साहित्य की मुख्यधारा में क्या पाप धोये जाते हैं — राजेंद्र राव Rajendra Rao Interview by Geetashee



राजेन्द्र राव से गीताश्री की बातचीत

Rajendra Rao Interview by Geetashee

बीसवीं सदी के आठवें दशक में एक रचनाकार ने जिस धमाकेदार अंदाज में अपनी उपस्थिति जताई और एक के बाद एक अपनी रचनाओं के विस्फोट से साहित्यिक सन्नाटे को तोड़ा वह फिर देखने को नहीं मिला। तबसे अबतक साहित्य की मैली गंगा को साफ़ करने की योजनायें लिए न जाने कितने रचनाकार आये और गए मगर राजेन्द्र राव का पता-ठिकाना आज भी मौजूद है। गीताश्री ने राजेंद्र राव से बात-चीत की। कुछ उनको और कुछ साहित्य के वर्तमान स्वरूप को जाना। इस साक्षात्कार में पढ़ें राजेंद्र राव ने क्या कहा, गीताश्री ने क्या सुना.... निकट मई-अगस्त 2016




गीताश्री का राजेन्द्र राव के बारे में कहना है – जाड़े की गुनगुनी धूप में हम आमने-सामने बैठे थे। उनका बोलना इतिहास की सुरंगों से होकर आ रहा था। न जाने कितने पन्ने फड़फड़ा रहे थे। मेरे पास सवाल कम थे किन्तु उनके पास उन सवालों से उभरे प्रश्नों के भी ज़वाब थे। दो-तीन घंटों में जो दुनिया हमारी बात-चीत के दौरान जन्मी उसे मैंने समेटने की कोशिश तो की लेकिन लगा कि अभी बहुत कुछ है जिसे राव साहब कहना चाहते थे। लगा कि कुछ है जो अब भी छिपा रह गया। सच कई बार खुद ही झांकता है। उस सच तक किसी और बात-चीत में पहुँचने की कोशिश करेंगे। फिलहाल, सत्तर के दशक के सबसे सक्रिय, सबसे अलग और अपने समय के सबसे साहसी यानी आज की भाषा में ‘बोल्ड’ कथाकार राजेन्द्र राव से मेरी यह अधूरी बात-चीत जिसके वृत्त में मैंने नवरस का संचार होते महसूस किया...



गीताश्री : कुछ साहित्यकार आपको मुख्यधारा का लेखक नहीं मानते। आप खुद को मुख्यधारा से अलग क्यों रखते हैं ?
राजेन्द्र राव :  देखिये, मेरी समझ में लेखन नितांत एकान्तिक कर्म है। यह किसी भी स्तर पर सामूहिक गतिविधि नहीं है। हर लेखक या लेखिका के लेखन में उसका निजत्व बड़ी मात्रा में होता है। व्यक्ति से व्यक्ति के अंतर्संबंध या सूत्र हो सकते हैं, सम्प्रेषण हो सकता है, मगर यह संभव नहीं है कि दो लेखक या लेखिकाएं एक स्तर पर सोचते हों, एक तरह से रहते हों या एक तरह से रिएक्ट करते हों। चार-पांच की तो बात ही छोडिये। लेखन में यह कभी संभव नहीं है और न किसी लेखक की क्लोनिंग की जा सकती है। तो, ये जो कुनबे या ग्रुप्स बनते हैं, ये उन लेखकों के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं जिन्हें एक सुरक्षा कवच की ज़रूरत होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसको समूह में सुरक्षा का एहसास होता है मगर मैं यह समझता हूँ कि किसी भी लेखक के लिए सुरक्षा या सुरक्षित होने का भाव एक मंद विष है। लेखक में जितनी बेचैनी होगी, जितनी ज्यादा असुरक्षा की भावना होगी, जितना ज्यादा वह हाशिये पर होगा, जितना अधिक वह उपेक्षित होगा ; उसके लेखन में धार उतनी ही अधिक होगी। साहित्य की मुख्यधारा शायद कोई ऐसी जगह होती है जैसी हमारी पवित्र गंगा नदी है। जिसमें अनेक कुम्भ आयोजित होते हैं, जिसमें डुबकी लगाकर लोग अपने परमार्थ अर्जित करते हैं, अपने पाप धो लेते हैं। अगर साहित्य में ऐसी कोई मुख्यधारा है जिसमें जाकर आप नहा लें और आपके पाप धुल जाएँ, आपकी अक्षमताएं धुल जाएँ, आपके लेखन में ओज आ जाए, आपको चार साथी ऐसे मिल जाएँ जो आपका मनोबल बढाते रहें और फिर आप लिखते रहें तो आप लेखक कम और बैसाखी पर टिके हुए व्यक्ति ज्यादा होंगे।




