हिंदी कहानी — फेड इन फेड आउट — ग़ज़ाल जै़ग़म



हंस मासिक अप्रैल २०१६ में प्रकाशित ग़ज़ाल जै़ग़म की  कहानी 'फेड इन फेड आउट'...

Hindi Kahani — Fade in Fade out

— Ghazal Zaigham

फेड इन फेड आउट — ग़ज़ाल जै़ग़म


घड़ियाल ने रात के आठ बजाए। घंटियां बजने लगीं, हलकी–हलकी मौसिकी फिज़ा में फैलनी शुरू हुई, मध्यम रोशनियां तेज़ होती गर्इं, यहां तक कि दिन का धोखा होने लगा। रोशनियां एक धमाके के साथ धीमी हो गर्इं।

आखिरी घंटी के साथ चंग की आवाज़ें आनी शुरू हुर्इं। महताबी छुटी और सुर्ख दबीज़ मखमली पर्दों बड़ी नाज–ओ–अदा के साथ खरामा–खरामा उठना शुरू हुआ।

हाल तमाशाइयों से खचाखच भर गया, न्योन लाइट में इश्तहार जगमगा रहा था। “आज शब आठ बजे इंपेरियल थियेटर कंपनी का मशहूर ड्रामा ‘अभिज्ञान शकुंतलम्’ ख़ास शान व एहतेमाम और ज़र्क़–बर्क़ सीन सीनरी के साथ पेश किया जाएगा। जिसमें कंपनी की मशहूर अदाकारा हिना, शकुंतला का पार्ट करेंगी।”

पर्दे के उठने के साथ ही सूत्रधार नमुदार हुआ। दर्शकों को झुक–झुककर सात बार सलाम किया फिर बोला—

सुनिए जनाब ड्रामा (नाटक) क्या है ?


(मध्यम आवाज़ में शादयाने बजने लगे) नाटक की कला वेदों की तरह ख़ुदाई देन है। नाटक की कला किसी ऐसे दौर में मुमकिन ही नहीं जब इंसानी ज़िंदगी मुश्किलों, दु:खों से रूबरू न हुई हो। स्वर्ण–युग में इस कला का बीज पनपा। इस युग में देवता ब्रह्मा के हुजूर में पेश हुए, उनसे अनुरोध किया कि एक ऐसी कला प्रकट करें जिससे श्रवण, शक्ति और आंखों की रोशनी बढ़े, मन आनंदित हो।

यह पांचवां वेद हो, मगर उन चारों वेदों की तरह नहीं, इससे लाभ उठाने का हक हर जाति, हर धर्म के लोगों को हासिल हो। ब्रह्मा ने ऋग्वेद से संवाद, सामवेद से नगमा (संगीत), यजुर्वेद से स्वांग (अभिनय), अथर्ववेद से जज़्बात निगारी (रस) की कला के तत्त्वों को मिलाकर नाटक प्रणयन किया तथा शिव से तांडव (नृत्य) और पार्वती से लताफत (नरमी) की बढ़ोतरी की तब विश्वकर्मा को हुक्म मिला कि वो निगारखाने को बनाएं।

इसे भरत मुनि के हवाले किया गया, ताकि वो ज़मीन पर आकर उसे रंग–रूप में पेश करें।

इस तरह भरत मुनि खुदाई फ़न नाट्यशास्त्र का हामिल हुआ।

सूत्रधार ने अपने लंबे रंगीन असा (छड़) को चारों दिशाओं में घुमाया और शकुंतला के स्टेज पर आने का ऐलान किया और खुद पर्दे में गायब हो गया।

शकुंतला के बेपनाह हुस्न को देखकर राजा दुष्यंत समेत तमाम तमाशबीन रंग व नूर के गहरे समुद्र में डूब गए।

रोशनियों ने ऐसा रंग बिखेरा कि फिजा नीले समुद्र में बदल गई। हलके गुलाबी लिबास में परी की तरह थिरकती दोशीज़ा हिना ने हवा में अपने नृत्य से तमाशबीनों को स्तब्ध कर दिया।

ग्रीन रूम में मुबारकबाद देने वालों का तांता लगा हुआ था। उनमें वह जूते वाला भी था जो परसों शाम को हिना को मिला था और आज उसके ड्रामे का इश्तहार देखकर आया था।

हिना को जूतों से इश्क था। तरह–तरह के जूते उसकी रेक में सजे थे, ऊंची हील वाले, नीची हील वाले, आगे से बंद, पीछे से खुले, बेली, स्लीपर, सैंडिल, फूल–बूट, तस्मे वाले जूते, बगै़र तस्मे वाले जूते, सफेद, काले, सुनहरे, रुपहले, लाल, हरे, नीले, पीले, फालसई, गुलाबी, फ़िरोज़ी, सुरमई, रंग–बिरंगे।

हिना किसी भी शख्स को देखती तो पहले उसके जूते देखती। जूते देखकर उसकी शख़्सियत का अंदाज़ा लगाती। हिना का कहना था कि मज़बूत जूते पहने हुए शख़्स मज़बूत किरदार का होता है। फटे–गंदे जूते पहनने वाला शख़्स लापरवाह कमज़ोर किरदार का होता है।

स्लीपर घसीटती औरतों को बददिमाग़ कहती थी हिना और हाई हील वाली नक्शेबाज़ और कम हील वाली ख़ुशमिजाज़, गमबूट पहनने वाले ज़िंदगी में तेज़ रफ़्तार पसंद करते हैं और अक्सर कामयाब रहते हैं। ईद–बकरीद पर मिलने वाली ईदी के पैसे या मौका–बमौका मिलने वाले पैसे जोड़कर हिना हमेशा जूते ही ख़रीदती थी। अम्मी लाख कहती थीं कि ढंग का सूट ख़रीद लिया करो या कुछ और ले लो लेकिन हिना की ज़िद थी जूते।

