ज़ेड प्लस — Ramkumar Singh — Zed Plus @indiark



रामकुमार सिंह के उपन्यास ‘जेड प्लस’ का  अंश 

"ज़ेड प्लस सिनेमा और साहित्य की दूरियों को पाटने का काम करेगी। इसकी भाषा पठनीय है। यह एक पोलिटिकल पार्स है..." — मंगलेश डबराल



एक ऑटो साउथ ब्‍लॉक के उस हिस्‍से तक पहुंचा जहां तक निजी वाहनों को जाने की अनुमति है। इसी ऑटो में असलम है। उसने दो सौ रूपए ऑटो वाले को थमाए। नीचे उतरा और मुख्‍य दरवाजे की तरफ बढ़ा। दरवाजे पर ही गार्ड ने असलम को रोक लिया,

‘कहां जाना है ?’

‘दीक्षित साब से मिलना है।’

‘एपॉइंटमेंट है ?’

असलम समझा नहीं। उसने हिचक के साथ पूछा, ‘क्‍या मतलब?’

‘मतलब यह कि मिलने का समय लिया है ? वे बिना पहले बताए किसी ने मिलते नहीं हैं।’

‘वे जानते हैं मुझे, आप कहलवा दीजिए कि फतेहपुर दरगाह से असलम आया है।’

‘नहीं, हमें अंदर जाने की इजाजत नहीं है।’

‘तो मुझे जाने दीजिए। वो मुझे देखेंगे तो पहचान जाएंगे।’

सुरक्षाकर्मी ने एक बार तो देखा कि उसे जाने दिया जाए लेकिन अपने सामान्‍य ज्ञान के आधार पर असलम को अंदर ना भेजने को फैसला किया। वह दिखने में एकदम देहाती लग रहा था। रात को घर से निकला था, साधारण से कपड़े पहने था। कुर्ता कुछ तो पहले से मैला था, कुछयात्रा के दौरान हो गया था। नहाया नहीं था। सिर के बाल खरपतवार की तरह चारों तरफबेतरतीब फैले हुए थे। मुंह में उसने पान चबा लिया था और दाढ़ी कई दिन से बनी नहीं थी।कोई भी लक्षण उसमें दीक्षित साब के परिचित होने का नहीं दिख रहा था। फिर उसने अपना नाम भी असलम बताया था। यह तो भारतीय सुरक्षाकर्मी था। कोई अमरीकी आदमी को दीक्षित के दफतर के बाहर सुरक्षा ड्यूटी पर लगा दिया जाता तो वह असलम के कपड़े उतरवा लेता उसे पूछताछ के लिए फंसा लेता। नाम असलम है तो हो ना हो कुछ धमाका ही करने आया हो। उसने दरअसल यह अनुमान लगाया कि यह दिमाग से खिसका हुआ कोई आदमी है। कुछेक दिनपहले वहां ऐसे ही एक आदमी आया था और वह प्रधानमंत्री से मिलना चाहता था। उसने थैले में बहुत सारे कागज और फाइलें भर रखे थे। उसने एक फाइल निकालकर सुरक्षाकर्मियों से कहा थाकि वह लोकपाल बिल का मसौदा लेकर आया है। प्रधानमंत्री को बताना चाहता है‍ कि यदि वेलोकपाल बिल पास कर रहे हैं तो उसने महीनों लगाकर लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया है। उसे गिरफतार कर लिया गया था। पुलिस को पूछताछ में जब कुछ नहीं मिला तो उसने उस आदमी को डॉक्‍टरों के सुपुर्द कर दिया। डॉक्‍टरों को भी कुछ समझ में नहीं आया तो उन्‍होंने मीडिया में घोषणा कर दी कि प्रधानमंत्री के आवास के भीतर जो आदमी घुसने की कोशिश कर रहा था वह विक्षिप्‍त था। उसकी फाइलें पुलिस ने जब्‍त कर ली थी और आदमी को पागल कहते हुए रिहा कर दिया था। उसी आदमी ने बाहर जाते जाते सलीके से थानेदार को कहा था कि सर,फाइलों की एक फोटोकापी तो दे देते। मुझे फिर से पूरा ड्राफ्ट तैयार करना पड़ेगा। सब लोग उस पर हंसने लगे थे। सुरक्षाकर्मी को पूरा वाकिया याद आया तो उसके चेहरे पर मुस्‍कान सी आई। उसने कहा, ‘माफी चाहते हैं लेकिन हम आपको अंदर नहीं जाने दे सकते हैं।’

‘आप समझते क्‍यों नहीं ? मेरा उनसे मिलना बहुत जरूरी है।’

‘क्‍या काम है ?’

