टोबा टेक सिंह – सआदत हसन मंटो


टोबा टेक सिंह – सआदत हसन मंटो

Toba Tek Singh Saadat Hasan Manto 

Toba Tek Singh Full Story in Hindi

"Toba Tek Singh" is a short story written by Saadat Hasan Manto and published in 1955. It follows inmates in a Lahore asylum, some of whom are to be transferred to India following the independence of Pakistan in 1947.


बंटवारे के दो-तीन साल बाद पकिस्तान और हिंदुस्तान की सरकारों को ख्याल आया कि साधारण कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए। यानी जो मुस्लमान पागल हिंदुस्तान के पागलखाने में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए।



मालूम नहीं यह बात ठीक थी या नहीं। बहरहाल बुद्धिमानों के फैसले के अनुसार इधर-उधर उंचे स्तर की कांफ्रेंस हुई और आखिरकार एक दिन पागलों के तबादलों के लिए नियत हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वे मुस्लमान पागल, जिनके अभिभावक हिंदुस्तान में थे, वहीं रहने दिए गए थे। और जो बाकी थे, उन्हें सीमा पर रवाना कर दिया गया था। यहां पाकिस्तान से, क्योंकि करीब-करीब सब हिंदू-सिख जा चुके थे, इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके सब पुलिस के संरक्षण में सीमा पर पहुंचा दिए गए। उधर की मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प और कौतूकपूर्ण बातें होने लगीं। एक मुस्लमान पागल, जो बारह बरस से रोजाना बकायदगी के साथ नमाज पढ़ता था, उससे जब उसके दोस्त ने पूछा-मौलवी साहब, यह पाकिस्तान क्या होता है? तो उसने बड़ा सोच-विचारकर जवाब दिया — "हिंदुस्तान में एक जगह है, जहां उस्तरे बनते हैं।"

यह जवाब सुनकर उसका मित्र संतुष्ट हो गया।

इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा — "सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है? हमें तो वहां की बोली भी नहीं आती।"

दूसरा मुस्करा दिया—  ‘मुझे तो हिंदुस्तान की बोली आती है — हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़-आकड़ फिरते हैं।"

एक मुस्लमान पागल ने नहाते-नहाते पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा इस जोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसलकर गिरा और अचेत हो गया। कुछ पागल ऐसे भी थे, जो पागल नहीं थे। इनमें अधिकतर ऐसे कातिल थे, जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे-दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि वे फांसी के फंदे से बच जाएं।

ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान का क्यों विभाजन हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सभी घटनाओं से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ जाहिल थे। उनकी बातचीत से भी वे कोई नतीजा नहीं निकाल सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे-आजम कहते हैं। उसने मुस्लमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है, जिसका नाम पाकिस्तान है। वह कहां है? इसकी स्थिती क्या है? इसके विषय में वे कुछ नहीं जानते थे। यही कारण है कि पागलखाने में वे सब पागल, जिनका दिमाग पूरी तरह से खराब नहीं था, इस ऊहापोह में थे कि वे पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में। अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है और अगर वे पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि कुछ अर्सा पहले यहां रहते हुए भी हिंदुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में एसा पड़ा कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और एक टहनी पर बैठकर दो घंटे लगातार भाषण देता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाजुक मामले पर था। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने के लिए कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया-धमकाया गया तो उसने कहा - "मैं न हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में, मैं इस पेड़ पर ही रहूंगा।"

बड़ी मुश्किल के बाज जब उसका दौरा ठंडा पड़ गया, तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिल-मिलकर रोने लगा। इस ख्याल से उसका दिल भर आया कि वे उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।

एक एम. एस. सी पास रेडियो इंजिनियर, जो मुस्लमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग-थलग बाग की एक खास रौश पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, में यह तब्दीली प्रकट हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।

चनयूट एक मोटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सक्रिय कार्यकर्ता रह चुका था और दिन में पंद्रह-सोलह बार नहाया करता, एकदम नई आदत छेड़ दी। उसका नाम मुहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखा-देखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जंगल में खूनखराबा हो जाए, मगर दोनों को खतरनाक पागल करार देकर अलग बंद कर दिया गया।

लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था, जो मुहब्बत में पड़कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शहर की एक हिंदू लड़की से उसे प्रेम हो गया था। यद्यपि उसने उस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको भूला नहीं था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए। उसकी प्रेमिका हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।

जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को पागलों ने समझाया। वह दिल छोटा न करे, उसको हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा-उस हिंदुस्तान में, जहां उसकी प्रेमिका रहती है, मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था, इस ख्याल से कि अमृतसर मे उसकी प्रेक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इंडियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आजाद कर अंग्रेज चले गए हैं तो उनको बड़ा दुख हुआ। वे छिप-छिपकर घंटों इस समस्या पर बातचीत करते रहते कि पागलखाने में उनकी हैसियत किस तरह की होगी-यूरोपिय वार्ड रहेगा या जाएगा। ब्रेकफास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए ब्लडी इंडियन चपाती तो जहर मार नहीं करनी पडे¸गी?

