गगन गिल — ऋषिका महादेवी | Gagan Gill Via Mahadevi Verma

ज़रूरी होता है —  ख़ुद को याद दिलाते रहना —  कि लड़ाई आसान नहीं है, गगन गिल अपने आख्यान में पूछती हैं, "नारी की रूप-कामना ध्वंसकारी कब बनी?", महादेवी का लिखा बताते हुए —  ऋग्वेदकालीन समाज में — जहां (एक जगह वह लिखती हैं) — ‘नारी सौंदर्य का जैसा उदात्तीकरण उषस सूत्रों में मिलता है, वैसा कहीं नहीं। इनमें किसी की भी रूप-कल्पना ध्वंस के लिए नहीं है।’ 

पितृसत्ता के पोशाकों की आकांक्षा की जड़ें बहुत गहरी पैठ रखे हैं, वे ज़रा सी हवा मिलते रहने पर भी कैक्टस की तरह ज़िन्दा रहती हैं; और यह हम देख रहे हैं ! 

जब हमें लगनेवाला होता है कि समय बदलने को है, उसके पहले  ही अदृश्य काँटा नज़रों के सामने दृश्य बन जाता है. 

यह  आख्यान आज इसलिए ही यहाँ प्रस्तुत किया है कि सनद बनी रहे, एकता बनी रहे और हिम्मत सिंची रहे.

भरत तिवारी
हम जानते हैं, इस तरह का तर्कहीन विमर्श विश्व इतिहास में बार-बार होता आया है। इसे शोषकों ने शोषितों के विरुद्ध एवं शोषितों ने स्वयं अपने विरुद्ध बार-बार इस्तेमाल किया है। शारीरिक दासता जब तक मानसिक दासता में न बदल दी जाए, अपने उद्देश्य में विफल है — गगन गिल

समाज ने उसे (स्त्री को) पुरुष की सहायता पर इतना निर्भर कर दिया कि उसके सारे त्याग, स्नेह और संपूर्ण आत्म-समर्पण बंदी के विवश कर्तव्य के समान जान पड़ने लगे..... —  महादेवी




 यदि स्त्री अपनी दुरावस्था के कारणों को स्मरण रख सके और पुरुष की स्वार्थपरकता को विस्मरण कर सके, तो भावी समाज का स्वप्न सुंदर और सत्य हो सकता है  —  महादेवी
गगन गिल  —  ऋषिका महादेवी | Gagan Gill on Mahadevi Verma

ऋषिका महादेवी

गगन गिल

यह केवल संयोग नहीं हो सकता कि आज जब मुझसे यहां महादेवी जी पर बोलने के लिए कहा गया है, उनके अपने शहर इलाहाबाद में, तो मैं न केवल उनकी कर्म-भूमि पर खड़ी हूं, बल्कि चांद-सितारों के उस भारतीय समय विशेष में भी, जब वर्ष में एक बार आकाश में हमारे पूर्वज उतर कर आते हैं, हमें देखने के लिए। मैं इस समय चाहकर भी इस तथ्य को अलक्षित नहीं कर सकती कि वह हमारी पूर्वजा थीं, कि अपने पीछे वह अपनी मानस संतानों की एक भरी-पूरी बिरादरी छोड़ गई हैं, कि देवी सरस्वती के नाते एक आंतरिक नाता मैं भी उनके साथ जोड़कर बैठी हूं।

इधर के दशकों में भारतीय स्त्रियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति भले कुछ बेहतर हुई हो, उनके तनाव, उन्हें तरह-तरह से डराते भय वैसे ही बने हुए हैं — गगन गिल

हो सकता है, एक स्त्री के बारे में बात शुरू करने का यह ढंग ठेठ औरताना हो, पांव रखने से पहले अपनी रेखा खींच लेना — कि देखिए, मैं यहां हूं, इस घेरे के भीतर। यहां आपका कोई प्रवेश नहीं। आप चाहें तो मेरे साथ जगह बदल सकते हैं, आप इस घेरे के भीतर और मैं इससे बाहर जा सकती हूं, दूसरी तरफ, लेकिन तब भी आपके-मेरे बीच यह रेखा रहने वाली है।

