कहानी — जीरो लाइन — ईशमधु तलवार | Ish Madhu Talwar — Kahani


सीमा पर भी जवानों की एक ज़िन्दगी होती होगी, वो जवान चाहे भारत कर हो या पाकिस्तान का. दो पड़ोसी मुल्कों के असली पड़ोसी यही-दोनों होते हैं. राजनितिक कारणों के चलते सीमा पर जब तनाव बढ़ता है तो इनके संबंधों का क्या होता होगा? क्या सामान्य हालात में ये दोस्त नहीं होते होंगे. ईशमधु तलवार की कहानी  'जीरो लाइन' इन्ही संबंधों को इन्सानी नज़रिए से देखते हुए, लिखी गयी एक संवेदनशील कथा है.   —  भरत तिवारी

 कहानी — जीरो लाइन — ईशमधु तलवार | Ish Madhu Talwar —  Kahani #shabdankan

जीरो लाइन

— ईशमधु तलवार



सीमा सुरक्षा बल का जवान नत्थू राम जब लम्बी छुट्टी पर गांव आया तो जैसे घर के छान-छप्पर भी खुश हो उठे। बाबा नागार्जुन की कविता की तरह ‘सूने घर में आई खुशियां कई दिनों के बाद।’ पूरे घर में उमंग का माहौल था। चिड़ियाओं की तरह खुशियां पूरे आंगन में इधर से उधर फुदक रही थीं। बच्चे चहक रहे थे। बूढ़ी आंखों में आज चमक दिखाई दे रही थी। सन्तो दौड़-दौड़ कर घर का काम कर रही थी।

नत्थू राम जब छुट्टियों में आता था तो सभी के लिए कुछ ना कुछ सामान खरीद कर लाता था। बच्चों के कपड़े, बूढ़े मां-बाप के लिए उम्दा तम्बाकू, धोत्ती, लूगड़ी, पत्नी सन्तो के लिए साड़ी। सन्तो के लिए वह बिंदी, टिक्की, क्रीम जैसी सौन्दर्य प्रसाधन की चीजें लाना भी नहीं भूलता था।

गांव की महिलाओं का कहना था कि जब से नत्थूराम फौज में भर्ती हुआ है, तब से सन्तो का रंग रूप बदल गया है। सन्ता ने जैसे सांप की तरह केंचुली बदल ली और उसका नया रूप निखर कर सामने आया। पहले वह हरा घाघरा और पीली लूगड़ी पहनती थी। अब साड़ी-ब्लाउज पहनती है, लिपिस्टिक लगाती है, पैरों में रंग-बिरंगी चप्पलें होती हैं, इसलिए गांव की दूसरी महिलाओं से अब वह अलग नज़र आती है। कुएं पर पानी भरने भी जाती है तो पनघट पर महिलाएं उसे छेड़ती हैं, उसकी तारीफ भी करती हैं। कोई कहती — ‘‘सन्तो कू देखो, कैसे फूल के गोल गप्पा हो री है।“ सन्तो शर्मा जाती।

नत्थू की छुट्टी का पहला दिन था। उसके पास तीन-चार बीघा जमीन का टुकड़ा था, जिसमें सरसों अच्छी हो जाती तो घर में जैसे समृद्धि आ जाती थी। पूस का महीना चल रहा था, इसलिए नत्थू को लगा, इन दिनों तो खेत में सरसों लहलहा रही होगी। जमीन के कुछ हिस्से में चने भी बो रखे थे। चने की फसल भी अच्छी हो जाती तो घर में एक और सहारा लग जाता था।

नत्थू अपने पिता को काका कहता था। नत्थू ने उनसे पूछा — ‘काका, अब के फसल कैसी है‘?

काका ने कहा — ‘फसल जोरदार हुई है। सिरसू में फूल भी आ गया हैं, पण नील गाय फसल कू रहबा देगी जब है। रात कू रोजड़ा (नील गाय) आ जायें। चना खा जाएं। सिरसू कू खाएं कम हैं और उजाड़ें ज्यादा हैं। या मारे रात कू मैं रोज रखवाली पे जाऊं।‘‘

नत्थू के दो बच्चे थे — दस साल का कन्हैया और बारह साल की संतरा। दोनों स्कूल में पढ़ रहे थे। नत्थू उनके लिए कपड़े लाया था और दोनों बच्चे उन्हें पहन कर घर से बाहर चले गए थे — अपने संगी-साथियों को नए कपड़े दिखाने। नत्थू की मां रात की ब्यालू तैयार करने में जुट गई थी। वैसे रोज सन्तो ही खाना बनाती थी, लेकिन आज बेटे को अपने हाथ का खाना खिलाने के लिए मां ने चैका-चूल्हा संभाल लिया था। मिट्टी से लीप-पोत कर बनाए गये चूल्हे पर खाना बन रहा था। मां मिट्टी के तवे पर बेजड़ (जौ-चने) की रोटी सेक रही थी। नत्थू बोला — ‘आज कई दिन बाद मिट्टी का तवा की रोटी खाबा कू मिलेगी। या रोटी की खुशबू ही अलग है।‘ सन्तो सिलबट्टे पर लहसन की चटनी पीस रही थी।

रात को नत्थू ने काका के साथ बैठ कर ब्यालू की। बहुत दिनों बाद ब्यालू में खाने को राबड़ी मिली थी। ऊपर से लहसन की चटनी और मिर्च के टपोरों ने खाने का स्वाद बढ़ा दिया था। खाना खा कर नत्थू ने एक लंबी डकार ली और बोला — ‘बहुत दिनों बाद धाप कर खाना खाया है।’ ब्यालू के बाद काका खेत पर रखवाली के लिए चला गया। नत्थू ने ओवर कोट पहना और गांव में घूमने निकल गया। पुराने मित्रों से मिला। सभी मित्र दगड़े में कोऊ (अलाव) तापते हुए मिल गये। उनके साथ गपशप की। नत्थू के पुरानें साथी उससे बॉर्डर की नौकरी के बारे में पूछते रहे। कैसे रहता है, कैसे खाता है, क्या करता है आदि-आदि कई तरह के उत्सुकता भरे सवाल करते रहे। सब उसके ओवर कोट की तारीफ कर रहे थे। कोट को हाथ लगा कर पूछते — ‘या में जाड़ो नांय लागतो होयगो?’ नत्थू मित्रों के जवाब देता रहा। सबसे उसने घर की कुशल क्षेम पूछी। बाद में घर आ कर सो गया।

रात काफी हो गई थी। नत्थू को नींद नहीं आ रही थी। बीएसएफ में उसकी नौकरी ही ऐसी थी। रात को बॉर्डर पर ड्यूटी देनी पड़ती थी और दिन में सोना पड़ता था। शरीर को ऐसी ही आदत पड़ चुकी थी। उसने एक बार फिर पास सो रही सन्तो को जगाने के लिए उसकी बाजू पकड़ कर हिलाई। सन्तो नींद में थी। वह बोली — ‘कितनी बार तो जाग चुकी हूं। बार-बार नहीं जागा जाता। अब रहने भी दो। सो जाओ।’ नत्थू ने सोने की कोशिश की, लेकिन उसे नींद नहीं आई। वह छपरे की आगल खोल कर बाहर बाखल में आ गया। बाहर तेज हवा चल रही थी। कड़ाके की ठंड़ पड़ रही थी। पास के छपरों में सब सो रहे थे। बाहर उसके साथ कोई था तो सांय सांय करती हवा। उसने आसमान में हिरणी (एक पंक्ति में तीन तारे) देख कर समय का अंदाज़ लगाया — शायद यह तीसरा पहर है। वह वापस अंदर आ गया और सोने की कोशिश करने लगा। वह बॉर्डर के अपने मित्रों के बारे में सोचने लगा। हनीफ, असलम और सूरज की यादों में खो गया। वह लम्बी यात्रा कर के आया था। थका हुआ तो था ही। भोर होने से पहले वह नींद के आगोश में चला गया।

