कहानी — 'अभयदान' — प्रतिभा | #Hindi #Kahani by Pratibha


प्रतिभा की यह कहानी, उन कम-होते लोगों की, जिनके होने-से, वो दूरी जो टेक्नोलॉजी ने तो ख़त्म की है लेकिन राजनीति अपने स्वार्थवश बढ़ाने में ही लगी हुई है, की शक्ति के दर्शन दिलाती है। मार्मिक-सच्ची-और-ज़रूरी कहानी  है 'अभयदान' ।  — भरत तिवारी

कहानी — 'अभयदान' — प्रतिभा | #Hindi #Kahani by Pratibha

अभयदान

— प्रतिभा



जाने क्या है इस नाम में? इस शब्द में? एक शब्द ही तो है, एक पाक-साफ, अर्थपूर्ण, पवित्र शब्द। शब्दकोश के अन्य और शब्दों की तरह। फिर जाने क्यों यह शब्द उस छत्ते का पर्याय बन गया है जिससे लिपटी मधुमक्खियां सिर्फ़ शिकार की ताक में बैठी हैं। क्यों किसी शब्द का परिचय एक तकलीफ़ से होने लगता है? क्या वास्तव में कोई शब्द इतना अभागा हो सकता है? या फिर कोई अपशगुन हुआ होगा जब यह शब्द बना होगा।

एक शायर हूँ मैं। स्वाभाविक है एक चिंतक भी हूँ। हमेशा शब्द की ताकत में ही विश्वास रखता आया हूँ। एक कवि या लेखक की रूह से निकला शब्द कुछ भी कर सकता है, पर यह शब्द... यहां आकर तो सब कलाकार, लेखक, कवि बौने हो जाते हैं, उनके शब्द रूह से निकलते ही भाप बन जाते हैं, उनके शब्दों के अर्थ वाष्प बनकर उसी नफ़रत में समा जाते हैं, उनकी हर रचना नफ़रत के खौलते पानी के बादलों में अपने अर्थ खोने लगती है। वे अवाक् आंखें फाड़े सारे घटनाक्रम को देखते रह जाते हैं, भीतर तक अस्त-व्यस्त हो जाते हैं, परंतु निराश नहीं होते। क्षण भर बाद फिर से अपनी सारी संकल्प शक्ति को समेट लेते हैं, फिर से एक नई रचना में लग जाते हैं। कुछ बीजने लगते हैं, कुछ सींचने लगते हैं। फिर एक और कोशिश में, एक चमकीली उम्मीद के साथ। प्रेम के सुनहरे आसमान में उड़ते एक-एक सुनहरे पल को पकड़ने की जी तोड़ कोशिश में लग जाते हैं, सुनहरा संसार रचने के लिए फिर से तिनके जुटाने लगते हैं।

मैं अपने घर में जब भी इस ‘शब्द’ का उच्चारण करता हूं कोहराम मच जाता है। क्योंकि मैं शायर हूं इसलिए बज़्म ही मेरा कर्मक्षेत्र है। ग़ज़लें ही जीवन है। भावुकता मेरी ताकत है। पिछले साल अपनी जड़ों से मिलने की, अपनी जन्मभूमि के दर्शनों की इच्छा की थी तो यह शब्द एक दानव बन कर घर में पसर गया था। गाढ़ा लाल गरम लावा सारे घर में बहने लगा था। उसकी तपिश से सबके दिमाग फटने लगे थे। इस बार विभाजन मेेरे घर का हुआ था। उस पार पत्नी, बेटा-बहू, बेटी-दामाद सब थे और इस पार मैं अकेला। उनके हाथ में भाले, फरसे, बरछियां सब थे और मेरे एक हाथ में कवच था और दूसरे में वह निमंत्रण पत्र था जिसमें पाकिस्तान के मेरे दोस्तों ने एक छोटे से मुशायरे का आयोजन किया था और मुझे बुलाया था। घर जैसे एक कुरुक्षेत्र में परिवर्तित हो गया था। इस कुरुक्षेत्र में कौरव पांडव नहीं थे, न आपस की कोई शत्रुता थी, न हकों का कोई झगड़ा था। बस झगड़ा था तो यही कि उस एक ‘शब्द’ के प्रति मेरे भीतर जुड़ाव क्यों है।

