ा, जिसे हिमांशु भाभी जी कहा करता था, उसके बर्तन नहीं धोती थी। अभिषेक को यह देखकर शुरू में कुछ अजीब लगा मगर बाद में उसने मिसेज चोपड़ा की निगाह से भी कुछ देखने की कोशिश की। उसे लगा कि, भाई साहब जिस प्राईवेट फर्म में नौकरी कर रहे थे, उनका वेतन दिल्ली के हिसाब से कम रहा होगा। तो औरों की तरह उन लोगों ने भी घर के दो मंजिल किराए पर चढ़ा रखा था। और खुद दो बच्चों और एक भतीजी के साथ ग्राऊंड फ्लोर और एक मियानी में रह रहे थे। उनके दोनों बच्चे सयाने हो गए थे मगर मकान का एकाध फ्लोर अपने पास रखना शायद वे अफोर्ड नहीं कर सकते थे। फिर पूरी  कॉलोनी ऐसा ही कर रही थी। चोपड़ा परिवार भी ए ब्लॉक की जिस गली में था वहाँ भी लोग ऐसा ही कर रहे थे। मगर किसी और मकान में अभिषेक ने मकान-मालिक को अपने किराएदार के यहाँ खाना बनाते नहीं देखा था। वैसे यह भी कोई कम रोचक बात नहीं रही कि जबतक अभिषेक और उसका छोटा भाई रहा, भाभी जी ने उसके यहाँ कभी खाना नहीं बनाया। वह प्रथम तल पर रह रहे अपने किराएदार हिमांशु झा के यहाँ ही खाना बनाती थी। इसके पीछे संभवतः अभिषेक का रिज़र्व रहना भी एक कारण रहा हो और फिर यहाँ रहने के पहले ही महीने में उसे घर छोड़ने की कहकर मिसेज चोपड़ा ने अपनी ओर से उससे कुछ संबंध खराब भी कर लिए थे। हालाँकि अभिषेक स्वयं अपनी तरफ से इस कड़वाहट को भुला चुका था। बिहार के मधुवनी से आया हिमांशु, मिसेज चोपड़ा से जिस हक से बात किया  करता था, अभिषेक को दोनों के बीच पनपे किसी संबंध को लेकर कुछ शक भी होता। फिर उसे लगता, हो सकता है, लंबे समय तक इस घर में रहते हुए इस मनचले हिमांशु झा ने कुछ अतिरिक्त छूट ले रखी हो। वह भाभी-भाभी कहकर उससे हँसी-मज़ाक भी किया करता था। जब वह खाना बना रही होती, वह किचन से लगे बरमादे में बाहर गली की ओर झाँकता रहता। किचन से लगा ही तो बरामदा था या फिर यह कहा जाए कि निचली मंज़िल से ऊपरी मंज़िल की तरफ जाने का जो रास्ता होता है, उसी रास्ते में सीढ़ियों की जगह काटकर एक खुली रसोई बना ली गई थी। मकान लंबाई में था जिसमें पीछे की तरफ एक कमरा था और आगे की तरफ सीढ़ियाँ और रसोई, बरामदा और बरामदे की जगह को बायीं तरफ से काटकर बनाया गया कंबाईंड बाथरूम जिसकी बाहर की तरफ बनी खिड़की गली में खुलती। गली के दोनों तरफ इसी संरचना के मकान होते। हिमांशु झा किसी-न–किसी बहाने से कमरे से बरामदे में और बरामदे से वापस कमरे में करता रहता। इस बीच रसोई में उसके लिए खाना बना रही मिसेज चोपड़ा के मांसल और गुदगुदेदार पिछवाड़े से वह टकरा जाता। हल्का सा घूरकर रह जाती मिसेज चोपड़ा मानो उसकी नाराज़गी महज दिखाने के लिए हो। हिमांशु भी इस खेल का शातीर खिलाड़ी था। वह उसकी प्रतिक्रिया के हिसाब से अपने आगे की इस आवृत्ति को बढ़ाता-कम करता।