अगले दिन नत्थू ने जम कर नींद निकाली। पिछली रात वह ठीक से सो नहीं पाया था। वैसे भी उसे दिन में ही सोने की आदत थी। सुबह कलेवा करते ही सो गया। दोपहर चढ़ने लगी थी। नत्थू की मां ने सन्तो से कहा — ‘भोत देर हो गई, नत्थू कू अब तो उठा दे। कब तक सोयेगो।‘ सन्तो ने उन्हें यह कह कर समझा दिया — ‘‘कल लम्बा सफर कर के यहां पहुंचा हैं। थक गया होएंगा। कोई बात नांय, थकान मिटा ले बादो। वैसे भी इनकू वहां दिन में सोबा की टेव है।‘‘ अपनी आदत के मुताबिक नत्थू शाम को लगभग 4 बजे उठा। तब तक ब्यालू के लिए सन्तो ने चूल्हे-चौके की तैयारी शुरू कर दी थी। बच्चे स्कूल से आ कर बाहर खेलने चले गए थे। वह बाहर बाखल में आ कर बैठ गया, जहां काका बैठा हुआ था। काका ने कहा — ‘‘कल रात खेत पर मुझे शायद ठंड़ लग गई। जुकाम हो रही है। आज खेत की रखवाली पे तू चली जाजो। भोंटिया कू भी साथ ले जाजो। दोनूं बारी-बारी सू पहरो दे लीजो। सोबा के लिए वहां डहलो रखो है।‘‘

‘‘ठीक है, आज हम चला जाएंगा।‘‘ — नत्थू ने कहा।

रात को ब्यालू कर के दोनो बच्चे दादी के साथ जा कर सो गए। नत्थू और सन्तो खेत पर चले गए। खेत पर एक कीकर के पेड़ के पास डहला (बड़ी खाट) भी रखा था। डहले के चारों पायों पर डंडे लगा के ऊपर एक छोटा सा छप्पर भी ताना हुआ था, ताकि बारिश, धूप और सर्दी में पड़ने वाली ओस से बचा जा सके। डहले पर बिस्तर भी रखा था और ओढ़ने के लिए सोढ़ (रजाई) भी थी। चारों तरफ घटाटोप अंधकार था। ऊपर आसमान में तारे खिल रहे थे। कभी झिंगुरों की तो कभी टिटहरी की आवाज सुनाई दे जाती थी। बीच-बीच में गीदड़ों के झुंड़ भी अपने सुर-ताल मिला लेते थे।


रात गहराने लगी थी। सर्दी से नत्थू की कंपकंपी छूट रही थी। सन्तो डहले पर सोढ़ ओढ़ के सो रही थी। नत्थू चारों तरफ खेत पर नजर मार लेता था, कहीं नील गाय तो नहीं आ गई। खेत के चक्कर भी लगा आता था। फलती-फूलती सरसों को देख कर वह खुश था। खाने के लिए चने की टाट भी तोड़ लाया था। नत्थू दो बार डहले पर जा कर आ चुका था। वह एक बार फिर डहले पर गया। सन्तो की बाजू पकड़ कर उसे हिलाया। सन्तो कसमसाई — ‘‘बहुत हो गया जी। अब तो बॉर्डर पर शांति कर दो।‘‘

‘‘अच्छा चलो, शांति कर दी।‘‘ — नत्थू ने कहा और डहले से नीचे उतर कर आ गया। ठंड़ से जिस्म ठिठुरने लगा था। उसने ओवर कोट पहना और पास से लकड़ी इकट्ठी कर के ले आया। उनमें आग लगा दी। फिर वह डहले के पास गया। और सन्तो को हिलाया। सन्तो बोली — ‘क्या है ?

‘ नत्थू ने कहा — ‘उठ जा। बॉर्डर पर हलचल हो रही है।‘

‘अब सोने भी दो।‘

‘अरे, मैंने अलाव जला लिया है। आजा, आग तपेंगे और बात करेंगे। जब से आया हूं अपनी बातें तो हुई ही नहीं।‘‘

सन्तो उठकर नीचे आ गई और आग के पास बैठ गई। आग में हाथ तापते हुए सन्तो बोली — ‘तुम्हारी वहां बोडर पे ड्यूटी कैसे होवे?‘

‘बताता हूं। बॉर्डर पे भी आजकल बहुत तेज ठंड़ पड़ रही है। हमें ओवर कोट के अलावा रात को ड्यूटी पर केवल एक कंबल मिलता है। हम कंबल को तह कर के नीचे रेत पर बिछाते हैं और उसके ऊपर बैठ जाते हैं। सुबह जब उठते हैं तो इतनी ओस पड़ चुकी होती है कि कंबल को निचोड़ना पड़ता है। उसमें से पानी निकलता है।‘


‘‘अच्छोssss!‘‘ — सन्तो आंखें चौड़ी कर के बोली। उसने पूछा — ‘‘तुम एक बर बतारा हागा अक बोडर के इतकू हिन्दुस्तान है और उतकू पाकिस्तान । या बोडर कैसो होय ?‘‘

‘‘तू नूं समझ ले कि बॉर्डर माटी की एक कच्ची सड़क होवे। या कू जीरो लाइन खेवें। जीरो लाइन के उधर पाकिस्तान वाला ड्यूटी देवें और इधर हिन्दुस्तान वाला। याकू नो मेन्स लैंड भी खेवें।”

‘या कांई होवे?’

‘याको मतलब है कि जमीन की या पट्टी कोई की भी ना है, ना हिंदुस्तान की और ना पाकिस्तान की।’

इस बीच नत्थू खेत से जो टाट (चने के हरे छोले) तोड़ कर लाया था, वो उसने सन्तो को दे दिए। सन्तो मूंगफली की तरह छील कर अन्दर से हरे छोले निकालती और नत्थू को खाने के लिए उसकी मुट्ठी में दे देती। दोनों छोले खाते रहे, आग तपते रहे और बातचीत करते रहे। सन्तो ने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कहा — ‘‘तो तुम कू बोडर पे पाकिस्तान वालान सू डर नांय लगे ?‘‘

‘‘लोग बाग और हमारा अफसर तो यही सोचें कि हम एक दूसरा के सामने बंदूक लेके भिड़बा कू तैयार खड़ा हैं। हकीकत तो या है कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का जवान खूब मिल बैठ के साथ खानो खावें, खूब बतलावें। तोकू एक बार की बात बताऊं”। नत्थू ने सन्तो को किस्सा सुनाना शुरू किया और पूरा घटनाक्रम उसके दिमाग में घूम गया। बॉर्डर के दृश्य चलचित्र की तरह दिमाग में चलने लगे।


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दिसम्बर में कड़ाके की ठंड़ पड़ रही थी। हाड़ कंपा देने वाली ठंड़ थी। बीएसएफ के जवान ओवर कोट पहने और हाथ में कंबल लटकाए बॉर्डर पर आ डटे। सामने भी पाक रेंजरों की काली परछाइयां नजर आ रही थीं। इधर से नत्थू राम ने सामने खड़ी सलवार-कुर्ते वाली एक छाया से कहा — ‘आज तो सर्दी बहुत जोर की पड़ रही है।‘‘ नत्थू राम सर्दी में ठिठुर रहा था।

उधर से आवाज आई — ‘हां, आज तो ठंड़ कहर बरपा रही है।‘


‘तो फिर आग जला लो ना। कैम्प फायर कर लेते हैं।‘

‘आ जाओ, इधर आ जाओ।‘

‘तुम इधर आ जाओ ना। बात करेंगे। रात भी कट जाएगी।‘

‘चलो, जीरो लाइन पर कैम्प फायर कर लेते हैं। ना तुम्हारी, ना हमारी।‘

‘ठीक है, आ जाओ।‘


दोनों सैनिकों ने अपनी-अपनी जमीन से लकड़ी और झाड़-झंखाड़ इकट्ठा किया और उन्हें ले कर जीरो लाइन पर आ गए। नत्थू राम ने उससे पूछा — ‘क्या नाम है तुम्हारा ?‘