गीताश्री : आपके अनुसार लेखन एक एकान्तिक कर्म है तो क्या आप इसीलिए कटे-कटे रहते हैं ? आपमें महत्त्वाकांक्षा है ही नहीं जो अन्य साहित्यकारों में होती है, ऐसा क्यों ?
राजेन्द्र राव :  कटे रहने या दूर रहने में कुछ नुकसान हो सकते हैं मगर फायदे ज्यादा हैं। एक तो यह कि अपनी पसंद का जीवन जीने की स्वतंत्रता ज्यादा होती है। हम दूसरों पर जितना आश्रित होते जाते हैं, जितना दूसरों के सहारे अपने काम करने की शैली अपनाते हैं, जितना परमुखवेक्षी हो जाते हैं उतना ही हम अपनी स्वतंत्रता का हनन करते हैं। पति-पत्नी का सम्बन्ध जितना कि उसे ग्लोरिफाई किया गया है, उसके अन्दर भी दोनों का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, एकांत होता है। दोनों के घोर सामीप्य के बावजूद दूरियां होती हैं। यह संभव नहीं कि मनुष्यों के बीच में दूरियां न हों। तो, एक संतुलन साधना होता है और शायद यह मेरी प्रवृत्ति भी है। मैं बहुत लम्बे समय तक अपने माता-पिता की एकमात्र संतान रहा हूँ। तो, अकेले रहने की आदत रही है। अकेले बैठकर सोचना, अकेलेपन का सुख भोगना मुझे ललचाता रहा है। अब भी अपने अकेलेपन में, अपने एकांत में मैं एक स्वतंत्र सत्ता की तरह हूँ। हालांकि, मैंने जीविका के लिए नौकरी की है, अब भी कर रहा हूँ, मगर आदमी जितनी ज्यादा नौकरी में जाता है, गुलामी करता है, उतनी ही ज्यादा उसे स्वतंत्रता की तलब महसूस होती है। तो, दोनों ही चीजें समानांतर चलनी चाहिए। मेरा लेखकीय व्यक्तित्व एकदम अलग है। उसे मैं निरापद रखता हूँ। यह जानबूझकर नहीं होता। यह स्वभाव में है।


गीताश्री : आप स्पष्टवादी हैं। क्या आपको लगा कि इसके कई नुकसान हैं ? क्या स्पष्टवादिता के कारण ही साहित्य में आपको वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था ?
राजेन्द्र राव :  इसके नुकसान हो सकते हैं। साहित्य में हम जिन्हें उपलब्धियां मानकर चल रहे हैं उसके बहुत सारे कारक हैं। जैसे – पुरस्कृत होना, सम्मान पाना, सरकारी समितियों में दाख़िल होना, विदेश यात्राएं करना। बहुत सारे आकर्षण धीरे-धीरे लेखन से जुड़ते जा रहे हैं। इसे आप ऐसे समझिये कि अगर आप ताल-मेल नहीं बिठाएँगे, अपने आपको फिट नहीं करेंगे तो आपकी इसतरह की उपलब्धियां बहुत कम होती जायेंगी। आपको लगता है कि मैं कटा-कटा रहता हूँ ? मैं साहित्य में बहुत गहरे धंसा हुआ हूँ, कहीं न कहीं आपको यह अनुभूति भी होती होगी। बहुत-से लोग हैं जो दूर से बैठकर अहले करम देखते हैं। मैं तो लम्बे समय से देख रहा हूँ। जब मैं लेखन में नया-नया आया था तो मेरे मन में बड़े-बड़े लेखकों, लेखिकाओं और कवियों की बहुत धवल और मनोरम छवियाँ थीं। सभी लेकर आते हैं। धीरे-धीरे जब उन्हें हाड़-मांस के रूप में देखा और नज़दीक आये तो लगा कि ये भी इंसान हैं, इनकी भी अपनी कमजोरियां और ताकतें हैं। मगर साथ चलते वक़्त ने बताया कि उनकी जीवन-शैली, उनके दर्शन, उनके सोच में इतनी ज्यादा गिरावट है कि उसे दारुण कहना ही उचित होगा। जो हमारे बड़े-बड़े हस्ताक्षर हैं, जिनके लेखन पर हम गर्व भी करते हैं या उनका उल्लेख बार-बार करते हैं, उन्हें अपना प्रतिमान मान लेते हैं, हम दिल में जान लेते हैं कि वे अपनी निजी जिंदगी और अपने लेखकीय – कर्म में जिस तरह की राजनीतिक जोड़-तोड़ करते हैं उससे हिंदी साहित्य में गिरावट आई है और पाठकों का पलायन हुआ है जबकि क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को लगातार बढ़त मिली है। मलयालम, बांग्ला या तमिल जैसी उन्नत क्षेत्रीय भाषाओं को छोड़ भी दें तो उड़िया, असमिया या जो एनी छोटे प्रदेशों की भाषाएँ हैं, उनमें पाठकों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होती आई है। हिंदी का ऐसा दुर्भाग्य है कि हमने पठन-पाठन की संस्कृति को विकसित करने में योगदान नहीं दिया।



