भवतु सब्ब मंगलं — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना



विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 4

तपस्या बहुत कठिन लगने लगी थी। रात को 9 बजे से लेकर सुबह 4 बजे तक सोने के वक्त को छोड़कर लगातार व्यस्तता। व्यस्तता भी ऐसी, जो बोझिल हो। सुबह सबेरे घंटा बजता। घंटा अगर जगाने में सफल नहीं हुआ तो घंटी वाले बाबा टपक पड़ते थे। चार बजे अगर किसी व्यक्ति के कमरे की लाइट नहीं जली रहती तो वह कमरा घंटी बाबा के खास निशाने पर रहता था। वहां लंबे समय तक रुककर घंटी बजा देते थे। मैं बहंटिया कर सोने की कवायद करता तो घंटी बाबा लौटकर भी घंटी टुनटुनाने लगे। घंटी बाबा के पास छोटी घंटी होती थी। वह तब तक घंटी बजाते रहते थे, जब तक कि आप आजिज होकर उठ न जाएं।







सुबह साढ़े चार बजे मेडीटेशन हॉल यानी ध्यान केंद्र में पहुंचने का क्रम जारी रहा। बदलाव यह आया कि पहले रोज किसी तरह काटने के बाद दूसरा दिन और बोझिल हो गया था। सिर्फ मुझे ही बोझिल नहीं लग रहा था। साथ में विपश्यना कर रहे दो चोटी वाले युवकों की चोटी पर भी असर पड़ गया। जूड़े वाली चोटी खुल चुकी थी। पोनी वाली चोटी भी खुलकर सामान्य बाल में तब्दील हो चुकी थी। सभी लोग किसी तरह से तपस्या कर रहे थे। सुबह सबेरे की दो घंटे की तपस्या किसी तरह कटी और आखिरकार साढ़े छह बजा और भवतु सब्ब मंगलं हो गया।

उस समय मुझे पत्नी बहुत याद आईं। संभवतः उन्होंने कुछ लोगों से और इंटरनेट से जानकारी हासिल कर ली थी कि वहां हाफ पैंट नहीं चलता। फुल पाजामा या पैंट पहनना होता है।
ऑपरेशन के पहले भूजा मेरा सबसे फेवरेट था। ऑफिस में भी रोज एक बुढ़ऊ चाचा के ठेले से लइया, चना, नमक और मिर्च ले आता था। वही मेरा नाश्ता होता था photo: annestravelandphotography

दूसरे दिन कपड़े देने थे धुलने के लिए। तत्काल भागकर गया नाश्ता करने। नाश्ता करने के बाद नहाया, नहाने के बाद सोने की कवायद। साढ़े सात बजे उठकर फिर भोजनालय की ओर भागते पहुंचा, क्योंकि धुलाई के लिए कपड़े देने का वक्त पौने आठ बजे तक ही निर्धारित था। वहां कपड़ा देने के बाद यह भी पूछ लिया कि कितने बजे तक धुलाई के लिए कपड़ा दिया जा सकता है। धम्म सेवक से पूछा, क्योंकि वह व्यवस्था संबंधी सवाल था। धम्म सेवक ने 15 मिनट का  राहत दिया और बताया कि 8 बजे तक कपड़े देने पर दूसरे दिन सुबह मिल जाता है, लेकिन उससे ज्यादा देरी करने पर मुश्किल होती है। उस समय मुझे पत्नी बहुत याद आईं। संभवतः उन्होंने कुछ लोगों से और इंटरनेट से जानकारी हासिल कर ली थी कि वहां हाफ पैंट नहीं चलता। फुल पाजामा या पैंट पहनना होता है। उन्होंने मुझे कहे बगैर ही 3 पायजामे और 3 जांघिया बनियान रख दिए थे। उन पायजामों में 2 वेस्टर्न स्टाइल के एलास्टिक वाले पायजामे थे, जो बहुत ही आरामदेह साबित हुए। एक गांधी आश्रम का डोरी वाला पायजामा था। थोड़ी असुविधा के साथ वह भी सुविधाजनक था। वर्ना मैंने तो जबरी हाफ पैंट रखवाई थी, जो ध्यान करने के लिए अनुमति प्राप्त कपड़ा नहीं था। वह किसी काम का साबित नहीं हुआ। पायजामे, टीशर्ट, कुर्ता, जांघिया-बनियान पर्याप्त संख्या में थे, जिससे कि बारी बारी से उसे धुलाई के लिए दिया जा सके। अगर धुलाई में मामला फंसे तो एक जोड़ा कमरे पर मौजूद रहे। हालांकि ऐसा कभी हुआ नहीं। मैं 8 बजे कपड़े दे देता था और दूसरे रोज उसी समय, उसी जगह कार्यालय के सामने बिछी चौकियों पर कपड़े मिल जाते।

