संजय शेफर्ड और क्रान्ति की कवितायेँ Sanjaya Shepherd's Poems



कवितायेँ

— संजय शेफर्ड


विद्रोह और क्रान्ति


(१)
उस दिन अचानक ही कुछ चुभते हुए दर्द
अनायास ही फूलों के पराग से आकर छातियों पर चिपक गए थे
मैं अपने कंधे पर उस अजनबी का माथा रखकर पूछने लगा था
एक ऐसा पता जिसमें रिश्तों को दर्ज किया जा सके
आंखों से रिसते दर्द के बावजूद
बनाया जा सके होंठों से होंठों पर एक पुल जो दो इंसानों को जोड़े
बाहर और भीतर दोनों ही तरफ से
बिल्कुल वैसे ही जैसे एक चूल्हे की आग दूसरे घर के चूल्हे से
कभी जोड़ती थी आत्मीयता के रिश्ते
और पड़ोसियों से संचय कर लेती थी

कभी नहीं ख़त्म होने वाली रिश्तों की उष्णता, प्रेम की ऊष्मा, जीवन की शीतलता



(२)
अब वह चलन खत्म हो गया
अब पुरबहिया काकी आग लेने नहीं आती
और ना ही उसकी बेटियां कभी घर से बाहर निकलती हैं
बुढ़िया दादी कह रही थी, दुनिया बदल गई है
पड़ोसी, रिश्तेदार और अनजान लोगों में फर्क खत्म हो गया है
पड़ोसियों के भरोसे पर खेती, रिश्तेदारों के भरोसे बेटी
नहीं छोड़ी जा सकती, पर हमारे समय में ऐसा नहीं था
कदम बहकने का डर उस ज़माने में भी काबिज़ था
पर एक इंसान के इंसान से भेड़िया बन जाने का डर बहुत बड़ा होता है
शायद इसीलिए खाना बनाने से पहले ही वह आग बुझाने की जुगत में रहती है

कहती है चारों तरफ आग लगी है, दुनिया जल रही है, चूल्हे को ठण्डा रखना जरूरी है

(३)
मैंने भी अपने दर्द में
बुढ़िया दादी और पुरबहिया काकी के डर को शामिल कर लिया है
अपनी बेटियों के पराग जैसे कोमल होंठों पर
थोड़ी सी धूल, मिट्टी और कांटा रख दिया है
घर में लाकर भर दी है जमाने भर की खुशियां
उनके दिलों की बड़ी-बड़ी खिड़कियों को खोलने के बावजूद
बाहर से सिटकनी लगा, चौखट पर अपना कटा हुआ वजूद रख दिया है
शुकर है कि वह जमाने की रवायतों को समझती हैं
और भरसक मेरी भाषा-अल्फ़ाज़ को भी
फिर भी इन्तजार है मुझे, उनके विद्रोह स्वरों और आहटों की
दरअसल, मैं भी यही चाहता हूं कि मेरा भरम टूटे, मेरा खून मुझसे विद्रोह कर बैठे
मेरी हार, मेरी हार बने, मेरी जीत उनकी जीत, मेरी खोई हुई मुस्कान उनके होंठों पर लौटे
आखिर उनको भी तो जीना है आगे की सारी उम्र इन्हीं विद्रोहों के बीच
इसलिए, तुम्हें विद्रोह करना सीखना ही होगा
और गर विद्रोह सफल हुआ तो क्रान्ति पैदा होगी

मेरी बेटियों एक दिन तुम प्रेम साथ-साथ क्रान्ति की भी सृजक कहलावोगी।





मृत्यु और क्रान्ति


(१)
उस दिन जब कुछ अच्छे दिनों को याद करते हुए
लिखनी चाही थी एक कविता
बुरे दिन ठिठककर सामने खड़े हो गए थे
यह तुम क्या कर रहे हो ? मेरे हृदय ने मेरी आत्मा से सवाल किया था

मेरी पीठ पर उभर आई थी, मेरे जन्म की तारीख
क्या यह वही दिन है ?
जिस दिन ईश को वल्लरी के क्रूस पर चढ़ाया गया था
या फिर वह ? जिस दिन वासुदेव और देवकी को कंस ने कारागार में डाल दिया था
अपनी पूर्व नियोजित मृत्यु के भय से