कई बार रात का खाना बनाने के लिए मिसेज चोपड़ा जान-बूझकर देर से आती। शाम में कभी अपने घर की रसोई पहले बनाने के बहाने तो कभी किसी और बहाने। बच्चे स्कूल और पति ऑफिस जाते थे। वे लोग जल्दी सो जाते या फिर टी.वी. देख रहे होते। इधर मिसेज चोपड़ा ऊपर हिमांशु के पास आ जाती। हिमांशु जान-बूझकर बर्तन देर से माँजता, ताकि वह जब आए तभी उसके बगल में खड़ा रहकर वह सींक में बर्तन ढोए। इधर अभिषेक बर्तन धो रहा होता और उसके ठीक दाहिने में खड़ी मिसेज चोपड़ा आटा गूँथ रही होती। रात में अक्सरहाँ वह ब्रा नहीं पहनती। सीधे सूट में होती और गले में चुनरी लटकाए रहती। मगर रसोई में काम करते हुए चुनरी कभी चूल्हे पर तो कभी बर्तन से टकराती। फिर आँच के पास काम करते हुए गर्मी अलग लगती। इसलिए ऊपर आते ही वह सबसे पहले अपना दुपट्टा अपने गले से अलग करती। हिमांशु उसकी इस आदत को जानता था।जब वह आटा निकालने के लिए नीचेवाले स्लैब की ओर झुकती, वहीं पर खड़ा अभिषेक अपनी गर्दन को दायीं ओर हल्का मोड़ते हुए कनखियों से कमीज से बाहर निकले एक जोड़े दूधिया उभारों को देर तक देखता रहता। मिसेज चोपड़ा भी जान-बूझकर वैसे ही झुके-झुके उससे कुछ पूछती रहती। पूछे गए उन सवालों का कोई मतलब न होता। वे दोनों जानते थे। वह तो उस अवस्था में अधिक से अधिक देर तक एक्सपोज करने का बहाना होता। दिखानेवाले को दिखाने में और देखनेवाले को देखने में मज़ा आता। हिमांशु अपने दाएँ हाथ से मिसेज चोपड़ा की ओर बर्तन कुछ इस तरह बढ़ाता कि उसकी कुहनी उसके बाएं स्तन से छुला-छुला जाती। बायाँ स्तन उसके दायें स्तन से जाकर टकरा जाता। किचन में गैस चुल्हा जलता, उसके पहले ही वहाँ गर्मी बढ़ जाती। स्त्री-पुरुष के बीच पनपती वासना की आग दुनिया की किसी भी आग से अधिक तेज होती है। कमीज से बाहर निकलने को आतुर मिसेज चोपड़ा के उभार हृष्ट-पुष्ट और सख्त थे, यह बात मकान के छत पर कई बार हिमांशु ने अभिषेक को बताई थी। रात में कभी नीचे उतरते हुए तो कभी उपर चढ़ते हुए भिड़के दरवाजों से अभिषेक कई बार मिसेज चोपड़ा को हिमांशु के कमरे में बैठा देखता। भाभी जी का दुपट्टा पूर्ववत किचन के एक कोने में पड़ा होता। दोनों इस तरह बैठे होते कि भाभी जी के उभार उस समय हिमांशु के कंधे पर मानों सुस्ता रहे होते और उसका दायाँ हाथ हिमांशु के जंघा पर इधर-उधर फिसल रहे होते। यह दृश्य देखकर अभिषेक के पूरे शरीर में झुरझुरी हो जाती। देर रात वह हिमांशु के कमरे के धीरे से बंद होने और कुछ देर बाद धीरे से खुलने की आवाज़ सुनता। दरवाजे लोहे के थे, चर्र-चर्र की यह आवाज़ ऊपर लेटे हुए अभिषेक के नसों में बहते लहू की रफ्तार दुगुनी कर देते।