हिना, कानपुर के बाजार में


इस शाम भी हिना जूतों के शोकेस पर झुकी बड़ी हसरत व शौक से सुनहरी सैंडिल को निहार रही थी।

उसने कॉलेज आते–जाते इन ख़ूबसूरत नाजु़क चमकती सैंडिलों को हज़ार बार देखा और दिल मसूसकर रह गई थी। इनकी क़ीमत का अंदाज़ा इस महंगी दुकान के बाहर से ही हो रहा था। उसके महीने भर के ट्यूशन के पैसे भी कम ही थे।

‘यस प्लीज़’ दुकान के अंदर से एक ख़ूबसूरत गोरे पुरवीक़ार नवजवान ने बाहर निकलकर उससे पूछा।

“ये... सैंडिल... ” वो हड़बड़ा–सी गई।

“ये कौन–सी ? सुनहरी सैंड्रला सैंडिल ?” वह मुस्कराया, हिना की नज़र उसके स्याह चमकदार जूतों पर पड़ी। यक़ीनन अमीर होगा।

अब भई जूतों की इतनी बड़ी दुकान है वो भी इतने शानदार बाज़ार में तो... किरदार (चरित्र) ठीक होगा... मज़बूत जूते हैं इसलिए...

“क्या हुआ मोहतरमा ?” वह फिर मुस्कराया“।

जी... मेरा मतलब... ”

ग़ज़ाल जै़ग़म


जन्म : 17 दिसंबर
जिला सुल्तानपुर, (अमेठी)
गांव–बाहरपूर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बॉटनी में एम–एस–सी–, एल–एल–बी–, उर्दू साहित्य में एम–ए। एवं बैचलर ऑफ जर्नलिज्म, भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन में इंस्टीट्यूट पुणे से ‘फिल्म एप्रीसियेशन’
प्रकाशन : ‘एक टुकड़ा धूप का’ 2000 (उर्दू कहानी–संग्रह), ‘मधुबन में राधिका’ 2014 (हिन्दी कहानी संग्रह), ‘एक थी सारा’ अमृता प्रीतम के उपन्यास का उर्दू अनुवाद
पुस्तकों में संकलित : एनसीईआरटी। बिहार सरकार की इंटरमीडिएट के उर्दू पाठ्यक्रम में ‘खुशबू’ कहानी सम्मिलित।
सम्मान : उ.प्र. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ द्वारा ‘मिर्जा असद उल्ला खां गालिब’ सम्मान हिन्दी संस्थान उ–प्र। द्वारा ‘मधुबन में राधिका’ 2014 की पुस्तकें पर ‘महादेवी वर्मा’ पुरस्कार 2015
अनूदित : मराठी, अंग्रेजी
सम्प्रति : उप निदेशक—सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, उ.प्र. लखनऊ
संपर्क : कक्ष संख्या–31, विधायक निवास–5 मीराबाई मार्ग, लखनऊ–1
मोबाइल : 9453005341, 9415011267
ईमेल:
ghazal_z@rediffmail.com

“अंदर तशरीफ ले आइए।”

“नहीं, अभी मैं पर्स भूल आई हूं घर पर... ” उसने घबराहट में अपना नन्हा–मुन्ना-सा खाली पर्स मुट्ठी में दबोच लिया।

दुकान के मालिक की नज़र उसके शफ़्फ़ाफ कंवल जैसे मासूम कबूतरनुमा हाथों पर पड़ी और ठहर गई।

“अंदर आकर अपना साइज तो देख लीजिए ? पैसों की कोई बात नहीं फिर आ जाएंगे।”

“नहीं,” उसकी सुराहीदार गर्दन खुद्दारी के ज़ोम में तन गई।

उसने शोकेस खुलवाकर उसमें से सैंडिल निकलवाकर उसके नाजु़क क़दमों के क़रीब रख दी। गहरी नीली शलवार के पायचे में से सुडौल तराशे हुए संगमरमर के पांव बाहर निकले जिनमें बील–बहूटी की तरह अक़ीक़–ए–यमनी (यमन देश का नगीना अक़ीक़) के नाख़ून जगमगा रहे थे। सैंड्रला की जूती बिलकुल ठीक फिट हुई।

“क़ीमत ?” उसने आवाज़ दबाकर पूछा जलतरंग बज उठा...

“आपके लिए ही ये सैंडिल बनी है मोहतरमा... क़ीमत सिर्फ़ पचास रुपये,” वह हैरतज़दा थी हिरनी–सी घबराई हुई, पसीना उसके माथे पर बसरा के मोती बिखेर रहा था।

दिल में दुआ मांगी या अल्लाह इज़्ज़त रख ले पर्स खोलकर जोड़ा कुल पचास रुपये ही निकले।

सुनहरी रथ पर बैठकर हिना उड़ चली ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का शो होने के एक हफ़्ते बाद ही पैग़ाम आ गया। साथ ही एक दर्जन क़ीमती जूते भी।

अम्मी ने कॉलेज से आते ही बलाएं लीं, “मुबारक़ हो हिना... ”

“किस बात के लिए अम्मी,” हिना हैरान, न ईद, न बकरीद, न सालगिरह... यह अचानक वीरान घर में मुबारकबाद का क्या तुक है ?

