शिवमूर्ति की कहानी — कुच्ची का कानून — भाग 3 #कुच्ची


डाक्टर नर्स जा चुके हैं। लड़की अब रोने लगी है। ऊपर झुकी दाई के गले में हाथ डालने की कोशिश करते हुए अस्फुट स्वर में बुदबुदाती है— बचाई लेव अम्मा, हमार बिटिया क मुंह देखाइ देव...

धीरज धरौ बिटिया, धीरज धरौ। माया मौसी उसके आंसू पोछती हैं फिर मुंह फेर कर बुदबुदाती हैं— घंटा, दुइ घंटा मा मुक्ती मिल जाये।

इस बेड का नाम ही है— ‘प्वाइजन बेड’। जहर खाकर आने वाली औरतों के लिए रिजर्व। रोज इसी समय कोई न कोई आती है, बिना नागा। सिर्फ औरतें। आदमी एक भी नहीं। सब बीस पचीस साल की उम्र वाली। ज्यादातर ‘सल्फास’ खाकर। गांव देहात के घरों में वही सहज उपलब्ध है।
शिवमूर्ति की अविस्मरणीय कहानी — #कुच्ची का कानून

कुच्ची का कानून 

(भाग - ३)

शिवमूर्ति



कुच्ची का कानून

उस दिन दोपहर में पता चला कि कोऑपरेटिव के गोदाम पर यूरिया बंट रही है। यूरिया की इतनी किल्लत रहती है कि आते ही खरीददारों की लाइन लग जाती है। गोदाम खुलते ही ढाई-तीन घंटे में सारा स्टाक खतम। पिछड़ गये तो गये। रबी की फसल के लिए पंद्रह-बीस दिन बाद जरूरत पड़ने वाली थी। बुढ़ऊ यूरिया लेने चले गये तो जानवरों को चराने के लिए उसे जाना पड़ा। शाम को जानवरों को चरा कर लौट रही थी तो देखा, खोर के बगल वाले खेत में जेठ धान के आखिरी बोझ के पास खड़े हैं। अब तक तो जेठानी भी साथ-साथ ढो रही थी लेकिन लगता है आग-अदहन के लिए वह घर चली गयी। इंतजार कर रहे होंगे कि कोई उधर से गुजरे तो उसे बोझ उठाने के लिए आवाज दें। वह पास पहुंची तो उन्होंने हाथ के इशारे से बुलाया—  जरा उठा दे रे छोटकी।

वह न हां कह सकी न नहीं। सारी दुनिया को पता है कि छोटे भाई की पत्नी को छूने का पद नहीं पहुंचता बड़े भाई का। बनवारी के दुबारा बुलाने पर वह खेत की मेड़ तक पहुंच कर बोली—  हम कैसे उठा दें? छू नहीं जायेगा?

— छू कैसे जायेगा? बीच में तो बोझ रहेगा।

वह दुविधा में पड़ गयी।

पीठ पर पति की छाया रहती तब भी एक बात थी। बेवा औरत को ज्यादा ही फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा। पता नहीं किस बात का क्या मतलब निकाल लिया जाय।

बनवारी ने मजबूरी बतायी—  कोई और दिखायी पड़ता तो मैं खुद ही तुझे न बुलाता।...

बात तो सही है। अगर वह बिना उठाये चली जाय तब भी ठीक नहीं लगता। अंधेरा हो रहा है। अब इधर से कौन गुजरने वाला है? ये पता नहीं कब तक किसी के इंतजार में यहीं खड़े रह जायें।

उसके गाय-बैल आगे बढ़े जा रहे थे। कहीं किसी की फसल न चौपट करने लगें। वह जल्दी-जल्दी पास पहुंची। बोझ उठा कर बनवारी के सिर पर रखवाया और जैसे ही मुड़ने को हुई कि बनवारी ने दाहिने पंजे से उसकी बायीं छाती दबोच ली।

उसने चिहुक कर उसके हाथ को झटकना चाहा लेकिन पकड़ इतनी सधी हुई थी कि मुक्त होने के लिए उसे जमीन पर बैठ जाना पड़ा। माख से उसकी आंखें भरभरा गयीं। इतना पाप पाले हुए हैं ये उसके लिए अपने मन में। संभली तो उठते हुए इतना ही बोल पायी—  यह काम ठीक नहीं किया बड़कऊ।

