हिंदी कहानी — जव़ाब दो मित्र — राजेश झरपुरे Rajesh Zarpure


हिंदी कहानी — जव़ाब दो मित्र — राजेश झरपुरे Rajesh Zarpure

Hindi Kahani Jawab do mitr

— Rajesh Zarpure


जव़ाब दो मित्र ... — राजेश झरपुरे


वह आज फ़िर दयनीय हालत में खड़ा था। उसके चेहरे पर पहले से अधिक कातरता झलक रही थी। वह चुप था। मैं उपत कर बात नहीं करना चाहता था। उसने उद्योग में लागू आचार संहिता का उल्लघंन किया था। इसके बावजूद वह निर्दोष होने के प्रबल भाव के साथ मेरे सामने खड़ा था। एक अज़ीब तरह का आत्मविश्वास लिये, जिसे अकड़ तो कदापि नहीं कहा जा सकता था। इस तरह वह पहले भी कई बार मेरे सामने खड़ा रहा। मैंने अब तक हर सम्भव उसकी मदद की लेकिन उसकी सर्विस फ़ाईल गले तक भर चुकी थी। उसकी नौकरी को अनुशासनात्मक कार्यवाही के चक्र से बचा पाना मेरे वश में नहीं था। इसके पहले भी सारे सबूत उसके विरूद्ध रहे, लेकिन मैं मानवीय पहलुओं के आधार पर उसे बचाता रहा। इस बार मैं ख़ुद को असहाय पा रहा था। मेरी निर्बलता के कारण वह अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे... मैं यह भी नहीं चाहता था। आज के समय में सरकारी नौकरी पर होना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। यह उपलब्धि उस समय और दुगुनी हो जाती है, जब यह बिना किसी योग्यता और आर्हताओं के प्राप्त हो जाये। मात्र... सरकारी सेवक की मृत देह के आश्रित पुत्र होने की हैसियत से... यानि अनुकम्पा नियुक्ति।

अनुकम्पा में संघर्ष और त्याग नहीं होता पर उसने ज़िम्मेदारी का ईमानदारी से वहन कर इस नौकरी का मान रखा था। खूब मेहनत करता। अपने काम के साथ, सहकामगार के काम भी निपटा देता। फ़ेस वर्कर था। फ़ेस में काम करने से सभी खनिक बचना चाहते। उसने अपने आपको बचाने की कोशिश नहीं की। जोख़िम उठाने से कभी पीछे नहीं रहा। सामान्य खनिक होने के बाव़जूद कोयला खान की सुरंग की छाती में पूरी निडरता से ड्रील मशीन से होल दाग देता। अकेले अपनी मजबूत बांहों से छानी (सुरंग की छत) को धसने से बचाये रखता। साईट वाल की छटाई इस तरह करता मानो किसी कटर मशीन की छटाई हो। सुपरवाईज़र्स और अधिकारी उसे सपोर्ट मास्टर कहते। इतनी सारी खूबियाँ होने के बावज़ूद उससे एक गलती अकसर हो जाया करती। वह अपनी नौकरी से महीने में एक दो बार अनाधिकृत रूप से अनुपस्थित रहता। उसकी इसी गंदी आदत के कारण अधिकारी उससे चिढ़ने लगे थे। खदान में जब उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती वह अनुपस्थित पाया जाता। उद्योग में लागू आचार संहिता के अन्तर्गत यह एक गम्भीर दुराचार था, जिसके तहत उसे आदतन अपनी ड्यूटी से अनधिकृत तौर पर अनुपस्थित रहने के कारण सेवाच्युत किया जा सकता था.

राजेश झरपुरे

सम्पर्कः
नई पहाड़े कालोनी,
जवाहर वार्ड,
गुलाबरा,
छिन्दवाड़ा
(म.प्र.480001)
मोबाइल 9425837377
ईमेल: rajeshzarpure@gmail.com

“भाई मनकू! इस बार तुम्हें सेन्ट्रल टेªड यूनियन लीडर ही बचा सकता है। वह भी तब, जब वह औद्यौगिक सम्बन्धों की आड़ में अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों को भुनाये। उसके बाद भी तुम आरोपित कामगार ही रहोगे। बस! तुम्हें सुधरने का एक मौका और मिल जायेगा।”

मैंने उसे समझाते हुए कहा “यह कोई पहला-दूसरा आरोप नहीं हैं। पूरी सात चार्जशीट आपको जारी हो चुकी है। सातों में एक ही आरोप हैं ’...बिना किसी पूर्व सूचना के या सक्षम अधिकारी से अवकाश स्वीकृत कराये बगैर या बिना किसी संतोषप्रद कारणों से अपनी ड्यूटी से अनाधिकृत रूप से अनुपस्थित रहना।’

और दूसरा ...