एक सिख था, जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पंद्रह वर्ष हो चुके थे। हर समय उसकी जबान से अजीब-गरीब शब्द सुनने में आते थे, " ओपड़ दी गड़गड़ दा एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन। " अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ लगा लेता था तो भी हर समय खड़े रहने से उसके पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फैल गईं थीं, मगर इस शारीरिक तकलीफ के बावजूद लेटकर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के विषय में जब कभी पागलों में चर्चा होती थी तो वह बड़ी ध्यान से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख्याल है तो वह बड़ी गंभीरता से जवाब देता "ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।"

लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर किया कि टोबा टेक सिंह कहां है, कहां का रहनेवाला है? लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे, खुद इस उलझन में फंस जाते थे कि स्यालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है। क्या पता कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है, कल हिंदुस्तान में चला जाएगा या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब न हो जाएंगे।

उस सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत थोड़े ही रह गए थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था, दाढ़ी और बाल आपस में जम गए थे, जिसके कारण उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। लेकिन वह आदमी किसी का नुकसान नहीं करता था। पंद्रह वर्षों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने नौकर थे, वे उसके बारे में इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक ही दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागलखाने में दाखिल करा गए।

महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी राजी-खुशी मालूम करते चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह क्रम चलता रहा लेकिन जब पाकिस्तान-हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हो गई तो उनका आना बंद हो गया।

उसका नाम बिशनसिंह था, मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसे बिल्कुल यह मालूम न था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है य कितने साल बीत चुके हैं? लेकिन हर महीने जब उसके स्वजन और संबंधी उससे मिलने आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह एक दफेदार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह से नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघी करता। अपने कपड़े, जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूं सज-बनकर मिलनेवालों के पास जाता। वे उससे कुछ पूछते तो वह चुप रहता था या कभी-कभी "ओपड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन कह देता।"



उसकी एक लड़की थी जो हर महीने में एक अंगुल बढ़ती-बढ़ती पंद्रह वर्ष में जवान हो गई थी। बिशनसिंह उसे पहचानता ही न था। जब वह बच्ची थी, तब भी अपने बाप को देख कर रोती थी। जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बहते थे।

पाकिस्तान और हिंदुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है? जब संतोषजनक उत्तर न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई। अब मुलाकात भी नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बंद हो गई थी, जो उसे उनके आने की खबर दिया करती थी।

उसकी बड़ी इच्छा थी कि वे लोग आएं, जो उससे सहानुभूति प्रकट करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह यदि उनसे पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो वे निश्चित बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में है, क्योंकि उसका विचार था कि वे टोबा टेकसिंह ही से आते हैं, जहां उसकी जमीन है।

पागलखाने का एक और पागल ऐसा भी था जो अपने को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशनसिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में, तो उसने अपनी आदत के मुताबिक कहकहा लगाया और कहा-" यह न पाकिस्तान में है और न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुकम नहीं दिया।"

बिशनसिंह ने खुदा से कई बार मिन्नत -खुशामद से कहा कि वह उसे हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वह बहुत व्यस्त था, क्योंकि उसे और भी अनगिनत हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, " ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्स दी मुंग दी दाल आफ वाहे गुरूजी खालसा, एंड वाहे गुरूजी दी फतह-जो बोले सो निहाल-सत्त श्री अकाल।"

उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुस्लमानों के खुदा हो-सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते।

तबादले के कुछ दिन पहले तक टोबा टेकसिंह का एक मुस्लमान, जो उसका दोस्त था, मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशनसिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हटा और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका, "यह तुमसे मिलने आया है-तुम्हारा दोस्त फजलुद्दीन है। "

