हंस कथा सम्मान 2016 सम्मानित — योगिता यादव की कहानी — राजधानी के भीतर बाहर


धीरे-धीरे रट्टू तोते की तरह मैं अंग्रेजी टेक्स्ट बुक के लैसन रटती रही। पर इतना आसान भी नहीं था सुसरी अंग्रेजी की रीढ़ तोड़ना। यह व्यवस्था की रीढ़ में दाखिल हो चुकी थी। 

राजधानी के भीतर बाहर - योगिता यादव (हंस कथा सम्मान 2016 सम्मानित कहानी) hans katha samman 2016

योगिता यादव की 'हंस कथा सम्मान 2016' सम्मानित कहानी


‘हंस कथा सम्मान 2016’ की जूरी से अभी कुछ घंटो पहले तक नाउम्मीद-सा नाराज़-सा था, पंकज सुबीर की कहानी पसंद नहीं आयी थी और शायद इसी कारण योगिता यादव की कहानी नहीं पढ़ी थी (इस दफ़ा का सम्मान दोनों लेखकों को संयुक्त रूप से मिल रहा है... दोनों को बधाई). बहरहाल आज योगिता ने सम्मान समारोह में आने का आमन्त्रण दिया तो उनसे कहानी मांगी – फौरन – और उन्होंने भेज भी दी, तत्काल.

कहानी अच्छी है, भाषा ने तो मोह लिया, दिल्ली के अन्दर ही रहते दिल्ली-के-गाँव, जहाँ के जीवन से हम दिल्लीवासी ही अनभिज्ञ हैं ऐसे में जो दिल्ली का निवासी नहीं हो उसकी तो बात ही न की जाए, उन गाँवों में रहने वाली लड़कियों का जीवन कैसा होगा ? कहानी की यह पंक्तियाँ पढ़ें —


“मैं सुबह शहर को निकलती और रात में गांव लौट आती। कुछ किलोमीटर के फासले पर दो ध्रुवों की अलग-अलग दिल्ली। एक में सब कुछ अलाउड था, एक में बहुत कुछ की वर्जना थी। कोचिंग इंस्टीट्यूट में मैं सबसे कम उम्र की लड़की थी और गांव में मैं सबसे ज्यादा उम्र की लड़की। जिसकी अब 'बुआ’ बनने की नौबत आ गई थी। गांव भर के ताजा ताजा जवान हो रहे लड़के-लड़कियां मेरी पहचान यूं करते, “वहीं सुनीता दीदी, जिन्होंने ब्याह नहीं किया है।”


योगिता यादव की ‘राजधानी के भीतर बाहर’ के केंद्र में भले ही दिल्ली है लेकिन व्यथा सारे समाज की है...

योगिता को आप पाठक अभी बधाई नहीं दें, पहले कहानी पढ़ें, उसके बाद यदि कहानी पसंद आये तो न सिर्फ उन्हें बल्कि जूरी को भी बधाई ‘अवश्य’ दें.

भरत तिवारी
संपादक शब्दांकन





मैं पास्ट, प्रजेंट और फ्यूचर टेंस लगाकर अपने मन के भावों को अंग्रेजी में तब्दील करती रहती और वे सही-गलत संवादों में अपनी बात कह जाते। मामला सारा कॉन्फीडेंस का था। जो आधा तो घरवालों को राजी करने में खर्च हो जाता, बाकी बचे आधे में से मुझे यह साबित करना था कि मैं इंटेलीजेंट तो हूं पर धरती के टूक नहीं कर रही अर्थात दायरे में ही रहूंगी। इसलिए अब सिर्फ सलवार कमीज पहन कर ही कॉलेज जाया करती थी। शेष बचे एक चौथाई आत्मविश्वास के साथ। वो भी 'भरोट्टा’ लाने के बाद। 

राजधानी के भीतर बाहर

 योगिता यादव


“रांड रंडापा तब काटे जब रंडुवे काटन दें”, मां ने दांत पीसते, घुर्राते हुए कहा, जब मैंने चाचा जी के लाए आटा चक्की वाले के रिश्ते से इनकार कर दिया और कहा कि मुझे शादी करनी ही नहीं है, मैं अकेले बिना शादी के भी रह सकती हूं। पढ़-लिख रही हूं, खुद कोई नौकरी करूंगी। आप लोगों पर बोझ नहीं बनूंगी। पर उस वक्त मां नहीं उसके पीछे बाबूजी का संबल बोल रहा था। जो मौन स्वीकृति से यह साबित करता था कि मां जो कर रही है सही है। उस वक्त मेरा संकल्प भी खोखला था और दावा भी। पर मेरा इनकार सच्चा था। मैं शादी तो करना चाहती थी पर आटा चक्की चलाने वाले उस कुम्हार की औलाद से नहीं। तब मेरी आंखों में कॉलेज का एक जाट युवक चढ़ा हुआ था। मैंने चोर नजरों से देखा था कि वह भी मुझ में दिलचस्पी ले रहा है। कॉलेज इलैक्शन में सेक्रेटरी की पोस्ट जीतने के बाद से वह मुझे और अधिक आकर्षित करने लगा था। सिर्फ उसी के लिए मैं वोट डालने पहुंची थी, वरना पढ़ाई का एक भी दिन खराब करने की हैसियत नहीं थी मेरी। उस पर मां थी जो मेरे बाल संवारने के ढंग से ही समझ जाती कि आज कॉलेज में पढ़ाई होने वाली है या बाहर कहीं तफरी का प्रोग्राम है। ऐसा नहीं है कि मां दकियानूसी थी। पर उसके उदारवाद और क्रांति की एक सीमा थी। यह मां की ही पहल थी कि हम सभी बहनें बचपन से कोएजुकेशन में पढ़ती आईं थीं। मां की कोशिशों में अब मेरे विद्रोह भी शामिल होने लगे थे। 12वीं होते ही जब चाची-ताइयां मेरे ब्याह में चाक पूजने की तैयारियां कर रहीं थीं, उससे पहले ही मां ने मेरा समर्थन कर दिया कि मेरी बेटी आगे भी पढ़ेगी। इसके लिए मैं दबे स्वर में मां से लगातार तीन महीने गुहार लगाती रही थी कि मुझे आगे भी पढ़ाई करनी है। पर बाबूजी के सामने बोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

मैंने 12वीं पास की। हर बार की तरह मां-बाबू के बीच मुझे आगे पढ़ाने को लेकर ठीक ठाक तकरार हुई और हर बार की तरह बाबूजी ने मां की बात मान ली। मां ने मुझे सिर्फ लड़कियों के कॉलेज में फॉर्म भरने को कहा। ....और मैंने, सिर्फ वही कॉलेज छोड़कर सारे कॉलेजों में फॉर्म भरे। 'हूं .... क्यूं जाऊं मैं लड़कियों के कॉलेज?’ जहां मेरा मन करेगा वहां लूंगी एडमिशन, अच्छी परसंटेज है मेरी।’ परसंटेज ने मेरी हिम्मत बढ़ा दी थी।

 घर की पहली लड़की आखिर कॉलेज पहुंच ही गई। कॉलेज के लिए बस में सवार होते हुए मन अजीब तरह से उछल रहा था और पैरों में हल्का कंपन हो रहा था। पैरों का ऐसा ही कंपन तब भी महसूस हुआ था जब मां ने गांव से बाहर कॉलोनी के स्कूल में एडमिशन करवाया था। गांव के स्कूल में हर साल फर्स्ट आया करती थी। पर हायर सेकेंडरी की पढ़ाई के लिए गांव-गुहाण्ड से बाहर कुछ किलोमीटर दूर कॉलोनी के स्कूल में आना पड़ा। शुरूआत में भाषा को लेकर थोड़ी झिझक थी। यहां के बच्चे ज्यादा स्मार्ट लगा करते। यूनिफॉर्म में मां ने मेरे लिए सलवार कमीज सिए थे। पर मैं यहां की लड़कियों की लंबी टांगों पर स्कर्ट देखकर ललचाने लगी थी। अकेले में अपनी टांगों को देखती कि अगर मैं भी स्कर्ट पहनूं तो ये कैसी लगेंगी। यह लालच भी बहुत दिन बना नहीं रह सका। जैसे ही कमीज ऊंची होने लगी, मैंने मां से स्कर्ट पहनने की जिद ठान ली। आठवीं तक पहुंचते मैंने भी सलवार कमीज पहनना छोड़ दिया। पहले पहल अपने गंवारपने के कारण सबसे पीछे रही। फिर प्रतिभा के बूते अगले बैंच तक पहुंच गई। बाद में पता चला कि यहां पिछले बैंचों पर बैठना भी एक ठसक है। फर्स्ट आने का वैसा सिलसिला तो नहीं बन पाया जो गांव के प्राइमरी स्कूल में था पर रही अगली पंक्ति के बच्चों में ही। एक बार स्कूल में 15 अगस्त पर नाटक खेला जा रहा था। अंतरस्कूल प्रतियोगिता के लिए। विद्यार्थियों को रिहर्सल के लिए जाते देखा तो मैं भी पहुंच गई ऑडिटोरियम। तीन साल में यह पहली बार था जब मैंने ऑडिटोरियम का भीतरी ठंडा शनील के गहरे लाल और नीले परदों से ढका माहौल देखा था। कतारबद्ध सजी गद्देदार चमचमाती कुर्सियां। मैं अचंभित सी उस माहौल को फील कर रही थी। नाटक अंग्रेजी में खेला जा रहा था और मेरे साथ फिर वही गांव की बोली भीतर बैठी झिझक रही थी। साथ की एक लड़की जो रोज मेरे साथ बस के सफर में आया जाया करती थी और जिसे मैं जबरन अपने साथ खींच लाई थी, धीरे से फुसफसाई —

“के हो र्या है”

“श्श्श्श्....।”

“सुसरी हिंदी में नी बोल सकै हें......” वह फिर फुसफुसाई

“... तू मुंह ने बंद रख ना अपणे....” उसे झिड़कते हुए मैं भीतर बाहर का सारा ध्यान इकट्ठा कर उनके संवादों पर लगा रही थी। अचंभे से मेरी आंखें कुछ ज्यादा ही चमक रहीं थीं। ...... मैं झट से बोल पड़ी — “मैडम जी मुझे भी लेना है हिस्सा।”

म्यूजिक टीचर ने हिकारत भरी नज़रों से मेरी तरफ देखा, “क्या कर सकती हो...”

“जी कुछ भी”

और फिर मुझे संवादों की कॉपी पकड़ाई गई। मैंने दबा छुपा आत्मविश्वास बटोर कर संवाद पढ़े, पर म्यूजिक टीचर शायद प्रभावित नहीं हो पाई। वह बहुत कुछ समझा रही थी और मेरी नजर उसके बालों पर थी, बारहों महीने खुले रहने वाले ये बाल अभी तक मैंने दूर से देखे थे। आज नजदीक से देखा कि ये आधे सीधे और आधे घुंघराले हैं। मेरे लिए तब यह हैरानी की बात थी। एक ही सिर में जो बाल सीधे उगे हैं, वह नीचे जाकर इतने छल्लेदार, गोल गोल कैसे हो गए.... और यह भी कि यह चौमासे में बाल खोलकर कैसे रख लेती है। मुझे अगर दो की बजाए एक चोटी बनानी पड़ जाए तो वह मोटी चोटी मेरी गर्दन पर 'कोल्लड़े’ की तरह पड़ी रहती और मुझे सोते समय चुभा करती थी। खुले बालों में तो हालत और खराब हो जाती.....