कभी इगतपुरी में बारिश, झरने, पहाड़ियों का आनंद लेने जाना हो तो रेन कोट और छाता दोनों लेकर जाना जरूरी है।

बारिश लगातार हो रही थी। जिस दिन मैं इगतपुरी पहुंचा, उस रोज भी। वहां के लोगों ने भी बताया कि 15-20 दिन से ऐसे ही बारिश हो रही है। हालांकि लोगों का कहना था कि यहां पहाड़ी पर ज्यादा बारिश हो रही है, लेकिन निचले इलाके में बिल्कुल बारिश नहीं हो रही है। विपश्यना के शांति पठार पर तो बारिश ने राहत ही न दी। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि बारिश नहीं हो रही थी और मैं बगैर छाता लिए पेशाब करने चला गया। उतने में बारिश शुरू हो गई और शौचालय से धम्म हॉल के बीच की करीब 300 मीटर दूरी भीगते हुए तय करनी पड़ी। ऐसी स्थिति में अगर कभी हल्की धूप भी नजर आती थी तो छाता लेकर ही कमरे से बाहर निकलना होता, जिससे भीगने के खतरे से बचा जा सके। साथ ही यह भी अहसास हुआ कि कभी इगतपुरी में बारिश, झरने, पहाड़ियों का आनंद लेने जाना हो तो रेन कोट और छाता दोनों लेकर जाना जरूरी है। अगर बारिश तेज हो रही हो तो छाते से उसे संभालना मुश्किल है। इस खूबसूरत बारिश में अगर पहाड़ियों पर घूमना है, झरनों का पूर्ण आनंद लेना है और बारिश एन्जॉय करना है तो छाता और रेनकोट बहुत जरूरी है। यह भी फीलिंग आई कि इस बारिश में अगर नव विवाहित जोड़ा आता है, हनीमून के लिए, तो वह प्रकृति का ज्यादा आनंद ले सकता है। तेज बारिश और उसी में रेनकोट पहने, छाता लिए, एक दूसरे का हाथ थामे घूमने का आनंद। यह कल्पना ही भीतर से गुदगुदाती रही।


विपश्यना में शाम 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए बिल्कुल बोझिल नहीं होता था। उसमें एक अच्छाई और जुड़ गई थी कि शुरुआत में एक घंटे ध्यान के बाद भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। फिर गोयनका जी का डेढ़ घंटे का भाषण चलता था, जो खासा मनोरंजन कराने वाला, ज्ञानवर्धक और राहत देने वाला होता था।




धुलाई के लिए कपड़े देने के बाद हॉल में वापस आ गया। मैंने बड़ी मेहनत से ध्यान लगाया। दिल में यह बात थी कि दो घंटे तक ध्यान करने के बाद असिस्टेंट टीचर कमरे पर ध्यान करने को भेज देंगे। उसके बाद आराम से मैं जाकर कमरे पर सो जाऊंगा। लेकिन दूसरे दिन धोखा हो गया। असिस्टेंट टीचर ने नए साधकों को कुछ नहीं कहा। पुराने साधकों के लिए जरूर कहा कि जो लोग यहां ध्यान करना चाह रहे हों, यहां ध्यान करें। अगर पगोडा के शून्यागार में ध्यान करना चाह रहे हों तो वहां भी ध्यान करने को जा सकते हैं।