‘हनीफ।‘ उसने बताया।


नत्थू राम ने कहा — ‘‘हनीफ भाई, जीरो लाइन पर तो आग जलाना ठीक नहीं रहेगा। सुबह आपके और हमारे लोग यहां गश्त भी करते हैं। वे कैम्प फायर के निशान देखेंगे तो अच्छा नहीं लगेगा। ऐसा करते हैं, आज इधर हिन्दुस्तान में कैम्प फायर कर लेते हैं। कल उधर, पाकिस्तान में कैम्प फायर कर लेंगे।

‘‘चंगा है जी, ऐस्तरां कर लेन्दे आं।‘‘ हनीफ बोला।


‘‘पंजाबी हो ? कहां के हो ?‘‘


‘‘मुल्तान का हूं जी। और तुसी कित्थों दे ?‘‘


‘‘मैं राजस्थान में ही अलवर जिले का रहने वाला हूं।‘‘


दोनो जवान अपनी इकट्ठी की हुई लकड़ियों को जीरो लाइन के पास हिन्दुस्तान की जमीन पर ले आए। नत्थू राम ने हनीफ से पूछा — ‘‘इनमें पाकिस्तान की लकड़ी कौनसी है ?‘‘


‘‘अब तो दोनों लकड़ियां मिल गईं, अब कैसे पता चलेगा। मैं तो खेजड़ी की लकड़ियां लाया था। और आप ?‘‘


‘‘मैं भी खेजड़ी की ही लाया था। अब खेजड़ी तो दोनों तरफ एक जैसी ही होती है न ?‘‘


हनीफ ने मजाक किया — ‘अब बताओ ये लकड़ियां हिन्दुस्तान की माचिस से जलाएं या पाकिस्तान की माचिस से ?‘‘


‘‘किसी से भी जला लो यार। माचिस कहीं की भी हो, काम तो आग लगाने का ही करती है।‘‘


‘तो चलो माचिस पाकिस्तान की, आग आप लगाओ।‘ — हनीफ ने नत्थू राम को अपनी माचिस देते हुए कहा।


नत्थू ने लकड़ियों पर कुछ सूखी टहनियां रखी और आग जला दी। दोनों जवानों ने जब कैम्प फायर शुरू किया तो आग की लपटें ऊपर तक उठने लगीं। तभी पाक सीमा की तरफ से एक आवाज आई — ‘क्या हो रहा है जी ?‘

हनीफ पहचान गया। यह असलम की आवाज़ थी। हनीफ ने कहा — ‘ओ तेन्नू भी सर्दी लगी होंणी ऐ। ऐत्थे आ जा।‘ ठिठुरता-ठिठुरता असलम भी वहां आ गया और आग के पास खड़े हो कर दोनों हाथों को तापने लगा। इस बीच थोड़ी दूरी पर हिन्दुस्तान की सीमा पर ड्यूटी दे रहा सूरज प्रताप सिंह भी खरामा-खरामा आग की तरफ खिचता चला आया।

कैम्प फायर के इर्द गिर्द चारों ने जमीन पर अपने-अपने तह किए हुए कम्बल रखे और उन पर बैठ गए। आपस में परिचय किया। सूरज प्रताप सिंह बिहार का था। असलम लाहौर का रहने वाला था। आग के साथ ही रिश्तों की गरमाहट भी बढ़ने लगी थी। नत्थू राम ने कहा — ‘आज तो अपन हिन्दुस्तान में आग ताप रहे हैं, कल उधर, पाकिस्तान में कैम्प फायर करेंगे। दोनों धरती हमारी हैं।

‘‘असलम ने कहा — ‘सही बात है। ऊपर आसमान भी सारा हमारा है। हमें तो जिन्दगी भर इस आसमान के नीचे ही ड्यूटी देनी है।‘


सूरज प्रताप सिंह ने असलम की बात की ताईद करते हुए कहा — ‘आसमान तो इनसे बंट नहीं सकता। जमीन पर जोर चलता है इसलिए इसे बांट दिया।‘

हनीफ ने कहा — ‘मुझे इस मसले पर किसी शायर का एक शे’र याद आ गया।’ हनीफ ने शे’र सुनाया —

वो बेवकूफ जमीं बांट कर बहुत खुश हैं/ हमारे सर पे तो अभी आसमान बाकी है Zero Line — Ish Madhu Talwar

‘वो बेवकूफ जमीं बांट कर बहुत खुश हैं,

हमारे सर पे तो अभी आसमान बाकी है।’

सबने एक साथ कहा — “वाह, वाह!”

नत्थू राम ने कहा — ‘बहुत उम्दा शे’र सुनाया हनीफ भाई। शायर ने जैसे हमारे मन की बात कह दी है।’

एक बड़ी लकड़ी का कोयला जल कर अलग हुआ तो उसका पीछे का हिस्सा आग के घेरे से बाहर आ गया। नत्थू राम ने इस अधजली लकड़ी को उठाया और बीच में डाल दिया। आग की लपटें फिर ऊपर उठीं तो सभी ने एक दूसरे का चेहरा एक बार फिर ध्यान से देखा।


चारों सैनिकों का गपशप का दौर कई घंटों तक चला। इस दौरान सियासी बातों का कोई जिक्र नहीं आया। सबने अपने सुख-दुख की बात की। मुल्क अलग-अलग थे, लेकिन सुख-दुख एक जैसे थे। सूरज प्रताप सिंह को अपनी बेटी की शादी की चिन्ता थी तो असलम को भी यही फिक्र खाए जा रही थी। नत्थूराम की परेशानी थी कि दो दिन से उसके गांव में मोबाइल नेटवर्क नहीं मिल रहा था और घर पर बात नहीं हो पा रही थी। हनीफ अपनी बीमार मां के इलाज के लिए फिक्रमन्द था। मां अस्पताल में भर्ती थी, लेकिन उसे छुट्टी नहीं मिल पा रही थी।


आग तापते हुए असलम ने कहा — ‘कल मैं एक भेड़ ले कर आऊंगा, जिसे कैम्प फायर के साथ ही पकाएंगे। खाना साथ खाएंगे।‘


तड़के भोर फूटने से पहले ही जब यह चौकड़ी उठी तो सबने नीचे तह कर के जमीन पर बिछाए गए अपने-अपने कंबल संभाले। कंबल ओस से भारी हो गए थे। सबने अपने-अपने कंबल निचोडे़ और उनका पानी निकाला। कंबलों की रोज यही हालत होती थी।

दिन में सब अपने-अपने टेन्टों के दड़बे में जा कर सो गए। शाम को उठे तो सबको रात की पार्टी का इन्तजार था। खौफ पैदा करने वाले बॉर्डर पर जैसे खुशबूदार फूल खिल आए थे। शाम को नत्थू राम और सूरज प्रताप सिंह बॉर्डर पर पहुंचे तो उस पार से गोश्त के मसालों की महक जीरो लाइन को क्रास कर इधर तक आ रही थी। यह वो जगह थी जहां पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में बनने वाले खाने की खुशबू एक दूसरे को आ जाती थी। आज पाकिस्तान की धरती पर कैम्प फायर चल रहा था।

नत्थू और सूरज प्रताप सिंह ने जीरो लाइन पर दो डग भरे और उधर पाकिस्तान पहुंच गए। नत्थू राम आती बार मैस से बेजड़ और बाजरे की रोटी पैक करा लाया था। सूरज प्रताप सिंह अपनी बगल में रम की एक बोतल दबा कर ले आया था। सब ने अपने-अपने कम्बल तह कर के नीचे बिछाये और आग के इर्द-गिर्द बैठ गए। असलम गोश्त पका रहा था। वह अपने साथ गोश्त के लिए प्याले भी ले आया था। सबने पहले प्याले में ही रम के पैग बनाए। ईंट रख कर बनाए गए चूल्हे पर गोश्त पक रहा था। हनीफ बीच-बीच में बोटी का कोई टुकड़ा निकालता और बारी-बारी से सब को चखने के लिए दे देता। ड्रिंक के साथ यह बोटी स्नेक्स का काम कर रही थी। इस बीच हनीफ ने खुश खबरी सुनाई कि उसे दस दिन की छुट्टी मिल गई है और वह कल चला जाएगा।


असलम ने कहा — ‘‘छुट्टियों में घर जाना बहुत मज़ेदार होता है, लेकिन बस एक ही दिक्कत होती है। रात को नींद नहीं आती।‘‘


