प्रत्यक्षा — बलमवा तुम क्या जानो प्रीत — हिन्दी कहानियाँ


Brilliant hindi kahani by pratyaksha - balamwa tum kya jano preet

Hindi Kahani by Pratyaksha

बलमवा तुम क्या जानो प्रीत 

कहीं मकान के पेट से ये आवाज़ अँधेरे को चीरती तीखेपन से पहुँचती । बूढ़ा उठ कर पिछवाड़े के दरवाज़े तक जाता । फिर सूप भरा बोल लेकर वापस अपनी बदरंग पर आरामदेह कुर्सी पर बैठ जाता । सुड़क सुड़क कर पानीदार सूप पीता । ऐसे समय किसी का भी हस्तक्षेप उसे रास न आता । भले ही कोई सचमुच का ग्राहक किसी चाँदी के गुच्छे पर जान न्योछवर करता दाम पूछता । 

बात सिर्फ इतनी सी थी, सिर्फ इतनी ही तो... कि बस जी नहीं लगता था कहीं भी, किसी से भी । अंदर सन्नाटा गोल-गोल घूमर बनाता प्राण उमेठता और फीकी बेरौनक मुस्कान के कोने पुराने स्वेटर से उधड़ते बिखर जाते । संगीत शब्द रंग बन्द तहखाने में सात तालों के भीतर लुकाई बात थी, दूसरे समय की । तब भी यही समय था और अब भी की आह दबी-दबी उठती, बेचैन कराहटों की उँगली थामे, दीवार टटोलते धीरे से चुक जाती, अपने होने से शर्मसार लिथड़ती खामोशी कोने-अतरों पर घिसटती खत्म होती ।

गली से घूमती विचरती आवाज़ दरवाज़े से झाँकती लौट जाती । गली के मुहाने पर जो दुकान थी उसके अँधेरे कोनों में ग्रामोफोन बजता, ठेठ खराशदार आवाज़ में किसी तकलीफ और मनुहार की दिल तोड़ देने वाली गमक । भीतर अजायबघर था । पुरानी घड़ियाँ, रेत घड़ी, क्म्पास, टूटे दरके चीनी मिट्टी के नक्काशीदार प्लेट और सूप बोल्स, चाँदी की तश्तरियाँ, पीले पड़े फ्रेम में जाने किस किस की तस्वीरें, क्रोशिया से बने झागदार पीले चादर और स्टोल ।

बूढ़ा अपनी सुनहरी कमानी वाले फ्रेमलेस चश्मे से गली के सन्नाटे को ताकता ग्रामोफोन सुनता । बार-बार एक ही गीत । कोई ग्राहक भूले भटके आता तो अँधेरे सीलेपन से घबड़ा कर धूप भरी गली में तुरत लौट जाता । बूढ़ा चुप देखता, पतलून की जेब से घड़ी निकाल कर समय देखता । अगर बारह बजे होते तो एक कर्कश घँटी बजती । कहीं मकान के पेट से ये आवाज़ अँधेरे को चीरती तीखेपन से पहुँचती । बूढ़ा उठ कर पिछवाड़े के दरवाज़े तक जाता । फिर सूप भरा बोल लेकर वापस अपनी बदरंग पर आरामदेह कुर्सी पर बैठ जाता । सुड़क सुड़क कर पानीदार सूप पीता । ऐसे समय किसी का भी हस्तक्षेप उसे रास न आता । भले ही कोई सचमुच का ग्राहक किसी चाँदी के गुच्छे पर जान न्योछवर करता दाम पूछता ।

दुकान के पिछवाड़े वाले हिस्से का दरवाज़ा बगल की गली को खुलता था । औरत खुले दरवाज़े और गली के बीच टंगी मोढ़े पर बैठी रहती । औरत कामकाजी थी इसलिये हर वक्त काम करती दिखती । जब बैठी होती तब भी उसका बाकी शरीर विश्राम की अवस्था में रहता पर उसके हाथ और उसका मुँह काम करते रहते । उसके गले से गीत थोड़ा बेसुरा मोटे सुर में फुसफुसाते स्वर में निकलता जैसे गाने की बजाय कुछ याद करते रहने की कोशिश हो । औरत मफलर बुनती थी । कभी-कभी शाल भी बुन लेती थी । गर्मियों में क्रोशिया के लेस बुनती । बूढ़ा निर्विकार भाव से दुकान में बैठता ।