— सब मन के मानने की चीज है, रे। बोझ को सिर पर साधते हुए मुड़ कर बोला बनवारी—  एक-दूसरे के काम आने से जिन्दगी हलुक (हल्की) होकर कटती है।

रुलाई के आवेग में उसे कुछ सुनायी नहीं पड़ा। बड़ी बेरहमी से पकड़ा था। जान निकल गयी। वह कुछ देर वहीं खड़ी की खड़ी रह गयी।

बनवारी की इस घटियारी के बारे में सास को बताये या नहीं? अगर किसी ने देख लिया हो और बाद में सास को बताये तो वे यही समझेंगी कि जरूर यह दोनों का सधाबधा मामला होगा वरना बहू जेठ का बोझ उठाने क्यों जाती?

बड़ी देर तक सोचने-विचारने के बाद देर रात गये वह अपनी चारपायी से उठ कर सास की चारपायी पर आयी और उनके पैर दबाने लगी।

— इतनी सेवा मत करो बहू। तुम्हारे जाने के बाद बहुत रोना पड़ेगा।

बहू सिसकने लगी तो लगा कि वह कुछ कहना चाहती है। सास उठ कर बैठ गयीं। पूरी बात सुन कर वे बड़ी देर तक चुप रह गयीं फिर उसका सिर अपने सीने से लगाते हुए बोलीं—  जमाना कितना खराब आ गया बिटिया। दिन गिरने पर अपनों की आंख का पानी भी मर जाता है। जब घर में ही डसने के लिए घात लगाने वाले पैदा हो गये तो न अब मेरा रोकना ठीक रहेगा न तुम्हारा रुकना। हमारी जैसी बीतनी होगी बीतेगी। हम तो पके आम हैं। पता नहीं कब चू पड़ें। अभी तुमने जिन्दगी में देखा ही क्या है। खेलने खाने की उमर में ही तो सब बिगड़ गया। मन को समझा लिया है कि हमारा तुम्हारा नाता बस इतने ही दिन का था। हम अपने रिस्ते के बंधन से तुम्हें उरिन (मुक्त) कर रहे हैं। मैं कल खुद ही तुम्हारे बप्पा को आने का संदेश भेजवाती हूं।

वह चुपचाप सिसकती रही। सास उसका सिर सहलाती रहीं। फिर बोलीं—  बनवारी की ‘घटियारी’ को पानी की तरह पी जाना। बदनामी साथ लेकर जाना ठीक नहीं।

संदेश तो गया लेकिन इसके पहले कि उसके बप्पा आते, एक नयी विपत्ति आ गयी। मेंड़ से फिसल कर सास के जांघ की हड्डी टूट गयी। दूध देकर आ रही थीं। मेंड़ पसीजी हुई थी। फिसल गयीं। बनवारी की मदद से टेम्पो में लाद कर ससुर अस्पताल ले गये।

टेम्पो ने तो सबेरे आठ बजे ही जिला अस्पताल के गेट पर उतार दिया लेकिन दोपहर तक बूढ़ी की भर्ती ही न हो सकी। पर्ची कटवाने के बाद बनवारी इसके उसके पास दौड़ता रहा। कभी कहा गया कि बेड खाली नहीं है। कभी कहा गया कि पहले एक्सरे करा कर दिखाओ। फ्रैक्चर होगा तभी भर्ती ली जायेगी। बूढ़ी बरामदे के एक कोने में लेटी कराहती रही। चूहे जैसी मूंछ वाला नर्सिंग होम का एक दलाल अलग पीछे पड़ा था। वह रमेसर को समझाने में लगा था कि बिना टेंट ढीली किये कुछ नहीं होने वाला। अगर हड्डी टूटी होगी और आपरेशन करना पड़ेगा तो सरकारी डाक्टर भी बिना दस हजार एडवांस लिये हाथ नहीं लगायेगा। राड पड़ेगी तो उसके लिये भी चौदह-पंद्रह हजार गिनना पड़ेगा। तब हमारे नर्सिंग होम में अमरीकन डाक्टर से आपरेशन क्यों नहीं कराते? यहां तो अगर इनफेक्शन हो गया, मतलब जहर फैल गया तो सीधे पैर ही काट देंगे।