राम कुमार सिंह

दिलचस्प किस्कागोई के साथ मौलिक और जमीन से जुड़े कथाकार के रूप में पहचान।सिनेमा और साहित्य में समान रूप से सक्रिय। फतेहपुर शेखावटी, राजस्थान के बिरानियां गांव में 1975 में किसान परिवार में पैदा हुए। कहानिया लिखीं।  हिन्दी साहित्य से एम.ए.। राजस्थान में हिन्दी पत्रकारिता में नाम कमाया। पुरस्कृत भी हुए। पहला कहानी-संग्रह भोभर तथा अन्य कहानियां चर्चित और प्रशंसित। राजस्थानी की चर्चित फिल्म भोभर की कथा, संवाद और गीत लिखे। ज़ेड प्लस उपन्यास पर बनी फिल्म की पटकथा और संवाद भी निर्देशक के साथ मिलकर लिखे।
ईमेल: indiark@gmail.com

ज़ेड प्लस

 

असलम ने सुरक्षाकर्मी को नीचे झुकने का इशारा किया, ‘असल में, मैं उनसे यह कहने आया हूं कि मेरी सुरक्षा हटा लें। मैं बहुत परेशान हो गया हूं।’

अब सुरक्षाकर्मी को यकीन हो गया कि यह लगभग वैसा ही मामला आ गया है, जैसा लो‍कपाल बिल लेकर एक भाई साहब आए थे।

‘आपकी सुरक्षा है कहां ? मुझे तो एक भी नहीं दिख रहा।’

‘देखिए, मियां प्रधानमंत्रीजी ने किसी गफलत में हमको जेड सुरक्षा दे दी थी। अब हम वो लौटाने आए हैं। हमें दीक्षित साब से मिलना बहुत जरूरी है।’

सुरक्षाकर्मी को हंसी आने लगी,

‘वही तो मैं पूछ रहा हूं। आपकी जेड सुरक्षा वाले कमांडो हैं कहां ?’

‘वे घर पर ही हैं। मैं उनसे बचकर दीवार फांदकर आया हूं। आप मेहरबानी करके मुझे दीक्षित साब से मिलने दीजिए।’



एक लाल बत्‍ती की गाड़ी करीब आ रही थी। गार्ड ने भागकर दरवाजा खोला और सेल्‍यूट किया। तब तक उस सुरक्षाकर्मी को गुस्‍सा आ गया था। उसने कहा कि वह अंदर नहीं जाने देगा। असलम बाहर की तरफ ही पेड़ की छाया में बैठ गया। गार्ड ने उसे वहां बैठने से मना किया। असलम ने कहा, ‘अमां मियां, हम भी इसी देश के सम्‍मानित नागरिक है, इतनी बेइज्‍जती मत करिए। कहां तो ससुरे तुम्‍हारे जैसे दस बारह आगे पीछे घूमते थे यहां तुम हमको बैठने तक नहीं दे रहे हो।’



बाहर यह बहस चल रही थी और भीतर अपने दफ्तर में दीक्षित के पसीने छूट रहे थे। वह परेशान था कि उसने जानबूझकर यह आफत मोल क्‍यों ली थी? उसे लगता था कि अपनी एक मामूली गलती को ढंकने के लिए उसने असलम जैसे गंवार के लिए देश की जेड सुरक्षा लगा दी। वह गलती वहीं सुधार लेता लेकिन बात राजनीतिक रंग ले गई थी और वह पुराना खिलाड़ी था। राजनीति में कुछ भी जल्‍दबाजी में नहीं किया जाता। उसे लगा कि अब उसके लिए फतेहपुर जाना जरूरी हो गया है। दीक्षित को उसके साथ घटित हो रहे अध्‍यात्‍म की कोई खबर ही नहीं थी, ‘मो को कहां ढूंढ़े बंदे मैं तो तेरे पास में’ वाली तर्ज पर असलम तो उससे कुछ कदमों के फासले पर था।

दीक्षित की कॉल पर ड्राइवर आया और गाड़ी निकाली।

असलम के साथ यह जद्दोजहद सुरक्षाकर्मियों की चल ही रही थी कि लाल बत्‍ती की एक कार भीतर से बाहर आती दिखी। सुरक्षाकर्मी ने असलम को इशारा किया,

‘यही हैं तुम्‍हारे दीक्षित साब।’