गीताश्री : क्या आपको लगता है कि हिंदी में पाठक बचे हैं ? या लेखक ही पाठक हैं ? मैंने अभी कहीं पढ़ा कि आप पाठक की वापसी की बात करते हैं।
राजेन्द्र राव :  सौभाग्य से कुछ पाठक बचे हैं। पाठक शून्य न तो कोई भाषा होती है और न ही समाज होता है। यह संभव ही नहीं है। पाठकों की जो घटती संख्या की बात थी वह इस लिहाज से कि हिंदी विश्व की दो सबसे बड़ी भाषाओं में से एक है जिसे साठ-पैंसठ करोड़ लोग व्यवहार में लाते हैं, बोलते हैं। इतनी बड़ी भाषा में किताबों का पहला संस्करण ढाई-तीन सौ प्रतियों का छपे और चार साल में बिके तो यह बहुत ही दयनीय स्थिति है। अब यह अलग बात है कि वह किताब जिसका संस्करण तीन सौ प्रतियों का छपा है उसपर लेखक को ग्यारह लाख का पुरस्कार मिल जाए पर उसे ग्यारह सौ की रायल्टी मिल जाए इसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं होती। अगर आप कुछ बड़े लेखकों से भी पूछें तो भी कुछ पता नहीं चलेगा। मैंने तो सुना है कि जैसे पठान लोग पहले किसी ज़माने में सूद की रक़म आतंकित कर-करके वसूलते थे वैसे ही कई लेखक अपने प्रकाशकों को निरंतर फ़ोन करके, उनके पीछे पड़कर किसी तरह रायल्टी वसूल करते हैं। मगर यह जानने का किसी के पास समय नहीं है कि तीन सौ उनचास रुपये पचास पैसे की एक साल की जो रायल्टी हिंदी का हमारा प्रकाशक देता है उसका आंकड़ा कितना सही है। और, यह खाली रायल्टी की बात नहीं है। हिंदी साहित्य आज अनैतिक संबंधों की गिरफ़्त में है। इस व्यतिक्रम को देखिये – मैं विश्व पुस्तक मेले में यह देखकर हैरान रह गया कि हिंदी में इतने प्रकाशक हैं ! और सब चांदी काट रहे हैं। यकीन करिए। वहां जिसने किराए पर स्टाल लिया होगा, कर्मचारी रखे होंगे, उसकी कुछ तो हैसियत होगी। मेरे ख्याल से ढाई-तीन सौ, चार सौ प्रकाशक वहां थे।चाँदनी चौक में जो छोटी-छोटी चाट की दूकानें हैं, उनसे ज्यादा संख्या प्रकाशकों की थी। आखिर यह पैसा कहाँ जा रहा है ? यह लेखक को क्यों नहीं दिया जा रहा ? और, मजेदार बात, ऐसा नहीं है। यह समाज लेखक को पैसा भी देता है मगर उसको फिर अनैतिकता के पथ पर भटकाकर। पुरस्कार का लालच दिखाकर। उसे जोड़-तोड़ करने पर मज़बूर करके। कितनी तिकड़म ! आप बताइये कि कौन-सा पुरस्कार है जो हिंदी में बगैर तिकड़म के मिल जाता है। जिनको मिला है या मिलाने वाला है या जो समितियों में हैं वे भले ही ऊपरी तौर पर कह दें कि सारे निर्णय मेरिट के आधार पर लिए जाते हैं, मगर क्या यह सच है ? हम अपने दिल से पूछते हैं तो आवाज़ नहीं आती। तो, यह एक अजीबोगरीब स्थिति है कि इतनी बड़ी भाषा का साहित्य ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जिसमें सबसे ज्यादा दुर्गति और दयनीय दशा लेखक की होती है। उसके दो चेहरे हैं। एक बहुत सम्मानित है जिसे माला पहनाई जाती है, प्रशस्ति-पत्र दिए जाते हैं, पुरस्कार दिए जाते हैं, फ़्लैश बल्ब चमकते हैं, हाइलाइट होता है वह। बड़े सम्मान से उसे टी वी चैनेल्स पर बुलाया जाता है। उसी व्यक्ति का दूसरा चेहरा है जो दयनीय है, जो गिड़गिड़ाता है, पुरस्कार समितियों में जोड़-तोड़ फिट करता है, प्रकाशकों के पीछे पड़ता है कि मुझे पैसा ज़रूरत के लिए नहीं, सम्मान के लिए चाहिए। हम किस दुनिया में जी रहे हैं ? किस आत्मप्रवंचना में जी रहे हैं ? हिंदी के लेखकों को अगर यह भ्रम है कि उनके कपड़े उतरे हुए नहीं हैं तो यह बहुत बड़ा भ्रम है ! और, इन नंगों के समाज में इनकी क्या मुख्यधारा है और इनका क्या कुनबा है ? कौन खुद्दार व्यक्ति शामिल होना चाहेगा इसमें ? बताइये मुझे...



गीताश्री : लेखक एक बदलाव की आकांक्षा लेकर साहित्य में आता है, क्या सचमुच लिखने से कुछ बदलता है ? क्या लेखक बदलाव ला पाता है ?
राजेन्द्र राव :  बहुत कुछ बदलता है। सबसे पहले तो लेखन व्यक्ति को बदल देता है। आज हम एक लेखिका को देख रहे हैं, उनका नाम गीताश्री है। आज से दस-पंद्रह साल पहले यह एक युवा लड़की थी। लेखन के बीज कहीं रहे होंगे। कहीं कुछ आकांक्षा रही होगी। इन पंद्रह सालों ने आपके व्यक्तित्व को बदला है। आपका लेखन महिलाओं को प्रेरित कर रहा है। स्त्री-प्रश्नों पर आप जिस बेबाकी से लिख रही हैं वह बदलाव की आकांक्षा और तड़प नहीं तो क्या है। अपने आप में ही यह बड़े बदलाव का सूचक है। जब मैंने लिखना शुरू किया, पिछली सदी में, आठवें दशक में, उस समय जो महिलायें लिख रही थीं, उनमें न तो इतना साहस था और न उनकी आवाज़ ही इतनी बुलंद थी। आज सीन बदल गया है। आज के युवा लेखक-लेखिकाएं मठाधीशों की बिलकुल परवाह नहीं करते। और, यही व्यवहार इन लोगों के साथ होना भी चाहिए।


गीताश्री : साहित्य में अश्लील होता है कुछ ?
राजेन्द्र राव :  दो बातें हैं। या तो पूरा साहित्य ही अश्लील होता है या बिलकुल भी नहीं होता। श्लील-अश्लील साहित्य की दुनिया से बाहर की चीजें हैं। साहित्य ही नहीं कला की दुनिया से भी बाहर की चीजें हैं। अश्लीलता है क्या ? कोई भी वस्तु, कोई भी प्राणी, जो सुन्दर है, जो सौंदर्य-बोध जगाये उसके लिए अश्लील जैसा भोंडा शब्द कैसे दिया जा सकता है ? कोई निकृष्ट किस्म का व्यक्ति जिसके पास भाषा, अभिव्यक्ति या सुरुचि का नितांत अभाव होगा, जो मानसिक रूप से बहुत ही कुपोषित हो, वही अश्लील शब्द का प्रयोग कला या साहित्य के सन्दर्भ में कर सकता है। ऐसे दरिद्र व्यक्ति की चर्चा हम क्यों करें ?