खैर नाटक की रिहर्सल के दौरान बहुत से रहस्य खुल रहे थे।




पहला यह कि ये ज्यादातर वही लड़के-लड़कियां हैं जो हर कॉम्पीटिशन में हिस्सा लेते हैं।

और दूसरा कि यह सभी पटापट अंग्रेजी बोल लेते हैं और इनमें से कोई भी हमारे या आसपास के किसी गांव से नहीं आता —

सबसे बड़ा रहस्य यह कि म्यूजिक टीचर के बालों में जो करिश्मा है उसे पमिंग कहते हैं। जो टेंपरेरी भी होती है और परमानेंट भी। उसने अपने निचले बालों में पमिंग करवा रखी है। जिससे अच्छे खासे बालों का नीचे जाकर छत्ता बन गया है।

मालूम यह भी हुआ कि एयर कंडीशन्ड गाड़ी में कभी गर्मी का मौसम नहीं आता। यहां बाल नहीं उड़ते, जिन्हें संभालने के लिए अकसर औरतें बाहर निकलते ही सिर ढक लेती हैं। गांव में घूंघट करने वाली ज्यादातर औरतों का यही तर्क था कि 'मुंह ढक के चलो तो रंग काला नहीं पड़ता। बाल भी रेत मिट्टी से बचे रहते हैं।’

इन रहस्यों के अलावा उसकी सारी उबाऊ बातें मेरे सिर के ऊपर से गुजर रहीं थीं। अंतत: मुझे लंबे बालों की दो मोटी चोटियों के बावजूद केश विहीन महात्मा गांधी का किरदार दे दिया गया। क्योंकि इसी किरदार में सबसे कम संवाद बोले जाने थे।

एक टीचर ने देखकर कहा भी, “माय गॉड इसके बाल कितने सुंदर हैं। मदर इंडिया का रोल तो इसे करना चाहिए।”

म्यूजिक टीचर ने उसी हिकारत से जवाब दिया, जिस हिकारत से उसने मुझे रोल दिया था, “सिर्फ बालों से क्या होता है मिसेज मदान, डायलॉग डिलीवरी भी तो होनी चाहिए।”

बस उसी दिन मैंने तय कर लिया, 'इस सुसरी अंग्रेजी की रीढ़ नहीं तोड़ी तो मेरा भी नाम सुनीता नहीं।’

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धीरे-धीरे रट्टू तोते की तरह मैं अंग्रेजी टेक्स्ट बुक के लैसन रटती रही। पर इतना आसान भी नहीं था सुसरी अंग्रेजी की रीढ़ तोड़ना। यह व्यवस्था की रीढ़ में दाखिल हो चुकी थी। ये मुझ अकेली की परेशानी नहीं थी। मेरे गांव के बहुत से बच्चे जो बचपन में बहुत अच्छे थे आगे जाकर और अच्छी पढ़ाई इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि इन सभी का मीडियम अंग्रेजी हुआ करता। हमारे लिए पढ़ाई जीवन का जरूरी हिस्सा तो थी, पर एकमात्र उद्देश्य नहीं।

इसी सेकेंडरी उद्देश्य के साथ गांव की अडिय़ल सी सुनीता आज कॉलेज पहुंच गई। लड़कों के कॉलेज। थीं तो इसमें लड़कियां भी पर अड़ोस पड़ोस और कुनबे में मुझे इसी तरह टारगेट किया गया कि “छोरी ने लड़कों वाले कॉलेज में लिया है एडमिशन। कती धरती के टूक करन ने होरी है।”

“पढ़ाई चाहे डाक्टर वाली हो या बैरिस्टर वाली, 'घर-घेर’ में हाथ तो बंटाना ही पड़ेगा”, बाबूजी ने साफ कह दिया था। मैंने भी हामी भर दी। काम से कौन घबराता है?

और वो सुनीता जो अंग्रेजी बोलने पर घबराने लगी थी, उसने कैमिस्ट्री ऑनर्स में एडमिशन लिया। यहां चश्मा लगाए पढ़ाकू से दिखने वाले विद्यार्थी थे। लड़के भी और लड़कियां भी। जो बहुत कम बोलते पर जब भी बोलते अंग्रेजी में ही बोलते।

लैसन तो रट लेती पर आपसी व्यवहार में अभी अंग्रेजी पर उतनी पकड़ नहीं बन पाई थी। मैं पास्ट, प्रजेंट और फ्यूचर टेंस लगाकर अपने मन के भावों को अंग्रेजी में तब्दील करती रहती और वे सही-गलत संवादों में अपनी बात कह जाते। मामला सारा कॉन्फीडेंस का था। जो आधा तो घरवालों को राजी करने में खर्च हो जाता, बाकी बचे आधे में से मुझे यह साबित करना था कि मैं इंटेलीजेंट तो हूं पर धरती के टूक नहीं कर रही अर्थात दायरे में ही रहूंगी। इसलिए अब सिर्फ सलवार कमीज पहन कर ही कॉलेज जाया करती थी। शेष बचे एक चौथाई आत्मविश्वास के साथ। वो भी 'भरोट्टा’ लाने के बाद।

हमारे अपने खेत नहीं थे। सो अलग-अलग खेतों से चारा काटकर लाना पड़ता। यह मेरी जिम्मेदारी थी। मुझे कॉलेज जाने से पहले भरोट्टा लाना होता। मैं खेतों के अंदर अंदर से गुजरती। सड़क का रास्ता सीधा और छोटा होते हुए भी वहां से नहीं जाती, क्योंकि इस वक्त ‘यू स्पेशल’ गांवों की तरफ आ रही होती। लौटते हुए इसमें गांव के गिने-चुने लड़कों के अलावा ज्यादा संख्या उन लड़के-लड़कियों की होती जो खेतों को काटकर उगाई गई कॉलोनियों में रहा करते थे। इनके घर हमारे घरों से छोटे पर आलीशान थे। हमारे घर धूप-हवा के लिए खुले रहते और कॉलोनियों में घर सामान से ठुके रहते। इन बच्चों की सीटें भी ‘यू स्पेशल’ में तय थीं। ज्यादातर पीछे बैठा करते और इश्क की पींगे बढ़ाया करते। इश्क की पींगे बढ़ाते, ढेर सी बातें करते उन्हें रास्ता खत्म होते भूख लग जाती और वे बस से उतरते ही सीधे कैंटीन चले जाते। कॉलेज आने से पहले जब मेरे लिए घर-घेर की जिम्मेदारियां तय की जा रहीं थीं, शायद उसी समय इन बच्चों की मंथली पॉकेट मनी तय कर दी गई थी। उसी पॉकेट मनी को यह कॉलेज कैंटीन में उड़ाया करते और जब कॉलेज कैंटीन का बर्गर, कटलेट, चाउमिन खा खाकर ये बोर हो जाते तो 'मैक्डी’ या 'विम्पीज’ चल पड़ते।

नए-नए शौक में जब मैंने पॉकेट मनी मांगी तो घर में मुझे बेतहाशा झिड़का गया — “लड़की निकल गई है हाथ से।”

“ये पंजाबियों वाले रंग ढंग हमारे यहां नहीं हुआ करते। जिसे पढऩा होता है न, वे यूं फिजूल के चौंचलो में नहीं पड़ता। जो दो चार क्लासें रह रही हैं पढ़ी जाए तो पढ़, नहीं ब्याह करवा के जा अपने घर।”

और जब मैंने खुद को ट्रेंडी बनाने के लिहाज से जींस खरीदनी चाही तो मां ने फिर एक जुमला मुझ पर चिपका दिया, “बाप के घर बेटी, गूदड़ लपेटी। जितना श्रृंगार करना है अपने घर जाकर करना। लड़की वही अच्छी होती है जो जब तक बाप के घर है, गऊ बनके रहे।”

हमारे गांव का अलग संविधान था। अपनी मान्यताएं थीं। यहां जाट, यादव सब सत्ता थे। नाई, धोबी, कुम्हारों के पांच सात घर यानी बिना खेत या थोड़ी जमीनों वाले लोग। ब्राह्मण संभले-संभले, नरम नरम से लोग। गांव के किसी फैसले में इनकी हां-ना की कोई जरूरत नहीं होती। मसालेदार खाना खाने वाले वजनदार लोग बनिये। और पंजाबी यानी सारी जातों से बाहर, फैशनेबल लोग। गांव वालों की मानसिकता से ऐसा लगता था कि दुनिया में जितने भी ऐब होते हैं, सब पंजाबियों में होते हैं। शराब, मांस से लेकर तलाक और इंटरकास्ट मैरिज तक। पॉकेट मनी मांगने पर मुझे सारी जातों से बाहर का यानी पंजाबी कहकर सबसे नीच साबित कर दिया गया था। जबकि वास्तविकता यह थी कि हम जिन डॉक्टरों से इलाज करवाते उनमें से अधिकांश पंजाबी होते। जिन स्कूलों में हमने पढ़ाई की वहां की अधिकांश टीजीटी, पीजीटी पंजाबी ही थीं। इसके बावजूद जब किसी पर लानत भेजनी होती तो कह दिया जाता, 'आपने तो जी बिल्कुल पंजाबियों वाली कर दी।’

गांव के इस संविधान और मां के इन जुमलों के अलावा बाबूजी की जेब में एक 'इनकार’ भी रहता था। जिसे वे हर बार निकाल कर हमारे सामने धर देते।

“मैं नहीं ला सकता, पढऩा है तो पढ़ो।”

“मेरी हिम्मत नहीं है, किया जाए तो करो। नहीं रैह्न दो।”

घर खर्च और पढ़ाई का खर्च भी बढ़ गया था। बाबूजी बीमार रहने लगे थे और उनके बनाए मिट्टी के घड़े, कुल्हड़ और हाण्डियां वगैरह अब उतने नहीं बिकते थे। कुछ करवे, कमोई और दीये दीवाली के सीजन में निकलते। जिसके लिए हम तीनों बहनों को छुट्टी लेकर बाबूजी का हाथ बंटाना होता। मैं गेरूं में कतरन डुबो कर इन पर रंग करती और सोनू, श्वेता माचिस की तीली से कच्चे घड़ों पर डिजाइन बनातीं। कच्ची पक्की मिट्टी से महकते इन दिनों में मेरी तीन अंगुलियां गेरू में रंगी रहतीं। इस सीजन के अलावा साल भर बाबूजी या तो बैठे बीड़ी पीते रहते या दूसरों की बेगार करते रहते। चौपाल में बाबू जी की अच्छी खासी मण्डली थी, जहां मैराथन ताश खेली जाती। बाबू जी ताश के बड़े खिलाड़ी माने जाते थे, इसी वाह वाही में वे देर शाम तक चौपाल में बैठे रहते। मैं जब कॉलेज से लौटती तो बाबू जी चौपाल में ही बैठे मिल जाते। और मां थक कर आंगन में दीवार के साये में सो रही होती।

दोनों छोटी बहनों सोनू और श्वेता के साथ मेरी अच्छी पटती थी। मेरे कॉलेज जाने पर वे भी उत्साहित थीं और जैसे ही मैं कॉलेज से लौटती वो दोनों चहक कर पूछतीं, “दीदी आज क्या क्या हुआ?” मैं उनके सपनों की दुनिया की नायिका थी। मैं रस ले लेकर सारी बातें उन्हें सुनाती। वे दिन गिनती कि एक दिन वे भी कॉलेज जाएंगी और इसी दुनिया को जिएंगी। मुझे जो काम लड़-लड़कर करवाने पड़े थे, शुक्र है कि सोनू और श्वेता को उनके लिए लड़ना नहीं पड़ रहा था। उन्हें स्कर्ट के लिए ललचाना नहीं पड़ा और न ही अपनी निजी जरूरतों के लिए गुहार लगानी पड़ी। मां इन सबका पलीता मुझ पर मढ़ देती, “जब बड़ी करेगी, तो छोटी कैसे पीछे रह जाएंगी? इसी को देख के बिगड़ रही है दोनों। गलती हमारी ही है, बछड़े ने जितना दूध पियाओ, वो उतना ही जोर मारता है।”

इन दो दुनियाओं को जोड़े हुए थी हमारी ‘यू स्पेशल’। ये मेरे सपनों की सवारी थी। मैं रोज इसमें सवार होकर गांव की अधपढ़ी मिट्टी, प्योर घी-दूध, महकते घड़े-सुराहियों, चुभती झिक-झिक, तकरार, भींदती रोक-टोक और दायरों से बाहर निकल जाती। और दाखिल होती नई खबरों, नई हलचलों, नई सुविधाओं, नई तकनीक, बड़े-बड़े पोस्टरों, चमकते बाजारों, सुनहरे भविष्य की चमकदार दुनिया के बीच। कॉलेज में दाखिल होते ही कोई नहीं पूछता 'कित जा रही है?’, 'इतनी देर से कहां से आ रही है?’ 'आज भरोट्टा लाया कि नहीं’

