आशा भोसले: नायिका से नर्तकी (जन्मदिन विशेष) — तेजेन्द्र शर्मा



आशा भोसले - नायिका से नर्तकी...

— तेजेन्द्र शर्मा

हिन्दी सिनेमा के गीतों का सुनहरी काल 1949-1975 माना जाता है। इस काल में नौशाद, शंकर जयकिशन, सचिन देव बर्मन, मदन मोहन, सी. रामचन्द्र, ओ.पी. नैय्यर, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल एवं राहुल देव बर्मन का संगीत; साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, शकील बदायुनी, कैफ़ी आज़मी, हसरत जयपुरी, राजेन्द्र कृष्ण, राजा मेहंदी अली ख़ान, भरत व्यास जैसे गीतकार और लता मंगेशकर, मुहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, मुकेश, किशोर कुमार, मन्ना डे और महेन्द्र कपूर जैसे गायकों ने अपना योगदान दिया।




एक समय ऐसा भी था जब लता मंगेशकर के गीत किसी भी फ़िल्म की सफलता की गारण्टी होते थे। मगर ऐसे समय में एक ऐसा संगीतकार भी था जिसने अपने पूरे संगीत कैरियर में लता मंगेशकर की आवाज़ का इस्तेमाल नहीं किया फिर भी हिन्दी सिनेमा का सबसे महंगा संगीतकार बन गया। इस संगीतकार ने दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनन्द, गुरूदत्त, शम्मी कपूर, सुनील दत्त, भारत भूषण, विश्वजीत, धर्मेन्द्र, मनोज कुमार, जॉय मुखर्जी, मधुबाला, गीता बाली, वैजयन्ती माला, वहीदा रहमान, पद्मिनी, माला सिन्हा, शर्मिला टैगोर, साधना, बबिता जैसे कलाकारों की फ़िल्मों में संगीत दिया। जी हां इस संगीतकार का नाम है ओंकार प्रसाद नैय्यर या फिर ओ.पी. नैय्यर।

जब लता मंगेशकर ने ओ.पी. नैय्यर की फ़िल्म में आवाज़ देने से इन्कार कर दिया तो उन्होंने अपनी पहली फ़िल्मों में गायिकाओं के तौर पर शमशाद बेग़म और गीता दत्त की आवाज़ का इस्तेमाल किया तो गायकों में उनकी पहली पसन्द थे मुहम्मद रफ़ी।

सन 1956 में ओ.पी. नैय्यर ने एक उभरती हुई गायिका आशा भोसले को एक गाने में शमशाद बेग़म और मुहम्मद रफ़ी के साथ गाने का मौक़ा दिया। फ़िल्म का नाम था ‘सी.आई.डी.’ जहां रफ़ी साब और शमशाद बेग़म ने जूनियर कलाकारों के माध्यम से गाया ‘ले के पहला पहला प्यार....’ वहीं आशा भोसले ने फ़िल्म की नायिका शकीला के लिये अन्तरा गाया... “तुमने तो देखा होगा उसको सितारो / आओ ज़रा मेरे संग मिल के पुकारो”। यह पल आशा भोसले के लिये सबसे महत्वपूर्ण पल था क्योंकि इसके बाद उसे मुड़ कर पीछे नहीं देखना था।




अगले ही साल यानि कि 1957 में दो ऐसी फ़िल्में रिलीज़ हुईं जिन्होंने आशा भोसले को लता मंगेशकर के बाद सबसे बड़ी गायिका बना दिया। बी.आर. चोपड़ा की ‘नया दौर’ और नासिर हुसैन की ‘तुमसा नहीं देखा’। इन फ़िल्मों के गीतों ने एक नई और आत्मविश्वास से भरपूर आशा भोसले से दर्शकों का परिचय करवाया। पंजाब का खनकता संगीत और आशा भोसले की लहराती हुई आवाज़ ने मुहम्मद रफ़ी के साथ मिल कर तहलका सा मचा दिया। ‘नया दौर’ के लिये ओ.पी. नैय्यर को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला।