गीताश्री : आजकल आपके रचना-संसार की चपेट में हूँ। कहानियां, रिपोर्ताज और भी बहुत कुछ। मुझे कहानियां लिखने से पहले आपको पढ़ना चाहिए था। आपने जो कुछ लिखा है, क्या उसे लिखते समय आपका परिवेश इजाज़त देता था ?
राजेन्द्र राव :  जब मैंने लिखना शुरू किया तब हमारा भरा-पूरा संयुक्त परिवार था। माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, बहुत सारे लोग थे। अब भी हैं पर सब इधर-उधर हो गए हैं। मेरे लेखन को लेकर मेरे घर में किसी ने यह महसूस नहीं किया कि इसे कहीं छिपाकर पढ़ा जाए या इन्होने ऐसा क्यों लिखा। एक उदाहरण – १९७३ में तीन महीने के लिए सरकारी काम से कोलकाता गया। मुझे वहां सरकारी हॉस्टल में रहना था। एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक ने कहा कि वहां की जो रेड लाइट एरिया है, उसपर जीवंत रिपोर्ताज लिखो। मुझे भी लगा कि इसपर लिखना चाहिए। मैंने इन्वाल्व होकर लिखा। उन जगहों पर गया, देखा, सुना, बात-चीत की। वह सब धारावाहिक छपा। उस रिपोर्ताज की बड़ी धूम थी मगर संयुक्त परिवार होते हुए भी मेरे माता-पिता या किसी अन्य सदस्य ने कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। उन्हीं दिनों मुझे मानस-मर्मज्ञ राम किंकर जी का साक्षात्कार करना पड़ा। मेरे मन में संकोच था कि कहाँ वेश्या-जीवन पर लिखा और अब एक संत का साक्षात्कार लेकिन जब मैं उनके कमरे पर पहुंचा तो वे ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में प्रकाशित वही धारावाहिक पढ़ रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आप जैसे लेखक हमें बहुत सारे चाहिए। समाज का कलुष सामने आना चाहिए। तो, ऐसा नहीं है कि हिंदी का पाठक सजग नहीं है या उन्हें श्लील या अश्लील जैसी चीजें परेशान करती हैं, बिलकुल नहीं बल्कि यह हमारे लेखकों के दिमाग की उपज है। हम डरते हैं। हम रचनाकारों में ही यौन-प्रसंगों को लेकर काफी हिचकिचाहट और कुंठा है और वह स्वाभाविक भी है मगर यह याद रखिये कि जितनी हिचकिचाहट आपमें होगी, जितना आप छिपाना चाहेंगे, लेखन में उतना ही खुला हो जाना चाहिए। निजी जीवन में यह जो कंट्रास्ट है, बहुत खूबसूरत है। कलात्मक उपलब्धियों के लिए इस खूबसूरती की जरूरत शाश्वत है।



गीताश्री : लेखक और लेखिकाएं... दोनों डरते हैं क्योंकि उनके लिखे से उनका निजी आकलन होने लगता है। अगर रचनाकार महिला हुई तो उसपर आक्रमण होने लगता है। महिलायें ही हमला कर देती हैं कि ऐसा क्यों लिख रही हो ?
राजेंद्र राव :  क्षमा करें, मैंने कई युवा लेखिकाओं को पढ़ा है और उनमें कोई पर्दा नज़र नहीं आया। आप भी जानती हैं कि वे कहानियाँ ‘ हंस’ में भी नहीं छप सकीं लेकिन दूसरी पत्रिकाओं में छपीं।
गीताश्री जी, लेखक पर आक्रमण या उसका झेलना दो तरह का होता है। एक तो उसकी रचनाएं हर जगह से लौटती रहें। छपें नहीं। या फिर वह अपने लेखन के लिए जग-निंदा झेल ले। कौन-सा बुरा है यह आपकी दिक्कत है।


गीताश्री : आप सोनी सिंह की बात कर रहे हैं ?
राजेन्द्र राव :  जी, अब सोनी सिंह जाति-चयुत कर दी गईं या समाज से बहिष्कृत की गईं, ऐसा तो सुनने में नहीं आया, एक और लेखिका हैं, क्या है उनकी कहानी ब्लडी औरत – सोनाली मिश्र की।


गीताश्री : छपने में किसी को दिक्कत नहीं हुई। गालियाँ झेलनी पड़ीं। अब सोनाली की जो पीढ़ी है वह बहुत बेपरवाह है। सारे नैतिक मूल्य ध्वस्त करके अपना मूल्य गढ़ रही है। तो, वह नहीं डरेगी लेकिन हमारी पीढ़ी थरथरा गई।
राजेन्द्र राव :  एक बात समझ लीजिये अच्छी तरह से। नए मूल्यों का निर्माण तभी होगा जब पुराने ध्वस्त कर दिए जायेंगे। एक बार तो तोड़-फोड़ करनी ही पड़ेगी। हर पीढ़ी ने यह किया है। सक्षम पीढी याद की जायेगी और अक्षम पीढी बिना निशान छोड़े गुजर जायेगी। ऐसा नहीं है कि जो युवा आ रहे हैं उनके नैतिक मूल्य नहीं हैं, वे सिर्फ छद्म नैतिकताओं से बाहर आना चाहते हैं। इसके लिए इनमें गुस्सा है।


गीताश्री : आप लोहिया से प्रभावित लगते हैं। मेरा अनुमान सही है क्या ?
राजेन्द्र राव :  बहुत ज्यादा। लोहिया की बेस लाइन क्या थी ? जाति तोड़ो। अबतक जाति टूटी ? हिंदी साहित्य में जाति – प्रथा को लेकर आपका सामान्य ज्ञान भी काफी है, क्या जातिवाद नॉन एग्जिटेंट है ?