’नियोक्त की सम्पत्ति या चालू कार्य में जानबूझकर व्यवधान उत्पन्न करना।’

यधपि इस तरह के कृत में दूसरा आरोप लगाने का कोई तुक नहीं होता लेकिन मैनेजमेन्ट पहले के समर्थन में यह दूसरा आरोप भी जड़ देती। पहला सिद्ध हो जाने पर दूसरा स्वयं सिद्ध हो जाता। कामगार जब अपीली प्राधिकरण अधिकारी से अपील करता तो दूसरे वज़नदार आरोप का सहारा लेकर उसकी याचना ख़ारिज कर दी जाती। मैनेजमेन्ट किसी कामगार को जब बाहर का रास्ता दिखाती तो इसी तरह घेरकर प्रमाणित स्थाई आदेश कानून के अन्तर्गत ले जाती... यह मैं अच्छी तरह जानता था। हालाँकि वह जानबूझकर आदेश का उलंघन करने वालों में से नहीं था।

वह बीमार नहीं रहता था और न ही किसी पारिवारिक सदस्य की बीमारी में तीमारदारी करता पाया जाता। न बाहर गाँव में किसी सामाजिक कार्य से गया होता और न ही घर में किसी काम में व्यस्त होता। बस! गुमशुम सा घर के आसपास धूमता पाया जाता। उन दिनों उसके चेहरे पर व्यग्रता होती और घर की बात घर से लगे घर के कानों तक भी न पहुँच पाये जैसी सतर्कता और सावधानी जैसा कुछ। बाकी जो था वह घर के पर्दे में ही छुपा रहता।

घर में मेडिकल अनफिट हुए पिता के गाली गलौच करने, बर्तनों को फेंकने और उसकी पत्नी के चीखने की आवाज़ अवश्य सुनाई देती पर सब अस्पष्ट होता। वह इन सबके बीच ड्यूटी से अनुपस्थिति और घर में अपनी उपस्थिति को बेहद मौन तरीके से बनाये रखने की कला में माहिर हो चुका था। अलबत्ता उसकी पत्नी के विरोध के स्वर अवश्य सुनाई देते पर कारण कभी स्पष्ट न हो सका। वह सदैव उसके विरोध को अपने मौन से जीत लेता था।

वह न कमजोर था, न अलाल। बुरी लत भी नहीं थी- जैसी कोयला खान श्रमिको को होती हैं। शराब,जुआ-सट्टा,औरतबाजी जैसी बुराईयों से तो वह कोसों दूर था। स्वास्थ्य सम्बन्धित कोई परेशानी नहीं थी। फिर... गैर हाज़िर रहने का क्या कारण हो सकता है, मेरी समझ से परे था। बिना जाने-समझे भी मुझे लगता कि हो न हो वह किसी बात को लेकर परेशान है और अपनी समस्या किसी को बताना नहीं चाहता। मैं नहीं चाहता था कि सच्चाई को जाने बिना उसके विरूद्ध कोई कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही हो। इसीलिए सदैव उसे बचाता रहा। वह बचता रहा पर अब उसका बचना मुश्किल लग रहा था।

वह चुपचाप खड़ा था।

“एक नहीं पूरे सात बार तुम्हें माफ़ किया जा चुका हैं। क्या आठवीं बार भी तुम इस तरह उम्मीद रखते हो।” मैंने आरोप पत्र थमाकर दूसरी कार्बन प्रति में हस्ताक्षर लेते हुए उपत कर पूछा।

पहले उसने भरपूर याचना भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा फिर हस्ताक्षर कर आरोप पत्र की कापी ले ली।

उसकी चुप्पी के पीछे ढेर सारी असन्तुष्टि, व्यग्रता और चिन्तायें झलक रही थी, जो चिता पर जाकर ही शान्त होगी... यह मैंने उसकी आँखों में देखकर जाना।

“तुम तीन दिनों के भीतर इसका जव़ाब दे दो। डी.ई.(डोमैस्टिक ऐनक्काईअरी) होगी। अब तुम्ही जानो, समझो...क्या होगा?”