अब आशा भोसले पूरी तरह सी फ़िल्म की हिरोइन की आवाज़ बन गयी थी। वैजयन्ती माला पर फ़िल्माए और मुहम्मद रफ़ी के साथ गाए गीत ‘मांग के साथ तुम्हारा..., ‘उड़ें जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी’ और शमशाद बेग़म के साथ ‘रेश्मी सलवार कुर्ता जाली का’ जैसे हिन्दी सिनेमा के गीतों में एक क्रान्ति ले आए थे। उसी वर्ष शम्मी कपूर की इमेज बदलने वाली फ़िल्म ‘तुमसा नहीं देखा’ रिलीज़ हुई थी। इससे पहले शम्मी कपूर दिलीप कुमार की तर्ज़ पर गंभीर भूमिकाएं निभा रहे थे। यहां एक नये बेफ़िक्र युवा के लिये ओ.पी. नैय्यर ने युवा संगीत दिया और उनकी तर्ज़ों पर थिरकती हुई आशा भोसले कहने लगीं, ‘देखो कसम कसम से, देखो कसम से कहते हैं तुमसे हां.... ‘। लगता था जैसे मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ आशा भोसले की आवाज़ की पूरक बन गयी है, जब वे कहते हैं, ‘क्या लगाई तुमने, ये कसम कसम से / लो ठहर गये हम कुछ कहो भी हम से... ‘

अब यह तो तय हो गया था कि जिस किसी फ़िल्म में ओ.पी. नैय्यर का संगीत होगा उसमें नायिका की आवाज़ होगी आशा भोसले। ओ.पी. नैय्यर ने लता मंगेशकर को दिखा दिया था कि मैं तुम्हारी ही छोटी बहन को तुम्हारे मुक़ाबले में खड़ा कर सकता हूं।





आशा भोसले एक नायाब हीरा थीं जिसे तराशने वाला जौहरी पहली बार मिला था। वर्ष 1958 में ओ.पी. नैय्यर की नौ फ़िल्में रिलीज़ हुईं। इनमें से ‘हावड़ा ब्रिज’, ‘फागुन’, ‘रागिनी’, ‘सोने की चिड़िया’ जैसी फ़िल्मों में आशा भोसले ने हिन्दी सिनेमा के कुछ अमर गीत गाए। इन फ़िल्मों में वे मधुबाला, पद्मिनी और नूतन जैसी नायिकाओं की आवाज़ बनीं। मधुबाला की ख़ूबसूरती, ओ.पी. का निराला संगीत और आशा भोसले की निमंत्रण देती आवाज़ ने ‘हावड़ा ब्रिज’ के ‘आइये मेहरबां, बैठिये जाने जां’ जैसे गीत को जन्म दिया। आज साठ साल बाद भी यह गीत बिल्कुल मॉडर्न गाना लगता है। फागुन के गीत ‘पीया पीया ना लागे मोरा जिया’ में तो आशा भोसले की आवाज़ किसी पंजाबी साज़ (पीपणी) जैसी लगती है। और उसपे पंजाबियत की चाशनी लिये ‘इक परदेसी मेरा दिल ले गया.. ‘ हम सबके दिलों की धड़कने बढ़ा जाता है।

रागिनी का सेमी-क्लासिकल गीत ‘छोटा सा बालमा’ और सोने की चिड़िया में ‘प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी... ‘ किसी भी गायक या गायिका के लिये उपलब्धि माना जाएगा। सोने की चिड़िया में जब यही गीत तलत महमूद गाते हैं तो ओ.पी. नैय्यर ने आशा भोसले की आवाज़ में केवल एक रूहानी आलाप का ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया है।

ओ.पी. नैय्यर ने आशा भोसले की आवाज़ को पूरी तरह से समझ लिया था। उन्हें उसकी रेंज की पहचान थी और उनके संगीत में आशा भोसले की आवाज़ पूरी तरह से भारतीयता में रंगी रहती थी। अब क्योंकि आशा भोसले नायिकाओं के गीत गा रही थीं और उनकी फ़िल्में व गीत सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहे थे ज़ाहिर है कि उनकी गायन कला में भी आत्मविश्वास महसूस किया जा सकता था।

