गीता पंडित — बिंदास ठहाके — #राजेंद्र_यादव_जयंती


geeta pandit rajendra yadav

यह वो चराग है जिसे बुझा सकीं ना आंधियाँ

—  गीता पंडित


हंस पत्रिका बहुत पहले से पढ़ती रही हूँ | उसी के माध्यम से यह भी जानती थी कि राजेन्द यादव इस पत्रिका के सम्पादक हैं | उनके सम्पादकीय की वज़ह से राजेन्द्र यादव से प्रभावित भी बहुत थी लेकिन कभी मिलने का सौभाग्य नहीं मिल पाया था | जब मैंने ‘शलभ प्रकाशन’ की शुरुवात की तो हमारे एक मित्र ने कहा कि अपने प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकें हंस के ऑफिस में भेज दो | तब ख्याल आया कि इस बहाने ही सही अपने प्रिय सम्पादक और लेखक से अगर एक मुलाक़ात हो जाए तो सोने पर सुहागा हो जाएगा | यह सोचकर मैंने डरते-डरते उन्हें फोन किया और मिलने का समय निश्चित करना चाहा | उन्होंने बिना किसी हील-हुज्जत के मुझे अगले दिन सुबह 11 बजे का समय दे दिया | मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था |




मैं पहली बार किसी बड़े साहित्यकार से मिलने जा रही थी और इस तरह पहली बार ही ‘हंस’ के ऑफिस पहुंची | थोड़ा सकुचाई सी थी लेकिन अपने पसंदीदा लेखक से मुलाक़ात को लेकर उत्साहित भी बहुत थी |

मगर हतप्रभ हो गयी उनकी सहजता और सरलता को देखकर | उन्होंने मुझे अहसास ही नहीं होने दिया कि मैं जिसके सामने बैठी हूँ वह एक ऐसे व्यक्तित्व का मालिक है जो साहित्य के आकाश का चमचमाता सितारा है | मुझसे मेरा परिचय जानने के बाद मुझसे मेरे लेखन और व्यवसाय के विषय में कई प्रश्न किये |

क्यों लिखती हो और क्या लिखती हो ?

 गीत-नवगीत ही क्यों ?

अच्छा प्रकाशन ही क्यों चलाना चाहती हो ?

यह सब बहुत सरदर्दी का कार्य है सोच लो | पैसा और समय दोनों खा जाएगा तब कहीं जाकर वर्षों बाद कुछ समझ आयेगा |

अगर चलाना ही चाहती हो और पूरा निश्चय भी कर लिया है तो सबसे पहले एड दो और कुछ बड़े स्थापित लेखकों से बात करो | उनसे पांडुलिपियाँ मंगाओ |

मैंने शलभ प्रकाशन से प्रकाशित उन्हें कुछ पुस्तकें देते हुए कहा सर! एक दृष्टि इन पर डालकर बताएं कैसी बनी हैं ?

उन्होंने बड़े स्नेह के साथ वे किताबें लीं और करीब 15 मिनिट तक उलट पलटकर देखते रहे | किताबें अच्छी बनाई हैं तुमने लेकिन इन्हें मेरे पास छोड़ जाओ | विशेष रूप से इस कहानी संग्रह पर तुमसे बाद में चर्चा करूंगा |




उसके बाद वहां पर और भी कई साहित्यकार आ गए और चर्चा यहीं थम गयी | अब मैं एक ज़िंदादिल इंसान, ज़िंदादिल साहित्यकार और एक ज़िंदादिल सम्पादक को बिंदास ठहाके लगाते हुए देख रही थी |

यह मेरी पहली मुलाक़ात थी | उसके बाद मैं तीन बार उनसे और मिली एक बार ऑफिस में ही और दो बार उनके प्रोग्राम्स में मगर हर बार वह बहुत सहजता से मिले जो अविस्मरणीय है |

आज वह नहीं हैं लेकिन उनके शब्द जीवित हैं जिनमें वह हमेशा जीवित रहेंगे |

‘देह से हो नहीं यहाँ तुम
लेकिन दिल में बसे सभी के’

सादर नमन

गीता पंडित
सम्पादक शलभ प्रकाशन
gieetika1@gmail.com
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