हां कभी कभार कोई पूछ लेता ब्यॉयफ्रेंड है? और मैं तिरछी मुस्कान से कह देती — “हां है।” यहां ब्यॉयफ्रेंड स्टेटस सिंबल था, फिर मेरा स्टेटस डाउन क्यों रहे? माइकल जैक्सन के अलबम और रिकी मार्टिन के शो की बात होती, मिका के गानों की बात होती, नोट्स की बात होती, बुक्स की बात होती। गांव की ही तरह यहां का भी अलग संविधान था। यहां ब्यॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड होना बुरा नहीं था, हां बुद्धा गार्डन या लोधी गार्डन जाना बुरा था। मूवी देखना तो अनिवार्य था, लेकिन फर्स्ट डे, फर्स्ट शो। उसके बाद देखी तो पिक्चर बासी। कॉलेज इलैक्शन में जीतता वही जिसने चुनाव प्रचार में फिल्म दिखाने को भी शामिल किया होता। बसें भर-भरकर हम पिक्चर देखने जाते और खुश होते कि हमारा कॉलेज ज्यादा एडवांस है वरना लड़कियों के कॉलेज में तो शेरों वाली माता और भोले बाबा के कैलेंडर और क्लिप बांटकर चुनाव प्रचार हो जाता। ‘यू स्पेशल’ के ड्राइवर, अटेंडेंट भी हमारे गांवों से ही थे पर यहां आकर वे भी मॉडर्न हो जाते। कॉलेज फेस्टिवल में भी इसी तरह बस भरकर हम दूसरे कॉलेजों में जाते। एक बार केएमसी (किरोड़ी मल कॉलेज) के लड़कों को हमने अपने फेस्टिवल में इसलिए घुसने नहीं दिया क्योंकि उनके यहां जब जस्सी आया हुआ था तो उन्होंने आईकार्ड एंट्री रख दी। अर्थात केएमसी के स्टूडेंट के अलावा बाकी सभी की नो एंट्री। मजबूरन हमें दीवार टाप कर कॉलेज में दाखिल होना पड़ा। इस मामले में रामजस और अरविंदो कॉलेज अच्छे थे। वे किसी स्टार, विस्टार को नहीं बुलाते, कॉलेज के खुले ग्राउंड में बड़े-बड़े स्पीकर्स के साथ म्यूजिक सिस्टम लगा देते। जिसे जितना नाचना है नाचे। यहीं रामजस में एक बार नाचते-नाचते शाम के चार बज गए। ग्राउंड की धूल हमारे चेहरे, आंखों और सिर के बालों पर पूरी तरह थुप गई थी। घड़ी देखते ही मेरे होश उड़ गए — “मां मार डालेगी। जल्दी मुंह धुलवाओ मेरा।” पड़ोस के गांव का माथुरों का एक लड़का जो नाते में मेरी सहेली का चाचा लगता था, की गर्लफ्रेंड ने कंघी कर करके मेरे बालों से धूल झाड़ी। फिर उसी की गाड़ी से हम अपने-अपने ठिकाने तक पहुंचे। यह हिम्मत, विद्रोह और डर की मिली-जुली बड़ी प्यारी दुनिया थी। इलैक्शन के टाइम तो यूं लगता जैसे कॉलेज में मेला लगने वाला हो। जैसे देश की सत्ता का फैसला यही होगा। एबीवीपी के लड़के प्रचार करने आए तो गेट के अंदर दाखिल ही नहीं होने दिया। यह एनएसयूआई का गढ़ था। यहां 'अन अपोज्ड विक्टरी’ तय थी। किसकी मजाल जो एबीवीपी के नाम का पर्चा भी दाखिल करे। एबीवीपी कार्यकर्ताओं को जब गेट से बाहर खदेड़ा गया तो कॉलेज में ढोल बजा और जमकर मनाया गया विरोधियों को खड़ा न होने देने का जश्न। मैं तो खुश थी शौकीन के लिए। दुनिया जाए भाड़ में। विकास शौकीन हमारे ग्रुप में था इसलिए कॉलेज में अच्छी चलने लगी थी। सब बातें समूह में होती, सब फैसले समूह में ही होते, सो कभी सीधे बात करने की न हिम्मत हुई, न जरूरत पड़ी।

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इधर अपनी दुनिया में मगन गांव की मानसिकता से लड़ती मैं और उधर कैमिस्ट्री ऑनर्स की मुश्किल पढ़ाई। घर-घेर में बहुत सा समय खप जाता। उस पर घर कुनबे की चाची-ताई कुछ काम करने को कह दें, तो उन्हें भी मना करने की मनाही थी। वरना फिर वही एक जुमले का चरित्र प्रमाण पत्र, 'हाथ से निकल गई है छोरी।’ 'पढ़ाई का गुरूर आ रहा है।’ जबकि पढ़ाई अब खासी मुश्किल होने लगी थी। डेढ़-दो घंटे की रुटीन पढ़ाई से काम नहीं चल पाता था। कॉलेज में जो लेक्चर होते, उन्हें नोट करते ही हाथ दुखने लगते। घर आकर उन्हें फेयर या रिवाइज करने का पूरा टाइम भी नहीं मिल पाता। कैमिस्ट्री की काफी सारी टर्म्स ऐसी थी जो मुझे समझ नहीं आ रहीं थीं। मुझे हेल्प की जरूरत थी, पर यहां तो एडमिशन लेना ही एक जंग लड़ना था, हेल्प का तो ख्याल ही भूल जाओ। गांव में भी अभी तक मैथ्स और इंगलिश की ट्यूशन चलन में थी। कैमिस्ट्री अभी इस गांव में दाखिल नहीं हुई थी। गांव में क्या आस-पास के और दो-चार गांवों में भी कैमिस्ट्री ऑनर्स से पढ़ाई करने वाला कोई नहीं था। मैं जिस ग्रुप का हिस्सा थी उसमें भी सब बीए पास या बीकॉम पास कोर्स के स्टूडेंट थे। मेरा दुस्साहस मेरे गले पड़ गया। कभी-कभी गला भर आता, खूब जोर से रोने का मन करता। पर नहीं रो पाती, रो पड़ी तो ये तो तैयार बैठे है ब्याह करवाने के लिए....

पढ़ने का वक्त घर में बहुत कम मिल पाता। कैंटीन जाने के पैसे होते नहीं थे इसलिए मैं सीधे लाइब्रेरी चली जाती। जो मोटी-मोटी किताबें कोर्स के लिए जरूरी थीं वे बहुत महंगी थीं। मैं लाइब्रेरी में बैठकर ही नोट्स बना लिया करती थी। कॉलेज का लाइब्रेरियन नजफगढ़ के पास के गांव झटीकरा का था। वही मेरे लिए किताबें निकाल कर रख दिया करता था। इतनी हेल्प क्या कम थी। पर जब उसने गांव-घर के बारे में पूछना शुरू किया तो मैं उससे भी बचने लगी। कॉलेज रिकॉर्ड में मेरा नाम सुनीता ही था। पर मेरा यकीन था कि जाति कोई चेहरे पर थोड़े ही लिखी होती है। सो, कभी कोई पूछता पूरा नाम क्या है तो कह देती, 'सुनीता सिंह’। इसी 'सिंह’ के फेर में पढ़कर वह एक दिन पूछ बेटा “बेटा चौधरी साहब क्या करते हैं”, “मम्मी कौन से गाम की हैं....” आदि आदि। अब खुद पर ही ग्लानि होने लगी। पर इससे ज्यादा ग्लानि तब होती जब लेक्चर समझ नहीं आते और असाइनमेंट नहीं बन पाते। इधर मैं अपने नाम के साथ सिंह जचा रही थी, उधर आटा चक्की वाले के लिए चाचा जी बार-बार दबाव डाल रहे थे।

मां-बाबूजी की सबसे खराब आदत यह थी कि एक तो वे दोनों आधी रात को उठ जाते और हर बात पर सुबह-सुबह ही बहस शुरू कर देते। पानी रात के तीन बजे आया करता था। भैंसो को पानी पिलाने के लिए बाबूजी को तीन बजे उठकर मोटर लगानी पड़ती और बाकी इंतजाम देखने होते। चार बजे तक मां भी भैंसों के पास घेर में पहुंच जाती..... यानी कायदे से जब तक लोगों को सोकर उठना चाहिए वह सारे काम करके छह सात बजे तक फ्री हो जाते। बस इसके बाद किसी भी जरूरी-गैरजरूरी मुद्दे पर बहस शुरू हो जाती। मां अमूमन कम ही बोलती थी, पर जब बोलती तो बाबूजी को चुप हो जाना पड़ता।

बाबूजी आज फिर आटा चक्की वाले का प्रशस्तिगान करने बैठ गए थे, “पता क्या है इसे, कितनी कमाई है उनकी। सिर से पांव तक सोने में पीली करके रखेगा।”

मैं कॉलेज के लिए लेट हो रही थी, रोटियां अभी सेंकी जानी बाकी थी और प्रेस थी कि मिल नहीं रही थी। मैं कपड़े उठाए साथ वाले घर की तरफ चल दी।

“भाभी प्रेस कहां रखी है?” हमारे घरों में भले ही सामान ज्यादा नहीं था, पर जितना भी था उसे कोई भी, कभी भी इस्तेमाल कर लेता।

भाभी मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी, उन्होंने हाथ के इशारे से बता दिया कि बाहर बरामदे में टेबल के नीचे रखी है” ।

मैंने जाकर उसी टेबल पर चादर बिछाई और सूट प्रेस करना शुरू कर दिया।

भाभी एमकॉम पास थी और हमारे पड़ोस के जिस लड़के से वह ब्याही गई थी वह बारहवीं फेल और मारधाड़ में नंबर वन था। पल्ले कुछ नहीं था सिवाए पुश्तैनी जमीन के। जिसके दाम आजकल करोड़ों में थे। बैठा बैठा बाप दादा की जमीन के प्लॉट काटकर बेच रहा था। कुल मिलाकर प्रॉपर्टी डीलर बताकर शादी हुई थी। एमकॉम पास लड़की के बाप ने भी पैसे के आगे बेटी की काबलियत सस्ती साबित कर दी।

प्रॉपर्टी डीलर वह भी दबंग। दूर पास के किसी गांव-कॉलोनी में किसी के प्लॉट या खेत पर कब्जा हो जाए तो उसे छुड़ाने या सस्ते दाम पर खरीद कर उसे दबंगों से मुक्त करवाने की भी काबिलीयत रखता था भाई। इसी का प्रमाण था कि आए दिन उसकी आंख या होंठ टूटा-फूटा होता।

भाभी के बात करने के रोमांटिक अंदाज पर मैं मुग्ध होकर सोचने लगी, प्यार का क्या है, किसी से भी हो सकता है। अरेंज मैरिज में चाहे लड़की शादी से पहले लड़के को देखकर रोने लगी हो पर अक्सर शादी के बाद दोनों में खूब प्यार हो जाता है।

पर ये प्यार भरी बातचीत एकदम कट गई। और भाभी बरतन उठाए रसोई की तरफ चली गई। भाभी का यूं चले जाना अप्रत्याशित था। पर उससे अधिक अप्रत्याशित था, भैया का सामने से चले आना। मैं नजरें नीची किए अपने कपड़े प्रेस करती रही। घर आकर तैयार हुई और कॉलेज के लिए रवाना हो गई। पर ये सवाल मेरे मन में ही अटका रह गया कि भैया को देखकर अगर भाभी घबरायी हुई रसोई में चली गईं तो वह कौन है जिससे वह इतनी सौम्य बातचीत कर सकने की हिम्मत रखती हैं। ‘यू स्पेशल’ में बैठी बस यही सोच रही थी।

‘यू स्पेशल’ में फिक्स सीटों की फिक्स सवारियों के बाद हम जैसों का नंबर अगली सीटों पर था। कराला का राजू भी अगली सीट पर बैठने वालों में से ही था, पर इधर कुछ दिनों से वह पिछली सीट ढूंढने लगा था। आज बहुत दिनों बाद उसे अगली सीट पर देखा तो पूछ लिया, “कहां गई तेरी बुद्ध विहार वाली?”

“गई होगी कहीं, मन्ने के बेरा?”

“हम्बे, उसका बेरा तेने नी होगा तो किसने होगा?” पीछे से किसी ने कहा और हम सब हंस पड़े।

“छोड्डो यार, बेचारी भोली है” राजू ने कुछ रूमानियत से जवाब दिया और उठकर मेरे साथ वाली सीट पर बैठ गया। मौका देखकर मैं हौले से बोली, “भोली तो है पर यूं बता ये, रोती क्यों रहती है?”

“क्या करे बेचारी अकेली है। इसका कोई ब्यॉयफ्रेंड था, उसने धोखा दे दिया इसे। इब उसने याद करके रोती रहती है।”

“आंसू पोंछने की ड्यूटी तेरी लगा गया है क्या इसका ब्यॉयफ्रेंड?” मैंने छेड़ते हुए पूछा

“मेरी क्यों लगावेगा”, वह छो (गुस्से) में आ गया,

“अब तो उसे भूल ही गई है, तेरी भाभी बना लूं उसने....”

मेरी हंसी छूट गई। “अभी तक उसे याद करके रोती रहती है, और तू सीरियस हो गया उसके लिए?

पागल है क्या? किस 'बिहारन’ के चक्कर में पड़ रहा है, ये जब नाक तक सिंदूर लगाकै छठ पूजेगी न, तो तेरी मां इसने और इसके साथ तुझे भी ठा के झोह्ड़ में फेंक देगी।”

“बिहारन नहीं है वो, पार वाली है।”

“एक्के बात है। पर है अच्छी। मिलनसार भी है।” मैं उसकी राजू की भावी दुल्हन के रूप में कल्पना करने लगी।

राजू भी शायद ऐसा ही कुछ सोच रहा था। फिर बोला, “अकेली रहती है यहां, कैसे होते हैं न इनके मां-बाबू भी, छोरियां ने बाहर अकेला भेज दे हैं। फिर गोत भी नहीं बूझते उनका।”

“हमसे तो ठीक ही होते हैं। कम से कम हमारे मां-बाप की तरह पढ़ाई-लिखाई पर लट्ठ लेकर तो नहीं बैठे रहते। आगे जाकर देखियो तू कोई बस चला रहा होगा और मैं किसी की 'लावणी’ कर रही होंगी और ये किसी दफ्तर में मैडम बनके बैठी होगी। इसलिए इधर-उधर आंसू पोंछना छोड़ और पढ़ाई पर ध्यान दे। एग्जाम आने वाले हैं।”

“मेरी चिंता छोड़, तू क्या सोचती है, वो शौकीन का बाबू तुझे अपने घर में घुस जाने देगा?”