नत्थू ने कहा — ‘हां, यार यह बात तो है।‘


हनीफ कह रहा था — “छुट्टियों में जाओ तो घर वाले इस बात से परेशान हो जाते हैं कि हमें रात को नींद नहीं आती। इस बार तो मैं अम्मी जान की सेवा में रात को ही अस्पताल में रहूंगा और दिन में घर जा कर सोऊंगा।“


सब की यही समस्या थी। दुनिया दिन में जागती है और रात को सोती है। बॉर्डर पर ड्यूटी देने वाले रात को जागते हैं और दिन में सोते हैं। तमाम उम्र यही दिनचर्या रहती है। सूरज प्रताप सिंह ने बताया — ‘मेरे चाचा का लड़का ड़िफेन्स मिनिस्ट्री में है। मैंने एक बार उससे कहा था कि मेरी कहीं ऐसी जगह पोस्टिंग करा दो जहां रात को नहीं जागना पड़े। उसने सभी अफसरों से पूछताछ कर के बताया कि बीएसएफ के जवान के लिए रिटायरमेन्ट तक कहीं कोई ऐसी पोस्ट नहीं है, जिसमें रात को नहीं जागना पड़े।‘


नत्थूराम के अंदर से अब रम बोलने लगी थी। उसने कहा — ‘हम तो उल्लू हैं। उल्लू की तरह रात को जागते हैं और दिन में सोते हैं। हम उल्लू और हमारे बच्चे उल्लू के पट्ठे।‘ असलम अभी होश में था। उसने कहा — ‘नहीं भाई, ऐसी बात मत करो। हम भी आपकी तरह उल्लू ही हैं, लेकिन यह तो देखो कि हम अपने-अपने मुल्क की सेवा के लिए उल्लू बने हैं। मुल्क के लिए तो कुछ भी बनने को तैयार रहना चाहिए। उल्लू भी बन गए तो क्या हुआ।‘‘


‘‘हां, यार। तू बात तो ठीक कह रहा है।‘‘ — नत्थू को जैसे होश आया। जीरो लाइन को इधर से उधर क्रास करते हुए मोहब्बत नजदीक आती जा रही थी।


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इस बीच खेत से पौधों की सरसराहट की आवाज़ आई। सन्तो ने कहा — ‘अरे देखो, कोई नील गाय तो नांय आ गई ?‘ नत्थू हाथ में लाठी ले कर तेजी से भागा। वह खेत का एक पूरा चक्कर लगा आया, लेकिन नील गाय कहीं दिखाई नहीं दी।


इस बीच अलाव की आग ठंडी पड़ने लगी थी। सन्तो ने उसमें कुछ लकड़ी के टुकड़े और डाले जिन्होंने जल्दी ही आग पकड़ ली। नत्थू ने आ कर बताया — ‘पतो नांय कितकू चली गई। नीलगाय कहीं दिखी नांय।‘‘

‘‘कही भाग गई होगी। जाड़ो भोत तेज पड़ रो है। आ जाओ, आग ताप लो।‘‘ — सन्तो ने कहा।

नत्थू आग के पास आ कर बैठ गया और पूछा — ‘‘हां, तो मैं क्या बता रहा था ?‘‘


‘‘आप उल्लू के पट्ठे की बात बता रहे थे।‘‘ — सन्तो जोर से हंसी। साथ ही सन्तो ने कहा — ‘अब सारी नौकरी तुम कू ऐसे ही करनी पडेगी। रात कू जागो, दिन में सोवो।‘

‘‘हां। ऐसे ही। देश की सेवा ऐसे ही करनी पड़े।‘‘ — नत्थू ने कहा।


नत्थू ने फिर अपना किस्सा आगे बढ़ाया। सन्तो को नत्थू की बातों में मजा आ रहा था। नत्थू फिर बॉर्डर पर पहुंच गया। उसकी आंखो में बॉर्डर की रातें जगमगाने लगीं।


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सन्तो को नत्थू की बातों में मजा आ रहा था। नत्थू फिर बॉर्डर पर पहुंच गया। उसकी आंखो में बॉर्डर की रातें जगमगाने लगीं Zero Line — Ish Madhu Talwar

जीरो लाइन पर दुश्मन देशों के बीच दोस्ती का एक नया खेल चल रहा था। महीने में दो-चार बार साथ बैठ कर खाने-पीने का दौर चल ही जाता था। शुरू में जो लोग बंदूक लिए आंखों से ही एक-दूसरे को घूर-घूर कर देखते थे वे अब दिलों में झांकने लगे थे।


जीरो लाइन के उस पार पाक सीमा पर इन दिनों हनीफ नजर नहीं आता था और वहां किसी और की ड्यूटी लग गई थी।


नत्थू रोज की तरह कम्बल के ऊपर बैठ कर रात को ड्यूटी दे रहा था। दूर तक गहरा अंधकार फैला था और कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। नीचे रेत भी बर्फ की तरह ठंडी हो गई थी, जिस पर कम्बल बिछा था। उसे पाक सीमा पर उस पार से एक आदमी जीरो लाइन की ओर बढ़ता दिखाई दिया। वह जीरो लाइन के पास आ कर खड़ा हो गया। नत्थू ने अपनी बंदूक संभाली और जोर से आवाज दे कर पूछा — ‘कौण है ?‘


उधर से आवाज़ आई — ‘सुलेमान रेंजर।‘


‘हनीफ भाई के क्या हाल हैं ?‘


‘हनीफ की आज तबीयत खराब थी, इसलिए नहीं आया।‘

नत्थू समझ गया कि यह झूठ बोल रहा है और यह रेंजर नहीं है। बोर्डर पर पहरा दे रहे बीएसएफ के सभी जवान कुछ दूरी के अन्तर से एक कतार में बैठे थे और एक रस्सी सब के पास से गुजरती थी जिसे सब दोनों हाथों से पकड़ कर बैठते थे। जिस हाथ की रस्सी हिलती, उधर खतरे का संकेत होता था। एक तरफ से रस्सी हिलने का संकेत पा कर जवान अपने से आगे वाले जवान को रस्सी हिला कर सतर्क कर देता था और यह प्रक्रिया आगे ‘पास ऑन’ होती जाती थी।


नत्थू ने कहा — ‘आजा सुलेमान भाई आग जला लेते हैं। बहुत तेज सर्दी पड़ रही है।‘‘ इसके साथ ही नत्थू ने दोनों हाथों की तरफ की रस्सी झटके दे दे कर हिला दी। दोनों तरफ से जवान नत्थू की ओर बढ़ने शुरू हुए। इधर, सुलेमान जीरो लाइन क्रॉस कर के हिन्दुस्तान की सीमा में आ चुका था। उसके सामने आते ही नत्थू ने बंदूक तानी और दहाड़ा — ‘‘हैण्ड्स अप। दोनों हाथ ऊपर कर ले।‘‘ तब तक दोनों ओर से बीएसएफ के जवान आ कर इकट्ठे हो गए थे। नत्थू ने कहा — ‘‘अपनी बंदूक नीचे फेंक दे वर्ना यहां से जिंदा वापस नहीं जाएगा। चालाकी मत करना।“ इस बीच बीएसएफ के जवानों ने दो हवाई फायर किए। वह डर गया और उसने अपने कंधे पर लटकी बंदूक उतार कर सामने फेंक दी।

इस बीच बीएसएफ के जवानों ने उसे दबोच लिया। उसकी तलाशी ली तो उसकी पीठ पर लटके थेले में कोई एक किलो अफीम निकली। चार-पांच जवान कथित सुलेमान को अपने साथ ले कर वहां से रवाना हो गए। नत्थू सोच रहा था कि अगर हनीफ से दोस्ती नहीं होती तो आज यह अफीम तस्कर पकड़ में नहीं आता। हनीफ के बारे में गलत सूचना देने पर ही वह शिकंजे में आ गया।

सन्तो बोली — ‘‘अच्छो या काम भी होवे वहां। मोकू तो वा बात जोर की लगी अक तुम पहरा देबा कैसे रस्सी पकड़ के बैठो। हमकू तो ये सब बात पतो ई ना हैं। और कांई होय बोडर पे।“

