कहानी : वक़्त से आगे - निखा


कहानी : वक़्त से आगे - निखा #शब्दांकन

वक़्त से आगे

- निखा




साधारण लोगों में से अपवाद थी वो। युवराज और परी की माँ – प्रतीति। हाँ अलग थी सबसे। युवराज और परी मेरे ही स्कूल में पढ़ते थे। परी दीदी दसवीं कक्षा में और युवराज चौथी कक्षा में पढ़ता था। मैं हालांकि तीसरी में थी लेकिन घर पास-पास होने के कारण हम सब साथ-साथ स्कूल जाते थे। लेकिन मेरी दादी को मेरा उनके साथ जाना बिलकुल पसंद नहीं था। माँ का तो पहले ही बाहर जाना लगभग बंद सा ही था क्योंकि मेरे पापा को यह कतई अच्छा नहीं लगता था कि घर की औरतें मुंह उठा कर बाहर को चल दें। उनके अनुसार अच्छे घर की औरतों को केवल घर के भीतर रहकर पति, सास-ससुर तथा परिवार की सेवा करनी चाहिए और उनके ऊपर अपना सब कुछ न्योछावर कर देना चाहिए। एक ऐसे समाज में जन्म लिया था मैंने जहाँ पितृ या पति-विहीना स्त्री के अस्तित्व के बारे में मानो कोई सोच भी नहीं सकता था। ऐसा इसलिए क्योंकि लोग ऐसी स्त्री को मानो इंसान समझते ही नहीं थे। उसके वजूद, उसकी इच्छाओं, उसकी ज़रूरतों का होना मानो गुनाह था।

और ऐसे समाज में जन्म लिया था प्रतीति ने। उनकी कहानी बहुत वक़्त बाद मैंने अपनी बुआ के मुंह से सुनी थी और जब सुनी तो मन हैरान हो उठा कि कई बार इंसान के हौसले के आगे वक़्त भी कमज़ोर पड़ने लगता है।

वह बहुत स्नेहमयी माँ थीं। परी और युवराज को पढ़ाने–लिखाने में और अपने सामर्थ्यानुकूल जीवन की हर खुशी देने में उन्होंने कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। हालांकि जीवन में ऊंचा-नीचा वक़्त भी आया परन्तु मेहनत और लगन से परिश्रम करते हुए उन्होंने दोनों बच्चों को बहुत प्रेम से बड़ा किया। मैंने अपने जीवनकाल में कभी उनके आस-पास या साथ पुरुष का साया नहीं देखा। न ही कभी उन्हें किसी प्रकार के विपरीत आचरण या असभ्य ओढ़ने -पहनने में देखा। सदैव साड़ी में लिपटीं, बालों का सुंदर जूडा बनाए, मुख पर सौम्य स्मिता का श्रृंगार किये रहती थीं वे। कभी- कभार बालों में सफ़ेद या पीले गुलाब का फूल टाँक लेती थीं तो मानो पवन सुवासित हो उठती थी। और हाँ, सदैव उनके घर से सुबह सुबह ज्योत बाती और धूप की मधुर सुगंध के साथ साथ मीरा के भजन की आवाज़ भी आती थी। हाँ, सदैव स्वयं को ईश्वर को समर्पित मानने वाले भजन वे सुनती थीं और कभी कभी तो मुझे लगता है मानो ईश्वर ही स्वयं उनके सभी कार्य सम्पूर्ण कर जाते थे, वरना इतनी बड़ी दुनिया में अकेले जीना और दो-दो बच्चों का पालन-पोषण एवं संरक्षण करना कौनसा आसान बात थी।

वैसे मैंने दादी या माँ के मुंह से भी उनके प्रति कोई बुरी बात नहीं सुनी थी परन्तु कुछ था उनकी नज़रों में जो प्रतीति माँ के उनसे नीचा होने के अहसास को दर्शाता था। वह गुरूर जो आस-पास रहने वाली सभी विवाहित, सधवा औरतों के चेहरे पर होता था वैसा मैंने कभी उनके चेहरे पर नहीं पाया बल्कि उस से भी विलक्षण, एक अलग अनोखा नूर न जाने मुझे क्यों उनकी हस्ती में लगता था। ऐसे तो कालोनी में किसी मर्द की यह हिम्मत नहीं थी कि प्रतीति माँ के मुंह पर कुछ कह सके परन्तु पीठ पीछे होने वाली फुसफुसाहट एक-दो बार ज़रूर सुनी थी मैंने भी। माँ से पूछा भी था परन्तु पिताजी की घूर के सामने माँ और मैं दोनों सहम सी गयीं थीं और बात वहीं रह गयी थी।