अभिषेक ने शुरू-शुरू में हिमांशु से पूछा था, “हिमांशु भाई, आप कोई रूम पार्टनर क्यों नहीं रख लेते, इतना किराया अकेले देते हैं”|  हिमांशु ने उसके इस सवाल का कभी जवाब नहीं दिया । रहस्यमय तरीके से वह मुस्कुराकर रह जाता। बाद में निकटता बढ़ने पर हिमांशु ने उसे खुद मिसेज चोपड़ा से अपने संबंधों को लेकर कई चीजें बताई थीं और जहाँ पर जाकर वह सेंसर करता, उसके आगे के किस्से लोहे के दरवाजों की वह चर्र–चर्र बयान कर देती। अभिषेक को यह बात भी हिमांशु ने ही बतलायी थी, “आपको क्या लगता है अभिषेक भाई यहाँ तो ऐसे-ऐसे स्टूडेंट हैं जो एक साथ माँ-बेटी दोनों को...”| हिमांशु हँसते हुए उस शाम बहुत आसानी से यह बात कह रहा था मानो इसमें कोई रहस्योद्घाटन जैसा कुछ हो ही नहीं। वैसे अभिषेक भी इन बातों को सुनता आया था मगर प्रत्यक्ष रूप यहाँ पहली बार इन चीजों से उसका वास्ता पड़ रहा था।
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अब्दुल की प्रसिद्ध चाय की दुकान पर विद्यार्थियों का ताँता सुबह से लेकर रात के कोई आठ बजे तक लगा ही रहता। ज्यादतर बिहार, उत्तर प्रदेश के लड़के थे। इनके अलावा मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, झारखंड, छतीसगढ़ आदि राज्यों से आए लड़के भी अपनी-अपनी टोलियों में मस्त होकर अपने-अपने हिसाब से चर्चा कर रहे होते|  इनमें से अधिकांश आईएस बनने के महत्वाकांक्षी थे मगर ‘बड़ी कठिन है डगर पनघट की’ इस शास्त्र –सूक्ति से भी परिचित थे। तो अधिकांश विद्यार्थी उसकी तैयारी के साथ-साथ कुछ-न-कुछ और कर रहे होते। कोई यू.जी.सी. नेट की तैयारी कर रहा था, कोई बी.एड. कर रहा था, कोई दिल्ली पुलिस के  सब-इंस्पेक्टर के लिए दौड़ रहा था तो कोई पत्रकारिता में हाथ आजमा रहा था। कुछ ऐसे भी थे जो अर्जुन की तरह सिर्फ चिड़िया की आँख पर ही नज़र रखे हुए थे। वे अमूमन कुछ समृद्ध घरों से आते थे या फिर ‘जो घर जौरो आपनो चलै हमारे साथ’ के अंदाज़ में सिर्फ यू.पी.एस.सी. की तैयारी में लगे हुए थे और नए आनेवालों को भी अपनी ही तरह इस घाट तो कभी उस घाट पार ही उतरने की सलाह देते थे। उनमें से कुछ सौभाग्यशाली बाजी मार ले जाते मगर अधिकांश को बैरंग वापस लौटना पड़ता।