1959 में ओ.पी. नैय्यर की केवल एक फ़िल्म आई ‘दो उस्ताद’ जिसमें राजकपूर, मधुबाला और शेख मुख़्तार थे तो 1960 में शम्मी कपूर की ‘बसन्त’, अशोक कुमार, पद्मिनी की फ़िल्म ‘रागिनी’ और देव आनन्द, मधुबाला की ‘जाली नोट’। ज़ाहिर है कि आशा भोसले अब शोख़ गीतों के साथ साथ सेमी क्लासिकल गीतों को भी अपनी आवाज़ दे रही थीं और उनकी रेंज में विस्तार हो रहा था। ‘हम पे दिल आया तो बोलो क्या करोगे,’बेकसी हद से जब गुज़र जाए’… ‘हमें मारो ना नैनों के बाण...’ और फ़िल्म जाली नोट में मुहम्मद रफ़ी के साथ पांच सुरीले युगल गीत इन दो सालों की उपलब्धियां रहीं।

1962 से 1965 के बीच ओ.पी. नैय्यर की फ़िल्में तो केवल चार ही आईं मगर आशा भोसले के लिये अपनी पोज़ीशन मज़बूत करने में इन सालों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ‘एक मुसाफ़िर एक हसीना’ (1962), ‘फिर वही दिल लाया हूं’ (1963), ‘कश्मीर की कली’ (1964) और ‘मेरे सनम’ (1965) में ओ.पी. नैय्यर ने सुरीले खनकते संगीत का अद्भुत नमूना पेश किया। बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी, आप यूंही अगर हमसे मिलते रहे, मैं प्यार का राही हूं जैसे दोगानों में मुहम्मद रफ़ी के सुर में सुर मिलाते हुए आशा भोसले ने एक नई हिरोइन साधना को अपनी आवाज़ दी। यही साधना बाद में ‘वो कौन थी’, ‘मेरा साया’, ‘आरज़ू’ और ‘मेरे महबूब ‘ में बहुत बड़ी हिरोइन बन कर सामने आईं। ‘ फिर वही दिल लाया हूं’ के मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे नग़मों – (आंखों से जो उतरी है दिल में, मुझे प्यार में तुम ना इल्ज़ाम देते, ज़ुल्फ़ की छांव में उजाले का सहारा लेकर, और अपनी बहन उषा मंगेशकर के साथ देखो बिजली बोले बिन बादल के...) ने आशा भोसले को एक नई ज़मीन दी जहां उसने आशा पारेख को अपनी आवाज़ दी।




कश्मीर की कली’ (1964) में शक्ति सामंत ने शम्मी कपूर के साथ एक नई बंगाली हिरोइन पेश की शर्मिला टैगोर और इस फ़िल्म में आशा भोसले के लिये चुनौती थी इस नई हिरोइन को नई ऊंचाइयों तक ले जाने की। हालांकि इस फ़िल्म का सबसे लोकप्रिय गीत तो शम्मी कपूर पर फ़िल्माया गीत ‘तारीफ़ करूं क्या उसकी...’ था मगर आशा भोसले को भी कुछ विशेष नग़मे मिले - फिर ठेस लगी दिल को, बलमा खुली हवा में, इशारों इशारों में दिल लेने वाले, ये देखके दिल झूमां... अब रंगीन फ़िल्मों में भी आशा भोसले की उपस्थिति दर्ज होने लगी थी। नायिका चाहे नई हो या फिर पुरानी ओ.पी. नैय्यर आशा भोसले के लिये कुछ ऐसी धुनें बनाते कि वह घोड़े की टापों की आवाज़ के साथ अपनी उड़ान भरती रहतीं।

1965 में अमर कुमार की फ़िल्म ‘मेरे सनम’ में एक बार फिर ओ.पी. नैय्यर के साथ थे मजरूह सुल्तानपुरी। हीरो थे विश्वजीत और हिरोइन आशा पारेख। इस फ़िल्म में एक बेहतरीन रोल नई अभिनेत्री मुमताज़ का भी था जो दारा सिंह के कैम्प से स्नातक हो कर अब सोशल फ़िल्मों में अपनी जगह बनाने की कोशिश में थी। मुहम्मद रफ़ी की लहकती हुई आवाज़ में ‘पुकारता चला हूं मैं...’ ने घर घर में धूम मचा ही दी थी। मगर इस बार आशा भोसले के हिस्से कुछ बेहतरीन नग़में आए – जाइये आप कहां जाएंगे, ये नज़र लौट के फिर आएगी, और मुमताज़ के लिये ‘ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अन्धेरा ना घबराइये’। वहीं मुहम्मद रफ़ी के साथ ‘हमनें तो दिल को आपके कदमों में रख दिया’, ‘रोका कई बार मैनें दिल की उमंग को...’। यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि आशा भोसले ने आशा पारेख के लिये जो आवाज़ दी है उसमें एक प्रेमिका का आत्मविश्वास, प्रेम और कमिटमेण्ट तीनों सुनाई देते हैं जबकि मुमताज़ के लिये जो आवाज़ बनाई है उसमें विलासिता, आमंत्रण और ऊंफ़ है।