“आपका दिमाग तो ठीक है न। सठिया गए हैं आप। जि़ंदगी कोई ग़ज़ल या मुशायरा नहीं है।” पत्नी भुनभुनाई थी। उसकी तल्ख़ आवाज़ ने सारे घर के माहौल को तल्ख़ी से भर दिया था।

“बख़्शो, पापा।” बेटे ने हाथ जोड़कर कहा। हाथ जोड़ने की आवाज़ किसी थप्पड़ से कम न थी। उसके चेहरे पर आक्रोश और असहमति के भाव पसर गए थे। 

“पापा, कहीं घूमने का मन है, तो सिंगापुर जाओ, स्विट्ज़रलैंड जाओ, पाकिस्तान में क्या है!” बेटी ने मेरे फैसले को सर्वथा अनुचित ठहराया।

“डैड, सबकी फीलिंग्ज़ का ध्यान रखना चाहिए। यहां कोई आपका दुश्मन नहीं है।” दामाद ने नसीहत दी।

घर विभाजित हो गया। हम सब दुःखी थे। मेरे दुःख का कारण वो थे उनके दुःख का कारण मैं था। हम सबके दुःख का कारण वह एक ‘शब्द’ था। हमारे बीच में बस एक रेखा थी। वो मुझे प्रेमवश उस रेखा के इस तरफ खींचना चाहते थे। मैं सहर्ष रेखा के इस पार आ भी जाता था पर जाने क्यूं मेरे मन का एक कोना वहीं छूट जाता था।

“दद्दू, वे आपको शूट कर देंगे।” पोती की कसर बची थी सो पूरी हुई।

पोती के मुंह से निकले शब्द मेरे भीतर की सारी ऊष्मा को चूस गए थे। मैं पूरी तरह निश्चल हो गया था, लग रहा था मैं एक श्मशान में खड़ा हूं।

मैं अपने कमरे में आ गया। भीतर की व्यथा उन्हीं शब्दों की पीठ पर सवार थी। दिन भर मैं और पत्नी एक ही कमरे में थे पर हमारे बीच कोई संवाद नहीं था। मैंने पत्नी की नाराज़गी को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया।

रात में टी.वी. चला तो सभी चैनलों पर एक ही खबर थी। अक्षरधाम मंदिर पर आतंकवादी हमला। सभी चैनल एक ही आग धधका रहे थे। चैनलों की आग घर में पसर गई। उस आग ने हम सबको अपनी चपेट में ले लिया। ऐसी बात नहीं कि मुझे इस हमले से कोई दुःख नहीं था पर ये तो चंद सिरफिरों का काम था, पूरी कौम का नहीं।

“इन्हीं वहशियों के देश में आपको जाना है।”

बेटा भी धधक रहा था।

“रोज़ इतने लोगों का खून बहाते हैं वे, फिर भी वहां जाना है आपको। अब वह आपकी जन्मभूमि नहीं है। जिस धरती का आप खा रहे हैं उसके साथ कैसे धोखा कर सकते हैं।”

बेटे को रोकना मुश्किल था।

पूरे कमरे में उसी की आवाज़ गूंज रही थी।

प्रतिभा

एम. ए.  , एम. फिल.
कहानी संग्रह: हरियाणा साहित्य अकादमी प्रथम पुरस्कार प्राप्त 'तीसरा स्वर' और अभयदान
ईमेल: pratibha.kmr26@gmail.com

“बेटे, मैं कोई धोखा नहीं कर रहा। मैं...” मैं उसे समझाना चाहता था।

“चुप रहिए आप। अगर उन्हें रोक सकते हैं तो दलील दीजिए।” उसने मुझे चुप करा दिया। होंठों तक आए शब्द वापिस मुंह में दुबक कर बैठ गए। मुझे चुप रहना ही ठीक लगा। इस समय वह कुछ भी समझने की स्थिति में नहीं था।

बेटा खाने की मेज़ से उठ कर चला गया।

“दद्दू आपने डैडी को नाराज़ कर दिया। अब वे मुझे गाड़ी में घुमाने नहीं ले जाएंगे।” पोती भी नाराज़ हो गई।

ऐसी बात नहीं कि मुझे बहता खून अच्छा लगता है। मैं तो एक शायर हूं। मैं तो प्यार की नदियां बहाना चाहता हूं। पर विवश होकर खून की नदी के बीचोंबीच खड़ा रहता हूं। खून के दरिया के उस पार सहमे खड़े सब लोग भी मुझे दिखाई देते हैं। मैं उनकी आंखों से भय निकालना चाहता हूं। पर जाने क्या है उस ‘शब्द’ में कि सब कुछ उखड़ने लगता है। घर का सारा सौहार्दपूर्ण वातावरण जैसे कुलषित हो जाता है। उनके लिए यह सब मात्र भावुकता है। कसूरवार और गद्दार भावुकता।