photo: annestravelandphotography
शून्यागार और ध्यान। यह मेरे लिए नया था। हालांकि पगोडा, शून्यागार और ध्यान के बारे में डॉक्यूमेंट्री देख चुका था, लेकिन वह केवल थियरी थी। प्रैक्टिकल में नहीं देखा था कि शून्यागार क्या होता है और कैसे ध्यान किया जाता है। नए साधकों को वहीं बैठे रहने दिया गया। इस तरह से 8 बजे से लेकर 11 बजे तक तीन घंटे तक का लंबा वक्त कुछ ज्यादा ही भारी पड़ गया। तमाम लोगों ने कमर दर्द की बात बताकर कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने की अनुमति ले ली। कुछ लोगों को वहीं आसन पर ही एक कुर्सी नुमा आसन मिल गया। उस पर पालथी मारकर बैठे रहने के बाद पीछे पीठ टिकाया जा सकता था। हालांकि मेरे खयाल में यह नहीं आया कि कुर्सी या अर्ध कुर्सी ली जाए, जिस पर पैर लटकाकर बैठने व पीठ टिकाने या पीठ टिकाने वाली सुविधा मिल सके। 11 बजे तक किसी तरह कट गया। समय पूरा होते ही हम भोजनालय की तरफ भागे। खाना खाने की जल्दबाजी इसलिए थी कि जल्दी से कमरे पर पहुंच जाएंगे। उसके बाद डेढ़ घंटे आराम करने का मौका मिल जाएगा। जल्दी भागकर खाना खाने का लाभ यह हुआ कि मैं 11.45 तक कमरे पर पहुंच गया। मेरे पास सोने के लिए करीब सवा घंटे का वक्त मिल गया।

लेकिन साढ़े बारह बजे मेरी खुशी काफूर हो गई। बहुत गहरी नींद में था, उसी समय दरवाजा पीटे जाने की आवाज आई। मैं अचकचाकर उठा। दरवाजा खोला तो सामने एक मोटे से धम्म सेवक खड़े थे। उन्होंने हाथ जोड़े। कहा कि गुरु जी ने अभी आपको बुलाया है। मुझे समझ में न आया कि कौन सी आफत आ गई। यह अचानक बुलावा क्यों आ गया। धम्म सेवक से पूछा कि कहां बुलाया है ? मुझे बताया गया कि जिस हॉल में ध्यान करते हैं, वहीं अभी पहुंचें। मैं हड़बड़ाया सा उखड़ा उखड़ा जल्दी जल्दी कपड़े पहनकर मेडीटेशन हॉल में पहुंच गया। वहां कुछ लोग पहले ही गुरु जी से ज्ञान ले रहे थे। मैं भी बैठ गया। पौने एक बजे गुरु जी के पास जाने की मेरी बारी आई। गुरु जी आसन पर ऊपर बैठे रहते और साधक को नीचे बैठाया जाता। यह व्यवस्था मुझे कुछ खास नहीं जंची कि आखिर साधक को नीचे और गुरु जी को मचान पर काहे को बैठाया गया है। लेकिन व्यवस्था का सवाल था। उनके चौकी नुमा आसन के गोड़े के पास नीचे मैं बैठ गया। उन्होंने पूछा कि कैसा चल रहा है?

मैंने बहुत साफ साफ बताया कि कुछ खास नहीं चल रहा है। गुरु जी ने पूछा कि ध्यान में मन लगता है? मैंने कहा, “कुछ देर तो लगता है, फिर इधर उधर की बातें सोचने लगता हूं।“ यह पूछने पर कि सांस का आना जाना फील होता है, मैंने साफ मना कर दिया। गुरु जी को बताया कि बिल्कुल महसूस नहीं होता, जब तेज तेज सांस लेता हूं तो जरूर थोड़ा सा मूंछ के बाल पर और अंदर आती जाती सांस फील होती है। उसके अलावा नाक की आंतरिक त्वचा पर किसी खास तरह की अनुभूति होती हो, ऐसा कुछ भी नहीं है। गुरु जी ने कहा कि अच्छा है, सांस अगर महसूस न हो तो तेजी से सांस ले लिया करें। धीरे धीरे कंसंट्रेशन बन जाएगा। शुरुआत में दिक्कत होती है। फिर कंसंट्रेशन बनने लगता है। फिलहाल इतनी सी वार्ता हुई । उन्होंने कहा कि जाकर आराम करें। शायद गुरु जी को ऐसा फील हुआ कि बंदे को सोते में जगा दिया गया है और काफी गुस्से में है।