प्रसाधन एक स्त्री का अपमान हैं। इसके बाद पुरुष यदि उसकी ओर देखे, तो भी और न देखे, तो भी — महादेवी

सच तो यह है कि महादेवी ने अपने जीवनकाल में, अपनी रचना यात्र में, एक स्त्री की सामाजिक स्थिति के भले कितने ही छिलके उतारे हों, बदला आज भी कुछ नहीं है बल्कि अपनी अनेक रूढ़ियों में, अपेक्षाओं और मान्यताओं में, हम और भी पीछे जाते गए हैं, खुलने की बजाय हमारी खिड़कियां बंद और जाम ही हुई हैं।

इधर के दशकों में भारतीय स्त्रियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति भले कुछ बेहतर हुई हो, उनके तनाव, उन्हें तरह-तरह से डराते भय वैसे ही बने हुए हैं। न केवल आज स्त्री के आत्म-बिंब दरिद्र हैं, कई बार तो ऐसा मालूम होता है, उसके पास हमारी सभ्यता, संस्कृति, सामूहिक स्मृति की छोटी-मोटी पूंजी भी नहीं बची, जो कम से कम कुछ दशक पहले तक उसकी मां-नानी के पास थी। यदि ऐसा न होता तो ऐसे विचित्र और हास्यापद आत्मबिंब एक गहरी संस्कार भूमि पर इतना आकर्षक होकर कैसे ठहर सकते थे?

‘प्रसाधन एक स्त्री का अपमान हैं। इसके बाद पुरुष यदि उसकी ओर देखे, तो भी और न देखे, तो भी’ — महादेवी कई दशक पूर्व यह कह गईं थीं।

आज सब कुछ अनंत समय के लिए सुंदर, आकर्षक, जेब की पहुंच में और सुख देने का वादा करते हुए बिक रहा है। हर चमकदार वादा स्त्री के लिए एक दुधारी तलवार है। आदर्श मां, आदर्श पत्नी, आदर्श कामकाजी, समर्थ, संपन्न, सुंदर, तत्पर, अश्रांत, अक्लांत। इतने बड़े दावे तो इस सभ्यता ने तब भी नहीं किए थे, जब वह अपनी पराकाष्ठा पर थी! महादेवी के समय में भी कम से कम एक सच्ची दीनता तो थी!

यदि एक स्त्री को अपनी बात पूछनी है, अपनी बात कहनी है, तो उसे वहीं पहुंचना होगा। जिज्ञासा के उस आदि-कुएं के पास, इच्छापूरन सरोवर पर। अपने प्रश्न का सिक्का उसे वहीं डालना होगा — गगन गिल 

आज हमारे समस्त आत्म-बिंब किसी ऊसर भूमि में उगे ऐसे जान पड़ते हैं, मानो वहां पृथ्वी की तह में आधुनिकता की रेत के सिवाय कभी कुछ था ही नहीं। संयोगवश यदि यह समय अपने खोए-पाए के गणित को ठीक करने का और मातृ-पितृ कृतज्ञता स्वीकरण का समय न होता, और इस वार्ता के केंद्र में महादेवी जैसे जीवट वाली रचनाकार न होतीं, तो संभवतः यह बात इस तरह शुरू ही न होती।

हममें से अधिकांश लोगों के लिए महादेवी कभी भी ‘केवल एक लेखिका’ नहीं रहीं, जिनकी पुस्तकों का पाठ कर लेने के बाद उन्हें एक ओर रखा जा सके। एक लिंग-भेद रहित लेखक, जैसा कि आजकल कहलाने का चलन हो गया है, ऐसी लेखक तो वह कभी भी नहीं थीं। हमारे जाने-अनजाने वह हमारे संस्कारों की मिट्टी में चली गई हैं — एक आश्चर्यजनक रूप से — हम जो उनके समय में थे और जो उनके बाद हुए, उन सब की स्मृति में।




उनके जैसी गहन गंभीर मानसी ने इसे संभव कर दिखाया तो कैसे?