‘‘फिर बोर्डर पे या हुओ ......।‘‘ नत्थू फिर अपनी बॉर्डर की यादें ताजा करने लगा।


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नत्थू राम रोज की तरह एक दिन बॉर्डर की ड्यूटी पर गया तो उस रोज हनीफ भी ड्यूटी पर आ गया था। हनीफ जीरो लाइन के पास आया और आवाज़ दी — ‘नत्थू भाई।‘ नत्थू भी जीरो लाइन के नजदीक आ गया।

नत्थू ने पूछा — ‘ छुट्टी से कब आए ?‘

‘आज ही छुट्टी से लौट कर आया हूं।‘


‘अम्मी जान कैसी हैं ?‘

‘‘ठीक हैं अब। अस्पताल से छुट्टी मिल गई।‘‘

‘‘चलो खुदा का फ़ज़ल है।‘‘ — नत्थू ने कहा।

‘‘आ जाओ। आज पार्टी जमाते हैं। बहुत दिन हो गए। सूरज भाई को भी बुला लो। मैं असलम को बोल देता हूं।‘‘

‘‘ठीक है।‘‘

इसके साथ ही बहुत दिनों बाद जीरो लाइन के उस पार पाकिस्तान में महफिल जम गई। ऊपर खुला आकाश। अंधेरे में दूर तक कहीं-कहीं दिखती काली झाड़ियां। सर्दी कम होने का नाम नहीं ले रही थी। कैम्प फायर कर के चारों दोस्त अपने-अपने कंबलों पर बैठ गए।

हनीफ रम की बोतल साथ लाया था। साथ में खाने का टिफिन भी लाया था और आम भी। सब ने अपने पैग बनाए। हनीफ ने बताया — ‘हमारे मुल्तान के आम बहुत मशहूर हैं जी। आप लोगों के लिए वहां से आम लाया हूं।‘

नत्थू ने कहा — ‘ऐसा है जी, हमारे अलवर में दो चीजें खाने की बहुत मशहूर हैं।’

असलम ने पूछा — ‘वो क्या हैं जी ?’

‘‘एक तो पंजाबी कलाकंद और दूसरी जूतियां।” — नत्थू ने कहा।

हनीफ रम की बोतल साथ लाया था। साथ में खाने का टिफिन भी लाया था और आम भी Zero Line — Ish Madhu Talwar

इस पर सब हंसे। सबने जोर से ठहाके लगाए। नत्थू ने कहा — ‘ऐसा है जी, हमारे अलवर के पास एक जगह है किशनगढ़ बास। वहां जूतियां बहुत अच्छी बनती हैं, जिन्हें हमारे यहां मोज़ड़ी कहते हैं। मैंने एक बार अखबार में ही पढ़ा था कि वहां की जूतियां पाकिस्तान एक्सपोर्ट होती हैं और वहां बहुत पसंद की जाती हैं। अगली बार मैं छुट्टी पर जाऊंगा तो आप लोगों के लिए जरूर लाऊंगा।‘‘


अब सूरज प्रताप सिंह की बारी थी। वह बोला — ‘हमारे यहां भी खाने की दो चीजे़ं बहुत मशहूर हैं।‘

‘वाह, तुम्हारे यहां भी दो चीजें? क्या हैं वो?’ — हनीफ ने पूछा।

सूरज ने बताया — “मेरा गांव बिहार में आरा के पास है। उस इलाके में पनीर से एक मिठाई बनती है, जिसका नाम है — छेने का खुरमा। यह दूर-दूर तक मशहूर है। इसी तरह पटना में एक मिठाई मिलती है — ख़ाजा। आपने वो सुना होगा — अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर ख़ाजा। यह वही ख़ाजा है जो मैदे से बनता है। पटना में केवल इसी मिठाई का एक अलग से बाजार है। मेरा जब भी गांव जाना हुआ, आपके लिए ये दोनों मिठाइयां लाऊंगा।‘‘


असलम ने कहा — ‘‘आप सब कुछ न कुछ लाएंगे तो मैं भी लाऊंगा। हमारे लाहौर में मिठाई की एक बड़ी मशहूर दुकान है — फैज़ल स्वीट्स। इसकी एक मिठाई बड़ी पॉपुलर है — झझरिया। मैं आपके लिए झझरिया ले कर आऊंगा।“


नत्थू जोर से हंसा — ‘‘यार नाम ही बहुत जोरदार है तो मिठाई भी जोरदार ही होगी। क्या नाम बताया — झझरिया? जैसे गुजरिया। हमारे यहां गूजरियां अपनी सुन्दरता और मजबूत कद काठी के लिए जानी जाती हैं।‘‘


पाकिस्तान मिलीट्री की रम सब को चढ़ने लगी थी। असलम ने कहा — ‘और हमारी पंजाबणें कम हैं क्या। आपने कभी हमारी मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां को देखा है ?‘


सूरज प्रताप सिंह ने कहा — ‘नाम तो सुना है। गाने भी सुने हैं, लेकिन देखा नहीं।‘


‘अरे, मियां, नूरजहां जितनी सुनने की चीज थी, उतनी देखने की चीज भी थी।‘


हनीफ ने कहा — “हमारे यहां हिन्दुस्तान की फिल्में खूब देखी जाती हैं। दिलीप कुमार और देवानंद के हमारे यहां बहुत लोग फेन हैं।“


इस बीच असलम ने इधर-उधर हाथ मारते हुए कहा — ‘ दारू तो खत्म हो गई।‘ इस पर नत्थू ने अपने ओवरकोट की जेब में हाथ डाला और रम की एक बोतल निकाल कर सामने रख दी।


हनीफ के मुंह से निकला — ‘अरे वाह मियां, आप तो छुपे रूस्तम निकले।‘


‘आप लोगों के लिए ही छुपाई थी।‘ नत्थू ने कहा।


अब हिन्दुस्तान की मिलट्री की रम के साथ शराब का दौर फिर शुरू हो गया। शराब चढ़ने के साथ ही बातचीत के मुद्दे पटरी से उतरने लगे थे। सूरज ने कहा — ‘यारों, एक बात तो है। तुम चाहे कुछ भी कहो, पर अपनी नौकरी तो रंडी जैसी ही है। रंड़ियां रात को जागती हैं, दिन में सोती हैं। शाम को नहा धो कर, काजल, लिपिस्टिक, पाउडर लगा कर खिडकी पर आ कर बैठ जाती हैं। वैसे ही हम भी शाम को बंदूक, कंबल लेकर बॉर्डर पर आ बैठते हैं।‘ इस पर सब हंस पड़े। हनीफ ने जोरदार ठहाका लगाया और बोला — ‘क्या मिसाल दी है यार, मजा आ गया।‘ असलम की जुबान लड़खड़ाने लगी थी। वह बोला — ‘यारो, एक बात बताओ, जैसे हमारे लाहौर में हीरा मण्डी है, वैसे तुम्हारे शहरों में भी ऐसी मंड़ियां होंगी।‘

सूरज प्रताप सिंह ने कहा — ‘‘हां। बिल्कुल। मुंबई में कमाटीपुरा है, कोलकाता में सोनागाछी है।‘‘

‘‘वाह, की गल है। हीरा मंड़ी दी हीरियां तें सोना गाछी दी सोणियां।‘‘ — हनीफ ने टिप्पणी की।

असलम की अब गर्दन भी हिलने लगी थी। वह बोला — ‘यार, हम लोग कितने लम्बे समय तक घर से बाहर रहते हैं। आखिर हम भी इंसान हैं। अफसरों को कम से कम इतना तो करना चाहिए कि जीरो लाइन के इस तरफ हीरामंडी और उस तरफ सोनागाछी खुलवा दें।‘

‘वाह, वाह! क्या सुपर आइड़िया है।‘ नत्थू ने कहा। इस पर सबके जोर से ठहाके लगे। बॉर्डर के सन्नाटे भरे अंधेरे में ये ठहाके देर तक गूंजते रहे। सूरज प्रताप सिंह ने अपना बचा हुआ पैग गटका और बोला — ‘यारो छोड़ो इन सब बातों को। मुझे तो एक नया आइड़िया आया है।‘