बुढ़ऊ सिर पर हाथ रख कर बैठ गये।

अचानक कुच्ची को धरमराज वकील की याद आयी। गांव के पद से देवर लगता है। यहीं कचेहरी में होगा। बनवारी ने धरमराज को फोन किया। थोड़ी देर में धरमराज काला कोट पहने तीन साथी वकीलों के साथ दो मोटर साइकिल पर धड़धड़ाता हुआ आया। जो सामने पड़ गया उसी को घेर कर हड़काया—  हमें पता है कि क्यों टरका रहे हो। सीधे-सीधे कटोरा ही क्यों नहीं थाम लेते? तनखाह किस बात की मिलती है?

दो-तीन जगह हड़कम्प मचाने के बाद बुढ़िया चार बजे बेड तक पहुंची। नीचे से ऊपर तक का सारा स्टाफ मन ही मन उन्हें कोस रहा था। अब तक तो पत्रकार ही नाक में दम किये हुए थे। अब काले कोट वाले भी पहुंचने लगे।

जाते-जाते धरमराज ड्यूटी के डाक्टर को हड़काता गया—  पाकेट से खर्च करके दवा खरीदने वाले मरीज नहीं हैं हम। जो दवा स्टोर में न हो उसकी लोकल परचेज करके दीजिए। स्टोर में पहुंचने के पहले तो बिक जाती है। रहेगी कैसे?

एक्सरे हुआ तो पता चला कि फ्रैक्चर है। आपरेशन होगा। पंद्रह-बीस दिन अस्पताल में और दो-ढाई महीना घर में बिस्तर पर लेटे रहना पड़ेगा।

सही कहा था नर्सिंग होम के दलाल ने। पैसा न पाने के चलते डाक्टर तीन दिन तक आपरेशन टालता रहा। सबेरे कहता कि कल करेंगे। कल आता तो फिर कल पर टाल देता। देर होने से मवाद पड़ जाने का डर था। वार्डब्वाय और नर्स पहले दिन से ही डरा रहे थे कि जमराज से झगड़ा करके पार नहीं पाओगे तुम लोग, देहाती भुच्च। एक इंच भी पैर छोटा हो गया तो जिन्दगी भर भचकते हुए चलेगी बुढ़िया। उस वकील से कहो कि अपना रुआब कचेहरी में ही दिखाये। इस बार आ गया तो हाथ पैर तुड़ा कर इसी वार्ड में भर्ती होना पड़ेगा।

सारे मरीज पैसा दे रहे थे। तय हुआ कि देने में ही भलाई है। आपरेशन के पहले शाम को दस हजार गिनने पड़े। राड भी उसी दुकान से खरीदना पड़ा जहां से डाक्टर ने कहा था।

ससुर और पतोहू के बीच ड्यूटी का बंटवारा हो गया। दिन में तो नर्स हैं, दायी हैं, जरूरत पड़ी तो बुलाने पर आ जाती हैं लेकिन रात में दाइयां और नर्सें भी इधर-उधर झपकी लेने लगती हैं। बुलाने पर नहीं सुनतीं इसलिए औरत मरीज के पास औरत तीमारदार का रहना जरूरी हो जाता है। खासकर जब मरीज हिलडुल पाने की स्थिति में न हो। कपड़े बदलने के लिए या नीचे पैन लगाने के लिए।

वह जानवरों का चारा पानी करके, खाना बना कर, दूध दुह कर, अपना और सास का दोनों जून का खाना लेकर शाम को बाजार से टेम्पो पकड़ती है। आधे घंटे में शहर। फिर टेम्पो अड्डे से पैदल अस्पताल। तब ससुर घर लौटते हैं। सबेरे जानवरों को चारा देकर, शाम का बना खाना खाकर नौ दस बजे तक वापस अस्पताल पहुंचते हैं, तब वह लौटती है।