गीताश्री : नहीं, बहुत ज्यादा है।
राजेन्द्र राव : लोहियावाद की प्रासंगिकता उस समाज में हमेशा रहेगी जिसमें विषमताओं का जाल बिछा है। लोहिया जी जिस दिन भाषण देते थे उस दिन सदन में पूरी उपस्थिति होती थी। उन्हें सुनते हुए लोग थकते नहीं थे। अपने डेढ़-दो घंटे के भाषण में वह आदमी अंग्रेजी का एक शब्द भी प्रयोग नहीं करता था। ऐसे व्यक्ति के विचारों की छाया साहित्य में क्यों नहीं पड़नी चाहिए। हमारी पीढ़ी पर असर था क्योंकि हम लोग देख रहे थे।


गीताश्री : आपने बहुत बोल्ड स्त्रियाँ रची हैं। जिस दौर में लोग हिचक रहे थे, हिम्मत नहीं थी, तब आपने शिप्रा या कमला चाची जैसे किरदार रचे। तो, क्या यह लोहिया की स्त्रियों के प्रति नज़रिए का इम्प्रेशन था ? या आप चाहते थे कि स्त्रियों के प्रति समाज थोड़ा-सा खुले ?
राजेन्द्र राव :  नहीं –नहीं। देखिये, मेरे जीवन में स्त्रियों का बहुत महत्त्व रहा है। मैं समझता हूँ कि मेरी निर्मिति या मेरे जीवन में जो ऊर्जा है, जो उजाला है, जो धनात्मक सोच है उसमें बहुत बड़ा योगदान मेरी माँ, मेरी पत्नी और अन्य बहुत-सी स्त्रियों का है। ऐसा ज्यादातर लोगों के जीवन में होता है। स्त्रियों में जो संवेदना है वह उनका सबसे बड़ा कोष या आकर्षण होता है। हम लोग जब उनके पास जाते हैं या टूटने लगते हैं, पराजित होने लगते हैं तो नव प्रेरणा या बहुत साड़ी चीजें वहां से मिलती हैं। कई बार यह भी होता है कि उनकी वजह से भी हम टूटने लगते हैं। तो, जो पहेलियाँ स्त्री-पुरुष संबंधों की हैं उनसे अलग हटकर अगर आप देखें तो मनुष्य में प्राण का संचार स्त्री ही करती है क्योंकि वह प्राण देती है। पुरुष नहीं कर सकता।


गीताश्री : स्त्रियों के प्रति आपकी कहानियों में जो उदार दृष्टि दिखाई देती है, उसकी वजह यही है ?
राजेन्द्र राव :  देखिये, लेखन क्या है, सृजन क्या है ? उसी तरह से है कि नारी जन्म देती है। हमारे महापुरुष किसकी रचनाएं हैं, कितनी सुन्दर रचनाएं हैं। गांधी जी, जीसस और बुद्ध पैदा हुए हैं। तो, ये किनकी रचनाएं हैं, ये सब नारी की ही तो रचनाएं हैं। तो, लेखक को तो सृजन की प्रेरणा उसी से मिलेगी।


गीताश्री : असफल प्रेम कहानियों की आपने एक सीरीज लिखी जो बहुत लोकप्रिय हुई थी। क्या आपके भीतर भी असफल प्रेम को लेकर कोई कुंठा थी जो इस सीरीज को सचाई के करीब ले गई और इसे आशातीत सफलता मिली ?
राजेन्द्र राव :  देखिये, मेरी पीढ़ी में हाल यह था कि निन्यानबे प्रतिशत प्रेम सम्बन्ध असफल होते थे और जब असफल होते थे तो उनकी कुंठा होती थी मगर प्रेम में असफल होना एक अजीब किस्म की मीठी चुभन और पीड़ा है जिसको बहुत सहजता से सृजनात्मक मोड़ दिया जा सकता है। लेखक – लेखिकाओं के साथ यह आदिकाल से होता आया है। मूल स्थितियां नहीं बदलतीं। हमारे समय में नरेश मेहता थे। उन्होंने कहा कि सच्चा प्रेम होता ही वही है जो असफल हो। प्रेम का कोई और रूप नहीं हो सकता है। सफल होने का मतलब क्या हुआ ? शादी हो गई तो मतलब प्रेम की हत्या हो गई। इसे कुंठा की जगह टूटन कहना ज्यादा सही होगा। आपने देखा कि दो-तीन पीढियां शरत चन्द्र के बाद की देवदास से कितना प्रभावित रही हैं। आज भी देवदास का प्रभाव दिख जाता है।