तब मैंने सोचा था कि मैं कभी भी अपने माजी को याद नहीं करूंगा
… और मैंने अपने पैरों के अंगूठे से खोदी थी धरती
… और अच्छे-बुरे से इतर वह सबकुछ दफन कर दिया था जो मेरी स्मृतियों में था।


(२)
शोकगीत ख़त्म हो चुका था, चिता की आग ठण्डी हो रही थी
मेरा हाल मुझको कोस रहा है
मेरी उम्र महज एक लम्हे की इतिहास है
जन्म के अलावा अब कोई भी तारीख याद नहीं रहती
दरअसल, छोटी-छोटी घटनाओं की तारीख होती भी नहीं, बस समयकाल होता है

मेरे जन्म की तारीख विद्रोह थी या फिर क्रान्ति
स्पष्ट तौर पर कुछ कह नहीं सकता
मां जानती है, उसने ना जाने कितने समयकालों को पेट से पैदा किया है
पर कहती कुछ भी नहीं
शायद उसने भी मेरी ही तरह अपने माजी को मिट्टी में दबा दिया है

… और गर्भ में पाल रही है सैकड़ों सिन्धू घाटियां
… और मोहनजोदडो …और हड़प्पा की संस्कृतियां
हाल पर समय की चमड़ियां परत-दर-परत चढ़ती, मोटी होती जा रहीं है


(३)
मेरा माजी इबारत बन चुका है, हाल धुंधलाता जा रहा है
मुस्तकबिल की वेदी पर टंगी हुई हैं, टकटकी लगाये कुछ बेबश आंखें
बीसवीं सदी की अनेक परछाइयां, इक्कीसवीं सदी में तैर रही हैं
अकाल, गुलामी, उपनिवेशवाद और तमाम क्रान्तियों के खत्म हो जाने के बाद भी
अनवरत चल रही हैं, कुछ अदृश्य लड़ाइयां

एक पूर्व निर्धारित 'शब्द' को युद्ध मानकर
हमारे लिए आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद महज शब्द नहीं रहा
हथियार बन चुका है
हम सब उसी हथियार के साथ, कभी उसी हथियार के खिलाफ लड़ रहे हैं
मर रहें हैं, मारे जा रहे हैं ; हत्याएं, आत्महत्याएं कर रहे हैं

… और हम सब कुछ अच्छे दिनों को याद करते हुए लिख रहें हैं शोक दिवस
… और हम सब जीवन के अनुष्ठान में मना रहे हैं मृत्यु पर्व
… और हमारी लड़ाइयां परस्पर बड़ी होती जा रही हैं।



प्रेम और क्रान्ति 


(१)
एक उदास लम्हे को स्मृतियों में कसते हुए
उस दिन मैंने रख दिया था
तुम्हारे भीगे होंठों पर एक चुम्बन
मणिकर्णिका की आग दहक उठी थी, बिलकुल वैसे ही जैसे
आत्मा खो चुकी देह की दहक से चिता जलती है
किसी शान्त सोई हुई नदी के मुहाने पर
...और फिर शान्त हो गई थी लम्बे वक्त के लिए

पूरब-पश्चिम, पश्चिम-पूरब का कोई अर्थ नहीं रह गया था
मेरे सामने कोई चेहरा नहीं, महज गिनतियां थी
महज कुछ अखबार के पन्ने, महज कुछ इतिहास की किताबें
जिसमें बड़े-बड़े समयकाल दर्ज थे पर लम्हे - दिन महीने गायब
रूस की क्रान्ति का साल याद है मुझे
फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिकी क्रांति, बोल्शेविक क्रांति, चीनी ज़िन्हाई क्रांति का भी
पर कोई तारीख और चेहरा नहीं
बस गिनतियां हैं मरे लोगों की मेरे इर्द-गिर्द, बस गिनतियां, बस गिनतियां