मैं जब भी अपनी जन्मभूमि बहावलपुर के दर्शनों की इच्छा करता हूं, हर बार बेटा, पत्नी, बहू हिंदी और हिंदुस्तान की बन्दूकें ताने खड़े रहते हैं। उस समय मुझे ये तीनों किसी आतंकवादी से कम नहीं लगते। मैं बेबस असहाय अपने कमरे में लौट आता हूं।

सब चाहते थे मैं उनकी इच्छित भाषा में लिखूं, उनकी इच्छित भूमि को मातृभूमि कहूं, पर... यह शायद मेरी ही कमी है कि मैं उन्हें यह समझाने में असमर्थ रहा कि जहां मैं पैदा हुआ हूं वही मेरी जन्मभूमि है। वहां की भाषा ही मातृभाषा है। सैकड़ों विभाजन भी इस सत्य को परिवर्तित नहीं कर सकते। इसमें कोई संदेह नहीं पालनकत्र्री जन्मदात्री से ज़्यादा महान है, पर जन्मदात्री मां कहलाने का अधिकार तो रखती ही है। कृष्ण की दृष्टि में यशोदा महान है परंतु देवकी भी मां तो है ही। देवकी को मां कहने से यशोदा की महत्ता कम नहीं कर देते कृष्ण। 

मैं चाहता था उन्हें मेरी किसी बात या व्यवहार से कोई कष्ट न हो। वे भी मुझे कभी कोई कष्ट नहीं देना चाहते थे। पर जाने क्या था उस ‘शब्द’ में कि...

एक अजीब बात यह थी कि जितना विरोध हो रहा था उतना ही भीतर कहीं संकल्प गहरा होता जा रहा था। मैंने घर वालों को बिना बताए पासपोर्ट बनवा लिया था, मैंने वीज़ा के लिए भी चुपचाप एप्लाई कर दिया था। मेरी जाने की सारी तैयारी हो चुकी थी। मेरी भूमि मेरा इंतज़ार कर रही थी, मेरे यार मेरा रास्ता देख रहे थे। मेरे स्वागत में वहां बज़्म रखी गई थी। मैं उसमें सादर आमंत्रित था। मेरी खुशी मेरे आसपास नाच रही थी। मेरा रोम-रोम चहक रहा था। मेरी खुशी ग़ज़ल पूरी हो जाने की खुशी से कम नहीं थी। जैसे किसी रचना का मुकम्मल हो जाना तसल्ली बख़्शता है उसी तरह मेरे भीतर गहरा सुकून था।

एक रोज़ रात में पत्नी ने पूछा भी था - ”आजकल बड़ी चमक है चेहरे पर। कोई किताब आने वाली है क्या?” मैं मुस्करा दिया। वह भी मुस्करा दी थी। जी चाहा उसे बता दूं, पर मैं उसकी इस खुशी को न छीनना चाहता था न कम करना चाहता था।

उसके लिए मेरी खुशी सबसे बड़ी चीज़ है। बस उस एक ‘शब्द’ के आते ही न जाने उसे क्या हो जाता है।

कभी-कभी लगता है मैं कितना स्वार्थी हूं। एक चीज़ उनके लिए नहीं छोड़ पाया। एक ही तो खाई है जो मैं पाट नहीं पाया था। मैंने पाटने की कोशिश ही नहीं की। बल्कि अपनी जि़द पे अड़ा रहा। नहीं, जि़द नहीं संकल्प था अपनी भूमि और भाषा के लिए। नेताओं की चालों में न बंधने की जि़द थी। उनके विभाजन को न ढोने का निश्चय था। अपने दोस्तों को न छोड़ने का जुनून था, मुझे नफ़रतों को जीतना था, चंद विभाजकों को चिढ़ाना था, आतंक को अंगूठा दिखाना था क्योंकि मैं एक शायर हूं। यह काम मैं ही कर सकता हूं। निर्भय होकर किसी भी भूमि पर प्यार की ग़ज़ल सुना सकता हूं। 

