#याज्ञसेनी राजेश्वर वशिष्ठ के उपन्यास का अंश | Yagyaseni, novel based on Draupadi

द्रौपदी राजेश्वर वशिष्ठ के यहाँ अपनी आपबीती ख़ुद कहती हैं. द्रौपदी के कहे सच पर लिखे जा रहे उपन्यास 'याज्ञसेनी' का एक अंश प्रकाशित किया जा रहा है. आगे आपकी प्रतिक्रियाएं तय करेंगी कि इसके और अंश पढ़ना चाहेंगे या उपन्यास के प्रकाशित होने का इंतज़ार... राजेश्वर जी को आप सब की तरफ से शुभकामनाएं.

भरत तिवारी




#याज्ञसेनी राजेश्वर वशिष्ठ के उपन्यास का अंश

याज्ञसेनी ॥

राजेश्वर वशिष्ठ



#याज्ञसेनी, राजेश्वर वशिष्ठ, उपन्यास, उपन्यास अंश, Rajeshwar Vashistha, Upanyas, Excerpt, Kahani
युधिष्ठिर इन क्षणों में इतने अकेले हैं मानो महाप्रलय के बाद मनुष्य के रूप में मात्र वही बचे हैं और कितने ही मगरमच्छ उनके मांस की गंध पाकर उनके चारों ओर एकत्रित हो गए हैं। धर्मराज की बुद्धि और विवेक इस समय काल के जाल में फँस कर शिथिल हो गए हैं। उन्हें बस यही सूझ रहा है कि कोई ऐसा दाँव लगे कि वह पुन: राजसूय यज्ञ द्वारा प्रतिष्ठित महाराज युधिष्ठिर बन जाएँ। जो समय उनके हाथों से फिसल कर शकुनि की शठता के कारावास में बंदी हो गया है, उसे एक ही प्रहार से मुक्त करा लिया जाए।

शकुनि और दुर्योधन अब युधिष्ठिर को दीनता से देख रहे हैं।

युधिष्ठिर क्या अब भी दाँव लगाना चाहते हो, अब तो तुम्हारे पास तुम्हारा शरीर ही बचा है! शकुनि ने बहुत उपेक्षा भाव से कहा।

हाँ, शकुनि मेरे लिए अब काल का यही आदेश है कि मैं ज्येष्ठ पांडव पुत्र, स्वयं को दाँव पर लगा दूँ और विधि से प्रार्थना करूँ कि मुझे भी जीतने का अवसर दे।

निस्संदेह युधिष्ठिर, इस पासे को एकाग्रचित्त होकर देख लो ताकि तुम्हारे मन में यह भावना उत्पन्न न हो कि मैंने तुम्हारे साथ कोई छल किया था। लो फेंकता हूँ, शकुनि ने कहा।

घोर दुर्भाग्य, तुम फिर हार गए। अब तुम दुर्योधन के दास बन गए हो।

युधिष्ठिर का शरीर आत्मघृणा की अग्नि में जल रहा है। चक्रवर्ती सम्राट समस्त राज्य वैभव हार कर अपने भाईयों सहित दुर्योधन का दास बन गया है।

शकुनि ने अट्टहास करते हुए कहा – दुर्योधन, मैंने तुम्हें इनके राजसूय यज्ञ के समय क्या कहा था, स्मरण है न? यही कहा था कि इन्हें करने दो राजसूय यज्ञ, यदि तुम्हारे भाग्य ने साथ दिया तो मैं इस चक्रवर्ती राजा को इसके राज्य सहित, दास बना कर तुम्हें भेंट कर दूँगा। आज मैंने अपना प्रण पूरा कर दिया है, गांधारी पुत्र।

युधिष्ठिर लज्जा से दोहरे हुए जा रहे हैं। वह नहीं जानते इस भँवर से निकलने का रास्ता कहाँ है।

अचानक कर्ण आकर शकुनि के कान में कुछ कहते हैं। शकुनि, दुर्योधन से विमर्श करते हैं और वे तीनों खिलखिलाकर हँसते हैं।

युधिष्ठिर, तुम्हारा दास भाव से इस तरह बैठ जाना तुम्हारे धर्मराज होने का प्रमाण है। तुम्हारी स्मृति में सम्भवतः अब कोई सम्पत्ति शेष नहीं है जिसे तुम दाँव पर लगा कर अंतिम रूप से भाग्य को आमंत्रित करो, क्यों यही बात है न? शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा।

युधिष्ठिर ने शून्य में देखते हुए एक लम्बी साँस ली।

तुम्हारे पास एक अत्यंत बहुमूल्य सम्पत्ति अभी भी है युधिष्ठिर, यदि तुम उस को दाँव पर लगा दो तो मैं बदले में तुम्हारे द्वारा हारी हुए प्रत्येक वस्तु को लौटा दूंगा। सोच लो!