1966 एक बार फिर ओ.पी. नैय्यर के लिये बंपर साल था। इस साल उनकी सात फ़िल्में रिलीज़ हुईं। जिनमें महत्वपूर्ण थीं ‘बहारें फिर भी आएंगी’, ‘मुहब्बत ज़िन्दगी है’, ‘सावन की घटा’ और ‘ये रात फिर ना आएगी’। ओ.पी. नैय्यर के साथ एक त्रासदी यह भी रही कि जहां उन्हें ए-क्लास फ़िल्में मिलती थीं वहीं किन्हीं कारणों से उन्हें साथ ही साथ सी-ग्रेड फ़िल्में भी करनी पड़ती थीं। अब इसका कारण क्या अपने में आत्याधिक विश्वास था या फिर काम पाने की मजबूरी कुछ तय करना मुश्किल है। वर्ना ‘लव अण्ड मर्डर’ जैसी फ़िल्म करने की तुक समझ नहीं आती जिसका एक गीत भी ओ.पी. के स्तर का नहीं। आशा भोसले ने भी कामचलाऊ तरीके से गाने गा दिये हैं। ‘दो दिलों की दास्तान’ का एक भी गीत सुनने लायक नहीं।

बहारें फिर भी आएंगी ‘ इस मामले में यादगार फ़िल्म है कि इसमें पहले गुरूदत्त काम करने वाले थे। उनके छोटे भाई आत्माराम ने इस फ़िल्म को पूरा किया। माला सिन्हा, धर्मेन्द्र और तनुजा अभिनीत इस फ़िल्म में ओ.पी. नैय्यर ने ख़ासा बहुआयामी संगीत दिया। ज़ाहिर है कि मुहम्मद रफ़ी को हमेशा की तरह फ़िल्म का बेहतरीन गाना मिला... ‘आपके हसीन रुख़ पे आज नया नूर है ‘। इसी फ़िल्म के दौरान ओ.पी. नैय्यर की मुहम्मद रफ़ी से भी ग़लतफ़हमी हो गई और उन्होंने रफ़ी साब के साथ काम करना बन्द कर दिया... इसीलिये टाइटल गीत ‘बदल जाए अगर माली, चमन होता नहीं ख़ाली’ उन्होंने महेन्द्र कपूर के हवाले कर दिया। मगर आशा भोसले को दो सार्थक गीत गाने को मिल गये... माला सिन्हा के लिये विन्टेज आशा भोसले – ‘वो हंस के मिले हमको, हम प्यार समझ बैठे’ और तनुजा के लिये सीधा बोल्ड गीत... ‘कोई कह दे कहदे कह दे ज़माने से जाके, कि हम घबरा के मुहब्बत कर बैठे’। जॉनी वॉकर ओ.पी. नैय्यर के प्रिय कलाकार रहे। उनके लिये एक पूरी फ़िल्म ‘छू मंतर’ के अलावा बहुत से फ़िल्मों में ओ.पी. ने ख़ास गीत बनाए। इस फ़िल्म में भी रफ़ी की आवाज़ में ‘सुनो सुनो मिस चैटर्जी’ गीत रखा है।




मुहब्बत ज़िन्दगी है’ में आशा भोसले का एकमात्र गीत ही ओ.पी. के स्तर का बन पाया है – ‘रातों को चोरी चोरी, बोले मोरा कंगना’। जबकि ‘सावन की घटा’ में ओ.पी. वापिस अपनी फ़ॉर्म में लौट आते हैं। आशा भोसले को शर्मिला टैगोर के लिये कुछ अविस्मरणीय गीत देते हैं – ‘हौले हौले साजना, धीरे धीरे बालमा’; ‘मेरी जान तुम पे सदके, एहसान इतना कर दो’; और मुमताज़ के लिये ‘आज कोई प्यार से दिल की बातें कह गया’ और फ़िर रफ़ी साब के साथ एक टिपिकल ओ.पी. नंबर – ‘होठों पे हंसी आंखों में नशा, पहचान है मेरे दिलवर की’। ज़ाहिर है कि दर्शकों को एक बार फिर ओ.पी. नैय्यर और आशा भोसले की जोड़ी में विश्वास बैठ गया और ‘सावन की घटा ‘ हिट हो गई।