आज विस्फोट का दिन था। कल मुझे अपनी जन्मभूमि के दर्शन करने जाना था। मैं डाइनिंग पर सबका इंतजार कर रहा था। भीतर विचलित भी था और अस्त-व्यस्त भी, पर संकल्प भी अटल था।

खाने की मेज़ पर सब खुश थे। पल भर मन डांवाडोल भी हुआ कि कैसे इनकी खुशी छीन लूं। परन्तु... मैंने खुशी का सारा मकड़जाल उतार दिया।

बहती नदी पल भर में रुक गई थी।

सब अवाक्।

पत्नी निश्चेष्ट और निढाल।

फिर एक-एक कर सब उठकर चले गए। कोई कुछ नहीं बोला। जैसे भीतर जानते थे अब मुझे कोई रोक नहीं पाएगा। मैं हैरान था कैसे कभी-कभी बिना कुछ कहे भी सब कहा जाता है। बिना एक शब्द कहे फलसफा बयान हो जाता है।

पत्नी रात भर रोती रही। हर बार जब वह नाक सुनकती मैं समझ जाता वह रो रही है। मैंने उसे प्यार भी करना चाहा, उसके आंसू भी पोंछने चाहे, उसे समझाना भी चाहा, पर फिर वही ‘शब्द’... जाने उस ‘शब्द’ के आते ही वह बदहवास क्यों हो जाती है।

आखिर है तो पत्नी ही। मुझे भी चाहती है और मेरी सलामती भी चाहती है। सुबह जल्दी उठ गई। रास्ते के लिए नमक, अजवायन की रोटी भी बनाई। बेटा स्टेशन तक साथ आया। हम दोनों खामोश थे। पत्नी का खामोश, ख़ौफज़दा चेहरा आंखों से हट नहीं रहा था। उसकी आंखों में पसरी पड़ी दहशत मुझे भी अस्त-व्यस्त कर रही थी जैसे मैं किसी मुशायरे में नहीं किसी जंग में जा रहा हूं। मैं समझ नहीं पाता था कि उसके भीतर की दहशत को मिटाने के हर प्रयास में मेरे शब्द बेअसर क्यों हो जाते हैं। मेरे शेर जब भी इस डर से जूझते हैं पस्त हो जाते हैं, मेरी ग़ज़ल जब भी इस दहशत से गुत्थमगुत्था होती है हार कर लौट आती है। ऐसे हर अवसर पर मैं स्वयं शर्मिंदा अनुभव करता हूं। कभी-कभी इन शब्दों की ताकत पर से भरोसा उठने लगता है पर मैं जबरन उसे कायम करता हूं। उस भरोसे को कस कर पकड़ लेता हूं, क्योंकि यही तो मेरी ताकत है क्योंकि मैं एक शायर हूं।

थोड़ी देर में ही ट्रेन आ गई। बेटा मेरे साथ ही गाड़ी के अंदर आ गया। मेरी सीट के ऊपर नीचे, आस-पास उसने अच्छी तरह जांच की। मुझे लग रहा था वह एकाएक मेरा बाप हो गया है। वह मेरी सुरक्षा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं दिख रहा था। भूमिकाएं बदल गई थीं, बेटा बाप हो गया था बाप बेटा। पर यह अहसास खुशगवार था। मेरा जी चाह रहा था मैं उसे प्यार से चूम लूं, पर अब वह बाप बन गया है और इस समय तो मेरा भी बाप इसलिए मैंने अपना इरादा बदल दिया। परंतु यह अहसास मुझे गुदगुदा रहा था। मेरे भीतर से उसके लिए ढेरों आशीर्वाद निकल रहे थे। मेरी आंखों से बहती इस धारा को उसने महसूस कर लिया था पर उसका सशंकित मन अब किसी धारा में बह नहीं पा रहा था।

मुझे अच्छा लग रहा था वह मेरी चिंता कर रहा था। बुढ़ापे में हर बाप यही चाहता है। मेरे पैर छूते हुए वह शायद ईश्वर से मन-ही-मन दुआ कर रहा था। प्रभु यह आखिरी आशीर्वाद न हो। मैं शायर हूं उसका भीतर पढ़ सकता हूं।

ट्रेन चल पड़ी। बेटा ट्रेन से नीचे उतर गया। उसके हिलते हाथ उसके चेहरे के भावों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर पा रहे थे। वह चिंतित था पर बेबस भी था। वह एक शायर, एक चिंतक को विजयी देखना चाहता था पर जाने क्या था कि उस ‘शब्द’ के दुष्प्रभाव से अपने आपको बचा नहीं पाता था।