मेरी जुबान कटते कटते बची, मैं ही सबको नहीं देख रही थी, मुझे देखने वाले भी बहुत थे, चोरी पकड़े जाने पर चोरी से खुद को बचाते हुए बोली, “कौन शौकीन?

“विकास शौकीन, सुल्तानपुर माजरा का”

“तू शौकीन को कैसे जानता है?”

“शौकीन को तो अब सारा कॉलेज जानता है, पर मैं उसे बचपन से जानता हूं। हमारे गांव का भांजा लगता है वो।”

और सहसा मैं झिझक गई। न जाने कैसा अजीब सा भान हुआ कि राजू मेरे ससुराल पक्ष के संबंधियों के गांव से है। यथार्थ के धरातल पर एकदम फिजूल भावना से मैं बेवजह घिर गई....।

दौड़ती भागती, प्रगति करती दिल्ली के बीच ये हमारे गांवों का झुण्ड था, जिसका समय बहुत धीमी रफ्तार से बस सरक रहा था। ये झुण्ड आपस में किसी न किसी रिश्ते से बंधा हुआ था। किसी गांव में किसी की बुआ ब्याह रखी थी, किसी में किसी की मौसी। तो कोई किसी गांव का दामाद हो जाया करता था क्योंकि किसी खास गांव की अधिकांश लड़कियां इसी गांव में ब्याही गई थीं, तो कोई तुनककर कहता, “उस गांव में बेटी कैसे दे सकते हैं, वहां की लड़कियां तो हमारे यहां आती हैं.....”

फिर कोई कहता, अब जमाना बहुत बदल गया है, चौधरी साहब!

तो वहां से चौधरी साहब अकड़ कर कहते, जमाना बदल गया है तो क्या, हमें तो गांव में ही रहना है न।

किराड़ी, मुंडका, घेवरा, नरेला, कंझावला, पूठ, कराला, बेगमपुर, सुल्तानपुर, माजरा, रिठाला....

थोड़ा और आगे बढ़ों तो समेपुर, बादली, देवली, हैदरपुर.....

और इस तरफ उत्तम नगर से नजफगढ़ निकल जाओ तो खैरा, छावला, झटीकरा, पण्डवाला खुर्द, कांगनहेड़ी...हरजोकड़ी

खेतों खेतों में से गुजरें तो आगे घूमनहेड़ा, डूंडा हेड़ा, रजोकड़ी... गांवों का तो क्रम भी याद नहीं रहता इतने हैं गांव। पर राजधानी की भीड़ से जैसे बुहार दिए गए हैं। सब के सब। यह बाबुओं की दिल्ली। यह शॉपिंग करने आने वालों की दिल्ली। यह टिकट की जोड़तोड़ करने वाले नेताओं की दिल्ली। यह देश को प्रगति का रास्ता दिखाने वाले युवाओं की दिल्ली और हम दिल्ली के भीतर भी बाहर भी….।

जगह-जगह हमारे गांवों के ऐसे कई झुण्ड थे, जिनके खलिहानों में अब दिल्ली का कूड़ा-कचरा फेंका जा रहा था। हम खुश थे कि जिन खेतों पर रात-दिन मेहनत करके भी कुछ ज्यादा हासिल नहीं होता था वहां अब प्लॉट काटे जा रहे हैं। ज्यादा न सही कीमत तो मिल ही रही है जमीनों की। पर कहां पता था, हमारी छाती पर खड़े हो रहे ये मॉल, ये कॉम्प्लेक्स एक दिन हमें ही पहचानने से इनकार कर देंगे। छोटी-छोटी कॉलोनियों को उगा रहे खलिहान की कच्ची सड़कों को बाथरूम और चौतरें बनाकर निगल लिया जाएगा। अपने ही खेतों से निकलते हुए आज उसकी संकरी गलियों से कंधे छिल जाने लगे थे। गांव बदल रहे थे पर मां-बाबू जी बिल्कुल नहीं बदले। मेरे ही नहीं, किसी के भी नहीं बदले।

आज सुबह-सुबह फिर से वही तमाशा शुरू हो गया —

“इसके तो शौक ही पूरे नहीं हो रहे। और कितने दिन पढ़ेगी। वे लोग तकाजा कर रहे हैं। जल्दी बता ब्याह करना है कि नहीं।”

“मैंने कह दिया न, मैं नहीं करूंगी उस आटा चक्की वाले से शादी।”

“तड़ाक ...” बाबू जी ने मुंह पर तमाचा जड़ दिया..... “आटा चक्की वाला लग रहा है इसे, कमाई नहीं देखती उसकी...” , बाबूजी का चांटा देर तक मेरे कान के पास गूंजता रहा। मैंने अभी तक इसकी उम्मीद नहीं की थी। और फटी आंखों से बाबूजी की ओर देख रही थी, आंख से आंसू ढलकते हुए होंठ धीरे-धीरे फडफ़ड़ाने लगे....

इन्हीं फडफ़ड़ाते होंठों से धीरे-धीरे कहा, “अभी मैंने सिर्फ सैकिंड ईयर के पेपर दिए हैं। अभी एक साल और है। इसके बाद भी मैं पढ़ाई छोडऩे वाली नहीं हूं...”

अब मां का धैर्य भी चुकने लगा था, “मुंह बंद नहीं रख सकती, बाबू से जबान लड़ा रही है... ज्यादा पंख फैलने लगे हैं..” मां ने चोटी पकड़ कर मेरा सिर बुरी तरह से हिला दिया।

चोटी ढीली पड़ गई, मेरी अकड़ भी, बहुत से शब्द, बहुत सी ख्वाहिशें गले में अटक कर रह गईं....इन सबको समेट मैं आंसू पोंछते हुए नहाने चली गई... कॉलेज के लिए देरी हो रही थी। आज लगता है पहला पीरियड छूट ही जाएगा।

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मैं अपनी जिद पर अड़ी रही। मैंने चोटी फिर कस ली मगर शादी के लिए तैयार नहीं हुई। मां बाबूजी ने अपनी खुन्नस मुझ पर जितनी निकाली जा सकती थी, निकाली। उसके बाद सोनू का प्रस्ताव उनके घर भेज दिया। सोनू आर्ट्स सब्जेक्ट के साथ अभी 12वीं के पेपर दे रिजल्ट का इंतजार कर रही थी। उसके खाली समय को इस तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। मां-बाबूजी को डर था कि अगर इन छुट्टियों में ही उसे घेर नहीं लिया गया तो वह भी मेरी तरह कॉलेज की तरफ मुंह कर देगी और वाचाल हो जाएगी। पर यह सब दांव काम नहीं आए और सोनू का सांवला रंग उसकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित कर दिया गया।

आटा चक्की चलाने वाले कुम्हार का वह खूब नोट कमाने वाला बेटा अपने घर के और चार-पांच लोग साथ में लेकर सोनू को देखने आया। उनका आना और सोनू की जगह श्वेता की गोद भरकर जाना घर में भौंडे नाटक की तरह हुआ। उसकी मंडली में शामिल उसकी मां और बहनों ने सोनू को उसके सांवले रंग के कारण 'फेल’ कर दिया। शायद मेरे इनकार पर वे इस तरह झुंझलाए हुए थे कि बदले में उन्होंने सोनू के लिए इनकार कर दिया। 'बारगेनिंग’ के तौर पर दोनों ओर से श्वेता पर दांव लगाया गया —

'अब आए हैं तो किसी न किसी को लेकर जाएंगे’ वाले अंदाज में सोनू के लिए जो सूट-साड़ी, श्रृंगार और सगाई की अंगूठी पाजेब लाई गई थीं वे श्वेता के मत्थे मढ़ दी गईं। श्वेता अभी 11वीं में आई थी। न उसकी शादी की उम्र थी और न ही उसका इस लड़के से कोई मेल —

मैं आत्मग्लानि और सोनू हीन भावना में मौन खड़े रहे। मेरे इनकार के कारण ये आफत सोनू के गले पडऩी थी और उसके सांवले रंग के कारण श्वेता के मत्थे मढ़ दी गई। जब श्वेता की होने वाली ननदें उसकी सिर गूंथी की रस्म कर रहीं थीं तो श्वेता ज़ार ज़ार रोई। ननद और होने वाली सास ने इसका अभिप्राय हमें समझाया कि बेटी का मन मां का आंगन छूटने के गम में भारी हो रहा है, “चिंता मत कर बेटी, मैं तुझे अपने बालक की तरह रखूंगी। खाने-पीने की मौज है हमारे घर में। और हमारे मिट्टी के बर्तन नहीं चलते, पीतल के बर्तनों से घर भर राखा है। यो जगदीश तुझे सिर से पांव तक सोने में पीली करके रखेगा।” कहते हुए उसकी होने वाली सास ने उसे गले से लगा लिया। श्वेता ने खुद को उसके गले से हटाने का भरसक प्रयास कर रही थी। उसकी लाल आंखें इशारा कर रहीं थीं कि यह नौटंकी बंद कर दी जाए और उसे अकेला छोड़ दिया जाए। हम श्वेता के आंसुओं की भाषा समझ रहे थे पर कुछ कर नहीं सकते थे। गांव भर की औरतें आंगन में जुट गईं थीं, उसकी लाल-लाल आंखों में स्याही के काले डोरे खींच दिए गए। हाथों में हरी-हरी चूडिय़ां चढ़ाई जा रही थीं और गीत गाए जा रहे थे, “तेरे भूरे भूरे हाथ बईयां चूढिय़ां भरी, तेरे जीवें रे सुहाग जोड़ी अजब बनी”

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इस अजब जोड़ी के पूरा होने में अभी कुछ समय बाकी था। तब तक श्वेता अपनी ग्यारहवीं क्लास की पढ़ाई पूरी कर सकती थी। यह मोहलत मां बाबूजी ने ली थी सोनू के लिए रिश्ता ढूंढने तक। श्वेता का व्यवहार अब अजीब तरह का हो गया था। गोद भराई में मिले सूट और सैंडिल उसने बुरी तरह से पहनकर रगड़ डाले। हर बात पर उसका जवाब ढीठपने की हद तक बिगड़ा हुआ होता। अब मेरे कॉलेज लौटने पर वह झुंझलाकर दूसरे कमरे में चली जाती। जब तब उसके होने वाले 'बटेऊ’ का फोन आ जाता और वह दौड़कर छत पर चली जाती। मां बार-बार उससे घर के कामों में हाथ बंटाने को कहती पर वह मुकर जाती। वही श्वेता जिसने मुझे भाषा के स्तर पर जूझते देखा था और जिसने गणित में 70 फीसदी से ज्यादा नंबर लिए थे वही श्वेता ग्यारहवी में फेल हो गई। मैंने जब उसे बुलाकर डांटा तो उसने अपने जवाब से मुझे ढीठ कर दिया, “आपको तो नहीं है न कोई मुसीबत। आप मारो मौज अपने कॉलेज के दोस्तों के साथ। सारी मुसीबतें तो मेरे ही गले पडऩी है। फिर पास होऊं या फेल। जाना तो उसी गांव में है। डिग्रियां लेकर कौन सा टाटा बिड़ला के घर चली जाऊंगी। जाकै होड़े आटा ही पीसना है न, पीस लूंगी....” मेरे मुंह पर अपने जवाब का तमाचा मारकर वह 'सरड़ सरड़’ छत की सीढिय़ां चढ़ गई। उसकी घेरदार सलवार की सरड़ सरड़ करती तेज चाल और तीखा जवाब देर तक मेरे कानों में गूंजता रहा। उसके चले जाने से मैं एक बार फिर ग्लानि से भर गई। मां ने समझाते हुए कहा, “इसके मुंह मत लगा कर, जब से इसे 'पुचकार’ के गए हैं, इसके ज्यादा राम लग रहे हैं। तू जा अपनी पढ़ाई देख। उसी के लिए तूने सब दुश्मन बना रखे हैं अपने।”

सोनू जैसे हर स्थिति से बचने की जुगत में लगी रहती। उसे डर था ब्याह हो जाने का, पर अभी तक सुकून था कि बाबू जी को कोई अच्छा परिवार नहीं दिख रहा था। जब बाबूजी बहुत निराश हो जाते तो उसके सांवलेपन को देख कुंठित होते। पर उन्हें पता था कि उनका बच्चा बदसूरत नहीं है, वो तो लड़के वालों को कोई न कोई कमी निकालनी ही थी सो उन्होंने सोनू के सांवले रंग को निशाना बनाया। इसके पीछे की असल वजह मैं ही हूं। जोड़ मेरा ही सही था, मेरे डिगने ने सारी श्रृंखला बिगाड़ दी। नहीं तो तीन बेटियों का बाप धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारी से इज्जत के साथ निवृत्त हो जाता। बाबूजी कभी-कभी मुझे अपना बेटा मानते और कभी कभी गले की फांस।