अब आराम क्या करता। एक बजे से ध्यान का सत्र शुरू होने वाला था और सिर्फ 10 मिनट बाकी रह गए थे। मैं बाहर निकल गया। वह 10 मिनट मेरे लिए प्रकृति की खूबसूरती देखने का वक्त था। मैं उस 10 मिनट में कई गलियों में घूमा, जहां पहले नहीं गया था। एक मुख्य पगोडे के साथ वहां दो पगोडे और दिखे। उन्हें देखने के बाद याद आया कि नेट पर तपोवन 1 और तपोवन 2 के लिए भी बुकिंग हो रही थी, जिनके लिए वे दोनों पगोडा बने हुए थे। रास्ते में घूमते हुए कुछ महिला कर्मी भी मिलीं जो झाड़ू लगाने और गिरे हुए पत्तों को साफ करने का काम कर रही थीं। साथ ही बादलों के बीच ढंकी सामने की पहाड़ियां भी अद्भुत अहसास दे रही थीं। ध्यान की बोरियत के बीच प्रकृति के सौंदर्य को 10 मिनट देखकर मैं खासा रिफ्रेश फील कर रहा था।

ध्यान का वक्त होने पर मैं फिर हॉल में आ गया। ढाई बजे तक अपनी मर्जी के मुताबिक ध्यान करने के बाद असिस्टेंट टीचर ने टेप चलाया। एक घंटे का सामूहिक ध्यान शुरू हुआ (हालांकि उसके पहले भी हॉल में सामूहिक ध्यान ही था) इस ध्यान में गोयनका जी की रनिंग कमेंट्री सुनाई जाती थी। उन्होंने ध्यान के तरीके मे थोड़ा बदलाव किया। उन्होंने कहा कि सांस लेने की वजह से नाक के नीचे ऊपरी होठों पर जो तिकोना सा हिस्सा बन रहा है, वहां पर ध्यान केंद्रित करें। महसूस करें कि ऊपरी होठों के उस तिकोने से हिस्से पर सांस और उसके अलावा भी किस तरह का अहसास हो रहा है।




अब मामला थोड़ा मनोरंजक लगा। आती जाती सांस को महसूस करने से इतर नाक के नीचे और ऊपरी होठ पर जो तिकोना हिस्सा बन रहा था, वहां संवेदनाओं को महसूस करना था। गोयनका जी ने बताया कि गर्मी, सर्दी, खुजलाहट, सनसनाहट जो भी कुछ महसूस हो, उसे महसूस करें। यह महसूसना साढ़े तीन बजे तक चला। भवतु सब्ब मंगलं हो गया। उसके बाद असिस्टेंट टीचर ने लोगों को बुलाना शुरू किया। हॉल में बैठे लोगों का 6-6 लोगों का बैच बना और कहा गया कि आइंदा बैच नंबर बुलाने पर आप लोग आ जाएंगे, नाम लेकर किसी को नहीं बुलाया जाएगा।

बुलाए गए 6 लोग ठीक उसी तरह से असिस्टेंट टीचर के सामने बैठ गए, जैसा कि सारनाथ में बुद्ध अपने 5 शिष्यों को संदेश देते हुए बैठे हैं। बुद्ध को ऊंचे आसन पर पालथी मारे दिखाया गया है, जबकि शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य उनके सामने नीचे जमीन पर बैठे हैं। कुछ उसी स्टाइल में 6 साधकों को, 3 आगे और 3 उनके पीछे बिठाया गया और असिस्टेंट टीचर चौकी पर विराजमान थे। मैं आगे ही बैठा था। गुरु जी ने पूछा कि कैसा ध्यान चल रहा है। मैंने बड़ी साफगोई से कहा कि बकवास है बिल्कुल। ध्यान वगैरा कहीं केंद्रित नहीं होता है। अन्य लोगों से भी पूछा गया तो कुछ ने तो लाज लिहाज में बताया कि ध्यान केंद्रित हो रहा है और मूंछ के पास वाले इलाके में अनुभूति भी आ रही है। हालांकि मेरे अलावा एक सज्जन और थे, जिन्होंने बताया कि कोई केंद्रण नहीं होता है। आधे आधे घंटे तक कुछ और सोचते बीत जाता है। उनको गुरु जी ने वही फार्मूला बताया कि कुछ देर तक तेज तेज सांस लेकर संवेदना महसूस करें। इतने लंबे वक्त तक संवेदना महसूस न करना और दूसरी सोच में पड़े रहना सही नहीं है।