वह चुप खड़ा रहा। बस! मेरी तरफ़ अपलक देखता हुआ।

“जाओ! जव़ाब बनाकर लाओ।” मैंने पुनः कहा।

वह टस से मस नहीं हुआ।

उसे वहाँ से हिलता हुआ न देख, मैंने स्पष्ट कहा...

“नहीं ! अब बहुत हो गई। पूरे सात बार बचा चुका हूँ तुम्हें। इस बार मेरे बस की बात नहीं। तुम किसी बड़के नेता को पकड़ो। वही तुम्हारी कुछ मदद कर सके।”

वह निशब्द खड़ा रहा।

एक शब्द तक उसके होठ पर नहीं आया। जबकी शब्द और विचारों की उसके अन्दर जंग चल रही थी। रक्षा और सुरक्षा के भाव से दूर वह मेरे सामने से हिला तक नहीं।

“भाई मनकू ! मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर पाऊँगा। तुम्हें बचाना अब मेरे वश में नहीं रहा। हबिचूअल ऐबसिण्टीज़म का मामला है। पुराने सभी मामले प्रूवड हैं। अब तो बस उनका रिफरेन्स देकर पनिशमेंट’ अॅवार्ड करना हैं। बड़े से बड़ा अधिकारी और बड़े से बड़ा नेता भी चाहकर कुछ नहीं कर पायेगा। फिर भला मैं किस खेत की मूली हूँ। मैं तो एक अदना सा कारकुन और ट्रेड यूनियन का छोटा सा सिपाही हूँ...।” मैंने स्पष्ट करते हुए कहा।

इस बार भी वह चुप खड़ा सुनता रहा लेकिन कहा कुछ नहीं।

मुझे लगा इस बार वह पहले से ज़्यादा चुप हैं। उसकी आँखों में कोयला खान की अंधी गहरी सुरंग का अंधेरा उतर आया हो।

“जाओ भाई मनकू।

मुझसे नहीं होगा। जानबूझकर किसी की नौकरी चली जाने का गुनाह मैं अपने सिर पर नहीं ले सकता। जाओ... और किसी अच्छे से नेता से जव़ाब बनवाकर ले आओ। और किसी बड़े नेता को ही इन्क्कारी में अपना को-वर्कर रखना। शायद वह तुम्हें बचा सके। तुम्हें दोषमुक्त करा सकूँ ऐसी सामर्थ्य अब मुझमें नहीं। जाईये... जव़ाब बनवाकर लाइये। मैंने एकदम बेरुखी से कहा।

उसके होंठ बुदबुदाये पर शब्द बाहर नहीं आये।

“ जाइये...”

मैंने झुंझलाकर कहा और टेबल पर रखी फ़ाईल में उसको अभी-अभी जारी की आफ़िशियल चार्जशीट की कापी नत्थी करने लगा।

“जव़ाब...!”

उसके होंठ फड़फड़ाये पर इस एक शब्द के बाद, वह दूसरा शब्द नहीं बोल पाया।

“हाँ! जव़ाब..!!

तुम्हें बचाने के लिए मैं मानवीय पक्षों का झूठमूठ हवाला देता रहा। मुझे लगा तुम सुधर जाओगे। तुम नहीं बदले। तुम्हारे नहीं बदलने मैं भी तुम्हारी तरह झूठी वकालत करने का आरोपी बन चुका हूँ। आपको चार्ज शीट मिल चुकी हैं। जाइये और जव़ाब बनवा कर लाइये। फिर जो हो... आपकी किस्मत।” इस बार मैंने लगभग चिड़ते हुए कहा।

“ जव़ाब...!

जव़ाब तो एक ही है।”

कुछ रूक कर उसने कहा...

“ जव़ाब...

मेरा अनुकम्पा जीवन हैं।

“ जव़ाब...