“मेरी मुश्किल आसान हो गई हिना,” अम्मी की आवाज़ गीली हो गई“।

अल्लाह ने सुन ली, मौला ने मुश्किल आसान कर दी बिटिया... ”

“अम्मी... मेरी जान अम्मी क्या हुआ ?” वो डरकर अम्मी से लिपट गई, अम्मी बुरी तरह से कांप रही थीं ।

“काश, आज तुम्हारे अब्बू होते तो... ”

उसकी नज़र शिकस्ता दालान में एक कतार में रखे एक दर्जन जूतों के डिब्बों पर पड़ी। वह हंस पड़ी।

“ये क्या अम्मी, बाज़ार ही उठा लार्इं।” “नहीं हिना, बाज़ार घर में आ गया।” अम्मी ने अपनी मजबूरी और जूता कंपनी के मालिक के आए रिश्ते की बात बड़ी ख़ामोशी से कह डाली।

हिना का बिजनेस क्लास में जाना किसी को अच्छा नहीं लगा। हिना ड्रामे का चमकता सितारा थी, शोहरत व इज़्ज़त उसके क़दमों में पड़ी थी। लाखों चाहने वाले थे, दोस्त थे, एक बड़ा ग्रुप था उसका बुद्धिजीवी साथी थे, हमदर्द थे। हिना ख़ुद बेहद पढ़ी–लिखी ज़हीन और नेक थी लेकिन... हिना की आवाज़ हलक़ में घुट गई और निकाह के छुआरे बंट गए।

अम्मी का बोझ हलका हो गया हिना का बढ़ गया। अम्मी ख़ुश थीं हिना ख़ामोश...

फूलों वाली रात थी, हर तरफ फूल ही फूल थे। यकायक उसे एक तेज़ बू का एहसास हुआ। कोई बदबूदार चीज़ बुरी तरह महक रही थी तमाम फूलों की ख़ुशबू उसके आगे हलकी पड़ गई थी। कमरे में कोई चीज़ नहीं नज़र आई जिससे बू आ रही हो। बिस्तर पर बैठते ही उस बू की भभक ने ज़ोर पकड़ा।

तब उसे यक़ीन हुआ कि बिस्तर पर पड़े जिस्म से ही चमड़े की तेज़ गंध आ रही है तारिक लंबा–चौड़ा ख़ूबसूरत नौजवान। किसी को गुमान भी नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है लेकिन ऐसा हो चुका था।

पहले वह बात समझ नहीं पाई और अब समझ में आई तो बहुत देर हो चुकी थी। उसके दोस्तों ने जो तमाम बातें बताई थीं, वह बेबुनियाद निकलीं। उसकी बेपनाह ख़ूबसूरती बेकार साबित हुई। बिस्तर पर सिर्फ़ कांटे थे और तन्हा वो थी।

वो ज़िंदगी का सबसे बड़ा जुआ हार गई थी।

उसका कैमेस्ट्री लैब में रखा फ्लास्क अचानक टूट गया था। तेज़ गर्म उबलता (एसिड) तेजाब उसको ज़ख़्मी कर चुका था रूह तक में छाले उभर आए थे।

तमाम रात वह खर्राटे मारकर सोता रहा।

वह फूलों की आग में झुलसती रही।

दिन-भर वह तरह–तरह की दवाएं खाता, हर पैथी को आजमाता। होम्योपैथी, एलोपैथी, नेचरोपैथी, यूनानी, आयुर्वेदिक, रेकी, एक्यूप्रेशर लेकिन बेकार–बेमकसद, उसके जिस्म से चमड़े की गंध हर लम्हा आती।

हिना के कमरे में रात बारह बजे के बाद भी आता। देर रात तक अपनी अम्मा के पहलू में बैठकर बातें बनाता, उसको पाकीज़गी, सब्र, नेक चलनी के विषयों पर भाषण देता और टी.वी. पर ब्लू फ़िल्में देखता रहता।

मनोवैज्ञानिकों का कहना था कि उसकी ‘अर्ज’ खत्म हो चुकी है और उसका कोई इलाज नहीं।

तारिक़ का कहना था कि वह हिना के हुस्न के आगे बेबस हो जाता है। ठंडा पड़ जाता है उसके शोलों से डर जाता है, हाथ लगाते डरता है कि कहीं मैली न हो जाए।

तारिक़ हर जुमेरात अपनी नज़र उतरवाता, झड़वाता। तावीज़–गंडों को पहनता, मौलवी बुलाकर पानी फुँकवाता, घर के चारों कोनों पर डलवाता, ख़ुद उस पानी से नहाता।

नज़र उतारकर फिटकिरी जब आग में डाली जाती थी तो फिटकिरी पिघलकर तरह–तरह के रूप में ढल जाती। तारिक़ इन रूपों में कभी अपने पड़ोसी की शक्ल तलाश लेता, तो कभी किसी जूता बाज़ार के दुकानदार को और कभी रिश्तेदार औरत को। फिर दोनों मां–बेटे मिलकर उसके पीछे पड़ जाते। हिना को इन चीज़ों पर विश्वास नहीं था।

वो हर वक़्त खाने का शौक़ीन था। शायद वो अपनी कमी को इस तरह पूरा करता था। सुबह से लेकर शाम तक उसको खाने की ही फ़िक्र रहती।

“नाश्ते में क्या पका है ?”

“बालाई और कुलचे नहीं हैं तो बाज़ार से मंगाओ।”

“दोपहर का खाना क्या है ?”

“गोश्त की कितनी किस्में हैं ?”

“मीठे में क्या पका है ?”

शाम की चाय के साथ के पकवान रात का खाना...

तारिक़ ने कंप्यूटर में हनीमून फ़ाइल खोल रखी थी। उसको पता नहीं था, क्योंकि वह लोग तो हनीमून के नाम पर दो दिन के लिए कानपुर से लखनऊ गए थे।

तारिक़ की खालाज़ाद बहन आई थी उसने कंप्यूटर में फ़ाइल देखी।

“आप लोग मनाली गए थे हनीमून पर ?”