बारहवीं करने के बाद सोनू ने लड़कियों के उसी कॉलेज में एडमिशन लिया, जिसमें मैंने फॉर्म नहीं भरा था। अब तक उसका फर्स्ट ईयर कंपलीट होने वाला था कि बाबूजी को कादीपुर में एक अच्छा परिवार मिल गया। परिवार अभी तक हमारी तरह मिट्टी में हाथ सानकर घर चला रहा था, लेकिन अब लड़का जो एमसीडी स्कूल में टीचर हो गया था, ने घर की आर्थिक स्थिति संभाल दी थी। दो छोटी बहनें हैं जो पढ़ रहीं थीं और योजना थी कि उन्हें भी जेबीटी करवा दी जाएगी ताकि वे भी भाई की तरह अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं और मिट्टी की दुनिया और मिट्टी की जाति से बाहर निकल दिल्ली की सुविधासंपन्न जिंदगी में शामिल हो सकें।

रिश्ता मिलते ही जैसे मां-बाबूजी का रुका हुआ समय बहने लगा और उनकी कुंठा कुछ हद तक बह गई। मां ने चाव से सब तैयारियां कीं। सुरेश का परिवार घर आया। यह जगदीश के परिवार की तरह पैसे वाला तो नहीं था पर सलीकेदार था। सगाई की अंगूठी और कपड़े उतने महंगे भी नहीं थे पर ऐसे थे जो सोनू को बहुत पसंद आए। परिवार की बातचीत और बैठने-उठने के सलीके ने सभी का दिल जीत लिया। पड़ोस की औरतें और चाची-ताइयां भी सोनू के भाग देख अचंभित थीं। सिर गूंथी की रस्म के लिए सोनू की दोनों छोटी ननदों ने अलग कमरा मांगा तो मैं उन्हें हम बहनों के कमरे में ले गई। मैंने देखा तीनों लगभग हम उम्र हैं और इस मौके को खूब एन्ज्वॉय कर रहीं हैं। तीनों किसी भी तरह के फूहड़ मजाक या आधिपत्य की बजाए एक दूसरे के कंफर्ट का ख्याल रख रहीं हैं। यह सब देख मैं भीतर ही भीतर बहुत सुखद महसूस कर रही थी। मुझे अच्छा लग रहा था कि सोनू को एक ऐसा परिवार मिला है जिसे पढ़ाई की कद्र है। सोनू को हल्के गुलाबी रंग की साड़ी पहनाकर तैयार किया गया, उसके हाथों में ससुराल से आई हरी चूडिय़ां चढ़ाई जा रही थीं और हिल-मिल सब औरतें गाने लगी, “ऐ सुहाग मांगन लाडो अपने बाबा के गई, बाबा ला दो ना सुहाग मैं तो कद की खड़ी....”

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एक ही मंडप में सोनू और श्वेता दोनों की शादी कर दी गई। मैं अपनी दोनों छोटी बहनों की शादी में साड़ी पहनकर बड़प्पन के साथ शामिल हुई। भीतर एक झिझक भी थी। लोगों की नजरों में भी वही सवाल थे पर होंठों पर जवाब यही थे कि अब कहां करेगी शादी। इस शादी में जबरन मुझे यह जता दिया गया कि अब मेरी शादी कभी नहीं हो सकती। अब मेरी उम्र निकल गई है। जब छोटियों का ब्याह हो गया तो अब तो कोई बूढ़ा ही आएगा मुझे ब्याहने। हालांकि मेरी उम्र अभी 20 पूरी होने में भी कुछ महीने बाकी थे।

जगदीश के साथ श्वेता ससुराल में गुम हो गई और सोनू के लिए सुरेश ने पढ़ाई जारी रखने की सलाह दी। वह भी रेगुलर। बीच-बीच में तीज-त्यौहार पर सोनू और श्वेता घर आती रहीं। श्वेता घर आते ही सीधे बाजार जाने की तैयारी करने लगती। पिछली बार लेकर गई उसकी निजी इस्तेमाल की चीजें निपट चुकी होती थीं। आइब्रो वैक्सिंग के लिए भी उसे पीहर आने का इंतजार करना पड़ता। श्वेता के ससुराल का काम यूं तो भूरे रंग के गेहुंओं से सफेद आटा बनाने का था पर वहां से जब भी हमारी श्वेता लौटती तो श्यामला बन कर आतीं। उसे देखकर मां का कलेजा फट जाता, “हमारी फूल सी बच्ची कोल्हू में जोत राखी है चक्की वालों ने।” शुरु के दिन उसकी ससुराल का मैल उतारने में बीत जाते, जो कभी तन का होता, कभी मन का। इन दोनों के लिए वह अपनी ससुराल से ज्यादा मुझे कसूरवार मानतीं। उसे लगता कि जिस सूली पर मुझे टांगा जाना था, उस पर वह टांग दी गई। और बाकी बचे दिन वह जाने की तैयारी में अपना सामान बांधने में बिता देती। अनलिखी एक लिस्ट हुआ करती थी उसके मन में। जो बातों बातों में 'औरे-धौरे’ की औरतें उनकी बहुओं के पीहर से आए सामान को दिखा कर बनवा दिया करतीं थीं। उस पर रही सही कसर उसकी सास पूरी कर देती। जो कहती तो थी कि वह उसे बेटी की तरह रखेगी पर बेटी कैसे रखी जाती है उसे शायद इसका भी शऊर नहीं था।

वहीं सोनू के सांवलेपन पर खुशी की चंपई आभा चढ़ने लगी थी। वह कोर्स की किताबें साथ लाती। दिन भर कमरे में बैठी नोट्स बनाती रहती और अपने असाइनमेंट खत्म कर वापस लौट जाती। लौटते हुए मां उसे भी रस्मी तौर पर पांच सात सूट और उसकी सासू के नाम के शगुन के कपड़े देती। सोनू अक्सर छुट्टियों में पीहर आती और श्वेता किसी त्यौहार से पहले या उसकी ससुराल में होने वाले किसी फंक्शन से पहले जब उसे पार्लर जाना बहुत जरूरी लगने लगता। साल बीतते सोनू की पढ़ाई पूरी होने की ओर थी और श्वेता का पेट निकलने लगा था। सोनू के लिए सुरेश ने साफ कह दिया था कि पहले सोनू की पढ़ाई पूरी हो जाए उसके बाद वह बीएड करेगी। तभी परिवार के बारे में कुछ सोचा जाएगा। वहीं श्वेता के बारे में खुशखबरी सुनाते हुए उसकी सास ने कहलवा दिया था, “बहुएं और लाई किस खात्तर जावें। येई तो परोगरेस होए करै हे शादी के बाद की।”

सोनू फाइनल ईयर के एग्जाम की तैयारी कर रही थी, श्वेता को नौवां महीना चढ़ा। मां ने गूंद के लड्डू बनाए। दस किलो का ड्रम भर के ससुराल भेजा गया। साथ में सातिये की साडिय़ां। श्वेता कहती थी, “मां सारा ट्रंक खाली है। पता नहीं सब साडिय़ां कहां चली गईं। सास कहती है होते के साथ सातिया पूजना होगा। कम से कम ग्यारह साडिय़ां तो होनी ही चाहिए। इससे कम में क्या होगा। हमारी नाक थोड़ी कटवानी है।”

मां श्वेता के 'छोछक’ की तैयारियों में घी जोड़ रही थी। श्वेता के घर से आने वाली गुड़ की भेली का इंतजार था पर होना तो कुछ और ही था। रात में घर लौटते हुए किसी ने ट्रक बाबूजी पर चढ़ा दिया। कोई कहता है ट्रक वाला नशे में था, कोई कहता है बाबूजी बेसुध थे —

हमारा बसा-बसाया घर, उसके स्तंभ, उसकी सब दीवारें जैसे पूरे जोर से हिल गईं। बाबूजी की जिंदगी का चाक चलते-चलते अचानक थम गया। गांव भर की लाडली और कुम्हार की ये तीनों बेटियां अनाथ हो गईं। जब बाबूजी की अर्थी उठी यूं लगा पूरा गांव रुदन कर रहा है। आंगन में धरे कच्चे पक्के घड़े जैसे चटक कर रो रहे हैं। औरतें, आदमी, बूढ़े जवान ही नहीं पेड़ों की फुनगियों, दीवारों की मुंडेर पर बैठने वाले चिडिय़ां और कौए भी हमारे साथ रो रहे हैं, ऐसा लगा।

किताबों को छोड़, पढ़ाई को भूल सोनू भागी आई थी बाबूजी के अंतिम दर्शन को और श्वेता तड़पती रह गई। वह अपना पेट छोड़कर नहीं आ सकती थी और सास ने गर्भ की चिंता में श्वेता को जाने नहीं दिया। हालांकि दोनों की ससुराल से ट्रैक्टर भर कर लोग आए कलपने। इस रुदन में मैं जैसे अचानक बड़ी हो गई। लोग बाबूजी का कोई बेटा न होने पर अफसोस करते और उनकी आंखें उम्मीद से मेरी तरफ उठ जातीं। 'इब तो बेट्टी तन्ने ही संभालना है घर भी और अपनी मां को भी।’

मैं हक्की-बक्की सी जिम्मेदारियों के बोझ तले न रो पा रही थी और बाबूजी का संबल अचानक छूट जाने की पीड़ा में न ही कुछ संभाल पा रही थी। मैं अजब स्थिति, अजब द्वंद्व से गुजर रही थी। मेरी कुछ सहेलियां भी आईं बाबूजी के चले जाने पर मेरा दुख हल्का करने। पर वह हल्का नहीं हुआ। सूना पड़ा चाक जैसे कहता कोई आए बीड़ी सुलगाए और मुझे घुमा दे। इन औंधे रखे घड़ों को कोई अंगुली से बजाकर बताए कि ये सब कितने बढिय़ा बने हैं। बाबूजी के बनाए बर्तन हमने बेमन से जो आता गया उसे बेच दिए। औने-पौने दाम पर। मुझे न बर्तन बनाने आते थे, न उनका मोल लगाना। त्यौहारों पर मैं बस उन्हें लाल गेरू से सजाया करती थी। पर जब बर्तन बनाने वाला ही न हो तो उन्हें सजाने वाले गेरू का क्या काम। मां को मैंने कभी तीज त्योहार, होली या तीज पूजते ही बिंदी लगाए देखा था। ज्यादातर मां के चेहरे पर श्रृंगार नहीं ही हुआ करता था, फिर भी जब मां के लिए श्रृंगार वरज दिया गया तो मुझे मां के माथे का सूनापन भीतर तक महसूस हुआ। बाबूजी क्या क्या करते थे, उनका होना कितने मोल का था, उसका हमें आज यकीं हो रहा था। जब कोई भूला बिसरा बाबूजी का नाम लेकर पहुंचता, पूछता कि “रामहेर कित है?”

और हमारा जवाब होता, “वे नहीं हैं जी।”

“कहां गए हैं, कितनी देर तक आएंगे?”

“जी वे अब नहीं रहे। वे गुजर गए हैं। महीना भर होने को आया।”

ये शब्द नसों का रक्त निचोड़ कर बाहर आते और उसके बाद हमारा अधूरा सा परिवार बिलख पड़ता। न बीड़ी सुलगी, न चाक घूमा, जिंदगी हौले-हौले बस सरक रही थी......