समय बीतता गया, मेरी शादी हो गयी और मैं अपने ससुराल आ गयी। परी की भी शादी हो गयी और युवराज भैया की अमेरिका में जॉब लग गयी। शादी के बाद एक बार जब मैं मायके आई हुई थी तब मेरे बड़े भैया जो विदेश में डॉक्टर थे और दीदी जो जबलपुर में ब्याही हुई थीं, दोनों अपने –अपने परिवार के साथ वहाँ आये हुए थे। बच्चों की छुट्टियाँ न होने पर भी दोनों का पूरे परिवारों के साथ वहाँ आना और उस पर यह कहना कि घूमने आये हैं, मुझे कुछ अटपटा सा लगा। हालांकि मेरे अभी कोई बच्चा नहीं हुआ था फिर भी मेरी सासू माँ और पति ने हिदायत दी थी कि दो दिन में लौट आना। मेरे संशय पर से पर्दा जल्दी ही उठ गया जब रात को मैंने माँ से दोनों को झगड़ते देखा। दरअसल, पिताजी अपनी मृत्यु से पूर्व ज़मीन, खाते सब माँ के नाम कर गए थे और अब भैया, दीदी में उसी के हक को लेकर झगड़ा हो रहा था।मैं दुखी मन से वापिस अपने बिस्तर पर आ कर लेट गयी। तब हमारी बुआ, जो बचपन में ही विधवा हो गयी थीं और तब से हमारी ही देख रेख कर रही थीं, मेरे पास आकर बैठ गईं और बोलीं –“ रिश्ते निभाना कोई सीखे तो युवराज और परी से और प्यार की दौलत लुटाना सीखे कोई प्रतीति से। दुनिया धन –दौलत जोड़ती रह जाती है, ईंटों के घर बनाती रह जाती है मगर उसने तो बस ममता का घर बनाया और प्रेम से सजाया। आज उसके दोनों बच्चे सगों से भी ज्यादा एक दूसरे पर जान न्योछावर करते हैं।” बुआ की यह पंक्ति सुनकर मैं बुरी तरह चौंकी। उठ कर बैठ गयी और बुआ से पूछा – “ तो क्या वे सगे भाई –बहन नहीं हैं ?” मेरी बात सुनकर बुआ पहले तो अचकचा गयीं पर फिर मेरे दुबारा आग्रह करने पर उन्होंने जो कुछ बताया वह मेरी क्या, आज की भी किसी भी नारी की कल्पना से कोसों दूर की बात है।

बुआ ने कहना शुरू किया – प्रतीति एक अच्छे, ऊँचे खानदान की नाजों से पाली इकलौती बेटी थी। उनके पिताजी बहुत बड़े हीरा व्यापारी थे। पत्नी, दो बेटों और प्यारी बेटी प्रतीति के संग उनके जीवन की अच्छी बसर हो रही थी। तीनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाने में उन्होंने कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। व्यापार अच्छा चलने के कारण धन-दौलत की भी कोई कमी नहीं थी। जैसे ही प्रतीति ने कालेज में दाखिला लिया, उसके लिए एक से बढ़कर एक अच्छे रिश्ते आने लगे। परन्तु उसके पिताजी ने उसकी छोटी उम्र की बात सोचते हुए उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। एक दिन उनकी बहन यानी प्रतीति की बुआ अपने जेठ के लड़के के लिए प्रतीति का रिश्ता मांगने आई। रक्षा-बंधन के दिन आई बहन की जिद श्याम चंद जी टाल न सके। यह भी न सोचा उन्होंने कि लड़का प्रतीति के काबिल है भी या नहीं। अपने बहन-भाइयों की बात पर आँख मूँद कर विश्वास किया उन्होंने। परम्पराओं और रूढियों के चलते उन्होंने प्रतीति की उस से बात भी न होने दी। सदैव माता-पिता की आँख का तारा रही प्रतीति ने उनका स्नेह खो देने के भय से विरोध करने का भी साहस न किया। चुपचाप एक दिन डोली में बैठ कर विदा हो गई। हीरा व्यापारी श्याम चंद अपनी बेटी के जीवन के साज-श्रृंगार हेतु हीरे का चयन करने में चूक गए। उन्हें नहीं पता था कि वे अपनी बेटी की किस्मत में पत्थर लिखने वाले हैं। यह नहीं जानते थे वे कि इस बार उनके अपनों ने उनके साथ व्यापार किया था। व्यापार भी ऐसा जो धोखे से किया गया था और जिसमें एक व्यक्ति को नकली हीरा दिखा कर उसकी जन्म भर की पूंजी ठग ली गयी थी।