रंगीन फ़िल्मों के ज़माने में एक बार फिर एक ब्लैक एण्ड व्हाइट फ़िल्म ये रात फिर ना आएगी में ओ.पी. नैय्यर ने विश्वजीत और शर्मिला टैगोर के लिये संगीत का बीड़ा उठाया और आशा भोसले की आवाज़ को आसमान की बुलंदियां प्रदान कर दीं। ‘मैं शायद तुम्हारे लिये अजनबी हूं’; ‘यही वो जगह है, यही वो समां है’; ‘हर टुकड़ा मेरे दिल का देता है गवाही’; और फिर मीनू पुरषोत्तम के साथ एक दोगाना – ‘हुज़ूरे वाला, जो हो इजाज़त...’ हर सिने दर्शक इन गीतों को गुनगुना रहा था। इस फ़िल्म में आशा भोसले की आवाज़ में लता मंगेशकर की ‘महल’ और ‘बीस साल बाद’ वाला इफ़ेक्ट पैदा करने की सफल कोशिश की गई है।

ओ.पी. नैय्यर की अगली तीन उल्लेखनीय फ़िल्में हैं ‘नसीहत’ (दारा सिंह – 1967), ‘हमसाया’ (जॉय मुखर्जी – 1968) एवं ‘किस्मत’ (विश्वजीत, बबिता – 1969)। हालांकि इन फ़िल्मों के मुख्य गीत महेन्द्र कपूर को ही मिले मगर हमेशा की तरह आशा भोसले की खनकती आवाज़ हर फ़िल्म की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। नसीहत में महेन्द्र कपूर के ‘ज़रा देखिये मेरी सादग़ी’ के मुक़ाबले में आशा भोसले कहती हैं, “कभी हमारी मुहब्बत का इम्तिहान ना लो।” इस फ़िल्म में आशा भोसले हेलेन के लिये भी एक गीत गाती हैं, “मुझको दीवाना ना कर... ”।

हमसाया’ में मुहम्मद रफ़ी एक बार फिर ओ.पी. के पास वापिस आते हैं और गाते हैं – ‘दिल की आवाज़ भी सुन मेरे फ़साने पे ना जा...’ ज़ाहिर है कि ओ.पी. और रफ़ी का जादू हमेशा की तरह कामयाब है... मगर ओ.पी. का आशा भोसले के प्रति समर्पण संपूर्ण है। माला सिन्हा के लिये आशा भोसले को बेहतरीन नग़मे मिलते हैं – ‘वो हसीन दर्द दे दो, जिसे मैं गले लगा लूं’; ‘आ जा मेरे प्यार के सहारे कभी कभी’ (एक बार फिर मुमताज़ के ‘ये है रेश्मी ज़ुल्फ़ों की याद दिलाते हुए’); और ‘कितना हसीं है ये समां...’ ज़ाहिर है कि जॉय मुखर्जी के दिल में ‘एक मुसाफ़िर एक हसीना ‘ की यादें ताज़ा थीं और ओ.पी. नैय्यर ने उसके मुक़ाबले का संगीत ‘हमसाया ‘ में दिया भी।




किस्मत’ में ओ.पी. नैय्यर खुल कर खेले और लगभग ‘नया दौर’ वाले स्तर का संगीत दे दिया। ‘कजरा मुहब्बत वाला ‘ किसी भी स्तर पर ‘रेश्मी सल्वार कुर्ता जाली का को टक्कर देता है’। यहां फिर आशा भोसले का एक गीत जो कि नूर लखनवी का लिखा है सेंसुअसनेस को छूता हुआ रूहानी अहसास देता है – ‘आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूं....’