गाड़ी के शीशे के भीतर से भी असलम उनको पहचान गया। वह कितना गलत सोचता था कि वह दीक्षित की शक्‍ल भूल गया होगा। जिस आदमी की वजह से मशहूर हो गया था और उसका जीना हराम हो गया था, उसकी शक्‍ल कैसे भूल सकता था। वह गाड़ी के सामने ऐसे कूद पड़ा कि जैसे आत्‍महत्‍या ही कर लेगा। ड्राइवर ने एकदम से ब्रेक लगाए। फोन पर उलझे दीक्षित को भी एक बार तो डर लगा। उसने शीशा उतार कर बाहर मुंह निकाल कर गाली दी जो वे आमतौर पर देते नहीं थे,

‘भैनचो, मरना है तो कहीं और जाकर मर।’ कहते हुए उसकी नजर असलम पर थी और उनका सर्च इंजन तुरंत गूगलीकरण में घुस गया कि इस आदमी को पहले भी कहीं देखा है।

‘हुजूर, मैं असलम दरगाह वाला, ये लोग मुझे आपसे मिलने नहीं दे रहे।’



दीक्षित ने जीवन में पहली बार खीझ और खुशी का मिश्रण महसूस किया था। उसे लग रहा था वह बहुत खुश भी है और उसे बहुत गुस्‍सा भी आ रहा है। उसे लगा जैसे वह गंगा की तलब में हरिद्वार निकला था कि दरवाजे पर गंगा आ गई। पर उसकी धार इतनी तेज थी उसका घर भी उसमें डूब गया। दीक्षित के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। पिछले बारह घंटे उसकी यातना के चरम थे। जले हुए फफोले पर शीतल जल की तरह असलम का आगमन था लेकिन ज्‍यादा जले पर ठंडे पानी की छुअन भी कभी कभार दर्द बढाती है।

‘मुकेश, गाड़ी रोको तुंरत।’ उधेड़बुन में दीक्षित ने पहला वाक्‍य बोला।

गाड़ी रोककर मुकेश तुरंत दरवाजे से नीचे आया और एक साइड आकर दीक्षित का दरवाजा खोला। दीक्षित बाहर निकला। असलम उसके करीब आ गया। सुरक्षाकर्मी लपककर असलम कोपकड़ने ही वाले थे कि दीक्षित ने इशारा करके उन्‍हें रोक दिया।

दीक्षित ने असलम की तरफ हाथ बढाया लेकिन असलम ने हाथ जोड़ लिए,

‘हुजूर बहुत देर मैं यहां परेशान हो रहा हूं। कोई यह मानने को तैयार नहीं कि मैं आपको जानताहूं।’ असलम लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोला।

‘परेशान तो मैं भी बहुत हुआ हूं असलम मियां, इसका आपको अंदाजा नहीं। आप‍ फिलहाल गाड़ीमें बै‍ठिए।’

ड्राइवर मुकेश ने दरवाजा खोला और असलम डरते डरते कार में घुसा।

उसके साथ दीक्षित भी बैठे। सारे सुरक्षाकर्मी भौंचक थे कि एक मैले कुचले से आदमी के साथदीक्षित साब पहली बार दिख रहे हैं।

‘कोई इन्‍फॉर्मर है साब का।’ एक ने अनुमान लगाया।

‘आइबी का कोई आफीसर है, देखा नहीं तुमने कैसे चिल्‍लाकर दीक्षित साब ने हम सबको धोखादेने की कोशिश की। उसे असलम मियां कहकर पुकारा।’ दूसरे ने अपनी तरह से अंधों के हाथीको पकड़ा।

‘सही कह रहे हो, इसका असली नाम असलम नहीं है। वह हमें भी बेवकूफ बना रहा था कि उसकी सिक्‍योरिटी हटा ली जाए।’ तीसरे ने अपने ढंग से बात कही।


भीतर असलम पर दीक्षित चिल्‍ला रहा था, ‘आपको घर से भागने की क्‍या जरूरत पड़ी थी। मैंनेअपना नंबर दिया था आपको। आप समझते नहीं। आपको कुछ हो जाता तो इधर सरकार पर संकट आ जाता।’

‘साब, मैं थक गया हूं इस सब से। अब आप कुछ करिए। मुझे नहीं चाहिए ये सब। मैं कहीं आ जा नहीं सकता।’

‘दिमाग खराब हो गया है असलम मियां। इधर देखिए।’ दीक्षित अपने दफतर में रखी फाइलों की तरफ इशारा करते हुए बताया, ‘ये सब लोग सिफारिशें लगवा रहे हैं कि इन्‍हें सिक्‍योरिटी चाहिए। एक आप हैं कि मिली हुई सिक्‍योरिटी को हटवाने की बात कर रहे हैं।’

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