हिना हक्का–बक्का।

गमबूट में नोट भरे रहते जितना चाहे ख़र्च करो...

हिना को लगता जूते पैरों से चलकर दिमाग़ तक आ गए हैं और तड़ातड़ पड़ रहे हैं।

रुपये की रेलपेल, बढ़िया खाना, रहने को हवेली... ज़िदा रहने के लिए और क्या चाहिए... वाकई क्या चाहिए ?

हिना को अपनी संकरी गली में बसा, टूटा, बदरंग छोटा–सा घर बेहद याद आता जिसके कच्चे आंगन में जूही की बेल थी और गर्मी में रात की रानी महकती थी।

उसकी ससुराल का पुश्तैनी मकान उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े देहात में था।

सत्ताधारी सैयदों का घराना


मोहर्रम मनाने के लिए सब लोग गांव पहुंचे।

मजलिस मातम का ज़ोर... शोर... ताज़िया, अलम... ज़री... गहवारा (झूला)... ताबूत... झाड़–फानूस... फर्श–ए–अज़ा...

सफे़द बुराक चांदनी (बिछाने वाली बड़ी चादर)

... मोमी शमें बुझी हुर्इं... लोबान का धुआं... अगर की महक... दिल गीला–गीला शब्बेदारी... पुरसोज़ आवाज़ में मर्सिया पढ़ा जा रहा था...

“ऐ रात न ढलना कि उजड़ जाएगी जै़नब... ”

मर्सिये की आवाज़ दिल में उतरती जा रही थी।

“ऐ लड़की... ऐ बिटिया... सुन... ये दरिया वाली मस्जिद का अलम है मौज़जे (चमत्कार) का अलम... मन्नत का धागा बांध... तू साहेब औलाद होगी... गोद हरी–भरी रहेगी... मांग ली कि मौला लड़का होगा तो क़ासिदे–सुग़रा (जनाबे सुग़रा का हरकारा) बनाओगी... ”

झम... झम... झम... पायक नाचने लगे ... मोरपंखी बालों में लगाए... रंग–बिरंगी पगड़ी बांधे... नीची धोती, नंगे पाऊं... पैरों में घुंघरू बांधे इमाम हुसैन के नाम पर तीन दिन, तीन रात नंगे पैर यात्रा... बिना अन्न–जल के हर धर्म के लोग मन्नत मांगकर पूरी होने पर पायक बनते या अली... या हुसैन के गगनभेदी नारे लगाते...

 “आग का मातम कराओगी... ?”

“मांग लो न ?”

“यह क्या ठस बैठी हो दुलहिन ?”

दिहाती बंजारिनें ताज़िए के आगे दहा गाकर रो रही हैं...

“सुग़रा बीबी मुख पर अंचरा डारे बेन सुनावत है...
हाय हुसेना बाबा मुरे तुम बिन चैन न आवत है...
रैत कटत है रह–रह मोरी नींद न हमका आवत है,
जाये बसे हो कोने देसवा घर होकोओं भुलावत है ?”

इमामबाड़े का आंगन काले और सफे़द अमामों (पगड़ियां–मौलाना की, सफे़द पगड़ी सय्यद जो नहीं हैं वो पहनता है, काली पगड़ी सय्यद पहनता है) से भर गया। फ़ातिहा हो गया। जुलजन्नाह (इमाम हुसैन के घोड़े का प्रतीक) जनानख़ाने में लाया गयाअकीदतमंद औरतें मलीदे का थाल लेकर दौड़ीं... जुलजन्नाह को देसी घी से बनी पूरियों व मेवे का मलीदा ठुसाती रहीं... वो बेचैन होता रहा... भारी कपड़ों व जेवरों से सजा जुलजना पस्त पड़ गया, उसकी पिछली टांगें बोझ और थकान से कांपने लगीं। उसके मुंह से सफे़द–सफे़द झाग निकलने लगा। झाग के साथ गिरे हुए मलीदे के टुकड़े, कच्ची मिट्टी, धूल में सन गए। ज़मीन से उठाकर जबरदस्ती ये टुकड़े उसके मुंह में ठूंस दिए गए। यकायक उसे एक तेज़ उबकाई आई और आंगन के कच्चे फर्श पर अंदर का सब बाहर आ गया।

एक ज़ोरदार नार–ए–सलवात (अल्ला। हुम्मा सल्ले अला मोहम्मदिन व आला मोहम्मद) बुलंद हुआ और चुपके से किसी ने हिना को मुबारक़बाद दे डाली।

“मुबारक़ बांशद।”...

पास खड़ी खलिया सास ने घुड़का, “मोहर्रम के महीने में मुबारक़बाद नहीं देते... काफ़िरा हो गई हो क्या बीबी ?”

ख़बर जंगल की आग की तरह देहात में फैल गई।

“डमीनी, धोकेबाज़, मक्कार, हर्राफ़ा, बदचलन, बदकार... ”

रात में देसी उत्तर प्रदेश के मर्द ने अपनी मर्दानगी दिखाई। चमड़े की मज़बूत बेल्ट उतारकर उसके नर्म व नाजु़क संगमरमरी जिस्म पर हज़ारों ज़ख़्म डाल दिए।

बाहर मातमी अंजुमने ज़ंजीरों का मातम लहूलुहान होकर कर रही थीं। उनके शोर में बेल्ट की आवाज़ डूब गई।

फिर यह सिलसिले–ए–रोज़ व शब ही हो गया। उसे तरह–तरह से तकलीफ़ पहुंचाता, उसकी पीठ नीली पड़ चुकी थी। इस डर से कि कोई जान न ले। वो गर्दन तक के ऊंचे और कमर से काफ़ी नीचे तक ब्लाउज सिलवाने लगी।