युधिष्ठिर ने तुरंत प्रश्नवाची दृष्टि से शकुनि को देखा।

युधिष्ठिर तुम राज्य, भाईयों और स्वयं को तो पहले ही हार चुके हो लेकिन तुम्हारी सुंदरी प्रिया द्रौपदी अभी तक दाँव पर नहीं लगाई गई है। राजा द्रुपद ने उसका कन्यादान किया था तुम्हें और तुम्हारे भाईयों को, इस तरह से वह तुम्हारी ही सम्पत्ति है। यदि तुम उसे दाँव पर लगा दो तो मैं उसके समक्ष अब तक मेरे द्वारा जीती गई प्रत्येक वस्तु को दाँव पर लगाता हूँ।

निर्णय तुम्हारा है! एक ऐसी अंतिम चाल का अवसर तुम्हें मिल रहा है जो तुम्हारी रुष्ट लक्ष्मी को प्रसन्न कर सकता है।

शकुनि के इस प्रस्ताव पर महात्मा विदुर ने आपत्ति की। उन्होंने कहा कि युधिष्ठिर पहले ही स्वयं को हार चुके हैं अतः अब वह पांचाली को दाँव पर नहीं लगा सकते।

शकुनि ने कहा, महात्मा विदुर बिना माँगे नीति बाँटने वालों का सम्मान कम हो जाता है। आज आप भी ऐसा ही कर रहे हैं। युधिष्ठिर कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, वह धर्मराज के वीर्य से उत्पन्न हुए हैं, नीति का ज्ञान उन्हें आपसे अधिक होना चाहिए।

युधिष्ठिर ने कुछ क्षण चिंतन किया और फिर बोले – शकुनि पुरुषार्थ यही कहता है कि विजय के लिए अंतिम प्रयास अवश्य किया जाना चाहिए। सम्भव है इस दाँव पर मेरी ही जीत हो।

मैं कृष्णवर्णा, लम्बे और घुंघराले केशों वाली, जिसके नेत्र शरद ऋतु के प्रफुल्ल कमलदल के समान सुंदर और विशाल हैं, जिसके शरीर से शारदीय कमल की सुगंध आती रहती है, जो सभी विद्याओं और कलाओं में पारंगत होकर लक्ष्मी के समान है अपनी सुंदरी पत्नी द्रौपदी को दाँव पर लगाता हूँ!

युधिष्ठिर के इस कथन को सुनते ही भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य के मुखों पर मलीनता छा गई। विदुर जी मूर्छित हो गए। बाह्लीक, प्रतीप के पौत्र, सोमदत्त, भीष्म, संजय, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा तथा युयुत्सु मुँह नींचा करके सर्पों के समान साँसें खींचते हुए अपने हाथ मलने लगे। विकर्ण ने धृतराष्ट्र से कहा- पिताश्री, आप इस अपमानजनक कृत्य को रुकवाएँ, यह कौरव वंश के लिए मृत्यु तुल्य कष्ट लेकर आएगा।

धृतराष्ट्र शांत ही रहे मानो वह अंधे ही नहीं बहरे भी हो चुके हैं।

शकुनि पासा फेंकने के लिए तैयार था, उसके एक तरफ दुर्योधन खड़ा था और दूसरी ओर कर्ण। युधिष्ठिर का भाग्य इस अंतिम पासे में ही उलझा था।

एक साथ शकुनि, दुर्योधन और कर्ण चिल्लाए, तुम द्रौपदी को भी हार गए हो युधिष्ठिर! अब द्रौपदी हमारी चरण सेविका दासी होगी।

पूरे सभागार में सन्नाटा छा गया। युधिष्ठिर अपने स्थान पर मोम की तरह पिघल गए। अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव पहले ही मृत प्रायः पड़े थे। अब उनके पास समझने या अनुभव करने को कुछ भी नहीं था।

जीवन का उनके लिए अब कोई अर्थ नहीं था यदि मृत्यु आती तो वे उसका स्वागत उत्साह से करते।