उसकी सास के बगल वाले बेड पर एक बारह तेरह साल का लड़का है, पेड़ से गिर कर एक बांह और एक पैर तुड़वा कर आया है। उसका बाप महीने भर का राशन रख कर चला गया। गया तो फिर लौट कर नहीं आया। लड़के की मां एक जून रोटी सेकती है, दो दिन खाती है। दाल, सब्जी कुछ नहीं। बस, चटनी रोटी। गजब की ‘बोलका’ है। सोते-जागते उठते बैठते या तो कुछ बताती रहती है या कुछ पूछती रहती है।

कुच्ची को नर्सों की सफेद वर्दी बहुत अच्छी लगती है। दूध की तरह सफेद। एक भी दाग धब्बा नहीं। कितना साबुन खर्च होता होगा इनको धुलने में। ये लड़कियां एक भी गहना नहीं पहनतीं, नाक की कील के अलावा। चू़ड़ी, बिन्दी कुछ नहीं। कान तक सूना।

कड़क नर्स बस एक ही है, बड़ी नर्स। ऊंट की तरह लम्बी और पिपिहिरी की तरह पतली आवाज वाली। डांटने डपटने का बहाना खोजती रहती है। सास उससे बहुत घबराती हैं। उसकी आवाज सुनते ही आंखें बंद करके सोने का नाटक करती हैं। लेकिन वह आते ही सीने पर थप-थप मार कर कहती है—  पैर सीधा रखो। करवट नहीं लेने का। फिर सुर्ती खाया क्या? मुंह खोलो।

अपने सामने नीचे रखी बाल्टी में सुर्ती उगलवाती है फिर कुच्ची को डांटती है—  मना किया था न। फिर क्यों दिया सुर्ती? डिस्चार्ज करके भगा देंगे। गंदी सब।

बिना सुर्ती खाये रह नहीं सकती बुढ़िया। पेट फूल जाता है। ‘कड़क’ के जाते ही कहती है—  अब घर ले चल, आज ही ले चल। यहां एक दिन भी नहीं रहना। कितनी बदबू है चारों ओर। मेरी गृहस्थी बिगड़ी जा रही है।

गृहस्थी तो सचमुच बिगड़ी जा रही है। तीनों प्राणी अस्पताल से नत्थी हो गये हैं। जानवरों का चारा पानी मुश्किल से हो पाता है। लगता था खेत परती रह जायेंगे। कोई अधिया पर बोने के लिए तैयार नहीं हुआ। तेरह मूठी के जवान बैल खूंटे पर बंधे-बंधे खा रहे हैं। जोते कौन? आखिर एक दिन किराये का ट्रैक्टर मंगा कर किसी तरह बीज डाला गया। रोटोवेटर से दो घंटे की जुताई के दो हजार रुपये लग गये। फरुही करना, (क्यारी बनाना) अभी बाकी ही है।

धान तो कट गया था लेकिन उसकी मंड़ाई बाकी थी, तभी अस्पताल की दौड़ शुरू हुई। अब आये दिन आसमान में बादल के टुकड़े तैरते नजर आते हैं। पानी बरस गया तो खलिहान में ही सारा धान जम जायेगा। ऐसे में सास की चिन्ता गलत नहीं है। लेकिन डाक्टर जाने दें तब न।

अस्पताल आने पर तो लगता है सारी दुनिया ही बीमार है। हर जगह मरीजों का रेला। इमरजेंसी वार्ड का एक नम्बर बेड अंदर घुसते ही ठीक सामने पड़ता है। सबेरे की शिफ्ट वाली बूढ़ी मौसी इसे सबसे पहले ‘रेडी’ करती है। उस दिन एक लड़का आकर उस पर बैठ गया तो उसने फौरन उठाया—  उठो-उठो। इसकी बुकिंग आने ही वाली है।

— आपको आने के पहले ही पता चल गया?