हर रात उसकी रूह की टैनिंग होती, निलिंग होती। तारिक़ की चमड़ा फैक्ट्री में वो खाल से चमड़ा बनने का पूरा खेल देख चुकी थी। खाल को पहले नमक के घोल में डाला जाता। उसके बाद और खाल की ऊपरी सतह हटाकर फिर उसे तेज़ाब में डालते। उसकी टैनिंग की जाती। उसे सुखाकर फिर निलिंग की जाती। खाल को खींच-खींचकर कीलों को जड़ा जाता। सलीब पर टांगा जाता। फिर जिस रंग में चाहें चमड़े को रंग लेते हैं। यही सब उसके साथ भी तो हो रहा था... लेकिन उस पर कोई रंग चढ़ ही नहीं रहा था।

अक्सर वो हिना से कोई छोटा–सा सवाल करता और उसकी आवाज़ बेहद सर्द कुछ वहशी–सी होती, जिससे हिना का जिस्म कांप उठता। वो जु़ल्म के नए–नए तरीके खोज लेता।

हिना की आदत बन चुकी थी जिस्मानी तकलीफ़ उठाने की। रोज़–रोज़ डिस्पेंसरी जाने की तकलीफ़ से बचने के लिए और डॉक्टर के तरह–तरह के सवालों से बचने के लिए उसने ख़ुद ही स्प्रिट की बड़ी बोतल और मरहम–पट्टी का सामान ख़रीद लिया।

उसे यक़ीन था कि अल्लाह अब और दु:ख नहीं देगा। लेकिन अल्लाह अपने नेक बंदों का ख़ूब इम्तहान लेता है और वह शादीशुदा ज़िंदगी के सभी इम्तहान दे चुकी थी लेकिन रिज़ल्ट ज़ीरो (शून्य) ही रहा।

चुनांचे अब जिस शब वो ना मारता वह जागती रहती। उसको खलिश–सी होती... उसको तकलीफ़ में लुत्फ़ आने लगा। एक अजब–सा मज़ा... शुरू में रोती थी फूट। फूटकर... अपनी क़िस्मत को कोसती... अपने को बचाती थी... फिर वह मार खाने पर हंसने लगी... उसको लज़्ज़त आने लगी... वह मारते–मारते थक जाता... वह न थकती...

“बंजार मर्द मार ही तो सकता है... ” वह हंस पड़ी वो मारते–मारते टूट गया।

हिना को पता चल चुका था कि मजहबी कट्टरपंथी सही दलील वह बहस से हमेशा डरते हैं और अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिए जु़ल्म में पनाह हासिल करते हैं।

शादी का ढोल गले में पड़ा था।

उसको जब चाहो बजा लो, भुना लो। असल में कहीं कुछ नहीं था... फ्लॉप शो–फ्लॉप शो। न राहत, न विसाल... सब झूठ... कोई तहफ़्फु़ज (संरक्षण) नहीं।

सिर्फ़ ड्यूटी थी... ड्यूटी थी... फ़र्ज़ था वही निभाना था... वही निभा रही थी... भरा–पूरा घर था ज़िम्मेदारियां थीं जो उस पर ही डाल दी गर्इं... बस मोहब्बत नहीं थी बाकी सब कुछ था... पूरा ख़ानदान बेहद पुराने ख़्यालात का था अंधविश्वास की रस्में थीं। अजब हालत थी उसकी घर में न तो कोई किताब थी, न ही रिसाला। जो किताबें वह अपने साथ लाई सब ग़ायब कर दी गई थीं। वह कुछ रिसालें ख़रीद लाई...

“हमारे यहां शरीफ़ औरतें इस तरह की किताबें नहीं पढ़तीं,” उसके हाथ से रिसाला छीन लिया था।

यह इक्कीसवीं सदी का अंत था और ज़िहालत का कोई इलाज नहीं था।

उसकी ससुराल में औरतें स्वेटर बुनती थीं या गुलबूटे चादरों पर काढ़तीं, करोशिया से मेज़पोश बनातीं, खाना पकातीं। वह आसमान पर बादलों के रंग देखती रहती।

“बहू को छत से उतारो। उस पर किसी का साया है,” सासू मां फरमातीं।

“तभी तो बोलती नहीं है, चुप रहती है,” बड़ी ननद ने पानदान खोलकर पान में चूना लगाया।

हिना के बाल रेशम की तरह चिकने रेशमी थे। किसी बंधन में न बंधते उसकी रूह की तरह आज़ाद। तमाम रबर बैंड सरक जाते। जूड़े के हियर पिन गिर जाते। तारिक़ ज़मीन पर, बिस्तर पर गिरे हुए हियर पिन उठाकर अक्सर दे देते।

एक–दो बार सबके बहुत कहने पर फ़िल्म दिखाने भी ले गए। हालांकि ले जाना नहीं चाहते। उस दिन हिना की सास ने हिना को हाथ में मेहंदी लगाई थी। इससे दिमाग़ ठंडा रहता है।

मेहंदी रच जाए इसके लिए हाथ में पानी नहीं लगाना था। हिना को प्यास लगी तारिक़ ने पिक्चरहॉल के बाहर लगे वाटर कूलर से हाथों को चुल्लू बनाकर उसको पानी पिलाया।

हिना को लगा चलो यही सही। कम। अज–कम कुछ तो है ज़िंदगी में कोई यादगार लम्हा, सुकून का एक पल... बस...