सच यह है, महादेवी अपने जीवन में जो भी थीं, उससे हमेशा ‘कुछ’ ज्यादा रहीं — एक कवयित्री से थोड़ी ज्यादा, एक विदुषी से थोड़ी ज्यादा, एक प्राध्यापिका से थोड़ी ज्यादा। और एक स्त्री से हर स्थिति में कहीं ज्यादा एक स्त्री।

महादेवी का हर बात में ‘जरा सा ज्यादा’ होना ही उन्हें बीसवीं सदी की एक आकर्षक उपस्थिति बनाता है।

यह जरा सा ज्यादा होना, किसी व्यक्ति का, क्या है?

इस ‘जरा सा ज्यादा’ होने में ही एक व्यक्ति का सारा परंपरा-बोध बदल जाता है।

वह परंपरा, जो पैरों का रास्ता रोकती थी, अब उसके बंधन खोल देती है। परंपरा, जो अभी तक आत्म-शंकित करती थी, अब आत्म-विस्मित करती है। जैसे अँधेरे में कुछ देर खड़े रहें तो अँधेरे कोने उजले दिखाई देने लगें, और उजले कोनों के मकड़-जाल चमकने लगें।

इससे पहले एक स्त्री उत्तर ढूंढ़ती-ढूंढ़ती इस अँधेरी जगह पर कब गई थी?

आज शायद हम में से कई के लिए यह विश्वास करना कठिन होगा, कि बिना कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाए, बिना कोई लोक-अपवाद बने, महादेवी अपने लिए अक्षुण्ण अस्मिता अर्जित कर सकीं। हम सब जानते हैं, अपने समय की वह कोई ‘फायर ब्रांड फेमिनिस्ट’ नहीं थीं। उनकी अस्मिता की पहचान एक ओर अपने गहरे परंपरा-बोध से जुड़ी थी, दूसरी ओर अपने आर्थिक स्वावलंबन से।

संभवतः उनके जीवन का एकमात्र क्रांतिकारी निर्णय उनका किसी भी तरह के पारिवारिक ढांचे से बाहर आ जाना था। इस दुर्घटना, इस व्यक्तिगत दुर्योग पर उनकी लेखनी चुप है। जैसे यह इतनी छोटी बात हो, कि इसका उल्लेख करने की भी आवश्यकता नहीं। वह अपने समय में नौ वर्ष की बालिका वधू तो बनीं, परंतु गृहस्थिन कभी नहीं। न ससुराल, न मायका, उनका स्थाई संबल बनता है उनका अपना स्वाध्याय और एक रूढ़िग्रस्त समाज के कार्य-व्यापार की अंतरंग पहचान। आज कह सकते हैं कि यदि गांधीजी ने अपने जीवन में सत्य के साथ प्रयोग किए थे, तो महादेवी ने भी अपनी स्वतंत्र मेधा के साथ प्रयोग किए थे। यह विचित्र है, और रोचक, कि वही परंपरा, वही ज्ञान, और प्रायः वही अवसर, एक युग के सब व्यक्तियों के लिए उपलब्ध होता है, लेकिन कोई बिरला ही उस रेत में स्वर्ण के कण खोज पाता है।

महादेवी का आत्म-विश्वास उनकी स्वयं की पहचान में से आया था। कुछ ऐसे कि अपने प्रतिबिंब का साक्षात्कार करने के लिए उन्होंने स्वयं पर से दृष्टि हटा ली हो। दर्पण के सामने से हटकर वह तीसरी तरफ चली गई हों।

इस तीसरी जगह पर न वह स्त्री थीं, न कवयित्री, न सामाजिक प्राणी। वह यहां किसी नवजात प्राणी की तरह थीं, जिसकी त्वचा पर से झिल्ली उतर गई हो, और त्वचा अभी भी गीली हो। संसार को देखने की उत्सुकता हो, लेकिन उजाले की चुभन से आंखें बार-बार मुंदती हों।