मेरी अनुकम्पा नौकरी हैं...।

पर इस तरह मैं जव़ाब नहीं दे पाऊँगा।

वह जो अब तक चुप खड़ा था, एकाएक फूट पड़ा। वह अनुकम्पा में अपने पिता के मेडीकल अनफिट होने पर ड्यूटी लगा था। जनरल मजदूर था पर शिक्षित। सब शिक्षित को नौकरी नहीं मिलती और सब अशिक्षित को मजदूरी। यही कारण था कि शिक्षित बेरोजगार अनुकम्पा में मिलने वाली सरकारी मजदूरी को भी राजी-खुशी करने के लिए तैयार हो जाते। और तो और अपने सेवाकाल के अंतिम दिनों में कोयले की महीन धूल खांसते-खखरते, लंगड़ाकर मुश्किल से ड्यूटी कर पाते बूढ़े खनिक पिता के स्वास्थ्य में अनुकम्पा नियुक्ति की तलाश लेते कुछ ऐसे होनहार बेरोजगार पुत्र भी समाज में नज़र आ जाते हैं। अंधेरा भूगर्भ में भी हैं और पृथ्वी की सतह पर भी। हम इससे बच नहीं सकते।”

“क्या मतलब..?”

मैंने आश्चर्य से पूछा।

“यही तो वह शब्द है सर, क्या मतलब... जिसका अर्थ खोजते-खोजते मैं पगला गया हूँ। पागल आदमी किसी की हत्या भी कर सकता हैं। पर मैंने नहीं किया। यह मेरा अपराध हैं। इस अपराध के लिए मैं हँसते-हँसते फाँसी चढ़ने को तैयार हूँ। दे दीजिये मुझे फाँसी...।” उसके चेहरे पर एक तरह की कठोरता आ चुकी थी जिसके पीछे आक्रोश और प्रतिहत की धधकती हुई ज्वाला को मैं स्पष्ट महसूस कर सकता था।

“तुम क्या कह रहे हो... मेरी समझ से परे हैं। आप जाइये... और जव़ाब बनाकर लाइये।”

“जव़ाब...

जव़ाब तो आपको ही ढूँढना हैं-सर!

आप हमारी यूनियन के नेता हैं और कार्यालय प्रधान भी। आप ही ने हमें मेम्बर बनाया हैं। अपने मेम्बर के लिए जव़ाब ढूँढ़ने की ज़िम्मेदारी भी आप की है। आपका गलत-सही जव़ाब ही मेरा जव़ाब होगा। फिर चाहे मेरी नौकरी चली जाये, मुझे रत्ती भर भी रंज नहीं होगा। अब तक मुझे आपके जव़ाब ने ही बचाया है। मैं बचा रहा। मुझे विश्वास है इस बार भी मैं बच जाऊँगा।” उसने अपनी बात दृढ़ता से कहा लेकिन विनम्रता का साथ नहीं छोड़ा।

उसका कहना उचित था। वह मेरी ही यूनियन का मेम्बर था। मैंने ही उसे सदस्य बनाया था। उसके प्रति मेरी जिम्मेदारी थी। मैं अपने कर्तव्य के निर्वाहन से चूक कैसे रहा। मुझे अफ़सोस हुआ।

“हाँ मनकू भाई! तुम सही कह रहे हो पर मजबूर हूँ। मैं तुम्हारे लिए मानवीय पक्षों के झूठ इकठ्ठा करते-करते ख़ुद अपनी ही निगाह में झूठा साबित हो चुका हूँ। औरों की निगाह से गिरकर उठा जा सकता है। स्वयं की निगाह से गिरा हुआ आदमी कैसे उठ सकेगा... कभी तुमने सोचा हैं? वैसे भी अब मेरे पास तुम्हें बचाने के लिए कोई झूठ नहीं बचा। कहीं इस तरह कोई और नया झूठ मिल सके, जैसी उम्मीद भी नहीं। अब तुम्हीं बताओ...? मैं क्या कर सकता हूँ..?” मैंने अपनी झुंझलाहट पर नियंत्रण पा लिया था।

“ अनुकम्पा नियुक्ति...