*********




अब इस सभागार में पांडवों की उपस्थिति ऐसे दासों की उपस्थिति थी जिन्होंने द्यूत के माध्यम से स्वयं ही अपना सर्वनाश कर लिया था। युधिष्ठिर की लगातार हारते हुए जीतने की ललक पांडवों लिए घातक सिद्ध हो चुकी थी। धर्मराज, शकुनि की अंतिम चाल में फँस कर द्रौपदी को भी दाँव पर लगा बैठे थे और परिणाम स्वरूप धृतराष्ट्र पुत्र अब इस स्थिति में आ गए थे कि वह अतीत में द्रौपदी को पत्नी रूप में न पा सकने की अपनी सुदीर्घ पीड़ा का परिष्कार कर सकें। उनके साथ कर्ण भी थे जो द्रौपदी के स्वयंवर में सबसे योग्य प्रत्याशी थे लेकिन उनका सूत पुत्र होना किसी को स्वीकार्य नहीं था और उन्हें वहाँ से अपमानित होकर लौटना पड़ा था। द्रौपदी जैसी सुंदर स्त्री उन सभी पुरुषों की कामना में सदा से ही रही थी लेकिन उस तक पहुँचने का कोई सीधा मार्ग नहीं था। आज, काल ने स्वयं इन लम्पट पुरुषों को अवसर और अधिकार दे दिया था कि वे द्रौपदी को दासी बना कर जैसे चाहें भोग सकें।

विदुर जी, बहुत हो चुका आपका नीति और ज्ञान का प्रवचन, अब आप मेरी आज्ञा से इस प्रासाद के अतिथि क्षेत्र में जाएं और वहाँ से पांडवों की प्रिया द्रौपदी को यहाँ ले आएं। अब वह इंद्रप्रस्थ की महारानी नहीं है, एक ऐसी दासी है जिसे हमने द्यूत में जीता है। कोई दासी राजाओं के लिए बनाए गए क्षेत्र में रहने की पात्र नहीं हो सकती। अब उसे यहाँ आकर हमसे सेवा कर्म हेतु निर्देश लेने होंगे और फिर महल से बाहर दासियों के क्षेत्र में जाकर रहना होगा। दुर्योधन ने कहा।

दुर्योधन, तुम्हारी मति भ्रष्ट हो गई है। तुम काल के प्रवाह को समझने में चूक कर रहे हो। तुम्हारी स्थिति साधारण मृग जैसी है और तुम इस घृणित कार्य को कर के व्याघ्रों को क्रुद्ध कर रहे हो। तुम पांडवों के साथ चाहे जैसा व्यवहार करो लेकिन द्रौपदी के साथ दुर्व्यवहार मत करो। युधिष्ठिर स्वयं को हारने के बाद किसी अन्य वस्तु या प्राणी को हारने का अधिकार खो चुके थे। अतः द्रौपदी का तुम्हारी दासी बनना नीति विरुद्ध है। तुम पांडवों से वैर मत ठानो, यह वैर तुम्हारे वंश को नष्ट कर देगा।

महाराज धृतराष्ट्र, अभी समय है कि आप दुर्योधन को यह पाप कर्म करने से रोक सकते हैं। महामना भीष्म आप इस पाप कर्म को रुकवा कर अपनी वय का आदर करवा सकते हैं। इस कुल की उच्च परम्पराओं को स्मरण करने और उन्हें बचा लेने का यही समय है।

विचित्र परिस्थिति थी, बड़े-बूढ़े भी दुर्योधन का प्रतिकार नहीं कर रहे थे। सम्भवतः यही समय का खेल है, परम्पराओं और आदर्शों के पराभव से इसी तरह विनाश का जाल बुना जाता है, इन क्षणों में यही हो रहा था इस सभागार में।

दुर्योधन की कठोर वाणी गूँजी – तुम्हें धिक्कार है विदुर, यदि तुम मेरे काकाश्री न होते तो मैं तुम्हें इसी समय मंत्री पद से च्युत करके राज्य से बाहर निकाल देता। अब शांत होकर बैठिए।

पूरे सभागार में मौन का रुदन गूँज रहा था। दुर्योधन ने प्रतिकामी की ओर देखा और कहा – तुम जाओ और जाकर द्रौपदी को सूचित करो कि अब पांचाल कुमारी हमारी दासी बन चुकी हैं। उसे बताओ कि उनके पति महाराज युधिष्ठिर भी सब कुछ हार कर, अब हमारे दास हैं। प्रतिकामी, अब तुम्हें न पांडवों से भयभीत होना चाहिए और न ही विदुर के वचनों पर ध्यान देना चाहिए।

प्रतिकामी, दुर्योधन की आज्ञा से द्रौपदी के अतिथिकक्ष में गया और उसने विनम्रता से निवेदन किया। द्रुपद कुमारी, मैं आपके लिए बहुत बुरा समाचार ले कर आया हूँ।

क्या हुआ प्रतिकामी, क्या इंद्रप्रस्थ पर किसी राजा ने पांडवों की अनुपस्थिति में आक्रमण कर दिया है?