उनके व्यक्तित्व में यदि इन तीनों रूपों की पहचान थी, तो इसलिए नहीं, कि वह ये तीनों थीं बल्कि इसलिए कि वह इन सबसे अलग होकर स्वतंत्र खड़ी हो सकती थीं। स्वयं और स्वयं के बिंब से अलग एक तीसरी। प्राचीन समय की किसी ऋषिका जैसी — उत्सुक, प्रश्नाकुल, धीरमयी। तप करते हुए जैसे उन्हें तपस्या का अंत भी मालूम हो!

मानसिक या शारीरिक भेद न किसी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है, न किसी की हीनता का विज्ञापन करता है। स्त्री ने स्पष्ट कारणों के अभाव में इस अंतर को विशेष त्रुटि समझा, केवल यही सत्य नहीं है, वरन यह भी मानना होगा कि उसने सामाजिक अंतर का कारण ढूंढ़ने के लिए स्त्रीत्व को ही क्षत-विक्षत कर डाला।  —  महादेवी

अकसर हम महादेवी के नाम के साथ मीरा का नाम लेते हैं, लेकिन मीरा एक नितांत दूसरी जिज्ञासा के पीछे गई थीं। उन्होंने संसार की गठरी पीछे छोड़ दी थी। वहां एक समस्या का सामाजिक रूप था, कोई सामाजिक प्रश्न नहीं।

महादेवी न केवल संकट-स्थल का निरीक्षण करती हैं, बल्कि समस्या का पुनर्निरीक्षण भी। वह न केवल गठरी उठाती हैं, बल्कि उसे खोलकर देखती हैं — यह गठरी, जिसे स्त्रियां इतने समय से उठाए हैं, इसके भीतर क्या है?

वह उत्कंठित होती हैं और प्रश्नाकुल। यहां खिलौने हैं, गुड़ियों के टूटे-फूटे अंग हैं। सब गलत-सलत लगे हैं। वह उन्हें जोड़ से अलग करती हैं, फिर से लगाती हैं। बांह की जगह बांह, सिर की जगह सिर। कोई अंधा है इनमें, कोई गूंगा। कोई सब कह सकता है उनसे, कोई एक शब्द भी नहीं।

स्मृति की रेखाएं में जितने भी चरित्र हैं, उनकी जकड़न कहां, किस प्रकार की है, महादेवी सब पहचानती हैं। जैसे वह स्वयं किसी द्वीप पर हैं और सामने भव-सागर हिलोरें ले रहा है। वह कभी इच्छा से, कभी अनिच्छा से, उन सबको खींच लाती हैं, जो उस भंवर में फंसे थे। चौदह बरस की अनब्याही मां, जो अपनी संतान को त्यागना नहीं चाहती। गूंगी गुड़िया, जो महादेवी से एक पत्र लिखवाना चाहती है। एक अंधा अलोपी, जो सामान टटोल कर एकदम सही तौल सकता है।

स्मृति की रेखाएं जैसे अंधे-गूंगे लोगों का पत्र है अपने समय के नाम। यहां उनकी कुशल-क्षेम लिखी है और नहीं भी। उनकी कलमकार महादेवी को स्वयं ही बूझना है, उनके दिल का सब हाल लिखना है। जो उन्होंने कहा है, और जो नहीं कहा।

यह एक पत्र है, एक चिट्ठी, जो महादेवी अपने समय के नाम लिखती हैं। समय — जिसका पता ‘द्वारा’ ‘केयर ऑफ़’ महादेवी है। इसका लिफाफा उन्हें स्वयं ही खोलना है।

महादेवी जैसे अपने समय को, उसमें अपने होने को, और दूसरों के थाह-हीन दुख को हर सिरे से टटोलती हैं। सबसे पहले स्वयं का साक्षात्कार। ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ और ‘तुमको पीड़ा में ढूंढ़ा, तुममें ढूंढूंगी पीड़ा।’