प्रतीति ससुराल पहुँची तो एक के बाद एक जीवन की हकीक़तों से उसका सामना हुआ। पति अव्वल दर्जे का शराबी, जुआरी था एवं परिवार उसकी ज़िम्मेदारी सँभालने को तयार ही नहीं था। दो महीने के अंतराल में ही उन्हें अलग कर दिया गया। वही बुआ जिसने उसका रिश्ता कराया था, अब उसे देख कर भी मुंह फेरने लगी। जैसे-तैसे जीवन कटने लगा। साल भर में ही परी उसकी गोद में आ गयी। उसे देख कर प्रतीति को मानो जीवन मिल गया। परन्तु परी के दो साल की होते-होते प्रतीति को अपने पति के बर्ताव में बहुत बदलाव नज़र आया। वह परी के जन्म से ही मानो कन्या-जन्म होने पर क्षुब्ध था।धीरे-धीरे उसकी बेरुखी बढ़ती गयी। वह अपने परिवारवालों से जाकर मिला। न जाने क्या सलाह हुई उनमें कि उसने विदेश जाने का मन बना लिया। घर वापिस आ कर उसने प्रतीति को कुछ बताया नहीं। कुछ दिनों बाद फिर वह गाँव जाने की बात कहकर जो निकला, तो फिर वापिस नहीं आया।

 जब यह सब प्रतीति के पिताजी को पता चला तो वे गुस्से में आग –बबूला होते हुए उसकी ससुराल पहुंचे। परन्तु वहाँ से टका सा जवाब पाकर सर थाम कर रह गए। रिश्तेदार, नातेदार सब अफ़सोस जता कर अपने अपने घर चले गए और प्रतीति के भारी क़दमों ने भी अपने घर की राह पकड़ी। हैरान रह गयी वह यह देख कर कि उसके पिताजी ने भी उसे रोका नहीं। बाद में कईओं के मुंह से सुना भी उसने कि राजा जनक कौन सा सीता को रख पाए।

जिंदगी के क्रूर मजाक से थकी हारी प्रतीति ने भी विरोध नहीं किया और सबकी खुशी के लिए चुपचाप परी को लेकर उस शहर से दूर चली आयी। दूर के रिश्ते की एक चाची की मदद से एक छोटा सा कमरा किराए पर लेकर रहने लगी अपने माता पिता और भाई बहनों की जिंदगी से दूर, ताकि उनके जीवन पर आंच न आये। हाथ –पैर नहीं जोड़े उसने, न गिडगिडाई किसी के भी आगे कि वो उसे अपने घर में रखें। पति के छोड़ जाने के बाद जब पिता ने भी यह कहकर उसे वनवास दे दिया कि सीता भी परित्यक्ता होने के बाद जंगल में जाकर रही थी, राजा जनक कौन सा उसे रख पाए, तो क्या करती वह। हाँ ! एक कतरा आंसू भी नहीं गिरा उसकी आँख से, पर भीतर ही भीतर न जाने कितना गरल पिया उसने सालों-साल। एक विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी करते हुए जीवन यापन प्रारम्भ किया उसने। वक़्त के हाथों खुशियों की मृत्यु का मातम मनाने का वक़्त नहीं था उसके पास। खैर, जीवन चल पड़ा। श्याम चंद जी आते महीने –दो महीने में, कुछ आर्थिक मदद करके चले जाते। उन्हें अपने दूसरे बच्चों की भी तो चिंता थी। साल –दो साल यूं ही निकल गए। श्याम चंद जी भी संतुष्ट थे कि चलो बड़ी बेटी की वजह से बाकी बच्चों के लिए कोई मुसीबत खड़ी नहीं हुई, समय पर उनके भी विवाह कर दिए गए। निर्वासित सा जीवन जीती हुई प्रतीति हर फ़र्ज़ बखूबी निभाती गई। भाई-बहनों की शादी में भी अपनी ओर से सब कर्तव्य पूरे किये – आर्थिक भी। अब सबका अपना अपना जीवन चल पड़ा था। वह भी रोज़ स्कूल जाती, घर आकर काम निबटाती, परी को प्रेमपूर्वक पाल रही थी। परन्तु अकेली स्त्री को यह समाज जीने थोड़ी ही न देता है। जिस प्रकार अहिल्या को इंद्र ने छला, इस प्रकार उसे सहारा देने के नाम पर, उसका जीवन साथी बनने की इच्छा का ढोंग लिए अनेक इन्द्रों ने उसके जीवन में आने का भी प्रयास किया। इन सभी तिलिस्मों, छलावों से बचते बचाते और कहीं कहीं समाज की कुंठित विचारधाराओं की शिकार होते हुए उसके मन में बहुत आक्रोश और विद्रोह भरने लगा।