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सुनहरे नक्काशीदार फ्रेम में जड़ी तस्वीर औरत की थी जिसके चेहरे पर अथाह मासूमियत और अथाह दर्द था । मज़े की बात कि तस्वीर में उसके कंधे हँस रहे दीखते थे जबकि चेहरा चुप था । ऐसा होना किसी सुराख से उस पार गिर जाना होता था जहाँ रात और दिन के बीच कोई विभाजन समय नहीं था । और उसी तरह सुख और दुख का भी । मसलन सुखी होते-होते अचानक उसके ठीक से पूरा होने के ऐन पहले दुख हरहरा कर तोड़फोड़ मचाता घुस आता । और दुख के चरम पर कोई भूली हुई या फिर आगत सुख की लहर का आभास ऐसे कौंधता कि, दुखी थे, अच्छा ? जैसे चेहरा चौंक जाता ।

रंग भी सफेद स्याह कहाँ थे । वाटर कलर्स की तरह सब एक दूसरे में बहते घुलते मिलते । जैसे सब तरल था और कोई तयशुदा सीमा नहीं । जैसे पूरा ब्रह्माँड धड़कता हो, हर धड़कन पर उसका चेहरा बदल जाता हो, उसकी प्रकृति तक, उसका गँध रूप रस, सब । और ये आदमी झुकता चलता फिर सीधा खड़ा होता, किसी ऐनिमेशन फिल्म का कैरिकेचर जिसकी अंतिम परिणिति फिर उस जीव की हो जो एक कोशिका से बना था । कि सब इतना दुरूह हुआ कि एकदम धुर सरलता में ही इस दुरूहता का भरण हो सके । कि जैसे बच्चे के मासूम भोलेपने में कुटिलता के सब बीज गुम्फित रहें । साईलेंट फैक्टर्स । जो हिस्सा उँगली के पोर से सबसे पहले छू जाये वही सबसे पहले जीवित हो, आकार ले ।

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रात में कई बार बूढ़ा उस तस्वीर को अपने कमरे में ले आता । लैम्प के पीले बीमार रौशनी में उस चेहरे को देखता । फिर साँस भरकर बगल के मेज़ पर एहतियात से रख देता । उसी एहतियात से अपने कपड़े बदलता, उन्हें सरियाता और बिस्तर के पायताने रख देता । टोपी उतारता, अपने सर को सहलाता फिर प्रार्थना जैसा कुछ बुदबुदाते लेट जाता । उसकी आँखों से कभी-कभी आँसू रिसते पर बारहा उसे मालूम नहीं पड़ता । अपने शरीर के अंग प्रत्यंग पर अब उसकी पकड़ धीमी होती जा रही थी । जैसे छोटे राजा क्षत्रप बगावत पर उतर आये हों ।

रात को सोने के पहले औरत लैम्प बन्द करने आती । तस्वीर उठाकर वापस सामने वाले हिस्से में जहाँ दुकान थी, वहाँ रख आती ।

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मुन्नी बेगम जब गातीं, बलमवा तुम क्या जानो प्रीत, महफिल में रस बरसता । शमादान में शमा लहरा कर काँप जाती । सुनने वालों के दिल से आह उठती । मुन्नी बेगम का चेहरा पाक साफ संजीदा रहता । जैसे प्रीत से उनका कोई वास्ता न हो । ऐसे बेरुख नक्श पर टीस मारती आवाज़ कहर ढाती ।

अल्लाताला ने जैसी सूरत दी थी वैसा ही गला भी दिया था । कहतें हैं जब पान खातीं तो रस की धार गले से उतरती दिखती । नाक का हीरे का लौंग कटार की तरह लश्कारा मारता । राजा साहब और नवाब साहब हुक्के की पेंच से कश खींचते बेहोश होते । सिक्कों और नोटों से भरा थैला फर्श पर झँकार बजाता गिरता ।

इन सब से गाफिल मुन्नी बेगम आँख मून्दें आलाप लेतीं... गँगा रेती में बँगला छवाय मोरे राजा, आवे लहर जमुने की...

उनकी आवाज़ में किसी बच्चे के गले सी मिठास थी । और उस भोलेपन के कच्चे गमक में किसी नायिका का मनुहार जब घुलता तो जान निकल जाती । गाढ़े शहद की शिथिलता, जैसे अभिसार के बाद की अलसाई नींद ।

नवाब रिफाकत अली बेग और राजा नौबहार राय में होड़ मची थी उनका नथ कौन उतारे । मुन्नी बेगम बेखबर, अपने सर की मलमल की ओढनी सँभालते, आलाप लेतीं । उनका छोटा सा मासूम चेहरा संगीत के रस में डूबता तमतमाने लगता । जैसे देवी जी चढ़ी हों, ऐसा परबतिया, जो मुँहलगी दासी थी, मुँह पर हाथ धरे बोलती ।