गीताश्री : पढने-लिखने वाले लोग स्त्रियों के बारे में ज्यादा क्यों सोचते हैं ?
राजेन्द्र राव :  वे स्त्रियों के बारे में नहीं, अपने बारे में सोचते हैं। एक किशोर वय में मनुष्य सच्चा प्रेम कर लेता है। थोड़ा वयः संधि काल में भी कर लेता है। उसके बाद में तो कैलकुलेटेड प्रेम होता है। आप देखिये कि बड़े उपन्यासकार, बड़े लेखक या बड़े कवि छद्म प्रेमिकाएं रखते हैं। जैसे किसी समय में दरबार होता था, तो अकबर के नौरत्न होते थे।किसी भी लेखक के लिए उसकी रूमानी छवि बहुत ही सहायक होती है। उसको ऊंचाइयों तक पहुंचाने या उसकी दुर्गति करने में ये प्रेम-प्रसंग बहुत काम आते हैं।


गीताश्री : जब आपको यह सच पता था तो आपने उसे अपने ऊपर क्यों नहीं लागू किया ?
राजेंद्र राव :  सबको पता है और कोई भी अपने ऊपर लागू नहीं करता मगर इस जाल में फंसते सब हैं। कबीर ने ऐसे ही तो नहीं कहा – माया महा ठगिनी हम जानी। मगर यह माया केवल स्त्री ही नहीं है। माया के अनेक रूप हैं। और, एक लेखक को तो न जाने कितनी मायायें आ घेरती हैं।


गीताश्री : आपका मिजाज़ लड़कपन से आशिकाना था ?
राजेन्द्र राव :  इसमें कोई संदेह होता है तो मैं इसे बहुत ही अपमानजनक समझूंगा। यह मेरी मामूली ही सही, प्रतिष्ठा के विपरीत होगा। कम से कम यह अभियोग तो न लगाया जाए।


गीताश्री : आप जितना खुलकर लिखते हैं, उतने ही खुले क्या अपने जीवन में भी हैं ?
राजेंद्र राव :  बिलकुल। यह पारदर्शिता मेरे स्वभाव में है। तथाकथित मुख्यधारा में न होने का यह भी एक कारण है।


गीताश्री : आपकी आख़िरी प्रेमिका के बारे में जानना चाहती हूँ।
राजेन्द्र राव :  अभी तो जीवन बाकी है, आप मुझे क्यों दाख़िल खारिज कर रही हैं। रहम करिए और ‘आखिरी’ शब्द हटा दीजिये।


गीताश्री : हटा दिया। चलिए अपनी वर्तमान और लेटेस्ट प्रेमिका के बारे में ही बता दें।
राजेन्द्र राव :  मुझे बहुत अफ़सोस है कि आप इतनी प्रबुद्ध महिला होने के बावजूद ऐसा मेरे ऊपर आरोपित कर रही हैं।


गीताश्री : हर स्त्री, पुरुष के जीवन में आखिरी होना चाहती है।
राजेन्द्र राव :  आख़िरी तो कोई होता नहीं गीताश्री जी। मदर टेरेसा से खुशवंत सिंह ने पूछा – डू द मिरेकल हैपेन ?
मदर टेरेसा ने कहा – एस, एवरी डे, एवरी मिनट मिरेक्ल्स आर हैपनिंग एंड दे हैपेन। प्रेम मिरेकल के अलावा क्या है। यह चमत्कार है और होगा। आशान्वित रहिये और ‘आखिरी’ शब्द हटाइये।


गीताश्री : आपके गुरु ने ने कहा था कि प्रभु तुम कैसे किस्सागो हो ! तो, वही बात इतने साल बाद मैं कह रही हूँ कि सच में आप गज़ब के किस्सागो हैं। तो, कथागुरु का आपको लेकर जो रिएक्शन था वह क्यों था ?
राजेन्द्र राव :  बड़ी दिलचस्प कहानी है। मेरी पहली कहानी १९७१ में दो पत्रिकाओं, श्रीपद और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में एक साथ छपी थी। उन्हीं दिनों मनोहर श्याम जोशी कानपुर आये तो मैं उनसे मिलने गया। इधर-उधर की बातों के बाद उनका सम्पादक भाव जाग्रत हुआ तो उन्होंने कहा कि यार कुछ ऐसा करो कि पाठकों को लगे कि कुछ नया हो रहा है। मेरे मुंह से निकल गया कि मेरे पास कुछ असफल प्रेम कहानियां हैं, रियल लाइफ की, उन्हें लिखूं ? उनको आइडिया स्ट्राइक कर गया। उन्होंने कहा बिलकुल लिखो। सब काम छोड़कर इसमें लग जाओ। और, वापस दिल्ली पहुंचकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा कि पहली किश्त कब भेज रहे हो ?

तो, उन दिनों मैं युवा था। उत्साह से लबरेज। और, मनोहर श्याम जोशी जैसा कोई संपादक कहे तो मैंने उसी रात एक किश्त लिखी और भेज दिया। लौटती डाक से उनका पत्र आया कि दो किश्तें और भेज दो तो हम सीरीज शुरू कर दें। उसके बाद असफल प्रेम की कहानियां जो शायद आठ-दस थीं, धारावाहिक छपीं। अभूतपूर्व लोकप्रियता प्राप्त हुई। हजारों चिट्ठियां मिलीं। तो, उसके बाद जब मैं दिल्ली गया और पहली बार अपने कथागुरु से मिला तो उनके मुंह से निकला – गुरु तुम कैसे किस्सागो हो, कहाँ से ले आये। तो, यह सब मेरे भीतर था। लिख दिया।


गीताश्री : आपकी मित्रता किन लोगों से होती है, करीबी कौन हैं, किस तरह के लोगों से मिलना आपको पसंद है ?
राजेन्द्र राव :  मेरी सीमित मित्र संख्या में जो हैं वे निहायत मस्त मौला कलंदर किस्म के हैं, उदार हैं और उनमें हास्यबोध उच्चकोटि का है। अपने पर हंसना, दूसरों पर हँसना, दुनिया पर हंसना, नितांत बेपरवाह लोग जिनके मूल्य परम्परागत नहीं हैं, ऐसे लोग मेरे दिल के बेहद करीब हैं मगर ऐसे मित्र साहित्य में बहुत कम हैं।