दरअसल, हमारा इतिहास मुस्तकबिल को नहीं माज़ी को दर्ज करता है


(२)
शायद इसीलिए मेरे हाल पर माज़ी की झीनी चूनर चढ़ रही है
मेरी आंखों में तैरने लगी हैं राजा हरिश्चंद की दन्तकथाएं
मरघट पर राजा, मरा हुआ राजकुमार, बिकी हुई औरत की याचनाएं
क्या हूं मैं ? कौन हूं मैं ? क्यों हूं मैं ?
एक पुरुष की आवाज में
एक स्त्री के बंद पड़े कानों में कोई जोर-जोर से चिल्लाता है
आग परस्पर बढ़ती जाती है
...और फिर शान्त हो जाती है लम्बे वक्त के लिए

सच कहूं तो आजकल विद्रोहों को भी आराम चाहिए
क्रांतियों को भी भरपूर नींद
पर घटनाएं जागती रहती हैं, इसीलिए इजिप्ट की क्रान्ति सिर्फ इजिप्ट तक नहीं रहते हुए
अरब की क्रान्ति बन जाती है
एशिया, अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका,
यूरोप से होकर आस्ट्रेलिया तक पहुंच जाती है
गीता, कुरान, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब के तत्व एकाकार होने लगते हैं
लहू, मौत और चीखें - तीनों लोकों तक पहुंचते हैं
सच कहता हूं, धर्म सिर्फ किंवदंती नहीं होते और ना ही प्रेम सिर्फ प्रेम

देह होती है, और देह के ही मध्य कहीं होता है प्रेम और क्रान्ति भी


(३)
कभी- कभी सोचता हूं कि सचमुच मैं कितना उदास प्रेमी हूं
जो अपनी प्रेमिका के होंठों पर पराग देखने की बजाय
मणिकर्णिका की दहक देखता हूं
उसकी पीठ पर सृजन की बजाय एशिया का विध्वंस देखता हूं
जांघों और वक्षों पर यूरोपीय संस्कृति का अंश देखता हूं
और फिर निढाल हो खो जाता हूं,
एक लम्बे वक्त के ऐतिहासिक समीकरणों के बीच ही कहीं उसके बगलों से झांकते हुए

हां, सचमुच अक्सर खोता ही रहता हूं
वरुणा और असी से उठकर
कभी अमेजन, कभी नील, कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी मेकांक,
कभी सेपिक, कभी जम्बेजी की पवित्र गहराइयों में
वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के साथ
किसी अजनबी के शान्त, स्थिर होंठों पर
एक ऐसी दुआ का स्वर बन जो कभी भी पूरी नहीं होती

और मेरी प्रेमिका के होंठ ज्वालामुखी की दहक के बावजूद आखिरकार शान्त हो जाते हैं।

संजय शेफर्ड

घुमक्कड़, लेखक, लिट्रेरी ऐक्टिविस्ट
जन्म - उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में
शिक्षा - जवाहर नवोदय विद्यालय गोरखपुर से स्कूल की पढ़ाई। भारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली  से स्नातक। जेवियर इंस्टिट्यूट ऑफ कम्युनिकेशन मुंबई से सृजनात्मक लेखन। म्यूजिम स्टडीज में डॉक्टरेट।
कार्यक्षेत्र - एशिया के विभिन्न देशों में शोधकार्य। व्यवसायिक तौर पर मीडिया एंड टेलीविजन लेखन। साहित्य, सिनेमा, रंगमंच एवं सामाजिक कार्य में विशेष रुचि। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, टेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण। नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन, 25 से अधिक रेडियो नाटकों का लेखन।  
सम्प्रति – किताबनामा पुस्तक न्यास एवं किताबनामा प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक के तौर पर संचालन।
ईमेल- sanjayashepherd@gmail.com
दूरभाष- 9205115032, 8373937388 

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4 टिप्पणियाँ

  1. संजय शेफर्ड की कवितायें अच्छी लगी ,खासकर,विद्रोह और क्रांति..मृत्यु और क्रांति ..ये तो अपने शहर के निकले ..

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    1. विद्रोह और क्रांति ... मेरी मनपसंद है तीनो में से

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  2. संजय जी बहुत अच्छा लिखा है आपने |

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