पूरा सफ़र मैं इसी द्वंद्व में घिरा रहा कि मैंने ठीक किया या गलत। पत्नी और बेटे की आंखों की दहशत बेमानी नहीं लगे। उस ‘शब्द’ का प्रभाव मुझ पर भी असर दिखाने लगा था। बेटे का चिंतामग्न चेहरा पत्नी के चेहरे के साथ ही चिपका था। रास्ते भर प्रकृति का कोई दृश्य मुझे खींच नहीं रहा था। भीतर की हलचल दिलोदिमाग पर हावी थी।

अटारी स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो भीतर मंजिल पर पहुंचने की खुशी गायब थी। एक शायर का संकल्प प्रकंपित था। मन भारी था। जी चाह रहा था ऐसे ही लौट चलूं अपने देश, घर परिवार में। बुझे मन से ही स्टेशन पर उतरा। सब प्रकार की जांच और औपचारिकताओं से गुज़रते हुए भी मन जैसे बुझा था, तन यंत्रवत चल रहा था।

मैंने लाहौर के लिए ट्रेन पकड़ी। मैं भीतर वही शायर का संकल्प उत्पन्न करने में लग गया पर कोशिश नाकाम थी।

कुछ घंटों में मैं अपनी भूमि पर था। जिस मिट्टी के लिए मैंने अपने परिवार की एक न सुनी आज वही मिट्टी मेरे सामने थी पर उसकी खुशबू मुझे उद्वेलित नहीं कर पा रही थी।

लाहौर स्टेशन पर सब तरह की जांच और औपचारिकताओं को पूरा कर जैसे ही बाहर निकला तो कई हाथ हवा में हिलते नज़र आने लगे। लग रहा था भीड़ के सिर पर एकाएक हाथ उग आए हैं जो हवा में हिल रहे हैं।

धीरे-धीरे वे हिलते हाथ मेरी ओर बढ़ने लगे। मैं उनको और वे मुझको पहचान गए थे। मन का भारीपन हवा हो गया। मन का सारा अवसाद बह गया।

एक शायर का संकल्प पूरा हुआ। स्टेशन से आगे बढ़े तो जगह-जगह लगे टी.वी. पर जमघट थे। टी.वी. पर ‘सा रे गा मा पा, हीरो होण्डा’ था और स्क्रीन पर थे ‘असीम’ और ‘अशफाक’। क्या ग़ज़ल गाते थे। रूह में उतर जाते थे। मैं हैरान था वहां भी लोग ‘सा रे गा मा पा’ के दीवाने हैं। मन गदगद हो उठा, शब्दों की ताकत पर से उठता भरोसा फिर ताकत पाने लगा। ग़ज़ल हो या ग़ज़ल गायकी, लेखन हो या संगीत-कुछ तो नफ़रतों के ऊपर भारी पड़ा। कुछ तो है जो नफ़रत को हराने का बीड़ा उठा बैठा है। संगीत तो रूहों को मिलाता है।

बड़ा खुश हुआ मन कि लोग ‘अशफाक’ के दीवाने ही नहीं थे ‘असीम’ की गायकी को भी उसी प्यार से सराह रहे थे। मन सुकून अनुभव कर रहा था।

मैं था, वे थे और थे ठहाके। स्वागत की रस्में, प्यार की सौगातें। दोस्त जितने करीब थे उनके परिवार उतने ही दूर।

“आपकी पाॅकेट में गन है?” एक प्यारी-सी बच्ची ने आकर मुझे अचंभित कर दिया।

“नहीं बेटा, टाॅफियां हैं आपके लिए।” मैंने जेब से कुछ टाॅफियां निकाल कर उसे दीं।

“पापा झूठे हैं।” - वह टाॅफियां लेकर बुदबुदाती हुई चली गई।

मेरा दोस्त हाथ जोड़कर माफी मांग रहा था। वह बच्ची की कृतघ्नता पर शर्मिंदा था।

मेरे मोबाइल की घंटी बजी।

बेटा था, उसके स्वर में चिंता थी।

“मैं ठीक-ठाक पहुंच गया हूं, चिंता मत करो।”