गीताश्री : यही मैं पूछना चाहती थी कि रचनाकारों के साथ है ऐसी मित्रता ?
राजेन्द्र राव :  हाँ, कुछ के साथ है। अब जैसे आप सहमत होंगी कि राजेन्द्र यादव ऐसे मित्र थे।


गीताश्री : आप युवाओं को बहुत बढ़ावा देते हैं। तो, इसके पीछे क्या सोच है ?
राजेन्द्र राव :  दुनिया में बदलाव लाने की संभावना हमेशा युवा पीढ़ी से होती है। मेरी आस्था युवाओं में है। मुझे इनसे उम्मीद होती है कि जो काम पिछली पीढ़ियाँ नहीं कर पाईं उसे ये कर सकेंगे। जैसे मेरी अपेक्षा है कि ये लोग पाठक की वापसी करें तो सम्पादक के तौर पर मैं अगर युवाओं को सामने लाऊंगा, उनकी रचनाओं को छापूंगा तो हिंदी को युवा पाठक मिलेंगे। बात दूर तक जायेगी। आप मुझे बताएं कि मैं नब्बे या उससे अधिक उम्र का पाठक लेकर क्या करूंगा ? कितनी दूर तक ले जायेंगे ये पाठक रचना को ? एक अस्सी वर्ष के कवि या कवयित्री को बढ़ावा देकर हम हिंदी में क्या योगदान दे सकेंगे ? हमें युवा पीढ़ी को बहुत तेज़ी से आगे लाना होगा।


गीताश्री : पॉप्युलर लिटरेचर और गंभीर लिटरेचर, क्या इस तरह के विवाद में आपका भी कोई पक्ष है ?
राजेन्द्र राव :  आदर्श स्थिति तो यह होती कि श्रेष्ठ साहित्य ही पॉप्युलर हो मगर यह आदर्श स्थिति है, यह सैद्धांतिक तौर पर होती है। लेकिन, लोकप्रिय और गंभीर साहित्य का विभाजन स्वतः हो जाता है। ध्यान देने की बात यह है कि सीमारेखा के आस-पास भी बहुत-सा साहित्य होता है। वह पॉप्युलर भी होता है और गंभीर भी। हमारा लक्ष्य वह साहित्य होना चाहिए। तभी साहित्य का कल्याण होगा, भाषा का विकास होगा, लोकप्रियता बढ़ेगी। लेकिन, जहाँ तक वर्तमान स्थिति का सवाल है, हिन्दी में न तो लोकप्रिय साहित्य लिखा जा रहा है और न गंभीर। बने-बनाए सांचों में क्लोनिंग हो रही है और कुछ नहीं। मैंने पुस्तक मेले में अनुवादित साहित्य को अधिक बिकते देखा। यही यथार्थ है हमारा।


गीताश्री : आपका ‘आत्मतर्पण’ पढ़ रही थी, आपने लिखा है कि साहित्य में शुरू में अच्छा लगता है बाद में असलियत खुलती है। आपने आलोचकों की ओर भी इशारा किया जो खाल उतारते हैं। तो, यह आलोचना का संकट है ? या साहित्य का संकट है ?
राजेन्द्र राव :  देखिए, मैंने जैसा कहा कि जब अच्छा साहित्य लिखा ही नहीं जा रहा तो अच्छी आलोचना कहाँ से आएगी ? हुआ यह है कि आलोचना के ऊपर बड़ा दबाव और भार आ गया है। भार यह है कि औसत या औसत से नीचे दर्जे के साहित्य को अच्छा कहकर प्रस्तुत करके मूल्यांकन करना पड़ रहा है। क्योंकि शून्य नहीं रखा जा सकता, हम यह नहीं कह सकते कि हिंदी इतनी बड़ी भाषा है और इसमें श्रेष्ठ कृतियाँ नहीं आ रहीं तो हमें हर वर्ष कुछ न कुछ कृतियों को जरूर अच्छा बताना ही पडेगा। हमारी मजबूरी है। यही आलोचक की भी मजबूरी है। आलोचक का कोई दोष नहीं है इसमें। बल्कि आलोचक इतना सहृदय है कि वह घटिया कृतियों को भी महान बताकर, भाषा और लेखकों का सम्मान बनाए रखने का प्रयत्न कर रहा है।


गीताश्री : लेकिन साहित्यकारों का भी आरोप है कि इस समय आलोचना हो ही नहीं रही।
राजेन्द्र राव :  आप अच्छा लिखेंगी ही नहीं तो आलोचना कहाँ से होगी ?


गीताश्री : जो लिखा जा रहा है उसी का मूल्यांकन नहीं हो रहा है।
राजेंद्र राव :  अब आप देखिये कि रामदरश जी को नब्बे – इक्यानबे साल की उम्र में पुरस्कार मिला रहा है तो मतलब, यह क्या बताता है ?