 अनुकम्पा जीवन... यही हैं, मेरा जव़ाब।

बस! इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं बता पाऊँगा सर।”

उसके चेहरे पर विवशता के काले बादल छा गये और उसने अपनी गर्दन झुकाकर नज़रें नीचे कर ली।

मुझे उस पर दया आ रही थी और क्रोध भी। उसके गोलमोल रहस्मयी जव़ाब से मेरा सिर चकराने लगा।

“...यह क्या अनुकम्पा, अनुकम्पा लगा रखा हैं। जो भी बात हैं साफ़-साफ़ कहो? यदि सूद पर किसी गुंडे से पैसा उठाया हो और वह मारने-पीटने की धमकी देता हो तो बताओ ? यूनियन तुम्हारे साथ है, वह निपटेगी। यदि कोई बीमारी हो तो खुलकर बोलो यूनियन तुम्हें बढ़िया अस्पताल में नागपुर रेफ़र करवा देगी। आख़िर तुम्हारे एब्सेन्ट करने की कोई तो वज़ह होगी ..?”

“तबीयत तो मेरी बिल्कुल ठीक हैं सर। सूदखोरों की जात में मुझे जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। दुश्मन बाहर कोई नहीं। अगर होता तो मैं पहली ही बार उससे निपट लेता। दुबारा फिर ऐसी गलती नहीं होती। दुश्मन तो मेरी अनुकम्पा नियुक्ति हैं। इस अनुकम्पा नौकरी ने मेरे पूरे जीवन को दयनीय बना दिया।” बेहद रूँआसे शब्दों में उसने कहा।

“अनुकम्पा... अनुकम्पा... अनुकम्पा...!

लगता है तुम मुझे पागल करके छोड़ोगे। आख़िर अपनी बात साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते?” मेरा गुस्सा अब नियंत्रण से बाहर हो चुका था। उसे काबू कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं जान पड़ रहा था।

“आप क्रोधित न हो सर। पूरे झगड़े की जड़ यहि अनुकम्पा नियुक्ति हैं। आप सच सुनना ही चाहते है तो सुने... अनुकम्पा नियुक्ति ने मेरे विरोध करने की शक्ति को मुझसे छीन लिया। मैं गलत बातों का विरोध नहीं कर पाता और सही बातों के समर्थन में मेरे हाथ नहीं उठते। मैं पहले दयनीय हुआ फिर अपंग होकर रह गया।” कहते हुए उसने एक गहरी साँस भरी और पुनः अपनी बात पर आ गया “...पिता जब से मेडीकल अनफिट हुए घर में ही रहते हैं। उनकी जगह मुझे अनुकम्पा नौकरी मिली। दारू तो वह शुरू से ही पीते हैं। शायद हमारे जन्म से भी पहले। फंड, ग्रेच्युटी का लाखों रूपये धरा हैं उनके पास। किसी चीज़ की कोई कमी नहीं। बस! रात दिन दारू के नशे में मस्त रहते हैं। घर में उनका ही साम्राज्य हैं। बहुत उत्पात मचाते हैं। सभी को हलाकान कर रखा हैं। माँ पहले ही उनसे तंग आकर चलती बनी। वह तो हमारा मुँह देखकर जैसे-तैसे हमें बड़ा करते तक जी गई। पर हमारा जी पाना मुश्किल हो रहा हैं। माँ के जाने के बाद भी उनका स्वभाव नहीं बदला। अब तो पहले से ज़्यादा उग्र और दुष्कामनाओं से भर गये हैं... दिन-रात शराब के नशे में जो रहते है। वे कहते है...सब मेरा हैं। तेरा कुछ नहीं। मैंने कभी विरोध नहीं किया। कोयले की तरह हमारे पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध काले पड़ चुके हैं। हमारे संस्कारों के मुँह पर कालिक पुत चुकी हैं। मान मर्यादा के मायने बदल गये। बूढ़े लोगों का चाल चलन अब पहले जैसा नहीं रहा। सगा अब पहले जैसा सगा नहीं रहा। रिश्तेदार मुँह देखी बात करते हैं। हम उन्हें दिन-रात हथेली पर रखते हैं। एक आवाज़ पर पूरा घर दौड़कर उनके सामने खड़ा हो जाता हैं। उसके बाद भी शिकायत और बिना गाली गलौच के बात नहीं करते। ऐसा बुरा कोसते हैं कि घर को घर और परिवार को परिवार कहने में लज्जा आती। घर-परिवार जिसे आदमी अपना स्वर्ग कहता हैं, वही हमारे लिए नरक बन चुका हैं। सच तो यह हैं कि अपनी नौकरी देकर वे हमें तरह-तरह से प्रताड़ित करते हैं। उनकी वांक्षित/अवांक्षित आकांक्षायें हमें जीने नहीं देती...” कहते हुए उसने पुनः उसाँस भरी और चुप हो गया।