1969 की फ़िल्म ‘संबन्ध ‘ का सबसे लोकप्रिय गीत तो मुकेश को मिला जिसे ओ.पी. नैय्यर गायक नहीं मानते थे। शायद इसीलिये राजकपूर के लिये ‘दो उस्ताद’ में उन्होंने मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ का इस्तेमाल किया था। मगर ‘चल अकेला, चल अकेला’ मुकेश के बेहतरीन गीतों में शुमार किया जाएगा। किन्तु फिर भी आशा भोसले के हिस्से में ओ.पी. की धुन और कवि प्रदीप के शब्दों की जुगलबन्दी में दो उच्चकोटि के गीत आए... पहला ‘तुमको तो करोड़ों साल हुए, बतलाओ गगन गंभीर...’ और दूसरा ‘अपनी मां की किस्मत पर मेरे बेटे तू ना रो...’

1972 की फ़िल्म ‘एक बार मुस्कुरा दो’ में आशा भोसले का सोलो गीत एक भी नहीं। उनके दो गीत मुकेश के साथ हैं और दो किशोर कुमार के साथ। मुहम्मद रफ़ी एक बार फिर अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाते हैं। मगर यह फ़िल्म ओ.पी. नैय्यर के लिये कोई ख़ास उल्लेखनीय फ़िल्म नहीं कही जाएगी।

आशा भोसले ने अंतिम बार अपनी आवाज़ ओ.पी. नैय्यर के गीतों के लिये 1973 की फ़िल्म ‘प्राण जाए पर वचन ना जाए ‘ के लिये दी। इस फ़िल्म का गीत ‘चैन से हमको सनम, आप ने जीने ना दिया...’ एक तरह से आशा भोसले की तरफ़ से ओ.पी. नैय्यर साहब से एक शिकायत है। इस गीत के शब्द उनके रिश्ते की पूरी दास्तान कह देते हैं।... “आपका ग़म जो इस दिल में दिन रात अगर होगा / सोचके ये दम घुटता है फिर कैसे गुज़र होगा / काश ना होती अपनी जुदाई मौत ही आ जाती / कोई बहाने चैन हमारी रूह तो पा जाती / इक पल हंसना कभी दिल की लगी ने ना दिया / ज़हर भी चाहा अगर पीना तो पीने ना दिया।” वैसे इस फ़िल्म में आशा भोसले के छः सोलो गीत हैं। जिनमें ‘इक तूं है पिया, जिसपे दिल आ गया’, और ‘आ के दर्द जवां है’ आज तक सुनने वालों को याद हैं।

वैसे आशा भोसले को रवि, मदन मोहन और शंकर जयकिशन ने भी कुछ अविस्मरणीय गीत दिये हैं। मदन मोहन ने कम से कम सवा सौ गीत आशा भोसले से गवाए जिनमें ‘झुमका गिरा रे, बरेली के बाज़ार में’ पूरे देश में धूम मचाने वाला गीत बन कर आया। उसके अलावा ‘अश्कों से तेरी हमने तस्वीर बनाई है’ (देख कबीरा रोया), ‘जा जा रे जा साजना’ (अदालत), ‘सबा से ये कह दो के कलियां बिछाएं’ (बैंक मैनेजर), ‘थोड़ी देर के लिये मेरे हो जाओ’ (अकेली मत जाइयो) और ‘शोख़ नज़र की बिजलियां’ (वोह कौन थी) कुछ अन्य महत्वपूर्ण गीत हैं।

शंकर जयकिशन के गीत ‘पर्दे में रहने दो पर्दा ना उठाओ’ (शिकार) के लिये आशा भोसले को सर्वश्रेष्ट गायिका का फ़िल्मफ़ेयर सम्मान मिला था। इस संगीत जोड़ी ने 1949 से लेकर 1986 तक आशा भोसले की आवाज़ का ढेरों फ़िल्मों में भरपूर इस्तेमाल किया। जयकिशन लता मंगेशकर की आवाज़ के पुजारी थे तो शंकर को हमेशा लगता था कि यदि धुन में जान है और शब्द मज़बूत हैं तो गाना चाहे कोई भी गाए, हिट होगा ही। शंकर ने अपनी धुनों पर सुमन कल्याणपुर, और आशा भोसले की आवाज़ का इस्तेमाल किया। शारदा को लता के मुकाबले में लाने की धृष्टता की। मगर आशा भोसले को ‘बूट पॉलिश’, ‘अन्दाज़’, ‘कल आज और कल’, ‘हरे कांच की चूड़ियां’, ‘प्यार ही प्यार’ आदि में कुछ अविस्मरणीय गीत दिये।