नहीं देवी, आज की द्यूत क्रीड़ा में महाराज युधिष्ठिर ने पहली इंद्रप्रस्थ की समस्त सम्पत्ति को हारा, इसके पश्चात इंद्रप्रस्थ राज्य को हारा, फिर अपने भाईयों सहित स्वयं को हारा और इसके बाद उन्होंने आपको भी दाँव पर लगा दिया और उस दाँव को भी दुर्योधन ने जीत लिया। इस तरह से अब आप हस्तिनापुर राज्य की एक दासी बन गई हैं। दुर्योधन ने आपको यह स्थान छोड़ कर तुरंत सभा भवन में बुलाया है ताकि आपको दासी के कार्य दिए जा सकें।

यह सुन कर द्रौपदी की स्थित उस वृक्ष के समान हो गई जिसके समक्ष रास्ता बदल कर कोई विशाल नदी आ गई हो। ऐसे घटनाक्रम की तो उसने कभी स्वप्न में भी अपेक्षा नहीं की थी। पल भर के लिए आकाश के समस्त तारे एक दूसरे से टकरा गए और द्रौपदी बेसुध होकर धरती पर लेट गई।

प्रतिगामी ने शीतल जल उस के मुख पर छिड़का तो उसकी चेतना लौटी। उसने प्रतिकामी से पूछा – इस द्यूत के समय तुम वहाँ उपस्थित थे?

जी हाँ, पांचाल कुमारी, द्यूत मेरे समक्ष ही सम्पन्न हुआ था।

मुझे बताओ, महाराज युधिष्ठिर ने द्यूत में पहले मुझे हारा या स्वयं को?

उन्होंने पहले स्वयं को हारा था, पांचाल कुमारी, प्रतिकामी ने कहा।

प्रतिकामी तुम सभा-भवन जाओ और उस जुआरी से पूछो कि वह स्वयं को हारने के बाद, किस अधिकार से मुझे दाँव पर लगा पाया। जुआ राजाओं के बीच में होता है और स्वयं को हारते ही युधिष्ठिर तो दुर्योधन के दास बन गए थे। फिर एक दास और राजा के बीच यह दाँव लगा कैसे?

प्रतिकामी द्रौपदी के विवेक के समक्ष चकित हो गया और सीधा भागते हुए सभा-भवन जा पहुँचा।

सभा-भवन में पहुँच कर प्रतिकामी ने यह प्रश्न युधिष्ठिर से पूछा। युधिष्ठिर के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। वह बहुत निष्प्राण और शोकमग्न लग रहे थे। वह जानते थे कि द्रौपदी सत्य के परीक्षण के बिना कुछ भी स्वीकार नहीं करेगी।

प्रतिगामी, हम दासियों के प्रश्नों के उत्तर दिलवाने को बाध्य नहीं हैं। तुम पुनः पांचाली के पास जाओ और उसे स्पष्ट रूप से बता दो कि वह अपने नए कार्यभार को शीघ्रता से ग्रहण करे। दास और दासियों से कोई राजा यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि वे, अपने स्वामियों से प्रश्न पूछें। यह मेरी उदारता है कि मैं बार बार पांचाली को सूचनाएं और निर्देश तुम्हारे माध्यम से भेज रहा हूँ। उससे कहो कि जो भी पूछना है, जिससे भी पूछना है, यहाँ सभा में आकर पूछे।

प्रतिगामी को पुनः आया देख कर द्रौपदी अत्यंत खिन्न हो गई। उसने प्रतिगामी का कथन सुन कर कहा – हे, प्रतिगामी तुम एक बार पुनः सभा भवन में जाओ और वहाँ बैठे भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और महाराज धृतराष्ट्र से पूछो कि वे मुझे मार्गदर्शन दें कि मुझे इस समय क्या करना चाहिए?

द्रौपदी समय की तलवार की धार पर खड़ी थी। समय था कि उसे बार-बार आगे ही धकेल रहा था। उसके कोमल पावों से खून की धार बह रही थी पर द्रौपदी की सहन शक्ति का यहाँ अंत नहीं होता!


००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