श्वेता के गर्भ से जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। एक बेटा और एक बेटी। श्वेता की कच्ची उम्र और मानसिक अवसाद था या विधि का लेख, बेटा होते ही मर गया और बेटी बची रह गई। “बेटियों के कुनबे से आई बेटी ने यहां भी बेटी जन दी....निपूती की छोरी ने आके हमारा भी कुनबा खराब कर दिया” सास ने जितनी निर्ममता से कहा जा सकता था कह दिया। श्वेता पहले ही टूटी डाली सी हो चुकी थी। उस पर दो फलों का बोझ, तने की जड़ से छूट जाने का मानसिक अवसाद, श्वेता की दिमागी हालत खराब होने लगी थी। मैं उसके डिप्रेशन और उसके बाद आई मैंटल सिकनैस को समझ रही थी। पर इस मामले पर जितनी लापरवाही और जितना तमाशा हो सकता था उसके ससुराल वालों ने किया।

उसकी सास पहले कहती रही “बाप के गम में छोरी ने औलाद भी नहीं देखी”

फिर कहने लगी “रोवा राह्ट और कितने दिन चलेगी”

और फिर कह दिया “ओपरी हवा लग गई है। पता नहीं बाबू ही न आ र्या हो छोरी के सिर।”

मुझसे रहा नहीं गया। मैं लगभग विद्रोह के अंदाज में श्वेता और उसकी बेटी को अपने घर ले आई। भाभी भी साथ थीं और भैया का डील डौल देखकर जगदीश और श्वेता की सास कुछ नहीं बोले, पर उनकी देह भाषा बता रही थी कि मरीजों की सेवा के लिए यहां कोई नहीं है। ले जा रहे हो तो तभी छोड़ना जब काम करने लायक हो जाए।

श्वेता जब कार से उतरी तो मां उससे लिपट कर बुक्कल फाड़ के रोयी। यह दुख दोहरा था। श्वेता की लुटी पिटी सी हालत का और बाबूजी के देहांत पर उसके न आ पाने का भी। श्वेता की बेटी भाभी ने संभाल रखी थी। उन्होंने बेटी मेरे हाथ में पकड़ाई और आंसुओं में डूबती मां-बेटी को एक दूसरे से अलग किया।

“चाची जी क्या कर रही हो, पता नहीं है आपको, अभी उसका कच्चा शरीर है।”

शरीर दोनों का कच्चा था। मां का भी, श्वेता का भी। इन दोनों के बीच मेरा कच्चापन देखने समझने वाला कौन होता। हालांकि मुझे इस वक्त सबसे पक्का हो जाना चाहिए था। यही जरूरत थी। सोनू भी आई हुई थी। सोनू ने श्वेता के लिए अलग कमरा तैयार कर दिया था। पर श्वेता ने अलग कमरे में रहने से इनकार कर दिया, “दीदी मैं बहुत अकेली हूं, अब सबके साथ रहना चाहती हूं।” सोनू ने जल्दी-जल्दी फोल्डिंग बेड निकाला, उस पर गद्दा बिछाकर रंग बिरंगी चादर बिछा दी। मैंने गुड़िया को अपने बैड पर लिटा दिया। वह नन्हीं कुम्हलाई आंखों से टुकुर टुकुर देख रहीं थी। बीच-बीच में महीन आवाज में रो पड़ती। मैं गोद को पालने की तरह हिलाती, वह फिर टुकुर टुकुर देखने लगती।

मां लगभग बेहोश सी हो गई थी। भाभी ने उन्हें आंगन की खुली हवा में लेटाया और पैरों की तेज तेज मालिश की। सोनू चम्मच से पानी मां के मुंह में डाल रही थी। आधे अधूरे घूंट भरती मां सिर्फ इतना बुदबुदाई, “मेरी छोरी मार डाली चक्की वालों ने।”

श्वेता ने अभी तक गुड़िया को दूध नहीं पिलाया था, उसकी छातियों में गांठें पड़ गईं थी और शरीर पीला। भाभी के इशारे पर भैया लेडी डॉक्टर को लेकर घर आए। उसने पम्प से श्वेता की मदद करने की कोशिश की। श्वेता की चीखें घर को हिला रहीं थीं। सब कुछ से निवृत होने के बाद डॉक्टर ने भैया को खूब डांटा —

“शादी करने की जल्दी रहती है आप लोगों को। गाड़ी भर भर कर सामान दे दोगे ससुराल वालों को पर अपनी बेटियां नहीं संभाली जाती आपसे।”

वह भैया जो बदमाशों के कब्जे से प्लॉट छुड़वाते मिनट नहीं लगाते थे और वो जिनके शरीर पर अकसर मार धाड़ के निशान उभरे रहते, वे चुपचाप डॉक्टर की डांट सुनते रहे। वे नहीं बोले कि मैं इस कुनबे से ही नहीं, जाति से भी बाहर का आदमी हूं। कुम्हार के इस परिवार का मैं जाट पड़ोसी हूं। हमारे घरों की बस दीवारें आसपास हैं। और दिल के बीच कोई दीवार नहीं है।

मेरी नजर में आज भैया और भाभी का कद और भी बड़ा हो गया था। यूं भी कई तरह से हम उनके अहसानों तले दबे थे पर आज इन दोनों की भलमनसाहत ने मुझे हमेशा के लिए गिरवी रख लिया।

गांव भर के लोग श्वेता की हालत पूछने घर आ रहे थे। चाची भी आई। बाबूजी के चाचा का परिवार हमारे घर की बाईं दीवार से बिल्कुल सटा हुआ था। अपने सगे चाचा की बजाए हमारा उनके घर ज्यादा आना जाना था। बाबूजी के देहांत के समय भी सब क्रिया-तेरहवीं उन्होंने ही की थी। पर अब कुछ दिनों से वे और आगे बढ़ रहे थे। चाचा जी बाथरूम बनवा रहे थे और वह इस तरह बढ़ाया गया कि हमारा गेट लगभग आधा कवर हो गया। मैंने इस पर हैरानी और जिज्ञासा दोनों व्यक्त की। शायद आंखों में कुछ क्रोध भी उतर आया होगा। दादा जी ने प्यार से मुझे डांट लगाई और अंदर भेज दिया। फिर दादी ने मां के रास्ते लगभग धमकी भरे अंदाज में कहलवा भेजा कि “बहन बेटी पूरे गांव की सांझी होती हैं। हर मामले में यूं उनका बढ़-चढ़कर बोलना ठीक नहीं। और ज्यादा चौधर दे रखी है अपनी बेटी को तो समझा देना तेरे बाप के क्रिया कर्म और तेरहवीं में हमारे चालीस हजार रुपये खर्च हो रहे हैं। हम कुछ यूं नहीं बोलते के कुनबा एक ही है। मरे जिये का क्या हिसाब करना। रामहेर नहीं रहा इसका मतलब यो नहीं है कि छोरियां चौधरी बनती फिरें।”

मैं फिलहाल इस चिक-चिक में पड़ना नहीं चाहती थी। दुख और अवसाद के बीच कॉलेज लाइफ खत्म हो गई। मैंने प्राइवेट एमए के लिए फॉर्म भर दिया था। पीतमपुरा के एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में मुझे ट्यूटर जॉब मिल गई थी। यहां भी ‘यू स्पेशल’ की मंडली काम आई। जॉब अस्थायी थी पर मेरे लिए उम्मीद की यही एक किरण थी। मां बहुत कमजोर हो गई थी। भैंसों के साथ वह जबरन जुटी रहती। पर उसके सहारे घर चला पाना असंभव था। इस समय श्वेता और उसकी बेटी की देखभाल हम सबकी प्राथमिकता थी। सोनू घर में हमारी भरसक मदद कर रही थी। पर मां संकोच वश उसे बार-बार ससुराल जाने को कहती, “बेटी पीहर के लिए अपना घर और कितने दिन छोड़के रहेगी। ये सब तो अब चलता ही रहेगा।”

सुरेश भी कभी कभार घर आ जाता। पर जगदीश को बीवी की याद आते कई महीने लग गए। उस पर तर्क यह कि काम कौन देखता। मैं अकेला ही तो संभालता हूं। कहीं निकलना हो तो काम बंद करके निकलना पड़ता है।”

“काम धंधे को लेकर इतने बिजी टाटा बिड़ला भी नहीं है जितना तेरा बटेऊ है।” मां ने श्वेता से कहा।

पर श्वेता जगदीश के नाम से ही कांप जाती थी। पति-पत्नी के बीच कुछ ऐसा था जो श्वेता के संकोच और जगदीश की अकड़ के कारण परदे में ढका हुआ था। पर समझ हमें आ रहा था कि यह मामला उतना ठीक-ठाक है नहीं जितना पहले पहल लग रहा था। आंखों में मेरे लिए जो आक्रोश लेकर वह यहां से विदा हुई थी वह अब तक धुल गया था। वह बार-बार मुझसे यहीं रह जाने की गुहार लगाती।

श्वेता की बुझी आंखों में थोड़ी-थोड़ी लौ लौट रही थी। जापे का कच्चा शरीर भी अब धीरे- धीरे संभल रहा था। मां की तो हिम्मत अब जवाब दे गई थी। भाभी ने श्वेता के लिए देसी घी और गूंद के लड्डू बनाए। श्वेता के पेट में जब तब तेज दर्ज उठता। मां इसके लिए अभी तक यही सोच रही थी कि उसकी सास ने अजवायन के लड्डू नहीं खिलाए, नहीं तो पेट साफ हो जाता और ये बार बार दर्द न होता। पर श्वेता ने बताया कि उसके बार-बार कहने के बाद भी उसकी सास ने उसे डॉक्टर को नहीं दिखाया। पूरे नौ महीने उसने न कैल्शियम की कोई दवा ली और न ही आयरन की। उसने जब कहा तो जवाब मिला —

“हमारे से ये चौंचले नहीं होते के फाइल उठा के डॉक्टरां के पीछे पीछे हांडो। जो होना होगा घर में ही हो जाएगा। पैहले डाक्टर नहीं होते थे तो क्या बालक नहीं हुआ करते। चार क्लासें पढ़के लुगाइयां तमाशे दिखाती फिरती हैं। हम दिन में लावणी करके आते और रात को बच्चे जन दिया करते। और टूक खाके खड़े हो जाते। कौण पूछे था।” सास की निर्ममता समझ आती है पर पति कैसे इतना लापरवाह हो सकता है। पर हो सकता है। यह भी हो सकता है। श्वेता की हालत देखकर लगता था कि कुछ भी हो सकता है।

श्वेता की बातें सुनकर हम सब हक्के-बक्के रह गए। देश की राजधानी के गांवों की यह कौन सी आधुनिकता है। जहां आंगन में बड़ी-बड़ी गाडिय़ां तो आ गईं पर बहुओं के लिए एक नर्म हवा तक घरों में दाखिल नहीं हो पाई। दसवीं फेल और एमकॉम पास सब बहुएं घूंघट में एक सी कर दी जाती। भरी दोपहरियों में वे जब लावणी करके लौटती तो सबके माथे से एक सा पसीना बहता। सचमुच जो होना था घर में ही हुआ। श्वेता घर में ही आधी हो गई। दो बच्चों में से एक मर गया और एक जी गया। घर में ही। श्वेता अभी ससुराल वापस नहीं जाना चाहती थी। उसकी देह पर अभी थोड़ी ही रौनक लौटी थी। उसकी बेटी दिन भर किसी न किसी की गोदी में झूलती रहती। वह पूरे घर का खिलौना बन गई थी। पर जगदीश ने आकर आंगन में खाट डाल ली, “भेजना हो तो भेजो नहीं रखो अपने पास और भी तो रह रहीं हैं।” उसने मुझपर तंज किया।

मां जो बाबूजी के रहते मेरे फैसलों पर बैरियर लगाए खड़ी रहती थी, अब हर बात में मुझसे सलाह करती। सलाह यह बनी कि श्वेता को भेज दिया जाए आखिर उन्हीं की अमानत है। मैं और भाभी जाकर बाजार से श्वेता, उसकी बेटी और जगदीश के परिवार के लिए कपड़े और बाकी सामान खरीद लाए। बाजार जाने से पहले श्वेता ने धीमे स्वर में कहा, “दीदी मेरे लिए पैड्स भी लेते आना। ये लोग नहीं लाकर देते। मुझे कपड़े से घिन आती है।”

मेरा दिल एक बार फिर भीतर तक छिल गया। बाबू जी ने सोचा था मिट्टी से निकल गया है परिवार, अपनी चक्की है, सोने में पीली रखेगा उनकी बेटी को और देखो हकीकत, बेटी गूदड़ों में लिपटी हुई है। जी में आया खाली हाथ लौटा दें जगदीश को। पर मां ने बात बिगडऩे के डर से हमें शांत करवा दिया। जगदीश अपनी टाटा सूमो लेकर आया हुआ था। श्वेता के कपड़ों, गुड़िया के खिलौनों, झूले, पालने और बाकी के सामान से गाड़ी का पिछला हिस्सा पूरी तरह ठुक गया था। सोनू ने लोटे से गाड़ी के टायरों पर पानी डाला, कौले ठंडे किए और बचा हुआ दो घूंट पानी श्वेता को पिला दिया। हमने नजर भर कर श्वेता को देखा, उस पर फिर से रौनक लौट आई थी, पीहर के दो घूंट पानी पीकर आंखों में आंसू लिए वह हाथ हिलाती हुई गोद में अपनी बेटी लेकर अपने घर विदा हो गई। और पीछे घर भर में एक खालीपन छोड़ गई। श्वेता को विदा कर मां ने सोनू की विदाई की भी तैयारी कर दी। हालांकि सुरेश ने कुछ भी लेने से मना कर दिया। पर मां ने जबरन ग्यारह सूट सोनू के और चार सूट उसकी सास के लिए बांध दिए। बार-बार इसरार करने के बाद भी सुरेश ने सिर्फ एक रुपये का सिक्का पकड़ा और सारे रुपये जबरन मां की मुट्ठी में बंद कर दिए।

