चित्रा मुद्गल को उपन्यास पोस्ट बॉक्स नं.203-नाला सोपारा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार


चित्रा मुद्गल को उपन्यास पोस्ट बॉक्स नं.203-नाला सोपारा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार


ममता कालिया स्त्रीविमर्श की हर सफेदपोश पुरोधा को ज़रूर पहचानती जानती होंगी. और ममता कालिया डरती नहीं हैं. पुरोधाओं की सफ़ेदी उतारने का अवसर उन्हें दिया, उनकी मित्र बेहतरीन साहित्यकार चित्रा मुद्गल के नए उम्दा उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203, नाला सोपारा’ पर टिप्पणी लिखे जाने ने. वो  टिप्पणी कल के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित है आज आपके लिए यहाँ शब्दांकन पर. 

भरत तिवारी




Post Box No 203 Nala Sopara Hardcover – 2015 by Chitra Mudgal (Author)

लेखकों ने हिजड़ा समुदाय की पीड़ा, परेशानी और प्रत्याशाओं को उठाने का तार्किक प्रयत्न नहीं किया है

— ममता कालिया


किन्नरों के दुख-दर्द को बयान करता उपन्यास
 
नाला सोपारा नितांत नई कथावस्तु प्रस्तुत करता नए शिल्प का उपन्यास है  — ममता कालिया
मेरे हाथों में चित्रा मुद्गल की नई औपन्यासिक रचना ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203, नाला सोपारा’ है। चित्रा जी साहित्य के सृजन में लंबी पारी खेल चुकी हैं, लेकिन अभी उन्होंने कलम नहीं छोड़ी है। ‘नाला सोपारा’ मैं थोड़ा परहेज से शुरू करती हूं। कहीं इसमें भी स्त्री विमर्श के बासी उबाऊ मुद्दे न हों, जो अर्थहीन, अंतहीन बरसों से दम तोड़ चुके हों। नहीं, बिल्कुल नहीं। नाला सोपारा नितांत नई कथावस्तु प्रस्तुत करता नए शिल्प का उपन्यास है। हम लेखकों ने हिजड़ा समुदाय पर यदा-कदा लिखा है। इन पर फिल्में भी कभी-कभार बनी हैं, किंतु उनकी पीड़ा, परेशानी और प्रत्याशाओं को उठाने का तार्किक प्रयत्न नहीं किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में लिंगदोषी समाज की समस्या को अत्यंत मानवीय दृष्टि से उठाया गया है। उनके लिए प्रचलित शब्द ‘किन्नर’ के बारे में लेखिका सूचित करती हैं कि किन्नौर जिले के लोगों को किन्नर शब्द के प्रयोग पर ऐतराज है।

कहानी कुल जमा इतनी है — विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली उर्फ दीकरा बचपन में सामान्य बच्चों जैसा है। खेलकूद, पढ़ाई और शरारत में अव्वल। धीरे-धीरे उसकी चेतना में यह उतरता है कि वह सामान्य बच्चों से अलग है। उसकी शारीरिक संरचना थोड़ी अलग है। वह ‘स्कूल की चारदीवारी से सटकर पैंट के बटन खोलकर खड़ा’ नहीं हो सकता। जाने कैसे हिजड़ा समुदाय को उसकी खबर लग गई। वे दल-ब-दल आ गए उसे ले जाने। उसकी जगह उसके छोटे भाई को दिखा दिया गयाः ‘देख लो एकदम नॉर्मल बालक है यह।’ हिजड़े ताली पीटते वापस हो गए, यह कहकर कि खबर गलत हुई तो फिर आएंगे। मां ने बच्चे को हॉस्टल भिजवाना चाहा, पर पिता ने तर्क दिया कि चौदह साल बाद अगर हिजड़े नाला सोपारा में प्रकट हो सकते हैं तो हॉस्टल क्यों नहीं आ सकते। विनोद का स्कूल जाना छूट जाता है, पर अंतत: विनोद उनकी पकड़ में आ जाता है। उसका परिवार बदनामी के डर से घर बदल लेता है और घोषित कर देता है कि एक यात्रा के दौरान दुर्घटना में विनोद की मृत्यु हो गई। उसके अवशेष तक नहीं मिले।

इसके बाद शुरू होती हैं विनोद की ओर से अपनी मां को एकतरफा चिट्ठियां, जिनके माध्यम से वह अपनी समस्त पीड़ा के अलावा अपने प्रश्न भी मां को संबोधित करता है। वह जननांग दोषी समाज की विसंगतियों और सीमित विकल्पों से परिचित है, इसके बावजूद उनकी स्थितियों में परिवर्तन लाना चाहता है। विधायक जी उसे अपनी तरह से इस्तेमाल करना चाहते हैं। विनोद की हार्दिक इच्छा है कि जननांग दोषी समाज के बाशिंदे किसी भी अन्य नागरिक की तरह पढ़ें-लिखें और समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हों। उन्हें अदर्ज की श्रेणी न देकर आरक्षित अथवा अनारक्षित श्रेणी में उनके जन्म के हिसाब से रखा जाए। उसे लिंग-दोषी समुदाय का ताली पीट-पीटकर भीख मांगना नागवार लगता है।




घर से परे जिस अड्डे पर विनोद को रखा जाता है, वहां नृशंस सरदार के अतिरिक्त सायरा, चंद्रा व पूनम जोशी हैं, जिनमें पूनम के मन में विनोद के लिए नारी-सुलभ आकर्षण है। विधायक के लंपट भतीजे बिल्लू और उसके दोस्तों की कामुकता पूनम जोशी के अंग और अस्मिता की काल बनकर प्रकट होती है और पूनम जोशी नाजुक स्थिति में अस्पताल पहुंचाई जाती है। विनोद पूनम जोशी को लेकर चिंतित है तो अपनी मां की अस्वस्थता की खबर पाकर व्यथित भी। वह जब हवाई जहाज पकड़ने सांताक्रूज एयरपोर्ट जा रहा होता है, राजनीति के दरिंदे उसकी हत्या कर डालते हैं, कुछ इस तरह कि उसकी शिनाख्त भी मिट जाती है। विधायक व अन्य राजनीतिक ताकतों की दिलचस्पी इसमें नहीं है कि किन्नर समुदाय का विकास किया जाए। वे तो उन्हें महज वोट बैंक मान कर तुष्टिकरण का खेल रच रहे थे। उनकी शतरंज पर जब विनोद एक चुनौती बनने लगा, उन्होंने उसे रास्ते से हटा दिया।

इस मुश्किल कथानक को चित्रा मुद्गल ने बड़े सधे और सिद्ध हाथों से उठाया है और अंत तक इसका निर्वाह भी किया है। पूरी कथा मां को संबोधित पत्रों की शक्ल में है, जो कहीं भी बोझिल या बेस्वाद नहीं होती। उपन्यास हमें जननांग दोषी समुदाय पर गहरी नजर डालने को बाध्य करता है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
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