एकांत का दुःख। एकांत का प्रश्न भी।

यह अकारण नहीं कि महादेवी के ये सब गीत, सब कविताएं किसी अदृश्य उपस्थिति को, ‘ऊपरवाले’ को संबोधित हैं। यह कविता की युक्ति नहीं, हालांकि कई बार यह ऐसी लग सकती है।

यह सचमुच की बातचीत है, वार्तालाप, जो एक स्त्री अपने समय से कर रही है। एक आदि-स्त्री, एक आदि-समय से। यदि यह इससे कुछ कम हो, तो हमारे लिए कुछ अर्थ नहीं रखेगा। महादेवी, मीरा, आदि थेरियां — सब उसी जगह पहुंचती हैं, आदि-बिंदु पर।

यदि एक स्त्री को अपनी बात पूछनी है, अपनी बात कहनी है, तो उसे वहीं पहुंचना होगा। जिज्ञासा के उस आदि-कुएं के पास, इच्छापूरन सरोवर पर। अपने प्रश्न का सिक्का उसे वहीं डालना होगा।

जिसके पास धन है, उसी के पास दूसरे का मोल लगाने की निर्णय-शक्ति। ‘सबल ने दुर्बलों को उसी मात्र में सुविधाएं देना स्वीकार किया, जिस मात्र में वे उसके लिए उपयोगी सिद्ध हो सकीं।’  —  महादेवी

भीतर एक प्रश्न है, बाहर दीन-दुखियों की दुनिया। वे महादेवी की दुनिया भरते हैं, महादेवी उनकी। समाज के पड़ोस में बसा एक संसार। एक लेखक के लिखे पन्नों में धीरे-धीरे समाता, स्थाई होता जाता एक संसार। माया की जकड़ से छूटता संसार।

नए संसार का यह उद्यम इसलिए भी सफल हो पाता है कि उसे चुनौती देता कोई पारंपरिक परिवार वहां नहीं है। यहां स्व-अर्जित स्वतंत्रता की पवित्रता है। गहरी प्रतिबद्धता है। अपने बनाए समुदाय का संसार है, उद्देश्य भरा जीवन है। यह एक प्रति-संसार है।

यहां न केवल महादेवी स्वयं एक अर्थपूर्ण, गरिमामय जीवन जीती हैं, बल्कि दीन, साधारण लोगों को, स्त्रियों को स्वाभिमानी जीवन जीने में सहायता करती हैं। वह हमारे लिए न केवल अपने समय की एक सच्ची स्वतंत्र नारी का उदाहरण बनती हैं, बल्कि उससे कहीं अधिक — इस स्वतंत्रता का क्या किया जाए — इसका भी एक श्रेष्ठ, अनुकरणीय उदाहरण बनती हैं।

जरा महादेवी के काल-संदर्भ पर ध्यान दीजिए। यह हमारा पराधीन काल है। अभी हम अंग्रेजों के उपनिवेशी हैं। उत्तर-औपनिवेशिक तो हम शायद बाद में भी नहीं होंगे, तमाम वैचारिक, साहित्यिक बहसों के बावजूद।

महादेवी की मनीषा जिज्ञासा करती है — स्त्रियां, एक समूह के तौर पर, एक जाति के तौर पर, सबसे पहले कब कमजोर पड़ी थीं?

सबसे पहले यानी इतिहास से पहले, स्मृति से पहले, समाज पर किसी आक्रमण से पहले, सदियों पहले।

लेकिन कब?

यह एक परिचित भव-बाधा से निकलकर सुदूर किसी दूसरे संसार में जाना है।

महादेवी सदियां लांघ जाती हैं। आरंभ के आरंभ में। ऋग्वेदकालीन समाज में — जहां (एक जगह वह लिखती हैं) — ‘नारी सौंदर्य का जैसा उदात्तीकरण उषस सूत्रों में मिलता है, वैसा कहीं नहीं। इनमें किसी की भी रूप-कल्पना ध्वंस के लिए नहीं है।’ यह एक स्त्री का वक्तव्य है। इसमें एक अनकहा प्रश्न है — नारी की रूप-कामना ध्वंसकारी कब बनी? वह नारी सौंदर्य को प्रश्नांकित करती हैं। क्या यह नैसर्गिक सौंदर्य, काया की कोमलता ही सारी समस्या की जड़ है?