आंसुओं की तरावट में सोनू को विदा करते हुए मां बरबस ही कह बैठी, “रूप रोवे, भाग टोवे।” श्वेता रुपवती होते हुए भी दरिद्री काट रही थी और सोनू ने सामान्य शक्ल सूरत के बावजूद अपने भाग्य के बूते अपनी दुनिया हरियाली कर ली थी।

0000

अभी श्वेता को ससुराल गए एक हफ्ता भी नहीं बीता था कि उसकी ससुराल से फोन आ गया कि गुड़िया दूध नहीं पी रही है। मां ने पहले हल्के-फुल्के अंदाज में समझाने की कोशिश की कि किस तरह गुड़िया को लाड से दूध पिलाया जा सकता है। कहीं नजर न लग गई हो, हो सकता है दूध का स्वाद न भा रहा हो आदि आदि। पर जब श्वेता ने बताया कि वह जबसे यहां आई है उसने दूध नाम मात्र का ही पिया है और ज्यादा वक्त वह रोती ही रहती है, श्वेता को काम से फुर्सत नहीं मिलती और घर में कोई उसे उठा के राजी नहीं है तो मां का कलेजा मुंह को आ गया। उन्होंने मुझे जल्द से जल्द वहां जाकर गुड़िया को देख आने को कहा। भाभी अपने मायके खेलगांव गईं हुईं थी। उनके बिना मुझे भैया से बात करते झिझक होती थी इसलिए मैंने सोनू को कहा सुरेश को मेरे साथ भेजने के लिए। सुरेश स्कूल से सीधा अपना स्कूटर लेकर मेरे कोचिंग इंस्टीट्यूट आ गया और यहां से हम दोनों श्वेता के घर चल पड़े। गए तो हम गुड़िया की परेशानी सुनकर थे, लेकिन श्वेता की हालत फटी गुदड़ी सी देख कर हम भौचक्के रह गए। सुरेश बैठक में बैठ गया मैं अंदर चली गई। उसकी सास अपने सिर से बला उतारने के अंदाज में बोली, “जीजी हमतो बढिय़ा खुआवे हैं, बढिय़ा पहरावै हैं, पता नहीं छोरी के क्या हो र्या हे।”

“और श्वेता”

मैंने लगभग गुस्से में भरकर कहा, “मौसी जी इसकी हालत देख के लग रहा है, कितना बढिय़ा खुआओ हो।”

“खावे तो खूब है, इसकी देही नहीं चलती काम में। जरा सा काम करे और देह गू कर ले है। छोरी ने लक्खन ही नहीं काम करने का।”

“मौसी जी सारे लक्खन अभी ही सिखाओगी, थोड़े दिन तो आराम कर लैन दो। फिर तो काम ही काम करना है।”

“अच्छा बेटी, तू ऐ स्यानी है, हमने तो कुछ पता ही न है।” इतने से स्पष्ट संवादों के बाद वह कई अस्पष्ट संवादों में बड़बड़ाती भीतर चली गई। श्वेता लाचार सी गुड़िया को गोद में लिए अपने अंधेरे कमरे में बैठी थी।

सास के उठते ही उसकी आंखों से आंसू बह निकले, “दीदी आप ले जाओ गुड़िया को अपने साथ। यहां दूध मिलता ही नहीं है गुड़िया को, तो पिएगी कहां से। दिन में दो बार चाय बनती है, वही एक-एक कप मैं भी पी लेती हूं, गुड़िया के लिए तो दूध बचता ही नहीं है। कहते हैं अभी से ऊपर के दूध की आदत मत डाल इसे। अपना पिला।”

“हमसे तो बड़ी बहस कर लिया करती, यहां तेरे से कुछ नहीं बोला जाता। खुद भी मरेगी और गुड़िया को भी मारेगी।” मैंने न जाने क्यों गुस्से में यह सब कह दिया। शायद मुझे नहीं कहना चाहिए था। बाद में श्वेता का सूखा हुआ मुंह देखकर मुझे बहुत फील हुआ। गुस्से की उसी झोंक में मैंने उसकी सास से कह दिया, “मौसी जी तैयारी करो, हम साथ लेकर जाएंगे श्वेता को।”

“किसपै स्कूटर पे?”

जगदीश ने व्यंग्य बाण छोड़ते हुए मेरी तरफ देखकर सुरेश को निशाना बनाया।

मैं जानती थी कि जगदीश श्वेता से खुन्नस निकालता है। वह खुद को रिजेक्ट किया जाना अब तक पचा नहीं पाया है और उसकी सजा रह रहकर श्वेता को देता है। वरना श्वेता जैसी मक्खन सी काया वाली लड़की के लिए कोई इतना निर्दयी कैसे हो सकता है। उसके ताने के साथ ही मुझे फिर अपनी दरिद्री याद हो आई। बीवी के पेट में भले ही रोटी न हो, बेटी के होंठ दूध की आस में सूख गए हों, पर आंगन में बड़ी गाड़ी खड़ी है। इसकी टोर कम कैसे हो सकती थी।

श्वेता ने भी समझौते के अंदाज में कहा, “दीदी अभी लावणी होनी है। मैं चली जाऊंगी तो ये फिर पीछे-पीछे पहुंच जाएंगे। मां पर फिर बीस साडिय़ों का बोझ पड़ जाएगा। आप गुड़िया को ले जाओ। थोड़े दिन में ठीक हो जाएगा सब। वैसे भी गुड़िया रह लेती है आपके साथ। मुझसे ज्यादा तो वो आपको पहचानने लगी है।”

जगदीश की बड़ी गाड़ी और श्वेता को छोड़कर मैं सुरेश के स्कूटर पर बैठकर गुड़िया को गोद में लिए अपने घर वापस चली आई। इस उम्मीद में कि एक दिन सहते-सहते श्वेता इनकी ज्यादतियों का विरोध करना सीख जाएगी।

स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ रास्ते भर मैं यही सोचती रही कि वह लोग गुड़िया को देखना ही नहीं चाहते। वे शायद इसके मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राम जी की माया से अगर जी गई तो अपने भाग से पड़ी रहेगी। गली के मोड़ पर मुझे छोड़ते हुए सुरेश ने स्कूटर वापस मोड़ लिया। मैंने घर चलने को कहा तो स्कूल का बहाना बना दिया कि हाफ डे लगाया है, किसी ने देख लिया तो पूरे दिन की ऐबसेंट मार्क हो जाएगी। पर मैं जानती थी कि वह हमारी मदद को हमेशा खड़ा है, घर इसलिए नहीं आया कि मां को जमाई के लिए फिर सौ दो सौ रुपये निकाल कर देने पड़ते। जिसे वह बार-बार यह कहकर मना करता रहा है कि बाबूजी होते तो बात और थी। जितनी जिम्मेदारी दीदी की है, उतनी हमारी भी है। आप पैसे-वैसे मत दिया करो।

मैंने घर पहुंचकर मां से साफ-साफ कह दिया, “मां उन्हें गुड़िया की जरूरत नहीं है। वे मार डालेंगे इसे। जरूरत तो उन्हें श्वेता की भी नहीं है पर काम कौन करेगा।”

“हम नहीं भेजेंगे अब अपनी गुड़िया को वहां”, मां ने गुड़िया को लाड से गोद में लेते हुए कहा। “वैसे भी घर में कोई नहीं होता। मेरा मन लगा रहेगा। मैं पाल लूंगी इसे। ऐ जरा सी बछिया सी तो है, उसका भी इन्हें भार लगे है।”

गुड़िया के आने से मुझमें भी एक अनूठी फीलिंग आ गई थी। पता नहीं अपना बच्चा होने का अहसास कैसा होता होगा, पर मुझे अब वह बहुत प्यारी लगने लगी थी। घर लौटते ही सबसे पहले गुड़िया को गोद में लेने को आतुर होती। वह गोद में होती तो दिल नरम अहसासों से भरा रहता। मेरी दिनचर्या में गुड़िया की उपस्थिति बहुत कुछ ले आई थी। एमए की पढ़ाई नहीं हो पाई। कोचिंग इंस्टीट्यूट में बहुत थक जाती थी और उस कमाई से घर चल ही रहा था। थोड़ी बहुत कमाई मां भैसों के दूध से कर लिया करती थी। जब तक मां प्लॉट में भैंसों का काम देखती, मैं घर का काम और गुड़िया को संभाल लेती। जब तक मां लौटती मेरे इंस्टीट्यूट का टाइम हो जाता और मैं गुड़िया को उन्हें सौंपकर इंस्टीट्यूट चली जाती। कोई खास सुख नहीं था तो कोई दुख भी नहीं था। दिन लगभग ठीक से कट रहे थे —

0000

मां कभी कभार गांव वालों की चिक-चिक से परेशान रहने लगी थी। गांव में इंच इंच जमीन के दाम आसमान छू रहे थे। मां की भैंसों वाला प्लॉट सबकी आंखों में चुभता था। पहले पहल लोग खरीदने की बात करते। पर जब देखा हमारा कोई इरादा नहीं हैं तो कोई पोल्यूशन की बात कहता, कोई मच्छरों की और कोई कहता कि भैंसों के गोबर से गांव की नालियां जाम हो जाती है। हालांकि ताजा दूध सभी को अच्छा लगता। पर दो भैंसे गांव भर के लिए तो दूध नहीं दे सकती थीं, इसलिए जिसकी लाग नहीं लग पाती, वह किसी न किसी बहाने मां से चिढ़ निकालता। मां में अब न पहले जैसा सामर्थ्य रह गया था, न धैर्य वह खरी-खरी सुना देती। फिर इस डर से कि घर में कोई मर्द नहीं है, भीतर ही भीतर डर जाती।

मैं सुबह शहर को निकलती और रात में गांव लौट आती। कुछ किलोमीटर के फासले पर दो ध्रुवों की अलग-अलग दिल्ली। एक में सब कुछ अलाउड था, एक में बहुत कुछ की वर्जना थी। कोचिंग इंस्टीट्यूट में मैं सबसे कम उम्र की लड़की थी और गांव में मैं सबसे ज्यादा उम्र की लड़की। जिसकी अब 'बुआ’ बनने की नौबत आ गई थी। गांव भर के ताजा ताजा जवान हो रहे लड़के-लड़कियां मेरी पहचान यूं करते, “वहीं सुनीता दीदी, जिन्होंने ब्याह नहीं किया है।”

मुझे लगा गांव में बदलाव की लिबर्टी मुझे भी लेनी चाहिए। मैंने पहले कुर्तियां और फिर जींस पहननी शुरू की। मां ने कोई ऐतराज नहीं जताया, बस इतना कहा, “पेंट के साथ कमीज थोड़ी लंबी पेह्रा कर, कूल्हे से ऊपर अच्छी नहीं लगती।” इन शब्दों के बीच मां की जो नर्मी थी वह मुझे ज्यादा अर्थपूर्ण लगी। और मैंने तय किया कि जींस नहीं पहनूंगी।

इस घर में अब बस दो ही दीवारें बचीं थी, एक मैं और एक मां, ये न टकराएं, इसी में घर की भलाई क्या रखा है कपड़ों में, आधुनिकता दिमाग की होनी चाहिए, विचारों की होनी चाहिए। टेढ़ी मांग, कमर पर झूलती मोटी चोटी और सलवार कमीज, मैंने इसी को अपना स्टाइल स्टेटमेंट बना लिया।

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आज इंस्टीट्यूट से लौट कर बस का इंतजार कर रही थी कि स्टॉप पर एक गाड़ी आकर रुकी। सफेद रंग की बॉलेरो गाड़ी के शीशे खुले तो देखा उसके अंदर शौकीन बैठा हुआ था। वही विकास शौकीन जो कॉलेज के दिनों में मेरी आंख का तारा हुआ करता था। कॉलेज छूटते ही यह तारा आंख से ओझल हो गया था। आज अरसे बाद यूं अचानक मिल जाएगा सोचा ही नहीं था। उसने गाड़ी से उतरकर दोनों हाथ जोड़ लिए, “यहां कहां खड़ी है, कैसी है सुनीता?”