— हां बेटा, रोज आती है। बिना नागा। कोई ना कोई कहीं न कहीं से चल पड़ी होगी। उसके पास एक मिंट का समय नहीं होगा। शाम तक तो रवानगी भी हो जाती है, ‘डिस्चार्ज’।

तब तक सचमुच अठारह-बीस साल की एक लम्बी-तगड़ी सांवली लड़की को पकड़े तीन चार लोग लाते हैं। वह दर्द से छटपटा रही है और ओक-ओक करके ‘कै’ करने की कोशिश कर रही है। बेड पर लिटाने के साथ, हाथ पैर दबा कर उसकी उछलती देह को काबू में किया जाता है। वह बार-बार उठ कर भागने की कोशिश कर रही है। लगता है पेट में आग लगी है। मुंह से झाग निकल रहा है। डाक्टर, नर्स और दाइयों के झुंड ने बेड को घेर लिया है। नाक के रास्ते पेट में प्लास्टिक की नली डाली जा रही है। नाक पर टेप लगा कर सेट किया जा रहा है। हाथ में इंजेक्शन के लिए ‘वीगो’ लगाया जा रहा है। हाथ बांधो... पैर बांधो। छोटे पम्प से पेट की सफाई शुरू हो गयी। पेट में दवा पहुंचाई गयी। इंजेक्शन लग गया। हाथ से फिसलती जिन्दगी को बचाने के लिए युद्ध स्तर का प्रयास।

डाक्टर नर्स जा चुके हैं। लड़की अब रोने लगी है। ऊपर झुकी दाई के गले में हाथ डालने की कोशिश करते हुए अस्फुट स्वर में बुदबुदाती है—  बचाई लेव अम्मा, हमार बिटिया क मुंह देखाइ देव...

— धीरज धरौ बिटिया, धीरज धरौ। माया मौसी उसके आंसू पोछती हैं फिर मुंह फेर कर बुदबुदाती हैं—  घंटा, दुइ घंटा मा मुक्ती मिल जाये।

इस बेड का नाम ही है—  ‘प्वाइजन बेड’। जहर खाकर आने वाली औरतों के लिए रिजर्व। रोज इसी समय कोई न कोई आती है, बिना नागा। सिर्फ औरतें। आदमी एक भी नहीं। सब बीस पचीस साल की उम्र वाली। ज्यादातर ‘सल्फास’ खाकर। गांव देहात के घरों में वही सहज उपलब्ध है।

शाम को या रात में झगड़ा होता होगा। मार पड़ती होगी। आधी रात में खाकर छटपटाने लगती होंगी। लेकिन इतनी रात में कहां सवारी खोजें? सबेरे लेकर चलते हैं। तब तक जहर असर कर चुका होता है।

लड़की धीरे-धीरे शिथिल पड़ रही है। उबलती हुई आंखें पथराने लगी हैं।

शाम होते-होते खेल खतम। चमकता हुआ शरीर मिट्टी हो गया। पलकें दबा कर अधखुली आंखें बंद की गयीं। मरने का रुक्का बना। सफेद चादर से ढकी, स्टेचर पर लद कर चीरघर की ओर चल पड़ी। सात आठ बजते बजते बेड खाली। चादर बदलो तकिया बदलो। अगले मेहमान के स्वागत की तैयारी।

कौन थी? क्यों खाया जहर?

हर दिन की अलग कहानी। अवैध गर्भ। पति द्वारा पिटाई। दहेज प्रताड़ना। तीसरी बेटी पैदा कर देना।

बेड नं. 7 बर्न बेड है। यह भी सवेरे-सवेरे अपना चादर तकिया बदल कर तैयार हो जाता है। इस पर आने वाली औरतों में ज्यादातर नवव्याहताएं होती हैं। किसी की गोद में साल भर की बच्ची, किसी की गोद में छः महीने की। वह बेड भी शायद ही कभी खाली रहता हो। जहर खाने वालियों की मुक्ति तो उसी दिन हो जाती है लेकिन जलने वालियां चार पांच दिन तक पिहकने के बाद मरती हैं। कभी कभी पूरा शरीर संक्रमित होने में हफ्ते दस दिन लग जाते हैं। कितनी बहू बेटियां हैं इस देश में कि रोज जलने और जहर खाने के बाद भी खत्म होने को नहीं आ रही हैं?