लेकिन रात में जब वह रोज़ पीठ मोड़कर लेट जाता तो हिना का ख़ून खौलने लगता, वह रात में 2–2 बजे उठकर ठंडे पानी से जाड़ों में नहा लेती। सास कहतीं, “रात में हम्माम से नहाने की आवाज़े आ रही थीं। बहू गोते तहारत (शुद्धता के स्नान) की पाबंद है अल्लाह का शुक्र है।”

अक्सर तारिक़ अपना मुंह शर्म से उसके पल्लू में छुपा लेता। उनके हाथ–पैर ढीले पड़ जाते। बड़ी–बड़ी आंखों में आंसू भरकर कहता, “मुझे छोड़ मत जाना। वो उसके सितार के तार कस देता, जब सितार तैयार हो जाता कि उस पर गीत गाया जाए तो वो बाथरूम में घुस जाता और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लेता। लाख खटखटाने पर भी न निकलता। फिर राख में चिनगारी तलाश करता।

हिना अपनी ही आग के शोलों में नहा जाती। जल जाती, बाल नोच डालती, चूड़ियां तोड़कर अपने होंठ चबा जाती, एक अजीब–सा बुखार बदन को तोड़ने वाला, तमाम नसों, रगों में गर्म–गर्म तेज़ाब दौड़ता, आंख खोलना मुश्किल... गर्म–गर्म सलाखें–सी चूमती वजूद से लपटें निकलतीं... तकलीफ़ से एक–एक रेशा टूटता–फूटता... दर्द... अजीब–सा लुत्फ़... फुहारे और बौछारें गर्म और ठंडी... पूरी होलिका जलती... होलिका दहन... चटकती, चिनगारियां... अंगारे, शोले, राख... दीवाली के पटाखे फटते... लहसुन दीवारों पर मारे जाते... फुलझड़ियां चकर-घिन्नियां सब नाच रहे रॉकेट हवा में छोडे़ जाते वो कभी आसमान पर होती, कभी ज़मीन पर तेज़ करंट की झनझनाहट... दर्द की तेज़ लहर... और फिर सब शांत... वो गोश्त का लोंदा बनकर बिस्तर पर पड़ा रहता। हिना का दिल चाहता एक ज़ोरदार किक मारकर उसे अपने बेडरूम से बाहर कर दे। थूक दे उस पर मारे नफ़रत के। कै़ आने लगती, ख़रिशज़दा कुत्ता... कमज़ोर लिज़लिज़ा... बदसूरत मर्द...

सैंडिल पहनते वक़्त अचानक उसे उसी तेज़ गंध का एहसास हुआ, उसे अपनी ही सैंडिल से घिन आने लगी।

झटककर उसने सैंडिल दूर फेंक दिए। नंगे पांव... फ़र्श पर क़दम रखा... फिर कमरे का दरवाज़ा खोलकर लॉन में उतर गई... शबनम में डूबी नर्म दूब पर पांव जो पड़े तो लगा रूह तक ताज़गी उतर गई। कमरे में आकर वो देर तक नंगे पैर ही घूमती रही।

अम्मी, आ गई“।

कैसी हो बेटी ?”

“ठीक हूं।”

“या अल्लाह, ये आज नंगे पैर क्यों घूम रही हो... ?”

“चप्पलों से बदबू आ रही है अम्मी,” उसने इत्मीनान से जवाब दिया।

अम्मी दु:ख और हैरत से उसे देखती रही।

“अम्मी क्या लंबे बाल मनहूस होते हैं ?” उसने अपनी पीठ पर फैले घनघोर घटा की तरह काले लंबे बालों से पानी झटकते हुए पूछा।

“हिना, तुम ये कैसी बात करने लगी हो ? शादी के बाद लड़कियां गुलाब–सी खिल जाती हैं... तुम मुरझा रही हो तुम्हारा रंग मिट्टी के रंग के जैसा हो गया है।” अम्मी ने बदहवास होकर उसे गले लगा लिया और उसे अपने साथ ले गर्इं।

नजू़मी (सितारा शिनास) उसे देखकर मुस्कराया, “ज़हीन लड़कियों की खानाआबादी मुश्किल से होती है।”

“लेकिन क्यों ?” अम्मी ने बुर्के का किनारा मुंह में भरकर सिसकी ली“।

ज़वाल (पस्ती) का परिंदा मुसल्सल और मुस्तक़िल (लगातार) इसके सिर का तवाफ़ (परिक्रमा) कर रहा है। ज़ायचे में कमर (चंद्रमा) और मुश्तरी (बृहस्पति) दोनों मायले–ब–ज़वाल (पस्ती की तरफ अग्रसर) हैं। यह इसके तारीफ़ (अंधेरे) दिन हैं। रौशन दिन शुरू होने में... ” उस पर गुनूदगी (हल्की नींद) तारी हो गई। लौबान की ख़ुशबू–सितारा शिनास की आवाज़ में घुल–मिल गई। यूनान की शहज़ादी तूफ़ान–ए–नूह... किश्ती रवां–दवां है। ज़ंजीरें टूट रही हैं... काली आंधी... स्याह शब तारिक़ रास्ते...

हक़ा... हक़ा... हक़ा... सितारा शिनास की आंखें आसमान की तरफ उठ गर्इं। गहरे नीले आसमान पर एक स्याह नन्हा–सा परिंदा काफ़ी बुलंदी पर परवाज़ कर रहा था । वह एकटक उसको ताकता रहा। अचानक परिंदा घबराकर अपना रास्ता बदलकर तेज़ी से उड़ा एक बड़ी चील ने उसे धर दबोचा । ज़ख़्मी परिंदा सितारा शनास के क़दमों में आकर गिरा और तड़पने लगा। उसने अपना स्याह लबादा संभाला और झुककर ज़ख़्मी परिंदे को उठाने लगा।

लबादे की एक जे़ब से उसने हारसिंगार के ताज़े महकते हुए नारंगी फूल निकालकर हिना की मुट्ठी में बंद कर दिए।

मकान की कालबेल देर तक बजती रही, फिर शायद किसी ने दरवाज़ा खोला, “शैली तुम ?”