गीताश्री : साहित्य में इग्नोरेंस भी बहुत है। सालों -साल आप किसी की उपेक्षा करते हैं और अचानक एक दिन पाते हैं कि वह तो बड़ा अच्छा लेखक था।
राजेन्द्र राव :  हमारे एक पुरखे कवि ने लिखा था – कवि कोई ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए, कोई ऐसा लिखे तो सही कि हलचल मचे, दृश्य टूटे, उदासीनता टूटे, सीमा लांघी जाए या तोड़ी जाए।


गीताश्री : आपने रूढ़ियों पर बहुत प्रहार किया है। आप ईश्वरीय सत्ता को मानते हैं ?
राजेंद्र राव :  बिलकुल मानता हूँ।


गीताश्री : लेकिन ‘कीर्तन’ में तो आपने सब कुछ ध्वस्त कर दिया है।
राजेंद्र राव :  धर्म का जो आडम्बर वाला रूप है, जो कर्मकांड है, जो पुरोहितवाद है, वह एकदम अलग है, उसका ईश्वर से क्या सम्बन्ध ?


गीताश्री : आप प्रेम को पाप और पुण्य से परे रखते हैं। देह को कहाँ रखते हैं ?
राजेंद्र राव :  मैंने तो कभी देह को प्रेम से अलग किया ही नहीं, देह के बिना प्रेम कैसा ? मैं तो साकार का उपासक हूँ। मैं तो ऐसा प्रेमी हूँ जिसने देह से प्रेम किया। आत्मा तो बाद में आई। आप खाली किसी की आत्मा से प्रेम कर सकते हैं ? असंभव है। देह साक्षी है। देह देवता है।


गीताश्री : विमोचन संस्कृति पर आपकी टिप्पणी ?
राजेन्द्र राव :  विमोचन की प्रेरणा जैसा कि मैं समझता हूँ कि जैसे श्राद्ध के महीने में पिंडदान करते हैं, उससे प्राप्त होती है। यह पिंडदान जैसी क्रिया है। फर्क इतना है कि पिंडदान पुरखों का किया जाता है और इसमें हम अपनी कृतियों का करते हैं। एक पुरोहित बुलाते हैं, उससे माला चढ़वाते हैं,पूजा कराते हैं, फूल चढाते हैं, किताब को लेकर फोटो खिंचवाते हैं। मतलब हिंदी के बौद्धिक समाज का इतना अधोपतन !!! किसी सदी में नहीं हुआ। मतलब जब हिन्दुस्तान गुलाम था तब नहीं हुआ, जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तब नहीं हुआ, आज़ादी के तुरंत बाद नहीं हुआ। अब तो सब लकीर के फकीर हो गए हैं। ये निर्बुद्धि लोग हैं। इनमें रचनात्मकता, कल्पनाशीलता लेशमात्र भी नहीं है। सौंदर्य बोध ज़रा – सा भी होता तो ये भड़ैती या नौटंकी नहीं करते। और, मुझे अफ़सोस होता है कि युवा पीढ़ी भी इस प्रपंच में फँस रही है। वह भी अपनी किताबें लेकर खडी हो जाती है। कितना करुण दृश्य होता है कि वही नामवर सिंह और वही अशोक बाजपेयी पुस्तक मेला में। गया चले जाइए। पण्डे बैठे हुए हैं, पिंडदान करा रहे हैं। क्या है यह ? यह रचनात्मक वृत्ति है ? इसका साहित्य से लेना-देना ही नहीं। क्या यह साहित्य की कोई प्रवृत्ति है ? सूर, तुलसी, मीरां या मैथिलीशरण गुप्त ने यह किया था ? शेक्सपीयर की रचनाओं का किसने विमोचन किया था ? किसने निकाली है यह रीति ?


गीताश्री : आप विमोचन संस्कृति के खिलाफ हैं ?
राजेन्द्र राव :  बिलकुल। मैंने किसी अच्छे और बड़े लेखक को अपनी कृति का अपमान इस तरह कराते नहीं देखा। इसका मतलब यह नहीं कि जो बड़े लेखक यह सब करा रहे हैं वे बड़े लेखक नहीं हैं। बहुत-सी चीजें होती हैं जो हम लोकाचार के लिए करते हैं मगर यह निकृष्ट कर्म है। इसे तत्काल प्रभाव से बंद होना चाहिए। रायल्टी तक तो मिलती नहीं और लेखक अपने पैसे देकर विमोचन समारोह कराता है। हद्द है यार !


गीताश्री : आजकल यही हो रहा है। एक जरूरी सवाल – आप पुरुष किरदार को अच्छे-से समझ सकते हैं, लिख सकते हैं, एक स्त्री के मन को कैसे समझ सकते हैं ?
राजेन्द्र राव :  अच्छा प्रश्न है। इसको मैंने स्वयं अनुभव किया है। शायद आगे जाकर आप भी अनुभव करें। हर पुरुष के भीतर एक स्त्री होती है और हर स्त्री के भीतर एक पुरुष होता है। फर्क इतना है कि हम उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ होते हैं लेकिन वह हमारे भीतर है।


गीताश्री : जब सब शोर मचाते हुए लिख रहे हैं तब आप इतनी खामोशी क्यों अपनाए हुए हैं ?
राजेन्द्र राव :  लेखक क्यों लिखता है ? उसे लिखने की प्रेरणा मिलनी चाहिए। मेरा समय कुछ और था। जो स्थितियां आज हैं वे पहले से बहुत अलग हैं। फिर भी, लेखन तो ऐसी प्रक्रिया है जो छूट नहीं सकती। कहानियां अब भी लिख रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओं में छप भी रहा हूँ। स्वभाव से एकान्तिक हूँ तो रचना भी अकेलेपन के साथ करता हूँ। हाँ, दुनिया का जो तमाशा है उसे धंस के देखता हूँ...


गीताश्री : लगता है कि बातें तो हुईं पर मन नहीं भरा...
राजेन्द्र राव :  अगली मुलाकातों के बहाने होने चाहिए न ! फिर मिलेंगे...

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