मानसिक या शारीरिक भेद न किसी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है, न किसी की हीनता का विज्ञापन करता है। स्त्री ने स्पष्ट कारणों के अभाव में इस अंतर को विशेष त्रुटि समझा, केवल यही सत्य नहीं है, वरन यह भी मानना होगा कि उसने सामाजिक अंतर का कारण ढूंढ़ने के लिए स्त्रीत्व को ही क्षत-विक्षत कर डाला।  — (‘आधुनिक नारी’ से)

वह सातवीं-आठवीं शती में, शंकराचार्य के समय तक — जब सहशिक्षा सामान्य थी और स्नातिकाएं अध्यापन करती थीं — पड़ताल करती आती हैं।

स्त्रियों का आत्म-निर्वासन कब घटित हुआ? वह स्त्री के प्रेम को, सहज समर्पण को बार-बार तौलती हैं।

मातृत्व की गरिमा से गुरु और पत्नीत्व के सौभाग्य से ऐश्वर्यशालिनी होकर भी भारतीय नारी अपने व्यावहारिक जीवन में सबसे अधिक क्षुद्र और रंक कैसे रह सकी, यही आश्चर्य है।

जिसके पास धन है, उसी के पास दूसरे का मोल लगाने की निर्णय-शक्ति। ‘सबल ने दुर्बलों को उसी मात्र में सुविधाएं देना स्वीकार किया, जिस मात्र में वे उसके लिए उपयोगी सिद्ध हो सकीं।’

जरा ध्यान दें। यहां महादेवी केवल व्याधि नहीं पकड़तीं, हमें उस व्याधि की जड़ भी दिखाती हैं। बाकायदा जड़ खोदकर। ‘पहले अंडा हुआ या मुर्गी’ जैसी इस अनादि-अनंत समस्या को वह इतनी आसानी से सुलझा लेती हैं। स्त्री को किसी दूसरे ने ही नहीं समझा था। जब उसे अपनी समस्या का कोई कारण समझ में नहीं आया, तो उसने स्वयं के स्त्री होने को ही इसका कारण समझा!

हम जानते हैं, इस तरह का तर्कहीन विमर्श विश्व इतिहास में बार-बार होता आया है। इसे शोषकों ने शोषितों के विरुद्ध एवं शोषितों ने स्वयं अपने विरुद्ध बार-बार इस्तेमाल किया है। शारीरिक दासता जब तक मानसिक दासता में न बदल दी जाए, अपने उद्देश्य में विफल है।

समाज ने उसे पुरुष की सहायता पर इतना निर्भर कर दिया कि उसके सारे त्याग, स्नेह और संपूर्ण आत्म-समर्पण बंदी के विवश कर्तव्य के समान जान पड़ने लगे.....

इसी के चलते दक्षिण अफ्रीका में गोरे लोग मालिक और काले लोग दास बने। अमेरिकन इंडियन अपनी ही जन्मभूमि पर पशुओं की तरह बिजली के तारों वाले बाड़े में बंद किए गए। उन्नीसवीं सदी के अमेरिका-इंग्लैंड में, और भारत के सुदूर हिस्सों में आज भी, स्त्रियां चुड़ैल घोषित करके जिंदा जला दी जाती रही हैं....