लेकिन मैं जानता था मेरे इतना कहने भर से उनकी चिंता समाप्त नहीं होने वाली। मैं जानता था इस दावानल में वे सब तब तक झुलसते रहेंगे जब तक मैं सही सलामत वापिस नहीं पहुंच जाऊंगा।

हम फिर बातों में, ग़ज़लों में, शेरों में, दोनों देशों की राजनीति में मशगूल हो गए। घूमते-घूमते मैं अपने घर पहुंचा। दोस्तों के लाख अनुरोध के बावजूद उन्होंने मुझे अपने घर में नहीं घुसने दिया। जिस घर में मैंने जन्म लिया, चलना सीखा, दादा-दादी, मां-पिताजी के साथ उस घर में बिताए लम्हों को उन्होंने जीने ही नहीं दिया।

मैं सड़क पर खड़े-खड़े सिर्फ़ वही छज्जा देख पाया जहां दादी धूप सेंकती थी, मेरी मालिश करती थी, मेथी, बडि़यां और पापड़ सुखाती थीं। वहां दादी सारा दिन कोई-न-कोई काम करती रहती थी।

“कित्थां ए, कित्थां ए। तारो दा पोत्रा आए, कित्थां ए, कित्थां ए।”

एक बूढ़ी कुबड़ी औरत लाठी टेकती हुई जल्दी-जल्दी आ रही थी। तारो मेरी दादी का नाम था और यह दादी की सहेली रेशमा थीं। जिन्हें मैं रेशम दादी कहता था।

“रेशम दादी”- मैंने उन्हें पहचान लिया था।

मैं पैर छूने को झुका ही था कि उन्होंने मुझे गले लगा लिया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं। उनका प्यार और स्नेह आंसुओं के ज़रिए उनके हृदय से मेरे हृदय तक पहुंच रहे थे। इस आदान-प्रदान में न धर्म बाधा बन रहे थे न भाषा।

“इत्थां छज्जे ते अस्सां डुएं अद्धी जि़ंदगी कट्टी।”

मुझे याद आ रहा था रेशम दादी और मेरी दादी सदा साथ रहती थीं।

“तारो क्यूं न अई?”

मुझे चुप देखकर वह समझ गईं कि दादी नहीं रहीं।

“कड्डोन मुई?”

“अट्ठ साल थी गेन।”

रेशम दादी मुझे खींचकर अपने घर ले गईं। उनकी खुशी उनके रोम-रोम से टपक रही थी।

“डेखो, तारो दा पोत्रा आए, डेखो।”

जितना उल्लास उनकी आंखों और स्वर में था उसी अनुपात में उतनी ही रुखाई घर के लोगों में थी।

मैं उनके घर के आंगन में बैठा था। घर के लोग बार-बार आ रहे थे और मुझे नफ़रत की निगाहों से देख रहे थे। मैं अधिक देर वहां नहीं बैठ सका। उन्होंने मुझे खजूरों का एक पैकेट भेंट किया जिसे मैंने सिर आंखों पर लिया। जहां दादी की सहेली का प्यार मुझे बांध रहा था वहां अन्य लोगों की नफ़रत मुझे तार-तार कर रही थी।

मैं उदास मन से वापिस आ गया। प्यार से कई गुना गति से नफ़रत आगे बढ़ रही थी। रात को मुशायरा था। क्षेत्र के सभी शायर आमंत्रित थे। मुशायरा बड़ा अच्छा हुआ। दिल खुश हो गया। लेकिन एक सच उभर कर सामने आया कि हम सबकी तकलीफ़़ें एक जैसी थीं, हम सबकी चाहतें व हसरतें भी एक जैसी थीं। हम सब नफ़रतों को हराना चाहते थे पर स्वयं हार जाते थे। हम सब शायरों ने कभी न कभी अपने शब्दों को हारते देखा है। पर फिर भी नाउम्मीद नहीं थे। हम सब हर बार उठकर फिर उन तारों को जोड़ देते थे।

मेरा एक सप्ताह बड़े मजे में बीता, पर अब देश लौटने और घर के लोगों से मिलने की इच्छा बलवती हो चली थी। वापसी पर भी उसी प्रकार सीमा पर औपचारिकताओं में घंटों लगे।