सवेरे घर वापसी से पहले अब कुच्ची इमरजेंसी के 1 नम्बर और 7 नम्बर बेड का एक चक्कर जरूर लगाती हैं। लौट कर सास को आंखों देखा हाल बताती है। फिर पूरे दिन उदास रहती है। दुनिया को जितना नजदीक से देखती है उतना ही दुखी होती है।

उस दिन वापस घर पहुंची तो देखा बैलों के खूंटे सूने पड़े थे। गाय और भैंस रह रह कर रंभा रही थीं। शायद पगहा तुड़ा कर आसपास चरने चले गये हों। वह अगवाड़े पिछवाड़े देख आयी। तब तक सुलछनी आती दिखी। किसी के न रहने पर वह इधर का एकाध चक्कर लगा जाती है। उससे पूछा।

— बिक गये।

— बिक गये?

— हां। पैकवार दो दिन से आ रहा था। आज सौदा पट गया। सबेरे ही तो हांक कर ले गया।

वह चुप रह गयी। बेचने के पहले ससुर ने कोई चर्चा तक नहीं की। हो सकता है सास से सलाह की हो। जाते हुए दोनों को देख भी न पायी। थके कदमों से चले गये होंगे। गाय और भैंस उन्हीं की याद में रंभा रही हैं।

पता चला कि सास को भी नहीं मालूम। उनसे भी कोई राय सलाह नहीं की। बेचने के बाद सारे दिन उनके पास बैठे रहे लेकिन तब भी नहीं बताया। अगले दिन सास ने पूछा तो बोले—  अब कौन उन्हें खिलाता और कौन जोतता? मेरे वश का तो है नहीं। बेकार बांध कर खिलाने का क्या मतलब?

— कभी चर्चा भी नहीं किये। पूछे भी नहीं।

— किससे पूछते? तुमसे? जो लंगड़ी होकर यहां पड़ी हो। कि बहू से? जो आज गयी कि कल।

— कितने में फेंके?

— सोलह हजार में।

— बीस हजार में तो दो साल पहले बेटा खरीद कर लाया था। तब चार दांत के थे। अब पचीस हजार से कम के न थे।

— मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है बजरंगी की अम्मा। अब न कुछ पूछो, न बताओ।

शाम को वह पहुंची तो बूढ़ी उसके गले में बांह डाल कर रोने लगी।

— सब बिगड़ गया बिटिया। उस एक के जाते ही सब बिगड़ गया। भगवान तेरे पेट में एक बिरवा रोप दिये होते तो हम जी जाते। तब मैं थोड़े तुझे कहीं जाने देती। उसी के सहारे हम सब जिन्दगी काट देते।

सास को खिलाने और दवा देने के बाद वह फर्श पर बिछे अपने बिस्तर पर लेटी तो फिर उसकी आंखों में बजरंगी का चेहरा नाचने लगा। गुलाबी मसूढ़ों वाला हंसता हुआ चेहरा। मुराही (शरारत) से चमकती आंखों वाला। वे दिन में उसे कुच्चो रानी और रात में कंचनजंघा कहते थे। कहीं से आते तो कोठरी के एकांत में पहले उसके स्तनों को दबोचते फिर पूछते—  यह बायां वाला दाहिने से छोटा क्यों है? इसे भी महीने भर में दाहिने के बराबर कर देना है। कभी कहते—  मां बाप ने मेरा नाम बजरंगी रखा है। मुझे बाल बरम्हचारी रहना था। तुमने आकर सब भरभंड कर दिया।

— मैं क्या तुम्हें बुलाने जाती हूं। कहीं से आते हो तो सीधे कोठरी में ही घुस आते हो। दिन में तो बरम्हचारी रहा करो।

वे भी इंतजार कर रहे थे उस विरवे के अंखुआने का। उन्होंने तो नाम भी सोच लिया था—  बालकिसन। उसके पेट को सहलाते हुए पूछते—  कब आयेगा रे मेरा बालकिसन? फिर पेट से कान सटा कर कहते—  शायद आ गया। किलकारी की आवाज सुनायी पड़ रही है।

उमड़ते आंसुओं को आंचल से पोंछते हुए वह बुदबुदायी—  हम तुम्हें तुम्हारा बालकिसन नहीं दे सके राजा।