एक नितांत दूसरे संदर्भ में, निराला पर लिखे एक संस्मरण में महादेवी समाज की इस तर्कहीनता का उल्लेख कुछ इस तरह करती हैं — ‘मनुष्य जाति की नासमझी का इतिहास क्रूर और लंबा है। प्रायः सभी युगों में मनुष्य ने अपने से श्रेष्ठतम, पर समझ में आने वाले व्यक्ति को छांटकर, कभी उसे विष देकर, कभी सूली पर चढ़ाकर और कभी गोली का लक्ष्य बनाकर अपनी बर्बर मूर्खता के इतिहास में नए पृष्ठ जोड़े हैं।

यह एक अभूतपूर्व क्षण है। रचना के बींचोबीच ठिठकन। स्नेह और लगाव में लिखा गया अपने लेखक बंधु पर एक संस्मरण।

यह सहज ही हमें एक सत्य तक पहुंचा आता है — वह एक रेखा खींचता है और अपने पक्ष के पास जाकर खड़ा हो जाता है। तिरस्कृत और निर्धन, अजीविका कमाने को कई गरिमा-विहीन कार्य करने को मजबूर, तेजस्वी लेखक-बंधु निराला के साथ महादेवी इसी तरह जा खड़ी होती हैं, सबको क्रूर और बर्बर बताकर। यही उनकी प्रतिबद्धता है।

महादेवी की कोई भी रचना हम पढ़ें, किसी भी काल में लिखी हुई, वह इकहरे पाठ का, इकहरी व्याख्या का अस्वीकार करती है। उनके यहां विचार का कुछ ऐसा संश्लिष्ट ताना-बाना है, भाव की कुछ ऐसी गहनता, कि सब रचनाएं कहीं भीतर मज्जा से जुड़ी हुई महसूस होती हैं। वे जो लिखी जा चुकी हैं, और वे भी, जो बरसों बाद लिखी जाएंगी, नितांत भिन्न सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में।

इतनी अलग-अलग जिज्ञासाएं, प्रतिबद्धताएं महादेवी एक साथ कैसे साध पाईं? हम आश्चर्य करते हैं।

मुझे नहीं मालूम, महादेवी रेखा-चित्रों से निबंध चिंतन की तरफ आती हैं या निबंधों से रेखा-चित्रों की ओर। उनके रेखा-चित्र पढ़ें, तो जीवन की विडंबनाओं की संवेदनशील पकड़, विशेषकर उनके स्त्री विषयक निबंध विचलित करते हैं। निबंधों को पढ़ें तो ऐतिहासिक विवेचना की ऐसी अचूक पकड़ कि लगता है, यहीं कहीं उनका कविता-समय भी उपस्थित है। काव्य-रचनाओं में जाएं तो ऐसी अकेली वह वहां मिलती हैं, जैसे एक स्वतंत्र मेधा वाली स्त्री ही इतनी अकेली हो सकती हो!

और उनके परंपरा-चिंतन में उतरें तो देखते हैं — बड़े आश्चर्य से — कैसे वह अपने, एक मानसी के एकांत को, इतने विविध रूप-रंगों, जिज्ञासाओं से, भरती जाती हैं।

महादेवी अपनी जिज्ञासा में भले कहीं भी जा पहुंचती हों, इसमें संदेह नहीं कि उनके आरंभ में कविता है। कविता यानी भाषा के सबसे सघन, अंतरंग संबंध से शुरूआत। भाषा के शब्दार्थ रूप से, उसकी ध्वनि, उसके कथ्य और उसके अकथ्य से शुरूआत।

यह एक शुरूआत है, जो उनकी सब चिंताओं में इसी रूप में रहेगी — संलग्न, सघन, अंतरंग। भाषा के कुएं में फेंका गया एक शब्द। एक नवजन्मी भाषा, खड़ी बोली, के साथ एक उत्सुक, युवा लड़की के संबंध की शुरूआत। किसी एक बात के आरंभ में कितने आरंभ छिपे होते हैं!

बीसवीं सदी का आरंभिक काल — देश के पुनर्जागरण का काल, सार्वजनिक जीवन में रवींद्रनाथ और गांधी जैसी कालजयी उपस्थितियों का काल, विदेशी शासन की छाया में भारतीय परंपरा के पुनर्मूल्यांकन का काल। सदियों बाद एक बार फिर सार्वजनिक जीवन में बहुत सी महिलाओं के खुल कर सहयोग करने को आगे आने का काल।

और हजारों, लाखों साधारण लोगों की तरह नींद से जागती हुई यह छोटी-सी लड़की। सदी के दूसरे दशक में, अपने परिवार में दो सौ बरस में एक जीवित रह जाने वाली एक कन्या। महादेवी!