‘क्या आया है, जल्दी उगलो।‘ — नत्थू ने कहा।

‘‘ऐसा करते हैं अपन इस जीरो लाइन को कबड्डी का पाला बना लेते हैं। दोनों मुल्कों की कबड्डी की टीम बना लेते हैं। जीरो लाइन के इस तरफ पाकिस्तान की टीम होगी और उस तरफ हिन्दुस्तान की। जीरो लाइन पाले का काम करेगी जिसे छूना होगा।‘‘ — सूरज प्रताप सिंह ने कहा।


इस पर हनीफ जोर से हंसा। उसने कहा — ‘यार वैसे आइड़िया तो धांसू है। अब तक लोगों में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच का ही रोमांच रहता है। कबड्डी और वह भी बॉर्डर पर। वाह, क्या बात है। लोगों में इसका जबरदस्त क्रेज पैदा होगा। बॉर्डर पर दोनों तरफ दर्शक टूट कर पड़ेंगे। चलो ठीक है, इस पर सोचते हैं।’


बॉर्डर पर जीरो लाइन के उस पार बातें इधर से उधर आंधी के पत्तों की तरह बेलगाम घूम रही थीं। सब ने हनीफ द्वारा टिफिन में लाया गया व्हाइट मीट और रेड मीट का आनंद लिया। ईंट के बने चूल्हे पर गर्म कर के सबने खाना खाया। आमों का लुत्फ भी उठाया। मदिरा और बातों की गरमाहट से सर्दी का भी पता नहीं चल रहा था। जमीन के तापमान का तभी पता चला जब सैनिकों ने सुबह अपने-अपने कम्बल उठाए।

सियासत के स्तर पर दोनों मुल्कों के बीच वार्ता की जब-तब खबरें आती थीं, लेकिन हर बार वार्ता टल जाती थी। दूसरी तरफ बॉर्डर पर दोनों मुल्कों के सैनिकों की मुलाकातों के दौर चलते ही रहते थे। कभी जीरो लाइन के इस तरफ, कभी उस तरफ। आपस में सुख-दुख की वार्ता करते। एक दूसरे का खाना चखते। पिकनिक मनाते।


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नत्थू आग तपते हुए पूरे किस्सा-गो अंदाज में सन्तो के सामने बॉर्डर की तस्वीर पेश कर रहा था। बीच में सन्तो ने कहा — ‘या हीरा और सोना की मंड़ी वाली बात मोकू समझ में नांय आई। उनमें कांई हीरा और सोना बिकें?’ नत्थू ने कहा — ‘तेरे समझ में नांय आई तो रहबा दे। फिर कभी बताऊंगो।’ फिर सन्तो ने पूछा — ‘दो मुल्कन के बीच तो पुख्ता दीवार होनी चाहिए। या माटी की कच्ची सड़क क्यूं बना राखी है।‘

दो मुल्कन के बीच तो पुख्ता दीवार होनी चाहिए। या माटी की कच्ची सड़क क्यूं बना राखी है Zero Line — Ish Madhu Talwar

“हम्बे, अब तो तारबंदी को काम शुरू हो गयो है। जहां तार की बाड़ ना है, वहां जीरो लाइन मिट्टी की या मारे बना रखी है कि कोई बॉर्डर क्रॉस करे तो वा का पांव का निसान सू या भी पतो पड़ जाए कि कोई पाकिस्तान की सीमा सू हिन्दुस्तान की तरफ आयो है या हिन्दुस्तान सू उतकू गयो है। सुबह-सुबह जीरो लाइन के पास रोज यई मारे गश्त की जावे। बाद में कमाण्डर भी जीप सू जीरो लाइन पे गस्त करे। दोनूं तरफ से ट्रांसमीटर सू या पहले ही तय हो जाए कि पाकिस्तान वाला कितने बजे गश्त करेंगा और हमारा आदमी कितने बजे जाएंगा‘‘

सन्तो ने पूछा — ‘तारबंदी के बाद फिर कोई आ-जा नाय सके ?‘

नत्थू ने कहा — ‘दस फीट ऊंची और पांच फीट चौड़ी तार की ऐसी दीवार खड़ी कर दी है कि वा में से अब आदमी तो नाय आ सकें, पर पानी को कांई करें। श्रीगंगानगर के पास गंग नहर 8 किलोमीटर तक ठीक बॉर्डर पे बहवे। नहर के पाकिस्तान की तरफ तारबंदी करबा सू अब आदमी तो नहर पे नाय आ सकें, पर लोग नहर के किनारे बोरिंग कर के हमारा पानी सू अपना खेतन की सिंचाई कर रा हैं। मीलों तक बोरिंग और पाइपन को जाल बिछो है। या मारे हिन्दुस्तान का पानी सू पाकिस्तान की जमीन हरी-भरी हो रही है।’

इस बीच सन्तो ने छोलों को आग पर सेंकना शुरू कर दिया ताकि घर पर बच्चे होले (भुने हुए हरे छोले) खा सकें।


अलाव में आग की लपटें अब तेजी से उठ रही थीं। ये लपटें अब दिल तक पहुंचने लगी थीं। आग से लकड़ियों के चटखने की आवाज आती तो सन्तो के दिल में भी चिंगारियां सी फूटने लगतीं। चारों तरफ रात की नीरवता पसरी थी। अलाव की जलती आग सन्तो को जैसे भीतर भी महसूस हो रही थी। उसने आग में चमकता नत्थू का चेहरा देखा तो अंदर जैसे कुछ सुलगने लगा। वह बोली — ‘सुनो जी, बोडर पे हलचल हो रही है।‘

नत्थू ने सन्तो की तरफ देखा। उसे लगा जैसे सन्तो का गदराया बदन आग में उफन रहा है और उस पर सरसों का बासंती रंग चढ़ आया है। आग की लपटों के बीच झांकता सन्तो का चेहरा ऐसे लग रहा था जैसे उस पर आग की सुर्ख लहरें बह रही हों। माथे पर जुल्फें लहरा रही थीं। लाल, चमकते माथे पर काली जुल्फें। नत्थू के अंदर भी आग से जैसे कुछ उबलने लगा। नत्थू ने कहा — ‘हां, चलो, बॉर्डर पर चलते हैं।‘ इसके साथ ही दोनों डहले पर आ गए। दोनों ने सोढ़ ओढ़ ली। नत्थू ने सन्तो को छूआ तो जिस्म में बिजली सी लहराई। दूर से कहीं टिटहरी की आवाज आ रही थी और ‘बॉर्डर’ पर ‘कबड्डी’ शुरू हो गई थी। नत्थू को तेज ठण्ड में भी सन्तो का जिस्म गर्म लग रहा था, जिसके भभके उसे अपने कानों तक महसूस हो रहे थे। नत्थू और सन्तो गुनगुनाते दरिया में दूर तक तैरते चले गए। नत्थू को लगा जैसे वह बहुत दिनों बाद दरिया में उतरा है। तैरते-तैरते वह बीच मंझधार में आ गया था और अब किनारे की ओर बढ़ रहा था। लहरें मचल-मचल उठती थीं। चूड़ियों के खनकने की आवाज से जल तरंग जैसी लहरें उठ रही थीं। इन लहरों के साथ वह खेलता रहा। अचानक जैसे तूफान उठा। किनारा आते-आते उसकी सांसे तेज हो गई थीं। वह फिर ‘बॉर्डर’ पर आ गया था। ‘बॉर्डर’ पर कबड्डी का पाला छूते-छूते वह हांफने लगा था।

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रात को काफी जागने के बावजूद भोर होने से पहले ही रोज की तरह सन्तो की आंख खुल गई। पास में नत्थू सो रहा था। उसने हिला कर नत्थू को जगाने की कोशिश की और बोली — “में जा री हूं। चाकी पीसबा को टेम हो गयो।” नत्थू ने ‘हूं’ कहा और फिर सो गया। नत्थू को सोता छोड़ कर सन्तो घर के लिए रवाना हो गई। रात को सेके गये होले एक पोटली में बांध कर वह अपने साथ ले गई।

नत्थू जब दोपहर बारह बजे तक भी घर पर नहीं आया तो काका खेत पर जा पहुंचा। गुनगुनी धूप थी और खेत में सरसों लहलहा रही थी। खेत की मेढ़ के पास डहले पर नत्थू सो रहा था। काक ने उसे उठाया, तो वह बड़बड़ाया — ‘अब सोने भी दो, बॉर्डर पर पूरी तरह शांति है।‘

‘अरे खड़ो हो जा। कोई — सांती-वांती ना है। तेरो मैसेज आयो है।‘ — काका जोर से बोला। यह सुनते ही नत्थू उठ कर बैठ गया। उसने आंखें मली और पूछा — कांई हो गयो काका?‘

‘या में तेरो मैसेज आयो है। नौकरी पे बुलायो है।‘ काका ने उसे उसका मोबाइल थमाते हुए कहा। उसे पढ़ कर नत्थू सोच में डूब गया। बोला — ‘मोकू अब वापस जाणो पडे़गो।‘

“कांई हो गयो ?”