कोठे की पहली मंजिल की खिड़की के नीचे खड़ा नौजवान दीवार से पीठ टिकाकर आँख मून्द लेता । उसको लगता वो किसी तन्द्रा में है । उसके पाँव खड़े-खड़े अकड़ जाते । उसका शरीर कड़ा हो जाता । पर उसका मन धीरे-धीरे नदी बनता जाता । उसको लगता एक दिन उसका शरीर बहने लगेगा । मुन्नी बेगम एक छोटी सी मछली बन जायेगी और उसकी नदी में तैरेगी । फिर दोनों बहते हुये किसी और दुनिया में निकल जायेंगे । उस आने वाले दिन की उम्मीद में उसकी छाती ऐसे भर जाती कि साँस तक का बोझ उसको तोड़ देगा की अनूभुति होती । लौंगलत्ती, मुन्नी बेगम की खासमखास ऊपरी मंजिल की खिड़की से झाँकती और उफ्फ करती । ये लौंगलत्ती का ही करम था कि महफिल खत्म होने पर एक रात उसने उस नौजवान को लुका छिपा कर मुन्नी के कमरे में पहुँचाया था ।

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बूढ़ा उलटी हथेली से अपने होंठ पोछता है । आस्तीन का कोर मैल से चीकट हो चला है । दुकान के अँधेरे ठंडेपन में नम मिट्टी सा सुकून है । बाहर धूप की तरफ देखते उसकी आँखें पनियाती हैं । उसके पंजों पर झुर्रियों का जाल है, नीले नस रस्सी की तरह कड़े होकर उभर आये हैं । खाल पर भूरे लाल तिल और चकत्तों की भरमार है । मेज़ पर रखी घँटी को कुछ गुस्से से बार-बार दबाता है । औरत झल्लाती हुई आती है

क्या है ? तुमने आज मुझे सूप नहीं दिया ? औरत बिना कुछ कहे मुड़ जाती है । दो मिनट बाद गंदा बोल जिसमें अब भी सूप तलछट पर तैर रहा है, उसके चेहरे की तरफ ठेलती है,

अब याद आया ? फिर गुस्से से धमधमाती लौट जाती है ।

बूढ़ा आँख झपकाता देखता है । उसके होंठों के कोर एक महीन रुलाई में नीचे गिर जाते हैं । धीमे से उठता है, तस्वीर वाली औरत को छाती से लगाकर कुछ देर खड़ा रहता है ।

औरत धीमे दबे आवाज़ आती है । बूढ़े के हाथ से तस्वीर लेकर शेल्फ पर रखती है फिर उसका हाथ पकड़ कर नरमी से उसे कुर्सी तक ले जाती है ।

मेज़ पर एक कप ओवलटीन और दो अरारोट के बिस्किट तश्तरी में रखे हैं । कप से भाप उठ रहा है ।

ये खा लो अभी फिर आधे घँटे में खाना लगाती हूँ । औरत की आवाज़ में बच्चे को पुचकारने सा दुलार है । उसका सख्त चेहरा नरम पड़ गया है । बहुत ज़िंदगी देख ली और कुछ मिला नहीं जैसा थकने जाने वाला भाव उसके चेहरे पर है । पर कड़ी मिट्टी पर बारिश की बून्दों का गीलापन भी है ।

बूढ़ा बच्चे की तरह हँस पड़ता है, कहता है लौंगलत्ती तुम बहुत अच्छी हो । फिर उठकर ग्रामोफोन पर रेकार्ड लगाता है... बलमवा तुम क्या जानो प्रीत...

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मुन्नी बेगम रातों रात भागीं थीं । नवाब बेग की सोने की मुहरों वाली भारी थैली ले कर भागीं थीं । लौंगलत्ती राज़दार थी । ज़ैबुनिस्सा खैरुनिस्सा, फरखंदा फरज़ंदा, सबको छोड़ लौंगलत्ती भी गायब हो गई थी एक दिन । ब्रैडली हडसन की रेलवे की नौकरी थी । भाग जाना आसान था । रेल गाड़ी बदलते, एक शहर से दूसरे । लिलुआ, मखलौटगंज, कलकत्ता... जाने कहाँ-कहाँ । जीवन भर सेवा की लौंगलत्ती ने । पहले मुन्नी बेगम की फिर उनकी मौत के बाद ब्रैडली साहब की । क्यों की सोचती है कई बार ।

पुराने चाँदी के बर्तन साफ करते धीरे से कुछ बेसुर गुनगुनाती है, बलमवा तुम क्या जानो... फिर प्रीत कहते आवाज़ लड़खड़ाती है, खाँसती है फिर खुद से हँसती पूरा करती है... पीर, तुम क्या जानो पीर ! बलमवा...
Pratyaksha Sinha : pratyaksha@gmail.com
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