कल से ही उनकी छवि मन में बसी है। कल शाम बितानू आया था। बजरंगी का हेल्पर। पता चला कि अम्मा अस्पताल में भर्ती हैं तो देखने चला आया। कह रहा था कि बड़े मिस्त्री (बनवारी) की खोपड़ी में पैसे की गर्मी घुस गयी है। अब वह उनको और तेल नहीं लगायेगा। खुद अपना काम शुरू करेगा। उसने बताया कि बड़े मिस्त्री के पास बोरिंग का जो सामान है उसकी खरीद में आधा पैसा बजरंगी भैया का लगा है। अगर बंटवारा करके आधा सामान उसे दिला दिया जाय तो उसका काम चल निकले। वह महीने महीने किराया देता रहेगा।

— यह बात तो सीधे बाबू से कहो बितानू। मैं तो चार दिन की मेहमान हूं।

— अच्छा भाभी, जमीन वाला कागज बड़े मिस्त्री ने भइया को दे दिया था कि नहीं?

— कौन सी जमीन?

— पिछले साल दोनों भाइयों ने बाजार में दुकान खोलने के लिए साझे में जमीन खरीदी थी। उसकी रजिस्ट्री का कागज बड़े मिस्त्री के पास था। मुझे इसलिए पता चला क्योंकि चार पांच महीना पहले उसी के लिए दोनों भाइयों में कुछ कहासुनी हुई थी।

कुच्ची ने बितानू का स्टूल अम्मा के सिरहाने रखवाते हुए कहा—  जरा अम्मा को बता दो यह बात।

बूढ़ी ने भी ऐसी किसी जमीन या कागज की जानकारी से इंकार कर दिया। फिर कहा—  बितानू बेटवा, तुम यह बात हमारे बुढ़ऊ के कान में जरूर डाल देना।

एक और शंका पैदा कर दी बितानू ने—  जैसे पिचाली हैं बड़े मिस्त्री, हो सकता है रजिस्ट्री में बजरंगी भइया का नाम ही न डलवाये हों।

सास बहू उसका मुंह देखने लगीं।

— ऐसा न होता तो बड़े मिस्त्री कागज देने में आनाकानी क्यों करते?

— सही बात! दोनों के मुंह से एक साथ निकला।

— इसलिए काका से कहिए कि रजिस्ट्री आफिस जाकर पता लगायें। अगर लिखते समय ही धोखा हो गया है तब तो अब कुछ नहीं हो सकता लेकिन अगर कागज में दोनों भाइयों का नाम है तो अपना हिस्सा नपवा कर फौरन बाउंडरी करवा लें। अगर बड़े मिस्त्री ने मकान बनवा कर पूरी जमीन घेर ली तो ताजिन्दगी कब्जा नहीं मिलेगा।

दोनों औरतों के सिर एक साथ सहमति में हिले। फिर बूढ़ी बोली—  इसका पता तुम्हीं लगा सकते हो बाबू। बुढ़ऊ के वश का नहीं है।

— एक बात मेरी समझ में नहीं आती काकी। बड़े मिस्त्री बजरंगी भइया को सीधे अस्पताल क्यों नहीं ले गये? घर क्यों ले आये। अगर वहीं से लेकर अस्पताल भागे होते तो हो सकता है भइया की जान बच जाती। वही जहरीली दारू दो लेबर भी पिये थे। उन्हें लोग सीधे मेडिकल कालेज ले गये और उनकी जान बच गयी।

— दारू तो वे कभी पीते नहीं थे।

— एक दो बार पिये थे।

— दारू कहां मिली?

— मधुबन के जंगली सिंह ने नयी बोरिंग करायी थी। उसी दिन बिजली का कनेक्सन मिला था। उसी का जश्न था। बड़े मिस्त्री एक खराब मोटर चेक करने चले गये थे। उनके लौटने में देर होने लगी तो ये लोग पीने लगे। जब तक बड़े मिस्त्री लौटे तब तक इन लोगों की हालत खराब होने लगी तो बड़े मिस्त्री पीने से बच गये।

तब से कुच्ची को लग रहा है कि जेठ ने जानबूझ कर खुद को जहरीली दारू पीने से बचा लिया और उनको अस्पताल पहुंचाने में देर कर दी। जमीन और दारू के बीच में कुछ ‘कनेकसन’ जरूर है।

सारी दुनिया के मर्द कहते हैं कि औरत के पेट में बात नहीं पचती। तुम भी हमें विश्वास लायक नहीं समझे राजा।

क्रमशः...


कुच्ची का कानून
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