 इस बार मैंने घूरकर उसको देखा पर बोला कुछ नहीं। मैं जानता था वह पढ़ा-लिखा हैं। आज नहीं तो कल इसी उद्योग में किसी अच्छे पद पर होगा, जैसी सम्भावना से मैंने कभी इंकार नहीं किया था। लेकिन इस तरह वह भेजा पका देगा... इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। मुझे चुप और परेशान देख उसने अपनी बात जारी रखी “...लोग कहते हैं वृद्धावस्था में लोग जिद्दी हो जाते हैं... मैंने मान लिया। लोग कहते हैं...इस उम्र में जीवन साथी के बिछड़ जाने से व्यक्ति भरे-पूरे परिवार में भी एकाकी महसूस करने लगता हैं। उदास और गुमशुम हो जाता हैं... मैंने यह और वह सब मान लिया जो लोगों ने कहा। लेकिन वह उन सब मान्यताओं के बाहर ही निकले। शराब को अपने जीवन का सहारा बनाये बैठे पिता के अन्दर लगातार कुत्सित भावनायें सिर उठाने लगी। मैं उनका बेटा हूँ। सब सहन कर सकता हूँ। मेरी पत्नी मुझसे बंधी है। वह भी मेरे लिए और मेरी मान-मर्यादा के लिए सब कुछ सहन कर लेती हैं। लेकिन जब पिता जैसे ससुर के हाथ कुत्सित भावना से उसकी अस्मिता की ओर बढ़े तो वह कैसे चुप रह सकती हैं..? कैसे उनकी इज़्जत कर सकती हैं..? और कैसे उनकी सेवा सुश्रूर्षा कर सकती हैं..? आप ही बताये सर..? इस अनुकम्पा नौकरी ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। इससे तो अच्छा था मेरी नौकरी ही नहीं लगती। नौकरी नहीं लगती तो शायद अभी तक शादी भी नहीं होती..? अब आप ही बताये... पहले मैं फांसी पर लटक जाऊँ या पहले अपने दरूयें पिता को फांसी पर लटका दूँ...? या अपने घर में अपनी ही पत्नी की असुरक्षित देह को मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दूँ। बस! यही वे जव़ाब हैं, जिनमें से किसी एक सही जव़ाब को चुनने में मुझसे एब्सेन्ट हो जाती हैं। इस बार भी हुई लेकिन जव़ाब नहीं मिला। कमजोर आदमी हूँ न और डरपोक भी। अब आप ही जव़ाब दो सर...? मैं क्या जव़ाब दूँ..?” कहते हुए उसने अपनी तीक्ष्ण नज़रें मेरे चेहरे में घोंप दी।

मैं उसके इस अप्रत्याशित जव़ाब से सिहर उठा। मुझे लगा कोयला खान का काला घना अंधेरा मेरे दिमाग में आकर पसर गया। भूगर्भ की काली वजनी सिल्ली (चट्टान) धड़ाम से मेरे सिर पर आकर गिर पड़ी। मैं कराह भी नहीं सका।

मनकू के शब्द मेरे दिमाग में घंटे की टन, टनाहट की तरह गूंज रहे थे...

“ अब तुम ही जव़ाब दो सर..?”

टन... टन... टन... टन...

“ तुम ही...?

टन... टन... टन...

जव़ाब...

टन... टन...

मेरा दिमाग फटा जा रहा था। घंटे की टनटनाहट सहन करना मेरे बस में नहीं रहा तो दोनों हाथ कान पर रखकर मैं चीख पड़ा...

“ नहीं...!”

पर मेरा चीखा जाना किसी ने नहीं सुना।

मैंने भी नहीं।

मैं अब तक अपने कोयला खदान समाज में व्याप्त बहुत सी बुराईयों को देख-सुन चुका था पर अब जो सुना उसका जव़ाब उसे नहीं मुझे देना था और शायद आपको भी..?

“जव़ाब दो मित्र..?
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