अपने लेखन में इस नाम पर वह कई जगह हँसती हैं। इस नाम के साथ उन्हें एक लंबा जीवन रहना है, बल्कि उसके बाद भी, जब वह स्वयं नहीं रहेंगी — इन्हीं चार अक्षरों में — महादेवी और उनकी उस हँसी को भी, जो वह अपनी रचनाओं में दर्ज कर छोड़ जाती हैं।

यदि हम यह मानकर चल सकें कि हर बड़े सत्य का आरंभ एक छोटी-सी, भोली हँसी से होता है, तो महादेवी का आरंभ ‘रामा’ से होता है। अपने पारिवारिक सेवक रामा की चरित्र लेखिका से नहीं, उसके हाथों सौंपी गई उस नन्हीं बच्ची से, जो भविष्य में महादेवी बनेगी। ‘छोटा राजा’! वह रामा की इतनी लाड़ली न होतीं, तो अपने आसपास का सब कार्य-व्यापार कैसे देखतीं? अपनी मां का दान-पुण्य की व्यस्तताओं से भरा जीवन, जिसमें गृहस्थी के काम निपटाने के लिए सेवकों की पलटन है।

बचपन की इन स्मृतियों में ही कई गुत्थियां सुलझनी शुरू हो जाएंगी। एक रामा ही कई कुंजियों का निमित्त बनेगा। उसकी आर्थिक दीनता महादेवी को एक पक्ष की अंतर्दृष्टि देगी, तो सामने के घर की युवा विधवा भाभी से मित्रता समाज के अदृश्य पंजे-शिकंजे की।

यह शुरूआत है स्त्रियों के जीवन की अटूट थकान समझने की शुरूआत।

इस विषय पर महादेवी बरसों बाद चिंतन करेंगी। विवाह-विच्छेद का कानून पास होते ही, पचास के दशक में, एक जगह वह लिखती हैं —

‘अनेक महिलाओं ने लज्जा के साथ स्वीकार किया कि वे घर (की जिम्मेदारी) से मुक्त होने के लिए ही विवाह-विच्छेद चाहती हैं, पतियों के किसी दोष के कारण नहीं!’

पर एक अन्य जगह पर, लगभग विरोधाभासी लगने वाली यह बात भी —

‘यदि स्त्री अपनी दुरावस्था के कारणों को स्मरण रख सके और पुरुष की स्वार्थपरकता को विस्मरण कर सके, तो भावी समाज का स्वप्न सुंदर और सत्य हो सकता है।’ (दोनों उद्धरण ‘शृंखला की कड़ियां’ से)

पुरुष की स्वार्थपरकता का विस्मरण। दूसरों ने तुम्हारे साथ क्या किया, इसका विस्मरण।

ऐसा कोई सुझाव भारत जैसी किसी प्राचीन परंपरा से ही आ सकता था — जहां कभी दलदल की धरती है, कभी सूखी, उजली, ठोस। उषस सूक्तों में वर्णित स्त्री सौंदर्य। ऋषियों को उनकी अपनी ज्ञान-धरा पर चुनौती देतीं ऋषिकाएं। बहस, जिज्ञासा, मौन, त्याग, सामर्थ्य, सब में — पुरुष के बराबर स्त्रियां।

कई दशक पहले पारंपरिक ढांचे में ढली एक साधारण सी लड़की — जो गणित के सवाल हल करने वाली कापी में शौकिया समस्यापूर्ति वाली कविताई किया करती थी। एक दिन वह किन समस्याओं का हल कहां से खोज लाएगी — तब कौन कह सकता था!

(यह आलेख इलाहाबाद संग्रहालय द्वारा आयोजित ‘महादेवी व्याख्यान माला, 2002’ के लिए लिखा गया था।)

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