बिशनसिंह ने फजलुद्दीन को एक नजर देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलुद्दीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा- " मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं, लेकिन फुर्सत ही न मिली-तुम्हारे सब आदमी राजी-खुशी हिंदुस्तान चले गए थे। मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की-तुम्हारी बेटी रूपकौर...। "

वह कुछ कहते-कहते रूक गया। बिशनसिंह कुछ याद करने लगा-" बेटी रूपकौर? "

फजलुद्दीन ने कुछ रूककर कहा -"हां..वह...भी ठीक-ठाक है।...उनके साथ ही चली गई थी।"

बिशनंिसंह चुप रहा। फजलुद्दीन ने कहना शुरू किया -"उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी राजी-खुशी पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो-भाई बलबीर सिंह और भाई बधवासिंह से मेरा सलाम कहना-और बहन अमृतकौर से भी। भाई बलबीर सिंह से कहना-फजलुद्दीन राजी-खुशी है। दो भूरी भैंसे, जो वे छोड़ गए थे, उनमें विएक ने कट्टा दिया है, दूसरे के कट्टी हुई थी, पर वह छह दिन की होकर मर गई---और---और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना। हर वक्त तैयार हूं...और यह तुम्हारे लिए थोड़े से भरूंडे लाया हूं।"

बिशनसिंह ने भरूंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलुद्दीन से पूछा- "टोबा टेकसिंह कहां?"

"टोबा टेकसिंह!" उसने तनिक आश्चर्य से कहा-" कहां है? वहीं है जहां था।"

बिशनसिंह ने पूछा- "पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?"

"हिंदुस्तान में-नहीं-नहीं, पाकिस्तान में।" फजलुद्दीन बौखला-सा गया।

बिशनसिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया-"ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान ऑफ दी दुर फिट्टे मुंह।" तबादले की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आनेवाले पागलों की सूचियां पहुंच गई थीं और तबादले की तारिख भी निश्चित हो चुकी थी। सख्त सर्दियां थीं। लाहौर के पागलखाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी लारियां पुलिस के दस्ते के साथ रवाना हुईं। संबंधित अफसर भी उनके साथ थे। वाघा बार्डर पर दोनों ओर के सुपरिटेंडेंट एक-दूसरे से मिले और प्रारंभिक कार्यवाही खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जो रात भर जारी रहा।

पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। कुछ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने को तैयार होते, उनको संभालना होता, क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे, उनको कपड़े पहनाए जाते थे तो वे फाड़कर अपने शरीर से अलग कर देते। कोई गालियां बक रहा है। कान पड़ी आवाज सुनाई नहीं देती थी। पागल स्त्रियों का शोरगुल अलग था। और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे।

अधिकतर पागल इस तबादले को नहीं चाहते थे। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है? थोड़े से वे जो सोच-समझ सकते थे, "पाकिस्तान जिंदाबाद " के नारे लगा रहे थे। दो-तीन बार झगड़ा होते-होते बचा क्योंकि कुछ हिंदुओं और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया था।

जब बिशनसिंह की बारी आई और जब उसको दूसरी ओर भेजने के संबंध में अधिकारी लिखत-पढ़त करने लगे तो उसने पूछा -"टोबा टेकसिंह कहां? पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?"




संबंधित अधिकारी हंसा, बोला-"पाकिस्तान में। "

यह सुनकर बिशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने शेष साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे, किंतु उसने चलने से साफ इनकार कर दिया- "टोबा टेकसिंह कहां है?" और जोर-जोर से चिल्लाने लगा, "ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्सी दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ टोबा टेकसिंह एंड पाकिस्तान।"

उसे बहुत समझाया गया, "देखो, टोबा टेकसिंह अब हिंदुस्तान में चला गया है-यदि नहीं गया है तो उसे तुरंत ही भेज दिया जाएगा।" किंतु वह न माना। जब जबरदस्ती दूसरी ओर उसे ले जाने की कोशिशें की गईं तो वह बीच में एक स्थान पर इस प्रकार अपना सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब कोई ताकत उसे वहां से हटा नहीं सकेगी। क्योंकि आदमी बेजरर था, इसलिए उसके साथ जबरदस्ती नहीं की गई, उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और शेष काम होता रहा।

सूरज निकलने से पहले स्तब्ध खड़े हुए बिशनसिंह के गले से एक गगनभेदी चीख निकली। इधर-उधर से कई अफसर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी, जो पंद्रह वर्ष तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुंह लेटा था। इधर कांटेदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था- उधर वैसे ही कांटेदार तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था टोबा टेकसिंह पड़ा था।
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