लेकिन उन ऊबाऊ लम्हों को चीरता हुआ वह खुशगवार लम्हा मुझे भीतर तक गुदगुदाता चला गया। मेरे बराबर की सीट पर अशफाक था। वह रूह तक उतर जाने वाला गायक। ‘सा रे गा मा पा’ के फाइनल मुकाबले के लिए जा रहा था। दोनों देशों को अपने सुरों से जोड़ने जा रहा था। अपने सुरों के जादू से नफ़रतों को हराने जा रहा था। कार्यक्रम के बीच में किसी कारण एक दिन के लिए अपने देश आया था और अब वापिस मुंबई जा रहा था।

मैंने उसे ढेरों दुआएं दीं।

“बेटा, तुम्हारी आवाज़ ने तो ग़ज़लों को नई जि़ंदगी दी है।”

“आपकी दुआएं और प्यार है।”

“तुमने जब मेंहदी हसन की ग़ज़ल गाई थी तो जैसे रूह में उतर गए थे। मुझे लग रहा था मैं ईश्वर से मिल रहा हूं।”

वह हाथ जोड़कर बस एक ही बात कह रहा था कि आप सब लोगों की दुआएं और अल्लाताला की कृपा है। मैंने उसे अपना एक ग़ज़ल संग्रह दिया और उससे अनुरोध किया कि मेरी भी किसी ग़ज़ल को अपना सुर देने की कृपा करे। उसने सहर्ष स्वीकार किया और धन्यवाद दिया। मैं गद्गद् था। मुझे लग रहा था नफ़रत के दरिया को मुंह चिढ़ाता हुआ एक मुहब्बत का दरिया भी बह निकला है। जी चाहा दोनों देशों में सौ-पचास ‘अशफाक’ और ‘असीम’ पैदा हो जाएं तो समस्या ही खत्म हो जाए।

मैं वापिस आ गया था। मैंने अपने परिवार को चिंता के उस दावानल से खींच कर बाहर निकाल लिया था जिसमें मैं उन्हें झोंक कर गया था।

मैं बेचैन था। मैं यही बात समझ नहीं पा रहा था कि मेरा मन अब क्यों बेचैन है। अब तो मैं अपने मन की करके लौटा हूं। अंतर्मन में कहीं निराशा के ढेरों चकत्ते उभर आए थे और उनमें से मवाद बहने लगा था।

मैं आरामकुर्सी पर निढाल पड़ा था। कुर्सी आगे-पीछे झूल रही थी।

“लो, चाय।” पत्नी चाय ले आई।

मैं चाय पीने लगा।

वह मेरे सामने बैठ गई।

मैंने नज़रें झुका लीं।

वह मुझे पढ़ रही थी।

मैं उससे आंखें चुरा रहा था।

वह मेरे भीतर उतर रही थी।

 मैं उससे भाग रहा था।

वह मेरे भीतर उतर गई।

मैं बच नहीं पाया।

“जब आए तो बड़े खुश थे पर अब तीन-चार दिनों से रात भर करवट बदलते हो, दिन में उदास दिखते हो। उन लोगों की याद इतना सताती है क्या?”

मैं बच्चे की तरह उसकी शक्ल देख रहा था।

“कभी-कभी मैं डर जाता हूं। मुझे लगता है अकेले ‘अशफाक’ और ‘असीम’ इतने बड़े नफ़रत के दरिया में बह तो नहीं जाएंगे।”

“क्यों बह जाएंगे? तुम जैसे इतने सारे लोगों के आशीर्वाद उनके साथ हैं और आशीर्वाद कभी बेअसर नहीं होते। फिर ‘अशफाक’ और ‘असीम’ अकेले कहां हैं? सारा मीडिया, सारे शब्दों के जादूगर, सारे शब्द, सारे सुरों के जादूगर, सारे सुर ‘अशफाक’ और ‘असीम’ के साथ ही तो हैं।” यह कहकर उसने मुझे अपने वक्ष से सटा लिया। मैं उसके आंचल में छुप गया। वास्तव में मैं भी ऐसा ही कुछ सुनना चाहता था। मुझे बड़ा सुकून मिला। मेरी पत्नी ने मेरे डगमगाते विश्वास को आधार दे दिया।

मुझे लगा साक्षात सरस्वती मां धरती पर उतर आई हैं और मुझे अभयदान दे रही हैं। जैसे वह कह रही हैं-”वत्स, दुःखी मत होओ। अब ढेरों ‘अशफाक’ और ‘असीम’ पैदा होंगे, अब मुहब्बत का दरिया छलछलाता रहेगा।”



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1 टिप्पणियाँ


  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-03-2016) को "दूर से निशाना" (चर्चा अंक-2272) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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