‘ छुट्टी रद्द कर दी हैं और तत्काल काम पे लौटबा की कही है।‘


‘तोकू आये तो अभी दो ही दिन हुआ हैं। अब तू वापस चलो जाएगो?‘

‘हम्बे काका, जाणो ही पडे़गो। नौकरी ही ऐसी है।‘

नत्थू ने घर आते ही वापस लौटने की तैयारी शुरू कर दी। घर के छान-छप्पर फिर उदास हो गए। सन्तो तो रोने ही लग गई। नत्थू ने उसे ढाढस बंधाया — ‘रोए मत। जल्दी ही वापस आ जाऊंगो। शायद बॉर्डर पे तनाव बढ़ गयो है। ऐसो चलतो ही रहवे। कुछ दिन बाद तनाव कम हो जाएगो। मैं फिर छुट्टी ले के आ जाऊंगो।‘ दोनों बच्चे भी रोने लगे थे। नत्थू ने उन्हें भी पुचकारा। मां की आंखों में भी आंसू थे।


नत्थू ने जब विदा ली तो घर पर मातम जैसा माहौल था। दो दिन की चांदनी के बाद जैसे फिर अंधेरा छा गया था। नत्थू रास्ते में सोच रहा था कि पंजाबी कलाकंद तो अलवर के रेल्वे स्टेशन पर मिल जाएगा, लेकिन वह अपने दोस्तों के लिए अब किशनगढ़ की मोजड़ी नहीं ले जा पाएगा। अलवर रेल्वे स्टेशन पहुंच कर उसने ‘बाबा’ का मशहूर पंजाबी कलाकंद खरीद लिया।


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दोनों मुल्कों से तनाव की खबरें आ रही थीं। रोज सीमा का उल्लंघन और गोलीबारी हो रही थी। बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों को देखते हुए भारत अपना कड़ा विरोध दर्ज करा चुका था। पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर निरंतर गोलीबारी की सूचना के बाद हिन्दुस्तान के तेवर कड़े हो गए थे।

सेना का सीमा पर जमावड़ा शुरू हो गया था। लौटते समय नत्थू को रास्ते में सड़कों पर लम्बी कतार में सेना के वाहन और टेंक पश्चिमी सीमा की ओर जाते नजर आ जाते थे। सेना के ट्रकों में हथियारों से लद-फदे जवान दिखाई दे रहे थे और सड़क पर देर तक खत्म न होने वाली सेना के मूंगिया हरे रंग के ट्रकों की लंबी कतार दिखाई दे जाते थे। नत्थू समझ गया कि सेना के वाहनों का सीमा की ओर बढ़ना अच्छा संकेत नहीं है। रास्ते भर वह परिवार के बारे में सोचता रहा। सन्तो की याद सताती रही। उसे झुंझलाहट हो रही थी। परिवार से ढंग से मिल भी नहीं पाया और वापस लौटना पड़ा। इधर बॉर्डर पर तनाव, उधर घर पर तनाव।


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नत्थू जब अपनी ड्यूटी पर पहुंचा तो शाम को बॉर्डर पर पंजाबी कलाकंद भी साथ लेता गया। वह सोच रहा था कि दोस्तों को मिठाई खिलाएगा, तो सब खुश हो जाएंगे। बहुत दिनों बाद गपशप होगी। बॉर्डर की महफिलों के पुराने दृश्य उसकी आंखों के सामने तैरने लगे।

ड्यूटी पर आते ही उसे यह पता चल गया था कि सीज फायर के बार-बार उल्लंघन से बॉर्डर पर तनाव बढ़ गया है, लेकिन वह जानता था कि ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। तनाव कुछ दिन तनी हुई पतंग की तरह रहता है, लेकिन बाद में ढील मिलते ही पतंग फिर अपनी मस्ती में उड़ने लगती है। फिर दोस्त तो दोस्त ही हैं। वे थोड़े ही बदल जाएंगे।

शाम के धुंधलके में जीरो लाइन के उस पार सलवार-कुर्ते, जैकेट और तुर्रीदार पगड़ी में एक आदमी दिखाई दिया तो उसकी कद-काठी से ही नत्थू पहचान गया कि यह हनीफ है। उसने आवाज लगाई — ‘हनीफ भाई।’

‘हां, जी।’ उधर से आवाज़ आई। आवाज़ में थोड़ी सख्ती थी। जैसे किसी ने हनीफ की पुरानी वाली आवाज़ से कोमल रूह निकाल ली हो।

‘मैं आपसे मिलने आ रहा हूं उधर।’ — नत्थू ने कहा और कलाकंद का ड़िब्बा ले कर वह आगे बढ गया।

‘नहीं जी, इधर आने की जरूरत नहीं है। आप उधर ही रहिए।’

“आप हनीफ ही हैं ना।” नत्थू ने अंधेरे में उसका चेहरा पहचानने की कोशिश की।

“हां, हनीफ ही हूं।” आवाज़ कड़क थी।

“हनीफ भाई, मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं।”

“नहीं, हमें कुछ नहीं चाहिए।”

“अरे, यार, क्या बात कर रहे हो? मैं तुम्हारे लिए कलाकंद लाया हूं।” — यह कह कर नत्थू जीरो लाइन की तरफ बढ़ने लगा। तभी उधर से गुस्सा उगलती हुई आवाज़ आई — ‘इस मीठे जहर को अपने पास रख। अब आगे मत बढ़ना, वर्ना मैं गोली चला दूंगा।’

‘क्या बात कह रहे हो हनीफ? तुम सचमुच हनीफ हो?’ — नत्थू ने कहा।

“हां, मैं हनीफ ही हूं। अपनी जगह पर ही रहो। इधर मत आना।” — उधर से तल्ख आवाज़ आई।

नत्थू सोच रहा था — आवाज़ तो हनीफ की ही है, लेकिन इसे यह क्या हो गया? नत्थू के आगे बढ़े हुए कदम थम गए। कभी वह कलाकंद के ड़िब्बे को देखता, कभी हनीफ की तरफ। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि कोई इंसान इतनी जल्दी कैसे पलटा खा सकता है। उसे लगा जैसे बॉर्डर के तनाव ने कोई ऐसा बटन दबाया, जिसने हनीफ का इंसान तत्काल जानवर में बदल दिया। हनीफ के व्यवहार को देख कर नत्थू के गुस्से का पारा भी तेजी से ऊपर चढ़ने लगा। नत्थू ने कहा — ‘जिसके लिए लाया हूं, वही इसे नहीं ले रहा तो मैं भी खा कर क्या करूंगा?’ यह कहते हुए उसने ड़िब्बे को जोर से हवा में उछाल कर जीरो लाइन के उस पार फेंक दिया। ड़िब्बा धड़ाम से पाकिस्तान की जमीन पर आ कर गिरा। हनीफ तेजी से ड़िब्बे की ओर दौड़ा और फुटबाल की तरह जोर से उस पर किक लगाया। ड़िब्बा हवा में उछला और नत्थू की आंखो में आंसू छलक आए।