यह देखते हुए कि स्त्री केवल एक वस्तु है, भोग्या है तथा समाज में आज भी उसका दर्ज़ा दोयम है, अपने जीवन के फैसले वो खुद नहीं ले सकती तथा आदिकाल से ही उसके लिए आदर्शों के प्रतिमान स्थापित कर दिए गए हैं जोकि पूर्णतया पुरुष वर्ग की सहूलियतों के अनुसार बनाये गए हैं, उसमें विद्रोह की एक चिंगारी ने जन्म लिया।

उसने देखा कि वो अकेली उपेक्षिता सा जीवन जी रही है तो समाज के तथाकथित ठेकेदारों को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इन्साफ क्या होना चाहिए, आदर्श क्या होने चाहिए। उसके जीवन की दुश्वारियों को जानते हुए भी उसके आस पास के परिवेश के पुरुष -स्त्री संवेदनहीन बने हुए थे। यह जानते हुए भी कि कहीं वह सीता की तरह परित्यक्ता थी, कहीं अहिल्या की तरह छली जा रही थी, तो कहीं द्रौपदी की तरह कुत्सित विद्रूपताओं का गरल पी रही थी। ऐसे समाज से उसे वितृष्णा हो चली थी। अब उसे ऐसा लगता था कि यदि समाज को उसके जीवन की विषमताओं से फर्क नहीं पड़ता था, तो उसे भी अब समाज की परवाह करने की कोई ज़रूरत नहीं थी।

उन्हीं दिनों, एक प्रतिष्टित पत्रिका में उसने कोलकाता की एक मशहूर फिल्म प्रोडूसर के बारे में पढ़ा जिसने लिव-इन-रिलेशनशिप के बारे में बेबाक बयान दिए हुए थे और समाज के बड़े वर्ग ने उसका उत्साहवर्धन किया था। इसके पश्चात एक और दैनिक पत्रिका में एक अमीर कुंवारी माँ के जीवन के बारे में लिखते हुए उसके बोल्ड फैसले को सही बताया गया था। इन सब चीज़ों को देखते समझते हुए वह इतना तो जान गयी थी कि समाज और उसकी परम्पराएं अमीर वर्ग के पैरों की जूतियाँ हैं। पॉवर में रहने वाला व्यक्ति समाज को अपने अनुसार मोड़ सकता है तथा समाज के अपने कोई नियत, ठोस प्रतिमान नहीं हैं। यहाँ केवल चढ़ते सूरज को सलाम किया जाता है तथा मसीहा भी यहाँ सूली पर चढ़ाये जाते हैं। सीता का उदाहरण उसके सामने था।