गुरुजी के साथ यह खुसुर-फुसुर पूरी हुई। गुरुजी इतना धीरे से बोलते थे कि आवाज सामने बैठे 6 लोगों को ही सुनाई दे। अन्य लोग हॉल में ध्यान करते रहें। उन्होंने कहा कि अब आप लोग जाएं। दूसरे ग्रुप को बुलाने के लिए वह मुखातिब हुए। मैंने सोचा भी नहीं कि जाएं का मतलब अपने आसन पर बैठने से है या कुछ और। मैं सरपट उस ध्यान केंद्र से बाहर निकल गया और कमरे में सोने के लिए चला गया। अच्छी नींद आई। सोकर उठा तो नाश्ता करने चला गया। नाश्ते में वही नमकीन मिक्चर वाला भूजा, केले औऱ दूध। दूसरे रोज भूजा खाने की कोशिश की, लेकिन वह खाना मेरे मुंह के लिए बहुत कष्टकर था। हालांकि ऑपरेशन के पहले भूजा मेरा सबसे फेवरेट था। ऑफिस में भी रोज एक बुढ़ऊ चाचा के ठेले से लइया, चना, नमक और मिर्च ले आता था। वही मेरा नाश्ता होता था। लेकिन विपश्यना केंद्र में खाने की दिक्कत की वजह से वह लाई भूजा मुझे बिल्कुल रास न आया। चार केले खाने के बाद दो गिलास हल्दी वाला दूध पीकर मैं निकल आया।

शाम के 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए कठिन नहीं लगता था। इसकी एक वजह यह थी कि यही वह समय है, जब हम लोग ऑफिस में मैक्सिमम टॉर्चर होते हैं। पहले कहावत सुनी थी कि मूतने की फुर्सत नहीं है, लेकिन कार्यालय के इस वक्त में मैंने अहसास किया कि मूतने की फुर्सत न होना क्या होता है। इस दौरान हालत यह रहती है कि अगर पहले मूतना भूल गए हैं तो ऐसा लगता है कि पेट के नीचे वाला पोर्शन जहां पेशाब जमा होता है, वह फट जाएगा और पेशाब बाहर आ जाएगा। लेकिन मजाल क्या है कि 6 से 9 बजे के बीच मूतने का मौका निकल पाए। उसके बाद काम खत्म होने पर पेशाब करने जाना होता है। उस समय पेशाब करने की दिव्य अनुभूति होती है। ऐसा लगता है कि कितने बोझ के नीचे दबे थे। सारा तनाव आराम से रिलीज किया जाता है। गजब की राहत मिलती है। ऑफिस में ऐसे अनुभव से गुजरने के बाद विपश्यना में शाम 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए बिल्कुल बोझिल नहीं होता था। उसमें एक अच्छाई और जुड़ गई थी कि शुरुआत में एक घंटे ध्यान के बाद भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। फिर गोयनका जी का डेढ़ घंटे का भाषण चलता था, जो खासा मनोरंजन कराने वाला, ज्ञानवर्धक और राहत देने वाला होता था। उसके बाद महज आधे घंटे के ध्यान के बाद एक बार फिर भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। हम लोग साधु साधु कहते थे और उसके बाद कराहती, लरजती आवाज आती थी। विश्राम करें, टेक रेस्ट। भवतु सब्ब मंगलं का किस्सा भी गोयनका जी ने साफ किया। उन्होंने बताया कि भवतु सब्ब मंगलं का अर्थ होता है कि मेरे इस कार्य से सबका कल्याण हो। फिर शिष्य गण साधु साधु साधु कहते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि ऐसी ही मेरी कामना है।

पढ़ें भाग 5


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-09-2017) को रजाई ओढ़कर सोता, मगर ए सी चलाता है; चर्चामंच 2739 पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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