अगर किसी अन्य संगीतकार ने ओ.पी. नैय्यर के मुकाबले में आशा भोसले की आवाज़ का इस्तेमाल किया है तो उसका नाम है रवि शर्मा। रवि नाम से लोकप्रिय संगीतकार ने ‘ये रास्ते हैं प्यार के’, ‘गुमराह’, ‘वक़्त’, ‘दस लाख ‘, ‘दो बदन’, ‘एक फूल दो माली’, ‘आदमी और इन्सान’, ‘इंसाफ़ का तराज़ू’, ‘तवायफ़’, ‘धुंध’ जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्मों में आशा भोसले की आवाज़ को फ़िल्म की नायिका की आवाज़ बनाया। ‘आगे भी जाने ना तूं’, ‘ग़रीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा’, ‘जब चली ठण्डी हवा’, ‘मत जाइयो नौकरिया छोड़ के’, ‘इन हवाओं में ‘, ‘लोग औरत को फक़त जिस्म समझ लेते हैं ‘, ‘चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है... ‘ जैसी ख़ूबसूरत गीतों की एक लम्बी क़तार है।






ओ.पी. नैय्यर ने जब आशा भोसले को अपने साथ जोड़ा उस समय वह संघर्षरत गायिका थी। मगर जब आशा ने राहुल देव बर्मन का साथ पकड़ा उस समय आशा भोसले राहुल देव बर्मन से बड़ी कलाकार थी। ख़य्याम के लिये उमराव जान में मुजरे और ग़ज़लें गा चुकी थीं। और राहुल देव बर्मन की दिक्कत यह थी कि वह अपनी बेहतरीन धुनें हमेशा लता मंगेशकर के लिये संभाल कर रखते थे। ज़ाहिर है कि आशा भोसले के लिये एक नया स्लॉट तो ढूंढना ही पड़ेगा। यह स्लॉट बना पिया तू अब तो आजा, दम मारो दम, सपना मेरा टूट गया जैसे गानों के ज़रिये। यानि कि आशा भोसले हेलेन की आवाज़ के रूप में उभरीं।

अब आशा भोसले की भारतीय मिट्टी वाली पहचान बदल कर पश्चिमी आवाज़ वाली पहचान बनने लगी। दुनियां में लोगों को धोखा कभी हो जाता है... जैसे गीत आशा की झोली में पड़ने लगे। आशा के गीतों से भारतीय आत्मा जैसे ग़ायब होती जा रही थी... यह तो अच्छा है कि दूसरे संगीतकार ऐसा नहीं सोचते थे। ए.आर. रहमान ने आशा भोसले की आवाज़ के महत्व को स्वीकार किया और उसका बेहतरीन इस्तेमाल किया। मगर आर.डी. बर्मन के पास उनके लिये केवल लता मंगेशकर से बची हुई धुनें ही थीं। अपनी पहली ही फ़िल्म छोटे नवाब के लिये अपना पहला राग-आधारित गीत घर आजा घिर आए बदरा सांवरिया को लता मंगेशकर से गवाने के बाद वे हमेशा अपनी बेहतरीन धुनों और गीतों के लिये लता की ओर ही देखते थे।

अमर प्रेम, आंधी, किनारा, परिचय, शोले, पड़ोसन, लव स्टोरी, आंचल, कुदरत, अगर तुम ना होते, महबूबा और 1942 – लव स्टोरी जैसी सभी फ़िल्मों में राहुल देव बर्मन की पहली पसन्द लता मंगेशकर ही रही। आशा भोसले के लिये पंचम दा ने कुछ विशेष तरह की धुनें ही इस्तेमाल कीं।

कुछ इस तरह कहा जा सकता है कि ओ.पी. नैय्यर के संगीत में आशा नटखट, शोख़, भारतीय मिट्टी से जुड़ी खनकती आवाज़ हौ तो राहुल देव बर्मन के यहां वह प्रोफ़ेशनल नर्तकी, शरीर, विदेशी आवाज़ बन जाती है।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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