शैली उसके गले लग चुकी थी मारे खौफ़ और शर्मिंदगी के हिना ने आंख मूंद ली। उसकी पीठ से रेशमी साड़ी का पल्ला सरककर नीचे गिर चुका था। पूरी पीठ नीली थी।

शैली साकित (स्तब्ध) खड़ी थी। पत्थर के बुत की तरह।

हिना सवाल से डरती थी, उसके पास कोई जवाब नहीं था।

“हिना मैं हुकूक़–ए–निसवां (महिलाओं के अधिकारों) के लिए पंद्रह सालों से काम कर रही हूं, औरतों की समस्याओं पर वीकली कॉलम लिखती हूं जो बेहद मशहूर हुए हैं। मैं अपने बारे में यक़ीनन मुबालगे़ (अतिशयोक्ति) से काम नहीं ले रही हूं।

तुम सिंधी अदब (साहित्य) के किसी भी क़ारी (पाठक) से तस्दीक़ (पूछ) कर सकती हो।

“मैं जानती हूं।”

“जानती हो... लेकिन मानती नहीं... जुल्म पर ख़ामोश रहना भी... ” “मैं अपनी तमाम किश्तियां जला चुकी हूं।”

“मैं भी फूलों की सेज पर नहीं बैठी हूं, आग से मुक़ाबला कर रही हूं। सोलह साल की उम्र में इंटर का रिज़ल्ट लेकर घर गई थी, “अब्बा, देखिए मैं क्लास में अव्वल आई हूं,” तो मुझ पर परदा वाजिब (ज़रूरी) हो चुका था। उसी शाम मेरा निकाह एक 45 साल के बूढे़ हवसपरस्त रईस से कर दिया गया क्योंकि मेरी पांच और छोटी बहनें बियाही जानी बाक़ी थीं। 20 साल की उम्र में मैं तीन मासूम बच्चियों की मां बन चुकी थी और 21वां साल लगने से पहले ही मेरे शौहर ने मुझे लड़कियां पैदा करने के जुर्म में तलाक़नामा पकड़ा दिया। मेरी ही कमसिन भतीजी से उसका निक़ाह हो गया। मैंने अदालत का दरवाज़ा छुआ। मुझे जान से मारने की धमकियां दी गर्इं। मेरे बच्चे छीन लिए गए... फिर भी मैं तन्हा लड़ती रही...

“लो शैली, शर्बत पी लो... अब तुम थक गई हो... ”

“शैली, तुमने कोई ड्रामा देखा इधर ?”

“नहीं, मैं थकी नहीं हूं... जंग अभी जारी है।”

“हां... भास का ‘चारुदत्त’ देखा इसमें विट, विदूषक और शिकार तीनों हैं... और राजा दुष्यंत ने भी तुमको याद किया है... ” उसने शर्बत का गिलास अपने होंठों से लगा लिया।

“कौन ? राजा दुष्यंत ?”

“लो... ये भी भूल गर्इं ?”

“ऊं... ”

“अरे रोहित कुमार... ”

“रोहित कुमार की स्याह गहरी काली घनी पलकें ऊपर उठीं वो तज़िया (व्यंग्य से) मुस्करा रहा था...

सास उसको देखते ही झल्ला गई।

“दुलहिन, तुमने फिर सारे जे़वर उतार दिए... झंकाड़ बन गर्इं... बेवा की तरह, अल्लाह ने इतना दिया है... पहना–ओढ़ा करो ये बदशगुनी न किया करो... मेरा लाल सलामत रहे, तुम्हारा सुहाग बना रहे... ये फैशन ने दिमाग़ ख़राब कर दिया है तुम्हारा... ”

एक फ्रेम से तस्वीर निकलकर अचानक दूसरी जड़ गई... “फूलों को जे़वर पहने देखा है कभी ?” रोहित का ज़ोरदार क़हक़हा पूरी फ़िज़ा में छा गया। रिहर्सल करते तमाम फनकार पलटकर उसे देखने लगे वह सीन के लिए फूलों के ज़ेवरों से सजाई जा रही थी। शर्मा गई थी वो...

गरजता–बरसता भादों बरस रहा था लगातार सिलसिलेवार बारिश...

आज फाइनल रिहर्सल है कैसे जाऊंगी ? वो बार–बार खिड़की का परदा उठाकर बाहर देखती। तेज़ बारिश से पानी घर के अहाते में भर गया था।

सूने अहाते में मोटरसाइकिल का शोर गूंजा। भीगा हुआ रोहित गुनगुनाते हुए दरवाजे़ की कुंडी खटखटा रहा था। लाइट जा चुकी थी।

“काली घोड़ी दुवारे पर खड़ी... ”

“अरे वाह, रोहित बेटा, अंदर आओ,” अम्मी ने भीगे हुए रोहित को अंदर बुला लिया।

“आदाब अम्मी।”

“जीते रहो... इतनी बारिश में कहां घूम रहे हो ?”

“अम्मीजी, मैं तो खादिम हूं... डायरेक्टर साहब का हुक्मनामा अभी–अभी मिला है कि नीलम परी को तख़्तेताऊस (क़रामाती उड़न खटोला) पर बैठाकर फ़ौरन लेकर आओ तो जनाब हम हाज़िर हो गए... ”

उसको देखते ही डायरेक्टर उस्मान आबिद ने हैरत का इज़हार किया “तुम इतनी आंधी–बारिश में कैसे आर्इं। मैं तो रिहर्सल कैंसिल करने जा रहा था... ?”