अभिषेक जिस नेहरू कॉलोनी में रह रहा था, वहाँ ज्यादातर स्थानीय लड़के-लड़कियाँ छोटे-मोटे व्यवसाय या दुकानदारी में अधिक थे। उन्हॆं शायद पढ़ने में कम रुचि होती थी और वे यथाशीघ्र ‘इंस्टैंट मनी’ कमाने के फिराक में भी होते थे। उसके बाद अच्छा पहनना और खाना उनकी दूसरी प्राथमिकता थी। और फिर जब ये दो चीजें मिल जाती है तो कोई भी ऐसा युवा अपने साथ घुमाने के लिए एक सुंदर और अच्छी सी गर्ल-फ्रेंड ढ़ूँढ़ता है। अभिषेक के अंदर भी सौंदर्य–भाव कूट-कूट कर भरा हुआ था, मगर किसी लड़की को इतने भौतिकवादी तरीके से वह नहीं देख पाता था। उसके अंदर अभी आत्मा बची हुई थी, गाँव की आत्मा। मगर उसे दुःख होता कि लड़कियाँ भी उसकी इस आत्मा तक पहुँच नहीं पाती थी। शीघ्र किसी से उसकी दोस्ती ही नहीं हो पाती थी। और जब दोस्ती ही नहीं होगी तो भला कैसे कोई उसकी आत्मा देखेगी! अभिषेक को अपने अंदर कहीं गहरे जड़ जमाए अपने ऐसे पिछड़ेपन पर रोष आता। वह कई बार संकल्प लेता कि अगली बार किसी लड़की से मिलेगा तो निःसंकोच होकर मिलेगा। वह हर बार ऐसा कोई संकल्प करता और ऐन मौके पर उसके सारे संकल्प धरे के धरे रह जाते।
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दिल्ली तो सुंदरता का गढ़ मानी जाती है। नेहरू कॉलोनी जैसे जे.जे.कॉलोनियों में भी मामूली से मामूली काम करनेवालों की लड़कियों का डिल- डॉल भी इतना आकर्षक और मनोहारी होता कि पटना के डॉक्टर और प्रोफसर की बेटियाँ भी फीकी पड़ जाएं। वैसे भी पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और दिल्ली की मिट्टी में कुछ ऐसी बात थी कि उनका गोरपन और उनकी त्वचा का सत्व ऐसा प्रभावकारी होता कि बिहार और उत्तर-प्रदेश के कई लड़के उनके दीवाने हो जाते। अभिषेक के होठों पर इन लड़कियों को देखकर ‘ज्योति’ फिल्म में लता मँगेशकर का गाया और आनंद बख्शी का लिखा गीत सहज रूप से आ जाता और वह उन्हॆं गुनगुनाने लगता:-

थोड़ा रेशम लगता है, थोड़ा शीशा लगता है
हीरे मोती जड़ते हैं, थोड़ा सोना लगता है
ऐसा गोरा बदन तब बनता है  

उसे याद आता, उसने अपने गाँव में इस गाने को कई बार विविध भारती पर सुना था। वहाँ भी अपने गाँव के कुछ दूसरे टोलों की लड़कियों पर वह इस गाने को आजमाता था। मगर गाँव-घर में वह चाहकर भी क्या आजादी ले सकता था! वह कुछ पलों के लिए अपने गाँव की दुनिया मॆं वापस चला गया।

तब उसके गाँव में टी.वी. नहीं आया था। अखबार भी सामान्यतः नहीं ही आता था। हाँ, अगर कोई शख्स अनुमंडल/ प्रखंड से होकर आता तो वह अखबार ले आया करता था। मगर हर कोई उसे अपने घर में ही रखता। अभिषेक तो किसी के घर अमूमन नहीं जाता था। हाँ कहीं से कोई उसके पास अखबार पढ़ने आ जाता तो वह उससे लेकर अपने पास रख लिया करता था। उसमें से कई चीजों को वह कई दिनों तक पढ़ा किया करता था। यह अभिषेक की एक खास आदत थी जो बाद के वर्षों में भी उसके साथ ही रहा। तभी तो, उसने मैट्रिक की परीक्षा के बाद आई छुट्टियों में एक ऐसा रजिस्टर बनाया था जिसमें कई पुरानी किताबों के चित्रों और उनमें दी गई जनकारियों को चिपकाकर उसने अपने उस रजिस्टर को एक संग्रहणीय रजिस्टर का रूप दे दिया। अभिषेक छुट्टियों में ऐसी ही किसी न किसी सृजनधर्मिता का पालन करते हुए अपना समय बड़े मज़े से व्यतीत कर लिया करता था।
अर्पण कुमार
09413396755

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