इन सब चीज़ों को देखते, पढ़ते, सुनते, समझते तथा रिश्तों को जानते हुए वह इतना तो समझ गई थी कि उसे भी अब समाज और दूसरों की अत्यधिक परवाह करने की आवश्यकता नहीं है। एक दिन बैठ कर उसने अपने जीवन के सपनों के बारे में लिखा। अन्य सपने तो ठीक परन्तु न जाने क्यों उस अवस्था में, एक ही सपना उस पर और सब इच्छाओं पर भारी पड़ रहा था। वह था दोबारा माँ बनने का सपना, अपना परिवार पूरा करने का सपना, परी को भाई या बहन के रूप में एक मज़बूत खून का रिश्ता इस दुनिया में देने का सपना। इस सपने को पूरा करने में अड़चन यह थी कि वह दोबारा विवाह नहीं करना चाहती थी, किसी छल, तिलिस्म में फंसना नहीं चाहती थी। पुरुष वर्ग से इतनी नफरत हो गई थी उसे कि वह किसी पुरुष को नज़दीक भी नहीं आने देना चाहती थी। परन्तु माँ बनना चाहती थी। बड़ी विषमता थी इसमें। परन्तु पढ़ा था उसने कि स्त्री अंडाणु तथा पुरुष बीज डोनेट कर सकते हैं तथा वह मेडिकल प्रक्रिया द्वारा किसी स्वस्थ बीज को धारण कर बिना किसी पुरुष के संपर्क में आये माँ बन सकती थी।बहुत दमित किया उसने इस इच्छा को, पता था बहुत क्रांतिकारी और असंभव सी सोच है,, वक़्त से बहुत आगे, कम से कम उसके समाज के लिए तो बहुत ही विस्मयपूर्ण व क्रांतिकारी,,, परन्तु यह सोच दबी नहीं।

कभी उसके सपने में कुंती आती जिसने सूर्य का वीर्य धारण कर कर्ण को जन्म दिया था। उसे लगा कि उसकी यह सोच भी वक़्त से आगे थोड़े ही न है, यह सब भी तो बहुत पहले हो चुका है,,, इसी समाज में।

और तब उसने फैसला किया अपनी डॉक्टर से बात करने का। अब तक उसने अपनी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ कर ली थी। शिक्षण कार्य करते करते प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा उत्तीर्ण कर अब वह उच्च पद पर थी। अपना व बच्चों का जीवन यापन सहज कर सकती थी। तब सम्पूर्ण रूप से आत्म निर्भर उस उपेक्षित लड़की ने यह कदम उठाया और युवराज का उनके जीवन में पदार्पण हुआ। समाज की अब उसे कोई परवाह नहीं थी। वही समाज अब उसका हित चिन्तक बन कर उसके आगे पीछे डोल रहा था। पर वह अविचलित, निर्लिप्त अपनी राह पर बढ़ चुकी थी,, अपने और परी के भविष्य को संवारने,, अपने स्त्रीत्व को पूर्णता देने,,, अपने सपनों को पंख देने,, अपने जीवन को दिशा देने।

निखा कुमार

लेखिका व कवयित्री , Belles Lettres, साहित्यिक संस्था की निदेशिका , एक काव्य-संग्रह "समंदर की चाह में" हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित, दो अन्य काव्य-संग्रह व एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन

संपर्क:
664, खोलिया निवास,
रतपुर कॉलोनी,
पिन्जोर, पंचकुला,
हरियाणा
ईमेल: angel_nn21@yahoo.it

प्रतिरोध भी हुए परन्तु तमाम प्रतिरोधों को ताक पर रख कर उन्होंने अपना जीवन सौम्यता व दृढ़ता से निभाया। कुछ परेशानी होती थी जहाँ युवराज के स्कूल के कागजात आदि में पिता का नाम लिखवाना होता था, परन्तु कानूनी सहायता से वे उस कालम रूपी चट्टान से भी पार निकल जाती थी।

बच्चों ने कभी उनसे पिता के बारे में नहीं पूछा, बल्कि वे जानते ही नहीं थे कि पिता क्या होता है। नए समाज के नयी सोच रखने वाले बच्चे जब सब समझने लायक हुए तो प्रतीति ने उन्हें सब कुछ साफ़ बता दिया। अपनी माँ से मिले बेहद प्रेम के कारण बेहद सकारात्मक, ऊर्जावान तथा जीवन के प्रति गहन आशावादी बच्चे - परी और युवराज अपनी माँ के बेहद आभारी थे – उन्हें स्वस्थ, खुशहाल तथा अर्थपूर्ण जीवन देने के लिए। हाँ ! वे जानते थे सही मायनों में कि जीवन का अर्थ क्या है – अपने वक़्त का निर्माण खुद करना और चलना वक़्त से आगे !!
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