रोहित ने उसकी तरफ देखकर लबों पे शरारत से उंगली रख ली।

किसी शख़्स को न भी याद करना चाहो फिर भी वह बेतरह क्यों याद आ जाता है ?

वह चुपचाप ओबराय कॉन्टिनेंटल की आख़िरी मेज़ पर तारिक के साथ बैठी फिश सिज़लर की तरफ देखती रही।

उसने अपना सिर मेज़ पर इतना झुका लिया था कि तारिक उसकी तरफ देख न सके और अपनी प्लेट पर झुक गई।उसने शमा का रुख तारिक की तरफ कर दिया और चीनी के गुलदान में सजे गुलदस्ते को अपनी तरफ घसीट लिया ताकि तारिक़ उसका चेहरा न देख सके और उसकी आंख से मोती टूट–टूटकर प्लेट में गिरने लगे...

आज उसकी शादी की दूसरी सालगिरह थी और तारिक अपने दोस्तों के हुक्म की वजह से उसको आला होटल में डिनर कराने लाए थे।

धूल, बादलों और धुंध से गुज़रता हुआ उसका ज़हन एकदम कॉलेज की दीवार से नीचे कूद गया और चुरमुरा खाने लगा।

सफे़द–सफ़ेद लय्या, सुर्ख मूंगफली के दाने, बेसन के पीले सेव... प्याज़ के कटे छोटे–छोटे टुकड़े चटपटा मसाला, नमक, हरी धनिया और कतरी हरी मिर्च की तुर्शी... तेज़ी... आंसुओं के साथ घुलमिल गए।

ड्रामे के रिहर्सल के टी ब्रेक में अक्सर रोहित चुरमुरा ले आता। इस फाइव स्टार होटल की डिश से अच्छा मज़ा चुरमुरे का था। यह ज़ायक़ा उस चुरमुरे का नहीं बल्कि उस लम्हे का था जो उसकी ज़िदगी से जा चुका था।

“तुमने तो कभी फाइव स्टार होटल देखा नहीं होगा ?” तारिक़ के लहजे में हिक़ारत थी।

उसने ख़ामोशी से सिर झुकाकर चांदी के बोल में हलके गर्म पानी में पड़े नींबू के टुकड़े को हाथ में थाम लिया।

“हैलो... ”

“हैलो... हिना।”

“जी सर... सर, आपने मेरी आवाज़ कैसे पहचान ली ?”

“तुम्हारी आवाज़ भी कोई भूल सकता है। तुम हमें भूल गर्इं... अपने साथियों को भूल गर्इं।

... लेकिन हम तुम्हारी जादुई... कानों में शहद घोलने वाली आवाज़ न भूल सके।

“सर... मैं न आपको भूल सकी, न अपने साथियों को... बस हालात... ”

“मैं जानता हूं... ”

“आप जानते हैं... ? क्या सर ?”

“यही कि तुमको स्टेज बार–बार पुकार रहा है... तालियां तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं। दर्शक सांसें रोके बैठे हैं... ”

“सर, अब तो मेरी जगह कोई दूसरा... ”

“हिना, तुम भूल गई किसी की जगह कोई नहीं ले सकता, सबकी अपनी जगह होती है।”

“तो क्या सर, मैं अब भी आ सकती हूं ?” उसकी आवाज़ कांप रही थी।

“हिना ऋग्वेद का यह श्लोक सुनो—
संगच्छध्वं संवदध्वं , सं वो मनांसि जानताम् ।
समानी व आकूति: समाना हृदयानि य:
समाना-तु वो मनो यथा व: सुसहासति

अर्थात्—मिलकर चलो, मिल–जुलकर काम करो।
तुम्हारे यत्न एक समान जानें।
तुम्हारे हृदय एकमत हों।
तुम्हारे मन संयुक्त हों।
जिससे हम सब सुखी हो सकें।”

“हिना, हम लोग अगले महीने संस्कृत नाटिका मृच्छकटिकम फिनलैंड ले जा रहे हैं।”

“अच्छा। ”

उसने अपने बैग में दो नीले खद्दर के कुर्ते और एक स़फेद शलवार रखी। अपनी कुछ किताबें और डायरी समेटी अम्मी की याद बरछी की तरह सीने में उतर गई...

“हम जा रहे हैं... ”

“गमबूट में माल भरा है ले लो... ”

“नहीं।”

“कब लौटोगी ?” आवाज़ में लिज़ लिज़ापन उतर आया।

बाहर निकलकर उसने दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया।

बस से पूरा ग्रुप एयरपोर्ट के लिए बैठ चुका था। उसके सामने की ही सीट पर रोहित बैठा था। उसकी काली गहरी आंखें हिना के चेहरे का तवाफ़ (परिक्रमा) कर रही थीं।

हिना पर एक रूहानी कैफ़ियत तारी थी। रोहित के लबों पर मुस्कराहट थी। हिना के दिल में कोयल कूकने लगी, पत्तों की पाजे़ब बजने लगी... पपीहा मन के सूने आंगन में चहकने लगा। उसने खिड़की का पर्दा उठाकर बाहर गहरे काले आसमान को देखा।

सितार–ए। सुहैल (चमकदार तारा) जगमगा रहा था...

उसके कानों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की नज़्म गूंजने लगी...

“मैं यात्री हूं... ”
मुझे कोई रोककर नहीं रख सकता...
सुख–दु:ख के सब बंधन मिथ्या हैं...
यह घर, ये बंधन...
सब कहां तो पीछे पड़े रह जाएंगे...
विषयों के जाल मुझे नीचे खींचते रहते हैं...
उनका एक–एक तार टूट–टूटकर बिखर

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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-06-2016) को "करो रक्त का दान" (चर्चा अंक-2376) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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