मैं खुशी और झिझक दोनों के मिले जुले भावों में थी फिर बस स्टॉप पर आसपास खड़े लोगों की नजरों की शर्म में, “मैं ठीक हूं, बस का वेट कर रही थी।” सकुचाते हुए कहा

“मैं छोड़ देता हूं”, उसके प्रपोजल पर मैंने कुछ नहीं कहा, बस हामी में सिर हिला दिया। अंदर दाखिल हो बैठते हुए मैंने महसूस किया, बॉलेरो गाड़ी में बैठने का रौब ही अलग होता है, साथ चलती दुनिया से कुछ ऊंची सीट।

इस फील और इतने लंबे अंतराल के बाद शौकीन को देखने की खुशी में विभोर मैं चुपचाप सीट पर बैठी रही। बात शौकीन ने भी कुछ ज्यादा नहीं की। और मुझे मेरे गांव के बाहर तक छोड़ दिया। अरसे बाद कोई खुशी यूं अचानक मिल गई थी। घर आई तो गुड़िया अपने खिलौने फैलाए बैठी थी। उसके साथ खेलते हुए भी मन में वही खुशी घूम रही थी। हर खिलौना जैसे पूछ रहा था, “आज क्या-क्या हुआ? बुआ, मौसी, मम्मा ...... और मैं झिझक रही थी कि बरसों के मरुस्थल में भी कोई अंकुर हरियाता रह गया है अभी।”

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दिन आज कुछ चटख कर चढ़ा। पुराने झोह्ड़ की जैसे मिट्टी छांट दी गई हो और फिर से सब कुछ पारदर्शी हो गया हो। इंस्टीट्यूट के लिए निकली, तो वही भावना हिलोर ले रही थी। तबियत कुछ गुलाबी सी और शाम सिंदूर के रंग की सी हो रही थी। मन हो रहा था आज फिर काई अचानक मिल जाए। फिर कोई कहे कि “हाय, सुनीता कैसी है?”

ख्यालों के गलीचे बुनते-बुनते मैं बस स्टॉप पर पहुंच गई। बस आई और मैंने छोड़ दी। मैं उसमें चढ़ी ही नहीं। अगली बस पंद्रह मिनट बाद आनी थी। मैं पीछे बैंच पर बैठ गई और पांच मिनट बाद फिर वही सफेद रंग की बोलेरो आकर खड़ी हो गई —

ओह ऐसा भी होता है क्या? मैंने मन ही मन खुद से सवाल किया।

उसने बोलेरो का दरवाजा खोला, जैसे मुझे ही लेने आया हो और मैं चुपचाप ऐसे बैठ गई जैसे मुझसे कहा गया हो कि बस पहुंच रहा हूं —

“यहां कहां आई थी”, उसने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा

“कहीं नहीं यहां एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाती हूं”

“घरवाला कुछ नहीं करता क्या?”

“मैंने शादी नहीं की” धीमे से सकुचाते हुए मैंने कहा।

“क्यों?”

“बस ऐसे ही। मन नहीं किया तो नहीं की”

“और तेरे मां-बाबू मान गए?”

“बाबूजी की डेथ हो गई। अब मां कुछ नहीं कहती, पहले बहुत कुछ कहती थी।”

“ओह “

माहौल कुछ गमगीन हो गया और फिर से वही चुप्पी छा गई।

रास्ता खत्म हुआ तो चुप्पी टूटी —

“मैं इसी टाइम निकलता हूं यहां से, तू चाहे तो इंतजार कर लिया कर।”

हम दोस्तों का एक ग्रुप था। पर सीधे कोई किसी का नहीं। समूह में जाति और गोत्र के नाते भी थे और गांव-गुहाण्ड के भी। इस तरह अकेले मिलने की कभी हिम्मत नहीं हुई। इसलिए दोनों की तरफ से चुप्पी रहती। अब तीसरे दिन झिझक कुछ खुली तो बातचीत शुरू हुई —

“बाबूजी के बाद घर कौन संभाल रहा है?”

“ढाई आदमियों का घर बचा है अब बस। एक मैं, एक मां और एक मेरी बेटी।

“ढाई ने मिलके तीन पीढिय़ां तो बसा लीं और क्या चाहिए?” उसने मेरी हिम्मत बढ़ाने की गरज से कहा।

“सबसे छोटी वाली श्वेता, उसकी बेटी रहती है हमारे साथ। मां का मन लगा रहता है और मेरा भी।”

सवालों से जवाब देने की हिम्मत बढ़ रही थी। मैंने पूछा — “तू सुना, तेरी पॉलीटिक्स तो बढिय़ा चल रही होगी। कब मिल रहा है तुझे टिकट।”

वह धीमे से मुस्कुराया — “चीजें उतनी भी आसान नहीं हैं, जितनी लगती हैं।”

“क्यों क्या हुआ? कांग्रेस से ही लड़ेगा न? वैसे तू तो इंडीपेंडेंट भी लड़ सकता है। तेरा कोई भरोसा नहीं....”

“हमें नहीं समझ आते इनके दांव पेंच।”

गाड़ी के स्टेयरिंग को हल्का राइट घुमाते हुए उसने कहा, सड़क के बीच में कुछ था जिसे बचाने के लिए उसने गाड़ी राइट की और फिर वापस सीध में चलने लगा

“सुसरों को गाडिय़ां भी दी, रैलियों में बस भर भरकर लोग लेकर गया। ये भूखे नंगे से, मांगते भी शर्म नहीं करते। वह अजीब तरह से गेयर बदल रहा था। “किसी का मोबाइल बिल चुकाओ, किसी को होटलों में खाना खिलाओ। इन्हें दूसरों का खाया हजम भी हो जाता है। आसपास के गांमों में भी अच्छा होल्ड बन गया था अपना, ऊपर तक के लोग पर्सनली बाय नेम जानने लगे हैं।”

“हमम, तो फिर”,

“सालों ने सीट ही रिजर्व कर दी”

“कौन सी सीट, किसके नाम रिजर्व कर दी”

“सुल्तानपुर माजरा की सीट कर दी, एससी रिजर्व।”

“अब दिल्ली के वोट भी जात देख के डालने पड़ेंगे?”

“आजकल सब डलते हैं। लोकल लोग नहीं देखते कास्ट वास्ट। वे तो बस अपना बंदा हो, अपने आसपास का हो। पर ये झुग्गड़ के वोट रहे, हमारी गिनती तो कुछ भी नहीं है उनके आग्गे। एक-एक बोतल में पूरा-पूरा कुनबा खड़ा हो जाता है।

हमें दाना पैसों के लिए डालते हैं। पोस्टर से लेके झंडे तक इस इलाके का सारा सामान मेरे खाते में छपवाया, फिर रिजर्व का ठेंगा दिखा दिया।

जमना पार से कह रहे थे लड़ ले, वहां न मैं किसी को जानूं, न मुझे कोई।”

राजनीति में ठगे जाने का गुस्सा उसके चेहरे पर उतर आया था।

“खेल बड़े तरीके से खेला है, पहले गांमों के बीच में कॉलोनियां बसा दी। हमने ही प्लॉट काटके बेचे, फिर दुकानें बनीं, मार्केट बन गई। खेत तो कती खत्म हो गए।

जो थोड़ा बहुत गांव बच रहा है उनमें भी किसी ने कॉम्पलेक्स बनाकर किराए पर उठा दिया, किसी ने छोटी-मोटी फैक्टरी लगा ली। हमारे ही घेर में दो वाटिका बन गई हैं। ब्याह शादियों में रौनक लगी रहती है।

दो-चार, दो-चार घर बच रहे हैं। नहीं सारी जगह बाहर से आए लोग ही दिखते हैं। वहां ज्यादा रौनक दिखती है। पहले चार गलियां इनकी, फिर पीछे जाके गांव ढूंढना पड़ता है।”

“ठीक कह रहे हो, आजकल गांव बिल्कुल भीड़े (संकरे) से हो गए हैं। अंधेरे में निकलने में भी डर लगता है। नहीं तो पहले माएं छोटा बालक साथ करदे करती कि इसने ले जा।

इब बालक ने भेजो तो यूं सोचे कि ये बेचारा के कर लेगा, खड़ा ताली ही न पीटेगा।

खैर छोड़, वैसे भी माथे पे लिखा कोई नहीं छीन सकता। अब क्या कर रहा है ये बता”

“पापा का टिम्बर का काम संभाल रहा हूं। सब तरह का फर्नीचर बनता है। फिर ये कीर्ति नगर के शोरूम वाले खरीद ले जाते हैं, अपने-अपने नाम से बेचते हैं।”

“ये भी ठीक है”

“हमारे बसकी बनियागिरी भी नहीं है।”

“ठोक के बनाते हैं और ठोक के बेच देते हैं।”

“और ब्याह नहीं किया?”

“तेरी बाट देख रहा था”

मैं चुप्प

यूं अचानक?

कुछ कह नहीं पायी,

और गाड़ी रुक गई। गांव आ गया था। मैं बिना कुछ कहे चुपचाप उतर गई। पीछे मुड़कर भी नहीं देखा कि मेरी चुप्पी के बाद उसके चेहरे पर ग्लानि आई, पश्चाताप या इंतजार।

आज घर लौटकर वैसी प्रफुल्लित नहीं थी, जैसी तीन दिन पहले थी।

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“मां, हम कहीं बाहर चलें? गांव से बाहर किसी कॉलोनी में रहने लगें? मेरे इंस्टीट्यूट के पास एक कमरा ले लें किराए पर?”, सोचा यही कहूंगी मां से जाकर.... पर घर में दाखिल होते ही गांव मुझ में शामिल हो गया.... बाबूजी आ गए मेरे पास..... मां, बाबूजी का घर और मेरी बेटी.....

रात भर बेचैनी में सोचती रही कितना कुछ बदल गया है इन दस बारह सालों में। सब की सूरतें बदल गईं हैं। शौकीन भी कुछ मोटा हो गया है, मेरे चेहरे पर से भी वह पहले वाली अल्हड़ता गायब हो गई है। पूरा घर संभाल रही हूं पर अब पहले की तरह बिना सोचे समझे कुछ भी कर डालने की हिम्मत नहीं बची है।

याद आ गई वह सुबह जब मां-बाबूजी की तकरार में ‘यू स्पेशल’ छूट गई और मुझे प्राइवेट बस में जाना पड़ा। कंडक्टर ने किराया मांगा तो मैंने भी कॉलेज के रौब में कह दिया, “स्टाफ है”

वह मेरे मुंह की तरफ देख कर हतप्रभ सा बोल पड़ा, “अब छोरियां भी स्टाफ चलावे हैं?”

“हां क्यों, तू नहीं चलाने देगा क्या?”

“न भाई किराया देना पड़ेगा।”

“अच्छा, रिंग रोड पर से बस निकाल लेगा फिर क्या?”

“तू रोकेगी?”

“हम्बे।”

किराया तो दिया नहीं उलटे दोपहर में बेचारे की बस के शीशे और फुड़वा दिए। समूह की ताकत पर गुमान था। अब सोचती हूं पांच सात रुपये के लिए बेचारे का कितना नुकसान करवा दिया। पर शीशे नहीं अकड़ फोड़ी थी उस दिन हमने उसकी।

शौकीन अपने ग्रुप के साथ पीछे खड़ा था और हम चार-पांच लड़कियां पत्थर उठाए आगे। पहले बस की सवारियां उतारी और फिर दे दमा दम पत्थर बस के शीशों पर। उसे पता चला कि लड़कियां स्टाफ भी चला सकती हैं और शीशे भी फोड़ सकती हैं।

समूह की ताकत अलग होती है। और अकेले रह जाने की कमजोरी अलग। अकेले होकर हम अपनी आधी हिम्मत तो यूं ही गंवा बैठते हैं। जैसे राजधानी की भीड़ में हम अपने गांव गवा बैठे हैं। अब गांव के नाम पर हम बच गए हैं गिने-चुने लोग, जिनके दिलों- दिमाग में आज भी गांव है। क्या हो सकता है ऐसा? गांव में रहते तो हरगिज नहीं हो सकता। चाहती तो मैं यही थी। पर अब यह सोचने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही। बाबूजी होते तो शायद लड़ जाती उनसे अपनी जिद के लिए। अब मां से नहीं लड़ सकती।

रात लगभग चढ़ चुकी थी। मां अंधेरे में ही राबड़ी बनाने की तैयारी कर रही थी। उठी तो घुटनों पर ऐसे हाथ देके उठी कि बस अब नहीं उठा जाता। मां को देखकर मैं ठहर गई। और गुड़िया जिसकी जिम्मेदारी अब मुझ पर थी, वह ख्वाहिशें फैलाए मेरी हथेली से मेरी गोद में बैठी खेल रही थी। मैं उसे गोद में लिए-लिए पैर पसार कर ऐसे सो गई कि लेटे हुए भी वह सीधे मुझसे लगी रही। मैंने आंख मूंद ली..... जो सपने, जो कहानियां दिन में अधूरी रह जाती हैं, रातें उनका इंतजार करती हैं..... हमारे कच्‍चे गांवों की कच्‍ची-पक्‍की कहानियां किसी भोर में भरपूर अंगड़ाई लेंगी.... उस दिन के इंतजार में।



कोल्लड़ा : होली पर मर्दों को पीटने के लिए कपड़े का हंटरनुमा
भरौट्टा : पशुओं के चारे की भारी गठरी
बटेऊ : दूल्हा
पुचकारना : वर पक्ष द्वारा लड़की को अपनाने की प्रथम रस्म
लावणी : फसल की कटाई का काम
भीड़ा : संकरा/तंग

Yogita Yadav 

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