नत्थू सुबह अपने टेंट में लौट कर आया तो चाय पीने के साथ ही उसने अखबार देखे। नत्थू को अब कुछ समझ में आ रहा था। आदमी को जानवर में बदलने का स्विच ऊपर से दबाया गया है। अखबारों में खबर थी कि पाकिस्तान के वजीरे आजम की कुर्सी हिल रही है और सत्ता के खिलाफ जनता सड़कों पर उतर आई है। पाक के शहरों में हाहाकार मचा हुआ है। पुलिस फायरिंग में कई लोगों की मौत हो चुकी है। सेना ने मोर्चा संभाल लिया है। जब भी ऐसा होता है सरकारें जनता का ध्यान बंटाने के लिए बॉर्डर पर पतंग की डोर की तरह बॉर्डर की लगाम खींचना शुरू कर देती हैं। ऊपर से डोर कसी जाती है और बॉर्डर पर चेहरे खूंख्वार होने लगते हैं । आज ऐसा ही बदला हुआ एक चेहरा देख कर नत्थू परेशान हो उठा था। बॉर्डर लाइन अब जैसे खिंची-खिंची रहने लगी थी। बॉर्डर पर जवानों के चेहरों पर तनाव लकीरें खिंच गई थीं, लेकिन उन्हे इस बात का आभास भी नहीं था कि ऊपर से अज्ञात ताकतें उन्हें संचालित कर रही हैं।

उस दिन ड्यूटी पर सूरज प्रताप सिंह नहीं आया था। उसे बुखार हो गया था, इसलिए वह टेंट में ही रह गया था। नत्थू की उससे बात भी नहीं हो पाई थी। अगले दिन सुबह नत्थू जब सूरज से मिला तो उसने रात वाला घटनाक्रम बताया और उसकी आंखे भीग गईं। तब नत्थू को सूरज ने बताया — ‘हम भी तो ऐसा कर चुके हैं।’

‘कैसा कर चुके हैं?’

तुम्हारे पीछे से असलम भी छुट्टी पर गया था और फिर जल्दी ही वापस लौट आया था। बॉर्डर पर एक बार रात को वह दिखा तो मुझे वह फैजल स्वीट्स की मिठाई ‘झझरिया’ देने के लिए जीरो लाइन पर आना चाहता था, लेकिन मेरे पीछे खड़े हवलदार ने कहा कि यह जीरो लाइन पर आ जाए तो इसे गोली से उड़ा देना। हवलदार ने मुझसे यह भी कहा कि तुमने गोली नहीं चलाई तो मैं इस पर गोली चला दूंगा। इसलिए मैंने भी बंदूक का डर दिखा कर असलम को उधर ही रोक दिया था।

नत्थू को अब समझ में आया कि हनीफ ने उसके साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया था।

सूरज ने बताया — “असलम ने गुस्से में मिठाई का ड़िब्बा जीरो लाइन के इस पार फेंक दिया था और तब हवलदार ने मिठाई के ड़िब्बे पर ही गोली दाग दी थी।”

नत्थू का मन परेशान हो उठा था। दोनो तरफ की मिठाइयां एक दूसरे के लिए जहर में बदल गई थीं। मीठे रिश्तों में भी कड़वाहट आ गई थी। पहले जीरो लाइन के दोनों तरफ आदमी खड़े होते थे। अब बंदूकें खड़ी थीं। आदमी बंदूकों में बदल गए थे। मिठाइयां बंदूक की गोली की तरह डराती थीं।

देखते ही देखते बॉर्डर की फिजां बदल चुकी थी। सर्दियों में जीरो लाइन पर जो फूलों की बगिया महकने लगी थी, उसके फूल अब मुरझाने शुरू हो गए। उन पर जैसे तनाव का पाला पड़ गया था। इस पार और उस पार के दोस्तों के बीच जीरो लाइन पर शक की दीवार खड़ी हो गई थी। जीरो लाइन के उधर सलवार-कुर्ते घूरती नजरों के साथ टहलते दिखाई देते थे। इधर खाकी पेंट-शर्ट के ऊपर भी चेहरों की मुस्कान अब गुस्से की लकीरों में बदल गई थी। जो लोग गले मिल कर बातें करते थे, वे अब एक दूसरे से डरने लगे थे। असलम को हनीफ समझा रहा था — ‘अब पार्टी बाजी से परहेज करना। दुश्मन आखिर दुश्मन ही होता है। पता नहीं कब पीठ में छुरा घोंप दे।‘ इधर नत्थू भी सूरज प्रताप सिंह से कह रहा था — ‘उनके साथ अब कभी खाने पीने मत बैठ जाना। क्या पता खाने में जहर ही मिला दें। अब भरोसा नहीं रहा।‘ मधुर रिश्तों में देखते ही देखते जहर घुल गया था।

बॉर्डर पर जीरो लाइन के इधर-उधर दोनों तरफ किसानों के खेत भी थे। उधर पाकिस्तान के किसान खेती करते थे और इधर हिन्दुस्तान के किसी किसान की कुटिया में चाय बनती तो सामने वाले को बुला लिया करते थे। आपस में बातें करते थे। हिन्दुस्तान के किसान भी उधर पाकिस्तान में गप्प मारने चले जाते थे।

बॉर्डर के पड़ोस के गांव का जुम्मा एक बार नत्थू को मिल गया। जुम्मा ने कहा — ‘आज कल पता नहीं कैसे मौसम बदल गया है। मेरे सामने पाकिस्तान के रहमान के खेत हैं, जो हमारे यहां खूब आता-जाता था। हम भी चले जाते थे। कल मैंने उसे आवाज़ दी — ‘रहमान आजा चाय पीजा, तो उसने दूर से ही हाथ हिला कर मना कर दिया।‘


नत्थू ने उसे समझाया — “अब तुम भी उधर मत जाना। कुछ भी हो सकता है। जीरो लाइन पर पैर भी मत रखना। गांव में और लोगों को भी समझा देना”।

जीरो — यानी शून्य। जीरो लाइन अब संवेदन शून्य होती जा रही थी। दोनों तरफ के जवान इस बदलाव को महसूस कर रहे थे। मौसम तेजी से बदल रहा था। ठण्डी हवाओं के साथ रेत उड़ती नजर आ जाती थी। मौसम के हिसाब से जीरो लाइन का मिजाज भी बदल गया था और जो कभी नरम होती थी, वह अब सख्त हो चुकी थी।

इस बीच ऊपर से फेन्सिंग के आदेश हो गए थे और तारबंदी का काम युद्ध स्तर पर शूरू हो गया था। जीरो लाइन पर अब फूलों की जगह बड़े-बड़े कांटे उगने शूरू हो गए थे। देखते ही देखते कांटो की यह बाड़ दैत्य की तरह लगातार ऊंची होती जा रही थी।

ईशमधु तलवार

ई-10, गांधी नगर,
जयपुर-302015
मो: 09413327070
ईमेल: ishmadhu14@gmail.com

नत्थू राम एक दिन सुबह जब ड्यूटी पूरी कर अपना कम्बल समेटने लगा तो सामने हवा में उड़ता हुआ गत्ते के डिब्बे का एक कवर उसके सामने आ कर पड़ा। उस पर अंग्रेजी में लिखा था — “फैज़ल स्वीट्स, लाहौर।” नत्थू ने डिब्बे को गौर से देखा। डिब्बे के कवर पर जला हुआ एक बड़ा छेद नजर आ रहा था। यह गोली का निशान था। डिब्बे पर ओस की बूंदें जमा थीं, जो छेद में से टपक रही थीं। नत्थू को लगा कि डिब्बे के आंसू निकल रहे हैं। उसने सोचा, हिन्दुस्तान का डिब्बे उधर पाकिस्तान की जमीन पर पड़ा आंसू बहा रहा होगा। नत्थू जब अपना कम्बल निचोड़ने लगा तो उसे महसूस हुआ जैसे सामने खड़ी काली, डरावनी, निर्मम और खौफनाक जीरो लाइन ने दोनों तरफ की सारी मिठास निचोड़ कर फेंक दी है। बचे हैं तो बस वे लोग, जो बंदूकों में तब्दील हो चुके हैं। दोनों तरफ इधर से उधर घूमती बंदूकें ही अब नजर आती थीं।

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